वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज़ मिला दी थी कि ख़ाली शराब वह शरबत की तरह गट-गट पी जाता है और उस पर कोई ख़ास असर नहीं होता। आँखों में लाल ढोरे-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीगकर दमक उठती हैं, होंठों का ज़हर और उजागर हो जाता है, और बस—होश-ओ-हवास बदस्तूर क़ायम रहते हैं।
हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोचकर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोचकर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अंदेशा तो था कि वह पहले ही घूँट में ज़ायक़ा पहचान कर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास ख़त्म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्पना से दिल दहलकर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुज़दिल आदमी की कल्पना बहुत तेज़ होती है, हमेशा उसे हर ख़तरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्मत बाँधकर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा ज़रूर था। इतना भी क्या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है।
ख़ैर, अब उसकी आँखें बंद हो चुकी थीं और सर झूल रहा था। एक ओर लुढ़ककर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आई थीं। उसे इस तरह लाचार देखकर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है।
लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मूज़ी किसी भी क्षण उछलकर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताक़त उसकी ख़ामोशी में है। बातें वह उस ज़माने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो।
उसकी गूँगी अवहेलना की कल्पना-मात्र से मुझे दहशत हो रही है। कहा न, कि मैं एक बुज़दिल इंसान हूँ।
वैसे मैं न जाने कैसे समझ बैठा था कि इतने अर्से की अलहदगी के बाद अब मैं उसके आतंक से पूरी तरह आज़ाद हो चुका हूँ। इसी ख़ुशफ़हमी में शायद उस रोज़ उसे मैं अपने साथ ले आया था। शायद मन में कहीं उस पर रोब गाँठने, उसे नीचा दिखाने की दुराशा भी रही हो। हो सकता है कि मैंने सोचा हो कि वह मेरी जीती-जागती ख़ूबसूरत बीवी, चहकते-मटकते तंदुरुस्त बच्चों और आरास्ता-पैरास्ता आलीशान कोठी को देखकर ख़ुद ही मैदान छोड़कर भाग जाएगा और हमेशा के लिए मुझे उससे निजात मिल जाएगी। शायद मैं उस पर यह साबित कर दिखाना चाहता था कि उससे पीछा छुड़ा लेने के बाद किस ख़ुशगवार हद तक मैंने अपनी ज़िंदगी को सँभाल-सँवार लिया है।
लेकिन ये सब लँगड़े बहाने हैं। हक़ीक़त शायद यह है कि उस रोज़ मैं उसे अपने साथ नहीं लाया था, बल्कि वह ख़ुद ही मेरे साथ चला आया था, जैसे मैं उसे नहीं बल्कि वह मुझे नीचा दिखाना चाहता हो। ज़ाहिर है कि उस समय यह बारीक बात मेरी समझ में नहीं आई होगी। मौक़े पर ठीक बात मैं कभी नहीं सोच पाता। यही तो मुसीबत है। वैसे मुसीबतें और भी बहुत हैं, लेकिन उन सबका ज़िक्र यहाँ बेकार होगा।
ख़ैर, माला के सामने उस रोज़ मैंने इसी क़िस्म की कोई लँगड़ी सफ़ाई पेश करने की कोशिश की थी और उस पर कोई असर नहीं हुआ था। वह उसे देखते ही बिफर उठी थी। सबसे पहले अपनी बेवक़ूफ़ी और सारी स्थिति का एहसास शायद मुझे उसी क्षण हुआ था। मुझे उस कमबख़्त से वहीं घर से दूर, उस सड़क के किनारे किसी-न-किसी तरह निपट लेना चाहिए था। अगर अपनी उस सहमी हुई ख़ामोशी को तोड़कर मैंने अपनी तमाम मजबूरियाँ उसके सामने रख दी होतीं, माला का एक ख़ाका-सा खींच दिया होता, साफ़-साफ़ उससे कह दिया होता—देखो गुरु, मुझ पर दया करो और मेरा पीछा छोड़ दो—तो शायद वहीं हम किसी समझौते पर पहुँच जाते। और नहीं तो वह मुझे कुछ मोहलत तो दे ही देता। छूटते ही दो मोरचों को एक साथ सँभालने की दिक़्क़त तो पेश न आती। कुछ भी हो, मुझे उसे अपने घर नहीं लाना चाहिए था। लेकिन अब यह सारी समझदारी बेकार थी। माला और वह एक-दूसरे को यूँ घूर रहे थे जैसे दो पुराने और जानी दुश्मन हों। एक क्षण के लिए मैं यह सोचकर आश्वस्त हुआ था कि माला सारी स्थिति ख़ुद सँभाल लेगी और फिर दूसरे ही क्षण मैं माला की लानत-मलामत की कल्पना कर सहम गया था। बात को मज़ाक में घोल देने की कोशिश में मैंने एक ख़ास गिलगिले लहज़े में—जो मेरे पास ऐसे नाज़ुक मौक़ों के लिए सुरक्षित रहता है—कहा था, डार्लिंग, ज़रा रास्ता तो छोड़ो, कि हम बहुत लंबी सैर से लौटे हैं, ज़रा बैठ जाएँ तो जो सज़ा जी में आए, दे देना।
वह रास्ते से तो हट गई थी, लेकिन उसके तनाव में कोई कमी नहीं हुई थी, और न ही उसने मुझे बैठने दिया था। साथ ही उस मुरदार ने मेरी तरफ़ यूँ देखा था जैसे कह रहा हो—तो तुम वाक़ई इस औरत के ग़ुलाम बनकर रह गए हो। और ख़ुद मैं उन दोनों की तरफ़ यूँ देख रहा था जैसे एक की नज़र बचाकर दूसरे से कोई साज़िशी संबंध पैदा कर लेने की ख़्वाहिश हो।
फिर माला ने मौक़ा पाते ही मुझे अलग ले जाकर डाँटना-डपटना शुरू कर दिया था—मैं पूछती हूँ कि यह तुम किस आवारागर्द को पकड़कर साथ ले आए हो? ज़रूर कोई तुम्हारा पुराना दोस्त होगा? है न? इत्ते बरस शादी को हो चले लेकिन तुम अभी तक वैसे-के-वैसे ही रहे। मेरे बच्चे उसे देखकर क्या कहेंगे? पड़ोसी क्या सोचेंगे? अब कुछ बोलोगे भी?
मैं हैरान था कि क्या बोलूँ! माला के सामने मैं बोलता कम हूँ, ज़्यादा समय तोलने में ही बीत जाता है और उसका मिजाज़ और बिगड़ जाता है। वैसे उसका ग़ुस्सा बजा था। उसका ग़ुस्सा हमेशा बजा होता है। हमारी कामयाब शादी की बुनियाद भी इसी पर क़ायम है—उसकी हर बात हमेशा सही होती है और मैं अपनी हर ग़लती को चुपचाप और फ़ौरन क़बूल कर लेता हूँ। ऊपर से वह कुछ भी क्यों न कहे, उसे मेरी फ़रमाँ-बरदारी पर पूरा भरोसा है। बीच-बीच में महज़ मुझे ख़ुश कर देने के ख़याल से वह इस क़िस्म की शिकायतें ज़रूर कर दिया करती है—तुम्हें न जाने हर मामूली-से-मामूली बात पर मेरे ख़िलाफ़ डट जाने में क्या मज़ा आता है? मानती हूँ कि तुम मुझसे कहीं ज़्यादा समझदार हो, लेकिन कभी-कभी मेरी बात रखने के लिए ही सही...वग़ैरा-वग़ैरा।
मुझे उसके ये झूठे उलाहने बहुत पसंद हैं, गो मैं उनसे ज़्यादा ख़ुश नहीं हो पाता। फिर भी वह समझती है कि इनसे मेरा भ्रम बना रहता है और मैं जानता हूँ कि बाग़डोर उसी के हाथ में रहती है और यह ठीक ही है।
तो माला दाँत पीसकर कह रही थी—अब कुछ बोलोगे भी? मेरे बच्चे पार्क से लौटकर इस मनहूस आदमी को बैठक में बैठा देखेंगे, तो क्या कहेंगे? उन पर क्या असर होगा? उफ़, इतना गंदा आदमी! सारा घर महक रहा है। बताओ न, मैं अपने बच्चों से क्या कहूँगी?
अब ज़ाहिर है कि माला को कुछ भी नहीं बता सकता था। सो मैं सर झुकाए खड़ा रहा और वह मुँह उठाए बहुत देर तक बरसती रही।
वैसे यहाँ यह साफ़ कर दूँ कि वे बच्चे माला अपने साथ नहीं लाई थी। वे मेरे भी उतने ही हैं जितने कि उसके, लेकिन ऐसे मौक़ों पर वह हमेशा 'मेरे बच्चे' कहकर मुझसे उन्हें यूँ अलग कर लिया करती है, जैसे कोई कीचड़ से लाल निकाल रहा हो। कभी-कभी मुझे इस बात पर बहुत दुख भी होता है, लेकिन फिर ठंडे दिल से सोचने पर महसूस होता है कि शारीरिक सचाई कुछ भी हो, रूहानी तौर पर हमारे सभी बच्चे माला के ही हैं। उनके रंग-ढंग में मेरा हिस्सा बहुत कम है। और यह ठीक ही है, क्योंकि अगर वे मुझ पर जाते तो उन्हें भी मेरी तरह सीधा होने में न जाने कितनी देर लग जाती। मैं ख़ुश हूँ कि उनका क़ानूनी और शायद जिस्मानी बाप हूँ, उनके लिए पैसे कमाता हूँ, और दिल-ओ-जान से उनकी माँ की सेवा में दिन-रात जुटा रहता हूँ।
ख़ैर! कुछ देर यूँ ही सिर नीचा किए खड़े रहने के बाद आख़िर मैंने निहायत आजिज़ाना आवाज़ में कहना शुरू किया था—अरे भई, मैं तो उस कमबख़्त को ठीक तरह से पहचानता भी नहीं, उससे दोस्ती का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। अब अगर रास्ते में कोई आदमी मिल जाए तो...।
न जाने मेरे फ़िक़रे का अंत क्योंकर होता। शायद होता भी कि नहीं, लेकिन माला ने बीच में ही पाँव पटककर कह दिया—झूठ, सरासर झूठ!
