भुवाली की इस छोटी-सी कॉटेज में लेटा,लेटा मैं सामने के पहाड़ देखता हूँ। पानी-भरे, सूखे-सूखे बादलों के घेरे देखता हूँ। बिना आँखों के झटक-झटक जाती धुंध के निष्फल प्रयास देखता हूँ और फिर लेटे-लेटे अपने तन का पतझार देखता हूँ। सामने पहाड़ के रूखे हरियाले में रामगढ़ जाती हुई पगडंडी मेरी बाँह पर उभरी लंबी नस की तरह चमकती है। पहाड़ी हवाएँ मेरी उखड़ी-उखड़ी साँस की तरह कभी तेज़, कभी हौले, इस खिड़की से टकराती हैं; पलंग पर बिछी चद्दर और ऊपर पड़े कंबल से लिपटी मेरी देह चूने की-सी कच्ची तह की तरह घुल-घुल जाती है। और बरसों के ताने-बाने से बुनी मेरे प्राणों की धड़कनें हर क्षण बंद हो जाने के डर में चूक जाती हैं।
मैं लेटा रहता हूँ और सुबह हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ शाम हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ रात झुक जाती है। दरवाज़े और खिड़कियों पर पड़े परदे मेरी ही तरह दिन-रात, सुबह-शाम, अकेले मौन-भाव से लटकते रहते हैं। कोई इन्हें भरे-भरे हाथों से उठाकर कमरे की ओर बढ़ा नहीं आता। कोई इस देहरी पर अनायास मुसकराकर खड़ा नहीं हो जाता। रात, सुबह, शाम बारी-बारी से मेरी शय्या के पास घिर-घिर आते हैं और मैं अपनी इन फीकी आँखों से अँधेरे और उजाले को नहीं, लोहे के पलंग पर पड़े अपने-आपको देखता हूँ, अपने इस छूटते-छूटते तन को देखता हूँ। और देखकर रह जाता हूँ। आज इस तरह जाने के सिवाए कुछ भी मेरे वश में नहीं रह गया। सब अलग जा पड़ा है। अपने कंधों से जुड़ी अपनी बाँहों को देखता हूँ, मेरी बाँहों में लगी वे भरी,भरी बाँहें कहाँ हैं...कहाँ हैं वे सुगंध-भरे केश, जो मेरे वक्ष पर बिछ-बिछ जाते थे? कहाँ हैं वे रस-भरे अधर जो मेरे रस में भीग-भीग जाते थे? सब था, मेरे पास सब था। बस, मैं आज-सा नहीं था। जीने का संग था, सोने का संग था और उठने का संग था। मैं धुले-धुले सिरहाने पर सिर डालकर सोता रहता और कोई हौले से चमककर कहता—उठोगे नहीं...भोर हो गई।
आँखें बंद किए-किए ही हाथ उस मोहभरी देह को घेर लेते और रात के बीते क्षणों को सूँघ लेने के लिए अपनी ओर झुकाकर कहते—इतनी जल्दी क्यों उठती हो...
हल्की-सी हँसी और बाँहें खुल जातीं। आँखें खुल जातीं और गृहस्थी पर सुबह हो आती। फूलों की महक में नाश्ता लगता। धुले-ताज़े कपड़ों मे लिपटकर गृहस्थी की मालकिन अधिकार भरे संयम से सामने बैठे रात के सपने साकार कर देती। प्याले में दूध उँड़ेलती उन अँगुलियों को देखता। क्या मेरे बालों को सहला-सहलाकर सिहरा देने वाला स्पर्श इन्हीं की पकड़ में है? आँचल को थामे आगे की ओर उठा हुआ कपड़ा जैसे दोनों ओर की मिठास को सँभालने को सतर्क रहता। क्षण-भर को लगता, क्या गहरे में जो मेरा अपना है, यह उसके ऊपर का आवरण है या जो केवल मेरा है, वह इससे परे, इससे नीचे कहीं और है। एक शिथिल मगर बहती-बहती चाह विभोर कर जाती। मैं होता, मुझसे लगी एक और देह होती। उसमें मिठास होती, जो रात में लहरा-लहरा जाती।
और एक रात भुवाली के इस क्षयग्रस्त अँधियारे में आती है। कंबल के नीचे पड़ा,पड़ा मैं दवा की शीशियाँ देखता हूँ और उन पर लिखे विज्ञापन देखता हूँ। घूँट भरकर अब इन्हें पीता हूँ, तो सोचता हूँ, तन के रस रीत जाने पर हाड़-मांस सब काठ हो जाते हैं, मिट्टी नहीं कहता हूँ, क्योंकि मिट्टी हो जाने से तो मिट्टी से फिर रस उभरता है, अभी तो मुझे मिट्टी होना है।
कैसे सरसते दिन थे! तन-मन को सहलाते-बहलाते उस एक रात को मैं आज के इस शून्य में टटोलता हूँ। सर्दियों के एकांत मौन में एकाएक किसी का आदेश पाकर मैं कमरे की ओर बढ़ता हूँ। बल्ब के नीले प्रकाश में दो अधखुली थकी-थकी पलकें ज़रा-सी उठती हैं और बाँह के घेरे तले सोए शिशु को देखकर मेरे चेहरे पर ठहर जाती हैं। जैसे कहती हों—तुम्हारे आलिंगन को तुम्हारा ही तन देकर सजीव कर दिया है। मैं उठता हूँ, ठंडे मस्तक को अधरों से छूकर यह सोचते-सोचते उठता हूँ कि जो प्यार तन में जगता है, तन से उपजता है, वही देह पाकर दुनिया में जी भी आता है।
पर कहीं एक दूसरा प्यार भी होता है जो पहाड़ के सूखे बादलों की तरह उठ-उठ आता है और बिना बरसे ही भटक-भटककर रह जाता है। वर्षों बीते। एक बार गर्मी में पहाड़ गया था। बुआ के यहाँ पहली बार उन आँखों-सी आँखों को देखा था। धुपाती सुबह थी। नाश्ते की मेज़ से उठा, तो परिचय करवाते-करवाते न जाने क्यों बुआ का स्वर ज़रा-सा अटका था...साँस लेकर कहा, ‘मिन्नी से मिलो, रवि, दो ही दिन यहाँ रुकेगी।’— बुआ के मुख से यह फीका परिचय अच्छा नहीं लगा। वह कुछ बोली नहीं, सिर हिलाकर अभिवादन का उत्तर दिया और ज़रा-सी हँस दी। उस दूर-दूर तक लगने वाले चेहरे से मैं अपने को लौटा नहीं सका। उस पतले, किंतु भरे-भरे मुख पर कसकर बाँधे घुँघराले बालों को देखकर मन में कुछ ऐसा-सा हो आया कि किसी के गहरे उलाहने की सज़ा अपने को दे डाली गई है।
सब उठकर बाहर आए, तो बुआ के बच्चे उस दुबली देह पर पड़े आँचल को खींच स्नेहवश उन बाँहों से लिपट-लिपट गए—‘मन्नो जीजी। मन्नो जीजी...।’ बुआ किसी काम से अंदर जा रही थी, खिलखिलाहट सुनकर लौट पड़ीं। बुआ का वह कठिन, बँधा और खिंचावट को छिपाने वाला चेहरा मैं आज भी भूला नहीं हूँ। कड़े हाथों से बच्चों को छुड़ाती, ठंडी निगाह से मन्नो को देखती हुई ढीले स्वर में बोली, ‘जाओ मन्नो, कहीं घूम आओ। तुम्हें उलझा,-उलझाकर तो ये बच्चे तंग कर डालेंगे।’— माँ की घुड़की आँखों-ही-आँखों में समझकर बच्चे एक ओर हो गए। बुआ के ख़ाली हाथ जैसे झेंपकर नीचे लटक गए और मन्नो की बड़ी-बड़ी आँखों की घनी पलकें न उठी, न गिरी, बस एकटक बुआ की ओर देखती गई...
बुआ इस संकोच से उबरी, तो मन्नो धीमी गति से फाटक से बाहर हो गई थी। कुछ समझ लेने के लिए आग्रह से बुआ से पूछा, ‘कहो तो बुआ, बात क्या है?’
बुआ अटकी, फिर झिझककर बोली, ‘बीमार है, रवि, दो वर्ष सैनेटोरियम में रहने के बाद अब सेठजी ने वहीं कॉटेज ले दी है। साथ घर का पुराना नौकर रहता है। कभी अकेले जी ऊब जाता है, तो चार-दिन को शहर चली जाती है।
‘नहीं, नहीं, बुआ।’— मैं धक्का खाकर जैसे विश्वास नहीं करना चाहता।
‘रवि, जब कभी चार,छ: महीने बाद लड़की को देखती हूँ, तो भूख-प्यास सब सूख जाती है।’
मैं बुआ की इस सच्चाई को कुरेद लेने को कहता हूँ, ‘बुआ, बच्चों को एकदम अलग करना ठीक नहीं हुआ, पल-भर तो रुक जाती।’
बुआ ने बहुत कड़ी निगाह से देखा, जैसे कहना चाहती हो—तुम यह सब नहीं समझोगे और अंदर चली गई। बच्चे अपने खेल में जुट गए थे। मैं खड़ा-खड़ा बार-बार सिगरेट के धुँए से अपने तन का भय और मन की जिज्ञासा उड़ाता रहा। उलझा-उलझा-सा मैं बाहर निकला और उतराई उतरकर झील के किनार-किनारे हो गया। सड़क के साथ-साथ इस ओर छाँह थी। उछल-उछल आती पानी की लहरें कभी धूप से रुपहली हो जाती थीं। देवी के मंदिर के आगे पहुँचा, तो रुका, जंगले पर हाथ टिकाए झील में नौकाओं की दौड़ को देखता रहा। बलिष्ठ हाथों में चप्पू थामे कुछ युवक तेज़ रफ़्तार से तालीताल की ओर जा रहे हैं, पीछे की कश्ती में अपने तन-मन से बेख़बर एक प्रौढ़ बैठे ऊँघ रहे हैं। उसके पीछे बोट-क्लब की किश्ती में विदेशी युवतियाँ...फिर और दो-चार पालवाली नौकाएँ...
एकाएक किश्ती में नहीं, जैसे पानी की नीची सतह पर वही पीला चेहरा देखता हूँ, वही बड़ी-बड़ी आँखें, वही दुबली-पतली बाँहें, वही बुआ के घरवाली मन्नो। दो-चार बार मन-ही-मन नाम दोहराता हूँ, मन्नो, मन्नो, मन्नो...मैं ऊँचे किनारे पर खड़ा हूँ और पानी के साथ-साथ मन्नो वहीं चली जा रही है। खिंचे घुँघराले बाल, अनझपी पलकें...पर बुआ कहती थी बीमार है, मन्नो बीमार है।
जंगले पर से हाथ उठाकर बुआ के घर की दिशा में देखता हूँ। चीना की चोटी अपने पहाड़ी संयम से सिर उठाए सदा की तरह सीधी खड़ी है। एक ढलती-सी पथरीली ढलान को उसने जैसे हाथ से थामे रखा है और मैं नीचे इस सड़क पर खड़े,खड़े सोचता हूँ कि सब,कुछ रोज़ जैसा है, केवल मन से उभर-उभर आती वे दो आँखें नई हैं और उन दो आँखों के पीछे की वही बीमारी...जिसे कोई छू नहीं सकता, कोई उबार नहीं सकता।
घर पहुँचा, तो बुआ बच्चों को लेकर कहीं बाहर चली गई थी। कुछ देर ड्राइंग,रूम में बैठा-बैठा बुआ के सुघड़ हाथों द्वारा की गई सजावट देखता रहा। क़ीमती फूलदानों में पगाई गई पहाड़ी झाड़ियाँ सुंदर लगती थीं। कैबिनेट पर बड़ी फ़्रेम में लगे सपरिवार चित्र के आगे खड़ा हुआ, तो बुआ के साथ खड़े फूफा की ओर देखकर सोचता रहा कि बुआ के लिए इस चेहरे पर कौन-सा आकर्षण है, जिससे बंधी-बंधी वह दिन-रात, वर्ष-मास अपने को निभाती चली आती है। पर नहीं, बुआ ही के घर में होकर यह सोचना मन के शील से परे है...
झिझककर ड्राइंग,रूम से निकलता हूँ और अपने कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ जाता हूँ। सिगरेट जलाकर झील के दक्खिनी किनारे पर खुलती खिड़की के बाहर देखने लगता हूँ। हरे पहाड़ों के छोटे-बड़े आकारों में टीन की लाल-लाल छतें और बीच-बीच में मटियाली पगडंडियाँ। बुआ खाने तक लौट आएगी और मन्नो भी तो...देर तक टन-टन के साथ नौकर ने खाने के लिए अनुरोध किया।
‘खाना लगेगा, साहिब?’
‘बुआ कब तक लौटेंगी?’
‘खाने को तो मना कर गई हैं।’
कथन के रहस्य को मैं इन अर्थहीन-सी आँखों में पढ़ जाने के प्रयत्न में रहता हूँ।—‘और जो मेहमान हैं?’
नौकर तत्परता से झुककर, ‘आपके साथ नहीं, साहिब। वह अलग से ऊपर खाएँगी।’
मैं एक लंबी साँस भरकर जले सिगरेट के टुकड़े को पैर के नीचे कुचल देता हूँ। शायद साथ खाने के डर से छुटकारा पाने पर या शायद साथ न खा सकने की विवशता पर। इस दिन खाने की मेज़ पर अकेले खाना खाते,खाते क्या सोचता रहा था, आज तो याद नहीं। बस इतना याद है, काँटे-छुरी से उलझता बार-बार मैं बाहर की ओर देखता था।
मीठा कौर मुँह में लेते ही घोड़े की टाप सुनाई दी, ठिठककर सुना, ‘सलाम साहिब।’
धीमी मगर सधी आवाज़, ‘दो घंटे तक पहुँच सकोगे न?’
‘जी, हुज़ूर।’
सीढ़ियों पर आहट हुई और अपने कमरे तक पहुँचकर ख़त्म हो गई। खाने के बर्तन उठ गए। मैं उठा नहीं। दोबारा कॉफ़ी पी लेने के बाद भी वहीं बैठा रहा। एकाएक मन में आया कि किसी छोटे,से परिचय से मन में इतनी दुविधा उपजा लेना कम छोटी दुर्बलता नहीं है। आख़िर किसी से मिल ही लिया हूँ तो उसके लिए ऐसा-सा क्यों हुआ जा रहा हूँ।
घंटे-भर बाद मैं किसी की पैरों चली सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ा जा रहा था। खुले द्वार पर परदा पड़ा था। हौले से थाप दी।
‘चले आइए।’
परदा उठाकर देहरी पर पाँव रखा। हाथ में कश्मीरी शाल लिए मन्नो अटैची के पास खड़ी थी। देखकर चौंकी नहीं। सहज स्वर में कहा, ‘आइए’ और सोफ़े पर फैले कपड़े उठाकर कहा, ‘बैठिए।’
बैठते-बैठते सोचा, बुआ के घर-भर में सबसे अधिक सजा और साफ़ कमरा यही है। नया-नया फ़र्नीचर, क़ीमती परदे और इन सबमें हलके पीले कपड़ों में लिपटी मन्नो। अच्छा लगा।
बात करने को कुछ भी न पाकर बोला, ‘आप लंच तो...’
‘जी, ले चुकी हूँ।’ और भरपूर निगाहों से मेरी ओर देखती रही।
मैं जैसे कुछ कहलवा लेने को कहता हूँ, ‘बुआ तो कहीं बाहर गई हैं।’
सिर हिलाकर मन्नो शाल की तह लगाती है और सूटकेस में रखते-रखते कहती है, ‘शाम में पहले ही नीचे उतर जाऊँगी। बुआ से कहिएगा, एक दिन को आई थी।’
‘बुआ तो आती ही होंगी।’
इसका उत्तर न शब्दों में आया, न चेहरे पर। कहते-कहते एक बार रुका, फिर न जाने कैसे आग्रह से कहा, ‘एक दिन और नहीं रुक सकेंगी?’
वह कुछ बोली नहीं। बंद करते सूटकेस पर झुकी रही।
फिर पल-भर बाद जैसे स्नेह-भरे हाथ से अपने बालों को छुआ और हँसकर कहा, ‘क्या करूँगी यहाँ रहकर? भुवाली के इतने बड़े गाँव के बाद यह छोटा-सा शहर मन को भाता नहीं।’
वह छोटी-सी खिलखिलाहट, वह कड़वाहट से भरे का व्यंग्य, आज इतने वर्षों के बाद भी, मैं वैसे ही बिल्कुल वैसे ही सुन पाता हूँ। वही शब्द हैं, वही हँसी है और वही पीली-सी सूरत...
हम संग-संग नीचे उतरे थे। मेरी बाँह पर मन्नो का कोट था। नौकर और माली ने झुककर सलाम किया और अतिथि से इनाम पाया। साईस ने घोड़े को थपथपाया।
‘हुज़ूर, चढ़ेंगी?’
उड़ी-उड़ी नज़र उन आँखों की बाँह पर लटके कोट पर अटकी।
‘पैदल आऊँगी। थोड़ा आगे-आगे लिए चलो।’
चाहा कि घोड़े पर चढ़ जाने के लिए अनुरोध करुँ। पर कह नहीं पाया। फाटक से बाहर होते-होते वह पल-भर को पीछे मुड़ी, जैसे छोड़ने के पहले घर को देखती हो। फिर एकाएक अपने को संभालकर नीचे उतर गई। राह में कोई भी कुछ बोला नहीं।
टैक्सी खड़ी थी, सामान लगा। ड्राइवर ने उन कठिन क्षणों को मानो भाँपकर कहा, ‘कुछ देर है, साहिब?’
मन्नो ने इस बार कहीं देखा नहीं। कोट लेने के लिए मेरी ओर हाथ बढ़ा दिया। वह कार में बैठी। कुली ने तत्परता से पीछे से कंबल निकाला और घुटनों पर डालते हुए कहा, ‘कुछ और, मेम साहिब?’
