Font by Mehr Nastaliq Web

सूरदास की झोंपड़ी

surdaas ki jhonpadi

प्रेमचंद

प्रेमचंद

सूरदास की झोंपड़ी

प्रेमचंद

और अधिकप्रेमचंद

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    हिंदवी

    रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात् सूरदास की झोंपड़ी से ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएँ लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण-कलश का-सा हो जाता था, कभी वे वायु के झोंकों से यों कंपित होने लगती थीं, मानो जल में चाँद का प्रतिबिंब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था पर झोंपड़े की आग, ईर्ष्या की आग की भाँति कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यों ही शोर मचा रहा था  किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्यपूर्ण दृष्टि से अग्निदाह को देख रहे थे, मानो किसी मित्र की चिताग्नि है। 

    सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया। बजरंगी ने पूछा—यह कैसे लगी सूरे, चूल्हे में तो आग नहीं छोड़ दी थी?

    सूरदास—झोंपड़े में जाने का कोई रास्ता ही नहीं है?

    बजरंगी—अब तो अंदर-बाहर सब एक हो गया है। दीवारें जल रही हैं।

    सूरदास—किसी तरह नहीं जा सकता?

    बजरंगी—कैसे जाओगे? देखते नहीं हो, यहाँ तक लपटें आ रही हैं!

    जगधर—सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था?

    नायकराम—चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।

    जगधर—पंडाजी, मेरा लड़का काम न आए, अगर मुझे कुछ भी मालूम हो। तुम मुझ पर नाहक सुभा करते हो।

    नायकराम—मैं जानता हूँ जिसने लगाई है। बिगाड़ न दूँ, तो कहना। 

    ठाकुरदीन—तुम क्या बिगाड़ोगे, भगवान आप ही बिगाड़ देंगे। इसी तरह जब मेरे घर में चोरी हुई थी, तो सब स्वाहा हो गया।

    जगधर—जिसके मन में इतनी खुटाई हो, भगवान उसका सत्यानाश कर दें।

    सूरदास—अब तो लपट नहीं आती। 

    बजरंगी—हाँ, फूस जल गया, अब धरन जल रही है।

    सूरदास—अब तो अंदर जा सकता हूँ? 

    नायकराम—अंदर तो जा सकते हो; पर बाहर नहीं निकल सकते। अब चलो आराम से सो रहो जो होना था, हो गया। पछताने से क्या होगा?

    सूरदास—हाँ, सो रहूँगा, जल्दी क्या है!

    थोड़ी देर में रही-सही आग भी बुझ गई। कुशल यह हुई कि और किसी के घर में आग न लगी। सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया। किंतु सूरदास अब भी वहीं बैठा हुआ था। उसे झोंपड़े के जल जाने का दुःख न था, बरतन आदि के जल जाने का भी दुःख न था; दुःख था उस पोटली का, जो उसकी उम्र भर की कमाई थी, जो उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी, जो उसकी सारी यातनाओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी सी पोटली में उसका, उसके पितरों का और उसके नामलेवा का उद्धार संचित था। यही उसके लोक और परलोक, उसकी दीन-दुनिया का आशा-दीपक थी। उसने सोचा—पोटली के साथ रुपए थोड़े ही जल गए होंगे? अगर रुपए पिघल भी गए होंगे, तो चाँदी कहाँ जाएगी? क्या जानता था कि आज यह विपत्ति आने वाली है, नहीं तो यहीं न सोता! पहले तो कोई झोंपड़ी के पास आता ही न और अगर आग लगाता भी, तो पोटली को पहले ही निकाल लेता। सच तो यों है कि मुझे यहाँ रुपए रखने ही न चाहिए थे। पर रखता कहाँ? मुहल्ले में ऐसा कौन है, जिसे रखने को देता? हाय! पूरे पाँच सौ रुपए थे, कुछ पैसे ऊपर हो गए थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे-पैसे बटोर रहा था? खा लिया होता, तो कुछ तस्कीन होती। क्या सोचता था और क्या हुआ! गया जाकर पितरों को पिंडा देने का इरादा किया था। अब उनसे कैसे गला छूटेगा? सोचता था, कहीं मिठुआ की सगाई ठहर जाए, तो कर डालूँ। बहू घर में आ जाए, तो एक रोटी खाने को मिले! अपने हाथों ठोंक-ठोंककर खाते एक जुग बीत गया। बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे-जैसे हाथ में रुपए आते, एक-एक काम पूरा करता जाता। बहुत पाँव फैलाने का यही फल है!

    उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर झोंपड़े में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकाएक पाँव भूबल में पड़ गया। ऊपर राख थी, लेकिन नीचे आग। तुरंत पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने-पलटने लगा, जिससे नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आध घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी, और तब फिर डरते-डरते राख में पैर रखा। राख गर्म थी, पर असहा न थी। उसने उसी जगह की सीध में राख को टटोलना शुरू किया, जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपए मिलें या न मिलें, पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज़ हाथ लगी। उठा लिया; पर टटोलकर देखा, तो मालूम हुआ ईंट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा, जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटोले। कोई चीज़ हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक-एक मुट्ठी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिला, तवा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर, जो अब तक सीढ़ी पर था, फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख़ निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख-बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दुःख उसे कभी न हुआ था।

    तड़का हो गया, सूरदास अब राख के ढेर को बटोरकर एक जगह कर रहा था। आशा से ज़्यादा दीर्घजीवी और कोई वस्तु नहीं होती। 

    उसी समय जगधर आकर बोला—सूरे, सच कहना, तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं है?

    सूरे को सुभा तो था, पर उसने इसे छिपाकर कहा—तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूँगा? तुमसे मेरी कौन सी अदावत थी?

    जगधर—मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगे, पर मैं भगवान से कहता हूँ, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।

    सूरदास—अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। कौन जाने, किसी ने लगा दी या किसी की चिलम से उड़कर लग गई? यह भी तो हो सकता है कि चूल्हे में आग रह गई हो। बिना जाने-बूझे किस पर सुभा करूँ?

    जगधर—इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं भी न मारा जाऊँ।

    सूरदास—तुम्हारी तरफ़ से मेरा दिल साफ़ है।

    जगधर को भैरों की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि यह उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुलाने की बात कही थी। उस धमकी को इस तरह पूरा किया। वह वहाँ से सीधे भैरों के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल का हुक्का पी रहा था, पर मुख से चिंता और घबराहट झलक रही थी। जगधर को देखते ही बोला—कुछ सुना; लोग क्या बातचीत कर रहे हैं?

    जगधर—सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते हैं। नायकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी।

    भैरों—यहाँ ऐसी धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाई?

    जगधर—सच कहो, तुम्हीं ने लगाई?

    भैरों—हाँ, चुपके से एक दियासलाई लगा दी।

    जगधर—मैं कुछ-कुछ पहले ही समझ गया था पर यह तुमने बुरा किया। झोपड़ी जलाने से क्या मिला? दो-चार दिन में फिर दूसरी झोपड़ी तैयार हो जाएगी।

    भैरों—कुछ हो, दिल की आग तो ठंडी हो गई! यह देखो!

    यह कहकर उसने एक थैली दिखाई, जिसका रंग धुएँ से काला हो गया जगधर ने उत्सुक होकर पूछा—इसमें क्या है? अरे! इसमें तो रुपए भरे हुए हैं।

    भैरों—यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना है।

    जगधर—सच बताओ, ये रुपए कहाँ मिले?

