ऐसा लगा जैसे कोई भूली कहानी याद आ गई हो। सारा क़िस्सा नंदू भाई के ई-मेल से शुरू हुआ। नंदू भाई पिछले कई वर्षों से इंडोनेशिया के रमणीय द्वीप सुमात्रा में रह रहे हैं। वहाँ नंदू भाई एक प्रसिद्ध काग़ज़-निर्माण कंपनी में इंजीनियर हैं। सुमात्रा से नंदू भाई ई-मेल से ही रिश्तेदारी निभा लिया करते..
पिछली बार दीपावली पर जब नंदू भाई का 'हैप्पी दीपावली' की ई-मेल आया तो न जाने क्यों इस बार नंदू भाई को बीस वर्ष पहले अपनी नानी और मेरी दादी के गाँव में मनाई गई उस दीपावली का स्मरण हो आया था जब हमने आख़िरी बार दीपावली पर साथ-साथ पटाखे छोड़े थे। लगे हाथ नंदू भाई ने उस जानकीपुल का भी स्मरण कर लिया था, जो उसी साल बनना शुरू हुआ था या कम-से-कम उसका शिलान्यास तो हुआ ही था जो मेरे गाँव मधुवन और शहर सीतामढ़ी के बीच की दूरी को मिटा देने वाला था।...
बीस साल पहले उस गाँव के सपने में एक पुल लहराया था...
नंदू भाई भले मेरे सगे भाई नहीं है। मेरी सगी बुआ के लड़के हैं। मैं उन दिनों अपने गाँव में रहता था। और अपनी साइकिल पर बैठे दस किलोमीटर दूर शहर पढ़ने जाया करता था। दरअसल मेरे गाँव और शहर के बीच एक बाधा थी। नेपाल की नदी बागमती की एक धारा मेरे गाँव और शहर को अलग करती थी। पुल बनते ही वह दूरी घटकर एकाध किलोमीटर रह जाने वाली थी। नदी होने के कारण शहर दूसरी तरफ़ से जाना पड़ता। गर्मियों में जब नदी में पानी कुछ कम होता तो गाँव के कुछ बहादुर नदी तैरकर पार कर जाते और उस पार सीतामढ़ी बाज़ार पहुँच जाते।
उसी साल देश में टेलिविज़न का रंगीन प्रसारण शुरू हुआ था और गाँव के जो लोग शहरों में मारवाड़ी सेठों या साहबों के यहाँ काम करते थे वे बताया करते कि किस तरह रंगीन टी.वी. पर 'हम लोग' देखना या ‘चित्रहार’ देखना बिलकुल वैसे ही लगता है जैसे सेठ भागचंद गोवर्द्धनमल के 'किरण टॉकीज' में सिनेमा देखना लगता है...। सच कहता हूँ तब मुझे अपना गाँव में रहना बेहद सालता था।
बुआजी हर साल दीपावली में एक महीने की छुट्टी मनाने आया करती। नंदू भाई भी साथ में होते। जिस समय मुझे यह ख़बर मिली कि पुल बनने वाला है उस वक़्त नवंबर की दुपहर बुआजी दादी के सफ़ेद बालों को कंघी से सीधा करने में लगी थी। माँ बुआजी के लिए तुलसी का काढ़ा बनाने में लगी थी और मैं नंदू भाई के लिए अमरूद तोड़ने में लगा था। तरह-तरह के अमरूदों के पेड़ थे—कोई ऊपर से तो हरा होता था और अंदर उसका गूदा गुलाबी होता, किसी अमरूद में बीज ही बीज होते तो किसी में बीज ढूँढ़े नहीं मिलते। मैं अमरूदों के उस विचित्र संसार की सैर कर नंदू भाई के साथ कच्चे-पक्के अमरूदों को जेबों में भरकर लौटा तो मैंने देखा दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र, रिटायर्ड हेडमास्टर अपनी आराम-कुर्सी पर उठंगे हुए थे और उनके बग़ल में एक कुर्सी पर मुखियाजी बैठे हुए थे।
“आज पुल का शिलान्यास हो गया।
मैंने सुना मुखिया जी कह रहे थे। दादाजी ने जवाब में टँगी जवाहर लाल नेहरू की धुँधलाई सी तस्वीर की ओर बस देख भर लिया था। मानो उनके प्रति कृतज्ञताज्ञापन कर रहे हों। मैंने नंदू भाई की ओर देखा था, मेरे लिए तब जीवन की सबसे बड़ी ख़बर थी यह, उस पुल के बन जाने के बाद मुझे किसी से भी शरमाने की ज़रूरत नहीं पड़ती यह बताने में कि भले ही मैं शहर के बेहतरीन स्कूल में पढ़ता था और दिन-दिन भर रोज़ाना अपनी एटलस साइकिल से शहर की गलियों की ही ख़ाक छानता रहता लेकिन रहता मैं मधुवन में था—मधुवन जो शहर का कोई मोहल्ला नहीं था बल्कि नदी की दूसरी तरफ़ बसा छोटा-सा गाँव था।
