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वैतरणी

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मिलोवान जिलास

और अधिकमिलोवान जिलास

    एकबारगी यह समझ पाना संभव नहीं था कि क्या हुआ और कैसे हुआ कि दोनों बहनें—एलिज़ाबेथ और कैटरीना पूरे तीस बरस तक कस्बे के बाक़ी बाशिंदों से और तकरीबन हर प्राणी से एकदम कटकर अलग-थलग ज़िंदगी बसर करती रहीं।

    दोनों बहनें किसी बड़े ज़मींदार की बेटियाँ थीं और आलम यह था कि प्रथम विश्वयुद्ध से पहले, आस्ट्रिया-हंगरी युग में, अभिजात वर्ग के लोग और बड़े-बड़े अफ़सर-अहलकार तक इनके तलुवे चाटने को उद्यत रहते थे। हालाँकि वे अपनी ख़ूबसूरती की बदौलत कम, कुलीन घराने में जन्म लेने और अपनी धन-दौलत की वजह से ज़्यादा जानी जाती थीं। सुनते हैं कि कभी इनकी मँगनी भी हुई थी, लेकिन पुराने राजतंत्र ने अंतिम घड़ियाँ गिनते हुए जितने मोरचे खोले थे, उनमें से किसी मोरचे पर इनके मंगेतर खेत रहे थे। सो, दोनों बहनें युद्धकाल में अपनी जातीय-प्रथा के अनुसार, सामाजिक प्रतिष्ठा और शिक्षा-दीक्षा की लाज रखते हुए और वैधव्य की-सी पीड़ा झेलते हुए सतवंती नारी की तरह दुनिया-जहान से कटकर जीवन व्यतीत कर रही थीं। क़स्बे के लोग तो उन दिनों भी यह मानते थे कि ये बहनें एक-दूसरे से कभी जुदा नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे दो देह, एक प्राण थीं ‘दो बहनें’, ‘वो दो’, हालाँकि वे जुड़वाँ नहीं थीं। एलिज़ाबेथ साल-दो साल बड़ी थी कैटरीना से। क़स्बे के लोग देखते कि हमेशा वे पढ़ती रहती हैं, गिरजे में साथ-साथ जाती हैं, नाच-गाने में एक-दूसरे का साथ देती हैं और संगीत का रियाज़ भी एकसाथ करती हैं। बड़ी बहन वायलिन बजाती थी और छोटी बहन पियानो। संगीत ही इनका एकमात्र व्यापार था, जिसमें इन्होंने कभी कोताही नहीं की और इसी में उन्हें सुख-शांति मिलती थी, मगर उनके अस्तित्व के बारे में पूरा भेद खुला कहीं युद्ध की समाप्ति और मंगेतरों के देहान्त के उपरांत।

    युद्ध थमने के बाद दोनों बहनों की दिनचर्या में कोई कमी नहीं आई थी, बल्कि उसमें बढ़ोतरी ही हुई थी, यह लक्ष्य किया था पास-पड़ोस में रहने वालों ने। यहाँ तक कि दोनों बहनों में साथ-साथ रहने की भावना और सुदृढ़ होती चली गई थी। इनकी माँ का देहांत पहले ही हो चुका था और पिता भी युद्ध के बाद स्वर्ग सिधार गए थे, जिस कारण दोनों बहनें और भी अलग-थलग पड़ गई थीं। फिर सगे-संबंधियों की लोभी दृष्टि भी इन पर लगी थी और कृषि सुधार की मार भी इन्हें झेलनी पड़ी थी और ऐसा करने का तो इन्हें कोई अनुभव था ही योग्यता। नई शासन-व्यवस्था में और परिवर्तित सामाजिक परिस्थितियों में केवल इनकी धन-संपत्ति जाती रही थी, बल्कि सारा परिवेश ही बदल गया था। जिन लोगों में वे उठती-बैठती थीं, जिन लोगों से मेलजोल था इनका, यानी आस्ट्रिया और हंगरी के सभी ज़मींदार और ओहदेदार, वे सब स्वदेश हिजरत कर गए थे और सरबिया के जितने भी अभिजात वर्ग के लोग बचे रह गए थे, वे या तो साहूकारी या सट्टेबाजी में लिप्त थे या ताश के पत्तों पर या दारा और दारू पर दौलत लुटा रहे थे। दोनों बहनों को ऐसी कोई ठौर दिखाई नहीं देती थी जहाँ वे जातीं, कोई ऐसा शख़्स नहीं था जिसके संग उठती-बैठतीं। तो इनमें इतना जीवट था, कि यहाँ-वहाँ डोलती फिरतीं, वे नगर-वधुएँ थीं कि इधर-उधर मुँह मारती फिरतीं। सो, वे अपने उस घर के निचले तले पर ही सीमित संकुचित होकर रह गईं जिसका ओर-छोर नहीं था और जो छोटे-से कस्बे के मुहाने पर स्थित था और चारों तरफ़ उसके घनी बग़िया थी और ईंट की चहारदीवारी।