घुँघराली छाँह ढीली-सी होकर सीट के साथ जा टिकी। घुटनों पर पतली-पतली-सी विवश बाँहें फैलाते हुए धीरे-से कहा, ‘नहीं, नहीं, कुछ और नहीं। धन्यवाद।’
अधखुले काँच में अंदर झाँका। मुख पर थकान के चिह्न थे। बाँहों में मछली—मुखी कंगन थे। आँखों में क्या था, यह मैं पढ़ नहीं पाया। वह पीली, पतझड़ी दृष्टि उन हाथों पर जमी थी, जो कंबल पर एक-दूसरे से लगे मौन पड़े थे।
कार स्टार्ट हुई। मैं पीछे हटा और कार चल दी। विदाई के लिए न हाथ उठे न अधर हिले। मोड़ तक पहुँचने तक पीछे के शीशे से सादगी से बँधा बालों का रिबन देखता रहा और देर तक वह दर्दीले धन्यवाद की गूँज सुनता रहा—नहीं, नहीं, कुछ और नहीं।
वे पल अपनी कल्पना में आज भी लौटाता हूँ, तो जी को कुछ होने लगता है। उस कार को भगा ले जाने वाली सूखी सड़क से घूमकर मैं ताल के किनारे-किनारे चला जा रहा हूँ। अपने को समझाने-बुझाने पर भी वह चेहरा, वह बीमारी मन पर से नहीं उतरती। रुक-रुककर, थक-थककर जैसे मैं उस दिन घर की चढ़ाई चढ़ा था, उसे याद कर आज भी निढाल हो जाता हूँ। घर पहुँचा। बरामदे में से कुली फ़र्नीचर निकाल रहे थे। मन धक्का खाकर रह गया। तो उस मन्नो के कमरे की सजावट, सुख-सुविधा, सब किराए पर बुआ ने जुटाए थे। दोपहर में बुआ के प्रति जो कुछ जितना भी अच्छा लगा था, वह सब उल्टा हो गया।
आगे बढ़ा, तो द्वार पर बुआ खड़ी थी। संदेह से मुझे देख और पास होकर फीके गले से कहा ‘रवि, मुँह-हाथ धो डालो, सामान सब तैयार मिलेगा वहाँ, जल्दी लौटोगे न, चाय लगने को ही है।’
चुपचाप बाथरूम में पहुँच गया। सामान सब था। मुँह,हाथ धोने से पहले गिलास में ढककर रखे गर्म पानी से गला साफ़ किया। ऐसा लगा किसी की घुटी,घुटी जकड़ में से बाहर निकल आया हूँ। कपड़े बदलकर चाय पर जा बैठा। बच्चे नहीं, केवल बुआ थी। बुआ ने चाय उँड़ेली और प्याला आगे कर दिया।
‘बुआ।’
बुआ ने जैसे सुना नहीं।
‘बुआ, बुआ।’—पल,भर के लिए अपने को ही कुछ ऐसा-सा लगा कि किसी और को पुकारने के लिए बुआ को पुकार रहा हूँ। बुआ ने विवश हो आँखें ऊपर उठाईं। समझ गया कि बुआ चाहती हैं, कुछ कहूँ नहीं, पर मैं नहीं रुका।
‘बुआ, दो दिन की मेहमान तो एक ही दिन में चली गई।’
बुआ चम्मच से अपनी चाय हिलाती रही। कुछ बोली नहीं। इस मौन से और भी निर्दयी हो आया।
‘कहती थी, बुआ से कहना मैं एक ही दिन को आई थी।’
इसके आगे बुआ जैसे कुछ और सुन नहीं सकी। गहरा लंबा श्वास लेकर आहत आँखों से मुझे देखा, ‘तुम कुछ और नहीं कहोगे, रवि’, और चाय का प्याला वही छोड़ कमरे से बाहर हो गई।
उस रात दौरे से फूफा के लौटने की बात थी। नौकर से पूछा, तो पता लगा, दो दिन के बाद आने का तार आ चुका है। चाहा, एक बार बुआ के कमरे तक हो आऊँ, संकोचवश पाँव उठे नहीं। देर बाद सीढ़ियों में अपने को पाया, तो सामने मन्नो का ख़ाली कमरा था। आगे बढ़कर बिजली जलाई, सब ख़ाली था, न परदे, न फ़र्नीचर...न मन्नो... एकाएक अँगीठी में लगी लकड़ियों को देख मन में आया, आज वह यहाँ रहती, तो रात देर गए इसके पास यहीं बैठती और मैं शायद इसी तरह जैसे अब यहाँ आया हूँ, उसके पास आता, उसके...
यह सब क्या सोच रहा हूँ, क्यों सोच रहा हूँ...
किसी अनदेखे भय से घबराकर नीचे उतर आया। खिड़की से बाहर देखा, अँधेरा था। सिरहाना खींचा, बिजली बुझाई और बिस्तर पर पड़े,पड़े भुवाली की वह छोटी-सी कॉटेज देखता रहा, जहाँ अब तक मन्नो पहुँच गई होगी।
‘रवि।’
मैं चौंका नहीं, यह बुआ का स्वर था। बुआ अँधेरे में ही पास आ बैठी और हौले-हौले सिर हिलाती रही।
‘बुआ।’
बुआ का हाथ पल-भर को थमा। फिर कुछ झुककर मेरे माथे तक आ गया। रुँधे स्वर से कहा, ‘रवि, तुम्हें नहीं, उस लड़की को दुलराती हूँ। अब यह हाथ उस तक नहीं पहुँचता...’
मैं बुआ का नहीं, मन्नो का हाथ पकड़ लेता हूँ।
बुआ देर तक कुछ बोली नहीं। फिर जैसे कुछ समझते हुए अपने को कड़ा कर बोली, ‘रवि, उसके लिए कुछ मत सोचो, उसे अब रहना नहीं है।’
मैं बुआ के स्पर्श-तले सिहरकर कहता हूँ, ‘बुआ, मुझे ही कौन रहना है?’
आज वर्षों बाद भुवाली में पड़े-पड़े मैं असंख्य बार सोचता हूँ कि उस रात मैं अपने लिए यह क्यों कह गया था? क्यों कह गया था वे अभिशाप के बोल, जो दिन-रात मेरे इस तन-मन पर से सच्चे उतरे जा रहे हैं। सुनकर बुआ को कैसा लगा, नहीं जानता। वह हाथ खींचकर उठ बैठी। रोशनी की और पूरी आँखों से मुझे देखकर अविश्वास और भर्त्सना से बोली, ‘पागल हो गए हो, रवि! उसके साथ अपनी बात जोड़ते हो। जिसके लिए अब कोई राह नहीं रह गई, कोई और राह नहीं रह गई।’
फिर कुर्सी पर बैठते-बैठते कहा, ‘रवि, तुम तो उसे सुबह-शाम तक ही देख पाए हो। मैं वर्षों से उसे देखती आई हूँ और आज पत्थर-सी निष्ठुर हो गई हूँ। उसे अपना बच्चा ही करके मानती रही हूँ, यह नहीं कहूँगी। अपने बच्चों की तरह तो अपने बच्चों के सिवाए और किसे रखा जा सकता है। पर जो कुछ जितना भी था, वह प्यार, वह देखभाल सब व्यर्थ हो गए हैं। कभी छुट्टी के दिन उसकी बोर्डिंग से आने की राह तकती थी, अब उसके आने से पहले उसके जाने का क्षण मनाती हूँ। और डरकर बच्चों को लिए घर से बाहर निकल जाती हूँ।’
बुआ के बोल कठिन हो आए।
‘रवि, जिसे बचपन के मोहवश कभी डराना नहीं चाहती थी, आज उसी से डरने लगी हूँ। उसकी बीमारी से डरने लगी हूँ।’ फिर स्वर बदलकर कहा, ‘तुम्हारा ऐसा जीवट मुझमें नहीं कि कहूँ, डरती नहीं हूँ’— बुआ ने यह कहकर जैसे मुझे टटोला और मैं बिना हिले-डुले चुपचाप लेटा रहा।
बुआ असमंजस में देर तक मुझे देखती रही। फिर जाने को उठी और रुक गई। इस बार स्वर में आग्रह नहीं, चेतावनी थी— ‘रवि, कुछ हाथ नहीं लगेगा। जिसके लिए सब राह रुकी हों, उसके लिए भटको नहीं।’
पर उस दिन बुआ की बात मैं समझा नहीं, चाहने पर भी नहीं।
अगली सुबह चाहा कि घूम-घूमकर दिन बिता दूँ। घोड़ा दौड़ाता लड़ियाकोटा पहुँचा और उन्हीं पैरों लौट आया। घर की ओर मुँह करते,करते न जाने क्यों, मन को कुछ ऐसा लगा कि मुझे घर नहीं, कहीं और पहुँचना है। चढ़ाई के मोड़ पर कुछ देर खड़ा-खड़ा सोचता रहा और जब ढलती दुपहरी में तल्लीताल की उतराई उतरा, तो मन के आगे सब साफ़ था।
मुझे भुवाली जाना था।
बस से उतरा। अड्डे पर रामगढ़ के लाल-लाल सेबों के ढेर देखकर यह नहीं लगा कि यही भुवाली है। बस में सोचता आया था कि वहाँ घुटन होगी, पर चीड़ के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से लहराती हवाएँ बह-बह आती थीं। छाँह ऊपर उठती है, धूप नीचे उतरती है और भुवाली मन को अच्छी लगती है। तन को अच्छी लगती है। चौराहे से होकर पोस्ट ऑफ़िस पहुँचा। कॉटेज का पता लिया और छोटे-से पहाड़ी बाज़ार में होता हुआ ‘पाइन्स’ की ओर हो लिया। खुली-चौड़ी सड़क के मोड़ से अच्छी-सी पतली राह कॉटेज की ओर जाती थी। जंगले के नीचे देखा, अलग-अलग खड़े पहाड़ों के बीच की जगह पर एक खुली-चौड़ी घाटी बिछी थी। तिरछे सीधे, छोटे-छोटे खेत किसी के घुटने पर रखे कसीदे के कपड़े की तरह धरती पर फैले थे। दूर सामने दक्खिन की ओर पानी का ताल धूप में चाँदी के थाल की तरह चमकता था।
इस पहली बार भुवाली आने के बाद मैं एक बार नहीं, कई बार यहाँ आया। लौट-लौटकर यहाँ आया, पर उस आने-जैसा आना तो फिर कभी नहीं आया। मैं चलता हूँ, और कुछ सोचता नहीं हूँ। न यह सोचता कि मन्नो के पास जा रहा हूँ, न यह सोचता हूँ कि मैं जा रहा हूँ। बस चला जा रहा हूँ। पेड़ के तने पर लिखा है, ‘पाइन्स’। लकड़ी का फाटक खोलता हूँ और गमलों की क़तारों के साथ-साथ बरामदे तक पहुँच जाता हूँ। कार्पेट पर हौले,हौले पाँव रखता हूँ कि कम आवाज़ हो। द्वार खटखटाता हूँ और झुकी कमर पर अनुभवी चेहरा इधर बढ़ा आता है। जान लेता हूँ कि यही पुराना नौकर है।
‘घर में हैं?’
‘बिटिया को पूछते हो, बेटा?’
मैं सिर हिलाता हूँ।
‘बिटिया नीचे ताल को उतरी थीं, लौटती ही होंगी।’
मैं बाहर खुले में बैठा-बैठा प्रतीक्षा करता हूँ। मन्नो अब आ रही है, आने वाली है, आती ही होगी।
थककर फाटक की ओर पीठ कर लेता हूँ, जब यह सोचूँगा कि वह देर से आएगी, तो वह जल्दी आएगी।
घोड़े की टाप सुन पड़ती है। अपने को रोक लेता हूँ और मुड़कर देखता नहीं।
‘बाबा!’—पुकार का-सा स्वर। लगा कि दो आँखें मेरी पीठ पर हैं। उठा। बढ़कर मन्नो की ओर देखा, आँखों में न आश्चर्य था, न उत्कंठा थी, न उदासीनता थी। बस, मन्नो की ही आँखों की तरह वे दो आँखें मेरी ओर देखती चली गई थीं।
‘बाबा।’—बूढ़ा नौकर लपककर घोड़े के पास आया और लाड़ के,से स्वर में बोला, ‘उतरो बिटिया, बहुत देर कर दी।’—और हाथ आगे बढ़ा दिया।
मन्नो सहारा लेकर नीचे उतरी।—‘तनिक अम्मा को तो बुलाओ बाबा, मेरा जी अच्छा नहीं।’
‘सुख तो है, बिटिया।’
चिंता का यह स्वर सुनकर बिटिया ज़रा-सा हँस दी, फिर रुककर लंबी साँस भरकर बोली, ‘अच्छी-भली हूँ, बाबा, बड़ी अम्मा से कहो, बिछौना लगा दें।’
बाबा ने बिटिया के लिए कुर्सी खींच दी। फिर सहमकर पूछा, ‘बिटिया, लेटोगी?’
‘हाँ, बाबा।’
इस बार मन्नो ने बाबा की ओर देखा नहीं, जैसे कोई अपराध बन आया हो, फिर मेरी ओर झुककर कहा, ‘क्या बहुत देर हुई?’
‘नहीं।’ मैं सिर हिलाता हूँ, पर आँखें नहीं।
इस बार झिझक से नहीं, अधिकार से पूछता हूँ, ‘क्या जी अच्छा नहीं?’
मन्नो ने पल-भर को थकी-थकी पलकें मूँद ली और कुछ बोली नहीं।
बूढ़ी दादी दौड़ी-दौड़ी शाल लिए आई और कंधों पर ओढ़कर जैसे अपने को ही दिलासा देने के लिए कहा, ‘मन्नो, ख़्याली क्यों घबराने लगी। अभी सब ठीक हुआ जाता है। इनके लिए चाय भेजूँ।
मन्नो एकदम कुछ कह नहीं पाई। फिर कुछ सोचकर बोली, ‘अम्मा, पूछ देखो। पिएँगे तो नहीं।’
मैं कुछ ठीक-ठीक समझा नहीं। व्यस्त होकर कहा, ‘नहीं, नहीं, मुझे अभी कुछ भी पीना नहीं है।’
मन्नो ने जैसे न सुना, न मुझे देखा ही।
फिर जैसे अम्मा को मेरे परिचय की गंभीरता जताने के लिए पूछा, ‘चाची तो अच्छी हैं। अभी चाचा लौटे तो न होंगे।’
अम्मा झट समझ गई, मन्नो की चाची के यहाँ से आया हूँ। बोली, ‘बेटा, आने की ख़बर देते, तो मन्नो के लिए कुछ मँगवा लेती।’
‘बड़ी माँ, अंदर जाकर देखो न, मैं थकी हूँ, अब बैठूँगी नहीं।’
मैं लज्जित-सा बैठा रहा। कुछ फल ही लिए आता।
मन्नो कुछ देर मेरे चेहरे पर मेरा मन पढ़ती रही, फिर धीमे से ऐसी बोली, मानो मुझसे नहीं, अपने से कहती हो, ‘यहाँ न कुछ लाना ही अच्छा है न कुछ ले ही जाना...’
मैं अपनी नासमझी पर पछताकर रह गया।
मन्नो अंदर चली, तो साथ हो लिया। कंबल उठाकर बड़ी माँ ने बिटिया को लिटाया, बाल ढीले करते-करते माथे को छुआ और मेरे लिए कुर्सी पास खींचकर बाहर हो गई।
‘मन्नो...’
मन्नो बोली नही। दुबली-सी बाँह तनिक-सी आगे की ओर...फिर एकाएक कुछ सोचकर पीछे खींच ली...आज जब स्वयं भी मन्नो-सा बन गया हूँ, सौ बार अपने को न्यौछावर कर उसी क्षण को लौटा लेना चाहता हूँ। मैं कुर्सी पर बैठा-बैठा क्यों उस बाँह को छू नहीं सकता था? क्या उस हाथ को सहला नहीं सकता था? उमड़ते मन को किसी ने जैसे जकड़कर वहीं, उस कुर्सी पर ठहरा लिया था।
क्या था उस झिझक में? क्या था उस झिझकने वाले मन में? रहा होगा, यही भय रहा होगा, जो अब मुझसे मेरे प्रियजनों को दूर रखता है। उस रात जब जाने को उठा था, तो आँखों का मोह पीछे बाँधता था। मन का भय आगे खींचता था। और जब जल्दी-जल्दी चलकर डाक-बँगले में पहुँच गया, तो लगा कि मुक्त हो गया हूँ, क्षण-क्षण जकड़ते बंधन से मुक्त हो गया हूँ।
उस अभागी रात में जो मुक्ति पाई थी, वह मुझे कितनी फली, चाहता हूँ आज एक बार मन्नो देखती तो!
रात-भर ठीक से सो नहीं पाया। बार-बार नींद में लगता कि भुवाली में हूँ। भुवाली में सोया हूँ, वही ‘पाइन्स’ का बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला कमरा है। मन्नो के पलंग पर लेटा हूँ और पास पड़ी कुर्सी पर बैठी-बैठी मन्नो अपनी उन्हीं दो आँखों से मुझे निहारती है। मैं हाथ आगे करता हूँ और वह थोड़ा-सा हँसकर सिर हिला कहती है, ‘नहीं, इसे कंबल के नीचे कर लो।
अब इसे कौन छुएगा?’
‘मन्नो!’
मन्नो कुछ कहती नहीं, हँस भर देती है।
रात-भर इन दुःस्वप्नों में भटकने के बाद जगा, तो बुआ दिख पड़ी। ‘कुछ हाथ नहीं लगेगा, रवि।’
उस सुबह फिर मैं रुका नहीं, न डाक-बँगले में, न भुवाली में। बस के अड्डे पर पहुँचा, तो धूप में बुझी-बुझी भुवाली मुझे भयावनी लगी। एक बार जी को टटोला, ‘पाइन्स’...नहीं...नही...कुछ नहीं लौट जाओ।’
घर पहुँचकर बुआ मिली। कड़ी चेतावनी वाला खिंचा-खिंचा चेहरा था।
भरपूर मुझे देखकर जैसे साँस रोके पूछा, ‘कहाँ थे कल?’
‘रानीखेत तक गया था, बुआ।’
‘कह तो जाते।’
मैं न जाने किस उलझन में आया था। कहा, ‘कहने को, बुआ, था क्या?’
दोपहर में फूफा मिले। कल लौटे थे और सदा की तरह गंभीर थे। खाना खाते उन्हें देखता रहा। एकाएक उन्हें प्लेट पर से आँखें उठाकर बुआ की ओर देखते हुए देखा, तो सचमुच में जान गया कि फूफा के भाई अवश्य ही मन्नो के पिता होंगे। दृष्टि में वही ठहराव था, वही अचंचलता थी।
फूफा ने खाने पर से उठते-उठते उलझे-से स्वर में मुझसे पूछा, ‘रवि, बुआ तुम्हारी, लखनऊ तक जाना चाहती हैं, पहुँचा आ सकोगे?’
‘जी, सकूँगा।’
मैं, बुआ और बच्चे नैनी से नीचे उतर रहे हैं। मैं पीछे की सीट पर बैठा-बैठा विदा हो जाने की आकस्मिकता को सिगरेट के धुएँ में भूल जाने का प्रयत्न करता हूँ। चौड़े मोड़ से बस नीचे की ओर मुड़ी। खिड़की से बाहर देखा, तो पहाड़ की हरियाली में वही कल वाली भुवाली की सफ़ेदी दिख रही थी।
काठगोदाम से लखनऊ। एक रात बुआ की ससुराल रुककर बुआ से विदा लेने गया, तो बुआ ने पूछा, ‘लौट जाने की सोचते हो, रवि, कुछ दिन यहीं रुको।’
‘नहीं, बुआ।’
बुआ इस ‘नहीं’ को एकाएक स्वीकार नहीं कर सकी। पास बिठाकर कुछ देर देखती रही। फिर स्नेह से कहा, ‘कहाँ जाओगे...?’
‘बुआ, कुछ पता नहीं।’
बुआ कुछ कहना चाहती थी, पर कह नहीं पा रही थी। कुछ रुकते-रुकते कहा, ‘रवि, तुम्हारे फूफा तो तुम्हारे वापस नैनी लौटने को कहते थे।’
‘नहीं, बुआ। अब तो दक्खिन जाऊँगा, पिताजी के पास।’
बुआ को जैसे विश्वास न हुआ। कुछ याद-सी करती बोली, ‘रवि, इस बार तुम्हें नैनी में अच्छा नहीं लगा।’
‘नहीं, नहीं, बुआ।’
बुआ चाहती थी, मुझसे कुछ पूछे। मैं चाहता था, बुआ से कुछ कहूँ; पर किसी से भी शब्द जुड़े नहीं।
स्टेशन पर जाने लगा, तो बुआ के पाँव छुए। बुआ बहुत बड़ी नहीं है मुझसे। पिताजी की सबसे छोटी मौसेरी बहन होती है, पर दिल में कुछ ऐसा-सा लगा कि बुआ का आशीर्वाद चाहता हूँ।
बुआ हैरान हुई, फिर हँसकर बोली, ‘रवि, तुमने पाँव छुए हैं, तो आशीर्वाद ज़रुर दूँगी...बहुत सुंदर बहू पाओ।’
मैं न हँसा, न लजाया। बुआ चुप-सी रह गई। जिस नटखट भाव से वह कुछ कह गई थी, उसे मानो अनदेखे संकोच ने घेर लिया।
टिकट लिया, कुली के पास सामान छोड़ प्लेटफ़ार्म पर घूमने लगा। आमने-सामने कोई गाड़ी नहीं थी। लाइनों पर बिछे ख़ालीपन ने उलझे मन को एकाएक खोल दिया। जो कुछ भी सोच रहा था, सोचता चला गया। मन न भुवाली पर अटका था, न ‘पाइन्स’ पर, न मन्नो पर। पिछला सब बीत गया लगा। बुआ का आशीर्वाद कल्पना में मुखर आया। घर होगा, घर की रानी होगी, मैं होऊँगा...
