हमारे गाँव में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। साबुन का नाम हमने और दूसरे लोगों ने सुना ज़रूर था, लेकिन दो-चार ही लोग ऐसे मिलेंगे जिन्होंने उसे सचमुच देखा हो। 'साबण' का नाम भी लोगों को मालूम था तो सिर्फ़ फ़ौजियों की बदौलत और थोड़ा इसलिए भी कि जब एक बार डिप्टी साहब की बिटिया पिंटी गाँव आई थी तो उसके पास कुछ औरतों ने यह चीज़ देखी थी। कहते हैं, पिंटी जहाँ खड़ी हो उससे एक कोस दूर तक फूलों की-सी बास महकती थी। दस-पंद्रह साल बाद भी लोगों को वह पिंटी याद रही तो इसी वजह से। लोग साबुन का ज़िक्र इत्र और फुलेल के बाद करते थे।
पिंटी तो ख़ैर जैसे दूसरी दुनिया से आई जीव थी। गाँव के किसी आदमी के पास कभी साबुन नहीं देखा गया। सच्चे अर्थों में गाँव में पहले साबुन आया मेरे पास और वह भी अचानक, अप्रत्याशित रूप से।
उस दिन पंद्रह अगस्त या ऐसा ही कुछ ख़ास दिन रहा होगा, क्योंकि स्कूल बंद था। मैं और काका आलू बेचने के लिए कई कोस चलकर क़स्बे में आए थे। काका मुझसे पाँच-सात साल ही बड़ा होगा। हम दोनों लगभग दोस्त जैसे ही थे। हालाँकि कभी-कभी वह बड़प्पन जताने को उत्सुक हो जाता था, लेकिन उसका कोई दबादबा मुझ पर नहीं बन पाया।
तो, क़स्बे की रौनक़ से हम लोग लेमनचूस चाटते भटक रहे थे कि एक भीड़ भरे मैदान में जा पहुँचे, जहाँ बिलकुल मेला-सा लगा था। ख़ूब शोर हो रहा था। सीटियाँ बज रही थीं। एक भोंपे से किसी आदमी की ज़ोरदार आवाज़ आ रही थी, जैसे डाँट रहा हो।
हम अचकचाए-से और बिलकुल बेध्यानी में उस भीड़ में घुसे जा रहे थे कि अचानक मैंने पाया, मैं अपने जैसे लड़कों की एक क़तार में खड़ा हूँ। किसी ने बाँह पकड़कर जल्दी से मुझे वहाँ खड़ा कर दिया था। एक आदमी सबको सफ़ेद लाइन पर खड़ा कर रहा था। मेरे दोनों ओर लड़के चिल्ला रहे थे, झपटने की मुद्रा में बार-बार एक टाँग पर झुके जा रहे थे। लगा, जैसे कोई दौड़ होने जा रही हो।
पहले तो मैं घबरा गया। इधर-उधर देखा तो काका का कहीं पता ही नहीं। लाठी वालों ने बाक़ी भीड़ के साथ उसे भी धकिया दिया होगा। अब भोंपू पर गिनती गिनी जा रही थी, एक...दो...
और तीन! भूखे जानवरों की तरह सब भागे। साथ में मैं भी। पहले तो सूझा ही नहीं, पर जब देखा कि बग़ल वाला छोकरा अपनी सीकियाँ टाँगें पटकता आगे निकला जा रहा है तो मैं भी भाग लिया दम तोड़कर। ऐसा कि मैदान के दूसरे छोर पर बँधी रस्सी में उलझकर गिर पड़ा। घुटने में लगी सो अलग। झाड़कर खड़ा हुआ तो तालियाँ। चमचमाती डिबिया थमा दी।
भीड़ में जाने कहाँ से काका हँसता हुआ प्रकट हो गया। अब हम दोनों साथ-साथ हँसे जा रहे थे। मेरा मन हो रहा था कि अभी ख़ूब दौडूँ, दौड़ता ही जाऊँ, आगे-आगे कुलाँचें भरता मैं भागा तो काका भी हाँफता हुआ आया पीछे-पीछे। क़स्बा पीछे छूट गया। मैं गाँव की ओर सरपट भागा जा रहा था। काका आवाज़ देने लगा। आख़िर में नदी के पास मैं रुका तो उसने मुझे पकड़ लिया।
काका ने कहा, “क्या है रे?
तब जाकर मुझे ख़याल आया कि वह लाल चमकती डिबिया मेरे हाथ में है। काका ने झट से उसे छीन लिया और उलट-पलटकर देखने लगा। उसी को सबसे पहले सूझा कि ये तो साबण है। उसका चेहरा उत्तेजना से चमकने लगा। वह बार-बार उसे सूँघता। माँगने पर भी नहीं देता। चिढ़कर बोलता, “खा नहीं रहा हूँ।” उसकी नीयत में खोट लगता था।
मैं भड़क गया, आख़िर वह मेरी चीज़ थी। मैंने काका से उसे छीनने की कोशिश की। उसे गिराने के लिए संघर्ष किया, लेकिन लंबे खडूस से जीतना मेरे लिए नामुम्किन ही था। अब तक उसने बाहर की चमकीली पन्नी भी खोल दी थी और अंदर की गुलाबी नाज़ुक टिकिया निकाल ली थी।
अंतिम हथियार के तौर पर मैं धप से नदी के पत्थरों पर गिर गया और धाड़ मारकर सचमुच रोने लगा, “मैं इजा से कह दूँगा, हाँ!
हमेशा की तरह इस बार भी मेरी चाल कामयाब हुई। काका कुछ देर मुझे लाल आँखों से घूरता रहा, फिर “जा मर” कहकर टिकिया फेक दी। मैंने उसे लपक लिया। “पन्नी भी दे।” काका ने पन्नी भी फेंक दी। मैंने नाज़ुक टिकिया को फिर पन्नी में जतन से लपेटा और उसे सूँघता, हँसता हुआ घर की ओर चला।
काका से पहली बार गहरी दुश्मनी की यह शुरूआत थी। उस वक़्त तो मैं साबुन की उस भीनी ख़ुश्बू में इतना मगन था कि काका की ओर ध्यान देने का वक़्त नहीं था मेरे पास, लेकिन आगे चलकर हम दोनों की दुश्मनी स्थायी बात हो गई।
बहरहाल, उस शाम काका पीछे-पीछे, पत्थरों को ठोकर मारता हुआ चला। घर पहुँचते ही मुँह टेढ़ा कर उसने ऐलानिया अंदाज़ में कहा, “गोपिए को एक साबण क्या मिल गया, नीचे ही नहीं देख रहा आज।”
इजा गोबर समेट रही थी, खड़ी होकर बोली, “साबण! कहाँ से लाया रे? कैसा है? दिखा तो।”
“मेरा है।” मैंने तुनककर कहा।
इजा हाथ ख़ूब साफ़ से धोकर आई। “दिखा तो, मैं भी देखू कैसा साबण है।”
मुझे अब तक किसी पर एतिबार नहीं रह गया था। बहुत नख़रे के साथ उँगलियाँ खोलीं। इजा ने बड़े शौक़ के साथ साबुन लिया। ढिबरी के पास जाकर ग़ौर से देखा। दो-तीन बार सूँघा, बोली, “मैं नहाऊँगी इससे।
मैं चील की तरह झपटा। साबुन झपटकर अंदर की जेब में ढूँसा। भागकर खड़ा हुआ बीस क़दम दूर। इजा देखती रह गई। “मर तू! आग लगे तेरे साबण को!” उसने चिचियाकर कहा और आँखें तरेरती हुई वहाँ से चली गई।