    भैरों—उसी झोंपड़े में। बड़े जतन से धरन की आड़ में रखे हुए थे। पाजी रोज़ राहगीरों को ठग–ठगकर पैसे लाता था और इसी थैली में रखता था। मैने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपए जमा हो गए। बच्चू को इन्हीं रुपयों को गर्मी थी। अब गर्मी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। बिरादरी को भोज-भात देने का सामान हो गया। नहीं तो इस बखत रुपए कहाँ मिलते? आजकल तो देखते ही हो, बल्लमटेरों के मारे बिकरी कितनी मंदी है।

    जगधर—मेरी तो सलाह है कि रुपए उसे लौटा दो। बड़ी मसक़्क़त की कमाई है। हज़म न होगी। जगधर दिल का खोटा आदमी नहीं था; पर इस समय उसने यह सलाह उसे नेकनीयती से नहीं, हसद से दी थी। उसे यह असह्य था कि भैरों के हाथ इतने रुपए लग जाएँ। भैरों आधे रुपए उसे देता, तो शायद उसे तस्कीन हो जाती पर भैरों से यह आशा न की जा सकती थी। बेपरवाही से बोला—मुझे अच्छी तरह हज़म हो जाएगी। हाथ में आए हुए रुपए को नहीं लौटा सकता। उसने तो भीख माँगकर ही जमा किए हैं, गेहूँ तो नहीं तौला था।

    जगधर—पुलिस सब खा जाएगी।

    भैरों—सूरे पुलिस में न जाएगा। रो-धोकर चुप हो जाएगा।

    जगधर—ग़रीब की हाय बड़ी जानलेवा होती है।

    भैरों—वह ग़रीब है! अंधा होने से ही ग़रीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपए जमा हों, जो दूसरों को रुपए उधार देता हो, वह ग़रीब है? ग़रीब जो कहो, तो हम-तुम हैं। घर में ढूँढ़ आओ, एक पूरा रुपया न निकलेगा। ऐसे पापियों को ग़रीब नहीं कहते। अब भी मेरे दिल का काँटा नहीं निकला। जब तक उसे रोते न देखूँगा, यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।

    जगधर का मन आज खोंचा लेकर गलियों का चक्कर लगाने में न लगा। छाती पर साँप लोट रहा था—इसे दम-के-दम में इतने रुपए मिल गए, अब मौज उड़ाएगा। तक़दीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी न मिला। पाप-पुन्न की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिनभर पुन्न किया करता हूँ? दमड़ी-छदाम-कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ! बाट खोटे रखता हूँ, तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ नहीं लगता। जानता हूँ, यह बुरा काम है पर बाल-बच्चों को पालना भी तो ज़रूरी है। इसने ईमान खोया, तो कुछ लेकर खोया गुनाह बेलज़्ज़त नहीं रहा। अब दो-तीन दुकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो ज़िंदगानी सुफल हो जाती।

    जगधर के मन में ईर्ष्या का अंकुर जमा। वह भैरों के घर से लौटा तो देखा कि सूरदास राख को बटोरकर उसे आटे की भाँति गूँथ रहा है। सारा शरीर भस्म से ढका हुआ है और पसीने की धारें निकल रही हैं। बोला—सूरे, क्या ढूँढ़ते हो?

    सूरदास—कुछ नहीं। यहाँ रखा ही क्या था! यही लोटा-तवा देख रहा था।

    जगधर—और वह थैली किसकी है, जो भैरों के पास है?

    सूरदास चौंका। क्या इसीलिए भैरों आया था? ज़रूर यही बात है। घर में आग लगाने के पहले रुपए निकाल लिए होंगे।

    लेकिन अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन। सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया जाकर पिंडदान करना चाहता था, मिठुआ का ब्याह करना चाहता था, कुआँ बनवाना चाहता था, किंतु इस ढंग से कि लोगों आश्चर्य हो कि इसके पास रुपए कहाँ से आए, लोग यही समझें कि भगवान दीनजनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। बोला—मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता?