    इस मकान में ये बहनें दूसरे विश्वयुद्ध शुरू होने तक और उसके दौरान भी टिकी रहीं और बाहर भी निकलतीं तो बहुत कम और जब कभी निकलती भी थीं तो दोनों एकसाथ निकलती थीं। फिर इनके परिचित या सगे-संबंधी भी बहुत कम इनसे मिलने आते थे। इस प्रकार, विवाह की उम्र इनकी बीत गई। अब ऐसा कोई आदमी नहीं था, जो आकर इनकी खोज-ख़बर लेता। इनकी जीवन-शैली के बारे में किसी को इल्म ही होता, यदि घर की नौकरानियाँ लंतरानी करती फिरतीं या इनके संगीत की स्वर-लहरियाँ घर से उठकर चहारदीवारी फांद बाहर सुनाई पड़तीं।

    दोनों बहनों के पास जितनी जमा-पूँजी थी और जितनी भी जायदाद बच गई थी, उसमें कारिंदे सेंध लगाने लगे थे, इसका पूरा इल्म था दोनों बहनों को। लेकिन कुछ करते-धरते नहीं बनता था इनसे, क्योंकि यदि नए कारिंदे रखतीं तो वे भी उसी थैली के चट्टे-बट्टे साबित होते, इनसे भी ज़्यादा कुटिल व्यवहार करते। इस प्रकार की स्थितियों के कारण वे देखते ही देखते नाम की ही ज़मीन की मालकिन रह गईं। कारिंदों को इनकी वास्तविक आय का ज्ञान था, जिसे बटोरकर वे इन्हें थोड़ा-थोड़ा करके इतना ही देते थे कि वे सम्मान के साथ जीवन बिता सकें।

    हालाँकि कारिंदे समझते थे कि दोनों बहनें ‘नाकारा’ हैं और इन्हें कुछ भी पाने का कोई हक़ नहीं है, फिर भी कुछ कुछ उनकी झोली में डालते रहते। हाँ, इतनी सावधानी ज़रूर बरतनी पड़ती थी कि कहीं दोनों बहनें इतनी नाराज़ हो जाएँ कि भड़क उठें और अपने अधिकारों का प्रयोग करके उनकी जगह दूसरे कारिंदे रख लें। कारिंदों को सबसे बड़ा ख़तरा इस बात का था कि पहले वाले बड़े-बड़े ज़मींदार कहीं चिढ़ जाएँ, उनके चरित्र और स्वभाव से वे भली-भाँति परिचित थे। संपत्तियों की और क़िलों की हालत ख़स्ता थी और वे कौड़ियों के दाम बिक रहे थे, लेकिन दोनों बहनें कारिंदों पर निर्भर थीं, क्योंकि खेती-बाड़ी का कोई इल्म उन्हें था नहीं और इससे भी अधिक वित्तीय मामलों में इनकी कोई गति नहीं थी। अब बुढ़ा भी चली थीं और इतनी चिड़चिड़ी हो गई थीं कि बात-बेबात नौकरों-नौकरानियों पर झल्लाने लगती थीं; इसके बावजूद उन्होंने अपनी सज-धज को नहीं छोड़ा और इज़्ज़त-आबरू को भी बट्टा नहीं लगने दिया। शायद जीवन के आख़िरी दिनों तक इनकी गुज़र-बसर होती रहती, यदि इनके स्वभाव और आकांक्षाओं के विपरीत कुछ परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई होतीं और हालात भी बदल गए होते।