यह कहकर वह अंदर चली गई और मैं कुछ देर तक और वहीं सिर नीचा किए खड़ा रहने के बाद वापस उस कमरे में लौट आया, जहाँ बैठा वह बीड़ी पी रहा था और मुस्करा रहा था, जैसे सब जानता हो कि मैं किस मरहले से गुज़रकर आ रहा हूँ।
अब हुआ दरअसल यह था कि उस शाम माला से, कुछ दूर अकेला घूम आने की इजाज़त माँगकर मैं यूँ ही—बिना मतलब घर से बाहर निकल गया था। आमतौर पर वह ऐसी इजाज़तें आसानी से नहीं देती और न ही मैं माँगने की हिम्मत कर पाता हूँ। बिना मतलब घूमना उसे बहुत बुरा लगता है। कहीं भी जाना हो, किसी से भी मिलना हो, कुछ भी करना या न करना हो, मतलब का साफ़ और सही फ़ैसला वह पहले से ही कर लेती है। ठीक ही करती है। मैं उसकी समझदारी की दाद देता हूँ। वैसे घर से दूर अकेला मैं किसी मतलब से भी नहीं आ पाता। माला की सोहबत की कुछ ऐसी आदत-सी पड़ गई है, कि उसके बग़ैर सब सूना-सूना-सा लगता है। जब वह साथ रहती है तो किसी क़िस्म का कोई ऊल-जलूल विचार मन में उठ ही नहीं पाता, हर चीज़ ठोस और बा-मतलब दिखाई देती है। अंदर की हालत ऐसी रहती है, जैसे माला के हाथों सजाया हुआ कोई कमरा हो, जिसमें हर चीज़ क़रीने से पड़ी हो, बे-क़ायदगी की कोई गुंजाइश न हो। और जब वह साथ नहीं होती, तो वही होता है जो उस शाम हुआ, या फिर उसी क़िस्म का कोई और हादसा, क्योंकि उससे पहले वैसी बात कभी नहीं हुई थी।
तो उस शाम न जाने किस धुन में मैं बहुत दूर निकल गया था। आमतौर पर घर से दूर होने पर भी मैं घर ही के बारे में सोचता रहता हूँ—इसलिए नहीं कि घर में किसी क़िस्म की कोई परेशानी है। गाड़ी न सिर्फ़ चल रही है, बल्कि ख़ूब चल रही है। बाग़डोर जब माला-जैसी औरत के हाथ हो, तो चलेगी नहीं तो और करेगी भी क्या? नहीं, घर में कोई परेशानी नहीं—अच्छी तनख़्वाह, अच्छी बीवी, अच्छे बच्चे, अच्छे बा-रसूख़ दोस्त, उनकी बीवियाँ भी ख़ूब हट्टी-कट्टी और अच्छी, अच्छा सरकारी मकान, अच्छा ख़ुशनुमा लॉन, पास-पड़ोस भी अच्छा, महँगाई के बावजूद दोनों वक़्त अच्छा खाना, अच्छा बिस्तर और अच्छी बिस्तरी ज़िंदगी। मैं पूछता हूँ, इस सबके अलावा और चाहिए भी क्या एक अच्छे इंसान को? फिर भी अकेला होने पर घरेलू मामलों को बार-बार उलट-पलटकर देखने से वैसा ही इत्मीनान मिलता है, जैसा किसी भी सेहतमंद आदमी को बार-बार आईने में अपनी सूरत देखकर मिलता होगा। मेरा मतलब है कि वक़्त अच्छी तरह से कट जाता है, ऊब नहीं होती। यह भी माला के ही सुप्रभाव का फल है, नहीं तो एक ज़माना था कि मैं हरदम ऊब का शिकार रहा करता था।
हो सकता है कि उस शाम दिमाग़ कुछ देर के लिए उसी गुज़रे हुए ज़माने की ओर भटक गया हो। कुछ भी हो, मैं घर से बहुत दूर निकल गया था और फिर अचानक वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ था।
महसूस हुआ था जैसे मुझे अकेला देखकर घात में बैठे हुए किसी ख़तरनाक अजनबी ने ही रास्ता रोक लेना चाहा हो। मैं ठिठककर रुक गया था। उसकी सुती हुई आँखों से फिसलकर मेरी निगाह उसकी मुस्कराहट पर जा टिकी थी, जहाँ अब मुझे उसके साथ बिताए हुए उस सारे गर्द-आलूद ज़माने की एक टिमटिमाती हुई-सी झलक दिखाई दे रही थी। महसूस हो रहा था कि बरसों तक रूपोश रहने के बाद फिर मुझे पकड़कर किसी के सामने पेश कर दिया गया हो। मेरा सिर इस पेशी के ख़याल से दबकर झुक गया था।
कुछ, या शायद कितनी ही देर हम सड़क के उस नंगे और आवारा अँधेरे में एक-दूसरे के रू-ब-रू खड़े रहे थे। अगर कोई तीसरा उस समय देख रहा होता, तो शायद समझता कि हम किसी लाश के सिरहाने खड़े कोई प्रार्थना कर रहे हैं, या एक-दूसरे पर झपट पड़ने से पहले किसी मंत्र का जाप।
वैसे यह सच है कि उसे पहचानते ही मैंने माला को याद करना शुरू कर दिया था, कि हर संकट में मैं हमेशा उसी का नाम लेता हूँ। साथ ही यहाँ से दुम दबाकर भाग उठने की ख़्वाहिश भी मन में उठती रही थी। एक उड़ती हुई-सी तमन्ना यह भी हुई थी कि वापस घर लौटने के बजाय चुपचाप उस कमबख़्त के साथ हो लूँ, जहाँ वह ले जाना चाहे चला जाऊँ और माला को ख़बर तक न हो। इस विचार पर तब भी मैं बहुत चौंका था और अभी तक हैरान हूँ, क्योंकि आख़िर उसी से पीछा छुड़ाने के लिए ही तो मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर आज से कुछ बरस पहले मैंने उसके ख़िलाफ़ बग़ावत न की होती तो...लेकिन उस भागने को बग़ावत का नाम देकर मैं अपने-आपको धोखा दे रहा हूँ, मैंने सोचा था और मेरा मुँह शर्म के मारे जल उठा था।
उस हरामज़ादे ने ज़रूर मेरी सारी परेशानी को भाँप लिया होगा। उससे मेरी कोई कमज़ोरी छिपी नहीं और उससे भागकर माला की गोद में पनाह लेने की एक बड़ी वजह यही थी। उसकी हँसी मुझे सूखे पत्तों की हैबतनाक खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी और उस खड़खड़ाहट में उसके साए में गुज़ारे हुए ज़माने की बेशुमार बातें आपस में टकरा रही थीं। बड़ी ही मुश्किल से आँख उठाकर उसकी ओर देखा था। उसका हाथ मेरी तरफ़ बढ़ा हुआ था। मैं बिदककर दो क़दम पीछे हट गया था और उसकी हँसी और ऊँची हो गई थी। कसे हुए दाँतों से मैंने उसकी आँखों का सामना किया था। अपना हाथ उसके खुरदरे हाथ में देते हुए और उसकी साँसों की बदबूदार हरारत अपने चेहरे पर झेलते हुए मैंने महसूस किया था जैसे इतनी मुद्दत आज़ाद रह लेने के बाद फिर अपने-आपको उसके हवाले कर दिया हो। अजीब बात है, इस एहसास से जितनी तकलीफ़ मुझे होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं थी। शायद हर भगोड़ा मुजरिम दिल से यही चाहता है कि उसे कोई पकड़ ले।
घर पहुँचने तक कोई बात नहीं हुई थी। अपनी-अपनी ख़ामोशी में लिपटे हुए हम धीमे-धीमे चल रहे थे, जैसे कंधों पर कोई लाश उठाए हुए हों।
सो, जब माला की डाँट-डपट सुन लेने के बाद, मुँह बनाए, मैं वापस बैठक में लौटा, तो वह बदज़ात मज़े में बैठा बीड़ी पी रहा था। एक क्षण के लिए भ्रम हुआ, जैसे वह कमरा उसी का हो। फिर कुछ सँभलकर, उससे नज़र मिलाए बग़ैर, मैंने कमरे की सारी खिड़कियाँ खोल दीं, पंखे को और तेज़ कर दिया, एक झुँझलाई हुई ठोकर से उसके जूतों को सोफ़े के नीचे धकेल दिया, रेडियो चलाना ही चाहता था कि उसकी फटी हुई हँसी सुनाई दी और मैं बेबस हो उससे दूर हटकर चुपचाप बैठ गया।
जी में आया कि हाथ बाँधकर उसके सामने खड़ा हो जाऊँ, सारी हक़ीक़त सुनाकर कह दूँ—देखो दोस्त, अब मेरे हाल पर रहम करो और माला के आने से पहले चुपचाप यहाँ से चले जाओ, वरना नतीजा बुरा होगा।
लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। कहा भी होता तो सिवाय एक और ज़हरीली हँसी के उसने मेरी अपील का कोई जवाब न दिया होता। वह बहुत ज़ालिम है, हर बात की तह तक पहुँचने का कायल, और भावुकता से उसे सख़्त नफ़रत है।
उसे कमरे का जायज़ा लेते देख मैंने दबी निगाह से उसकी ओर देखना शुरू कर दिया। टाँगें समेटे वह सोफ़े पर बैठा हुआ एक जानवर-सा दिखाई दिया। उसकी हालत बहुत ख़स्ता दिखाई दी, लेकिन उसकी शक्ल अब भी मुझसे कुछ-कुछ मिलती थी। इस विचार से मुझे कोफ़्त भी हुई और एक अजीब क़िस्म की ख़ुशी भी महसूस हुई। एक ज़माना था जब वही एकमात्र मेरा आदर्श हुआ करता था, जब हम दोनों घंटों एक साथ घूमा करते थे, जब हमने बार-बार कई नौकरियों से एक साथ इस्तीफ़े दिए थे, कुछ-एक से एक साथ निकाले भी गए थे, जब हम अपने-आपको उन तमाम लोगों से बेहतर और ऊँचा समझते थे जो पिटी-पिटाई लकीरों पर चलते हुए अपनी सारी ज़िंदगी एक बदनुमा और रवायती घरौंदे की तामीर में बरबाद कर देते हैं, जिनके दिमाग़ हमेशा उस घरौंदे की चहारदीवारी में क़ैद रहते है, जिनके दिल सिर्फ़ अपने बच्चों की किलकारियों पर ही झूमते हैं, जिनकी बेवक़ूफ़ बीवियाँ दिन-रात उन्हें तिगनी का नाच नचाती हैं, और जिन्हें अपनी सफ़ेद-पोशी के अलावा और किसी बात का कोई ग़म नहीं होता। कुछ देर मैं उस ज़माने की याद में डूबा रहा। महसूस हुआ, जैसे वह फिर उसी दुनिया से एक पैग़ाम लाया हो, फिर मुझे उन्हीं रोमानी वीरानों में भटका देने की कोशिश करना चाहता हो, जिनसे भागकर मैंने अपने लिए एक फूलों की सेज सँवार ली है, जिस पर माला क़रीब हर रात मुझसे मेरी फ़रमाँ-बरदारी का सबूत तलब किया करती है, और जहाँ मैं बहुत सुखी हूँ।
वह मुस्करा रहा था, जैसे उसने मेरे अंदर झाँक लिया हो। उसे इस तरह आसानी से अपने ऊपर क़ाबिज़ होते देख, मैंने बात बदलने के लिए कहा—कितने रोज़ यहाँ ठहरोगे?