    जगधर—मुझसे उड़ते हो? भैरों मुझसे स्वयं कह रहा था कि झोंपड़े में धरन के ऊपर यह थैली मिली। पाँच सौ रुपए से कुछ बेसी हैं।

    सूरदास—वह तुमसे हँसी करता होगा। साढ़े पाँच रुपए तो कभी जुड़े ही नहीं, साढ़े पाँच सौ कहाँ से आते!

    इतने में सुभागी वहाँ आ पहुँची। रातभर मंदिर के पिछवाड़े अमरूद के बाग़ में छिपी बैठी थी। वह जानती थी, आग भैरों ने लगाई है। भैरों ने उस पर जो कलंक लगाया था, उसकी उसे विशेष चिंता न थी क्योंकि वह जानती थी किसी को इस पर विश्वास न आएगा। लेकिन मेरे कारण सूरदास का यों सर्वनाश हो जाए, इसका उसे बड़ा दुःख था। वह इस समय उसको तस्कीन देने आई थी। जगधर को वहाँ खड़े देखा, तो झिझकी। भय हुआ, कहीं यह मुझे पकड़ न ले। जगधर को वह भैरों ही का दूसरा अवतार समझती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब भैरों के घर न जाऊँगी, अलग रहूँगी और मेहनत-मजूरी करके जीवन का निर्वाह करूँगी। यहाँ कौन लड़के रो रहे हैं, एक मेरा ही पेट उसे भारी है न? अब अकेले ठोंके और खाए, और बुढ़िया के चरण धो-धोकर पिए, मुझसे तो यह नहीं हो सकता। इतने दिन हुए, इसने कभी अपने मन से धेले का सेंदुर भी न दिया होगा, तो मैं क्यों उसके लिए मरूँ?

    वह पीछे लौटना ही चाहती थी कि जगधर ने पुकारा—सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने ख़सम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।

    सुभागी ने समझा, मुझे झाँसा दे रहा है। मेरे पेट की थाह लेने के लिए यह जाल फेंका है। व्यंग्य से बोली—उसके गुरु तो तुम्हीं हो, तुम्हीं ने मंत्र दिया होगा।

    जगधर—हाँ, यही मेरा काम है, चोरी-डाका न सिखाऊँ, तो रोटियाँ क्योंकर चलें...! जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हँसता-बोलता था, लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखा, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाए, ग़रीबों के रुपए चुरा ले जाए, वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपए बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँ, लौटा दो, तो लड़ने पर तैयार होता है।

    सूरदास—फिर वही रट लगाए जाते हो। कह दिया कि मेरे पास रुपए नहीं थे, कहीं और जगह से मार लाया होगा, मेरे पास पाँच सौ रुपए होते, तो चैन की बंसी न बजाता, दूसरों के सामने हाथ क्यों पसारता?

    जगधर—सूरे, अगर तुम भरी गंगा में कहो कि मेरे रुपए नहीं हैं, तो मैं न मानूँगा। मैंने अपनी आँखों से वह थैली देखी है। भैरों ने अपने मुँह से कहा कि यह थैली झोंपड़े में धरन के ऊपर मिली। तुम्हारी बात कैसे मान लूँ?

    सुभागी—तुमने थैली देखी है?

    जगधर—हाँ, देखी नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूँ?

    सुभागी—सूरदास, सच-सच बता दो, रुपए तुम्हारे हैं!

    सूरदास-पागल हो गई है क्या? इनकी बातों में आ जाती है! भला मेरे पास रुपए कहाँ से आते?

    जगधर—इनसे पूछ, रुपए न थे, तो इस घड़ी राख बटोरकर क्या ढूँढ़ रहे थे?

    सुभागी ने सूरदास के चेहरे की तरफ़ अन्वेषण की दृष्टि से देखा। उसकी उस बीमार की-सी दशा थी, जो अपने प्रियजनों की तस्कीन के लिए अपनी असह्य वेदना को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहा हो। जगधर के निकट आकर बोली—रुपए ज़रूर थे, इसका चेहरा कहे देता है।

    जगधर—मैंने थैली अपनी आँखों से देखी है।

    सुभागी—अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले पर रहूँगी उसी के घर। कहाँ-कहाँ थैली को छिपाएगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर यह विपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है, मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपए न दिला दूँगी, मुझे चैन न आएगी।

    यह कहकर वह सूरदास से बोली—तो अब रहोगे कहाँ?