इस तरह माँ मेरी दूसरी दुश्मन बनी। असल में साबुन की इस महत्ता को मैं पहले समझ ही नहीं पाया। शायद समझने की उम्र थी भी नहीं, लेकिन जल्द ही मुझे लगने लगा मानो मैं चारों ओर से दुश्मनों से घिर गया हूँ। मुझे मालूम था, काका मेरी हर चीज़ को उलट-पलटकर देखता है घर में जितने भी कनस्तर-डिब्बे हैं, सबको उसने टटोला है, यहाँ तक कि गोशाला की घास-पुआल को भी वह छान आया है, लेकिन साबुन कहाँ है, यह मेरे अलावा कोई नहीं जान सका था।
हारकर काका ने मेरी चापलूसी करने की भी कोशिश की, लेकिन अब मैं उतना भोला नहीं रह गया था।
बापू को तो साबुन देखना नसीब ही नहीं हुआ। इजा और काका ने हर वक़्त साबुन का ज़िक्र करके उनको इतना उकसा दिया था कि वे मारपीट पर उतर आए। पर अब तक मैंने जान लिया था कि जो भी साबुन देख लेगा, उसकी नीयत में खोट आ जाएगी। सो मैं भी टस से मस नहीं हुआ। हारकर बापू ने यह कहते हुए कि बहुत इतर-फुलेल का शौक़ चढ़ा है, भेज दो साले को गाय चराने, मुझे कसकर दो लातें मारीं।
मैं रोया नहीं और इस अपमान को पी लिया। लेकिन इस घड़ी से मुझे संदेह होने लगा कि मैं उनका असली बेटा हूँ भी या नहीं।
कुंती को अलबत्ता एक दिन मेरी सख़्त पहरेदारी में साबुन को छू-सूँघकर देखने का मौक़ा मिला। कुंती तब से आँखें बड़ी-बड़ी किए पीछे-पीछे डोलती रहती है। उसे भगाने के लिए झापड़ों के अलावा कोई रास्ता नहीं होता।
इतने लोगों के बीच साबुन को बार-बार देख पाना मेरे लिए भी मुश्किल हो रहा था। मेरी बेचैनी लगातार बढ़ रही थी। हर दिन पहाड़-सा लगता। आख़िरकार इतवार को जी कड़ा कर मैंने साबुन निकाल ही लिया और गर्म पानी लेकर नहाने बैठा।
यह साबुन से मेरा पहला स्नान होने जा रहा था। मैंने बड़े प्यार से पन्नी अलग की। एहतियात से धूप में रखे साबुन को नरमी से दाएँ हाथ में पकड़ा और भीगे बालों को हौले-हौले छुआ।
गुलाबी टिकिया पर उभरे हुए अक्षर बने थे। मुझे अंग्रेज़ी पढ़नी नहीं आती थी, लेकिन यह जो कुछ भी लिखा था, इससे साबुन की ख़ूबसूरती बढ़ रही थी। वे मिटें नहीं, इसका ख़याल रखना था।
काका कहने को तो चाख में बैठा पढ़ाई कर रहा था, लेकिन बार-बार उसका सिर खिड़की से दिखाई दे जाता। फिर ज़ोर-ज़ोर से किताब पढ़ने की आवाज़ आती। इजा घास को जाती बीच आँगन में रुक गई। कुछ देर देखती रही। फिर मुँह बिचकाकर चली गई। कुंती दो क़दम दूर आकर खड़ी हो गई और मेरे बालों पर फिसलते साबुन को, उससे बनते सफ़ेद झाग को और धूप में चमकते कई रंगों के बुलबुलों को एकटक देखती रही। “भाग, भाग!” मैं चिल्लाया।
कुंती चिरौरी करने लगी, “दादा, मुझे भी दे दे थोड़ा-सा।”
कुंती को मैं अच्छी तरह जानता था। बिल्ली की तरह धूर्त। उसे भगाने में ही भलाई थी। पहले तो मैंने उस पर पानी फेंका। नहीं हटी तो भीगे हाथ से दिया एक झापड़। इधर चिल्लाती हुई कुंती भागी, उधर सीढ़ियों पर धड़धड़ाता हुआ आया काका। “उस पर हाथ चलाया तूने? आज तो तेरी ख़ैर नहीं!” पर मुँडेर से आगे नहीं बढ़ा। वहीं रुककर घूरने लगा। मैं बहुत दूर था। मज़े से हँसता झाग उठाता रहा। काका गालियाँ देता रहा, लेकिन वहाँ से हटा भी नहीं।
बड़ी देर लगाकर पानी डाला बदन पर। साबुन को सुखाया। नामालूम-सा घिसा था। पन्नी में सँभालकर रखा। इतराता हुआ काका के बग़ल से निकला। काका ने हवा को सूँघा।
कैसी तो ताज़गी आ गई थी बदन में! कैसे ख़ुश्बू! और बाल कैसे नर्म! ख़ुश्बू कहीं उड़ न जाए यह सोचकर फटाफट कपड़े पहने।
अपने आँगन की मुँडेर से मैं छलाँग लगाता और कई बार ऐसा होता कि मैं उड़ने लगता। ऊँचे और ऊँचे पहाड़ों के ऊपर मैं कबूतरों की तरह तैरता जाता। दूर-दूर तक जाने कितने देश, कितने गाँव एक साथ मेरे नीचे सरकते जाते। बदन में सनसनी सी होने लगती। नीचे देखता तो अपना घर छोटा-सा दिखाई देता—खिलौने जैसा। और इजा, बापू, काका, कुंती, सारे लोग कैसे दिखाई देते? जैसे चींटी जितने को गए हों। मैं सारी दुनिया के ऊपर तैरता। सब कुछ मेरे नीचे। कोई मुझ तक नहीं पहुँच सकता था।
यह सपनों की बात थी। कहते हैं कि बढ़वार के दिनों में बच्चों को उड़ने के सपने दिखाई देते हैं लेकिन, सपने सच नहीं होते, यह किसने कहा!
साबुन से नहाकर उस दिन मुझे लगा था, किसी भी क्षण मैं उड़ने लगूँगा।
स्कूल का दिन था। सुबह-सुबह ख़ूब झाग उठाकर ख़ुद को चमकाया। महकते बदन पर सबसे अच्छे कपड़े डाले। टेढ़ी करके माँग निकाली और रास्ते-भर कुहनी उठाकर सूँघता रहा कि कहीं ख़ुश्बू उड़ तो नहीं गई। नहीं, ख़ुश्बू उड़ती नहीं थी। घंटों बनी रहती। अगर धूप नहीं होती, पसीना नहीं होता, धूल नहीं उड़ती और हवा नहीं चलती तो शायद बदन हमेशा महकता रहता।
क्लास में तो सनसनी ही फैल गई। थोड़ी ही देर में सब लड़के नाक उठाए बौराए-से हवा को सूँघ रहे थे। मैं कुछ देर मंद-मंद मुस्कुराता इसका आनंद लेता रहा फिर पास वाले लड़के के मुँह पर अपनी बाँह अड़ा दी।
ओ बबा हो! क्या लगा के आया है?” लड़का तो उछल ही पड़ा। क्लास में ऐसी रेलपेल मची कि तौबा! लड़के एक-दूसरे को धकियाते लपके और जहाँ-तहाँ नाक गड़ाकर लगा सूँघने। जो सूँघ चुके थे वे आँखें कपाल पर चढ़ाकर कहने लगे, “बता तो, बता तो!
और जब मैंने मज़े ले-लेकर सारी कहानी सुनाई तो क्लास में शोर मच गया। सच? कैसा है? साथ में पन्नी भी है? एक दिन तो ख़त्म हो जाएगा, फिर? फिर क्या, और दौड़ेगा तो नया जीत लाएगा। एक साल तो चलेगा ही, दिखा यार, दिखा ना!