उसकी हँसी से एक बार फिर हमारे घर की सजी-सँवरी फ़िज़ा दहल गई, और मुझे ख़तरा हुआ कि माला उसी दम वहाँ पहुँचकर उसका मुँह नोच लेगी। लेकिन यह ख़तरा इस बात का गवाह है कि इतने बरसों की दासता के बावजूद मैं अभी तक माला को पहचान नहीं पाया। थोड़ी ही देर में वह एक बहुत ख़ूबसूरत साड़ी पहने मुस्कराती-इठलाती हुई हमारे सामने आ खड़ी हुई। हाथ जोड़कर बड़े दिलफ़रेब अंदाज़ में नमस्कार करती हुई बोली, “आप बहुत थके हुए दिखाई देते हैं, मैंने गरम पानी रखवा दिया है, आप ‘वाश’ कर लें, तो कुछ पीकर ताज़ादम हो जाएँ। खाना तो हम लोग देर से ही खाएँगे।”
मैं बहुत ख़ुश हुआ। अब मामला माला ने अपने हाथ में ले लिया था और मैं यूँ ही परेशान हो रहा था। मन हुआ कि उठकर माला को चूम लूँ, मैंने कनखियों से उस हरामज़ादे की तरफ़ देखा। वह वाक़ई सहमा हुआ-सा दिखाई दिया। मैंने सोचा, अब अगर वह ख़ुद-ब-ख़ुद ही न भाग उठा तो मैं समझूँगा कि माला की सारी समझ-सीख और रंग-रूप बेकार है। कितना लुत्फ़ आए अगर वह कमबख़्त भी भाग खड़ा होने के बजाय माला के दाँव में फँस जाए और फिर मैं उससे पूछूँ—अब बता, साले, अब बात समझ में आई? मैंने आँखें बंदकर लीं और उसे माला के इर्द-गिर्द नाचते हुए, उस पर फ़िदा होते हुए, उसके साथ लेटे हुए देखा। एक अजीब राहत का एहसास हुआ। आँखें खोलीं तो वह ग़ुसलख़ाने में जा चुका था और माला झुकी हुई सोफ़े को ठीक कर रही थी। मैंने उसकी आँखों में आँखें डालकर मुस्कराने की कोशिश की, लेकिन फिर उसकी तनी हुई सूरत से घबराकर नज़रें झुका लीं। ज़ाहिर था कि उसने अभी मुझे माफ़ नहीं किया था।
नहाकर वह बाहर निकला, तो उसने मेरे कपड़े पहने हुए थे। इस बीच माला ने बीअर निकाल ली थी और उसका गिलास भरते हुए पूछ रही थी—'आप खाने में मिर्च कम लेते हैं या ज़्यादा?' मैंने बहुत मुश्किल से हँसी पर क़ाबू किया—उस साले को तो खाना ही कब मिलता होता, मैं सोच रहा था और माला की होशियारी पर ख़ुश हो रहा था।
कुछ देर हम बैठे पीते रहे, माला उससे घुल-मिलकर बातें करती रही, उससे छोटे-छोटे सवाल पूछती रही—आपको यह शहर कैसा लगा? बीअर ठंडी तो है न? आप अपना सामान कहाँ छोड़ आए?—और वह बग़लें झाँकता रहा। हमारे बच्चों ने आकर अपने 'अंकल' को ग्रीट किया, बारी-बारी उसके घुटनों पर बैठकर अपना नाम वग़ैरा बताया, एक-दो गाने गाए और फिर 'गुड नाइट' कहकर अपने कमरे में चले गए। माला की मीठी बातों से यूँ लग रहा था जैसे हमारे अपने ही हलक़े का कोई बे-तकल्लुफ़ दोस्त कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ ठहरा हो, और उसकी बड़ी-सी गाड़ी हमारे दरवाज़े के सामने खड़ी हो।
मैं बहुत ख़ुश था और जब माला खाना लगवाने के लिए बाहर गई, तो उस शाम पहली बार मैंने बेधड़क उस कमीने की तरफ़ देखा। वह तीन-चार गिलास बीअर के पी चुका था और उसके चेहरे की ज़र्दी कुछ कम हो चुकी थी। लेकिन उसकी मुस्कराहट में माला के बाहर जाते ही फिर वही ज़हर और चैलेंज आ गया था और मुझे महसूस हुआ जैसे वह कह रहा हो—बीवी तुम्हारी मुझे पसंद है, लेकिन बेटे! उसे ख़बरदार कर दो, मैं इतना पिलपिला नहीं जितना वह समझती है।
एक क्षण के लिए फिर मेरा जोश कुछ ढीला पड़ गया। लगा जैसे बात इतनी आसानी से सुलझने वाली नहीं। याद आया कि ख़ूबसूरत और शोख़ औरतें उस ज़माने में भी उसे बहुत पसंद थीं, लेकिन उनका जादू ज़्यादा देर तक नहीं चलता था। फिर भी, मैंने सोचा, बात अब मेरे हाथ से निकल गई है और सिवाए इंतिज़ार के मैं और कुछ नहीं कर सकता था।
खाना उस रोज़ बहुत उम्दा बना था और खाने के बाद माला ख़ुद उसे उसके कमरे तक छोड़ने गई थी। लेकिन उस रात मेरे साथ माला ने कोई बात नहीं की। मैंने कई मज़ाक किए, कहा—नहा-धोकर वह काफ़ी अच्छा लग रहा था, क्यों? बहुत छेड़-छाड़ की, कई कोशिशें कीं कि सुलहनामा हो जाए, लेकिन उसने मुझे अपने पास फटकने नहीं दिया। नींद उस रात मुझे नहीं आई, फिर भी अंदर से मुझे इत्मीनान था कि किसी-न-किसी तरह माला दूसरे रोज़ उसे भगा सकने में ज़रूर कामयाब हो जाएगी।
लेकिन मेरा अंदाज़ा ग़लत निकला। माना कि माला बहुत चालाक है, बहुत समझदार है, बहुत मनमोहिनी है, लेकिन उस हरामज़ादे की ढिठाई का भी कोई मुक़ाबला नहीं। तीन दिन तक माला उसकी ख़ातिर-ओ-तवाज़ो करती रही। मेरे कपड़ों में वह अब बिलकुल मुझ जैसा हो गया था और नज़र यूँ आता था जैसे माला के दो पति हों। मैं तो सुबह-सबेरे गाड़ी लेकर दफ़्तर को निकल जाता था, पीछे उन दोनों में न जाने क्या बातें होती थीं। लेकिन जब कभी उसे मौक़ा मिलता वह मुझे अंदर ले जाकर डाँटने लगती—अब यह मुरदार यहाँ से निकलेगा भी कि नहीं। जब तक यह घर में है, हम किसी को न तो बुला सकते हैं, न किसी के यहाँ जा सकते हैं। मेरे बच्चे कहते हैं कि इसे बात करने तक की तमीज़ नहीं। आख़िर यह चाहता क्या है?
मैं उसे क्या बताता कि वह क्या चाहता है? कभी कहता—थोड़ा सब्र और करो अब जाने की सोच रहा होगा। कभी कहता—क्या बताऊँ, मैं तो ख़ुद शर्मिंदा हूँ। कभी कहता—तुमने ख़ुद ही तो सिर पर चढ़ा लिया है। अगर तुम्हारा बर्ताव रूखा होता तो...