मैं बेहद ख़ुश था। उस रात सोते समय जब नंदू भाई टेलीविज़न पर आने वाले धारावाहिक 'हम लोग' के क़िस्से सुना रहे थे तो मैंने उस रात उनसे कहा था कि उस साल वे मेरे लिए जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी लेकर आए थे...अगले दिन मैं नंदू भाई के साथ शिलान्यास का वह पत्थर देखने भी गया। उस पर लिखा था। 'माननीय सिंचाई मंत्री श्री अशफ़ाक़ ख़ाँ जी के कर-कमलों द्वारा जानकीपुल का शिलान्यास किया गया।' हम दोनों ने काफ़ी देर तक पत्थर छू-छूकर देखा और यह अंदाज़ा लगाते रहे कि कितने दिनों में पुल बन जाएगा।
उन दिनों मैं यानी आदित्य मिश्र शहर के प्रसिद्ध श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में बारहवीं में पढ़ता था। उन दिनों मेरे कई छोटे-छोटे सपने होते थे। जैसे एक सपना यह था कि मेरे पास सीतामढ़ी में रहने के लिए एक घर हो जाए। एक सपना यह था कि मेरे पास भी न सही रंगीन, ब्लैक एंड व्हाइट टेलिविज़न सेट ही हो जाए ताकि मैं भी उस पर किरण टॉकिज की तरह 'हम लोग' और 'चित्रहार' देख सकूँ। मेरे इन सपनों में अक्सर कुछ सपने जुड़ते-घूमते रहते थे। उन दिनों जो सपना मेरे सपनों में आ जुड़ा था वह इला का सपना था—इला चुतुर्वेदी।
इला मेरे ऐसे सपनों में रही जिसे मेरे सिवा सिर्फ़ नंदू भाई ही जानते थे। मैं राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में कला विषय का छात्र था और मेरे टयूशन गुरु मुरली मनोहर झा की उन दिनों इतिहास, राजनीति-विज्ञान, अँगेज़ी जैसे विषयों के पारंगत शिक्षक के रूप में धूम मची थी। उन्हीं दिनों शहर की मशहूर जच्चा-बच्चा विशेषज्ञ डॉक्टरनी मालिनी चतुर्वेदी ने जब प्रोफ़ेसर साहब से अपनी ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की इला को परीक्षाओं तक घर आकर इतिहास और राजनीति विज्ञान पढ़ा जाने का आग्रह किया तो प्रोफ़ेसर साहब ने अपनी व्यस्तताओं का हवाला देते हुए उनके घर आने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। लेकिन साथ-ही-साथ प्रोफ़ेसर साहब ने उन्हें इस बात का पक्का भरोसा दिलाया कि वे गेस पेपर और नोट्स अपने किसी प्रतिभाशाली, योग्य शिष्य के हाथों भिजवा दिया करेंगे। प्रोफ़ेसर साहब ने वह मौक़ा मुझे यह कहते हुए दिया था कि तुम पर बड़ा विश्वास करता हूँ।
सच कहता हूँ मैंने उनका विश्वास कभी नहीं तोड़ा। मैं इला के घर कभी वीरेश्वर प्रसाद सिंह की राजनीतिशास्त्र के सिद्धांत या बी.एन. पांडे का भारत का इतिहास या राय रवींद्र कुमार सिन्हा की पुस्तक भारतीय शासन एवं राजनीति देने-लेने जाया करता या गेस पेपर और नोट्स लेकर जाता। यहाँ मुझे शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए कि जिस समय की मैं बात कर रहा हूँ उस वक़्त तो फ़ोटोस्टेट जैसी सुविधा दिल्ली जैसे शहर में भी इतनी आम नहीं हुआ करती थी। मैं जिस शहर सीतामढ़ी की बात कर रहा हूँ साहब, उस समय पूरे शहर में कुल एक फ़ोटोस्टेट मशीन हुआ करती थी और फ़ोटोस्टेट करवाना तब इतना महँगा पड़ता था कि बड़े-बड़े मारवाड़ी सेठों के लड़के ही उसका लाभ उठाने की अय्याशी कर सकते थे।
इला के घर आने-जाने का मेरा सिलसिला चल पड़ा। मैं एक बार उसके घर नोट्स देने जाता और एक बार नोट्स वापस लेने और फिर नए नोट्स या कोई पुस्तक देने जाता रहता।
इला ने शुरू में दो-एक बार ग्यारह से एक बजे के बीच आने की हिदायत दी लेकिन मैं समझ गया कि उसके घर जाने का सबसे मुफ़ीद समय यही होता था जब उसकी डॉक्टर माँ या तो क्लीनिक में होती थी या अपने पब्लिक प्रासीक्यूटर प्रेमी वाई.एन. निषाद के साथ होती जिसके बारे में शहर भर में अफ़वाह फैली रहती कि कल काले रंग की फिएट में सुरसंड रोड में देखी गई थी या परसों होटल सीतायन में, वग़ैरह-वग़ैरह। इस दौरान उसके वकील पापा विनोद चतुर्वेदी सिविल कोर्ट में मुवक्किल फँसाने में लगे रहते थे...मैं उसी दरम्यान कभी राजनीति विज्ञान, कभी इतिहास के नोट्स या तो देने या लेने जाया करता। वह इसका एहतियात रखती कि चिट्ठी मेरे नोट्स के ही बचे हिस्से पर लिख दिया करती। कभी अलग से उसने कुछ नहीं लिखा।