मास्साब आए तो हंगामा थमा, लेकिन किसी का ध्यान पढ़ाई की ओर नहीं था। सब कनखियों से मुझे देख रहे थे। मैं तो आकाश में ख़ूब ऊँचा उड़ रहा था। उस पल अगर मैं कह देता कि आज से मानीटर मैं हुआ तो वे सब कहते—हाँ, हुआ। उन्होंने अपने बाप-दादों से इतना कुछ सुना था पिंटी के बारे में, उसके साबुन के बारे में। आज वे सब सपने जैसी कथाएँ सच होती देख वे लगभग पागल-से हो उठे थे।
हाफ़ टाइम की घंटी बजी। हमेशा की तरह भाग पड़ने को लड़के उठे। अचानक सबके सब ठिठक गए। मैं वहीं बैठा जो था अपनी जगह। “चल रे, चला” आज सब मेरे क़रीब आना चाहते थे। वे भी जो मेरे दुश्मन थे और दुबले-पतलेपन की वजह से मुझे पीटा करते थे।
मैं उठा तो, लेकिन एक अनजानी झिझक ने मुझे घेर लिया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। पहले तो सबसे पहले भाग छूटने वालों में मैं अव्वल रहता था, लेकिन पहले कभी सारे लड़कों ने मुझे घेरकर ऐसे 'चल, चल' भी नहीं कहा था।
“तू हमारी तरफ़ हुआ।”—नहीं, हमारी तरफ़ कबड्डी में मैं किस टीम के साथ खेलूँ, इसे लेकर भारी झगड़ा चल पड़ा था।
मैं तो संकोच से मरा जा रहा था। कबड्डी में रगेदे जाने का, मिट्टी में लिपटने का डर मुझ पर हावी हो गया। “नहीं, मेरा मन नहीं है खेलने का।” मैंने कहा।
“क्यों? क्यों?” हर तरफ़ से पुकार मच गई। फिर अपने आप जैसे सब लड़के समझ गए। “अच्छा तू रेफरी हुआ। तू बैठकर देख।” वे एक-एक कर खिसकने लगे, खिसियाए हुए।
हर कोई साबुन देखने को बेकल था। सारे गाँव में जंगल की आग की तरह यह बात फैल गई थी। लोग मुझे रोक लेते, कोई बहाना खोजकर घर चले आते। वे चाहते कि मैं उनको साबुन दिखा दूँ। जब मैं इनकार कर देता तो वे नाराज़ हो जाते। डाँट-डपट करते। अलबत्ता वे मुझे सूँघ ज़रूर लेते। साबुन न दिखाने की मेरी इस ज़िद से घरवालों को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता होगा। बाद में मुझे वे अपनी गालियों का निशाना बनाते। काका जब भी सामने आता धमकी भरे इशारे करता। दो-एक बार तो उसके अकेले में मेरा गला भी दबाया। कुंती हमेशा मुँह फुलाए रहती। उससे मेरी झड़प हो जाए तो बापू मुझे अपने ढाई किलो के हाथ से झापड़ मारने में ज़रा देर नहीं करते। इजा मुझसे हमेशा चिड़चिड़ाते हुए बात करती।
सारी दुनिया गिद्धों की तरह मेरे उस छोटे-से सुख को नोचने के लिए बेताब थी। मैंने देखा कि पहले तो लोग मेरी इज़्ज़त करने लगते, लेकिन जब मैं उनको साबुन नहीं दिखाता तो वे फ़ौरन मेरे ख़िलाफ़ लामबंदी कर लेते। लगभग सभी मेरे दुश्मन हो चुके थे।
लोगों ने मेरा नाम ही पिंटी रख दिया था। यह सिर्फ़ मज़ाक़ नहीं था। इस तरह वे अपनी नफ़रत जता रहे होते। लड़के मुझे 'पिंटी-पिंटी' कहकर पुकारते। और हैरानी की बात तो यह कि इस बात से मुझे तकलीफ़ होने के बावजूद मैं अकसर उस पिंटी के बारे में सोचने लगा था। मैं सोचता कि वह कैसी और कहाँ होगी। मैंने मन में उसका एक ख़ाका भी खींच लिया था, जिस पर मैं अपनी ख़ाली वक़्त में रंग भरा करता था। मेरे ख़याल से वह हमारे कैलेंडर की लक्ष्मी जैसी थी। वह इतनी गोरी थी और उसके कपड़े इतने चमकीले थे कि रात में भी उसके आसपास उजाला रहता था। उस पर धूल का एक कण भी नहीं बैठ सकता था। वह इतनी हल्की थी मानो उसे सफ़ेद कोरे काग़ज़ से बनाया गया हो।
और खेलना तो मैंने छोड़ ही दिया था। कुछ लड़के मेरे क़रीब होना चाहते, लेकिन जल्दी ही धमाचौकड़ी का आकर्षण उनको खींच ले जाता। जब लड़के हुड़दंग मचा रहे होते, तब मैं दीवार पर बैठा टाँगे हिलाता रहता। वे कबड्डी में एक-दूसरे को रगेदते, गीले खेतों में घुसकर ककड़ियाँ खोजते, चोरी से नीबू तोड़ लाते, नदी में नंगे होकर नहाते, पिरूल में फिसलते। वे हमेशा की तरह चीख़ते-चिल्लाते, गुत्थमगुत्था होते, कपड़े फाड़ लेते या बदन छिला लेते। मैं बैठे-बैठे उनको देखता और उँगलियाँ चटख़ाता।
सच कहूँ तो कई बार मेरी इच्छा हुई कि मैं उनके बीच कूद पडू, जब भी ऐसा करने को हुआ, जाने किस बात ने मेरे शरीर को जड़ कर दिया। तब मैंने चाहा कि कोई लड़का मुझे जबरन घसीटकर कबड्डी के मैदान में धकेल दे, लेकिन शायद यह नहीं हो सकता था। वे तो अब मुझसे खेलने को कहते भी नहीं थे। उन्होंने मान लिया था कि पिंटी का काम बैठकर उनको देखते रहना है। वे मेरा अस्तित्व ही भूलने लगे थे।
अब फिर काका बाज़ार जा रहा था। सामान लाने के लिए थैले-झोले समेट रहा था। मुझसे रहा नहीं गया, कहा, “मैं भी चलूँगा।
काका एकदम भड़क गया, “तू नहीं जाएगा मेरे साथ।
मैं जाऊँगा।
“भाभी!” काका ने ऐलान किया, “इसी से मँगा ले अपना सामान, मैं नहीं जा रहा।”
इजा बाघिन की तरह झपटती आई। मेरा कान पकड़कर पटक दिया ज़मीन पर। “आज करती हूँ मैं इसका इलाज। ज्यों-ज्यों बढ़ रहा है, त्यों-त्यों सड़ रहा है।” मेरी पीठ पर दो लातें मारी और घसीटती हुई ले चली बाहर।
पीछे से काका उल्लास से चिल्लाया, “ज़रा अच्छी तरह से कर दो मरम्मत पिंटी की
इजा मुझे मरे चूहे की तरह घसीटती मुंडेर पर ले गई और धकेल दिया बिच्छू के झाड़ पर।
“ओऽइऽऽजाऽऽवेऽ!”
मोह का एक पतला सा धागा भर बचा था। टूट गया वह उस क्षण। हाफ़ टाइम में दीवार पर बैठे मेरी आँखें बार-बार भर आतीं। कूदते फाँदते लड़के नज़र में काँपने लगते। बिच्छू के काँटों से बदन अभी भी चिलचिला रहा था। कोहनियाँ छिली हुई। बालों में धूल। नहाया था उस सुबह भी, लेकिन बदन में कोई ख़ुश्बू बाक़ी नहीं।
मन खुलकर रो पड़ने को कर रहा था। जाऊँ, चला जाऊँ यहाँ से। हमेशा के लिए वहाँ, जहाँ पिंटी रहती है। वहाँ लोग ऐसे नहीं हैं। वहाँ नफ़रत नहीं है। बिना बात के ऐसा ज़ुल्म नहीं है।
और मैंने फ़ैसला किया कि एक दिन मौक़ा मिलते ही बाज़ार भाग जाऊँगा। कहते हैं, वहाँ से दूर-दूर को बसें जाती हैं। किसी में बैठ जाऊँगा, फिर कभी नहीं लौटूँगा यहाँ। कभी नहीं।
उस वक़्त से यह इरादा मेरे मन में हर पल पक्का होता गया। मैंने कपड़े चुन लिए जो साथ ले जाने थे। एक झोला भी उनके लिए छिपा लिया। कुछ अखरोट भी रख लिए और देख लिया कि रुपये कहाँ से निकाले जा सकते हैं। मुझे बस मौक़े का इंतिज़ार था।
और ऐसे में वह काँड हो गया।
मैं नहा रहा था। कैसी भी ठंड हो, मैं नहाए बिना नहीं रहता। मुझे मालूम नहीं था कि काका घात में हैं। मैंने साबुन अलग रखा कि वह बिल्ली की तरह झपटा। मैं सकते में। काका का हाथ साबुन पर पड़ा। उठा भी लेता कि साबुन फिसलकर दूर जा गिरा और तब तक मैंने आँखें भींचकर पीतल का भारी लोटा दे मारा।
काका 'हाय' कहता चकराकर बैठक गया और सिर पकड़े वैसे ही रह गया।
तब तक मैंने साबुन उठा लिया और लोटा पकड़कर फिर से तैयार हो गया। पर काका तो उठा ही नहीं। तब मेरी टाँगें काँपने लगीं। काका को हिलाकर पुकारा, “काका, काका!
कराहकर काका ने सिर उठाया तो देखा, माथे से एकदम लाल-लाल ख़ून बह रहा था। “मार दी साले!” काका जाने क्या-क्या बड़बड़ाने लगा। फिर हाथों से माथा दबाए लड़खड़ाता हुआ बाहर चला। देहरी के पास रुककर मुड़ा। रुआँसा चेहरा। गालों पर ख़ून और आँसूओं के धारे। सिसकता हुआ बोला, “साले, एक दिन तो ख़त्म हो जाएगा तेरा साबण।
काका चला गया। मैं सन्न खड़ा रहा। हथेली खोलकर देखा। गुलाबी ख़ूबसूरत टिकिया। पर अब कितनी पतली लग रही थी। और ख़ुश्बू भी तो शायद उड़ गई थी।
मेरा मन डूब गया।
रोने का वक़्त नहीं था। फटाफट कपड़े पहन भागता हुआ गया ऊपर। झोला निकाला, कुछ कपड़े ठूँसे। अखरोट रखने का वक़्त नहीं। बस्ता? नहीं, बस्ते का क्या काम? पैसे?