माला ने अपना बर्ताव तो नहीं बदला, लेकिन चौथे रोज़ अपने बच्चों-सहित घर छोड़कर अपने भाई के यहाँ चली गई। मैंने बहुतेरा रोका, लेकिन वह नहीं मानी। उस रोज़ वह कमबख़्त बहुत हँसा था, ज़ोर-ज़ोर से, बार-बार।
आज माला को गए पाँच रोज़ हो गए हैं। मैंने दफ़्तर जाना छोड़ दिया है। वह फिर अपने असली रंग में आ गया है। मेरे कपड़े उतारकर उसने फिर अपना वह मैला-सा कुर्ता-पायजामा पहन लिया है। कहता कुछ नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि क्या चाहता है—वह मौक़ा फिर हाथ नहीं आएगा! वह चली गई है। बेहतर यही है कि उसके लौटने से पहले तुम भी यहाँ से भाग चलो। उसकी चिंता मत करो, वह अपना इंतिज़ाम ख़ुद कर लेगी।
और आज आख़िर मैं उसे थोड़ी देर के लिए बेहोश कर देने में कामयाब हो गया हूँ। अब मेरे सामने दो रास्ते हैं। एक यह कि होश आने से पहले मैं उसे जान से मार डालूँ। और दूसरा यह कि अपना ज़रूरी सामान बाँधकर तैयार हो जाऊँ और ज्यूँ ही उसे होश आए, हम दोनों फिर उसी रास्ते पर चल दें, जिससे भागकर कुछ बरस पहले मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर माला इस समय यहाँ होती तो कोई तीसरा रास्ता भी निकाल लेती। लेकिन वह नहीं है, और मैं नहीं जानता कि मैं क्या करूँ?
wo is samay dusre kamre mein behosh paDa hai aaj mainne uski sharab mein koi cheez mila di thi ki khali sharab wo sharbat ki tarah gat gat pi jata hai aur us par koi khas asar nahin hota ankhon mein lal Dhore se jhulne lagte hain, mathe ki shiknen pasine mein bhigkar damak uthti hain, honthon ka zahr aur ujagar ho jata hai, aur bus—hosh o hawas badastur qayam rahte hain
hairan hoon ki ye tarkib mujhe pahle kabhi kyon nahin sujhi shayad sujhi bhi ho, aur mainne kuch sochkar ise daba diya ho main hamesha kuch na kuch sochkar kai baton ko daba jata hoon aaj bhi mujhe andesha to tha ki wo pahle hi ghoont mein zayqa pahchan kar meri chori pakaD lega lekin gilas khatm hote hote uski ankhen bujhne lagi theen aur mera hausla baDh gaya tha ji mein aaya tha ki usi kshan uski gardan maroD doon, lekin phir natijon ki kalpana se dil dahalkar rah gaya tha main samajhta hoon ki har buzad adami ki kalpana bahut tez hoti hai, hamesha use har khatre se bacha le jati hai phir bhi himmat bandhakar mainne ek bar sidhe uski or dekha zarur tha itna bhi kya kam hai ki sadharan halat mein meri nigahen sahmi hui si uske samne idhar udhar faDfaDati rahti hain sadharan halat mein meri sthiti uske samne bahut asadharan rahti hai
khair, ab uski ankhen band ho chuki theen aur sar jhool raha tha ek or luDhakkar gir jane se pahle uski banhen do ladi hui Dhili tahniyon ki sust si uthan ke sath meri or uth i theen use is tarah lachar dekhkar bhram hua tha ki wo dam toD raha hai
lekin main janta hoon ki wo muzi kisi bhi kshan uchhalkar khaDa ho sakta hai hosh sambhalne par wo kuch kahega nahin uski taqat uski khamoshi mein hai baten wo us zamane mein bhi bahut kam kiya karta tha, lekin ab to jaise bilkul gunga ho gaya ho
uski gungi awhelana ki kalpana matr se mujhe dahshat ho rahi hai kaha na, ki main ek buzad insan hoon
waise main na jane kaise samajh baitha tha ki itne arse ki alhadgi ke baad ab main uske atank se puri tarah azad ho chuka hoon isi khushafahmi mein shayad us roz use main apne sath le aaya tha shayad man mein kahin us par rob ganthane, use nicha dikhane ki durasha bhi rahi ho ho sakta hai ki mainne socha ho ki wo meri jiti jagti khubsurat biwi, chahakte matakte tandurust bachchon aur arasta pairasta alishan kothi ko dekhkar khu hi maidan chhoDkar bhag jayega aur hamesha ke liye mujhe usse nijat mil jayegi shayad main us par ye sabit kar dikhana chahta tha ki usse pichha chhuDa lene ke baad kis khushgawar had tak mainne apni zindagi ko sanbhal sanwar liya hai
lekin ye sab langDe bahane hain haqiqat shayad ye hai ki us roz main use apne sath nahin laya tha, balki wo khu hi mere sath chala aaya tha, jaise main use nahin balki wo mujhe nicha dikhana chahta ho zahir hai ki us samay ye barik baat meri samajh mein nahin i hogi mauqe par theek baat main kabhi nahin soch pata yahi to musibat hai waise musibaten aur bhi bahut hain, lekin un sabka zikr yahan bekar hoga
khair, mala ke samne us roz mainne isi qim ki koi langDi safai pesh karne ki koshish ki thi aur us par koi asar nahin hua tha wo use dekhte hi biphar uthi thi sabse pahle apni bewaqufi aur sari sthiti ka ehsas shayad mujhe usi kshan hua tha mujhe us kambakht se wahin ghar se door, us saDak ke kinare kisi na kisi tarah nipat lena chahiye tha agar apni us sahmi hui khamoshi ko toDkar mainne apni tamam majburiyan uske samne rakh di hotin, mala ka ek khaka sa kheench diya hota, saf saf usse kah diya hota—dekho guru, mujh par daya karo aur mera pichha chhoD do—to shayad wahin hum kisi samjhaute par pahunch jate aur nahin to wo mujhe kuch mohlat to de hi deta chhutte hi do morchon ko ek sath sambhalne ki diqqat to pesh na aati kuch bhi ho, mujhe use apne ghar nahin lana chahiye tha lekin ab ye sari samajhdari bekar thi mala aur wo ek dusre ko yoon ghoor rahe the jaise do purane aur jani dushman hon ek kshan ke liye main ye sochkar ashwast hua tha ki mala sari sthiti khu sanbhal legi aur phir dusre hi kshan main mala ki lanat malamat ki kalpana kar saham gaya tha baat ko mazak mein ghol dene ki koshish mein mainne ek khas gilagile lahze mein—jo mere pas aise nazuk mauqon ke liye surakshait rahta hai—kaha tha, darling, zara rasta to chhoDo, ki hum bahut lambi sair se laute hain, zara baith jayen to jo saza ji mein aaye, de dena
wo raste se to hat gai thi, lekin uske tanaw mein koi kami nahin hui thi, aur na hi usne mujhe baithne diya tha sath hi us murdar ne meri taraf yoon dekha tha jaise kah raha ho—to tum waqi is aurat ke ghulam bankar rah gaye ho aur khu main un donon ki taraf yoon dekh raha tha jaise ek ki nazar bachakar dusre se koi sazishi sambandh paida kar lene ki khwahish ho
phir mala ne mauqa pate hi mujhe alag le jakar Dantna Dapatna shuru kar diya tha—main puchhti hoon ki ye tum kis awaragard ko pakaDkar sath le aaye ho? zarur koi tumhara purana dost hoga? hai n? itte baras shadi ko ho chale lekin tum abhi tak waise ke waise hi rahe mere bachche use dekhkar kya kahenge? paDosi kya sochenge? ab kuch bologe bhee?
main hairan tha ki kya bolun! mala ke samne main bolta kam hoon, ziyada samay tolne mein hi beet jata hai aur uska mijaz aur bigaD jata hai waise uska ghussa baja tha uska ghussa hamesha baja hota hai hamari kamyab shadi ki buniyad bhi isi par qayam hai—uski har baat hamesha sahi hoti hai aur main apni har ghalati ko chupchap aur fauran qabu kar leta hoon upar se wo kuch bhi kyon na kahe, use meri farmabardari par pura bharosa hai beech beech mein mahz mujhe khush kar dene ke khayal se wo is qim ki shikayaten zarur kar diya karti hai—tumhen na jane har mamuli se mamuli baat par mere khilaf Dat jane mein kya maza aata hai? manti hoon ki tum mujhse kahin ziyada samajhdar ho, lekin kabhi kabhi meri baat rakhne ke liye hi sahi waghaira waghaira
mujhe uske ye jhuthe ulahane bahut pasand hain, go main unse ziyada khush nahin ho pata phir bhi wo samajhti hai ki inse mera bhram bana rahta hai aur main janta hoon ki baghDor usi ke hath mein rahti hai aur ye theek hi hai
to mala dant piskar kah rahi thi—ab kuch bologe bhee? mere bachche park se lautkar is manhus adami ko baithak mein baitha dekhenge, to kya kahenge? un par kya asar hoga? uf, itna ganda adami! sara ghar mahak raha hai batao na, main apne bachchon se kya kahungi?
ab zahir hai ki mala ko kuch bhi nahin bata sakta tha so main sar jhukaye khaDa raha aur wo munh uthaye bahut der tak barasti rahi
waise yahan ye saf kar doon ki we bachche mala apne sath nahin lai thi we mere bhi utne hi hain jitne ki uske, lekin aise mauqon par wo hamesha mere bachche kahkar mujhse unhen yoon alag kar liya karti hai, jaise koi kichaD se lal nikal raha ho kabhi kabhi mujhe is baat par bahut dukh bhi hota hai, lekin phir thanDe dil se sochne par mahsus hota hai ki sharirik sachai kuch bhi ho, ruhani taur par hamare sabhi bachche mala ke hi hain unke rang Dhang mein mera hissa bahut kam hai aur ye theek hi hai, kyonki agar we mujh par jate to unhen bhi meri tarah sidha hone mein na jane kitni der lag jati main khush hoon ki unka qanuni aur shayad jismani bap hoon, unke liye paise kamata hoon, aur dil o jaan se unki man ki sewa mein din raat juta rahta hoon
khair! kuch der yoon hi sir nicha kiye khaDe rahne ke baad akhir mainne nihayat ajizana awaz mein kahna shuru kiya tha—are bhai, main to us kambakht ko theek tarah se pahchanta bhi nahin, usse dosti ka to sawal hi paida nahin hota ab agar raste mein koi adami mil jaye to
na jane mere fiqre ka ant kyonkar hota shayad hota bhi ki nahin, lekin mala ne beech mein hi panw patakkar kah diya—jhuth, sarasar jhooth!