वह आम तौर पर चिट्ठी-पत्री कुछ इस तरह से लिखती थी जैसे मेरे कपड़ों, मेरी चाल-ढाल, लिखने-पढ़ने आदि की तारीफ़ कर रही हो। वह इसी तरह के कुछ वाक्य अँगेज़ी में लिख दिया करती थी जो कि अक्सर अँगेज़ी के मुहावरे हुआ करते थे ताकि कोई अगर उसे पढ़ भी ले तो कुछ और न समझ ले। मैं ही उसे और-और समझाता रहा...उसके उन मुहावरेनुमा पत्रों को पढ़ने के चक्कर में उन्हीं-उन्हीं नोट्स को बार-बार पढ़ता रहा मानो मुझे बारहवीं का नहीं ग्यारहवीं का पर्चा देना हो।
उन सारे सपनों में जुड़ा सबसे नया सपना था—जानकीपुल।
शहर के एस.डी.ओ. साहब के अर्दली रामप्रकाश, जो हमारे ही गाँव का था, ने जो ख़बर दी थी उसके मुताबिक पुल का शिलान्यास भले ही सिंचाई मंत्री अशफ़ाक़ ख़ाँ के हाथों हुआ हो लेकिन इस पुल के बनाने की असल ज़िद तो शहर के कलेक्टर साहब ए.के. सिन्हा की पत्नी डॉ. रेखा सिन्हा ने ठानी थी। रेखा सिन्हा असल में तो साहित्य की डॉक्टर थी यानी हिंदी साहित्य की पी.एच.डी. थी और स्त्रीवादी रुझानों के कारण माँ जानकी या सीता की अनन्य भक्तिनी थी। माँ सीता की जन्मभूमि में ही अपने पति के पदस्थापन को वे माँ जानकी की असीम अनुकंपा ही मानती थीं और इसलिए एक भी दिन वे बिना उनके दर्शन के नहीं बिताना चाहती थीं। उन्होंने ही एक दिन अपने पति को नाश्ते के वक़्त यह सुझाव दिया था कि इस नदी पर अगर एक छोटा-सा पुल बन जाए तो माँ सीता की जन्मभूमि जाकर दर्शन करने में बड़ी सुविधा हो जाएगी।
माँ जानकी की जन्मस्थली नदी के दूसरी ओर तो दो किलोमीटर ही थी, लेकिन दूसरी ओर से आने में लगभग एक घंटा लग जाता था और रोज़-रोज़ आना संभव नहीं हो पाता था...
कलेक्टर साहब को सुझाव पसंद आ गया था। उन्होंने आनन-फ़ानन में शिलान्यास करवा दिया था। योजना थी अगले बजट तक पुल बनाने का काम शुरू हो जाएगा...
सारा मधुवन गाँव जानकीपुल के सपने में जीने लगा था। पक्की सड़क कुछ साल पहले ही बन चुकी थी और तभी से गाँव वालों की उम्मीद जगी थी कि अब उनके गाँव और शहर की दूरी ख़त्म हो जाएगी...
पुल के शिलान्यास की ख़बर के बाद मेरे दादाजी बड़े आशावादी हो चले थे। सतहत्तर के चुनाव में वहाँ महंत केशवानंद गिरि सांसद बने, जिनके बारे में बाद में यह कहा गया ‘वे आँधी की तरह आए और तूफ़ान की तरह चले गए'। उन्हीं महंत जी ने और कुछ किया हो या न किया हो पर न जाने क्यों चुनाव-प्रसार के दौरान मधुवन गाँव के निवासियों से यह वादा कर आए थे कि अगर वे चुनाव जीत गए तो उस गाँव में ज़रूर पक्की कोलतार की सड़क बनवा देंगे और सबसे आश्चर्यजनक रहा कि न जाने क्यों चुनाव जीतने के बाद उन्होंने जाते-जाते सड़क बनवाने का अपना वादा पूरा भी कर दिया। अगर वे कुछ दिन और सांसद रहे होते तो उन्होंने ज़रूर वहाँ पुल भी बनवा दिया होता। लेकिन एक तो चुनाव जल्दी हो गए और दूसरे वे चुनाव भी नहीं जीत पाए।
जब तक पक्की सड़क नहीं बनी थी। मधुवन गाँव के लोग बड़े संतोषपूर्वक रहते और नदी के उस पार के जीवन को शहर का जीवन मानते और अपने जीवन को ग्रामीण और बड़े संतोषपूर्वक अपना सुख-दुख जीते। कोलतार की उस पक्की सड़क ने उनके मन को उम्मीदों से भर दिया था। दादाजी से मिलने कभी-कभी जब गाँव के एकमात्र रायबहादुर अलख नारायण सिंह आते तो यह चर्चा उनके बीच होती कि अब बस पुल की कमी है और हमारा गाँव किस मामले में शहर सीतामढ़ी से कम रह जाएगा? राय साहब चाय की चुस्कियों के बीच कहते, मेरे जीते-जी बिजली आई। पानी पटाने का बोरिंग आया, अब सड़क भी आ ही गई है तो तो पुल भी बन ही जाएगा।” दादाजी भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते।
भले ही महंत जी संसद का चुनाव हार गए लेकिन मधुवन वालों की आँखों में उम्मीद छोड़ गए थे। सपना छोड़ गए थे...