तभी सुना, बाहर काका घबराई हुई इजा को बता रहा था कि कैसे वह गोठ में गोबर पर फिसल गया और कैसे उसका सिर देहरी से टकराया।
मुझे फिर खड़ा नहीं रहा गया। औंधे मुँह चारपाई पर गिर पड़ा। बड़ी देर बाद इस क़ाबिल हुआ कि जाकर साबुन को उसकी जगह छिपा आऊँ। लौटकर एक अँधेरे कोने में सो रहा। शाम हो गई। तो भी नहीं उठा। कहा कि पेट में दर्द है।
सुबह उठा तो देखा, अजीब-सा उजाला सब ओर फैला है। रातोंरात बर्फ़ गिर गई थी। पता ही नहीं चला। आशंका से मेरा दिल बैठ गया।
ताज़ी बर्फ़ पर नंगे पाँव भागता गया। ठंड की परवाह किसे थी! पुआल के ढेर पर चार-चार अंगुल बर्फ़ जमी थी। यहीं कहीं थी वह सेंधा हाथों से बर्फ़ खोदी तो नीचे कीचड़ ही कीचड़। हाथ सन गए। यहाँ नहीं, यहाँ नहीं! यहाँ भी नहीं!
कोई लिसलिसी-सी चीज़ उँगलियों में आई। गुलाबी कीचड़ का एक लोंदा, ख़ुश्बूदार। उस लोंगे को हथेली में भरे मैं वहीं बर्फ़ पर धप से बैठ गया। शीत से काँपता हुआ।
“गोपिया!” यह इजा थी। दूध लगाने आई थी। मैंने सिर उठाकर देखा। उसी उपहास के लिए सिकड़ते हुए उसके होंठ। मेरे हाथ में लोंदा गिर गया। माँ के होंठों से एक सिसकी-सी निकली, “गोपिया!”
पाँवों से सिर तक एक थरथराहट के साथ मैं बिखर गया। पूरे प्राण से अपने को फूट पड़ने की छूट देता हुआ। कीचड़-सनी उँगलियों से माँ को जकड़ता हुआ ज़ोर से रो पड़ा।
माँ भी वहीं मेरे पास बैठ गई। मुझे कौली में भरकर। और मैं कोख की गरमाहट में मुँह छिपाकर रोता रहा। बहुत दिनों बाद पहले की तरह।
और सहसा मुझे लगा, बर्फ़ का एक विशाल ढेर पिघल रहा है। मेरा मन रुई की तरह हल्का और हल्का होने लगा। उस क्षण हवा का कोई झोंका आता तो मैं सचमुच ही उड़ने लगा होता।
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bheeD mein jane kahan se kaka hansta hua prakat ho gaya ab hum donon sath sath hanse ja rahe the mera man ho raha tha ki abhi khoob dauDun, dauDta hi jaun, aage aage kulanchen bharta main bhaga to kaka bhi hanpta hua aaya pichhe pichhe qasba pichhe chhoot gaya main ganw ki or sarpat bhaga ja raha tha kaka awaz dene laga akhir mein nadi ke pas main ruka to usne mujhe pakaD liya
kaka ne kaha, “kya hai re?
tab jakar mujhe khayal aaya ki wo lal chamakti Dibiya mere hath mein hai kaka ne jhat se use chheen liya aur ulat palatkar dekhne laga usi ko sabse pahle sujha ki ye to saban hai uska chehra uttejna se chamakne laga wo bar bar use sunghta mangne par bhi nahin deta chiDhkar bolta, “kha nahin raha hoon ” uski niyat mein khot lagta tha
main bhaDak gaya, akhir wo meri cheez thi mainne kaka se use chhinne ki koshish ki use girane ke liye sangharsh kiya, lekin lambe khaDus se jitna mere liye namumkin hi tha ab tak usne bahar ki chamkili panni bhi khol di thi aur andar ki gulabi nazuk tikiya nikal li thi
antim hathiyar ke taur par main dhap se nadi ke pattharon par gir gaya aur dhaD markar sachmuch rone laga, “main ija se kah dunga, han!
hamesha ki tarah is bar bhi meri chaal kamyab hui kaka kuch der mujhe lal ankhon se ghurta raha, phir “ja mar” kahkar tikiya phek di mainne use lapak liya “panni bhi de ” kaka ne panni bhi phenk di mainne nazuk tikiya ko phir panni mein jatan se lapeta aur use sunghta, hansta hua ghar ki or chala
kaka se pahli bar gahri dushmani ki ye shuruat thi us waqt to main sabun ki us bhini khushbu mein itna magan tha ki kaka ki or dhyan dene ka waqt nahin tha mere pas, lekin aage chalkar hum donon ki dushmani sthayi baat ho gai
baharhal, us sham kaka pichhe pichhe, pattharon ko thokar marta hua chala ghar pahunchte hi munh teDha kar usne ailaniya andaz mein kaha, “gopiye ko ek saban kya mil gaya, niche hi nahin dekh raha aaj ”
ija gobar samet rahi thi, khaDi hokar boli, “saban! kahan se laya re? kaisa hai? dikha to ”
“mera hai ” mainne tunakkar kaha
ija hath khoob saf se dhokar i “dikha to, main bhi dekhu kaisa saban hai ”
mujhe ab tak kisi par etibar nahin rah gaya tha bahut nakhre ke sath ungliyan kholin ija ne baDe shauq ke sath sabun liya Dhibri ke pas jakar ghaur se dekha do teen bar sungha, boli, “main nahaungi isse
main cheel ki tarah jhapta sabun jhapatkar andar ki jeb mein Dhunsa bhagkar khaDa hua bees qadam door ija dekhti rah gai “mar too! aag lage tere saban ko!” usne chichiyakar kaha aur ankhen tarerti hui wahan se chali gai
is tarah man meri dusri dushman bani asal mein sabun ki is mahatta ko main pahle samajh hi nahin paya shayad samajhne ki umr thi bhi nahin, lekin jald hi mujhe lagne laga mano main charon or se dushmanon se ghir gaya hoon mujhe malum tha, kaka meri har cheez ko ulat palatkar dekhta hai ghar mein jitne bhi kanastar Dibbe hain, sabko usne tatola hai, yahan tak ki goshala ki ghas pual ko bhi wo chhan aaya hai, lekin sabun kahan hai, ye mere alawa koi nahin jaan saka tha
harkar kaka ne meri chaplusi karne ki bhi koshish ki, lekin ab main utna bhola nahin rah gaya tha
bapu ko to sabun dekhana nasib hi nahin hua ija aur kaka ne har waqt sabun ka zikr karke unko itna uksa diya tha ki we marapit par utar aaye par ab tak mainne jaan liya tha ki jo bhi sabun dekh lega, uski niyat mein khot aa jayegi so main bhi tas se mas nahin hua harkar bapu ne ye kahte hue ki bahut itar phulel ka shauq chaDha hai, bhej do sale ko gay charane, mujhe kaskar do laten marin
main roya nahin aur is apman ko pi liya lekin is ghaDi se mujhe sandeh hone laga ki main unka asli beta hoon bhi ya nahin
kunti ko albatta ek din meri sakht pahredari mein sabun ko chhu sunghakar dekhne ka mauqa mila kunti tab se ankhen baDi baDi kiye pichhe pichhe Dolti rahti hai use bhagane ke liye jhapDon ke alawa koi rasta nahin hota
itne logon ke beech sabun ko bar bar dekh pana mere liye bhi mushkil ho raha tha meri bechaini lagatar baDh rahi thi har din pahaD sa lagta akhiraka itwar ko ji kaDa kar mainne sabun nikal hi liya aur garm pani lekar nahane baitha
ye sabun se mera pahla snan hone ja raha tha mainne baDe pyar se panni alag ki ehtiyat se dhoop mein rakhe sabun ko narmi se dayen hath mein pakDa aur bhige balon ko haule haule chhua
gulabi tikiya par ubhre hue akshar bane the mujhe angrezi paDhani nahin aati thi, lekin ye jo kuch bhi likha tha, isse sabun ki khubsurati baDh rahi thi we miten nahin, iska khayal rakhna tha
kaka kahne ko to chaakh mein baitha paDhai kar raha tha, lekin bar bar uska sir khiDki se dikhai de jata phir zor zor se kitab paDhne ki awaz aati ija ghas ko jati beech angan mein ruk gai kuch der dekhti rahi phir munh bichkakar chali gai kunti do qadam door aakar khaDi ho gai aur mere balon par phisalte sabun ko, usse bante safed jhag ko aur dhoop mein chamakte kai rangon ke bulbulon ko ektak dekhti rahi “bhag, bhag!” main chillaya
kunti chirauri karne lagi, “dada, mujhe bhi de de thoDa sa ”
kunti ko main achchhi tarah janta tha billi ki tarah dhoort use bhagane mein hi bhalai thi pahle to mainne us par pani phenka nahin hati to bhige hath se diya ek jhapaD idhar chillati hui kunti bhagi, udhar siDhiyon par dhaDadhData hua aaya kaka “us par hath chalaya tune? aaj to teri khair nahin!” par munDer se aage nahin baDha wahin rukkar ghurne laga main bahut door tha maze se hansta jhag uthata raha kaka galiyan deta raha, lekin wahan se hata bhi nahin
baDi der lagakar pani Dala badan par sabun ko sukhaya namalum sa ghisa tha panni mein sanbhalakar rakha itrata hua kaka ke baghal se nikla kaka ne hawa ko sungha
kaisi to tazgi aa gai thi badan mein! kaise khushbu! aur baal kaise narm! khushbu kahin uD na jaye ye sochkar phataphat kapDe pahne
apne angan ki munDer se main chhalang lagata aur kai bar aisa hota ki main uDne lagta unche aur unche pahaDon ke upar main kabutaron ki tarah tairta jata door door tak jane kitne desh, kitne ganw ek sath mere niche sarakte jate badan mein sansani si hone lagti niche dekhta to apna ghar chhota sa dikhai deta—khilaune jaisa aur ija, bapu, kaka, kunti, sare log kaise dikhai dete? jaise chinti jitne ko gaye hon main sari duniya ke upar tairta sab kuch mere niche koi mujh tak nahin pahunch sakta tha
ye sapnon ki baat thi kahte hain ki baDhwar ke dinon mein bachchon ko uDne ke sapne dikhai dete hain lekin, sapne sach nahin hote, ye kisne kaha!