ye kahkar wo andar chali gai aur main kuch der tak aur wahin sir nicha kiye khaDa rahne ke baad wapas us kamre mein laut aaya, jahan baitha wo biDi pi raha tha aur muskra raha tha, jaise sab janta ho ki main kis marhale se guzarkar aa raha hoon
***
ab hua darasal ye tha ki us sham mala se, kuch door akela ghoom aane ki ijazat mangakar main yoon hi—bina matlab ghar se bahar nikal gaya tha amtaur par wo aisi ijazaten asani se nahin deti aur na hi main mangne ki himmat kar pata hoon bina matlab ghumna use bahut bura lagta hai kahin bhi jana ho, kisi se bhi milna ho, kuch bhi karna ya na karna ho, matlab ka saf aur sahi faisla wo pahle se hi kar leti hai theek hi karti hai main uski samajhdari ki dad deta hoon waise ghar se door akela main kisi matlab se bhi nahin aa pata mala ki sohbat ki kuch aisi aadat si paD gai hai, ki uske baghair sab suna suna sa lagta hai jab wo sath rahti hai to kisi qim ka koi ul jalul wichar man mein uth hi nahin pata, har cheez thos aur ba matlab dikhai deti hai andar ki haalat aisi rahti hai, jaise mala ke hathon sajaya hua koi kamra ho, jismen har cheez qarine se paDi ho, be qayadgi ki koi gunjaish na ho aur jab wo sath nahin hoti, to wahi hota hai jo us sham hua, ya phir usi qim ka koi aur hadasa, kyonki usse pahle waisi baat kabhi nahin hui thi
to us sham na jane kis dhun mein main bahut door nikal gaya tha amtaur par ghar se door hone par bhi main ghar hi ke bare mein sochta rahta hun—isliye nahin ki ghar mein kisi qim ki koi pareshani hai gaDi na sirf chal rahi hai, balki khoob chal rahi hai baghDor jab mala jaisi aurat ke hath ho, to chalegi nahin to aur karegi bhi kya? nahin, ghar mein koi pareshani nahin—achchhi tankhwah, achchhi biwi, achchhe bachche, achchhe ba rasukh dost, unki biwiyan bhi khoob hatti katti aur achchhi, achchha sarkari makan, achchha khushnuma lawn, pas paDos bhi achchha, mahngai ke bawjud donon waqt achchha khana, achchha bistar aur achchhi bistari zindagi main puchhta hoon, is sabke alawa aur chahiye bhi kya ek achchhe insan ko? phir bhi akela hone par gharelu mamlon ko bar bar ulat palatkar dekhne se waisa hi itminan milta hai, jaisa kisi bhi sehatmand adami ko bar bar aine mein apni surat dekhkar milta hoga mera matlab hai ki waqt achchhi tarah se kat jata hai, ub nahin hoti ye bhi mala ke hi suprabhaw ka phal hai, nahin to ek zamana tha ki main hardam ub ka shikar raha karta tha
ho sakta hai ki us sham dimagh kuch der ke liye usi guzre hue zamane ki or bhatak gaya ho kuch bhi ho, main ghar se bahut door nikal gaya tha aur phir achanak wo mere samne aa khaDa hua tha
mahsus hua tha jaise mujhe akela dekhkar ghat mein baithe hue kisi khatarnak ajnabi ne hi rasta rok lena chaha ho main thithakkar ruk gaya tha uski suti hui ankhon se phisalkar meri nigah uski muskrahat par ja tiki thi, jahan ab mujhe uske sath bitaye hue us sare gard alud zamane ki ek timtimati hui si jhalak dikhai de rahi thi mahsus ho raha tha ki barson tak ruposh rahne ke baad phir mujhe pakaDkar kisi ke samne pesh kar diya gaya ho mera sir is peshi ke khayal se dabkar jhuk gaya tha
kuch, ya shayad kitni hi der hum saDak ke us nange aur awara andhere mein ek dusre ke ru ba ru khaDe rahe the agar koi tisra us samay dekh raha hota, to shayad samajhta ki hum kisi lash ke sirhane khaDe koi pararthna kar rahe hain, ya ek dusre par jhapat paDne se pahle kisi mantr ka jap
waise ye sach hai ki use pahchante hi mainne mala ko yaad karna shuru kar diya tha, ki har sankat mein main hamesha usi ka nam leta hoon sath hi yahan se dum dabakar bhag uthne ki khwahish bhi man mein uthti rahi thi ek uDti hui si tamanna ye bhi hui thi ki wapas ghar lautne ke bajay chupchap us kambakht ke sath ho loon, jahan wo le jana chahe chala jaun aur mala ko khabar tak na ho is wichar par tab bhi main bahut chaunka tha aur abhi tak hairan hoon, kyonki akhir usi se pichha chhuDane ke liye hi to mainne mala ki god mein panah li thi agar aaj se kuch baras pahle mainne uske khilaf baghawat na ki hoti to lekin us bhagne ko baghawat ka nam dekar main apne aapko dhokha de raha hoon, mainne socha tha aur mera munh sharm ke mare jal utha tha
us haramzade ne zarur meri sari pareshani ko bhanp liya hoga usse meri koi kamzori chhipi nahin aur usse bhagkar mala ki god mein panah lene ki ek baDi wajah yahi thi uski hansi mujhe sukhe patton ki haibatnak khaDkhaDahat sunai de rahi thi aur us khaDkhaDahat mein uske saye mein guzare hue zamane ki beshumar baten aapas mein takra rahi theen baDi hi mushkil se ankh uthakar uski or dekha tha uska hath meri taraf baDha hua tha main bidakkar do qadam pichhe hat gaya tha aur uski hansi aur unchi ho gai thi kase hue danton se mainne uski ankhon ka samna kiya tha apna hath uske khuradre hath mein dete hue aur uski sanson ki badbudar hararat apne chehre par jhelte hue mainne mahsus kiya tha jaise itni muddat azad rah lene ke baad phir apne aapko uske hawale kar diya ho ajib baat hai, is ehsas se jitni taklif mujhe honi chahiye thi, utni hui nahin thi shayad har bhagoDa mujrim dil se yahi chahta hai ki use koi pakaD le
ghar pahunchne tak koi baat nahin hui thi apni apni khamoshi mein lipte hue hum dhime dhime chal rahe the, jaise kandhon par koi lash uthaye hue hon
so, jab mala ki Dant Dapat sun lene ke baad, munh banaye, main wapas baithak mein lauta, to wo badazat maze mein baitha biDi pi raha tha ek kshan ke liye bhram hua, jaise wo kamra usi ka ho phir kuch sanbhalakar, usse nazar milaye baghair, mainne kamre ki sari khiDkiyan khol deen, pankhe ko aur tez kar diya, ek jhunjhlai hui thokar se uske juton ko sofe ke niche dhakel diya, radio chalana hi chahta tha ki uski phati hui hansi sunai di aur main bebas ho usse door hatkar chupchap baith gaya
ji mein aaya ki hath bandhakar uske samne khaDa ho jaun, sari haqiqat sunakar kah dun—dekho dost, ab mere haal par rahm karo aur mala ke aane se pahle chupchap yahan se chale jao, warna natija bura hoga
lekin mainne kuch kaha nahin kaha bhi hota to siway ek aur zahrili hansi ke usne meri appeal ka koi jawab na diya hota wo bahut zalim hai, har baat ki tah tak pahunchne ka kayal, aur bhawukta se use sakht nafar hai
use kamre ka jayza lete dekh mainne dabi nigah se uski or dekhana shuru kar diya tangen samete wo sofe par baitha hua ek janwar sa dikhai diya uski haalat bahut khasta dikhai di, lekin uski shakl ab bhi mujhse kuch kuch milti thi is wichar se mujhe koft bhi hui aur ek ajib qim ki khushi bhi mahsus hui ek zamana tha jab wahi ekmatr mera adarsh hua karta tha, jab hum donon ghanton ek sath ghuma karte the, jab hamne bar bar kai naukariyon se ek sath istife diye the, kuch ek se ek sath nikale bhi gaye the, jab hum apne aapko un tamam logon se behtar aur uncha samajhte the jo piti pitai lakiron par chalte hue apni sari zindagi ek badnuma aur rawayti gharaunde ki tamir mein barbad kar dete hain, jinke dimagh hamesha us gharaunde ki chaharadiwari mein qaid rahte hai, jinke dil sirf apne bachchon ki kilkariyon par hi jhumte hain, jinki bewaquf biwiyan din raat unhen tigni ka nach nachati hain, aur jinhen apni safed poshi ke alawa aur kisi baat ka koi gham nahin hota kuch der main us zamane ki yaad mein Duba raha mahsus hua, jaise wo phir usi duniya se ek paigham laya ho, phir mujhe unhin romani wiranon mein bhatka dene ki koshish karna chahta ho, jinse bhagkar mainne apne liye ek phulon ki sej sanwar li hai, jis par mala qarib har raat mujhse meri farmabardari ka sabut talab kiya karti hai, aur jahan main bahut sukhi hoon
wo muskra raha tha, jaise usne mere andar jhank liya ho use is tarah asani se apne upar qabiz hote dekh, mainne baat badalne ke liye kaha—kitne roz yahan thahroge?
uski hansi se ek bar phir hamare ghar ki saji sanwari fi dahal gai, aur mujhe khatra hua ki mala usi dam wahan pahunchakar uska munh noch legi lekin ye khatra is baat ka gawah hai ki itne barson ki dasta ke bawjud main abhi tak mala ko pahchan nahin paya thoDi hi der mein wo ek bahut khubsurat saDi pahne muskrati ithlati hui hamare samne aa khaDi hui hath joDkar baDe dilafare andaz mein namaskar karti hui boli, aap bahut thake hue dikhai dete hain, mainne garam pani rakhwa diya hai, aap wash kar len, to kuch pikar tazadam ho jayen khana to hum log der se hi khayenge
main bahut khush hua ab mamla mala ne apne hath mein le liya tha aur main yoon hi pareshan ho raha tha man hua ki uthkar mala ko choom loon, mainne kanakhiyon se us haramzade ki taraf dekha wo waqi sahma hua sa dikhai diya mainne socha, ab agar wo khu ba khu hi na bhag utha to main samjhunga ki mala ki sari samajh seekh aur rang roop bekar hai kitna lutf aaye agar wo kambakht bhi bhag khaDa hone ke bajay mala ke danw mein phans jaye aur phir main usse puchhun—ab bata, sale, ab baat samajh mein i? mainne ankhen bandkar leen aur use mala ke ird gird nachte hue, us par fida hote hue, uske sath lete hue dekha ek ajib rahat ka ehsas hua ankhen kholin to wo ghusalkhane mein ja chuka tha aur mala jhuki hui sofe ko theek kar rahi thi mainne uski ankhon mein ankhen Dalkar muskrane ki koshish ki, lekin phir uski tani hui surat se ghabrakar nazren jhuka leen zahir tha ki usne abhi mujhe maf nahin kiya tha
nahakar wo bahar nikla, to usne mere kapDe pahne hue the is beech mala ne biar nikal li thi aur uska gilas bharte hue poochh rahi thi—ap khane mein mirch kam lete hain ya ziyada? mainne bahut mushkil se hansi par qabu kiya—us sale ko to khana hi kab milta hota, main soch raha tha aur mala ki hoshiyari par khush ho raha tha
kuch der hum baithe pite rahe, mala usse ghul milkar baten karti rahi, usse chhote chhote sawal puchhti rahi—apko ye shahr kaisa laga? biar thanDi to hai n? aap apna saman kahan chhoD aye?—aur wo baghlen jhankta raha hamare bachchon ne aakar apne ankal ko greet kiya, bari bari uske ghutnon par baithkar apna nam waghaira bataya, ek do gane gaye aur phir good knight kahkar apne kamre mein chale gaye mala ki mithi baton se yoon lag raha tha jaise hamare apne hi halqe ka koi be takalluf dost kuch dinon ke liye hamare pas aa thahra ho, aur uski baDi si gaDi hamare darwaze ke samne khaDi ho
main bahut khush tha aur jab mala khana lagwane ke liye bahar gai, to us sham pahli bar mainne bedhaDak us kamine ki taraf dekha wo teen chaar gilas biar ke pi chuka tha aur uske chehre ki zardi kuch kam ho chuki thi lekin uski muskrahat mein mala ke bahar jate hi phir wahi zahr aur chailenj aa gaya tha aur mujhe mahsus hua jaise wo kah raha ho—biwi tumhari mujhe pasand hai, lekin bete! use khabardar kar do, main itna pilpila nahin jitna wo samajhti hai
ek kshan ke liye phir mera josh kuch Dhila paD gaya laga jaise baat itni asani se sulajhne wali nahin yaad aaya ki khubsurat aur shokh aurten us zamane mein bhi use bahut pasand theen, lekin unka jadu ziyada der tak nahin chalta tha phir bhi, mainne socha, baat ab mere hath se nikal gai hai aur siway intizar ke main aur kuch nahin kar sakta tha
khana us roz bahut umda bana tha aur khane ke baad mala khu use uske kamre tak chhoDne gai thi lekin us raat mere sath mala ne koi baat nahin ki mainne kai mazak kiye, kaha—nha dhokar wo kafi achchha lag raha tha, kyon? bahut chheD chhaD ki, kai koshishen keen ki sulahnama ho jaye, lekin usne mujhe apne pas phatakne nahin diya neend us raat mujhe nahin i, phir bhi andar se mujhe itminan tha ki kisi na kisi tarah mala dusre roz use bhaga sakne mein zarur kamyab ho jayegi
lekin mera andaja ghalat nikla mana ki mala bahut chalak hai, bahut samajhdar hai, bahut manmohini hai, lekin us haramzade ki Dhithai ka bhi koi muqabala nahin teen din tak mala uski khatir o tawazo karti rahi mere kapDon mein wo ab bilkul mujh jaisa ho gaya tha aur nazar yoon aata tha jaise mala ke do pati hon main to subah sabere gaDi lekar daftar ko nikal jata tha, pichhe un donon mein na jane kya baten hoti theen lekin jab kabhi use mauqa milta wo mujhe andar le jakar Dantane lagti—ab ye murdar yahan se niklega bhi ki nahin jab tak ye ghar mein hai, hum kisi ko na to bula sakte hain, na kisi ke yahan ja sakte hain mere bachche kahte hain ki ise baat karne tak ki tamiz nahin akhir ye chahta kya hai?
main use kya batata ki wo kya chahta hai? kabhi kahta—thoDa sabr aur karo ab jane ki soch raha hoga kabhi kahta—kya bataun, main to khu sharminda hoon kabhi kahta—tumne khu hi to sir par chaDha liya hai agar tumhara bartaw rukha hota to
mala ne apna bartaw to nahin badla, lekin chauthe roz apne bachchon sahit ghar chhoDkar apne bhai ke yahan chali gai mainne bahutera roka, lekin wo nahin mani us roz wo kambakht bahut hansa tha, zor zor se, bar bar
***
aj mala ko gaye panch roz ho gaye hain mainne daftar jana chhoD diya hai wo phir apne asli rang mein aa gaya hai mere kapDe utarkar usne phir apna wo maila sa kurta payajama pahan liya hai kahta kuch nahin, lekin main janta hoon ki kya chahta hai—wah mauqa phir hath nahin ayega! wo chali gai hai behtar yahi hai ki uske lautne se pahle tum bhi yahan se bhag chalo uski chinta mat karo, wo apna intizam khu kar legi
aur aaj akhir main use thoDi der ke liye behosh kar dene mein kamyab ho gaya hoon ab mere samne do raste hain ek ye ki hosh aane se pahle main use jaan se mar Dalun aur dusra ye ki apna zaruri saman bandhakar taiyar ho jaun aur jyoon hi use hosh aaye, hum donon phir usi raste par chal den, jisse bhagkar kuch baras pahle mainne mala ki god mein panah li thi agar mala is samay yahan hoti to koi tisra rasta bhi nikal leti lekin wo nahin hai, aur main nahin janta ki main kya karun?
wo is samay dusre kamre mein behosh paDa hai aaj mainne uski sharab mein koi cheez mila di thi ki khali sharab wo sharbat ki tarah gat gat pi jata hai aur us par koi khas asar nahin hota ankhon mein lal Dhore se jhulne lagte hain, mathe ki shiknen pasine mein bhigkar damak uthti hain, honthon ka zahr aur ujagar ho jata hai, aur bus—hosh o hawas badastur qayam rahte hain
hairan hoon ki ye tarkib mujhe pahle kabhi kyon nahin sujhi shayad sujhi bhi ho, aur mainne kuch sochkar ise daba diya ho main hamesha kuch na kuch sochkar kai baton ko daba jata hoon aaj bhi mujhe andesha to tha ki wo pahle hi ghoont mein zayqa pahchan kar meri chori pakaD lega lekin gilas khatm hote hote uski ankhen bujhne lagi theen aur mera hausla baDh gaya tha ji mein aaya tha ki usi kshan uski gardan maroD doon, lekin phir natijon ki kalpana se dil dahalkar rah gaya tha main samajhta hoon ki har buzad adami ki kalpana bahut tez hoti hai, hamesha use har khatre se bacha le jati hai phir bhi himmat bandhakar mainne ek bar sidhe uski or dekha zarur tha itna bhi kya kam hai ki sadharan halat mein meri nigahen sahmi hui si uske samne idhar udhar faDfaDati rahti hain sadharan halat mein meri sthiti uske samne bahut asadharan rahti hai
khair, ab uski ankhen band ho chuki theen aur sar jhool raha tha ek or luDhakkar gir jane se pahle uski banhen do ladi hui Dhili tahniyon ki sust si uthan ke sath meri or uth i theen use is tarah lachar dekhkar bhram hua tha ki wo dam toD raha hai
lekin main janta hoon ki wo muzi kisi bhi kshan uchhalkar khaDa ho sakta hai hosh sambhalne par wo kuch kahega nahin uski taqat uski khamoshi mein hai baten wo us zamane mein bhi bahut kam kiya karta tha, lekin ab to jaise bilkul gunga ho gaya ho
uski gungi awhelana ki kalpana matr se mujhe dahshat ho rahi hai kaha na, ki main ek buzad insan hoon
waise main na jane kaise samajh baitha tha ki itne arse ki alhadgi ke baad ab main uske atank se puri tarah azad ho chuka hoon isi khushafahmi mein shayad us roz use main apne sath le aaya tha shayad man mein kahin us par rob ganthane, use nicha dikhane ki durasha bhi rahi ho ho sakta hai ki mainne socha ho ki wo meri jiti jagti khubsurat biwi, chahakte matakte tandurust bachchon aur arasta pairasta alishan kothi ko dekhkar khu hi maidan chhoDkar bhag jayega aur hamesha ke liye mujhe usse nijat mil jayegi shayad main us par ye sabit kar dikhana chahta tha ki usse pichha chhuDa lene ke baad kis khushgawar had tak mainne apni zindagi ko sanbhal sanwar liya hai
lekin ye sab langDe bahane hain haqiqat shayad ye hai ki us roz main use apne sath nahin laya tha, balki wo khu hi mere sath chala aaya tha, jaise main use nahin balki wo mujhe nicha dikhana chahta ho zahir hai ki us samay ye barik baat meri samajh mein nahin i hogi mauqe par theek baat main kabhi nahin soch pata yahi to musibat hai waise musibaten aur bhi bahut hain, lekin un sabka zikr yahan bekar hoga
khair, mala ke samne us roz mainne isi qim ki koi langDi safai pesh karne ki koshish ki thi aur us par koi asar nahin hua tha wo use dekhte hi biphar uthi thi sabse pahle apni bewaqufi aur sari sthiti ka ehsas shayad mujhe usi kshan hua tha mujhe us kambakht se wahin ghar se door, us saDak ke kinare kisi na kisi tarah nipat lena chahiye tha agar apni us sahmi hui khamoshi ko toDkar mainne apni tamam majburiyan uske samne rakh di hotin, mala ka ek khaka sa kheench diya hota, saf saf usse kah diya hota—dekho guru, mujh par daya karo aur mera pichha chhoD do—to shayad wahin hum kisi samjhaute par pahunch jate aur nahin to wo mujhe kuch mohlat to de hi deta chhutte hi do morchon ko ek sath sambhalne ki diqqat to pesh na aati kuch bhi ho, mujhe use apne ghar nahin lana chahiye tha lekin ab ye sari samajhdari bekar thi mala aur wo ek dusre ko yoon ghoor rahe the jaise do purane aur jani dushman hon ek kshan ke liye main ye sochkar ashwast hua tha ki mala sari sthiti khu sanbhal legi aur phir dusre hi kshan main mala ki lanat malamat ki kalpana kar saham gaya tha baat ko mazak mein ghol dene ki koshish mein mainne ek khas gilagile lahze mein—jo mere pas aise nazuk mauqon ke liye surakshait rahta hai—kaha tha, darling, zara rasta to chhoDo, ki hum bahut lambi sair se laute hain, zara baith jayen to jo saza ji mein aaye, de dena
wo raste se to hat gai thi, lekin uske tanaw mein koi kami nahin hui thi, aur na hi usne mujhe baithne diya tha sath hi us murdar ne meri taraf yoon dekha tha jaise kah raha ho—to tum waqi is aurat ke ghulam bankar rah gaye ho aur khu main un donon ki taraf yoon dekh raha tha jaise ek ki nazar bachakar dusre se koi sazishi sambandh paida kar lene ki khwahish ho
phir mala ne mauqa pate hi mujhe alag le jakar Dantna Dapatna shuru kar diya tha—main puchhti hoon ki ye tum kis awaragard ko pakaDkar sath le aaye ho? zarur koi tumhara purana dost hoga? hai n? itte baras shadi ko ho chale lekin tum abhi tak waise ke waise hi rahe mere bachche use dekhkar kya kahenge? paDosi kya sochenge? ab kuch bologe bhee?