अब पुल का शिलायान्स तो जैसे उस सपने को सच में ही बदलने वाला था। मैंने पढ़ रखा था कि ऐसा सपना जिसे बहुत सारी आँखें एक साथ देखने लगें तो वह सपना नहीं रहता। वह सच हो जाता है...
जानकीपुल उस गाँव का ऐसा सपना बन गया था जो बस सच होने ही वाला था।
गाँव के बीचोंबीच एक पीपल का पेड़ था—पक्की सड़के के ठीक किनारे। गाँववाले पीपल को पाकड़ कहते थे और भविष्य के शहर का ख़याल करके उस जगह को उन्होंने चौक बना डाला और उसका नाम रख दिया—पाकड़ चौक। वहाँ पर बरसों से गाँव के रिक्शा चलानेवालों, बाज़ार में दिहाड़ी कमाने वालों को काशी चायवाला चाय पिलाया करता था और चाय के साथ खाने के लिए बिस्कुट वग़ैरह भी रखा करता था। उसने अपनी बाँस की खपच्चियों की जोड़ी हुई दुकान के बाहर शहर सीतामढ़ी के दूकानदारों की तर्ज़ पर टिन का साइनबोर्ड लगवा लिया था और उस पर लिखवा लिया था—'काशी की प्रसिद्ध चाय की दुकान, मेन रोड, मधुवन।' बस इंतिज़ार इसी का था कि एक बार जानकीपुल बन जाए और मेन रोड, मधुवन मेन रोड, सीतामढ़ी का हिस्सा बन जाए।
गाँव भर में पुल बन जाने के बाद के जीवन को लेकर चर्चाएँ चलती रहती थीं, योजनाएँ बनती रहती थीं। कोई अपनी ज़मीन पर मार्केट बनवाना चाहता था, कोई अपनी दुकान के आगे और पीछे घर बनवाना चाहता था। कभी ख़बर आती कि पटना के एक प्रसिद्ध स्कूल के मालिक आए थे, स्कूल के लिए ज़मीन ख़रीदने। कभी ख़बर आती कि शहर के एक प्रसिद्ध डॉक्टर वहाँ ज़मीन देखने आए थे, शायद नर्सिंग होम खोलना चाहते थे।
कुल मिलाकर, यही लग रहा था कि बस पुल बन जाए उसके बाद देखिए क्या-क्या होता है मधुवन में। दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र ने अपनी कुछ अलग ही योजना बना रखी थी। मेरे पशु-चिकित्सा अधिकारी पिता जब छुट्टियों में आते तो दादाजी समझाते कि 'एक एकड़ ज़मीन है नदी के पास सड़क किनारे अपनी। बेच के बैंक में रख देंगे पैसा। दो-एक पीढ़ी तो बैठकर खाएगी ही।'
मैं उस दरम्यान जब भी इला के यहाँ नोट्स लेने-देने जाता या डायमंड क्रिकेट क्लब के बाक़ायदा सदस्य की हैसियत से क्रिकेट खेलने जाता तो बात-बात में उन सबको अपने गाँव में बन रहे पुल के बारे में बताता। इला अक्सर कहती कि अच्छा है एक बार पुल बन जाए तो मैं तुम्हारे गाँव गन्ना खाने आऊँगी या कभी आँवले का पेड़ देखने की बात कहती। जवाब में मैं कहता तब हमारा गाँव, गाँव थोड़े ही रह जाएगा। इला आश्चर्य से पूछती कि जब यह भी नहीं रह जाएगा तुम्हारे गाँव में तो क्या बाक़ी रह जाएगा वहाँ? मैं सोचता रह जाता था।
मेरी बारहवीं की परीक्षा आ गई। इला की ग्यारहवीं की। दोनों ही अच्छे नंबरों से पास हुए। इला बारहवीं में आ गई लेकिन उसकी बारहवीं में नोट्स पहुँचाने, किताब पहुँचाने के लिए मैं सीतामढ़ी में नहीं रह पाया। मैं आगे की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली आ गया।
यह बात बीस साल पहले की है।
अब मैं नंदू भाई को क्या बताता कि इन बीस सालों में क्या-क्या हुआ! पुल के बारे में तो मैं भी भूल चुका था। उनको पता नहीं कैसे सुमात्रा में बैठे-बैठे जानकीपुल की याद आ गई थी।
हुआ यह कि कलेक्टर ए.के. सिन्हा साहब का तबादला हो गया और उनकी पत्नी पुल पारकर जानकी जन्मभूमि देखने का सपना सँजोए ही रह गईं। उसके बाद जब भी मैं दीपावली के आस-पास छुट्टियाँ बिताने गाँव आता तो यही ख़बर सुनता कि अगले बजट में पुल ज़रूर बन जाएगा। हर साल जब बजट का पैसा आता तो नदी में बाढ़ आ जाती और जब बाढ़ का पानी उतरता तो बजट समाप्त हो चुका होता था। इस प्रकार हर साल जानकीपुल का निर्माण कार्य अगले बजट तक के लिए टल जाता।
छुट्टियों में जाता तो इला से मिलने का कोई बहाना नहीं रहता था। उसके पास तो फ़ोन था लेकिन तब आज की तरह गली-गली पी.सी.ओ. बूथ नहीं खुले हुए थे कि आप गए दो रुपए दिए और फ़ोन पर बात हो गई। तब फ़ोन बड़े-बड़े लोगों के ही पास होता था। मैं गाँव में रहता था और मेरे पास फ़ोन होने का सवाल ही नहीं उठता था। दिल्ली जाने के कुछ साल बाद जब मैंने अपने दोस्त श्रीवल्लभ के घर से पहली बार इला को फ़ोन किया तो पता चला उसकी
शादी अमेरिका में रह रहे किसी सॉफ्टवेयर इंजीनियर से तय हो गई थी। उसने मुझे मिलने के लिए बुलाया। समय तब भी ग्यारह से एक का ही रहा। उसे शायद अच्छा लगा हो कि इतने साल दिल्ली रहने के बाद भी मैं उसे भूला नहीं था और उसके एक बार कहने पर ही तत्काल उससे मिलने पहुँच गया। उस मुलाक़ात में मैंने उससे कुछ निशानी माँगी थी। आख़िरी ताकि उसकी याद रहे। उसने अपनी तस्वीर पीछे 'विद बेस्ट विशेज़' लिखकर मुझे दिया। मैंने भी अपनी तस्वीर उसे देनी चाही तो उसने हँसते हुए कहा, इतना छोटा-सा तो तुम्हारा चेहरा है, हमेशा मेरे दिल में बसा रहेगा। मैं जेब में उसकी तस्वीर सँभाले लौट आया था।
वह इला से मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी। न मेरे गाँव में पुल बना न वह उसे पार कर गन्ना खाने, आँवला खाने वहाँ आ पाई। वह अमेरिका चली गई। हडसन और मिसीसीपी नदी पर बने पुलों को पार करते हुए...
नंदू भाई हाँगकाँग चले गए थे। इसी बीच दादाजी का देहांत हो गया था और मरते वक़्त उन्होंने मेरे रिटायर्ड हो चुके पशु-चिकित्सक पिता की आँखों को अपना सपना दे दिया था। उन्होंने कहा था कि पुल बनेगा ज़रूर इसलिए ज़मीन बेचने में हड़बड़ी मत करना। इन दिनों पिताजी गाँव में रहते थे और आस-पास के इलाक़े में पशुओं के अचूक चिकित्सक के रूप में जाने जाते थे।
बुआजी नागपुर में बस गई थीं, चाचाजी लखनऊ में, मामा कलकत्ता में, दीदी बिलासपुर में। सब टेलीफ़ोन से रिश्तेदारी निभाते रहते थे। नदी पर पुल नहीं बना तो क्या उन्होंने टेलीफ़ोन के ही पुल बना लिए थे।
नंदू भाई से काफ़ी दिनों तक कोई संपर्क नहीं रह गया था। भला हो इंटरनेट का, पिछले चार-पाँच सालों से उसने हम भाई-बहनों को फिर से जोड़ दिया था। मैंने नंदू भाई को ई-मेल किया था कि दिल्ली में पिछले चार-पाँच सालों में इतने फ्लाईओवर बन चुके हैं कि पहचानना मुश्किल पड़ जाएगा।
ऐसा नहीं है कि इन बीस सालों में मधुवन गाँव के लोग उस पुल को भूल गए हों। इस बीच गाँव में हाथ-हाथ मोबाइल आ गया था, रंगीन टेलीविज़न आ गया था, सामूहिक जेनेरेटर आ गया था, स्कूल खुल चुका था और जानकीपुल...
कई बरसों बाद जब मैं पिछली बार दीपावली पर घर गया था तो पिताजी ने बताया था कि अगले बजट में पक्का बन जाएगा...
सोच रहा हूँ नंदू भाई को यही ई-मेल कर दूँ। गाँव में अब भी लोग पाकड़ चौक पर बैठते हैं तो जानकीपुल की चर्चा चल पड़ती है। भले ही उसका शिलान्यास का पत्थर अब पहचाना नहीं जाता और वह सड़क जिसने पुल का सपना गाँववालों की आँखों में भरा था, वह भी जगह-जगह से टूटकर बदशक्ल हो चुकी थी। गाँववाले अब भी यही सोचते हैं कि एक बार पुल बन जाए सब ठीक हो जाएगा—जानकीपुल।
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pichhli baar dipavali par jab nandu bhai ka happy dipavali ki i mel aaya to na jane kyon is baar nandu bhai ko bees varsh pahle apni nani aur meri dadi ke gaanv mein manai gai us dipavali ka smarn ho aaya tha jab hamne akhiri baar dipavali par saath saath patakhe chhoDe the. lage haath nandu bhai ne us jankipul ka bhi smarn kar liya tha, jo usi saal banna shuru hua tha ya kam se kam uska shilanyas to hua hi tha jo mere gaanv madhuvan aur shahr sitamDhi ke beech ki duri ko mita dene vala tha. . . .
bees saal pahle us gaanv ke sapne mein ek pul lahraya tha. . .
nandu bhai bhale mere sage bhai nahin hai. meri sagi bua ke laDke hain. main un dinon apne gaanv mein rahta tha. aur apni cycle par baithe das kilomitar door shahr paDhne jaya karta tha. darasal mere gaanv aur shahr ke beech ek badha thi. nepal ki nadi bagamti ki ek dhara mere gaanv aur shahr ko alag karti thi. pul bante hi wo duri ghatkar ekaadh kilomitar rah jane vali thi. nadi hone ke karan shahr dusri taraf se jana paDta. garmiyon mein jab nadi mein pani kuch kam hota to gaanv ke kuch bahadur nadi tairkar paar kar jate aur us paar sitamDhi bazar pahunch jate.
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buaji har saal dipavali mein ek mahine ki chhutti manane aaya karti. nandu bhai bhi saath mein hote. jis samay mujhe ye khabar mili ki pul banne vala hai us vaqt november ki duphar buaji dadi ke safed balon ko kanghi se sidha karne mein lagi thi. maan buaji ke liye tulsi ka kaDha banane mein lagi thi aur main nandu bhai ke liye amrud toDne mein laga tha. tarah tarah ke amrudon ke peD the—koi upar se to hara hota tha aur andar uska guda gulabi hota, kisi amrud mein beej hi beej hote to kisi mein beej DhunDhe nahin milte. main amrudon ke us vichitr sansar ki sair kar nandu bhai ke saath kachche pakke amrudon ko jebon mein bharkar lauta to mainne dekha dadaji bulaki parsad mishr, ritayarD headmaster apni aram kursi par uthange hue the aur unke baghal mein ek kursi par mukhiyaji baithe hue the.
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mainne suna mukhiya ji kah rahe the. dadaji ne javab mein tangi javahar laal nehru ki dhundhlai si tasvir ki or bus dekh bhar liya tha. mano unke prati kritagytagyapan kar rahe hon. mainne nandu bhai ki or dekha tha, mere liye tab jivan ki sabse baDi khabar thi ye, us pul ke ban jane ke baad mujhe kisi se bhi sharmane ki zarurat nahin paDti ye batane mein ki bhale hi main shahr ke behtarin school mein paDhta tha aur din din bhar rozana apni atlas cycle se shahr ki galiyon ki hi khaak chhanta rahta lekin rahta main madhuvan mein tha—madhuvan jo shahr ka koi mohalla nahin tha balki nadi ki dusri taraf bsa chhota sa gaanv tha.
main behad khush tha. us raat sote samay jab nandu bhai telivizan par aane vale dharavahik hum log ke qisse suna rahe the to mainne us raat unse kaha tha ki us saal ve mere liye jivan ki sabse baDi khushi lekar aaye the. . . agle din main nandu bhai ke saath shilanyas ka wo patthar dekhne bhi gaya. us par likha tha. mananiy sinchai mantri shri ashfaq khaan ji ke kar kamlon dvara jankipul ka shilanyas kiya gaya. hum donon ne kafi der tak patthar chhu chhukar dekha aur ye andaza lagate rahe ki kitne dinon mein pul ban jayega.
un dinon main yani aditya mishr shahr ke prasiddh shri radhakrishn goyanka mahavidyalay mein barahvin mein paDhta tha. un dinon mere kai chhote chhote sapne hote the. jaise ek sapna ye tha ki mere paas sitamDhi mein rahne ke liye ek ghar ho jaye. ek sapna ye tha ki mere paas bhi na sahi rangin, black enD white telivizan set hi ho jaye taki main bhi us par kiran taukij ki tarah hum log aur chitrhar dekh sakun. mere in sapnon mein aksar kuch sapne juDte ghumte rahte the. un dinon jo sapna mere sapnon mein aa juDa tha wo ila ka sapna tha—ila chuturvedi.
ila mere aise sapnon mein rahi jise mere siva sirf nandu bhai hi jante the. main radhakrishn goyanka mahavidyalay mein kala vishay ka chhaatr tha aur mere tayushan guru murli manohar jha ki un dinon itihas, rajaniti vigyan, angezi jaise vishyon ke parangat shikshak ke roop mein dhoom machi thi. unhin dinon shahr ki mashhur jachcha bachcha visheshagya Dauktarni malini chaturvedi ne jab professor sahab se apni gyarahvin kaksha mein paDhne vali laDki ila ko parikshaon tak ghar aakar itihas aur rajaniti vigyan paDha jane ka agrah kiya to professor sahab ne apni vyasttaon ka havala dete hue unke ghar aane mein apni asmarthata vyakt kar di thi. lekin saath hi saath professor sahab ne unhen is baat ka pakka bharosa dilaya ki ve guess paper aur nots apne kisi pratibhashali, yogya shishya ke hathon bhijva diya karenge. professor sahab ne wo mauqa mujhe ye kahte hue diya tha ki tum par baDa vishvas karta hoon.