    सूरदास ने यह बात न सुनी। वह सोच रहा था—रुपए मैंने ही तो कमाए थे, क्या फिर नहीं कमा सकता? यही न होगा, जो काम इस साल होता, वह कुछ दिनों के बाद होगा। मेरे रुपए थे ही नहीं, शायद उस जन्म में मैंने भैरों के रुपए चुराए होंगे। यह उसी का दंड मिला है। मगर बेचारी सुभागी का अब क्या हाल होगा? भैरों उसे अपने घर में कभी न रखेगा। बिचारी कहाँ मारी-मारी फिरेगी! यह कलंक भी मेरे सिर लगना था।कहीं का न हुआ। धन गया, घर गया, आबरू गई; ज़मीन बच रही है, यह भी न जाने, जाएगी या बचेगी। अंधापन हो क्या थोड़ी बिपत थी कि नित ही एक-न-एक चपत पड़ती रहती है। जिसके जी में आता है, चार खोटी-खरी सुना देता है।

    इन दुःखजनक विचारों से मर्माहत-सा होकर वह रोने लगा। सुभागी जगधर के साथ भैरों के घर की ओर चली जा रही थी और यहाँ सूरदास अकेला बैठा हुआ रो रहा था।

    सहसा वह चौंक पड़ा। किसी ओर से आवाज़ आई—तुम खेल में रोते हो!

    मिठुआ घीसू के घर से रोता चला आता था, शायद घीसू ने मारा था। इस पर घीसू उसे चिढ़ा रहा था—खेल में रोते हो!

    सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था, कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे ऐसा मालूम हुआ, किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ाकर दिया। वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है! लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोनेवाले को चिढ़ाते हैं, और मैं खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाज़ी-पर-बाज़ी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धक्के-पर-धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं, न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।

    सूरदास उठ खड़ा हुआ, और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।

    आवेग में हम उद्दिष्ट स्थान से आगे निकल जाते हैं। वह संयम कहाँ है, जो शत्रु पर विजय पाने के बाद तलवार को म्यान में कर ले?

    हिंदवी

    एक क्षण में मिठुआ, घीसू  और मुहल्ले के बीसों लड़के आकर इस भस्म-स्तूप के चारों ओर जमा हो गए और मारे प्रश्नों के सूरदास को परेशान कर दिया। उसे राख फेंकते देखकर सबों का खेल हाथ आया। राख की वर्षा होने लगी। दम-के-दम में सारी राख बिखर गई, भूमि पर केवल काला निशान रह गया।

    हिंदवी

    मिठुआ ने पूछा—दादा, अब हम रहेंगे कहाँ?

    सूरदास—दूसरा घर बनाएँगे। 

    मिठुआ—और कोई फिर आग लगा दे?

    सूरदास—तो फिर बनाएँगे।

    मिठुआ—और फिर लगा दे?

    सूरदास—तो हम भी फिर बनाएँगे।

    मिठुआ—और कोई हज़ार बार लगा दे?

    सूरदास—तो हम हज़ार बार बनाएँगे।

    बालकों की संख्याओं से विशेष रुचि होती है। मिठुआ ने फिर पूछा—और जो कोई सौ लाख बार लगा दे? 

    सूरदास ने उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया—तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।

    वीडियो
    This video is playing from YouTube

    Videos
    This video is playing from YouTube

    प्रेमचंद

    प्रेमचंद

    स्रोत :
    • पुस्तक : अंतराल (भाग-2) (पृष्ठ 2)
    • रचनाकार : प्रेमचंद
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए