इन्दुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विंध्याचल के घने जंगल में रहती थी। जबसे उसके पिता वहाँ पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही; न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुँह देख सकी। उसकी अवस्था चार-पाँच वर्ष की थी जबकि उसकी माता का परलोकवास हुआ और जब उसके पिता उसे लेकर वनवासी हुए। जबसे वह समझने योग्य हुई तबसे नाना प्रकार के बनैले पशु-पक्षियों, वृक्षावलियों और गंगा की धारा के अतिरिक्त यह नहीं जानती थी कि संसार वा संसारी सुख क्या है और उसमें कैसे-कैसे विचित्र पदार्थ भरे पड़े हैं। फूलों को बीन-बीन कर माला बनाना, हिरणों के संग कलोल करना, दिन-भर वन-वन घूमना और पक्षियों का गाना सुनना; बस यही उसका काम था। वह यह भी नहीं जानती थी कि मेरे बूढ़े पिता के अतिरिक्त और भी कोई मनुष्य संसार में है।
एक दिन वह नदी में अपनी परछाईं देखकर बड़ी मोहित हुई, पर जब उसने जाना कि यह मेरी परछाईं है, तब बहुत लज्जित हुई, यहाँ तक कि उस दिन से फिर कभी उसने नदी में अपना मुख नहीं निहारा।
गरमी की ऋतु-दोपहर का समय-जबकि उसके पिता अपनी कुटी में बैठे हुए गीता की पुस्तक देख रहे थे, वह नदी किनारे पेड़ों की ठंडी छाया में घूमती, फूलों को तोड़-तोड़ नदी में बहाती हुई कुछ दूर निकल गई थी, कि एकाएक चौंककर खड़ी हुई। उसने एक ऐसी वस्तु देखी, जिसका उसे स्वप्न में भी ध्यान न था और जिसके देखने से उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उसने क्या देखा कि एक बहुत ही सुंदर बीस-बाईस वर्ष का युवक नदी के किनारे पेड़ की छाया में घास पर पड़ा सो रहा है। इन्दुमती ने आज तक बूढ़े पिता को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी। वह अभी तक यही सोचे हुई थी कि यदि संसार में और भी मनुष्य होंगे तो वे भी मेरे पिता की भाँति ही होंगे और उनकी भी दाढ़ी-मूँछें पकी हुई होंगी। उसने जब अच्छी तरह आँखें फाड़-फाड़कर उस परम सुंदर युवक को देखा तो अपने मन में निश्चय किया कि 'मनुष्य तो ऐसा होता नहीं, हो-न-हो यह कोई देवता होंगे क्योंकि मेरे पिता जब देवताओं की कहानी सुनाते हैं तो उनके ऐसे ही रूप-रंग बतलाते हैं।' यह सोचकर वह मन में कुछ डरी और कुछ दूर हट पेड़ की ओट में खड़ी हो टकटकी बाँध उस युवक को देखने लगी। मारे डर के युवक के पास तक न गई और उसकी सुंदरता से मोहित हो कुटी की ओर भी अपना पैर न बढ़ा सकी। यूँही घंटों बीत गए, पर इन्दुमती को न जान पड़ा कि मैं कितनी देर से खड़ी-खड़ी इसे निहार रही हूँ। बहुत देर पीछे वह अपना जी कड़ा करके वृक्ष की ओट से निकल युवक के आगे बढ़ी। दो ही चार डग चली होगी कि एकाएक युवक की नींद खुल गई और उसने अपने सामने एक परम सुंदरी देवी-मूर्ति को देखा, जिसके देखने से उसके आश्चर्य की सीमा न रही। मन-ही-मन सोचने लगा कि 'इस भयानक घनघोर जंगल में ऐसी मनमोहिनी परम सुंदरी स्त्री कहाँ से आई? ऐसा रूप-रंग तो बड़े-बड़े राजाओं के रनिवास में भी दुर्लभ है, सो इस वन में कहाँ से आया? या तो मैं स्वप्न में स्वर्ग की सैर करता होऊँगा, या किसी देवकन्या या वनदेवी ने मुझे छलने के लिए दर्शन दिया होगा।' यही सब सोच-विचार करता हुआ वह भी पड़ा-पड़ा इन्दुमती की ओर निहारने लगा। दोनों की रह-रहकर आँखें चार हो जातीं, जिससे अचरज के अतिरिक्त और कोई भाव नहीं झलकता था। यूँही परस्पर देखाभाली होते-होते एकाएक इन्दुमती के मन में किसी अपूर्व भाव का उदय हो आया, जिससे वह इतनी लज्जित हुई कि उसकी आँखें नीची और मुख लाल हो गया। वह भागना चाहती थी। चट युवक उठकर उसके सामने खड़ा हो गया और कहने लगा, 'हे सुंदरी, तुम देवकन्या हो या वनदेवी हो? चाहे कोई हो, पर कृपा कर तुमने दर्शन दिया है तो ज़रा-सी दया करो, ठहरो, मेरी बातें सुनो, घबराओ मत। यदि तुम मनुष्य की लड़की हो तो डरो मत। क्षत्री लोग स्त्रियों की रक्षा करने के सिवा बुराई नहीं करते। सुनो, यदि तुम सचमुच वनदेवी हो तो कृपा कर मुझे इस वन से निकलने का सीधा मार्ग बता दो। मैं विपत्ति का मारा तीन दिन से इस वन में भटक रहा हूँ, पर निकलने का मार्ग नहीं पाता। और जो तुम मेरी ही भाँति मनुष्य जाति की हो तो मैं तुम्हारा 'अतिथि हूँ', मुझे केवल आज भर के लिए टिकने की जगह दो। और अधिक मैं कुछ नहीं चाहता।'
युवक की बातें सुनकर इन्दुमती ने मन में सोचा कि 'तो क्या ये देवता नहीं है? हम लोगों ही की भाँति मनुष्य हैं? हो सकता है, क्योंकि जो ये देवता होते तो ऐसी मीठी-मीठी बातें बनाकर अतिथि क्यों बनते। देवताओं को कमी किस बात की है, और वे क्या नहीं जानते जो हमसे वन का मार्ग पूछते। तो यह मनुष्य ही होंगे, पर क्या मनुष्य इतने सुंदर होते और ऐसी मीठी बातें करते हैं? अहा! एक दिन मैं जल में अपनी सुंदरता देखकर ऐसी मोहित हुई थी, किंतु इनकी सुंदरता के आगे तो मेरा रूप-रंग निरा पानी है।' इस तरह सोचते-विचारते उसने अपना सिर ऊँचा किया और देखा कि युवक अपनी बात का उत्तर पाने के लिए सामने एकटक लगा खड़ा है। यह देख वह बहुत ही अधीनताई और मधुर स्वर से बोली कि 'मैं अपने बूढ़े पिता के साथ इस घने जंगल के भीतर एक छोटी-सी कुटी में, जो एक सुहावनी पहाड़ी की चोटी पर बनी हुई है, रहती हूँ, यदि तुम मेरे अतिथि होना चाहते हो तो मेरी कुटी पर चलो, जो कुछ मुझसे बनेगा, कंदमूल, फल-फूल और जल से तुम्हारी सेवा करूँगी। मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे।' इतना कहकर वह युवक को अपने साथ ले पहाड़ी पगडंडी से होती हुई अपनी कुटी की ओर बढ़ी।
उसने जो युवक से कहा था कि 'मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे' सो केवल अपने स्वभाव के अनुसार ही कहा था, क्योंकि वह यही जानती थी कि ऐसी सुंदर मूर्ति को देख मेरे पिता भी मेरी भाँति आनंदित होंगे, परंतु कुटी के पास पहुँचते ही उसका सब सोचा-विचारा हवा हो गया, उसके सुख का सपना जाता रहा और वह जिस बात को ध्यान में भी नहीं ला सकती थी वही आगे आई। अर्थात वह बूढ़ा अपनी लड़की को पराए पुरुष के साथ आती हुई देखकर मारे क्रोध के आग हो गया और अपनी कुटी से निकल युवक के आगे खड़ा हो यूँ कहने लगा, 'अरे दुष्ट! तू कौन है? क्या तुझे अपने प्राणों का मोह नहीं है जो तू बेधड़क मेरी कन्या से बोला और मेरी कुटी पर चला आया? तू जानता नहीं कि जो मनुष्य मेरी आज्ञा के बिना इस वन में पैर रखता है उसका सिर काटा जाता है? अच्छा, ठहर, अब तुझे भी प्राणदंड दिया जाएगा।' इतना कह वह क्रोध से युवक की ओर घूरने लगा। बिचारी इन्दुमती की विचित्र दशा थी, उसने आज तक अपने पिता की ऐसी भयानक मूर्ति नहीं देखी थी। वह अपने पिता का ऐसा अनूठा क्रोध देख पहले तो डरी, फिर अपने ही लिए युवा बटोही बिचारे का प्राण जाते देख जी कड़ा कर बूढ़े के पैरों पर गिर पड़ी और रो-रो, गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ाकर युवक के प्राण की भिक्षा माँगने लगी, और अपने पिता को अच्छी तरह समझा दिया कि, 'इसमें युवक का कोई दोष नहीं है, उसे मैं ही कुटी पर ले आई हूँ। यदि इसमें कोई अपराध हुआ तो उसका दंड मुझे मिलना चाहिए।' कन्या की ऐसी अनोखी विनती सुनकर बुड्ढा कुछ ठंडा हुआ और युवक की ओर देखकर बोला कि 'सुनो जी, इस अज्ञान लड़की की विनती से मैंने तुम्हारा प्राण छोड़ दिया, परंतु तुम यहाँ से जाने न पाओगे। क़ैदी की तरह जन्म-भर तुम्हें यहाँ रहकर हमारी ग़ुलामी करनी पड़ेगी, और जो भागने का मंसूबा बाँधोगे तो तुरंत मारे जाओगे।' इतना कहकर ज़ोर से बूढ़े ने सीटी बजाई, जिसकी आवाज़ दूर-दूर तक वन में गूँजने लगी और देखते-देखते बीस-पच्चीस आदमी हट्टे-कट्टे यमदूत की सूरत, हाथ में ढाल-तलवार लिए बुड्ढे के सामने आ खड़े हुए। उन्हें देखकर उसने कहा, 'सुनो वीरो, इस युवक को (अँगुली से दिखाकर) आज से मैंने अपना बँधुवा बनाया है। तुम लोग इस पर ताक लगाए रखना, जिससे यह भागने न पावे और इसकी तलवार ले लो। बस जाओ।' इतना सुनते ही वे सब के सब युवक से तलवार छीन, सिर झुकाकर चले गए पर इस नए तमाशे को देख इन्दुमती के होश-हवास उड़ गए। जबसे उसने होश सँभाला तब से आज तक बुड्ढे को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी, पर आज एकाएक इतने आदमियों को अपने पिता के पास देख वह बहुत ही सकपकाई पर डर के मारे कुछ बोली नहीं। बुड्ढे ने युवक की ओर आँख उठाकर कहा, 'देखों, अब तुम मेरे बँधुवे हुए, अब से जो-जो मैं कहूँगा तुम्हें करना पड़ेगा। उनमें पहिला काम तुम्हें यह दिया जाता है कि तुम इस सूखे पेड़ को (दिखलाकर) काट-काटकर लकड़ी को कुटी के भीतर रखो। ध्यान रखो, यदि ज़रा भी मेरी आज्ञा टाली तो समझ लेना कि तुम्हारे धड़ पर विधाता ने सिर बनाया ही नहीं और इन्दुमती! तू भी कान खोलकर सुनले। इस युवक के साथ यदि किसी तरह की भी बातचीत करेगी तो तेरी भी वही दशा होगी।' इतना कहकर बुड्ढा कुटी के भीतर चला गया और फिर उसी गीता की पुस्तक को ले पढ़ने लगा।
बुड्ढे का विचित्र रंग-ढंग देखकर हमारे युवक के हृदय में कैसे-कैसे भावों की तरंगें उठी होंगी, इसे हम लिखने में असमर्थ हैं। पर हाँ इतना तो उसने अवश्य निश्चय किया होगा कि 'यदि सचमुच यह सुंदरी इस बुड्ढे की लड़की हो तो विधाता ने पत्थर से नवनीत पैदा किया है।'
निदान बिचारा युवक अपने भाग्य पर भरोसा रखकर कुल्हाड़ा हाथ में ले पेड़ काटने लगा और इन्दुमती पास ही खड़ी-खड़ी टकटकी लगाए उसे देखने लगी। दो ही चार बार के टाँगा चलाने से युवक के अंग-अंग से पसीने की बूँदें टपकने लगीं और वह इतने ज़ोर से साँस लेने लगा जिससे जान पड़ता था कि यदि यूँही घंटे-दो घंटे यह टाँगा चलावेगा तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। उसकी ऐसी दशा देखकर इन्दुमती ने उसके लिए फल और जल ला, आँखों में आँसू भरकर कहा, 'सुनो जी, ठहर जाओ, देखो यह फल और जल मैं लाई हूँ, इसे खा लो, ज़रा ठंडे हो लो, फिर काटना, छोड़ो, मान जाओ।' युवक ने उसकी प्रेम भरी बातों को सुन कर कहा, 'सुंदरी, मैं सच कहता हूँ कि तुम्हारा मुँह देखने से मुझे इस परिश्रम का कष्ट ज़रा भी नहीं व्यापता, यदि तुम यूँही मेरे सामने खड़ी रही तो मैं बिना अन्न-जल किए सारे संसार के पेड़ काटकर रख दूँ और सुनो तो सही, अपने पिता की बातें याद करो, क्यों नाहक मेरे लिए अपने प्राण संकट में डालती हो? यदि वे सुन लेंगे तो क्या होगा? और मैं जो सुस्ताने लगूँगा तो लकड़ी कौन काटेगा? जब वे देखेंगे कि पेड़ नहीं कटा तो कैसे उपद्रव करेंगे! इसलिए हे सुशीले! मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दो।'
युवक की ऐसी करुणा-भरी बातें सुनकर इन्दुमती की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने बरज़ोरी युवक के हाथ से कुठार ले लिया और कहा, 'भई चाहे कुछ भी हो, पर ज़रा तो ठहर जाओ, मेरे कहने से मेरे लाए हुए फल खाकर ज़रा दम ले लो, तब तक तुम्हारे बदले मैं लकड़ी काटती हूँ।' युवक ने बहुत समझाया पर वह न मानी और अपने सुकुमार हाथों से कुठार उठा कर पेड़ पर मारने लगी। युवक ने जल्दी-जल्दी उसके बहुत कहने से कई एक फल खाकर दो घूँट जल पिया इतने ही में हाथ में नंगी तलवार लिए बुड्ढा कुटी से निकलकर युवक से बोला—
'क्यों रे नीच! तेरी इतनी बड़ी सामर्थ्य कि आप तो बैठा-बैठा सुस्ता रहा है और मेरी लड़की से पेड़ कटवाता है? रह, अभी तेरा सिर काटता हूँ।' फिर इन्दुमती की ओर घूमकर बोला, 'क्यों री ढीठ, तैंने मेरे मना करने पर भी इस दुष्ट से बातचीत की! रह जा, तेरा भी वध करता हूँ।'
बुड्ढे की बातें सुन युवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा, 'महाशय, इस बिचारी का कोई अपराध नहीं है, इसे छोड़ दीजिए, जो कुछ दंड देना है वह मुझे दीजिए।'
इन्दुमती भी उसके पैर पर गिरकर कहने लगी, 'नहीं, नहीं, इसका कोई दोष नहीं है, मैंने बरज़ोरी इससे कुठार ले ली थी, इसलिए हे पिता! अपराधिनी मैं हूँ, मुझे दंड दीजिए, इन्हें छोड़ दीजिए।'
उन दोनों की ऐसी बातें सुनकर बुड्ढे ने कहा, 'अच्छा, आज तो मैं तुम दोनों को छोड़े देता हूँ, पर देखो फिर मेरी बातों का ध्यान न रखोगे तो मारे जाओगे।' इतना कह बूढ़ा कुटी में चला गया और वे दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। इन्दुमती बोली कि 'घबराओ मत, मेरे रहते तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा।' और युवक ने कहा, 'प्यारी, क्यों व्यर्थ मेरे लिए कष्ट सहती हो? जाओ, कुटी में जाओ।' पर इन्दुमती उसके मुँह की ओर उदास हो देखने लगी और वह कुठार उठाकर पेड़ काटने लगा। इतने ही में फिर बाहर आकर बुड्ढा बोला, 'ओ छोकरे! संध्या भई, अब रहने दे। पर देख, कल दिन-भर में जो सारा पेड़ न काट डाला तो देखियो मैं क्या करता हूँ। और सुनती है, री इन्दुमती! इसे कुटी में ले जाकर सड़े-गले फल खाने को और गदला पानी पीने को दे। परंतु सावधान! मुख से एक अक्षर भी न निकलने पावे। और सुन बे लड़के! ख़बरदार, जो इससे कुछ भी बातचीत की तो जीता न छोडूँगा।' यह कहकर बूढा पहाड़ी पगडंडी से गंगा तट की ओर उतरने लगा और उसके जाने पर इन्दुमती मुस्काकर युवा का हाथ थामे हुई कुटी के भीतर गई और वहाँ जाकर उसने पिता की आज्ञा को मेट कर सड़े-गले फल और गदले पानी के बदल अच्छे-अच्छे मीठे फल और सुंदर साफ़ पानी युवक को दिया। और युवक के बहुत आग्रह करने पर दोनों ने साथ फलाहार किया। फिर दोनों बुड्ढे के आने में देर समझ बाहर चाँदनी में एक साथ ही चट्टान पर बैठकर बातें करने लगे।
आधी रात जा चुकी थी, वन में चारों ओर भयानक बनैले जंतुओं के गरजने की ध्वनि फेल रही थी। चार आदमी हाथ में तलवार और बरछा लिए कुटी के चारों ओर पहरा दे रहे थे। कुटी से थोड़ी ही दूर पर एक ढालुआँ चोटी पर दस-बारह आदमी बातें कर रहे थे। चलिए पाठक! देखिए ये लोग क्या बातें करते हैं। आहा! यह देखिए! इन्दुमती का पिता एक चटाई पर बैठा है और सामने दस-बारह आदमी हाथ बाँधे ज़मीन पर बैठे हैं। बड़ी देर सन्नाटा रहा, फिर बूढ़े ने कहा—
'सुनो भाइयो! इतने दिनों पीछे परमेश्वर ने हमारा मनोरथ पूरा किया। जो बात एक प्रकार से अनहोनी थी सो आपसे आप हो गई। यह परमेश्वर ने ही किया; नहीं तो बिचारी इन्दुमती का बेड़ा पार कैसे लगता। देखो, जिस युवक की रखवाली के लिए आज तीसरे पहर मैंने तुम लोगों से कहा था, वह अजयगढ़ का राजकुमार, या यूँ कहो कि अब राजा है। इसका नाम चंद्रशेखर है। इसके पिता राजशेखर को उसी बेईमान काफ़िर इब्राहीम लोदी ने दिल्ली में बुला, विश्वासघात कर मार डाला था; तब से यह लड़का इब्राहीम की घात में लगा था। अभी थोड़े दिन हुए जो बाबर से इब्राहीम की लड़ाई हुई है, उसमें चंद्रशेखर ने भेष बदल और इब्राहीम की सेना में घुसकर उसे मार डाला। यह बात कहीं एक सेनापति ने देख ली और उसने चंद्रशेखर का पीछा किया। निदान यह भागा और कई दिन पीछे उसे द्वंद्व युद्ध में मार अपने घोड़े को गँवा, राह भूलकर अपने राज्य की ओर न जाकर इस ओर आया और कल मेरी कन्या का अतिथि बना। आज उसने यह सब ब्योरा जलपान करते-करते इन्दुमती से कहा, जिसे मैंने आड़ में खड़े होकर सब सुना। वे दोनों एक-दूसरे को जी से चाहने लगे हैं। तो इस बात के अतिरिक्त और क्या कहा जाए कि परमेश्वर ही ने इन्दुमती का जोड़ा भेज दिया है और साथ ही उस दयामय ने मेरी भी प्रतिज्ञा पूरी की।' इतना सुनकर सभी ने जय ध्वनि के साथ हर्ष प्रकट किया और बूढ़ा फिर कहने लगा—'मेरी इन्दुमती सोलह वर्ष की हुई, अब उसे कुँआरी रखना किसी तरह उचित नहीं है और ऐसी अवस्था में जबकि मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हुई और इन्दुमती के योग्य सुपात्र वर भी मिला। उसने इन्दुमती से प्रतिज्ञा की है कि 'प्यारी, मैं तुम्हें प्राण से बढ़कर चाहूँगा और दूसरा विवाह भी न करूँगा, जिससे तुम्हें सौत की आग में न जलना पड़े।' भाइयो! देखो स्त्री के लिए इससे बढ़कर कौन बात सुख देनेवाली है! मैंने जो चंद्रशेखर को देखकर इतना क्रोध प्रकट किया था उसका आशय यही था कि यदि दोनों में सच्चा प्रीति का अंकुर जमेगा तो दोनों का ब्याह कर दूँगा, और जो ऐसा न हुआ तो युवक आप डर के मारे भाग जाएगा। परंतु यहाँ तो परमेश्वर को इन्दुमती का भाग्य खोलना था और ऐसा ही हुआ। बस, कल ही मैं दोनों का ब्याह करके हिमालय चला जाऊँगा और तुम लोग वर-कन्या को उनके घर पहुँचाकर अपने-अपने घर जाना। बारह वर्ष तक जो तुम लोगों ने तन-मन-धन से मेरी सेवा की इसका ऋण सदा मेरे सिर पर रहेगा और जगदीश्वर इसके बदले में तुम लोगों के साथ भलाई करेगा।' इतना कहकर बुड्ढा उठ खड़ा हुआ और वे लोग भी उठे। बुड्ढा कुटी की ओर घूमा और वे लोग पहाड़ी के नीचे उतर गए।
अहा! प्रेम!! तू धन्य है!!! जिस इन्दुमती ने आज तक देवता की भाँति अपने पिता की सेवा की, और भूलकर भी कभी आज्ञा न टाली, आज वह प्रेम के फंदे में फँसकर उसका उलटा बर्ताव करती है। वृद्ध ने लौटकर क्या देखा कि दोनों कुटी के पिछवाड़े चाँदनी में बैठे बातें कर रहे हैं। यह देख वह प्रसन्न हुआ और कुटी में जाकर सो रहा। पर हमारे दोनों नए प्रेमियों ने बातों ही में रात बिता