main hairan tha ki kya bolun! mala ke samne main bolta kam hoon, ziyada samay tolne mein hi beet jata hai aur uska mijaz aur bigaD jata hai waise uska ghussa baja tha uska ghussa hamesha baja hota hai hamari kamyab shadi ki buniyad bhi isi par qayam hai—uski har baat hamesha sahi hoti hai aur main apni har ghalati ko chupchap aur fauran qabu kar leta hoon upar se wo kuch bhi kyon na kahe, use meri farmabardari par pura bharosa hai beech beech mein mahz mujhe khush kar dene ke khayal se wo is qim ki shikayaten zarur kar diya karti hai—tumhen na jane har mamuli se mamuli baat par mere khilaf Dat jane mein kya maza aata hai? manti hoon ki tum mujhse kahin ziyada samajhdar ho, lekin kabhi kabhi meri baat rakhne ke liye hi sahi waghaira waghaira
mujhe uske ye jhuthe ulahane bahut pasand hain, go main unse ziyada khush nahin ho pata phir bhi wo samajhti hai ki inse mera bhram bana rahta hai aur main janta hoon ki baghDor usi ke hath mein rahti hai aur ye theek hi hai
to mala dant piskar kah rahi thi—ab kuch bologe bhee? mere bachche park se lautkar is manhus adami ko baithak mein baitha dekhenge, to kya kahenge? un par kya asar hoga? uf, itna ganda adami! sara ghar mahak raha hai batao na, main apne bachchon se kya kahungi?
ab zahir hai ki mala ko kuch bhi nahin bata sakta tha so main sar jhukaye khaDa raha aur wo munh uthaye bahut der tak barasti rahi
waise yahan ye saf kar doon ki we bachche mala apne sath nahin lai thi we mere bhi utne hi hain jitne ki uske, lekin aise mauqon par wo hamesha mere bachche kahkar mujhse unhen yoon alag kar liya karti hai, jaise koi kichaD se lal nikal raha ho kabhi kabhi mujhe is baat par bahut dukh bhi hota hai, lekin phir thanDe dil se sochne par mahsus hota hai ki sharirik sachai kuch bhi ho, ruhani taur par hamare sabhi bachche mala ke hi hain unke rang Dhang mein mera hissa bahut kam hai aur ye theek hi hai, kyonki agar we mujh par jate to unhen bhi meri tarah sidha hone mein na jane kitni der lag jati main khush hoon ki unka qanuni aur shayad jismani bap hoon, unke liye paise kamata hoon, aur dil o jaan se unki man ki sewa mein din raat juta rahta hoon
khair! kuch der yoon hi sir nicha kiye khaDe rahne ke baad akhir mainne nihayat ajizana awaz mein kahna shuru kiya tha—are bhai, main to us kambakht ko theek tarah se pahchanta bhi nahin, usse dosti ka to sawal hi paida nahin hota ab agar raste mein koi adami mil jaye to
na jane mere fiqre ka ant kyonkar hota shayad hota bhi ki nahin, lekin mala ne beech mein hi panw patakkar kah diya—jhuth, sarasar jhooth!
ye kahkar wo andar chali gai aur main kuch der tak aur wahin sir nicha kiye khaDa rahne ke baad wapas us kamre mein laut aaya, jahan baitha wo biDi pi raha tha aur muskra raha tha, jaise sab janta ho ki main kis marhale se guzarkar aa raha hoon
***
ab hua darasal ye tha ki us sham mala se, kuch door akela ghoom aane ki ijazat mangakar main yoon hi—bina matlab ghar se bahar nikal gaya tha amtaur par wo aisi ijazaten asani se nahin deti aur na hi main mangne ki himmat kar pata hoon bina matlab ghumna use bahut bura lagta hai kahin bhi jana ho, kisi se bhi milna ho, kuch bhi karna ya na karna ho, matlab ka saf aur sahi faisla wo pahle se hi kar leti hai theek hi karti hai main uski samajhdari ki dad deta hoon waise ghar se door akela main kisi matlab se bhi nahin aa pata mala ki sohbat ki kuch aisi aadat si paD gai hai, ki uske baghair sab suna suna sa lagta hai jab wo sath rahti hai to kisi qim ka koi ul jalul wichar man mein uth hi nahin pata, har cheez thos aur ba matlab dikhai deti hai andar ki haalat aisi rahti hai, jaise mala ke hathon sajaya hua koi kamra ho, jismen har cheez qarine se paDi ho, be qayadgi ki koi gunjaish na ho aur jab wo sath nahin hoti, to wahi hota hai jo us sham hua, ya phir usi qim ka koi aur hadasa, kyonki usse pahle waisi baat kabhi nahin hui thi
to us sham na jane kis dhun mein main bahut door nikal gaya tha amtaur par ghar se door hone par bhi main ghar hi ke bare mein sochta rahta hun—isliye nahin ki ghar mein kisi qim ki koi pareshani hai gaDi na sirf chal rahi hai, balki khoob chal rahi hai baghDor jab mala jaisi aurat ke hath ho, to chalegi nahin to aur karegi bhi kya? nahin, ghar mein koi pareshani nahin—achchhi tankhwah, achchhi biwi, achchhe bachche, achchhe ba rasukh dost, unki biwiyan bhi khoob hatti katti aur achchhi, achchha sarkari makan, achchha khushnuma lawn, pas paDos bhi achchha, mahngai ke bawjud donon waqt achchha khana, achchha bistar aur achchhi bistari zindagi main puchhta hoon, is sabke alawa aur chahiye bhi kya ek achchhe insan ko? phir bhi akela hone par gharelu mamlon ko bar bar ulat palatkar dekhne se waisa hi itminan milta hai, jaisa kisi bhi sehatmand adami ko bar bar aine mein apni surat dekhkar milta hoga mera matlab hai ki waqt achchhi tarah se kat jata hai, ub nahin hoti ye bhi mala ke hi suprabhaw ka phal hai, nahin to ek zamana tha ki main hardam ub ka shikar raha karta tha
ho sakta hai ki us sham dimagh kuch der ke liye usi guzre hue zamane ki or bhatak gaya ho kuch bhi ho, main ghar se bahut door nikal gaya tha aur phir achanak wo mere samne aa khaDa hua tha
mahsus hua tha jaise mujhe akela dekhkar ghat mein baithe hue kisi khatarnak ajnabi ne hi rasta rok lena chaha ho main thithakkar ruk gaya tha uski suti hui ankhon se phisalkar meri nigah uski muskrahat par ja tiki thi, jahan ab mujhe uske sath bitaye hue us sare gard alud zamane ki ek timtimati hui si jhalak dikhai de rahi thi mahsus ho raha tha ki barson tak ruposh rahne ke baad phir mujhe pakaDkar kisi ke samne pesh kar diya gaya ho mera sir is peshi ke khayal se dabkar jhuk gaya tha
kuch, ya shayad kitni hi der hum saDak ke us nange aur awara andhere mein ek dusre ke ru ba ru khaDe rahe the agar koi tisra us samay dekh raha hota, to shayad samajhta ki hum kisi lash ke sirhane khaDe koi pararthna kar rahe hain, ya ek dusre par jhapat paDne se pahle kisi mantr ka jap
waise ye sach hai ki use pahchante hi mainne mala ko yaad karna shuru kar diya tha, ki har sankat mein main hamesha usi ka nam leta hoon sath hi yahan se dum dabakar bhag uthne ki khwahish bhi man mein uthti rahi thi ek uDti hui si tamanna ye bhi hui thi ki wapas ghar lautne ke bajay chupchap us kambakht ke sath ho loon, jahan wo le jana chahe chala jaun aur mala ko khabar tak na ho is wichar par tab bhi main bahut chaunka tha aur abhi tak hairan hoon, kyonki akhir usi se pichha chhuDane ke liye hi to mainne mala ki god mein panah li thi agar aaj se kuch baras pahle mainne uske khilaf baghawat na ki hoti to lekin us bhagne ko baghawat ka nam dekar main apne aapko dhokha de raha hoon, mainne socha tha aur mera munh sharm ke mare jal utha tha
us haramzade ne zarur meri sari pareshani ko bhanp liya hoga usse meri koi kamzori chhipi nahin aur usse bhagkar mala ki god mein panah lene ki ek baDi wajah yahi thi uski hansi mujhe sukhe patton ki haibatnak khaDkhaDahat sunai de rahi thi aur us khaDkhaDahat mein uske saye mein guzare hue zamane ki beshumar baten aapas mein takra rahi theen baDi hi mushkil se ankh uthakar uski or dekha tha uska hath meri taraf baDha hua tha main bidakkar do qadam pichhe hat gaya tha aur uski hansi aur unchi ho gai thi kase hue danton se mainne uski ankhon ka samna kiya tha apna hath uske khuradre hath mein dete hue aur uski sanson ki badbudar hararat apne chehre par jhelte hue mainne mahsus kiya tha jaise itni muddat azad rah lene ke baad phir apne aapko uske hawale kar diya ho ajib baat hai, is ehsas se jitni taklif mujhe honi chahiye thi, utni hui nahin thi shayad har bhagoDa mujrim dil se yahi chahta hai ki use koi pakaD le
ghar pahunchne tak koi baat nahin hui thi apni apni khamoshi mein lipte hue hum dhime dhime chal rahe the, jaise kandhon par koi lash uthaye hue hon
so, jab mala ki Dant Dapat sun lene ke baad, munh banaye, main wapas baithak mein lauta, to wo badazat maze mein baitha biDi pi raha tha ek kshan ke liye bhram hua, jaise wo kamra usi ka ho phir kuch sanbhalakar, usse nazar milaye baghair, mainne kamre ki sari khiDkiyan khol deen, pankhe ko aur tez kar diya, ek jhunjhlai hui thokar se uske juton ko sofe ke niche dhakel diya, radio chalana hi chahta tha ki uski phati hui hansi sunai di aur main bebas ho usse door hatkar chupchap baith gaya