sabun se nahakar us din mujhe laga tha, kisi bhi kshan main uDne lagunga
school ka din tha subah subah khoob jhag uthakar khu ko chamkaya mahakte badan par sabse achchhe kapDe Dale teDhi karke mang nikali aur raste bhar kuhni uthakar sunghta raha ki kahin khushbu uD to nahin gai nahin, khushbu uDti nahin thi ghanton bani rahti agar dhoop nahin hoti, pasina nahin hota, dhool nahin uDti aur hawa nahin chalti to shayad badan hamesha mahakta rahta
class mein to sansani hi phail gai thoDi hi der mein sab laDke nak uthaye bauraye se hawa ko soongh rahe the main kuch der mand mand muskurata iska anand leta raha phir pas wale laDke ke munh par apni banh aDa di
o baba ho! kya laga ke aaya hai?” laDka to uchhal hi paDa class mein aisi relpel machi ki tauba! laDke ek dusre ko dhakiyate lapke aur jahan tahan nak gaDakar laga sunghne jo soongh chuke the we ankhen kapal par chaDhakar kahne lage, “bata to, bata to!
aur jab mainne maze le lekar sari kahani sunai to class mein shor mach gaya sach? kaisa hai? sath mein panni bhi hai? ek din to khatm ho jayega, phir? phir kya, aur dauDega to naya jeet layega ek sal to chalega hi, dikha yar, dikha na!
massab aaye to hangama thama, lekin kisi ka dhyan paDhai ki or nahin tha sab kanakhiyon se mujhe dekh rahe the main to akash mein khoob uncha uD raha tha us pal agar main kah deta ki aaj se manitar main hua to we sab kahte—han, hua unhonne apne bap dadon se itna kuch suna tha pinti ke bare mein, uske sabun ke bare mein aaj we sab sapne jaisi kathayen sach hoti dekh we lagbhag pagal se ho uthe the
haf time ki ghanti baji hamesha ki tarah bhag paDne ko laDke uthe achanak sabke sab thithak gaye main wahin baitha jo tha apni jagah “chal re, chala” aaj sab mere qarib aana chahte the we bhi jo mere dushman the aur duble patlepan ki wajah se mujhe pita karte the
main utha to, lekin ek anjani jhijhak ne mujhe gher liya aisa pahle kabhi nahin hua tha pahle to sabse pahle bhag chhutne walon mein main awwal rahta tha, lekin pahle kabhi sare laDkon ne mujhe gherkar aise chal, chal bhi nahin kaha tha
“tu hamari taraf hua ”—nahin, hamari taraf kabaDDi mein main kis team ke sath khelun, ise lekar bhari jhagDa chal paDa tha
main to sankoch se mara ja raha tha kabaDDi mein ragede jane ka, mitti mein lipatne ka Dar mujh par hawi ho gaya “nahin, mera man nahin hai khelne ka ” mainne kaha
“kyon? kyon?” har taraf se pukar mach gai phir apne aap jaise sab laDke samajh gaye “achchha tu rephri hua tu baithkar dekh ” we ek ek kar khisakne lage, khisiyaye hue
har koi sabun dekhne ko bekal tha sare ganw mein jangal ki aag ki tarah ye baat phail gai thi log mujhe rok lete, koi bahana khojkar ghar chale aate we chahte ki main unko sabun dikha doon jab main inkar kar deta to we naraz ho jate Dant Dapat karte albatta we mujhe soongh zarur lete sabun na dikhane ki meri is zid se gharwalon ko sharmindagi ka samna karna paDta hoga baad mein mujhe we apni galiyon ka nishana banate kaka jab bhi samne aata dhamki bhare ishare karta do ek bar to uske akele mein mera gala bhi dabaya kunti hamesha munh phulaye rahti usse meri jhaDap ho jaye to bapu mujhe apne Dhai kilo ke hath se jhapaD marne mein zara der nahin karte ija mujhse hamesha chiDachiDate hue baat karti
sari duniya giddhon ki tarah mere us chhote se sukh ko nochne ke liye betab thi mainne dekha ki pahle to log meri izzat karne lagte, lekin jab main unko sabun nahin dikhata to we fauran mere khilaf lambandi kar lete lagbhag sabhi mere dushman ho chuke the
logon ne mera nam hi pinti rakh diya tha ye sirf mazaq nahin tha is tarah we apni nafar jata rahe hote laDke mujhe pinti pinti kahkar pukarte aur hairani ki baat to ye ki is baat se mujhe taklif hone ke bawjud main aksar us pinti ke bare mein sochne laga tha main sochta ki wo kaisi aur kahan hogi mainne man mein uska ek khaka bhi kheench liya tha, jis par main apni khali waqt mein rang bhara karta tha mere khayal se wo hamare calendar ki lakshmi jaisi thi wo itni gori thi aur uske kapDe itne chamkile the ki raat mein bhi uske asapas ujala rahta tha us par dhool ka ek kan bhi nahin baith sakta tha wo itni halki thi mano use safed kore kaghaz se banaya gaya ho
aur khelna to mainne chhoD hi diya tha kuch laDke mere qarib hona chahte, lekin jaldi hi dhamachaukDi ka akarshan unko kheench le jata jab laDke huDadang macha rahe hote, tab main diwar par baitha tange hilata rahta we kabaDDi mein ek dusre ko ragedte, gile kheton mein ghuskar kakDiyan khojte, chori se nibu toD late, nadi mein nange hokar nahate, pirul mein phisalte we hamesha ki tarah chikhte chillate, gutthamguttha hote, kapDe phaD lete ya badan chhila lete main baithe baithe unko dekhta aur ungliyan chatkhata
sach kahun to kai bar meri ichha hui ki main unke beech kood paDu, jab bhi aisa karne ko hua, jane kis baat ne mere sharir ko jaD kar diya tab mainne chaha ki koi laDka mujhe jabran ghasitkar kabaDDi ke maidan mein dhakel de, lekin shayad ye nahin ho sakta tha we to ab mujhse khelne ko kahte bhi nahin the unhonne man liya tha ki pinti ka kaam baithkar unko dekhte rahna hai we mera astitw hi bhulne lage the
ab phir kaka bazar ja raha tha saman lane ke liye thaile jhole samet raha tha mujhse raha nahin gaya, kaha, “main bhi chalunga
kaka ekdam bhaDak gaya, “tu nahin jayega mere sath
main jaunga
“bhabhi!” kaka ne ailan kiya, “isi se manga le apna saman, main nahin ja raha ”
ija baghin ki tarah jhapatti i mera kan pakaDkar patak diya zamin par “aj karti hoon main iska ilaj jyon jyon baDh raha hai, tyon tyon saD raha hai ” meri peeth par do laten mari aur ghasitti hui le chali bahar
pichhe se kaka ullas se chillaya, “zara achchhi tarah se kar do marammat pinti kee
ija mujhe mare chuhe ki tarah ghasitti munDer par le gai aur dhakel diya bichchhu ke jhaD par
“oऽiऽऽjaऽऽweऽ!”