दी। सवेरा होते ही युवक कुठार ले लकड़ी काटने लगा और इन्दुमती सारा काम छोड़कर खड़ी-खड़ी उसके मुख की ओर देखने लगी। थोड़ी ही देर में युवक के सारे शरीर से पसीना टपकने लगा और चेहरा लाल हो आया। इतने में वृद्ध ने आकर गरजकर कहा, 'ओ लड़के! बस, पेड़ पीछे काटियो, पहिले जो लकड़ियाँ काटी हैं, उन्हें उठाकर कुटी के पिछवाड़े ढेर लगा दे।' इतना कहकर बुड्ढा चला गया और युवक लकड़ी उठा-उठा कर कुटी के पीछे ढेर लगाने लगा। उसका इतना परिश्रम इन्दुमती से न देखा गया और बड़े प्रेम से वह उसका हाथ थामकर बोली, 'प्यारे, ठहरो, बस करो, बाक़ी लकडियाँ मैं रख आती हूँ। हाय, तुम्हारा परिश्रम देखकर मेरी छाती फटी जाती है। प्यारे, तुम राजकुमार होकर आज लकड़ी काटते हो, ठहरो, तुम सुस्ता लो।'
युवक ने मुस्कराकर कहा, 'प्यारी, सावधान, ऐसा भूलकर भी न करना। अपने पिता का क्रोध याद करो। अब की उन्होंने तुम्हें लकड़ी उठाते या हमसे बोलते देख लिया तो सर्वनाश हो जाएगा।'
इतना सुनकर इन्दुमती की आँखों में आँसू भर आए। वह बोली, 'प्यारे, मेरे पिता का तो बहुत अच्छा स्वभाव था, सो तुम्हें देखते ही एकदम से ऐसा बदल क्यों गया? वह तो ऐसे नहीं थे, अब उन्हें क्या हो गया? आज तक मैंने उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा था। ख़ैर, जो होय, पर तुम ठहरो, दम ले लो, तब तक मैं इन लकड़ियों को फेंक देती हूँ।'
युवक ने कहा, 'प्यारी, क्या राक्षस हूँ कि अपनी आँखों के सामने तुम्हें लकड़ी ढोने दूँगा? हटो, ऐसा नहीं होगा। सच जानो तुम्हें देखने से मुझे कुछ भी कष्ट नहीं जान पड़ता।'
इन्दुमती ने उदास होकर कहा, 'हाय प्यारे, तुम्हारे दुःख देखकर मेरे हृदय में ऐसी वेदना होती है कि क्या कहूँ, जो तुम इसे जानते तो ऐसा न कहते।'
पीछे लता-मंडप में खड़े-खड़े वृद्ध ने दोनों की बातें सुनकर बड़ा सुख माना, पर अंतिम परीक्षा करने के अभिप्राय में नंगी तलवार ले सामने आ, गरजकर कहा, 'इन्दुमती, कल से आज तक तैंने मेरी सब बातों का उलट बर्ताव किया। फल और जल की बात याद कर, और तू फिर इससे बात करती है? देख अब तेरा सिर काटता हूँ।' कहकर ज्यों ही वह इन्दुमती की ओर बढ़ा कि चट युवक उसके पाँव पकड़कर कहने लगा, 'आप अपने क्रोध को दूर करने के लिए मुझे मारिए, सब दोष मेरा है, मैं दंड के योग्य हूँ। यह सब तरह निरपराधिनी है। मेरा सिर आपके पैरों पर है, काट लीजिए; पर मेरे सामने एक निरपराध लड़की के प्राण न लीजिए।'
वृद्ध ज्यों ही अपनी तलवार युवक की गर्दन पर रखना चाहता था कि इन्दुमती पागल की तरह उसके चरणों पर गिर बिलक-बिलककर रोने और कहने लगी- 'पिता, पिता, जो मारना ही है तो पहले मेरा सिर काट लो तो फिर पीछे जो जी में आवे सो करना।'