ji mein aaya ki hath bandhakar uske samne khaDa ho jaun, sari haqiqat sunakar kah dun—dekho dost, ab mere haal par rahm karo aur mala ke aane se pahle chupchap yahan se chale jao, warna natija bura hoga
lekin mainne kuch kaha nahin kaha bhi hota to siway ek aur zahrili hansi ke usne meri appeal ka koi jawab na diya hota wo bahut zalim hai, har baat ki tah tak pahunchne ka kayal, aur bhawukta se use sakht nafar hai
use kamre ka jayza lete dekh mainne dabi nigah se uski or dekhana shuru kar diya tangen samete wo sofe par baitha hua ek janwar sa dikhai diya uski haalat bahut khasta dikhai di, lekin uski shakl ab bhi mujhse kuch kuch milti thi is wichar se mujhe koft bhi hui aur ek ajib qim ki khushi bhi mahsus hui ek zamana tha jab wahi ekmatr mera adarsh hua karta tha, jab hum donon ghanton ek sath ghuma karte the, jab hamne bar bar kai naukariyon se ek sath istife diye the, kuch ek se ek sath nikale bhi gaye the, jab hum apne aapko un tamam logon se behtar aur uncha samajhte the jo piti pitai lakiron par chalte hue apni sari zindagi ek badnuma aur rawayti gharaunde ki tamir mein barbad kar dete hain, jinke dimagh hamesha us gharaunde ki chaharadiwari mein qaid rahte hai, jinke dil sirf apne bachchon ki kilkariyon par hi jhumte hain, jinki bewaquf biwiyan din raat unhen tigni ka nach nachati hain, aur jinhen apni safed poshi ke alawa aur kisi baat ka koi gham nahin hota kuch der main us zamane ki yaad mein Duba raha mahsus hua, jaise wo phir usi duniya se ek paigham laya ho, phir mujhe unhin romani wiranon mein bhatka dene ki koshish karna chahta ho, jinse bhagkar mainne apne liye ek phulon ki sej sanwar li hai, jis par mala qarib har raat mujhse meri farmabardari ka sabut talab kiya karti hai, aur jahan main bahut sukhi hoon
wo muskra raha tha, jaise usne mere andar jhank liya ho use is tarah asani se apne upar qabiz hote dekh, mainne baat badalne ke liye kaha—kitne roz yahan thahroge?
uski hansi se ek bar phir hamare ghar ki saji sanwari fi dahal gai, aur mujhe khatra hua ki mala usi dam wahan pahunchakar uska munh noch legi lekin ye khatra is baat ka gawah hai ki itne barson ki dasta ke bawjud main abhi tak mala ko pahchan nahin paya thoDi hi der mein wo ek bahut khubsurat saDi pahne muskrati ithlati hui hamare samne aa khaDi hui hath joDkar baDe dilafare andaz mein namaskar karti hui boli, aap bahut thake hue dikhai dete hain, mainne garam pani rakhwa diya hai, aap wash kar len, to kuch pikar tazadam ho jayen khana to hum log der se hi khayenge
main bahut khush hua ab mamla mala ne apne hath mein le liya tha aur main yoon hi pareshan ho raha tha man hua ki uthkar mala ko choom loon, mainne kanakhiyon se us haramzade ki taraf dekha wo waqi sahma hua sa dikhai diya mainne socha, ab agar wo khu ba khu hi na bhag utha to main samjhunga ki mala ki sari samajh seekh aur rang roop bekar hai kitna lutf aaye agar wo kambakht bhi bhag khaDa hone ke bajay mala ke danw mein phans jaye aur phir main usse puchhun—ab bata, sale, ab baat samajh mein i? mainne ankhen bandkar leen aur use mala ke ird gird nachte hue, us par fida hote hue, uske sath lete hue dekha ek ajib rahat ka ehsas hua ankhen kholin to wo ghusalkhane mein ja chuka tha aur mala jhuki hui sofe ko theek kar rahi thi mainne uski ankhon mein ankhen Dalkar muskrane ki koshish ki, lekin phir uski tani hui surat se ghabrakar nazren jhuka leen zahir tha ki usne abhi mujhe maf nahin kiya tha
nahakar wo bahar nikla, to usne mere kapDe pahne hue the is beech mala ne biar nikal li thi aur uska gilas bharte hue poochh rahi thi—ap khane mein mirch kam lete hain ya ziyada? mainne bahut mushkil se hansi par qabu kiya—us sale ko to khana hi kab milta hota, main soch raha tha aur mala ki hoshiyari par khush ho raha tha
kuch der hum baithe pite rahe, mala usse ghul milkar baten karti rahi, usse chhote chhote sawal puchhti rahi—apko ye shahr kaisa laga? biar thanDi to hai n? aap apna saman kahan chhoD aye?—aur wo baghlen jhankta raha hamare bachchon ne aakar apne ankal ko greet kiya, bari bari uske ghutnon par baithkar apna nam waghaira bataya, ek do gane gaye aur phir good knight kahkar apne kamre mein chale gaye mala ki mithi baton se yoon lag raha tha jaise hamare apne hi halqe ka koi be takalluf dost kuch dinon ke liye hamare pas aa thahra ho, aur uski baDi si gaDi hamare darwaze ke samne khaDi ho
main bahut khush tha aur jab mala khana lagwane ke liye bahar gai, to us sham pahli bar mainne bedhaDak us kamine ki taraf dekha wo teen chaar gilas biar ke pi chuka tha aur uske chehre ki zardi kuch kam ho chuki thi lekin uski muskrahat mein mala ke bahar jate hi phir wahi zahr aur chailenj aa gaya tha aur mujhe mahsus hua jaise wo kah raha ho—biwi tumhari mujhe pasand hai, lekin bete! use khabardar kar do, main itna pilpila nahin jitna wo samajhti hai
ek kshan ke liye phir mera josh kuch Dhila paD gaya laga jaise baat itni asani se sulajhne wali nahin yaad aaya ki khubsurat aur shokh aurten us zamane mein bhi use bahut pasand theen, lekin unka jadu ziyada der tak nahin chalta tha phir bhi, mainne socha, baat ab mere hath se nikal gai hai aur siway intizar ke main aur kuch nahin kar sakta tha
khana us roz bahut umda bana tha aur khane ke baad mala khu use uske kamre tak chhoDne gai thi lekin us raat mere sath mala ne koi baat nahin ki mainne kai mazak kiye, kaha—nha dhokar wo kafi achchha lag raha tha, kyon? bahut chheD chhaD ki, kai koshishen keen ki sulahnama ho jaye, lekin usne mujhe apne pas phatakne nahin diya neend us raat mujhe nahin i, phir bhi andar se mujhe itminan tha ki kisi na kisi tarah mala dusre roz use bhaga sakne mein zarur kamyab ho jayegi
lekin mera andaja ghalat nikla mana ki mala bahut chalak hai, bahut samajhdar hai, bahut manmohini hai, lekin us haramzade ki Dhithai ka bhi koi muqabala nahin teen din tak mala uski khatir o tawazo karti rahi mere kapDon mein wo ab bilkul mujh jaisa ho gaya tha aur nazar yoon aata tha jaise mala ke do pati hon main to subah sabere gaDi lekar daftar ko nikal jata tha, pichhe un donon mein na jane kya baten hoti theen lekin jab kabhi use mauqa milta wo mujhe andar le jakar Dantane lagti—ab ye murdar yahan se niklega bhi ki nahin jab tak ye ghar mein hai, hum kisi ko na to bula sakte hain, na kisi ke yahan ja sakte hain mere bachche kahte hain ki ise baat karne tak ki tamiz nahin akhir ye chahta kya hai?
main use kya batata ki wo kya chahta hai? kabhi kahta—thoDa sabr aur karo ab jane ki soch raha hoga kabhi kahta—kya bataun, main to khu sharminda hoon kabhi kahta—tumne khu hi to sir par chaDha liya hai agar tumhara bartaw rukha hota to
mala ne apna bartaw to nahin badla, lekin chauthe roz apne bachchon sahit ghar chhoDkar apne bhai ke yahan chali gai mainne bahutera roka, lekin wo nahin mani us roz wo kambakht bahut hansa tha, zor zor se, bar bar
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aj mala ko gaye panch roz ho gaye hain mainne daftar jana chhoD diya hai wo phir apne asli rang mein aa gaya hai mere kapDe utarkar usne phir apna wo maila sa kurta payajama pahan liya hai kahta kuch nahin, lekin main janta hoon ki kya chahta hai—wah mauqa phir hath nahin ayega! wo chali gai hai behtar yahi hai ki uske lautne se pahle tum bhi yahan se bhag chalo uski chinta mat karo, wo apna intizam khu kar legi
aur aaj akhir main use thoDi der ke liye behosh kar dene mein kamyab ho gaya hoon ab mere samne do raste hain ek ye ki hosh aane se pahle main use jaan se mar Dalun aur dusra ye ki apna zaruri saman bandhakar taiyar ho jaun aur jyoon hi use hosh aaye, hum donon phir usi raste par chal den, jisse bhagkar kuch baras pahle mainne mala ki god mein panah li thi agar mala is samay yahan hoti to koi tisra rasta bhi nikal leti lekin wo nahin hai, aur main nahin janta ki main kya karun?
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।