moh ka ek patla sa dhaga bhar bacha tha toot gaya wo us kshan haf time mein diwar par baithe meri ankhen bar bar bhar atin kudte phandte laDke nazar mein kanpne lagte bichchhu ke kanton se badan abhi bhi chilchila raha tha kohaniyan chhili hui balon mein dhool nahaya tha us subah bhi, lekin badan mein koi khushbu baqi nahin
man khulkar ro paDne ko kar raha tha jaun, chala jaun yahan se hamesha ke liye wahan, jahan pinti rahti hai wahan log aise nahin hain wahan nafar nahin hai bina baat ke aisa zulm nahin hai
aur mainne faisla kiya ki ek din mauqa milte hi bazar bhag jaunga kahte hain, wahan se door door ko basen jati hain kisi mein baith jaunga, phir kabhi nahin lautunga yahan kabhi nahin
us waqt se ye irada mere man mein har pal pakka hota gaya mainne kapDe chun liye jo sath le jane the ek jhola bhi unke liye chhipa liya kuch akhrot bhi rakh liye aur dekh liya ki rupye kahan se nikale ja sakte hain mujhe bus mauqe ka intizar tha
aur aise mein wo kanD ho gaya
main nha raha tha kaisi bhi thanD ho, main nahaye bina nahin rahta mujhe malum nahin tha ki kaka ghat mein hain mainne sabun alag rakha ki wo billi ki tarah jhapta main sakte mein kaka ka hath sabun par paDa utha bhi leta ki sabun phisalkar door ja gira aur tab tak mainne ankhen bhinchkar pital ka bhari lota de mara
kaka hay kahta chakrakar baithak gaya aur sir pakDe waise hi rah gaya
tab tak mainne sabun utha liya aur lota pakaDkar phir se taiyar ho gaya par kaka to utha hi nahin tab meri tangen kanpne lagin kaka ko hilakar pukara, “kaka, kaka!
karahkar kaka ne sir uthaya to dekha, mathe se ekdam lal lal khoon bah raha tha “mar di sale!” kaka jane kya kya baDbaDane laga phir hathon se matha dabaye laDkhaData hua bahar chala dehri ke pas rukkar muDa ruansa chehra galon par khoon aur ansuon ke dhare sisakta hua bola, “sale, ek din to khatm ho jayega tera saban
kaka chala gaya main sann khaDa raha hatheli kholkar dekha gulabi khubsurat tikiya par ab kitni patli lag rahi thi aur khushbu bhi to shayad uD gai thi
mera man Doob gaya
rone ka waqt nahin tha phataphat kapDe pahan bhagta hua gaya upar jhola nikala, kuch kapDe thunse akhrot rakhne ka waqt nahin basta? nahin, baste ka kya kaam? paise?
tabhi suna, bahar kaka ghabrai hui ija ko bata raha tha ki kaise wo goth mein gobar par phisal gaya aur kaise uska sir dehri se takraya
mujhe phir khaDa nahin raha gaya aundhe munh charpai par gir paDa baDi der baad is qabil hua ki jakar sabun ko uski jagah chhipa aun lautkar ek andhere kone mein so raha sham ho gai to bhi nahin utha kaha ki pet mein dard hai
subah utha to dekha, ajib sa ujala sab or phaila hai ratonrat barf gir gai thi pata hi nahin chala ashanka se mera dil baith gaya
tazi barf par nange panw bhagta gaya thanD ki parwah kise thee! pual ke Dher par chaar chaar angul barf jami thi yahin kahin thi wo sendha hathon se barf khodi to niche kichaD hi kichaD hath san gaye yahan nahin, yahan nahin! yahan bhi nahin!
koi lisalisi si cheez ungliyon mein i gulabi kichaD ka ek londa, khushbudar us longe ko hatheli mein bhare main wahin barf par dhap se baith gaya sheet se kanpta hua
“gopiya!” ye ija thi doodh lagane i thi mainne sir uthakar dekha usi uphas ke liye sikaDte hue uske honth mere hath mein londa gir gaya man ke honthon se ek siski si nikli, “gopiya!”
panwon se sir tak ek thartharahat ke sath main bikhar gaya pure paran se apne ko phoot paDne ki chhoot deta hua kichaD sani ungliyon se man ko jakaDta hua zor se ro paDa
man bhi wahin mere pas baith gai mujhe kauli mein bharkar aur main kokh ki garmahat mein munh chhipakar rota raha bahut dinon baad pahle ki tarah
aur sahsa mujhe laga, barf ka ek wishal Dher pighal raha hai mera man rui ki tarah halka aur halka hone laga us kshan hawa ka koi jhonka aata to main sachmuch hi uDne laga hota
hamare ganw mein aisa pahle kabhi nahin hua tha sabun ka nam hamne aur dusre logon ne suna zarur tha, lekin do chaar hi log aise milenge jinhonne use sachmuch dekha ho saban ka nam bhi logon ko malum tha to sirf faujiyon ki badaulat aur thoDa isliye bhi ki jab ek bar deputy sahab ki bitiya pinti ganw i thi to uske pas kuch aurton ne ye cheez dekhi thi kahte hain, pinti jahan khaDi ho usse ek kos door tak phulon ki si bas mahakti thi das pandrah sal baad bhi logon ko wo pinti yaad rahi to isi wajah se log sabun ka zikr itr aur phulel ke baad karte the
pinti to khair jaise dusri duniya se i jeew thi ganw ke kisi adami ke pas kabhi sabun nahin dekha gaya sachche arthon mein ganw mein pahle sabun aaya mere pas aur wo bhi achanak, apratyashit roop se
us din pandrah august ya aisa hi kuch khas din raha hoga, kyonki school band tha main aur kaka aalu bechne ke liye kai kos chalkar qasbe mein aaye the kaka mujhse panch sat sal hi baDa hoga hum donon lagbhag dost jaise hi the halanki kabhi kabhi wo baDappan jatane ko utsuk ho jata tha, lekin uska koi dabadba mujh par nahin ban paya
to, qasbe ki raunaq se hum log lemanchus chatte bhatak rahe the ki ek bheeD bhare maidan mein ja pahunche, jahan bilkul mela sa laga tha khoob shor ho raha tha sitiyan baj rahi theen ek bhompe se kisi adami ki zordar awaz aa rahi thi, jaise Dant raha ho
hum achakchaye se aur bilkul bedhyani mein us bheeD mein ghuse ja rahe the ki achanak mainne paya, main apne jaise laDkon ki ek qatar mein khaDa hoon kisi ne banh pakaDkar jaldi se mujhe wahan khaDa kar diya tha ek adami sabko safed line par khaDa kar raha tha mere donon or laDke chilla rahe the, jhapatne ki mudra mein bar bar ek tang par jhuke ja rahe the laga, jaise koi dauD hone ja rahi ho
pahle to main ghabra gaya idhar udhar dekha to kaka ka kahin pata hi nahin lathi walon ne baqi bheeD ke sath use bhi dhakiya diya hoga ab bhompu par ginti gini ja rahi thi, ek do
aur teen! bhukhe janwaron ki tarah sab bhage sath mein main bhi pahle to sujha hi nahin, par jab dekha ki baghal wala chhokra apni sikiyan tangen patakta aage nikla ja raha hai to main bhi bhag liya dam toDkar aisa ki maidan ke dusre chhor par bandhi rassi mein ulajhkar gir paDa ghutne mein lagi so alag jhaDkar khaDa hua to taliyan chamchamati Dibiya thama di
bheeD mein jane kahan se kaka hansta hua prakat ho gaya ab hum donon sath sath hanse ja rahe the mera man ho raha tha ki abhi khoob dauDun, dauDta hi jaun, aage aage kulanchen bharta main bhaga to kaka bhi hanpta hua aaya pichhe pichhe qasba pichhe chhoot gaya main ganw ki or sarpat bhaga ja raha tha kaka awaz dene laga akhir mein nadi ke pas main ruka to usne mujhe pakaD liya
kaka ne kaha, “kya hai re?
tab jakar mujhe khayal aaya ki wo lal chamakti Dibiya mere hath mein hai kaka ne jhat se use chheen liya aur ulat palatkar dekhne laga usi ko sabse pahle sujha ki ye to saban hai uska chehra uttejna se chamakne laga wo bar bar use sunghta mangne par bhi nahin deta chiDhkar bolta, “kha nahin raha hoon ” uski niyat mein khot lagta tha
main bhaDak gaya, akhir wo meri cheez thi mainne kaka se use chhinne ki koshish ki use girane ke liye sangharsh kiya, lekin lambe khaDus se jitna mere liye namumkin hi tha ab tak usne bahar ki chamkili panni bhi khol di thi aur andar ki gulabi nazuk tikiya nikal li thi
antim hathiyar ke taur par main dhap se nadi ke pattharon par gir gaya aur dhaD markar sachmuch rone laga, “main ija se kah dunga, han!