    बीस बरस तक ईंट की चहारदीवारी और उसके भीतर ईंट के ही घर से संगीत की स्वर लहरियाँ सुनाई पड़ती रहीं। उस छोटे कस्बे में गाने-बजाने वाला शायद ही कोई था इसलिए दोनों बहनें युगल-वादन करतीं, फिर कोई संगीत रसिक चिराग ढूँढे भी मिलता। हाँ, लोक-संगीत के पारखी ज़रूर थे, लेकिन धीरे-धीरे पास-पड़ोस के लोग इन बहनों के संगीत से इनकी मनःस्थिति का, इनकी आय के परिणाम का जायज़ा लेते रहते थे और उसी से पता चलता था कि इनका जन्मदिन कब आता है?

    वे यह भी नज़र रखते कि इनसे मिलने-जुलने कौन आता-जाता है? नि:संदेह ये स्वर-लहरियाँ इनके संगीत के टुकड़े मात्र थे, जिनमें विविधता और सहजता थी और इन्हीं से पता चलता था बाहर की दुनिया को कि वे ज़िंदा हैं।

    द्वितीय विश्वयुद्ध ने तो दोनों बहनों को और भी गोशा-नशीं और मोहताज बना दिया। कारिंदों ने जो लूट-खसोट की, उसके लिए वे आकर दलील यह देते थे कि कब्ज़ा जमाने वाली सेनाओं की अपेक्षाओं को पूरा करना पड़ता है। फिर किसान लोग भी लूट-मार कर रहे हैं और बाग़ी लोग भी धर-पकड़ करते रहते हैं। पैसे की तो कीमत ही नहीं रही थी और दोनों बहनों को ज़मीन की पैदावार और एक बूढ़ी औरत के सहारे दिन काटने पड़ रहे थे। इस औरत ने इनके माता-पिता की भी सेवा की थी। दोनों बहनें तो कहीं आती-जाती थीं और यदा-कदा ही कोई परिचित उन दिनों इनसे मिलने आता था। यहाँ तक कि कब्ज़ा ज़माने वाली फ़ौजों ने भी इनके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की, क्योंकि कोई मोरचाबंदी उस छोटे क़स्बे में की नहीं गई थी, जिससे अफ़सरों के लिए कमरे वगैरह हथियाए जाते। केवल संगीत ही ऐसा स्रोत था, जिससे इन बहनों के बारे में कोई जानकारी मिलती रहती थी और यह भी कहा जाता था कि इनका संगीत भी उन दिनों एकदम ठंडा, मंदा और विषण्ण होता चला गया था।

    जब युद्ध समाप्त हुआ और नई क्रांतिकारी सरकार स्थापित हुई, तो ये बहनें और भी गुमनामी में चली गई, क्योंकि अब किसी की कोई दिलचस्पी इनमें नहीं रही थी। क़स्बे के लोगों को अपने ही दुर्भाग्य से पिंड छुड़ाना दुश्वार हो रहा था या वे अपने में ही मगन रहते थे।

    फिर नई कृषि-नीतियों के कारण उन लोगों के पास क़रीब-क़रीब साढ़े सात एकड़ भूमि ही रहने दी गई थी, जो ख़ुद खेती-बाड़ी नहीं करते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों बहनों के पास जो धन-संपत्ति बची रह गई थी, उससे और अपनी सारी आय से वे रातोंरात वंचित हो गईं, लेकिन जब मकानों की कमी पेश आई तो सरकार के इनके घर में जो जगह फ़ालतू पड़ी थी, उसे हथिया लिया। यहाँ आकर पता चला कि दोनों बहनों का क्या हश्र हुआ?