बुआ का आशीर्वाद झूठ नहीं निकला। सच में ही मेरा घर बना। सुंदर घरनी आई, उसे मैं ही ब्याहकर लाया। पर उस दिन जहाँ का टिकट ले लिया था, वहाँ की गाड़ी मुझे खींचकर उस प्लेटफ़ार्म पर से ले जा नहीं सकी।
गाड़ी आ लगी है। कुली सामान लगाता है और मैं बाहर खड़े,खड़े देखता हूँ—’मुसाफ़िर, कुली, सामान, बच्चे, बूढ़े...’
‘साहिब, गाड़ी छूटने में दस मिनट हैं।’
मैं अपनी घड़ी देखता हूँ, और सिर हिला देता हूँ कि मैं जानता हूँ।
कुली फिर एक बार अंदर जाकर असबाब ऊपर-नीचे करता है और साफ़ा ठीक करते हुए बाहर निकलकर कहता है, ‘हरी बत्ती हो गई है, साहिब।’
बत्ती की ओर देखता हूँ और देखता चला जाता हूँ, वही क़द है, वहीं दुबली,पतली देह, वही धुला,धुला-सा चेहरा, वही...वही...
आवेश से कहता हूँ, ‘कुली, सामान उतार लो।’
‘साहिब।’
‘जल्दी करो, जल्दी।’
कुली फिर मेरे सामान के साथ है। टिकट वापस कर नया ले लिया। स्टेशन से फल के टोकरे बँधवाए, चाय पी और बरेली के लिए गाड़ी में जा बैठा। जहाँ मुझे जाना है, वहीं जाकर हटूँगा, जब मैं नहीं रुकता हूँ तो मुझे कौन रोकेगा? क्यों रोकेगा?
घर में आगे लॉन में बैठा सर्दियों की ढलती धूप में अलसा रहा हूँ। अंदर से माँ निकलीं और पास बैठते हुए कहा, ‘बेटा, इस बार छुट्टी में आ ही गए तो ठहर जाओ। बार-बार इंकार करना अच्छा नहीं लगता।’
माँ की बात सुनकर मैं सयाने बेटे की तरह हँसता हूँ और मन ही मन सोचता हूँ कि माँ कितना ठीक कहती है। अपनी नौकरी पर रहता हूँ और अकेले आदमी के ख़र्च से कहीं अधिक कमाता हूँ, फिर क्यों इंकार करूँगा? माँ की आशा के विपरीत बड़ी आवाज़ में कहता हूँ, ‘माँ, जो तुम्हें रुचे, वही मुझे भाएगा।’
‘बेटा, लड़की देखना चाहोगे?’
‘हाँ, माँ।’
लगा, माँ मन,ही, मन हँसी।
खाने के बाद रात को घूमकर आया, तो कमरे में शांति थी, मन मे शांति थी। किसी को देखने के लिए कॉलेज के दिनों वाली उतावली जिज्ञासा मन में नहीं रह गई थी। लगा कि अकेले रहते-रहते किसी के संग की आशा नहीं कर रहा, उसे तो अपना अधिकार करके मान रहा हूँ।
हाथ में किताब लेकर रात को लेटा, तो पढ़ते-पढ़ते ऊब गया। आँखों के अँधेरे में देखा, किसी पहाड़ पर चढ़ा जा रहा हूँ। दूर चीड़ के पेड़ों के झुंड-के-झुंड दिखते हैं, आसमान सब सुनसान है, अपनी पदचाप के सिवाए कोई आवाज़ नहीं। एकाएक आदमी का स्वर गूँजता है, इधर...उधर...और अँधेरे में हिलता एक हाथ आगे बढ़ा,बढ़ा आता है मेरे गले की ओर...निकट...और निकट...
दुबली कलाई पतली अँगुलियाँ...मैं डरता हूँ...पीछे हटता हूँ और घबराकर आँखें खोल देता हूँ।
उठा, खिड़की का परदा उठाकर बाहर झाँका। लॉन के दाहिने हरी घास पर पिताजी के कमरे की लाइट फैली थी। सँभला। लंबी साँस लेकर बालों को छुआ, तो माथा ठंडा लगा।
भयावना सूनापन और अँधेरे में वह हाथ...वह हाथ...
मन से जिसे भूल चुका हूँ, उसे आज ही याद क्यों आना था...क्यों याद आना था...क्यों दिख जाना था उस हाथ को, जो वर्षों गए ‘पाइन्स’ की उतराई से उतरते-उतरते मैंने अंतिम बार देखा था? छुआ था, नहीं कहूँगा, क्योंकि असंख्य बार सोच-सोचकर छू-भर लेने के लिए बाँह आगे करनी, छू लेना नहीं होता।
महीना-भर नैनी में रहते हुए बार-बार भुवाली से लौटने के बाद जब अंतिम बार मैं मन्नो के पास से लौटा था, तो लौट-लौटकर उस लौटने को न लौटना करना चाहता था। तीन बार नीचे उतरा था और तीन बार मुड़कर ऊपर गया था।
मन्नो शाल में लिपटी आरामकुर्सी पर अधलेटी थी। पास खड़े होकर उसकी चुप्पी को जैसे उस पर से उतार देने को, उदास स्वर में कहा, ‘कल तो नैनी से नीचे उतर जाऊँगा।’
मन्नो ने नीचे फैले शाल को सहज-सहज सहेजा। एक महीने पहले वाली दृष्टि मुख पर लौट आई। वही पराया-सा देखना, वही दूर-दूर-सा लगता चेहरा...
मन्नो...चाहता हूँ, मन्नो से कुछ तो कहूँ, पर क्या कहूँ। यह कि जल्दी लौटूँगा।
क्षण-क्षण अपने से कहता हूँ, आऊँगा, फिर आऊँगा, पर जिस निगाह से मन्नो मुझे देखती है, वह जैसे बिना बोल के यह कहे जा रही है कि अब तुम यहाँ नहीं आओगे।
‘मन्नो।’
‘रवि।’—और, और बस कठिन-सी होकर थोड़ा-सा हँसी और हाथ जोड़ दिए।
‘नमस्कार।’
इन जुड़े-जुड़े हाथों को देखता रहा। ज़रा-सा आगे बढ़ा कि विदा लूँ, विदा दूँ, पर न जाने क्यों खड़ा-का-खड़ा रह गया।
समझाने के-से स्वर में मन्नो बोली, ‘देरी होती है, रवि।’
जी भरकर देखने वाली अपनी आँखों को झुकाकर मैं जल्दी,जल्दी नीचे उतर गया।
मैं फिर लौटूँगा...फिर...पर क्या सदा के लिए चला जा रहा हूँ...
मुड़कर पीछे देखा और खिंचकर ठिठक गया। मन्नो वहीं, उसी मुद्रा में बैठी थी।
मानो वह जानती थी कि लौटूँगा। साथ पड़ी कुर्सी की ओर संकेत कर कहा, ‘बैठो, रवि।’—स्वर में न व्यथा थी, न संग छूटने की उदासी थी, न मेरे आने पर आश्चर्य था।’ आँखों-ही-आँखों में कुछ ऐसा देखा, जैसे पूछती हो, ‘कुछ कहना है?’
मैं अपने को बच्चे की तरह छोटा करके कहता हूँ, ‘मन्नो, मन नहीं होता जाने को।’
मन्नो कुछ देर देखती रही। मैं चाहता हूँ, मन्नो कुछ भी कहे, कहे तो...
एक छोटी-सी साँस जैसे छोटी-से-छोटी घड़ी के लिए उसके गले में अटकी, फिर, फिर घने स्वर में कहा, ‘एक-न-एक बार तो तुम्हें चले ही जाना है, रवि...’
मैं हाथों से घेरकर उस देह को नहीं, तो उस स्वर को छू लेना चाहता हूँ, चूम लेना चाहता हूँ। ‘मन्नो!’ आगे बढ़ता हूँ, कुछ रोक लेने की, थाम लेने की मुद्रा में मन्नो दोनों हाथ आगे डाल देती है, बस।
‘मन्नो!’ अपना अनुरोध उस तक पहुँचाना चाहता हूँ।
‘नहीं।’ इस ‘नहीं’ के आगे नहीं है, और कुछ नहीं।
मन्नो दुबला-सा हाथ हिलाकर आँखों से मुझे विदा देती है और मैं विवश-सा, व्यर्थ-सा नीचे उतरता हूँ।
आँखों पर धुंध-सी उमड़ आती है, सँभलता हूँ, सँभलता हूँ और एक बार फिर पीछे देखता हूँ।
बिलकुल ऐसे लगता है कि किनारे पर खड़ा हूँ और किश्ती में बैठी मन्नो वहीं चली जा रही है...वह मुझे नहीं देखती, नहीं देखती, उसकी आँखों के आगे उसके अपने हाथों की रोक है, अपने हाथों की ओट है।
हाथों पर टिका मन्नो का सिर नीचे झुका है, आँखें शायद बंद हैं, शायद गीली हैं। उस कड़े आहत अभिमान की बात सोचकर छटपटाता हूँ।
क़दम उठाकर फाटक के पास पहुँचा, तो सिसकियाँ सुनकर रुक गया।
मन ही मन दुहराकर कहा, ‘मन्नो!...मन्नो!...’
इसी पुकार को पलटकर जैसे उत्तर आया, ‘ठहरो नहीं! रुको नहीं!’
सच ही मैं ठहरा नहीं। उतरता चला गया और हर पग के साथ दूर होता चला गया, उस कॉटेज से, कॉटेज में रहने वाली मन्नो से, मन्नो की उन दो आँखों से...पर मन्नो की स्मृति से नहीं। मन्नो की याद मुझे आज भी आती है। आज भी वह याद आती है, वह दुपहरी, जब मन्नो और मैं उस बड़ी झील के किनारे से लगी पगडंडी पर घूमते रहे थे। मीठा-मीठा-सा दिन था।
पहली बार उस पीले चेहरे की मिठास के सम्मुख मैं पानी-सा बह गया था। एकटक उन घुँघराले बालों को देखता रह गया था। और देखता गया था शाल में लिपटे उन कंधों को, जो पैरों की धीमी चाल से थककर भी झुकते नहीं थे।
परिक्रमा का अंतिम मोड़ आया, तो बहुत बड़े घने वृक्ष के नीचे देवी के दो छोटे,छोटे मंदिर दिखे। टीन के कपाट बंद थे। कुछ अधिक न सोचकर आगे बढ़ने को हुआ कि मन्नो को देखकर रुक गया। खड़ी-खड़ी कुछ देर सोचती रही। फिर जूते उतार नंगे पाँव किनारे के पत्थरों से नीचे उतर गई। बड़े-से पत्थर पर पाँव जमाया और झुककर डंठल से कमल तोड़ वापिस लौट आई। मैं तो कुछ सोच नहीं रहा था, बस, देखता चला जा रहा था। शाल सिर पर कर लिया था और उन बंद कपाटों के आगे वाली दहलीज़ पर फूल रखकर सिर नवा दिया।
मंदिर के बंद कपाटों के आगे माथा टेक उठी, तो मानो मन्नो-सी नहीं लग रही थी। ऐसे दिखा कि यह झुकी छाया मन्नो नहीं, कोई व्यर्थ हो गई विवशता हो, जिसने भाग्य के इन बंद कपाटों के आगे माथा टेक दिया था। इस निर्मम अकेलेपन के लिए मन में ढेर-सा दर्द उठ आया। बहते,से स्वर में कहा, ‘दर्शन करने का मन हो, मन्नो, तो किसी से पुजारी का स्थान पूछूँ?’
मन्नो ने कुछ कहने से पहले स्वर को सँभाला, फिर सिर हिलाकर कहा, ‘नहीं, रवि, ऐसा कुछ नहीं। मुझे कौन से वरदान माँगने हैं। अपने लिए तो कपाट बंद हो गए हैं। बस, इतना ही चाहती हूँ, यह कपाट उनके लिए खुले रहें, जिनसे बिछुड़कर मैं अलग आ पड़ी हूँ।’
मन्नो को छूने का भय, उसके रोग का भय, जो अब तक मुझे रोकता था, बाँधता था, अलग जा पड़ा। झील की ठंडी हवा में फहराते-से घुँघराले बालों पर झुककर बाँह से घेरते हुए कहा, ‘मन्नो!...’
मन्नो चौंकी नहीं। कंधे पर पड़ा हाथ धीरे से अलग कर दिया और समूची आँखों से देखते हुए बोली, ‘रवि, जिसे तुम झेल नहीं सकते, उसके लिए हाथ न बढ़ाओ!’
आवाज़ में न उलाहना था, न व्यंग्य था, न कटुता। बस, जो कहने को था, वही कहा गया था। इस कहने का उत्तर मैं उस दिन नहीं दे पाया। बार-बार मन्नो के पास जाने पर भी नहीं दे पाया और नहीं दे पाया विदा के उन क्षणों में, जब मन्नो को रोता छोड़, मैं अंतिम बार ‘पाइन्स’ की उतराई उतरता चला गया था। जिस दुर्बलता से कायर बनकर डरा था, वह आज अपने पर ही बीत गई है। आज अपने लिए, मन्नो के लिए उस कायरता को कोसता हूँ।
घर में चहल-पहल थी। माँ को सुंदर बहू मिली, मुझे भली संगिनी। भोलेपन से मुस्कराती मीरा को देखता हूँ, तो कहीं खो जाने को मन चाहता है। लेकिन अब खोऊँगा क्यों? अब तो बँध गया हूँ, बँधा ही रहूँगा। आस-पास नाते-रिश्ते हैं, मित्र-बंधु हैं। ब्याह वाले घर के ऊँचे क़हक़हे सुनकर ख़ुशी से मन उमड़-उमड़ जाता है। कैसा आयोजन है यह भी! एक दिन जो बात शुरू हो जाती है, उसे सम्पूर्णतया पूर्ण कर दिया जाता है। इतने समूचे मन से ब्याह के सिवाए और क्या होता है, जो संपन्न होकर एक टेक पर, एक विराम पर पहुँच जाता है। तन-मन, घर-द्वार, अंदर-बाहर सब एक ही प्यार में भीग जाते हैं। कल मीरा को लेकर समुद्र-किनारे चला जाऊँगा। महीना-भर रुककर वहाँ के लिए प्रस्थान करेंगे, जहाँ अब तक मैं बेघर-सा होकर रहता रहा हूँ।
उस अपार, असीम सागर के किनारे एक-दूसरे पर छा-छा जाते हम घंटों घूमते रहे। बीच-बीच में ठहरते और मोहवश एक-दूसरे में छिपे अपने-अपने प्यार को चूमते। सुबह-शाम, दिन-रात कहाँ छिपते, कहाँ डूबते, यह हम देख-देखकर भी नहीं देखते थे।
इसके बाद, प्रहरों की तरह बीत गए वे दस वर्ष। संग-संग लगे बिछोह से दूर मग्न दिन-रात। मीरा और बच्चों से दूर इस कॉटेज में पड़ा-पड़ा आज भी पीछे लौटता हूँ, तो बहुत निकट से किसी साँस का स्वर सुनता हूँ।
हम कितने सुखी हैं, कितने! चाहता हूँ, किसी की आँखों में देखकर इसका उत्तर दूँ। किसी को छूकर कुछ कहूँ, पर सुनने वाला कोई नहीं। बच्चों के लिए मीरा ने मेरा मोह छोटा कर लिया।
गए महीने रानीखेत जाते मीरा बच्चों के संग घंटे-भर को यहाँ रुकी थी। बरामदे में लेटे-लेटे उन तीनों को ऊपर आते देखता रहा। फाटक पर पहुँचकर मीरा पल-भर को ठिठकी थी।
फिर दोनों हाथों से बच्चों को घेरे के अंदर ले आई।
‘मुन्ना, रानी, प्रणाम करो, बेटा।’
बच्चों के झिझक से बँधे हाथ मेरी ओर उठे।
देखकर कंठ भर आया। मेरा भाग्य मुझसे दूर, मुझसे अलग जा पड़ा है। मेरे ही बच्चे आश्चर्य की दृष्टि से मुझे देख माँ की आज्ञा का पालन कर रहे हैं।
मीरा जब तक रही, आँखें पोंछती रही। कुछ कहने को, कुछ पूछने को उसका स्वर बँधा नहीं। अपने सुंदर सुकुमार बच्चों को अपने ही डर के कारण पूरी तरह निरख नहीं पाया।
केवल मीरा की ओर देखता रहा कि जो आज मुझे मिलने आई है, उसमें मेरी पत्नी कहाँ है, कहाँ है वह जो सचमुच में मेरी थी।
भरी आँखों से मीरा की कलाई की घड़ी देखने को निठुराई से आहत हो मैं फटी-फटी, रूखी दृष्टि से फाटक की ओर देखने लगा कि मेरा ही परिवार कुछ क्षण में मुझे यहाँ अकेला छोड़, मुझसे दूर चला जाएगा। एक बार मन हुआ कि बच्चों को पकड़ने वाली उन दो बाँहों को अपनी ओर खींचकर कहूँ, ‘मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा। नहीं जाने दूँगा!’—पर बच्चों की छोटी-छोटी आँखों का अपरिचय उस आवेश को दूर तक काटता चला गया।
चौंककर देखा, मीरा पास आकर झुकी और अधरों से मस्तक छूकर हौले से पीछे हट गई। उठ बैठा कि एक बार प्यार दूँ, एक बार प्यार लूँ...कि हाथों में मुँह छिपा रोते-रोते मीरा इन बाँहों से आ लगी।
मीरा की आँखों से भीगी अपनी रोती आँखों को पोंछकर आस-पास देखा, तो टूटा बाँध सब कुछ बहा ले गया था। न पास मीरा थी, बच्चे...।
तकियों के सहारे सिर ऊँचा करके देखा, उतराई के तीसरे मोड़ पर तीनों चले जा रहे थे। मीरा मेरी ओर से पीठ मोड़े आगे की ओर झुकी थी, बच्चे एक-दूसरे की अँगुली पकड़े कभी माँ को देखते थे, कभी राह को।
साँस रोके प्रतीक्षा करता रहा, पर किसी ने पीछे नहीं देखा, न मीरा ने, न मेरे बेटे ने...केवल छोटी रानी के बालों में गुँथा गुलाबी रिबन देर तक हिल-हिलकर मेरी आँखों से कहता रहा, ‘पापा, हम चले गए!’
सच ही सब चले गए हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें जाना था, इसलिए कि मैं चला जा रहा हूँ। ऐसे ही एक दिन मन्नो के जाने को भाँपकर मैं उतराई में उतरता चला गया था। मेरी ही तरह अकेले में मन्नो रोई थी। अब जान पाया हूँ कि हाथों में मुँह छिपाकर वह रोना कितना अकेला था! पर इस बार जाकर बरसों मैंने मन्नो की सुधि नहीं ली। जब कभी नींद में देखता, वह दुबली देह, बड़ी-बड़ी आँखें और कंबल पर फैली पतली-पतली बाँहें, तो जागकर उद्वेग से मीरा की ओर बढ़ जाता।
एक बार दौरे पर लखनऊ आया, तो बुआ मिली। देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एकाएक स्वर बदलकर बोली, ‘रवि, मन्नो तो अब नहीं रही।’
‘नहीं, बुआ’—मैं पिता हो जाने के गांभीर्य को सँभालते कहता हूँ, ‘नहीं, बुआ...’
बुआ जैसे मुझे कई वर्षों पहले के उस रवि को कहती है, ‘रात को सोई तो जगी नहीं। अम्मा छुट्टी पर थीं। सुबह-सुबह ख़्याली अंदर आया, तो साँस चुक गई थी।
मैं रुँधे गले से जैसे कुछ पूछने को कहता हूँ, ‘बुआ।’
बुआ आँख पोंछती-पोंछती कुछ सोचती रही, फिर दर्द से बोली, ‘रवि, एक बार उसे पत्र तो लिखते।’
मैं रूमाल से रुलाई सोखने लगा।
‘तुम्हारे नाम का एक पारसल छोड़ गई थी आलमारी में। खोला, तो जर्सी थी।’
दूसरे दिन बुआ के पास फिर आया, तो जल्दी-जल्दी पाँव छूकर कहा, ‘अच्छा बुआ...’
‘रवि’—बुआ की वही कल वाली आवाज़ थी। मैंने सिर हिलाकर घोर विवशता के-से स्वर में कहा, ‘नहीं, बुआ, नहीं।’
बुआ समझ गई, मैं कुछ भी जानना नहीं चाहता हूँ। पर जैसे मन ही मन मन्नो के लिए टूटकर बोली, ‘यही बार-बार सोचती हूँ कि जिसके प्यार को भी कोई न छू सके, ऐसा दुर्भाग्य उसे क्यों मिला, क्यों मिला?’
लखनऊ से लौटकर मैं कई दिन मन से मन्नो को उतार नहीं पाया। यही देखता कि ‘पाइन्स’ में कुर्सी पर बैठी वह मेरे लिए जर्सी तैयार कर रही है, वही हाथ हैं, वही दृष्टि है...
और एक दिन सालभर घर में बीमार रहने के बाद मैं भुवाली पहुँच गया। वही चीड़ की ठंडी हवाएँ थीं, वही सुहानी धूप थी। वही भुवाली थी और वही मैं था। पर इस बार किसी को पता करने मुझे पोस्ट ऑफ़िस की ओर नहीं जाना था। ‘पाइन्स’ के सामने वाले पहाड़ पर किसी के अभिशाप से बनी कॉटेज में पहली बार सोया, तो भर-भर आँते कंठ से रातभर एक ही नाम पुकारता रहा, ‘मन्नो...मन्नो!..आज वह होती...होती तो...’
हर रोज़ सुबह उठते बरामदे से ‘पाइन्स’ देखता हूँ और मन ही मन पुकारता हूँ, ‘मन्नो!...मन्नो!!...’
जिस मीरा को मैंने वर्षों जाना है, वह अब पास-सी नहीं लगती, अपनी-सी नहीं लगती। उसे मैंने छू-छूकर छुआ था, चूम,चूमकर चूमा था, पर मन पर जब मोह और प्यार की उछलन आती है, तो मीरा नहीं, मन्नो की आँखें ही सगी दिखती हैं।
खिड़की के सामने लेटे-लेटे, अकेलेपन से घबराकर जब मैं बाहर देखता हूँ, तो धुंधभरे बादलों के घेरों में घुँघराले बालों वाला वही चेहरा दिखता है, वही...
आए दिन दवा के नए बदलते हुए रंग देखकर अब इतना तो जान गया हूँ कि इस छूटते-छूटते तन में मन को बहुत देर भटकना नहीं है। एक दिन खिड़की से बाहर देखते-ही-देखते इन्हीं बादलों में समा जाऊँगा...इन्हीं घेरों में...
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main leta rahta hoon aur subah ho jati hai main leta rahta hoon sham ho jati hai main leta rahta hoon raat jhuk jati hai darwaze aur khiDakiyon par paDe parde meri hi tarah din raat, subah sham, akele maun bhaw se latakte rahte hain koi inhen bhare bhare hathon se uthakar kamre ki or baDha nahin aata koi is dehri par anayas musakrakar khaDa nahin ho jata raat, subah, sham bari bari se meri shayya ke pas ghir ghir aate hain aur main apni in phiki ankhon se andhere aur ujale ko nahin, lohe ke palang par paDe apne aapko dekhta hoon, apne is chhutte chhutte tan ko dekhta hoon aur dekhkar rah jata hoon aaj is tarah jane ke siway kuch bhi mere wash mein nahin rah gaya sab alag ja paDa hai apne kandhon se juDi apni banhon ko dekhta hoon, meri banhon mein lagi we bhari bhari banhen kahan hain kahan hain we sugandh bhare kesh, jo mere waksh par bichh bichh jate the? kahan hain we ras bhare adhar jo mere ras mein bheeg bheeg jate the? sab tha, mere pas sab tha bus, main aaj sa nahin tha jine ka sang tha, sone ka sang tha aur uthne ka sang tha main dhule dhule sirhane par sir Dalkar sota rahta aur koi haule se chamakkar kahta—uthoge nahin bhor ho gai
ankhen band kiye kiye hi hath us mohabhri deh ko gher lete aur raat ke bite kshnon ko soongh lene ke liye apni or jhukakar kahte—itni jaldi kyon uthti ho
halki si hansi aur banhen khul jatin ankhen khul jatin aur grihasthi par subah ho aati phulon ki mahak mein nashta lagta dhule taze kapDon mae lipatkar grihasthi ki malkin adhikar bhare sanyam se samne baithe raat ke sapne sakar kar deti pyale mein doodh unDelati un anguliyon ko dekhta kya mere balon ko sahla sahlakar sihra dene wala sparsh inhin ki pakaD mein hai? anchal ko thame aage ki or utha hua kapDa jaise donon or ki mithas ko sambhalne ko satark rahta kshan bhar ko lagta, kya gahre mein jo mera apna hai, ye uske upar ka awarn hai ya jo kewal mera hai, wo isse pare, isse niche kahin aur hai ek shithil magar bahti bahti chah wibhor kar jati main hota, mujhse lagi ek aur deh hoti usmen mithas hoti, jo raat mein lahra lahra jati
aur ek raat bhuwali ke is kshayagrast andhiyare mein aati hai kambal ke niche paDa paDa main dawa ki shishiyan dekhta hoon aur un par likhe wigyapan dekhta hoon ghoont bharkar ab inhen pita hoon, to sochta hoon, tan ke ras reet jane par haD mans sab kath ho jate hain, mitti nahin kahta hoon, kyonki mitti ho jane se to mitti se phir ras ubharta hai, abhi to mujhe mitti hona hai
kaise saraste din the! tan man ko sahlate bahlate us ek raat ko main aaj ke is shunya mein tatolta hoon sardiyon ke ekant maun mein ekayek kisi ka adesh pakar main kamre ki or baDhta hoon bulb ke nile parkash mein do adhakhuli thaki thaki palken zara si uthti hain aur banh ke ghere tale soe shishu ko dekhkar mere chehre par thahar jati hain jaise kahti hon—tumhare alingan ko tumhara hi tan dekar sajiw kar diya hai main uthta hoon, thanDe mastak ko adhron se chhukar ye sochte sochte uthta hain ki jo pyar tan mein jagta hai, tan se upajta hai, wahi deh pakar duniya mein ji bhi aata hai
par kahin ek dusra pyar bhi hota hai jo pahaD ke sukhe badlon ki tarah uth uth aata hai aur bina barse hi bhatak bhatakkar rah jata hai warshon bite ek bar garmi mein pahaD gaya tha bua ke yahan pahli bar un ankhon si ankhon ko dekha tha dhupati subah thi nashte ki mez se utha, to parichai karwate karwate na jane kyon bua ka swar zara sa atka tha sans lekar kaha “minni se milo, rawi, do hi din yahan rukegi ”— bua ke mukh se ye phika parichai achchha nahin laga wo kuch boli nahin, sir hilakar abhiwadan ka uttar diya aur zara si hans di us door door tak lagne wale chehre se main apne ko lauta nahin saka us patle, kintu bhare bhare mukh par kaskar bandhe ghunghrale balon ko dekhkar man mein kuch aisa sa ho aaya ki kisi ke gahre ulahane ki saza apne ko de Dali gai hai
sab uthkar bahar aaye, to bua ke bachche us dubli deh par paDe anchal ko kheench snehawash un banhon se lipat lipat gaye—manno jiji manno jiji bua kisi kaam se andar ja rahi thi, khilkhilahat sunkar laut paDin bua ka wo kathin, bandha aur khinchawat ko chhipane wala chehra main aaj bhi bhula nahin hoon kaDe hathon se bachchon ko chhuDati, thanDi nigah se manno ko dekhti hui Dhile swar mein boli “jao manno, kahin ghoom aao tumhein uljha uljhakar to ye bachche tang kar Dalenge ”—man ki ghuDki ankhon hi ankhon mein samajhkar bachche ek or ho gaye bua ke khali hath jaise jhempkar niche latak gaye aur manno ki baDi baDi ankhon ki ghani palken na uthi, na giri, bus ektak bua ki or dekhti gai
bua is sankoch se ubri, to manno dhimi gati se phatak se bahar ho gai thi kuch samajh lene ke liye agrah se bua se puchha “kaho to bua, baat kya hai?
bua atki, phir jhijhakkar boli “bimar hai, rawi, do warsh sainetoriyam mein rahne ke baad ab sethji ne wahin cottage le di hai sath ghar ka purana naukar rahta hai kabhi akele ji ub jata hai, to chaar din ko shahr chali jati hai
“rawi, jab kabhi chaar chhe mahine baad laDki ko dekhti hoon, to bhookh pyas sab sookh jati hai ”
main bua ki is sachchai ko kured lene ko kahta hoon “bua, bachchon ko ekdam alag karna theek nahin hua, pal bhar to ruk jati ”
bua ne bahut kaDi nigah se dekha, jaise kahna chahti ho—tum ye sab nahin samjhoge aur andar chali gai bachche apne khel mein jut gaye the main khaDa khaDa bar bar cigarette ke dhune se apne tan ka bhay aur man ki jigyasa uData raha uljha uljha sa main bahar nikla aur utrai utarkar jheel ke kinar kinare ho gaya saDak ke sath sath is or chhanh thi uchhal uchhal aati pani ki lahren kabhi dhoop se rupahli ho jati theen dewi ke mandir ke aage pahuncha, to ruka, jangle par hath tikaye jheel mein naukaon ki dauD ko dekhta raha balishth hathon mein chappu thame kuch yuwak tez raftar se talital ki or ja rahe hain, pichhe ki kashti mein apne tan man se beख़bar ek prauDh baithe ungh rahe hain uske pichhe bote club ki kishti mein wideshi yuwatiyan phir aur do chaar palwali naukayen
ekayek kishti mein nahin, jaise pani ki nichi satah par wahi pila chehra dekhta hoon, wahi baDi baDi ankhen, wahi dubli patli banhen, wahi bua ke gharwali manno do chaar bar man hi man nam dohrata hoon, manno, manno, manno main unche kinare par khaDa hoon aur pani ke sath sath manno wahin chali ja rahi hai khinche ghunghrale baal, anajhpi palken par bua kahti thi bimar hai, manno bimar hai
jangle par se hath uthakar bua ke ghar ki disha mein dekhta hoon china ki choti apne pahaDi sanyam se sir uthaye sada ki tarah sidhi khaDi hai ek Dhalti si pathrili Dhalan ko usne jaise hath se thame rakha hai aur main niche is saDak par khaDe khaDe sochta hoon ki sab kuch roz jaisa hai, kewal man se ubhar ubhar aati we do ankhen nai hain aur un do ankhon ke pichhe ki wahi bimari jise koi chhu nahin sakta, koi ubar nahin sakta
ghar pahuncha, to bua bachchon ko lekar kahin bahar chali gai thi kuch der Draing room mein baitha baitha bua ke sughaD hathon dwara ki gai sajawat dekhta raha qimti phuldanon mein pagai gai pahaDi jhaDiyan sundar lagti theen kaibinet par baDi phrem mein lage sapriwar chitr ke aage khaDa hua, to bua ke sath khaDe phupha ki or dekhkar sochta raha ki bua ke liye is chehre par kaun sa akarshan hai, jisse bandhi bandhi wo din raat, warsh mas apne ko nibhati chali aati hai par nahin, bua hi ke ghar mein hokar ye sochna man ke sheel se pare hai
jhijhakkar Draing room se nikalta hoon aur apne kamre ki siDhiyan chaDh jata hoon cigarette jalakar jheel ke dakkhini kinare par khulti khiDki ke bahar dekhne lagta hoon hare pahaDon ke chhote baDe akaron mein teen ki lal lal chhaten aur beech beech mein matyali pagDanDiyan bua khane tak laut ayegi aur manno bhi to der tak tan tan ke sath naukar ne khane ke liye anurodh kiya
“khana lagega, sahib?”
“bua kab tak lautengi?”
“khane ko to mana kar gai hain ”
kathan ke rahasy ko main in arthahin si ankhon mein paDh jane ke prayatn mein rahta hoon —“aur jo mehman hain?”
naukar tatparta se jhukkar “apke sath nahin, sahib wo alag se upar khayengi ”
main ek lambi sans bharkar jale cigarette ke tukDe ko pair ke niche kuchal deta hoon shayad sath khane ke Dar se chhutkara pane par ya shayad sath na kha sakne ki wiwashta par is din khane ki mez par akele khana khate khate kya sochta raha tha, aaj to yaad nahin bus itna yaad hai, kante chhuri se ulajhta bar bar main bahar ki or dekhta tha
mitha kaur munh mein lete hi ghoDe ki tap sunai di, thithakkar suna “salam sahib ”
dhimi magar sadhi awaz “do ghante tak pahunch sakoge n?”
“ji, huzur ”
siDhiyon par aahat hui aur apne kamre tak pahunchakar khatm ho gai khane ke bartan uth gaye main utha nahin dobara coffe pi lene ke baad bhi wahin baitha raha ekayek man mein aaya ki kisi chhote se parichai se man mein itni duwidha upja lena kam chhoti durbalta nahin hai akhir kisi se mil hi liya hoon to uske liye aisa sa kyon hua ja raha hoon
ghante bhar baad main kisi ki pairon chali siDhiyon par upar chaDha ja raha tha khule dwar par parda paDa tha haule se thap di
“chale aiye ”
parda uthakar dehri par panw rakha hath mein kashmiri shaal liye manno attachi ke pas khaDi thi dekhkar chaunki nahin sahj swar mein kaha “aiye” aur sofe par phaile kapDe uthakar kaha “baithiye ”
baithte baithte socha, bua ke ghar bhar mein sabse adhik saja aur saf kamra yahi hai naya naya furniture, qimti parde aur in sabmen halke pile kapDon mein lipti manno achchha laga
baat karne ko kuch bhi na pakar bola “ap lanch to ”
“ji, le chuki hoon ” aur bharpur nigahon se meri or dekhti rahi
main jaise kuch kahalwa lene ko kahta hoon “bua to kahin bahar gai hain ”
sir hilakar manno shaal ki tah lagati hai aur suitcase mein rakhte rakhte kahti hai “sham mein pahle hi niche utar jaungi bua se kahiyega, ek din ko i thi ”
“bua to aati hi hongi ”
iska uttar na shabdon mein aaya, na chehre par kahte kahte ek bar ruka, phir na jane kaise agrah se kaha “ek din aur nahin ruk sakengi?”
wo kuch boli nahin band karte suitcase par jhuki rahi
phir pal bhar baad jaise sneh bhare hath se apne balon ko chhua aur hansakar kaha “kya karungi yahan rahkar? bhuwali ke itne baDe ganw ke baad ye chhota sa shahr man ko bhata nahin ”
wo chhoti si khilkhilahat, wo kaDwahat se bhare ka wyangya, aaj itne warshon ke baad bhi, main waise hi bilkul waise hi sun pata hoon wahi shabd hain, wahi hansi hai aur wahi pili si surat
hum sang sang niche utre the meri banh par manno ka coat tha naukar aur mali ne jhukkar salam kiya aur atithi se inam paya sais ne ghoDe ko thapthapaya
“huzur, chaDhengi?”
uDi uDi nazar un ankhon ki banh par latke coat par atki
“paidal aungi thoDa aage aage liye chalo ”
chaha ki ghoDe par chaDh jane ke liye anurodh karun par kah nahin paya
phatak se bahar hote hote wo pal bhar ko pichhe muDi, jaise chhoDne ke pahle ghar ko dekhti ho phir ekayek apne ko sambhalkar niche utar gai rah mein koi bhi kuch bola nahin
taxi khaDi thi, saman laga Draiwar ne un kathin kshnon ko mano bhanpakar kaha “kuchh der hai, sahib?”
manno ne is bar kahin dekha nahin coat lene ke liye meri or hath baDha diya wo kar mein baithi kuli ne tatparta se pichhe se kambal nikala aur ghutnon par Dalte hue kaha “kuchh aur, mem sahib?”
ghunghrali chhanh Dhili si hokar seat ke sath ja tiki ghutnon par patli patli si wiwash banhen phailate hue dhire se kaha “nahin, nahin, kuch aur nahin dhanyawad ”
adhakhule kanch mein andar jhanka mukh par thakan ke chihn the banhon mein machhli—mukhi kangan the ankhon mein kya tha, ye main paDh nahin paya wo pili, patajhDi drishti un hathon par jami thi, jo kambal par ek dusre se lage maun paDe the
kar start hui main pichhe hata aur kar chal di widai ke liye na hath uthe na adhar hile moD tak pahunchne tak pichhe ke shishe se sadgi se bandha balon ka ribbon dekhta raha aur der tak wo dardile dhanyawad ki goonj sunta raha—nahin, nahin, kuch aur nahin
we pal apni kalpana mein aaj bhi lautata hoon, to ji ko kuch hone lagta hai us kar ko bhaga le jane wali sukhi saDak se ghumkar main tal ke kinare kinare chala ja raha hoon apne ko samjhane bujhane par bhi wo chehra, wo bimari man par se nahin utarti ruk rukkar, thak thakkar jaise main us din ghar ki chaDhai chaDha tha, use yaad kar aaj bhi niDhal ho jata hoon ghar pahuncha baramde mein se kuli furniture nikal rahe the man dhakka khakar rah gaya to us manno ke kamre ki sajawat, sukh suwidha, sab kiraye par bua ne jutaye the dopahar mein bua ke prati jo kuch jitna bhi achchha laga tha, wo sab ulta ho gaya
age baDha, to dwar par bua khaDi thi sandeh se mujhe dekh aur pas hokar phike gale se kaha “rawi, munh hath dho Dalo, saman sab taiyar milega wahan, jaldi lautoge na, chay lagne ko hi hai ”
chupchap bathrum mein pahunch gaya saman sab tha munh hath dhone se pahle gilas mein Dhakkar rakhe garm pani se gala saf kiya aisa laga kisi ki ghuti ghuti jakaD mein se bahar nikal aaya hoon kapDe badalkar chay par ja baitha bachche nahin, kewal bua thi bua ne chay unDeli aur pyala aage kar diya
“bua ”
bua ne jaise suna nahin
“bua, bua ”—pal bhar ke liye apne ko hi kuch aisa sa laga ki kisi aur ko pukarne ke liye bua ko pukar raha hoon bua ne wiwash ho ankhen upar uthain samajh gaya ki bua chahti hain, kuch kahun nahin, par main nahin ruka
“bua, do din ki mehman to ek hi din mein chali gai ”
bua chammach se apni chay hilati rahi kuch boli nahin is maun se aur bhi nirdayi ho aaya
“kahti thi “bua se kahna main ek hi din ko i thi ”
imke aage bua jaise kuch aur sun nahin saki gahra lamba shwas lekar aahat ankhon se mujhe dekha “tum kuch aur nahin kahoge, rawi”, aur chay ka pyala wahi chhoD kamre se bahar ho gai
us raat daure se phupha ke lautne ki baat thi naukar se puchha, to pata laga, do din ke baad aane ka tar aa chuka hai chaha, ek bar bua ke kamre tak ho aun, sankochwash panw uthe nahin der baad siDhiyon mein apne ko paya, to samne manno ka khali kamra tha aage baDhkar bijli jalai, sab khali tha, na parde, na furniture na manno ” ekayek angihti mein lagi lakaDiyon ko dekh man mein aaya, aaj wo yahan rahti, to raat der gaye iske pas yahin baithti aur main shayad isi tarah jaise ab yahan aaya hoon, uske pas aata, uske
ye sab kya soch raha hoon, kyon soch raha hoon
kisi andekhe bhay se ghabrakar niche utar aaya khiDki se bahar dekha, andhera tha sirhana khincha, bijli bujhai aur bistar par paDe paDe bhuwali ki wo chhoti si cottage dekhta raha, jahan ab tak manno pahunch gai hogi
“rawi ”
main chaunka nahin, ye bua ka swar tha bua andhere mein hi pas aa baithi aur haule haule sir hilati rahi
“bua ”
bua ka hath pal bhar ko thama phir kuch jhukkar mere mathe tak aa gaya rundhe swar se kaha “rawi, tumhein nahin, us laDki ko dulrati hoon ab ye hath us tak nahin pahunchta ”
main bua ka nahin, manno ka hath pakaD leta hoon
bua der tak kuch boli nahin phir jaise kuch samajhte hue apne ko kaDa kar boli “rawi, uske liye kuch mat socho, use ab rahna nahin hai ”
main bua ke sparsh tale siharkar kahta hoon “bua, mujhe hi kaun rahna hai?”
aj warshon baad bhuwali mein paDe paDe main asankhya bar sochta hoon ki us raat main apne liye ye kyon kah gaya tha? kyon kah gaya tha we abhishap ke bol, jo din raat mere is tan man par se sachche utre ja rahe hain sunkar bua ko kaisa laga, nahin janta wo hath khinchkar uth baithi roshni ki aur puri ankhon se mujhe dekhkar awishwas aur bhartasna se boli “pagal ho gaye ho, rawi! uske sath apni baat joDte ho jiske liye ab koi rah nahin rah gai, koi aur rah nahin rah gai ”
phir kursi par baithte baithte kaha “rawi, tum to use subah sham tak hi dekh pae ho main warshon se use dekhti i hoon aur aaj patthar si nishthur ho gai hoon use apna bachcha hi karke manti rahi hoon, ye nahin kahungi apne bachchon ki tarah to apne bachchon ke siway aur kise rakha ja sakta hai par jo kuch jitna bhi tha, wo pyar, wo dekhbhal sab byarth ho gaye hain kabhi chhutti ke din uski borDing se aane ki rah takti thi, ab uske aane se pahle uske jane ka kshan manati hoon aur Darkar bachchon ko liye ghar se bahar nikal jati hoon ”
bua ke bol kathin ho aaye
“rawi, jise bachpan ke mohawash kabhi Darana nahin chahti thi, aaj usi se Darne lagi hoon uski bimari se Darne lagi hoon ” phir swar badalkar kaha “tumhara aisa jiwat mujhmen nahin ki kahun, Darti nahin hun”—bua ne ye kahkar jaise mujhe tatola aur main bina hile Dule chupchap leta raha
bua asmanjas mein der tak mujhe dekhti rahi phir jane ko uthi aur ruk gai is bar swar mein agrah nahin, chetawni thi—“rawi, kuch hath nahin lagega jiske liye sab rah ruki hon, uske liye bhatko nahin ”
par us din bua ki baat main samjha nahin, chahne par bhi nahin
agli subah chaha ki ghoom ghumkar din bita doon ghoDa dauData laDiyakota pahuncha aur unhin pairon laut aaya ghar ki or munh karte karte na jane kyon, man ko kuch aisa laga ki mujhe ghar nahin, kahin aur pahunchna hai chaDhai ke moD par kuch der khaDa khaDa sochta raha aur jab Dhalti dupahri mein tallital ki utrai utra, to man ke aage sab saf tha
mujhe bhuwali jana tha
bus se utra aDDe par ramgaDh ke lal lal sebon ke Dher dekhkar ye nahin laga ki yahi bhuwali hai bus mein sochta aaya tha ki wahan ghutan hogi, par cheeD ke unche unche peDon se lahrati hawayen bah bah aati theen chhanh upar uthti hai, dhoop niche utarti hai aur bhuwali man ko achchhi lagti hai tan ko achchhi lagti hai chaurahe se hokar post office pahuncha cottage ka pata liya aur chhote se pahaDi bazar mein hota hua ‘pains’ ki or ho liya khuli chauDi saDak ke moD se achchhi si patli rah cottage ki or jati thi jangle ke niche dekha, alag alag khaDe pahaDon ke beech ki jagah par ek khuli chauDi ghati bichhi thi tirchhe sidhe, chhote chhote khet kisi ke ghutne par rakhe kaside ke kapDe ki tarah dharti par phaile the door samne dakhkhin ki or pani ka tal dhoop mein chandi ke thaal ki tarah chamakta tha
is pahli bar bhuwali aane ke baad main ek bar nahin, kai bar yahan aaya laut lautkar yahan aaya, par us aane jaisa aana to phir kabhi nahin aaya main chalta hoon, aur kuch sochta nahin hoon na ye sochta ki manno ke pas ja raha hoon, na ye sochta hoon ki main ja raha hoon bus chala ja raha hoon peD ke tane par likha hai, ‘pains’ lakDi ka phatak kholta hoon aur gamlon ki qataron ke sath sath baramde tak pahunch jata hoon karpet par haule haule panw rakhta hoon ki kam awaz ho dwar khatkhatata hoon aur jhuki kamar par anubhwi chehra idhar baDha aata hai jaan leta hoon ki yahi purana naukar hai
“ghar mein hain?”
“bitiya ko puchhte ho, beta?”
main sir hilata hoon
“bitiya niche tal ko utri theen, lautti hi hongi ”
main bahar khule mein baitha baitha pratiksha karta hoon manno ab aa rahi hai, aane wali hai, aati hi hogi
thakkar phatak ki or peeth kar leta hoon, jab ye sochunga ki wo der se ayegi, to wo jaldi ayegi
ghoDe ki tap sun paDti hai apne ko rok leta hoon aur muDkar dekhta nahin
“baba!”—pukar ka sa swar laga ki do ankhen meri peeth par hain utha baDhkar manno ki or dekha, ankhon mein na ashchary tha, na utkantha thi, na udasinata thi bus, manno ki hi ankhon ki tarah we do ankhen meri or dekhti chali gai theen
“baba ”—buDha naukar lapakkar ghoDe ke pas aaya aur laD ke se swar mein bola “utro bitiya, bahut der kar di ”—aur hath aage baDha diya
manno sahara lekar niche utri —“tanik amma ko to bulao baba, mera ji achchha nahin ”
“sukh to hai, bitiya ”
chinta ka ye swar sunkar bitiya zara sa hans di, phir rukkar lambi sans bharkar boli “achchhi bhali hoon, baba, baDi amma se kaho, bichhauna laga den ”
baba ne bitiya ke liye kursi kheench di phir sahamkar puchha “bitiya,
letogi?”
“han, baba ”
is bar manno ne baba ki or dekha nahin, jaise koi apradh ban aaya ho, phir meri or jhukkar kaha “kya bahut der hui?”
“nahin ” main sir hilata hoon, par ankhen nahin
is bar jhijhak se nahin, adhikar se puchhta hoon “kya ji achchha nahin?”
manno ne pal bhar ko thaki thaki palken moond li aur kuch boli nahin
buDhi dadi dauDi dauDi shaal liye i aur kandhon par oDhkar jaise apne
ko hi dilasa dene ke liye kaha “manno, khyali kyon ghabrane lagi abhi sab theek hua jata hai inke liye chay bhejun
manno ekdam kuch kah nahin pai phir kuch sochkar boli “amma, poochh dekho piyenge to nahin ”
main kuch theek theek samjha nahin wyast hokar kaha “nahin, nahin, mujhe abhi kuch bhi pina nahin hai ”
manno ne jaise na suna, na mujhe dekha hi
phir jaise amma ko mere parichai ki gambhirta jatane ke liye puchha “chachi to achchhi hain abhi chacha laute to na honge ”
amma jhat samajh gai, manno ki chachi ke yahan se aaya hoon boli “beta, aane ki khabar dete, to manno ke liye kuch mangwa leti ”
“baDi man, andar jakar dekho na, main thaki hoon, ab baithungi nahin ”
main lajjit sa baitha raha kuch phal hi liye aata
manno kuch der mere chehre par mera man paDhti rahi, phir dhime se aisi boli, mano mujhse nahin, apne se kahti ho “yahan na kuch lana hi achchha hai na kuch le hi jana ”
main apni nasamjhi par pachhtakar rah gaya
manno andar chali, to sath ho liya kambal uthakar baDi man ne bitiya ko litaya, baal Dhile karte karte mathe ko chhua aur mere liye kursi pas khinchkar bahar ho gai
“manno ”
manno boli nahi dubli si banh tanik si aage ki or phir ekayek kuch sochkar pichhe kheench li aaj jab swayan bhi manno sa ban gaya hoon, sau bar apne ko nyauchhawar kar usi kshan ko lauta lena chahta hoon main kursi par baitha baitha kyon us banh ko chhu nahin sakta tha? kya us hath ko sahla nahin sakta tha? umaDte man ko kisi ne jaise jakaDkar wahin, us kursi par thahra liya tha
kya tha us jhijhak mein? kya tha us jhijhakne wale man mein? raha hoga, yahi bhay raha hoga, jo ab mujhse mere priyajnon ko door rakhta hai us raat jab jane ko utha tha, to ankhon ka moh pichhe bandhta tha man ka bhay aage khinchta tha aur jab jaldi jaldi chalkar Dak bangale mein pahunch gaya, to laga ki mukt ho gaya hoon, kshan kshan jakaDte bandhan se mukt ho gaya hoon us abhagi raat mein jo mukti pai thi, wo mujhe kitni phali, chahta hoon aaj ek bar manno dekhti to!
raat bhar theek se so nahin paya bar bar neend mein lagta ki bhuwali mein hoon bhuwali mein soya hoon, wahi ‘pains’ ka baDi baDi khiDakiyon wala kamra hai manno ke palang par leta hoon aur pas paDi kursi par baithi baithi manno apni unhin do ankhon se mujhe niharti hai main hath aage karta hoon aur wo thoDa sa hansakar sir hila kahti hai “nahin, ise kambal ke niche kar lo ab ise kaun chhuega?”
“manno!”
manno kuch kahti nahin, hans bhar deti hai
raat bhar in duःswapnon mein bhatakne ke baad jaga, to bua dikh paDi “kuchh hath nahin lagega, rawi ”
us subah phir main ruka nahin, na Dak bangale mein, na bhuwali mein bus ke aDDe par pahuncha, to dhoop mein bujhi bujhi bhuwali mujhe bhayawni lagi ek bar ji ko tatola, “‘pains’ nahin nahi kuch nahin laut jao ”
bharpur mujhe dekhkar jaise sans roke puchha “kahan the kal?”
“ranikhet tak gaya tha, bua ”
“kah to jate ”
main na jane kis uljhan mein aaya tha kaha “kahne ko, bua, tha kya?”
dopahar mein phupha mile kal laute the aur sada ki tarah gambhir the khana khate unhen dekhta raha ekayek unhen plate par se ankhen uthakar bua ki or dekhte hue dekha, to sachmuch mein jaan gaya ki phupha ke bhai awashy hi manno ke pita honge drishti mein wahi thahraw tha, wahi achanchalta thi
phupha ne khane par se uthte uthte uljhe se swar mein mujhse puchha “rawi, bua tumhari, lucknow tak jana chahti hain, pahuncha aa sakoge?”
“ji, sakunga ”
main, bua aur bachche naini se niche utar rahe hain main pichhe ki seat par baitha baitha wida ho jane ki akasmikta ko cigarette ke dhuen mein bhool jane ka prayatn karta hoon chauDe moD se bus niche ki or muDi khiDki se bahar dekha, to pahaD ki hariyali mein wahi kal wali bhuwali ki safedi dikh rahi thi
kathgodam se lucknow ek raat bua ki sasural rukkar bua se wida lene gaya, to bua ne puchha “laut jane ki sochte ho, rawi, kuch din yahin ruko ”
“nahin, bua ”
bua is “nahin” ko ekayek swikar nahin kar saki pas bithakar kuch der dekhti rahi phir sneh se kaha “kahan jaoge ?”
“bua, kuch pata nahin ”
bua kuch kahna chahti thi, par kah nahin pa rahi thi kuch rukte rukte kaha “rawi, tumhare phupha to tumhare wapas naini lautne ko kahte the ”
“nahin, bua ab to dakhkhin jaunga, pitaji ke pas ”
bua ko jaise wishwas na hua kuch yaad si karti boli “rawi, is bar tumhein naini mein achchha nahin laga ”
“nahin, nahin, bua ”
bua chahti thi, mujhse kuch puchhe main chahta tha, bua se kuch kahun; par kisi se bhi shabd juDe nahin
station par jane laga, to bua ke panw chhue bua bahut baDi nahin hai mujhse pitaji ki sabse chhoti mauseri bahan hoti hai, par dil mein kuch aisa sa laga ki bua ka ashirwad chahta hoon
bua hairan hui, phir hansakar boli “rawi, tumne panw chhue hain, to ashirwad zarur dungi bahut sundar bahu pao ”
main na hansa, na lajaya bua chup si rah gai jis natkhat bhaw se wo kuch kah gai thi, use mano andekhe sankoch ne gher liya
ticket liya, kuli ke pas saman chhoD pletfarm par ghumne laga aamne samne koi gaDi nahin thi lainon par bichhe khalipan ne uljhe man ko ekayek khol diya jo kuch bhi soch raha tha, sochta chala gaya man na bhuwali par atka tha, na ‘pains’ par, na manno par pichhla sab beet gaya laga bua ka ashirwad kalpana mein mukhar aaya ghar hoga, ghar ki rani hogi, main hounga
bua ka ashirwad jhooth nahin nikla sach mein hi mera ghar bana sundar gharni i, use main hi byahkar laya par us din jahan ka ticket le liya tha, wahan ki gaDi mujhe khinchkar us pletfarm par se le ja nahin saki
gaDi aa lagi hai kuli saman lagata hai aur main bahar khaDe khaDe dekhta hun—“musafi, kuli, saman, bachche, buDhe ”
“sahib, gaDi chhutne mein das minat hain ”
main apni ghaDi dekhta hoon, aur sir hila deta hoon ki main janta hoon
kuli phir ek bar andar jakar asbab upar niche karta hai aur safa
theek karte hue bahar nikalkar kahta hai “hari batti ho gai hai, sahib ”
batti ki or dekhta hoon aur dekhta chala jata hoon, wahi qad hai, wahin dubli patli deh, wahi dhula dhula sa chehra, wahi wahi
awesh se kahta hoon “kuli, saman utar lo ”
“sahib ”
“jaldi karo, jaldi ”
kuli phir mere saman ke sath hai ticket wapas kar naya le liya station se phal ke tokre bandhawaye, chay pi aur bareilly ke liye gaDi mein ja baitha jahan mujhe jana hai, wahin jakar hatunga, jab main nahin rukta hoon to mujhe kaun rokega? kyon rokega?
**
ghar mein aage lawn mein baitha sardiyon ki Dhalti dhoop mein alsa raha hoon andar se man niklin aur pas baithte hue kaha “beta, is bar chhutti mein aa hi gaye to thahar jao bar bar inkar karna achchha nahin lagta ”
man ki baat sunkar main sayane bete ki tarah hansta hoon aur man hi man sochta hoon ki man kitna theek kahti hai apni naukari par rahta hoon aur akele adami ke kharch se kahin adhik kamata hoon, phir kyon inkar karunga? man ki aasha ke wiprit baDi awaz mein kahta hoon “man, jo tumhein ruche, wahi mujhe bhayega ”
“beta, laDki dekhana chahoge?”
“han, man ”
laga, man man hi man hansi
khane ke baad raat ko ghumkar aaya, to kamre mein shanti thi, man mae shanti thi kisi ko dekhne ke liye college ke dinon wali utawli jigyasa man mein nahin rah gai thi laga ki akele rahte rahte kisi ke sang ki aasha nahin kar raha, use to apna adhikar karke man raha hoon
hath mein kitab lekar raat ko leta, to paDhte paDhte ub gaya ankhon ke andhere mein dekha, kisi pahaD par chaDha ja raha hoon door cheeD ke peDon ke jhunD ke jhunD dikhte hain, asman sab sunsan hai, apni padchap ke siway koi awaz nahin ekayek adami ka swar gunjta hai, idhar udhar aur andhere mein hilta ek hath aage baDha baDha aata hai mere gale ki or nikat aur nikat
dubli kalai patli anguliyan main Darta hoon pichhe hatta hoon aur ghabrakar ankhen khol deta hoon
utha, khiDki ka parda uthakar bahar jhanka lawn ke dahine hari ghas par pitaji ke kamre ki lait phaili thi sambhla lambi sans lekar balon ko chhua, to matha thanDa laga bhayawana sunapan aur andhere mein wo hath wo hath
man se jise bhool chuka hoon, use aaj hi yaad kyon aana tha kyon yaad aana tha kyon dikh jana tha us hath ko, jo warshon gaye ‘pains’ ki utrai se utarte utarte mainne antim bar dekha tha? chhua tha, nahin kahunga, kyonki asankhya bar soch sochkar chhu bhar lene ke liye banh aage karni, chhu lena nahin hota
mahina bhar naini mein rahte hue bar bar bhuwali se lautne ke baad jab antim bar main manno ke pas se lauta tha, to laut lautkar us lautne ko na lautna karna chahta tha teen bar niche utra tha aur teen bar muDkar upar gaya tha
manno shaal mein lipti aramakursi par adhleti thi pas khaDe hokar uski chuppi ko jaise us par se utar dene ko, udas swar mein kaha “kal to naini se niche utar jaunga ”
manno ne niche phaile shaal ko sahj sahj saheja ek mahine pahle wali drishti mukh par laut i wahi paraya sa dekhana, wahi door door sa lagta chehra
manno chahta hoon, manno se kuch to kahun, par kya kahun ye ki jaldi lautunga
kshan kshan apne se kahta hoon, aunga, phir aunga, par jis nigah se manno mujhe dekhti hai, wo jaise bina bol ke ye kahe ja rahi hai ki ab tum yahan nahin aoge
“manno ”
“rawi ”—aur, aur bus kathin si hokar thoDa sa hansi aur hath joD
diye
“namaskar ”
in juDe juDe hathon ko dekhta raha zara sa aage baDha ki wida loon, wida doon, par na jane kyon khaDa ka khaDa rah gaya
samjhane ke se swar mein manno boli “deri hoti hai, rawi ”
ji bharkar dekhne wali apni ankhon ko jhukakar main jaldi jaldi niche utar gaya
main phir lautunga phir par kya sada ke liye chala ja raha hoon
mano wo janti thi ki lautunga sath paDi kursi ki or sanket kar kaha, “baitho, rawi ”—swar mein na wyatha thi, na sang chhutne ki udasi thi, na mere aane par ashchary tha ” ankhon hi ankhon mein kuch aisa dekha, jaise puchhti ho “kuchh kahna hai?”
main apne ko bachche ki tarah chhota karke kahta hoon “manno, man nahin hota jane ko ”
manno kuch der dekhti rahi main chahta hoon, manno kuch bhi kahe, kahe to
ek chhoti si sans jaise chhoti se chhoti ghaDi ke liye uske gale mein atki, phir, phir ghane swar mein kaha “ek na ek bar to tumhein chale hi jana hai, rawi ”
main hathon se gherkar us deh ko nahin, to us swar ko chhu lena chahta hoon, choom lena chahta hoon “manno!” aage baDhta hoon, kuch rok lene ki, tham lene ki mudra mein manno donon hath aage Dal deti hai, bus
“manno!” apna anurodh us tak pahunchana chahta hoon
“nahin ” is “nahin” ke aage nahin hai, aur kuch nahin
manno dubla sa hath hilakar ankhon se mujhe wida deti hai aur main wiwash sa, byarth sa niche utarta hoon
ankhon par dhundh si umaD aati hai, sambhalta hoon, sambhalta hoon aur ek bar phir pichhe dekhta hoon
bilkul aise lagta hai ki kinare par khaDa hoon aur kishti mein baithi manno wahin chali ja rahi hai wo mujhe nahin dekhti, nahin dekhti, uski ankhon ke aage uske apne hathon ki rok hai, apne hathon ki ot hai
hathon par tika manno ka sir niche jhuka hai, ankhen shayad band hain, shayad gili hain us kaDe aahat abhiman ki baat sochkar chhatpatata hoon
qadam uthakar phatak ke pas pahuncha, to siskiyan sunkar ruk gaya
sach hi main thahra nahin utarta chala gaya aur har pag ke sath door hota chala gaya, us cottage se, cottage mein rahne wali manno se, manno ki un do ankhon se par manno ki smriti se nahin manno ki yaad mujhe aaj bhi aati hai aaj bhi wo yaad aati hai, wo dupahri, jab manno aur main us baDi jheel ke kinare se lagi pagDanDi par ghumte rahe the mitha mitha sa din tha pahli bar us pile chehre ki mithas ke sammukh main pani sa bah gaya tha ektak un ghunghrale balon ko dekhta rah gaya tha aur dekhta gaya tha shaal mein lipte un kandhon ko, jo pairon ki dhimi chaal se thakkar bhi jhukte nahin the
parikrama ka antim moD aaya, to bahut baDe ghane wriksh ke niche dewi ke do chhote chhote mandir dikhe teen ke kapat band the kuch adhik na sochkar aage baDhne ko hua ki manno ko dekhkar ruk gaya khaDi khaDi kuch der sochti rahi phir jute utar nange panw kinare ke patthron se niche utar gai baDe se patthar par panw jamaya aur jhukkar Danthal se kamal toD wapis laut i main to kuch soch nahin raha tha, bus, dekhta chala ja raha tha shaal sir par kar liya tha aur un band kapaton ke aage wali dahliz par phool rakhkar sir nawa diya
mandir ke band kapaton ke aage matha tek uthi, to mano manno si nahin lag rahi thi aise dikha ki ye jhuki chhaya manno nahin, koi byarth ho gai wiwashta ho, jisne bhagya ke in band kapaton ke aage matha tek diya tha is nirmam akelepan ke liye man mein Dher sa dard uth aaya bahte se swar mein kaha “darshan karne ka man ho, manno, to kisi se puzari ka sthan puchhun?”
manno ne kuch kahne se pahle swar ko sambhala, phir sir hilakar kaha “nahin, rawi, aisa kuch nahin mujhe kaun wardan mangne hain apne liye to kapat band ho gaye hain bus, itna hi chahti hoon, ye kapat unke liye khule rahen, jinse bichhuDkar main alag aa paDi hoon ”
manno ko chhune ka bhay, uske rog ka bhay, jo ab tak mujhe rokta tha, bandhta tha, alag ja paDa jheel ki thanDi hawa mein phahrate se ghunghrale balon par jhukkar banh se gherte hue kaha “manno! ”
manno chaunki nahin kandhe par paDa hath dhire se alag kar diya aur samuchi ankhon se dekhte hue boli “rawi, jise tum jhel nahin sakte, uske liye hath na baDhao!”
awaz mein na ulahna tha, na wyangya tha, na katuta bus, jo kahne ko tha, wahi kaha gaya tha is kahne ka uttar main us din nahin de paya bar bar manno ke pas jane par bhi nahin de paya aur nahin de paya wida ke un kshnon mein, jab manno ko rota chhoD, main antim bar ‘pains’ ki utrai utarta chala gaya tha jis durbalta se kayer bankar Dara tha, wo aaj apne par hi beet gai hai aaj apne liye, manno ke liye us kayarta ko kosta hoon
**
ghar mein chahl pahal thi man ko sundar bahu mili, mujhe bhali sangini bholepan se muskrati mera ko dekhta hoon, to kahin kho jane ko man chahta hai lekin ab khounga kyon? ab to bandh gaya hoon, bandha hi rahunga aas pas nate rishte hain, mitr bandhu hain byah wale ghar ke unche qahqahe sunkar khushi se man umaD umaD jata hai kaisa ayojan hai ye bhee! ek din jo baat shuru ho jati hai, use sampurnatya poorn kar diya jata hai itne samuche man se byah ke siway aur kya hota hai, jo sampann hokar ek tek par, ek wiram par pahunch jata hai tan man, ghar dwar, andar bahar sab ek hi pyar mein bheeg jate hain kal mera ko lekar samudr kinare chala jaunga mahina bhar rukkar wahan ke liye prasthan karenge, jahan ab tak main beghar sa hokar rahta raha hoon
**
us apar, asim sagar ke kinare ek dusre par chha chha jate hum ghanton ghumte rahe beech beech mein thahrte aur mohawash ek dusre mein chhipe apne apne pyar ko chumte subah sham, din raat kahan chhipte, kahan Dubte, ye hum dekh dekhkar bhi nahin dekhte the
iske baad, prahron ki tarah beet gaye we das warsh sang sang lage bichhoh se door magn din raat mera aur bachchon se door is cottage mein paDa paDa aaj bhi pichhe lautta hoon, to bahut nikat se kisi sans ka swar sunta hoon
hum kitne sukhi hain, kitne! chahta hoon, kisi ki ankhon mein dekhkar iska uttar doon kisi ko chhukar kuch kahun, par sunne wala koi nahin bachchon ke liye mera ne mera moh chhota kar liya
gaye mahine ranikhet jate mera bachchon ke sang ghante bhar ko yahan ruki thi baramde mein lete lete un tinon ko upar aate dekhta raha phatak par pahunchakar mera pal bhar ko thithki thi phir donon hathon se bachchon ko ghere ke andar le i
“munna, rani, parnam karo, beta ”
bachchon ke jhijhak se bandhe hath meri or uthe
dekhkar kanth bhar aaya mera bhagya mujhse door, mujhse alag ja paDa hai mere hi bachche ashchary ki drishti se mujhe dekh man ki aagya ka palan kar rahe hain
mera jab tak rahi, ankhen ponchhti rahi kuch kahne ko, kuch puchhne ko uska swar bandha nahin apne sundar sukumar bachchon ko apne hi Dar ke karan puri tarah nirakh nahin paya kewal mera ki or dekhta raha ki jo aaj mujhe milne i hai, usmen meri patni kahan hai, kahan hai wo jo sachmuch mein meri thi
bhari ankhon se mera ki kalai ki ghaDi dekhne ko nithurai se aahat ho main phati phati, rukhi drishti se phatak ki or dekhne laga ki mera hi pariwar kuch kshan mein mujhe yahan akela chhoD, mujhse door chala jayega ek bar man hua ki bachchon ko pakaDne wali un do banhon ko apni or khinchkar kahun, “main tumhein nahin jane dunga nahin jane dunga!”—par bachchon ki chhoti chhoti ankhon ka aprichay us awesh ko door tak katta chala gaya
chaunkkar dekha, mera pas aakar jhuki aur adhron se mastak chhukar haule se pichhe hat gai uth baitha ki ek bar pyar doon, ek bar pyar loon ki hathon mein munh chhipa rote rote mera in banhon se aa lagi
mera ki ankhon se bhigi apni roti ankhon ko ponchhkar aas pas dekha, to tuta bandh sab kuch baha le gaya tha na pas mera thi, bachche
takiyon ke sahare sir uncha karke dekha, utrai ke tisre moD par tinon chale ja rahe the mera meri or se peeth moDe aage ki or jhuki thi, bachche ek dusre ki anguli pakDe kabhi man ko dekhte the, kabhi rah ko
sans roke pratiksha karta raha, par kisi ne pichhe nahin dekha, na mera ne, na mere bete ne kewal chhoti rani ke balon mein guntha gulabi ribbon der tak hil hilkar meri ankhon se kahta raha “papa, hum chale gaye!”
**
sach hi sab chale gaye hain isliye nahin ki unhen jana tha, isliye ki main chala ja raha hoon aise hi ek din manno ke jane ko bhanpakar main utrai mein utarta chala gaya tha meri hi tarah akele mein manno roi thi ab jaan paya hoon ki hathon mein munh chhipakar wo rona kitna akela tha! par is bar jakar barson mainne manno ki sudhi nahin li jab kabhi neend mein dekhta, wo dubli deh, baDi baDi ankhen aur kambal par phaili patli patli banhen, to jagkar udweg se mera ki or baDh jata
ek bar daure par lucknow aaya, to bua mili der tak idhar udhar ki baten karne ke baad ekayek swar badalkar boli “rawi, manno to ab nahin rahi ”
“nahin, bua”—main pita ho jane ke gambhirya ko sambhalte kahta hoon “nahin, bua ”
bua jaise mujhe kai warshon pahle ke us rawi ko kahti hai “raat ko soi to jagi nahin amma chhutti par theen subah subah khyali andar aaya, to sans chuk gai thi
main rundhe gale se jaise kuch puchhne ko kahta hoon “bua ”
bua ankh ponchhti ponchhti kuch sochti rahi, phir dard se boli “rawi, ek bar use patr to likhte ”
main rumal se rulai sokhne laga
“tumhare nam ka ek parasal chhoD gai thi almari mein khola, to jarsi thi ”
dusre din bua ke pas phir aaya, to jaldi jaldi panw chhukar kaha “achchha bua ”
“rawi”—bua ki wahi kal wali awaz thi mainne sir hilakar ghor wiwashta ke se swar mein kaha “nahin, bua, nahin ”
bua samajh gai, main kuch bhi janna nahin chahta hoon par jaise man hi man manno ke liye tutkar boli “yahi bar bar sochti hoon ki jiske pyar ko bhi koi na chhu sake, aisa durbhagy use kyon mila, kyon mila?”
**
lucknow se lautkar main kai din man se manno ko utar nahin paya yahi dekhta ki ‘pains’ mein kursi par baithi wo mere liye jarsi taiyar kar rahi hai, wahi hath hain, wahi drishti hai
**
aur ek din salbhar ghar mein bimar rahne ke baad main bhuwali pahunch gaya wahi cheeD ki thanDi hawayen theen, wahi suhani dhoop thi wahi bhuwali thi aur wahi main tha par is bar kisi ko pata karne mujhe post office ki or nahin jana tha ‘pains’ ke samne wale pahaD par kisi ke abhishap se bani cottage mein pahli bar soya, to bhar bhar aate kanth se ratbhar ek hi nam pukarta raha “manno manno!ha aaj wo hoti hoti to ”
har roz subah uthte baramde se ‘pains’ dekhta hoon aur man hi man pukarta hoon, “manno! manno!! ”
jis mera ko mainne warshon jana hai, wo ab pas si nahin lagti, apni si nahin lagti use mainne chhu chhukar chhua tha, choom chumkar chuma tha, par man par jab moh aur pyar ki uchhlan aati hai, to mera nahin, manno ki ankhen hi sagi dikhti hain
khiDki ke samne lete lete, akelepan se ghabrakar jab main bahar dekhta hoon, to dhundhabhre badlon ke gheron mein ghunghrale balon wala wahi chehra dikhta hai, wahi
aye din dawa ke nae badalte hue rang dekhkar ab itna to jaan gaya hoon ki is chhutte chhutte tan mein man ko bahut der bhatakna nahin hai ek din khiDki se bahar dekhte hi dekhte inhin badlon mein sama jaunga inhin gheron mein
bhuwali ki is chhoti si cottage mein leta leta main samne ke pahaD dekhta hoon pani bhare, sukhe sukhe badlon ke ghere dekhta hoon bina ankhon ke jhatak jhatak jati dhundh ke nishphal prayas dekhta hoon aur phir lete lete apne tan ka patjhar dekhta hoon samne pahaD ke rukhe hariyale mein ramgaDh jati hui pagDanDi meri banh par ubhri lambi nas ki tarah chamakti hai pahaDi hawayen meri ukhDi ukhDi sans ki tarah kabhi tez, kabhi haule, is khiDki se takrati hain; palang par bichhi chaddar aur upar paDe kambal se lipti meri deh chune ki si kachchi tah ki tarah ghul ghul jati hai aur barson ke tane bane se buni mere pranon ki dhaDaknen har kshan band ho jane ke Dar mein chook jati hain
main leta rahta hoon aur subah ho jati hai main leta rahta hoon sham ho jati hai main leta rahta hoon raat jhuk jati hai darwaze aur khiDakiyon par paDe parde meri hi tarah din raat, subah sham, akele maun bhaw se latakte rahte hain koi inhen bhare bhare hathon se uthakar kamre ki or baDha nahin aata koi is dehri par anayas musakrakar khaDa nahin ho jata raat, subah, sham bari bari se meri shayya ke pas ghir ghir aate hain aur main apni in phiki ankhon se andhere aur ujale ko nahin, lohe ke palang par paDe apne aapko dekhta hoon, apne is chhutte chhutte tan ko dekhta hoon aur dekhkar rah jata hoon aaj is tarah jane ke siway kuch bhi mere wash mein nahin rah gaya sab alag ja paDa hai apne kandhon se juDi apni banhon ko dekhta hoon, meri banhon mein lagi we bhari bhari banhen kahan hain kahan hain we sugandh bhare kesh, jo mere waksh par bichh bichh jate the? kahan hain we ras bhare adhar jo mere ras mein bheeg bheeg jate the? sab tha, mere pas sab tha bus, main aaj sa nahin tha jine ka sang tha, sone ka sang tha aur uthne ka sang tha main dhule dhule sirhane par sir Dalkar sota rahta aur koi haule se chamakkar kahta—uthoge nahin bhor ho gai
ankhen band kiye kiye hi hath us mohabhri deh ko gher lete aur raat ke bite kshnon ko soongh lene ke liye apni or jhukakar kahte—itni jaldi kyon uthti ho
halki si hansi aur banhen khul jatin ankhen khul jatin aur grihasthi par subah ho aati phulon ki mahak mein nashta lagta dhule taze kapDon mae lipatkar grihasthi ki malkin adhikar bhare sanyam se samne baithe raat ke sapne sakar kar deti pyale mein doodh unDelati un anguliyon ko dekhta kya mere balon ko sahla sahlakar sihra dene wala sparsh inhin ki pakaD mein hai? anchal ko thame aage ki or utha hua kapDa jaise donon or ki mithas ko sambhalne ko satark rahta kshan bhar ko lagta, kya gahre mein jo mera apna hai, ye uske upar ka awarn hai ya jo kewal mera hai, wo isse pare, isse niche kahin aur hai ek shithil magar bahti bahti chah wibhor kar jati main hota, mujhse lagi ek aur deh hoti usmen mithas hoti, jo raat mein lahra lahra jati
aur ek raat bhuwali ke is kshayagrast andhiyare mein aati hai kambal ke niche paDa paDa main dawa ki shishiyan dekhta hoon aur un par likhe wigyapan dekhta hoon ghoont bharkar ab inhen pita hoon, to sochta hoon, tan ke ras reet jane par haD mans sab kath ho jate hain, mitti nahin kahta hoon, kyonki mitti ho jane se to mitti se phir ras ubharta hai, abhi to mujhe mitti hona hai
kaise saraste din the! tan man ko sahlate bahlate us ek raat ko main aaj ke is shunya mein tatolta hoon sardiyon ke ekant maun mein ekayek kisi ka adesh pakar main kamre ki or baDhta hoon bulb ke nile parkash mein do adhakhuli thaki thaki palken zara si uthti hain aur banh ke ghere tale soe shishu ko dekhkar mere chehre par thahar jati hain jaise kahti hon—tumhare alingan ko tumhara hi tan dekar sajiw kar diya hai main uthta hoon, thanDe mastak ko adhron se chhukar ye sochte sochte uthta hain ki jo pyar tan mein jagta hai, tan se upajta hai, wahi deh pakar duniya mein ji bhi aata hai
par kahin ek dusra pyar bhi hota hai jo pahaD ke sukhe badlon ki tarah uth uth aata hai aur bina barse hi bhatak bhatakkar rah jata hai warshon bite ek bar garmi mein pahaD gaya tha bua ke yahan pahli bar un ankhon si ankhon ko dekha tha dhupati subah thi nashte ki mez se utha, to parichai karwate karwate na jane kyon bua ka swar zara sa atka tha sans lekar kaha “minni se milo, rawi, do hi din yahan rukegi ”— bua ke mukh se ye phika parichai achchha nahin laga wo kuch boli nahin, sir hilakar abhiwadan ka uttar diya aur zara si hans di us door door tak lagne wale chehre se main apne ko lauta nahin saka us patle, kintu bhare bhare mukh par kaskar bandhe ghunghrale balon ko dekhkar man mein kuch aisa sa ho aaya ki kisi ke gahre ulahane ki saza apne ko de Dali gai hai
sab uthkar bahar aaye, to bua ke bachche us dubli deh par paDe anchal ko kheench snehawash un banhon se lipat lipat gaye—manno jiji manno jiji bua kisi kaam se andar ja rahi thi, khilkhilahat sunkar laut paDin bua ka wo kathin, bandha aur khinchawat ko chhipane wala chehra main aaj bhi bhula nahin hoon kaDe hathon se bachchon ko chhuDati, thanDi nigah se manno ko dekhti hui Dhile swar mein boli “jao manno, kahin ghoom aao tumhein uljha uljhakar to ye bachche tang kar Dalenge ”—man ki ghuDki ankhon hi ankhon mein samajhkar bachche ek or ho gaye bua ke khali hath jaise jhempkar niche latak gaye aur manno ki baDi baDi ankhon ki ghani palken na uthi, na giri, bus ektak bua ki or dekhti gai
bua is sankoch se ubri, to manno dhimi gati se phatak se bahar ho gai thi kuch samajh lene ke liye agrah se bua se puchha “kaho to bua, baat kya hai?
bua atki, phir jhijhakkar boli “bimar hai, rawi, do warsh sainetoriyam mein rahne ke baad ab sethji ne wahin cottage le di hai sath ghar ka purana naukar rahta hai kabhi akele ji ub jata hai, to chaar din ko shahr chali jati hai
“rawi, jab kabhi chaar chhe mahine baad laDki ko dekhti hoon, to bhookh pyas sab sookh jati hai ”
main bua ki is sachchai ko kured lene ko kahta hoon “bua, bachchon ko ekdam alag karna theek nahin hua, pal bhar to ruk jati ”
bua ne bahut kaDi nigah se dekha, jaise kahna chahti ho—tum ye sab nahin samjhoge aur andar chali gai bachche apne khel mein jut gaye the main khaDa khaDa bar bar cigarette ke dhune se apne tan ka bhay aur man ki jigyasa uData raha uljha uljha sa main bahar nikla aur utrai utarkar jheel ke kinar kinare ho gaya saDak ke sath sath is or chhanh thi uchhal uchhal aati pani ki lahren kabhi dhoop se rupahli ho jati theen dewi ke mandir ke aage pahuncha, to ruka, jangle par hath tikaye jheel mein naukaon ki dauD ko dekhta raha balishth hathon mein chappu thame kuch yuwak tez raftar se talital ki or ja rahe hain, pichhe ki kashti mein apne tan man se beख़bar ek prauDh baithe ungh rahe hain uske pichhe bote club ki kishti mein wideshi yuwatiyan phir aur do chaar palwali naukayen
ekayek kishti mein nahin, jaise pani ki nichi satah par wahi pila chehra dekhta hoon, wahi baDi baDi ankhen, wahi dubli patli banhen, wahi bua ke gharwali manno do chaar bar man hi man nam dohrata hoon, manno, manno, manno main unche kinare par khaDa hoon aur pani ke sath sath manno wahin chali ja rahi hai khinche ghunghrale baal, anajhpi palken par bua kahti thi bimar hai, manno bimar hai
jangle par se hath uthakar bua ke ghar ki disha mein dekhta hoon china ki choti apne pahaDi sanyam se sir uthaye sada ki tarah sidhi khaDi hai ek Dhalti si pathrili Dhalan ko usne jaise hath se thame rakha hai aur main niche is saDak par khaDe khaDe sochta hoon ki sab kuch roz jaisa hai, kewal man se ubhar ubhar aati we do ankhen nai hain aur un do ankhon ke pichhe ki wahi bimari jise koi chhu nahin sakta, koi ubar nahin sakta
ghar pahuncha, to bua bachchon ko lekar kahin bahar chali gai thi kuch der Draing room mein baitha baitha bua ke sughaD hathon dwara ki gai sajawat dekhta raha qimti phuldanon mein pagai gai pahaDi jhaDiyan sundar lagti theen kaibinet par baDi phrem mein lage sapriwar chitr ke aage khaDa hua, to bua ke sath khaDe phupha ki or dekhkar sochta raha ki bua ke liye is chehre par kaun sa akarshan hai, jisse bandhi bandhi wo din raat, warsh mas apne ko nibhati chali aati hai par nahin, bua hi ke ghar mein hokar ye sochna man ke sheel se pare hai
jhijhakkar Draing room se nikalta hoon aur apne kamre ki siDhiyan chaDh jata hoon cigarette jalakar jheel ke dakkhini kinare par khulti khiDki ke bahar dekhne lagta hoon hare pahaDon ke chhote baDe akaron mein teen ki lal lal chhaten aur beech beech mein matyali pagDanDiyan bua khane tak laut ayegi aur manno bhi to der tak tan tan ke sath naukar ne khane ke liye anurodh kiya
“khana lagega, sahib?”
“bua kab tak lautengi?”
“khane ko to mana kar gai hain ”
kathan ke rahasy ko main in arthahin si ankhon mein paDh jane ke prayatn mein rahta hoon —“aur jo mehman hain?”
naukar tatparta se jhukkar “apke sath nahin, sahib wo alag se upar khayengi ”
main ek lambi sans bharkar jale cigarette ke tukDe ko pair ke niche kuchal deta hoon shayad sath khane ke Dar se chhutkara pane par ya shayad sath na kha sakne ki wiwashta par is din khane ki mez par akele khana khate khate kya sochta raha tha, aaj to yaad nahin bus itna yaad hai, kante chhuri se ulajhta bar bar main bahar ki or dekhta tha
mitha kaur munh mein lete hi ghoDe ki tap sunai di, thithakkar suna “salam sahib ”
dhimi magar sadhi awaz “do ghante tak pahunch sakoge n?”
“ji, huzur ”
siDhiyon par aahat hui aur apne kamre tak pahunchakar khatm ho gai khane ke bartan uth gaye main utha nahin dobara coffe pi lene ke baad bhi wahin baitha raha ekayek man mein aaya ki kisi chhote se parichai se man mein itni duwidha upja lena kam chhoti durbalta nahin hai akhir kisi se mil hi liya hoon to uske liye aisa sa kyon hua ja raha hoon
ghante bhar baad main kisi ki pairon chali siDhiyon par upar chaDha ja raha tha khule dwar par parda paDa tha haule se thap di
“chale aiye ”
parda uthakar dehri par panw rakha hath mein kashmiri shaal liye manno attachi ke pas khaDi thi dekhkar chaunki nahin sahj swar mein kaha “aiye” aur sofe par phaile kapDe uthakar kaha “baithiye ”
baithte baithte socha, bua ke ghar bhar mein sabse adhik saja aur saf kamra yahi hai naya naya furniture, qimti parde aur in sabmen halke pile kapDon mein lipti manno achchha laga
baat karne ko kuch bhi na pakar bola “ap lanch to ”
“ji, le chuki hoon ” aur bharpur nigahon se meri or dekhti rahi
main jaise kuch kahalwa lene ko kahta hoon “bua to kahin bahar gai hain ”
sir hilakar manno shaal ki tah lagati hai aur suitcase mein rakhte rakhte kahti hai “sham mein pahle hi niche utar jaungi bua se kahiyega, ek din ko i thi ”
“bua to aati hi hongi ”
iska uttar na shabdon mein aaya, na chehre par kahte kahte ek bar ruka, phir na jane kaise agrah se kaha “ek din aur nahin ruk sakengi?”
wo kuch boli nahin band karte suitcase par jhuki rahi
phir pal bhar baad jaise sneh bhare hath se apne balon ko chhua aur hansakar kaha “kya karungi yahan rahkar? bhuwali ke itne baDe ganw ke baad ye chhota sa shahr man ko bhata nahin ”
wo chhoti si khilkhilahat, wo kaDwahat se bhare ka wyangya, aaj itne warshon ke baad bhi, main waise hi bilkul waise hi sun pata hoon wahi shabd hain, wahi hansi hai aur wahi pili si surat
hum sang sang niche utre the meri banh par manno ka coat tha naukar aur mali ne jhukkar salam kiya aur atithi se inam paya sais ne ghoDe ko thapthapaya
“huzur, chaDhengi?”
uDi uDi nazar un ankhon ki banh par latke coat par atki
“paidal aungi thoDa aage aage liye chalo ”
chaha ki ghoDe par chaDh jane ke liye anurodh karun par kah nahin paya
phatak se bahar hote hote wo pal bhar ko pichhe muDi, jaise chhoDne ke pahle ghar ko dekhti ho phir ekayek apne ko sambhalkar niche utar gai rah mein koi bhi kuch bola nahin
taxi khaDi thi, saman laga Draiwar ne un kathin kshnon ko mano bhanpakar kaha “kuchh der hai, sahib?”
manno ne is bar kahin dekha nahin coat lene ke liye meri or hath baDha diya wo kar mein baithi kuli ne tatparta se pichhe se kambal nikala aur ghutnon par Dalte hue kaha “kuchh aur, mem sahib?”
ghunghrali chhanh Dhili si hokar seat ke sath ja tiki ghutnon par patli patli si wiwash banhen phailate hue dhire se kaha “nahin, nahin, kuch aur nahin dhanyawad ”
adhakhule kanch mein andar jhanka mukh par thakan ke chihn the banhon mein machhli—mukhi kangan the ankhon mein kya tha, ye main paDh nahin paya wo pili, patajhDi drishti un hathon par jami thi, jo kambal par ek dusre se lage maun paDe the
kar start hui main pichhe hata aur kar chal di widai ke liye na hath uthe na adhar hile moD tak pahunchne tak pichhe ke shishe se sadgi se bandha balon ka ribbon dekhta raha aur der tak wo dardile dhanyawad ki goonj sunta raha—nahin, nahin, kuch aur nahin
we pal apni kalpana mein aaj bhi lautata hoon, to ji ko kuch hone lagta hai us kar ko bhaga le jane wali sukhi saDak se ghumkar main tal ke kinare kinare chala ja raha hoon apne ko samjhane bujhane par bhi wo chehra, wo bimari man par se nahin utarti ruk rukkar, thak thakkar jaise main us din ghar ki chaDhai chaDha tha, use yaad kar aaj bhi niDhal ho jata hoon ghar pahuncha baramde mein se kuli furniture nikal rahe the man dhakka khakar rah gaya to us manno ke kamre ki sajawat, sukh suwidha, sab kiraye par bua ne jutaye the dopahar mein bua ke prati jo kuch jitna bhi achchha laga tha, wo sab ulta ho gaya
age baDha, to dwar par bua khaDi thi sandeh se mujhe dekh aur pas hokar phike gale se kaha “rawi, munh hath dho Dalo, saman sab taiyar milega wahan, jaldi lautoge na, chay lagne ko hi hai ”
chupchap bathrum mein pahunch gaya saman sab tha munh hath dhone se pahle gilas mein Dhakkar rakhe garm pani se gala saf kiya aisa laga kisi ki ghuti ghuti jakaD mein se bahar nikal aaya hoon kapDe badalkar chay par ja baitha bachche nahin, kewal bua thi bua ne chay unDeli aur pyala aage kar diya
“bua ”
bua ne jaise suna nahin
“bua, bua ”—pal bhar ke liye apne ko hi kuch aisa sa laga ki kisi aur ko pukarne ke liye bua ko pukar raha hoon bua ne wiwash ho ankhen upar uthain samajh gaya ki bua chahti hain, kuch kahun nahin, par main nahin ruka
“bua, do din ki mehman to ek hi din mein chali gai ”
bua chammach se apni chay hilati rahi kuch boli nahin is maun se aur bhi nirdayi ho aaya
“kahti thi “bua se kahna main ek hi din ko i thi ”
imke aage bua jaise kuch aur sun nahin saki gahra lamba shwas lekar aahat ankhon se mujhe dekha “tum kuch aur nahin kahoge, rawi”, aur chay ka pyala wahi chhoD kamre se bahar ho gai
us raat daure se phupha ke lautne ki baat thi naukar se puchha, to pata laga, do din ke baad aane ka tar aa chuka hai chaha, ek bar bua ke kamre tak ho aun, sankochwash panw uthe nahin der baad siDhiyon mein apne ko paya, to samne manno ka khali kamra tha aage baDhkar bijli jalai, sab khali tha, na parde, na furniture na manno ” ekayek angihti mein lagi lakaDiyon ko dekh man mein aaya, aaj wo yahan rahti, to raat der gaye iske pas yahin baithti aur main shayad isi tarah jaise ab yahan aaya hoon, uske pas aata, uske
ye sab kya soch raha hoon, kyon soch raha hoon
kisi andekhe bhay se ghabrakar niche utar aaya khiDki se bahar dekha, andhera tha sirhana khincha, bijli bujhai aur bistar par paDe paDe bhuwali ki wo chhoti si cottage dekhta raha, jahan ab tak manno pahunch gai hogi
“rawi ”
main chaunka nahin, ye bua ka swar tha bua andhere mein hi pas aa baithi aur haule haule sir hilati rahi
“bua ”
bua ka hath pal bhar ko thama phir kuch jhukkar mere mathe tak aa gaya rundhe swar se kaha “rawi, tumhein nahin, us laDki ko dulrati hoon ab ye hath us tak nahin pahunchta ”
main bua ka nahin, manno ka hath pakaD leta hoon
bua der tak kuch boli nahin phir jaise kuch samajhte hue apne ko kaDa kar boli “rawi, uske liye kuch mat socho, use ab rahna nahin hai ”
main bua ke sparsh tale siharkar kahta hoon “bua, mujhe hi kaun rahna hai?”
aj warshon baad bhuwali mein paDe paDe main asankhya bar sochta hoon ki us raat main apne liye ye kyon kah gaya tha? kyon kah gaya tha we abhishap ke bol, jo din raat mere is tan man par se sachche utre ja rahe hain sunkar bua ko kaisa laga, nahin janta wo hath khinchkar uth baithi roshni ki aur puri ankhon se mujhe dekhkar awishwas aur bhartasna se boli “pagal ho gaye ho, rawi! uske sath apni baat joDte ho jiske liye ab koi rah nahin rah gai, koi aur rah nahin rah gai ”
phir kursi par baithte baithte kaha “rawi, tum to use subah sham tak hi dekh pae ho main warshon se use dekhti i hoon aur aaj patthar si nishthur ho gai hoon use apna bachcha hi karke manti rahi hoon, ye nahin kahungi apne bachchon ki tarah to apne bachchon ke siway aur kise rakha ja sakta hai par jo kuch jitna bhi tha, wo pyar, wo dekhbhal sab byarth ho gaye hain kabhi chhutti ke din uski borDing se aane ki rah takti thi, ab uske aane se pahle uske jane ka kshan manati hoon aur Darkar bachchon ko liye ghar se bahar nikal jati hoon ”
bua ke bol kathin ho aaye
“rawi, jise bachpan ke mohawash kabhi Darana nahin chahti thi, aaj usi se Darne lagi hoon uski bimari se Darne lagi hoon ” phir swar badalkar kaha “tumhara aisa jiwat mujhmen nahin ki kahun, Darti nahin hun”—bua ne ye kahkar jaise mujhe tatola aur main bina hile Dule chupchap leta raha
bua asmanjas mein der tak mujhe dekhti rahi phir jane ko uthi aur ruk gai is bar swar mein agrah nahin, chetawni thi—“rawi, kuch hath nahin lagega jiske liye sab rah ruki hon, uske liye bhatko nahin ”
par us din bua ki baat main samjha nahin, chahne par bhi nahin
agli subah chaha ki ghoom ghumkar din bita doon ghoDa dauData laDiyakota pahuncha aur unhin pairon laut aaya ghar ki or munh karte karte na jane kyon, man ko kuch aisa laga ki mujhe ghar nahin, kahin aur pahunchna hai chaDhai ke moD par kuch der khaDa khaDa sochta raha aur jab Dhalti dupahri mein tallital ki utrai utra, to man ke aage sab saf tha
mujhe bhuwali jana tha
bus se utra aDDe par ramgaDh ke lal lal sebon ke Dher dekhkar ye nahin laga ki yahi bhuwali hai bus mein sochta aaya tha ki wahan ghutan hogi, par cheeD ke unche unche peDon se lahrati hawayen bah bah aati theen chhanh upar uthti hai, dhoop niche utarti hai aur bhuwali man ko achchhi lagti hai tan ko achchhi lagti hai chaurahe se hokar post office pahuncha cottage ka pata liya aur chhote se pahaDi bazar mein hota hua ‘pains’ ki or ho liya khuli chauDi saDak ke moD se achchhi si patli rah cottage ki or jati thi jangle ke niche dekha, alag alag khaDe pahaDon ke beech ki jagah par ek khuli chauDi ghati bichhi thi tirchhe sidhe, chhote chhote khet kisi ke ghutne par rakhe kaside ke kapDe ki tarah dharti par phaile the door samne dakhkhin ki or pani ka tal dhoop mein chandi ke thaal ki tarah chamakta tha
is pahli bar bhuwali aane ke baad main ek bar nahin, kai bar yahan aaya laut lautkar yahan aaya, par us aane jaisa aana to phir kabhi nahin aaya main chalta hoon, aur kuch sochta nahin hoon na ye sochta ki manno ke pas ja raha hoon, na ye sochta hoon ki main ja raha hoon bus chala ja raha hoon peD ke tane par likha hai, ‘pains’ lakDi ka phatak kholta hoon aur gamlon ki qataron ke sath sath baramde tak pahunch jata hoon karpet par haule haule panw rakhta hoon ki kam awaz ho dwar khatkhatata hoon aur jhuki kamar par anubhwi chehra idhar baDha aata hai jaan leta hoon ki yahi purana naukar hai
“ghar mein hain?”
“bitiya ko puchhte ho, beta?”
main sir hilata hoon
“bitiya niche tal ko utri theen, lautti hi hongi ”
main bahar khule mein baitha baitha pratiksha karta hoon manno ab aa rahi hai, aane wali hai, aati hi hogi
thakkar phatak ki or peeth kar leta hoon, jab ye sochunga ki wo der se ayegi, to wo jaldi ayegi
ghoDe ki tap sun paDti hai apne ko rok leta hoon aur muDkar dekhta nahin
“baba!”—pukar ka sa swar laga ki do ankhen meri peeth par hain utha baDhkar manno ki or dekha, ankhon mein na ashchary tha, na utkantha thi, na udasinata thi bus, manno ki hi ankhon ki tarah we do ankhen meri or dekhti chali gai theen
“baba ”—buDha naukar lapakkar ghoDe ke pas aaya aur laD ke se swar mein bola “utro bitiya, bahut der kar di ”—aur hath aage baDha diya
manno sahara lekar niche utri —“tanik amma ko to bulao baba, mera ji achchha nahin ”
“sukh to hai, bitiya ”
chinta ka ye swar sunkar bitiya zara sa hans di, phir rukkar lambi sans bharkar boli “achchhi bhali hoon, baba, baDi amma se kaho, bichhauna laga den ”
baba ne bitiya ke liye kursi kheench di phir sahamkar puchha “bitiya,
letogi?”
“han, baba ”
is bar manno ne baba ki or dekha nahin, jaise koi apradh ban aaya ho, phir meri or jhukkar kaha “kya bahut der hui?”
“nahin ” main sir hilata hoon, par ankhen nahin
is bar jhijhak se nahin, adhikar se puchhta hoon “kya ji achchha nahin?”
manno ne pal bhar ko thaki thaki palken moond li aur kuch boli nahin
buDhi dadi dauDi dauDi shaal liye i aur kandhon par oDhkar jaise apne
ko hi dilasa dene ke liye kaha “manno, khyali kyon ghabrane lagi abhi sab theek hua jata hai inke liye chay bhejun
manno ekdam kuch kah nahin pai phir kuch sochkar boli “amma, poochh dekho piyenge to nahin ”
main kuch theek theek samjha nahin wyast hokar kaha “nahin, nahin, mujhe abhi kuch bhi pina nahin hai ”
manno ne jaise na suna, na mujhe dekha hi
phir jaise amma ko mere parichai ki gambhirta jatane ke liye puchha “chachi to achchhi hain abhi chacha laute to na honge ”
amma jhat samajh gai, manno ki chachi ke yahan se aaya hoon boli “beta, aane ki khabar dete, to manno ke liye kuch mangwa leti ”
“baDi man, andar jakar dekho na, main thaki hoon, ab baithungi nahin ”
main lajjit sa baitha raha kuch phal hi liye aata
manno kuch der mere chehre par mera man paDhti rahi, phir dhime se aisi boli, mano mujhse nahin, apne se kahti ho “yahan na kuch lana hi achchha hai na kuch le hi jana ”
main apni nasamjhi par pachhtakar rah gaya
manno andar chali, to sath ho liya kambal uthakar baDi man ne bitiya ko litaya, baal Dhile karte karte mathe ko chhua aur mere liye kursi pas khinchkar bahar ho gai
“manno ”
manno boli nahi dubli si banh tanik si aage ki or phir ekayek kuch sochkar pichhe kheench li aaj jab swayan bhi manno sa ban gaya hoon, sau bar apne ko nyauchhawar kar usi kshan ko lauta lena chahta hoon main kursi par baitha baitha kyon us banh ko chhu nahin sakta tha? kya us hath ko sahla nahin sakta tha? umaDte man ko kisi ne jaise jakaDkar wahin, us kursi par thahra liya tha
kya tha us jhijhak mein? kya tha us jhijhakne wale man mein? raha hoga, yahi bhay raha hoga, jo ab mujhse mere priyajnon ko door rakhta hai us raat jab jane ko utha tha, to ankhon ka moh pichhe bandhta tha man ka bhay aage khinchta tha aur jab jaldi jaldi chalkar Dak bangale mein pahunch gaya, to laga ki mukt ho gaya hoon, kshan kshan jakaDte bandhan se mukt ho gaya hoon us abhagi raat mein jo mukti pai thi, wo mujhe kitni phali, chahta hoon aaj ek bar manno dekhti to!
raat bhar theek se so nahin paya bar bar neend mein lagta ki bhuwali mein hoon bhuwali mein soya hoon, wahi ‘pains’ ka baDi baDi khiDakiyon wala kamra hai manno ke palang par leta hoon aur pas paDi kursi par baithi baithi manno apni unhin do ankhon se mujhe niharti hai main hath aage karta hoon aur wo thoDa sa hansakar sir hila kahti hai “nahin, ise kambal ke niche kar lo ab ise kaun chhuega?”
“manno!”
manno kuch kahti nahin, hans bhar deti hai
raat bhar in duःswapnon mein bhatakne ke baad jaga, to bua dikh paDi “kuchh hath nahin lagega, rawi ”
us subah phir main ruka nahin, na Dak bangale mein, na bhuwali mein bus ke aDDe par pahuncha, to dhoop mein bujhi bujhi bhuwali mujhe bhayawni lagi ek bar ji ko tatola, “‘pains’ nahin nahi kuch nahin laut jao ”
bharpur mujhe dekhkar jaise sans roke puchha “kahan the kal?”
“ranikhet tak gaya tha, bua ”
“kah to jate ”
main na jane kis uljhan mein aaya tha kaha “kahne ko, bua, tha kya?”
dopahar mein phupha mile kal laute the aur sada ki tarah gambhir the khana khate unhen dekhta raha ekayek unhen plate par se ankhen uthakar bua ki or dekhte hue dekha, to sachmuch mein jaan gaya ki phupha ke bhai awashy hi manno ke pita honge drishti mein wahi thahraw tha, wahi achanchalta thi
phupha ne khane par se uthte uthte uljhe se swar mein mujhse puchha “rawi, bua tumhari, lucknow tak jana chahti hain, pahuncha aa sakoge?”