इतना सुन बुड्ढे ने तलवार दूर फेंक दी और दोनों को उठा गले लगाकर कहा, 'बेटी इन्दुमती! धीरज, धर और प्रिय वत्स! चंद्रशेखर! खेद दूर करो। मैंने केवल तुम दोनों के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए सब प्रकार का क्रोध का भाव दिखलाया था। यदि तुम दोनों का सच्चा प्रेम न होता तो क्यों एक-दूसरे के लिए जान पर खेलकर क्षमा चाहते, और सुनो, मैंने छिपकर तुम्हारी सब बातें सुनी हैं। तुमसे बढ़कर संसार में दूसरा कौन राजकुमार है जो इन्दुमती के वर बनने योग्य होगा। सुनो, देवगढ़ मेरे पुरखाओं की राजधानी थी। जबकि इन्दुमती चार वर्ष की थी, पापी इब्राहीम ने मेरे नगर को घेर यह कहलाया कि 'या तो अपनी स्त्री (इन्दुमती की माँ) को भेज दो या जंग करो।' यह सुनकर मेरी आँखों में ख़ून उतर आया और उसके दूत को मैंने निकलवा दिया। फिर क्या पूछना था! सारा नगर यवन हत्यारों के हाथ से श्मशान हो गया। मेरी स्त्री ने आत्महत्या की और मैं उस यवन-कुल-कलंक से बदला लेने की इच्छा से चार वर्ष की अबोध लड़की को ले इस जंगल में आकर रहने लगा। मेरे कृतज्ञ सरदारों में से पचास आदमियों ने सर्वस्व त्यागकर मेरा साथ दिया और आज तक मेरे साथ हैं। उन्हीं लोगों में से कई आदमियों को तुमने कल देखा था। बेटा चंद्रशेखर! बारह वर्ष हो गए पर ऐसी सावधानी से मैंने इस लड़की का लालन-पालन किया और इसे पढ़ाया-लिखाया कि जिसका सुख तुम्हें आप आगे चलकर इसकी सुशीलता से जान पड़ेगा। और देखो, मैंने इसे ऐसे पहरे में रखा कि कल के सिवा और कभी इसने मुझे छोड़कर किसी दूसरे मनुष्य की सूरत न देखी। मैंने राजस्थान के सब राजाओं से सहायता माँगी और यह कहलाया कि जो कोई दुष्ट इब्राहीम का सिर काट लावेगा उसे अपनी लड़की ब्याह दूँगा। पर हा! किसी ने मेरी बात न सुनी और सभी मुझे पागल समझकर हँसने लगे। अंत में मैंने दुःखी होकर प्रतिज्ञा की कि जो कोई इब्राहीम को मारेगा उसीसे इन्दुमती ब्याही जाएगी, नहीं तो यह जन्म भर कुँआरी ही रहेगी। सो परमेश्वर ने तुम्हारे हृदय में बैठकर मेरी प्रतिज्ञा पूरी की। अब इन्दुमती तुम्हारी हुई। और आज मैं बड़े भारी बोझ को उतारकर आजन्म के लिए हलका हो गया।'
इतना कह बुड्ढे ने सीटी बजाई और देखते-देखते पचास जवान हथियारों से सजे, घोड़ों पर सवार आ खड़े हुए। उनके साथ एक सजा हुआ घोड़ा चंद्रशेखर के लिए और एक सुंदर पालकी इन्दुमती के लिए थी। उसी समय बुड्ढे ने दोनों का विवाह कर उन वीरों के साथ विदा किया और आप हिमालय की ओर चला गया।
अहा! जो इन्दुमती इतने दिनों तक वन-विहंगिनी थी, वह आज घर के पिंजरे में बंद होने चली। परमेश्वर की महिमा का कौन पार पा सकता है!
- पुस्तक : इंदुमती व हिन्दी की अन्य पहली-पहली कहानियाँ (पृष्ठ 66)
- संपादक : विजयदेव झारी
- रचनाकार : किशोरीलाल गोस्वामी
- प्रकाशन : इतिहास शोध संस्थान
- संस्करण : 1994
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