sach kahta hoon mainne unka vishvas kabhi nahin toDa. main ila ke ghar kabhi vireshvar parsad sinh ki rajnitishastr ke siddhant ya b. en. panDe ka bharat ka itihas ya raay ravindr kumar sinha ki pustak bharatiy shasan evan rajaniti dene lene jaya karta ya guess paper aur nots lekar jata. yahan mujhe shayad ye batane ki avashyakta nahin paDni chahiye ki jis samay ki main baat kar raha hoon us vaqt to fotostet jaisi suvidha dilli jaise shahr mein bhi itni aam nahin hua karti thi. main jis shahr sitamDhi ki baat kar raha hoon sahab, us samay pure shahr mein kul ek fotostet machine hua karti thi aur fotostet karvana tab itna mahnga paDta tha ki baDe baDe maravaDi sethon ke laDke hi uska laabh uthane ki ayyashi kar sakte the.
ila ke ghar aane jane ka mera silsila chal paDa. main ek baar uske ghar nots dene jata aur ek baar nots vapas lene aur phir nae nots ya koi pustak dene jata rahta.
ila ne shuru mein do ek baar gyarah se ek baje ke beech aane ki hidayat di lekin main samajh gaya ki uske ghar jane ka sabse mufid samay yahi hota tha jab uski doctor maan ya to klinik mein hoti thi ya apne public prasikyutar premi y. en. nishad ke saath hoti jiske bare mein shahr bhar mein afvah phaili rahti ki kal kale rang ki phiyet mein sursanD roD mein dekhi gai thi ya parson hotel sitayan mein, vaghairah vaghairah. is dauran uske vakil papa vinod chaturvedi sivil court mein muvakkil phansane mein lage rahte the. . . main usi daramyan kabhi rajaniti vigyan, kabhi itihas ke nots ya to dene ya lene jaya karta. wo iska ehtiyat rakhti ki chitthi mere nots ke hi bache hisse par likh diya karti. kabhi alag se usne kuch nahin likha.
wo aam taur par chitthi patri kuch is tarah se likhti thi jaise mere kapDon, meri chaal Dhaal, likhne paDhne aadi ki tarif kar rahi ho. wo isi tarah ke kuch vaaky angezi mein likh diya karti thi jo ki aksar angezi ke muhavare hua karte the taki koi agar use paDh bhi le to kuch aur na samajh le. main hi use aur aur samjhata raha. . . uske un muhavrenuma patron ko paDhne ke chakkar mein unhin unhin nots ko baar baar paDhta raha mano mujhe barahvin ka nahin gyarahvin ka parcha dena ho.
un sare sapnon mein juDa sabse naya sapna tha—jankipul.
shahr ke s. d. o. sahab ke ardali ramaprkash, jo hamare hi gaanv ka tha, ne jo khabar di thi uske mutabik pul ka shilanyas bhale hi sinchai mantri ashfaq khaan ke hathon hua ho lekin is pul ke banane ki asal zid to shahr ke collector sahab e. ke. sinha ki patni Dau. rekha sinha ne thani thi. rekha sinha asal mein to sahity ki doctor thi yani hindi sahity ki pi. ech. d. thi aur strivadi rujhanon ke karan maan janki ya sita ki anany bhaktini thi. maan sita ki janmabhumi mein hi apne pati ke padasthapan ko ve maan janki ki asim anukampa hi manti theen aur isliye ek bhi din ve bina unke darshan ke nahin bitana chahti theen. unhonne hi ek din apne pati ko nashte ke vaqt ye sujhav diya tha ki is nadi par agar ek chhota sa pul ban jaye to maan sita ki janmabhumi jakar darshan karne mein baDi suvidha ho jayegi.
maan janki ki janmasthli nadi ke dusri or to do kilomitar hi thi, lekin dusri or se aane mein lagbhag ek ghanta lag jata tha aur roz roz aana sambhav nahin ho pata tha. . .
collector sahab ko sujhav pasand aa gaya tha. unhonne aanan fanan mein shilanyas karva diya tha. yojna thi agle budget tak pul banane ka kaam shuru ho jayega. . .
sara madhuvan gaanv jankipul ke sapne mein jine laga tha. pakki saDak kuch saal pahle hi ban chuki thi aur tabhi se gaanv valon ki ummid jagi thi ki ab unke gaanv aur shahr ki duri khatm ho jayegi. . .