hamesha ki tarah is bar bhi meri chaal kamyab hui kaka kuch der mujhe lal ankhon se ghurta raha, phir “ja mar” kahkar tikiya phek di mainne use lapak liya “panni bhi de ” kaka ne panni bhi phenk di mainne nazuk tikiya ko phir panni mein jatan se lapeta aur use sunghta, hansta hua ghar ki or chala
kaka se pahli bar gahri dushmani ki ye shuruat thi us waqt to main sabun ki us bhini khushbu mein itna magan tha ki kaka ki or dhyan dene ka waqt nahin tha mere pas, lekin aage chalkar hum donon ki dushmani sthayi baat ho gai
baharhal, us sham kaka pichhe pichhe, pattharon ko thokar marta hua chala ghar pahunchte hi munh teDha kar usne ailaniya andaz mein kaha, “gopiye ko ek saban kya mil gaya, niche hi nahin dekh raha aaj ”
ija gobar samet rahi thi, khaDi hokar boli, “saban! kahan se laya re? kaisa hai? dikha to ”
“mera hai ” mainne tunakkar kaha
ija hath khoob saf se dhokar i “dikha to, main bhi dekhu kaisa saban hai ”
mujhe ab tak kisi par etibar nahin rah gaya tha bahut nakhre ke sath ungliyan kholin ija ne baDe shauq ke sath sabun liya Dhibri ke pas jakar ghaur se dekha do teen bar sungha, boli, “main nahaungi isse
main cheel ki tarah jhapta sabun jhapatkar andar ki jeb mein Dhunsa bhagkar khaDa hua bees qadam door ija dekhti rah gai “mar too! aag lage tere saban ko!” usne chichiyakar kaha aur ankhen tarerti hui wahan se chali gai
is tarah man meri dusri dushman bani asal mein sabun ki is mahatta ko main pahle samajh hi nahin paya shayad samajhne ki umr thi bhi nahin, lekin jald hi mujhe lagne laga mano main charon or se dushmanon se ghir gaya hoon mujhe malum tha, kaka meri har cheez ko ulat palatkar dekhta hai ghar mein jitne bhi kanastar Dibbe hain, sabko usne tatola hai, yahan tak ki goshala ki ghas pual ko bhi wo chhan aaya hai, lekin sabun kahan hai, ye mere alawa koi nahin jaan saka tha
harkar kaka ne meri chaplusi karne ki bhi koshish ki, lekin ab main utna bhola nahin rah gaya tha
bapu ko to sabun dekhana nasib hi nahin hua ija aur kaka ne har waqt sabun ka zikr karke unko itna uksa diya tha ki we marapit par utar aaye par ab tak mainne jaan liya tha ki jo bhi sabun dekh lega, uski niyat mein khot aa jayegi so main bhi tas se mas nahin hua harkar bapu ne ye kahte hue ki bahut itar phulel ka shauq chaDha hai, bhej do sale ko gay charane, mujhe kaskar do laten marin
main roya nahin aur is apman ko pi liya lekin is ghaDi se mujhe sandeh hone laga ki main unka asli beta hoon bhi ya nahin
kunti ko albatta ek din meri sakht pahredari mein sabun ko chhu sunghakar dekhne ka mauqa mila kunti tab se ankhen baDi baDi kiye pichhe pichhe Dolti rahti hai use bhagane ke liye jhapDon ke alawa koi rasta nahin hota
itne logon ke beech sabun ko bar bar dekh pana mere liye bhi mushkil ho raha tha meri bechaini lagatar baDh rahi thi har din pahaD sa lagta akhiraka itwar ko ji kaDa kar mainne sabun nikal hi liya aur garm pani lekar nahane baitha
ye sabun se mera pahla snan hone ja raha tha mainne baDe pyar se panni alag ki ehtiyat se dhoop mein rakhe sabun ko narmi se dayen hath mein pakDa aur bhige balon ko haule haule chhua
gulabi tikiya par ubhre hue akshar bane the mujhe angrezi paDhani nahin aati thi, lekin ye jo kuch bhi likha tha, isse sabun ki khubsurati baDh rahi thi we miten nahin, iska khayal rakhna tha
kaka kahne ko to chaakh mein baitha paDhai kar raha tha, lekin bar bar uska sir khiDki se dikhai de jata phir zor zor se kitab paDhne ki awaz aati ija ghas ko jati beech angan mein ruk gai kuch der dekhti rahi phir munh bichkakar chali gai kunti do qadam door aakar khaDi ho gai aur mere balon par phisalte sabun ko, usse bante safed jhag ko aur dhoop mein chamakte kai rangon ke bulbulon ko ektak dekhti rahi “bhag, bhag!” main chillaya
kunti chirauri karne lagi, “dada, mujhe bhi de de thoDa sa ”
kunti ko main achchhi tarah janta tha billi ki tarah dhoort use bhagane mein hi bhalai thi pahle to mainne us par pani phenka nahin hati to bhige hath se diya ek jhapaD idhar chillati hui kunti bhagi, udhar siDhiyon par dhaDadhData hua aaya kaka “us par hath chalaya tune? aaj to teri khair nahin!” par munDer se aage nahin baDha wahin rukkar ghurne laga main bahut door tha maze se hansta jhag uthata raha kaka galiyan deta raha, lekin wahan se hata bhi nahin
baDi der lagakar pani Dala badan par sabun ko sukhaya namalum sa ghisa tha panni mein sanbhalakar rakha itrata hua kaka ke baghal se nikla kaka ne hawa ko sungha
kaisi to tazgi aa gai thi badan mein! kaise khushbu! aur baal kaise narm! khushbu kahin uD na jaye ye sochkar phataphat kapDe pahne
apne angan ki munDer se main chhalang lagata aur kai bar aisa hota ki main uDne lagta unche aur unche pahaDon ke upar main kabutaron ki tarah tairta jata door door tak jane kitne desh, kitne ganw ek sath mere niche sarakte jate badan mein sansani si hone lagti niche dekhta to apna ghar chhota sa dikhai deta—khilaune jaisa aur ija, bapu, kaka, kunti, sare log kaise dikhai dete? jaise chinti jitne ko gaye hon main sari duniya ke upar tairta sab kuch mere niche koi mujh tak nahin pahunch sakta tha
ye sapnon ki baat thi kahte hain ki baDhwar ke dinon mein bachchon ko uDne ke sapne dikhai dete hain lekin, sapne sach nahin hote, ye kisne kaha!
sabun se nahakar us din mujhe laga tha, kisi bhi kshan main uDne lagunga
school ka din tha subah subah khoob jhag uthakar khu ko chamkaya mahakte badan par sabse achchhe kapDe Dale teDhi karke mang nikali aur raste bhar kuhni uthakar sunghta raha ki kahin khushbu uD to nahin gai nahin, khushbu uDti nahin thi ghanton bani rahti agar dhoop nahin hoti, pasina nahin hota, dhool nahin uDti aur hawa nahin chalti to shayad badan hamesha mahakta rahta
class mein to sansani hi phail gai thoDi hi der mein sab laDke nak uthaye bauraye se hawa ko soongh rahe the main kuch der mand mand muskurata iska anand leta raha phir pas wale laDke ke munh par apni banh aDa di
o baba ho! kya laga ke aaya hai?” laDka to uchhal hi paDa class mein aisi relpel machi ki tauba! laDke ek dusre ko dhakiyate lapke aur jahan tahan nak gaDakar laga sunghne jo soongh chuke the we ankhen kapal par chaDhakar kahne lage, “bata to, bata to!
aur jab mainne maze le lekar sari kahani sunai to class mein shor mach gaya sach? kaisa hai? sath mein panni bhi hai? ek din to khatm ho jayega, phir? phir kya, aur dauDega to naya jeet layega ek sal to chalega hi, dikha yar, dikha na!