    पास-पड़ोस के लोग देखा करते थे कि कोई किसान है, जो इनके यहाँ आता-जाता है। उसी किसान ने इनकी कुछेक ज़मीन पट्टे पर ले ली थी, जो कृषि सुधार लागू होने के बाद इनके पास बची रह गई थी। वह आता था प्राय: दोपहिया गाड़ी में, कभी-कभी एक छकड़े में बैठकर भी। आकर अहाते का गेट खोलता और घोड़ों को बग़ीचे में खुला छोड़ देता। यह किसान ज़्यादा देर तक तो वहाँ ठहरता नहीं था और लोग देखते थे कि जब वहाँ से निकलता था तो छकड़े पर तिरपाल से कोई चीज़ ढककर ले जा रहा होता। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि एक-दो अन्य किसान उसके संग आते। जब वहाँ से निकलकर जाते तो तिरपाल के नीचे से किसी फ़र्नीचर का कोना दिखाई पड़ता और अंत में एक दिन पियानो की टाँगें भी लोगों ने देखीं।

    विपदा के दिनों में कोई कोई सफी या मसीहा इन्हें हमेशा मिल जाता था—जो या तो कोई किसान होता या कोई दूसरा व्यक्ति। उसी तरह यह ख़रीदार भी मिल गया था इन्हें। एक यही आदमी था, जिसके ऊपर ये बहनें अब भी आश्रित थीं। वह जाता और इनके लिए सौदा-सुल्फ़ वगैरह लेकर आता। बाहरी के साथ वही मसालची का काम भी करता। उसी की मार्फ़त सरकार को सारी जानकारी मिली कि दोनों बहनों का अंत कैसे हुआ, क्योंकि ऐसा कोई आदमी नहीं था, जिसने सरकारी कामों के सिवा उनमें कोई दिलचस्पी ली हो।

    यही किसान था, जो इन बहनों को बताया करता कि इर्द-गिर्द किस क़िस्म के परिवर्तन हो रहे हैं। उनके खाने-पीने का सामान भी वही लाया करता और एवज में ये बहनें उसे वस्त्रों और घरेलू साज-सामान की शक्ल में अदायगी करतीं। अब तो वे पहले से भी कम जान पातीं कि कीमतें किधर जा रही हैं, बाज़ार-मंडी के हालात क्या हैं, दुनिया किधर जा रही है? हमेशा उलझन में रहतीं। बूढ़ी नौकरानी भी चल बसी थी। यह किसान ही उसके शव को लेकर गया था और उसकी अंत्येष्टि का ख़र्च भी उसी ने अपनी गिरह से दिया था।

    कुछ महीनों के बाद यही किसान फ़र्नीचर, घरेलू सामान, झाड़-फानूस, किताबें वगैरह भी ले गया, इन चीज़ों को क़स्बे में ले जाकर उसने औने-पौने दामों पर बेचा, तिस पर भी काफ़ी मुनाफ़ा कमाया। अंतत: उसने बाक़ी बची ज़मीन भी उनसे ख़रीद ली, इसके लिए वह वकील और गवाह भी ले आया था और सारी कार्रवाई उसने कानूनी तरीक़े से पूरी करवा ली थी।

    “वे मुझे”, किसान कहता, “अपना मसीहा समझती थीं और मैं ही हूँ जिसने उनका उद्धार भी किया। वे मुझे ‘हमारा मसीहा’ कहती थीं। मैंने कभी भी उनसे ऐसी कोई चीज़ नहीं ली, जो उन्होंने अपनी इच्छा से मुझे नहीं दी। ज़माना ऐसा आया है कि कोई चीज़ दाम पर नहीं मिलती, आहार मानव जीवन है और केवल उसी का मोल है। मैं उन्हें खिलाता-पिलाता और सब चीज़ों के बारे में बताता, क्योंकि बेचारी लड़कियों को बाहर झाँकने में भी ख़ौफ़ आता था, मानो गलियाँ-कूचे उन्हें काट खाएँगे।”

    “युवक-युवतियाँ आंदोलन करते हुए जब जुलूस बनाकर चलते और गाते हुए जाते तो उनके स्वरों को वे कान लगाकर सुनतीं, उनके प्रयाण गीतों की शब्दावली को समझतीं तो एकाएक रो पड़तीं और सारे घर में बिलखती हुई डोलती रहतीं, ‘दुनिया उलट गई है। दुनिया दरहम-बरहम हो गई है!’ मैं उनसे कहता, ‘प्यारी महिलाओं! दुनिया उलट-पुलट नहीं गई है, तुम बाहर तो कभी निकलती ही नहीं हो, किसी से मिलती-जुलती नहीं हों और अपने माँ-बाप की तरह ही ज़िंदगी बसरकर रही हो।’ और वे जवाब देती थीं। ‘नहीं, नहीं, दुनिया उलट गई है! दुनिया दरहम-बरहम हो गई है!”