“ji, sakunga ”
main, bua aur bachche naini se niche utar rahe hain main pichhe ki seat par baitha baitha wida ho jane ki akasmikta ko cigarette ke dhuen mein bhool jane ka prayatn karta hoon chauDe moD se bus niche ki or muDi khiDki se bahar dekha, to pahaD ki hariyali mein wahi kal wali bhuwali ki safedi dikh rahi thi
kathgodam se lucknow ek raat bua ki sasural rukkar bua se wida lene gaya, to bua ne puchha “laut jane ki sochte ho, rawi, kuch din yahin ruko ”
“nahin, bua ”
bua is “nahin” ko ekayek swikar nahin kar saki pas bithakar kuch der dekhti rahi phir sneh se kaha “kahan jaoge ?”
“bua, kuch pata nahin ”
bua kuch kahna chahti thi, par kah nahin pa rahi thi kuch rukte rukte kaha “rawi, tumhare phupha to tumhare wapas naini lautne ko kahte the ”
“nahin, bua ab to dakhkhin jaunga, pitaji ke pas ”
bua ko jaise wishwas na hua kuch yaad si karti boli “rawi, is bar tumhein naini mein achchha nahin laga ”
“nahin, nahin, bua ”
bua chahti thi, mujhse kuch puchhe main chahta tha, bua se kuch kahun; par kisi se bhi shabd juDe nahin
station par jane laga, to bua ke panw chhue bua bahut baDi nahin hai mujhse pitaji ki sabse chhoti mauseri bahan hoti hai, par dil mein kuch aisa sa laga ki bua ka ashirwad chahta hoon
bua hairan hui, phir hansakar boli “rawi, tumne panw chhue hain, to ashirwad zarur dungi bahut sundar bahu pao ”
main na hansa, na lajaya bua chup si rah gai jis natkhat bhaw se wo kuch kah gai thi, use mano andekhe sankoch ne gher liya
ticket liya, kuli ke pas saman chhoD pletfarm par ghumne laga aamne samne koi gaDi nahin thi lainon par bichhe khalipan ne uljhe man ko ekayek khol diya jo kuch bhi soch raha tha, sochta chala gaya man na bhuwali par atka tha, na ‘pains’ par, na manno par pichhla sab beet gaya laga bua ka ashirwad kalpana mein mukhar aaya ghar hoga, ghar ki rani hogi, main hounga
bua ka ashirwad jhooth nahin nikla sach mein hi mera ghar bana sundar gharni i, use main hi byahkar laya par us din jahan ka ticket le liya tha, wahan ki gaDi mujhe khinchkar us pletfarm par se le ja nahin saki
gaDi aa lagi hai kuli saman lagata hai aur main bahar khaDe khaDe dekhta hun—“musafi, kuli, saman, bachche, buDhe ”
“sahib, gaDi chhutne mein das minat hain ”
main apni ghaDi dekhta hoon, aur sir hila deta hoon ki main janta hoon
kuli phir ek bar andar jakar asbab upar niche karta hai aur safa
theek karte hue bahar nikalkar kahta hai “hari batti ho gai hai, sahib ”
batti ki or dekhta hoon aur dekhta chala jata hoon, wahi qad hai, wahin dubli patli deh, wahi dhula dhula sa chehra, wahi wahi
awesh se kahta hoon “kuli, saman utar lo ”
“sahib ”
“jaldi karo, jaldi ”
kuli phir mere saman ke sath hai ticket wapas kar naya le liya station se phal ke tokre bandhawaye, chay pi aur bareilly ke liye gaDi mein ja baitha jahan mujhe jana hai, wahin jakar hatunga, jab main nahin rukta hoon to mujhe kaun rokega? kyon rokega?
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ghar mein aage lawn mein baitha sardiyon ki Dhalti dhoop mein alsa raha hoon andar se man niklin aur pas baithte hue kaha “beta, is bar chhutti mein aa hi gaye to thahar jao bar bar inkar karna achchha nahin lagta ”
man ki baat sunkar main sayane bete ki tarah hansta hoon aur man hi man sochta hoon ki man kitna theek kahti hai apni naukari par rahta hoon aur akele adami ke kharch se kahin adhik kamata hoon, phir kyon inkar karunga? man ki aasha ke wiprit baDi awaz mein kahta hoon “man, jo tumhein ruche, wahi mujhe bhayega ”
“beta, laDki dekhana chahoge?”
“han, man ”
laga, man man hi man hansi
khane ke baad raat ko ghumkar aaya, to kamre mein shanti thi, man mae shanti thi kisi ko dekhne ke liye college ke dinon wali utawli jigyasa man mein nahin rah gai thi laga ki akele rahte rahte kisi ke sang ki aasha nahin kar raha, use to apna adhikar karke man raha hoon
hath mein kitab lekar raat ko leta, to paDhte paDhte ub gaya ankhon ke andhere mein dekha, kisi pahaD par chaDha ja raha hoon door cheeD ke peDon ke jhunD ke jhunD dikhte hain, asman sab sunsan hai, apni padchap ke siway koi awaz nahin ekayek adami ka swar gunjta hai, idhar udhar aur andhere mein hilta ek hath aage baDha baDha aata hai mere gale ki or nikat aur nikat
dubli kalai patli anguliyan main Darta hoon pichhe hatta hoon aur ghabrakar ankhen khol deta hoon
utha, khiDki ka parda uthakar bahar jhanka lawn ke dahine hari ghas par pitaji ke kamre ki lait phaili thi sambhla lambi sans lekar balon ko chhua, to matha thanDa laga bhayawana sunapan aur andhere mein wo hath wo hath
man se jise bhool chuka hoon, use aaj hi yaad kyon aana tha kyon yaad aana tha kyon dikh jana tha us hath ko, jo warshon gaye ‘pains’ ki utrai se utarte utarte mainne antim bar dekha tha? chhua tha, nahin kahunga, kyonki asankhya bar soch sochkar chhu bhar lene ke liye banh aage karni, chhu lena nahin hota
mahina bhar naini mein rahte hue bar bar bhuwali se lautne ke baad jab antim bar main manno ke pas se lauta tha, to laut lautkar us lautne ko na lautna karna chahta tha teen bar niche utra tha aur teen bar muDkar upar gaya tha
manno shaal mein lipti aramakursi par adhleti thi pas khaDe hokar uski chuppi ko jaise us par se utar dene ko, udas swar mein kaha “kal to naini se niche utar jaunga ”
manno ne niche phaile shaal ko sahj sahj saheja ek mahine pahle wali drishti mukh par laut i wahi paraya sa dekhana, wahi door door sa lagta chehra
manno chahta hoon, manno se kuch to kahun, par kya kahun ye ki jaldi lautunga
kshan kshan apne se kahta hoon, aunga, phir aunga, par jis nigah se manno mujhe dekhti hai, wo jaise bina bol ke ye kahe ja rahi hai ki ab tum yahan nahin aoge
“manno ”
“rawi ”—aur, aur bus kathin si hokar thoDa sa hansi aur hath joD
diye
“namaskar ”
in juDe juDe hathon ko dekhta raha zara sa aage baDha ki wida loon, wida doon, par na jane kyon khaDa ka khaDa rah gaya
samjhane ke se swar mein manno boli “deri hoti hai, rawi ”
ji bharkar dekhne wali apni ankhon ko jhukakar main jaldi jaldi niche utar gaya
main phir lautunga phir par kya sada ke liye chala ja raha hoon
mano wo janti thi ki lautunga sath paDi kursi ki or sanket kar kaha, “baitho, rawi ”—swar mein na wyatha thi, na sang chhutne ki udasi thi, na mere aane par ashchary tha ” ankhon hi ankhon mein kuch aisa dekha, jaise puchhti ho “kuchh kahna hai?”
main apne ko bachche ki tarah chhota karke kahta hoon “manno, man nahin hota jane ko ”
manno kuch der dekhti rahi main chahta hoon, manno kuch bhi kahe, kahe to
ek chhoti si sans jaise chhoti se chhoti ghaDi ke liye uske gale mein atki, phir, phir ghane swar mein kaha “ek na ek bar to tumhein chale hi jana hai, rawi ”
main hathon se gherkar us deh ko nahin, to us swar ko chhu lena chahta hoon, choom lena chahta hoon “manno!” aage baDhta hoon, kuch rok lene ki, tham lene ki mudra mein manno donon hath aage Dal deti hai, bus
“manno!” apna anurodh us tak pahunchana chahta hoon
“nahin ” is “nahin” ke aage nahin hai, aur kuch nahin
manno dubla sa hath hilakar ankhon se mujhe wida deti hai aur main wiwash sa, byarth sa niche utarta hoon
ankhon par dhundh si umaD aati hai, sambhalta hoon, sambhalta hoon aur ek bar phir pichhe dekhta hoon
bilkul aise lagta hai ki kinare par khaDa hoon aur kishti mein baithi manno wahin chali ja rahi hai wo mujhe nahin dekhti, nahin dekhti, uski ankhon ke aage uske apne hathon ki rok hai, apne hathon ki ot hai
hathon par tika manno ka sir niche jhuka hai, ankhen shayad band hain, shayad gili hain us kaDe aahat abhiman ki baat sochkar chhatpatata hoon
qadam uthakar phatak ke pas pahuncha, to siskiyan sunkar ruk gaya
sach hi main thahra nahin utarta chala gaya aur har pag ke sath door hota chala gaya, us cottage se, cottage mein rahne wali manno se, manno ki un do ankhon se par manno ki smriti se nahin manno ki yaad mujhe aaj bhi aati hai aaj bhi wo yaad aati hai, wo dupahri, jab manno aur main us baDi jheel ke kinare se lagi pagDanDi par ghumte rahe the mitha mitha sa din tha pahli bar us pile chehre ki mithas ke sammukh main pani sa bah gaya tha ektak un ghunghrale balon ko dekhta rah gaya tha aur dekhta gaya tha shaal mein lipte un kandhon ko, jo pairon ki dhimi chaal se thakkar bhi jhukte nahin the
parikrama ka antim moD aaya, to bahut baDe ghane wriksh ke niche dewi ke do chhote chhote mandir dikhe teen ke kapat band the kuch adhik na sochkar aage baDhne ko hua ki manno ko dekhkar ruk gaya khaDi khaDi kuch der sochti rahi phir jute utar nange panw kinare ke patthron se niche utar gai baDe se patthar par panw jamaya aur jhukkar Danthal se kamal toD wapis laut i main to kuch soch nahin raha tha, bus, dekhta chala ja raha tha shaal sir par kar liya tha aur un band kapaton ke aage wali dahliz par phool rakhkar sir nawa diya
mandir ke band kapaton ke aage matha tek uthi, to mano manno si nahin lag rahi thi aise dikha ki ye jhuki chhaya manno nahin, koi byarth ho gai wiwashta ho, jisne bhagya ke in band kapaton ke aage matha tek diya tha is nirmam akelepan ke liye man mein Dher sa dard uth aaya bahte se swar mein kaha “darshan karne ka man ho, manno, to kisi se puzari ka sthan puchhun?”
manno ne kuch kahne se pahle swar ko sambhala, phir sir hilakar kaha “nahin, rawi, aisa kuch nahin mujhe kaun wardan mangne hain apne liye to kapat band ho gaye hain bus, itna hi chahti hoon, ye kapat unke liye khule rahen, jinse bichhuDkar main alag aa paDi hoon ”
manno ko chhune ka bhay, uske rog ka bhay, jo ab tak mujhe rokta tha, bandhta tha, alag ja paDa jheel ki thanDi hawa mein phahrate se ghunghrale balon par jhukkar banh se gherte hue kaha “manno! ”
manno chaunki nahin kandhe par paDa hath dhire se alag kar diya aur samuchi ankhon se dekhte hue boli “rawi, jise tum jhel nahin sakte, uske liye hath na baDhao!”
awaz mein na ulahna tha, na wyangya tha, na katuta bus, jo kahne ko tha, wahi kaha gaya tha is kahne ka uttar main us din nahin de paya bar bar manno ke pas jane par bhi nahin de paya aur nahin de paya wida ke un kshnon mein, jab manno ko rota chhoD, main antim bar ‘pains’ ki utrai utarta chala gaya tha jis durbalta se kayer bankar Dara tha, wo aaj apne par hi beet gai hai aaj apne liye, manno ke liye us kayarta ko kosta hoon
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ghar mein chahl pahal thi man ko sundar bahu mili, mujhe bhali sangini bholepan se muskrati mera ko dekhta hoon, to kahin kho jane ko man chahta hai lekin ab khounga kyon? ab to bandh gaya hoon, bandha hi rahunga aas pas nate rishte hain, mitr bandhu hain byah wale ghar ke unche qahqahe sunkar khushi se man umaD umaD jata hai kaisa ayojan hai ye bhee! ek din jo baat shuru ho jati hai, use sampurnatya poorn kar diya jata hai itne samuche man se byah ke siway aur kya hota hai, jo sampann hokar ek tek par, ek wiram par pahunch jata hai tan man, ghar dwar, andar bahar sab ek hi pyar mein bheeg jate hain kal mera ko lekar samudr kinare chala jaunga mahina bhar rukkar wahan ke liye prasthan karenge, jahan ab tak main beghar sa hokar rahta raha hoon
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us apar, asim sagar ke kinare ek dusre par chha chha jate hum ghanton ghumte rahe beech beech mein thahrte aur mohawash ek dusre mein chhipe apne apne pyar ko chumte subah sham, din raat kahan chhipte, kahan Dubte, ye hum dekh dekhkar bhi nahin dekhte the
iske baad, prahron ki tarah beet gaye we das warsh sang sang lage bichhoh se door magn din raat mera aur bachchon se door is cottage mein paDa paDa aaj bhi pichhe lautta hoon, to bahut nikat se kisi sans ka swar sunta hoon
hum kitne sukhi hain, kitne! chahta hoon, kisi ki ankhon mein dekhkar iska uttar doon kisi ko chhukar kuch kahun, par sunne wala koi nahin bachchon ke liye mera ne mera moh chhota kar liya
gaye mahine ranikhet jate mera bachchon ke sang ghante bhar ko yahan ruki thi baramde mein lete lete un tinon ko upar aate dekhta raha phatak par pahunchakar mera pal bhar ko thithki thi phir donon hathon se bachchon ko ghere ke andar le i
“munna, rani, parnam karo, beta ”
bachchon ke jhijhak se bandhe hath meri or uthe
dekhkar kanth bhar aaya mera bhagya mujhse door, mujhse alag ja paDa hai mere hi bachche ashchary ki drishti se mujhe dekh man ki aagya ka palan kar rahe hain
mera jab tak rahi, ankhen ponchhti rahi kuch kahne ko, kuch puchhne ko uska swar bandha nahin apne sundar sukumar bachchon ko apne hi Dar ke karan puri tarah nirakh nahin paya kewal mera ki or dekhta raha ki jo aaj mujhe milne i hai, usmen meri patni kahan hai, kahan hai wo jo sachmuch mein meri thi
bhari ankhon se mera ki kalai ki ghaDi dekhne ko nithurai se aahat ho main phati phati, rukhi drishti se phatak ki or dekhne laga ki mera hi pariwar kuch kshan mein mujhe yahan akela chhoD, mujhse door chala jayega ek bar man hua ki bachchon ko pakaDne wali un do banhon ko apni or khinchkar kahun, “main tumhein nahin jane dunga nahin jane dunga!”—par bachchon ki chhoti chhoti ankhon ka aprichay us awesh ko door tak katta chala gaya
chaunkkar dekha, mera pas aakar jhuki aur adhron se mastak chhukar haule se pichhe hat gai uth baitha ki ek bar pyar doon, ek bar pyar loon ki hathon mein munh chhipa rote rote mera in banhon se aa lagi
mera ki ankhon se bhigi apni roti ankhon ko ponchhkar aas pas dekha, to tuta bandh sab kuch baha le gaya tha na pas mera thi, bachche
takiyon ke sahare sir uncha karke dekha, utrai ke tisre moD par tinon chale ja rahe the mera meri or se peeth moDe aage ki or jhuki thi, bachche ek dusre ki anguli pakDe kabhi man ko dekhte the, kabhi rah ko
sans roke pratiksha karta raha, par kisi ne pichhe nahin dekha, na mera ne, na mere bete ne kewal chhoti rani ke balon mein guntha gulabi ribbon der tak hil hilkar meri ankhon se kahta raha “papa, hum chale gaye!”
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sach hi sab chale gaye hain isliye nahin ki unhen jana tha, isliye ki main chala ja raha hoon aise hi ek din manno ke jane ko bhanpakar main utrai mein utarta chala gaya tha meri hi tarah akele mein manno roi thi ab jaan paya hoon ki hathon mein munh chhipakar wo rona kitna akela tha! par is bar jakar barson mainne manno ki sudhi nahin li jab kabhi neend mein dekhta, wo dubli deh, baDi baDi ankhen aur kambal par phaili patli patli banhen, to jagkar udweg se mera ki or baDh jata
ek bar daure par lucknow aaya, to bua mili der tak idhar udhar ki baten karne ke baad ekayek swar badalkar boli “rawi, manno to ab nahin rahi ”
“nahin, bua”—main pita ho jane ke gambhirya ko sambhalte kahta hoon “nahin, bua ”
bua jaise mujhe kai warshon pahle ke us rawi ko kahti hai “raat ko soi to jagi nahin amma chhutti par theen subah subah khyali andar aaya, to sans chuk gai thi
main rundhe gale se jaise kuch puchhne ko kahta hoon “bua ”
bua ankh ponchhti ponchhti kuch sochti rahi, phir dard se boli “rawi, ek bar use patr to likhte ”
main rumal se rulai sokhne laga
“tumhare nam ka ek parasal chhoD gai thi almari mein khola, to jarsi thi ”
dusre din bua ke pas phir aaya, to jaldi jaldi panw chhukar kaha “achchha bua ”
“rawi”—bua ki wahi kal wali awaz thi mainne sir hilakar ghor wiwashta ke se swar mein kaha “nahin, bua, nahin ”
bua samajh gai, main kuch bhi janna nahin chahta hoon par jaise man hi man manno ke liye tutkar boli “yahi bar bar sochti hoon ki jiske pyar ko bhi koi na chhu sake, aisa durbhagy use kyon mila, kyon mila?”
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lucknow se lautkar main kai din man se manno ko utar nahin paya yahi dekhta ki ‘pains’ mein kursi par baithi wo mere liye jarsi taiyar kar rahi hai, wahi hath hain, wahi drishti hai
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aur ek din salbhar ghar mein bimar rahne ke baad main bhuwali pahunch gaya wahi cheeD ki thanDi hawayen theen, wahi suhani dhoop thi wahi bhuwali thi aur wahi main tha par is bar kisi ko pata karne mujhe post office ki or nahin jana tha ‘pains’ ke samne wale pahaD par kisi ke abhishap se bani cottage mein pahli bar soya, to bhar bhar aate kanth se ratbhar ek hi nam pukarta raha “manno manno!ha aaj wo hoti hoti to ”
har roz subah uthte baramde se ‘pains’ dekhta hoon aur man hi man pukarta hoon, “manno! manno!! ”
jis mera ko mainne warshon jana hai, wo ab pas si nahin lagti, apni si nahin lagti use mainne chhu chhukar chhua tha, choom chumkar chuma tha, par man par jab moh aur pyar ki uchhlan aati hai, to mera nahin, manno ki ankhen hi sagi dikhti hain
khiDki ke samne lete lete, akelepan se ghabrakar jab main bahar dekhta hoon, to dhundhabhre badlon ke gheron mein ghunghrale balon wala wahi chehra dikhta hai, wahi
aye din dawa ke nae badalte hue rang dekhkar ab itna to jaan gaya hoon ki is chhutte chhutte tan mein man ko bahut der bhatakna nahin hai ek din khiDki se bahar dekhte hi dekhte inhin badlon mein sama jaunga inhin gheron mein
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।