massab aaye to hangama thama, lekin kisi ka dhyan paDhai ki or nahin tha sab kanakhiyon se mujhe dekh rahe the main to akash mein khoob uncha uD raha tha us pal agar main kah deta ki aaj se manitar main hua to we sab kahte—han, hua unhonne apne bap dadon se itna kuch suna tha pinti ke bare mein, uske sabun ke bare mein aaj we sab sapne jaisi kathayen sach hoti dekh we lagbhag pagal se ho uthe the
haf time ki ghanti baji hamesha ki tarah bhag paDne ko laDke uthe achanak sabke sab thithak gaye main wahin baitha jo tha apni jagah “chal re, chala” aaj sab mere qarib aana chahte the we bhi jo mere dushman the aur duble patlepan ki wajah se mujhe pita karte the
main utha to, lekin ek anjani jhijhak ne mujhe gher liya aisa pahle kabhi nahin hua tha pahle to sabse pahle bhag chhutne walon mein main awwal rahta tha, lekin pahle kabhi sare laDkon ne mujhe gherkar aise chal, chal bhi nahin kaha tha
“tu hamari taraf hua ”—nahin, hamari taraf kabaDDi mein main kis team ke sath khelun, ise lekar bhari jhagDa chal paDa tha
main to sankoch se mara ja raha tha kabaDDi mein ragede jane ka, mitti mein lipatne ka Dar mujh par hawi ho gaya “nahin, mera man nahin hai khelne ka ” mainne kaha
“kyon? kyon?” har taraf se pukar mach gai phir apne aap jaise sab laDke samajh gaye “achchha tu rephri hua tu baithkar dekh ” we ek ek kar khisakne lage, khisiyaye hue
har koi sabun dekhne ko bekal tha sare ganw mein jangal ki aag ki tarah ye baat phail gai thi log mujhe rok lete, koi bahana khojkar ghar chale aate we chahte ki main unko sabun dikha doon jab main inkar kar deta to we naraz ho jate Dant Dapat karte albatta we mujhe soongh zarur lete sabun na dikhane ki meri is zid se gharwalon ko sharmindagi ka samna karna paDta hoga baad mein mujhe we apni galiyon ka nishana banate kaka jab bhi samne aata dhamki bhare ishare karta do ek bar to uske akele mein mera gala bhi dabaya kunti hamesha munh phulaye rahti usse meri jhaDap ho jaye to bapu mujhe apne Dhai kilo ke hath se jhapaD marne mein zara der nahin karte ija mujhse hamesha chiDachiDate hue baat karti
sari duniya giddhon ki tarah mere us chhote se sukh ko nochne ke liye betab thi mainne dekha ki pahle to log meri izzat karne lagte, lekin jab main unko sabun nahin dikhata to we fauran mere khilaf lambandi kar lete lagbhag sabhi mere dushman ho chuke the
logon ne mera nam hi pinti rakh diya tha ye sirf mazaq nahin tha is tarah we apni nafar jata rahe hote laDke mujhe pinti pinti kahkar pukarte aur hairani ki baat to ye ki is baat se mujhe taklif hone ke bawjud main aksar us pinti ke bare mein sochne laga tha main sochta ki wo kaisi aur kahan hogi mainne man mein uska ek khaka bhi kheench liya tha, jis par main apni khali waqt mein rang bhara karta tha mere khayal se wo hamare calendar ki lakshmi jaisi thi wo itni gori thi aur uske kapDe itne chamkile the ki raat mein bhi uske asapas ujala rahta tha us par dhool ka ek kan bhi nahin baith sakta tha wo itni halki thi mano use safed kore kaghaz se banaya gaya ho
aur khelna to mainne chhoD hi diya tha kuch laDke mere qarib hona chahte, lekin jaldi hi dhamachaukDi ka akarshan unko kheench le jata jab laDke huDadang macha rahe hote, tab main diwar par baitha tange hilata rahta we kabaDDi mein ek dusre ko ragedte, gile kheton mein ghuskar kakDiyan khojte, chori se nibu toD late, nadi mein nange hokar nahate, pirul mein phisalte we hamesha ki tarah chikhte chillate, gutthamguttha hote, kapDe phaD lete ya badan chhila lete main baithe baithe unko dekhta aur ungliyan chatkhata
sach kahun to kai bar meri ichha hui ki main unke beech kood paDu, jab bhi aisa karne ko hua, jane kis baat ne mere sharir ko jaD kar diya tab mainne chaha ki koi laDka mujhe jabran ghasitkar kabaDDi ke maidan mein dhakel de, lekin shayad ye nahin ho sakta tha we to ab mujhse khelne ko kahte bhi nahin the unhonne man liya tha ki pinti ka kaam baithkar unko dekhte rahna hai we mera astitw hi bhulne lage the
ab phir kaka bazar ja raha tha saman lane ke liye thaile jhole samet raha tha mujhse raha nahin gaya, kaha, “main bhi chalunga
kaka ekdam bhaDak gaya, “tu nahin jayega mere sath
main jaunga
“bhabhi!” kaka ne ailan kiya, “isi se manga le apna saman, main nahin ja raha ”
ija baghin ki tarah jhapatti i mera kan pakaDkar patak diya zamin par “aj karti hoon main iska ilaj jyon jyon baDh raha hai, tyon tyon saD raha hai ” meri peeth par do laten mari aur ghasitti hui le chali bahar
pichhe se kaka ullas se chillaya, “zara achchhi tarah se kar do marammat pinti kee
ija mujhe mare chuhe ki tarah ghasitti munDer par le gai aur dhakel diya bichchhu ke jhaD par
“oऽiऽऽjaऽऽweऽ!”
moh ka ek patla sa dhaga bhar bacha tha toot gaya wo us kshan haf time mein diwar par baithe meri ankhen bar bar bhar atin kudte phandte laDke nazar mein kanpne lagte bichchhu ke kanton se badan abhi bhi chilchila raha tha kohaniyan chhili hui balon mein dhool nahaya tha us subah bhi, lekin badan mein koi khushbu baqi nahin
man khulkar ro paDne ko kar raha tha jaun, chala jaun yahan se hamesha ke liye wahan, jahan pinti rahti hai wahan log aise nahin hain wahan nafar nahin hai bina baat ke aisa zulm nahin hai
aur mainne faisla kiya ki ek din mauqa milte hi bazar bhag jaunga kahte hain, wahan se door door ko basen jati hain kisi mein baith jaunga, phir kabhi nahin lautunga yahan kabhi nahin
us waqt se ye irada mere man mein har pal pakka hota gaya mainne kapDe chun liye jo sath le jane the ek jhola bhi unke liye chhipa liya kuch akhrot bhi rakh liye aur dekh liya ki rupye kahan se nikale ja sakte hain mujhe bus mauqe ka intizar tha
aur aise mein wo kanD ho gaya
main nha raha tha kaisi bhi thanD ho, main nahaye bina nahin rahta mujhe malum nahin tha ki kaka ghat mein hain mainne sabun alag rakha ki wo billi ki tarah jhapta main sakte mein kaka ka hath sabun par paDa utha bhi leta ki sabun phisalkar door ja gira aur tab tak mainne ankhen bhinchkar pital ka bhari lota de mara
kaka hay kahta chakrakar baithak gaya aur sir pakDe waise hi rah gaya
tab tak mainne sabun utha liya aur lota pakaDkar phir se taiyar ho gaya par kaka to utha hi nahin tab meri tangen kanpne lagin kaka ko hilakar pukara, “kaka, kaka!
karahkar kaka ne sir uthaya to dekha, mathe se ekdam lal lal khoon bah raha tha “mar di sale!” kaka jane kya kya baDbaDane laga phir hathon se matha dabaye laDkhaData hua bahar chala dehri ke pas rukkar muDa ruansa chehra galon par khoon aur ansuon ke dhare sisakta hua bola, “sale, ek din to khatm ho jayega tera saban
kaka chala gaya main sann khaDa raha hatheli kholkar dekha gulabi khubsurat tikiya par ab kitni patli lag rahi thi aur khushbu bhi to shayad uD gai thi
mera man Doob gaya
rone ka waqt nahin tha phataphat kapDe pahan bhagta hua gaya upar jhola nikala, kuch kapDe thunse akhrot rakhne ka waqt nahin basta? nahin, baste ka kya kaam? paise?
tabhi suna, bahar kaka ghabrai hui ija ko bata raha tha ki kaise wo goth mein gobar par phisal gaya aur kaise uska sir dehri se takraya
mujhe phir khaDa nahin raha gaya aundhe munh charpai par gir paDa baDi der baad is qabil hua ki jakar sabun ko uski jagah chhipa aun lautkar ek andhere kone mein so raha sham ho gai to bhi nahin utha kaha ki pet mein dard hai
subah utha to dekha, ajib sa ujala sab or phaila hai ratonrat barf gir gai thi pata hi nahin chala ashanka se mera dil baith gaya
tazi barf par nange panw bhagta gaya thanD ki parwah kise thee! pual ke Dher par chaar chaar angul barf jami thi yahin kahin thi wo sendha hathon se barf khodi to niche kichaD hi kichaD hath san gaye yahan nahin, yahan nahin! yahan bhi nahin!
koi lisalisi si cheez ungliyon mein i gulabi kichaD ka ek londa, khushbudar us longe ko hatheli mein bhare main wahin barf par dhap se baith gaya sheet se kanpta hua
“gopiya!” ye ija thi doodh lagane i thi mainne sir uthakar dekha usi uphas ke liye sikaDte hue uske honth mere hath mein londa gir gaya man ke honthon se ek siski si nikli, “gopiya!”
panwon se sir tak ek thartharahat ke sath main bikhar gaya pure paran se apne ko phoot paDne ki chhoot deta hua kichaD sani ungliyon se man ko jakaDta hua zor se ro paDa
man bhi wahin mere pas baith gai mujhe kauli mein bharkar aur main kokh ki garmahat mein munh chhipakar rota raha bahut dinon baad pahle ki tarah
aur sahsa mujhe laga, barf ka ek wishal Dher pighal raha hai mera man rui ki tarah halka aur halka hone laga us kshan hawa ka koi jhonka aata to main sachmuch hi uDne laga hota
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 93)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।