    इस किसान ने यह तय पाया था कि साढ़े सात एकड़ ज़मीन का दाम वह क़िस्तों में चुकता करेगा, लेकिन क़िस्तों की रक़म इन स्त्रियों की रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए काफ़ी नहीं थी। किसान भी क़समें खाया करता कि इन्हें वह जो सौदा-सुल्फ़ वगैरह लाकर देता है, उनका दाम काले बाज़ार के दामों से अधिक नहीं लेता, लेकिन जिनके पास आमदनी का कोई निश्चित साधन नहीं था, उन्हें खाने-पीने की ये चीज़ें महँगी लगती थीं, यहाँ तक कि दुर्लभ भी। नतीजतन दोनों बहनों को घर के बर्तन-भांडे तक ठिकाने लगाने को विवश होना पड़ा था।

    “पागल औरतें”, किसान कहता, “हैं तो भली औरतें लेकिन पगला गई हैं। किसी चीज़ के लिए आँसू नहीं टपकाए इन्होंने लेकिन जब पियानो और वायलिन जाने लगीं तो रोना-धोना शुरू कर दिया। मेरा तो मन ही बुझ गया जब मैंने देखा कि अब इनका संगीत कभी सुनाई नहीं देगा लेकिन मैं लाचार था। मेरे भी बीवी-बच्चे हैं, मुसीबत के दिन हैं और मैं भी ग़रीब हूँ। मैं उन्हें सेंत-मेंत में तो कोई चीज़ दे नहीं सकता था। पियानो को लेकर तो मैं मुसीबत में ही फँस गया था।

    युवकों का जो संगठन है न, उसने मुझ पर शक किया। ‘अरे, तू तो किसान है, पियानो कहाँ से उड़ा लाया? ज़रूर ही किसी बुर्जुआ का या किसी दूसरे आदमी का उठाकर लाया होगा, राष्ट्र की संपत्ति में से चुराकर लाया होगा’ मैंने बहुतेरा समझाने की कोशिश की उन्हें, ‘ये उन्होंने ही मुझे दिया है, आप लोग जाकर ख़ुद उनसे दरियाफ्त कर सकते हैं।’ उन्होंने मोल-तोल करके पियानो मुझसे ख़रीद लिया। क़रीब-क़रीब सेंत-मेंत में हथिया लिया। जहाँ तक वायलिन का ताल्लुक है, वह मैंने एक जिप्सी के हाथ बेच दिया, जिप्सी लोग इस तरह की चीज़ों के दीवाने होते हैं और फिर, फिर मुझे कुछ पता नहीं कि उन बहनों का क्या हुआ? अब कोई चीज़ बची नहीं थी, उनके पास जिसे वे बेच खातीं और मुझे डर इस बात का था कि सरकारी कर्मचारी मुझ पर शक-शुबह करेंगे, क्योंकि वे तो बुर्जुआ लोगों से भी गए-बीते हैं, बदतर हैं। इसलिए फिर उधर मैंने मुँह नहीं किया।”

    अब आवास निगम के अधिकारी जब उस घर में गए तो उन्हें कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन दरवाज़े-खिड़कियाँ तोड़ने की नौबत नहीं आई, क्योंकि एक भी खिड़की नहीं बची थी, कोई दरवाज़ा नहीं बचा था। यहाँ तक कि लकड़ी का फ़र्श तक भी नदारद था और दीवारों पर कोट वगैरह टाँगने के जो टांड लगे रहते थे, वे भी उखाड़ लिए गए थे। मकान ख़ाली पड़ा था, कोई दिखाई नहीं पड़ता था। दोनों बहनों के शव मौजूद थे, जो सड़ने-गलने लगे थे। तन के चीवर और बिस्तर के गद्दे तक बिक गए थे। इसके बावजूद वे भूखी-प्यासी मरी थीं, लेकिन दोनों बहनों ने घर के बाहर उस दुनिया में क़दम नहीं रखा, जिसे वे समझ नहीं पाई थीं और जो दुनिया उन्हें समझा नहीं पाई थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 216)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : मिलोवान जिलास
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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