pul ke shilanyas ki khabar ke baad mere dadaji baDe ashavadi ho chale the. sathattar ke chunav mein vahan mahant keshvanand giri sansad bane, jinke bare mein baad mein ye kaha gaya ‘ve andhi ki tarah aaye aur tufan ki tarah chale gaye. unhin mahant ji ne aur kuch kiya ho ya na kiya ho par na jane kyon chunav prasar ke dauran madhuvan gaanv ke nivasiyon se ye vada kar aaye the ki agar ve chunav jeet gaye to us gaanv mein zarur pakki koltar ki saDak banva denge aur sabse ashcharyajnak raha ki na jane kyon chunav jitne ke baad unhonne jate jate saDak banvane ka apna vada pura bhi kar diya. agar ve kuch din aur sansad rahe hote to unhonne zarur vahan pul bhi banva diya hota. lekin ek to chunav jaldi ho gaye aur dusre ve chunav bhi nahin jeet pae.
jab tak pakki saDak nahin bani thi. madhuvan gaanv ke log baDe santoshpurvak rahte aur nadi ke us paar ke jivan ko shahr ka jivan mante aur apne jivan ko gramin aur baDe santoshpurvak apna sukh dukh jite. koltar ki us pakki saDak ne unke man ko ummidon se bhar diya tha. dadaji se milne kabhi kabhi jab gaanv ke ekmaatr rayabhadur alakh narayan sinh aate to ye charcha unke beech hoti ki ab bus pul ki kami hai aur hamara gaanv kis mamle mein shahr sitamDhi se kam rah jayega? raay sahab chaay ki chuskiyon ke beech kahte, mere jite ji bijli i. pani patane ka boring aaya, ab saDak bhi aa hi gai hai to to pul bhi ban hi jayega. ” dadaji bhi unki haan mein haan milate.
bhale hi mahant ji sansad ka chunav haar gaye lekin madhuvan valon ki ankhon mein ummid chhoD gaye the. sapna chhoD gaye the. . .
ab pul ka shilayans to jaise us sapne ko sach mein hi badalne vala tha. mainne paDh rakha tha ki aisa sapna jise bahut sari ankhen ek saath dekhne lagen to wo sapna nahin rahta. wo sach ho jata hai. . .
jankipul us gaanv ka aisa sapna ban gaya tha jo bus sach hone hi vala tha.
gaanv ke bichombich ek pipal ka peD tha—pakki saDke ke theek kinare. ganvvale pipal ko pakaD kahte the aur bhavishya ke shahr ka khayal karke us jagah ko unhonne chauk bana Dala aur uska naam rakh diya—pakaD chauk. vahan par barson se gaanv ke rickshaw chalanevalon, bazar mein dihaDi kamane valon ko kashi chayvala chaay pilaya karta tha aur chaay ke saath khane ke liye biscuit vaghairah bhi rakha karta tha. usne apni baans ki khapachchiyon ki joDi hui dukan ke bahar shahr sitamDhi ke dukandaron ki tarz par tin ka sainborD lagva liya tha aur us par likhva liya tha—kashi ki prasiddh chaay ki dukan, men roD, madhuvan. bus intizar isi ka tha ki ek baar jankipul ban jaye aur men roD, madhuvan men roD, sitamDhi ka hissa ban jaye.
gaanv bhar mein pul ban jane ke baad ke jivan ko lekar charchayen chalti rahti theen, yojnayen banti rahti theen. koi apni zamin par market banvana chahta tha, koi apni dukan ke aage aur pichhe ghar banvana chahta tha. kabhi khabar aati ki patna ke ek prasiddh school ke malik aaye the, school ke liye zamin kharidne. kabhi khabar aati ki shahr ke ek prasiddh doctor vahan zamin dekhne aaye the, shayad narsing hom kholana chahte the.
kul milakar, yahi lag raha tha ki bus pul ban jaye uske baad dekhiye kya kya hota hai madhuvan mein. dadaji bulaki parsad mishr ne apni kuch alag hi yojna bana rakhi thi. mere pashu chikitsa adhikari pita jab chhuttiyon mein aate to dadaji samjhate ki ek acre zamin hai nadi ke paas saDak kinare apni. bech ke baink mein rakh denge paisa. do ek piDhi to baithkar khayegi hi.
main us daramyan jab bhi ila ke yahan nots lene dene jata ya DaymanD cricket club ke baqayda sadasy ki haisiyat se cricket khelne jata to baat baat mein un sabko apne gaanv mein ban rahe pul ke bare mein batata. ila aksar kahti ki achchha hai ek baar pul ban jaye to main tumhare gaanv ganna khane aungi ya kabhi anvale ka peD dekhne ki baat kahti. javab mein main kahta tab hamara gaanv, gaanv thoDe hi rah jayega. ila ashchary se puchhti ki jab ye bhi nahin rah jayega tumhare gaanv mein to kya baqi rah jayega vahan? main sochta rah jata tha.
meri barahvin ki pariksha aa gai. ila ki gyarahvin ki. donon hi achchhe nambron se paas hue. ila barahvin mein aa gai lekin uski barahvin mein nots pahunchane, kitab pahunchane ke liye main sitamDhi mein nahin rah paya. main aage ki paDhai karne ke liye dilli aa gaya.
ye baat bees saal pahle ki hai.
ab main nandu bhai ko kya batata ki in bees salon mein kya kya hua! pul ke bare mein to main bhi bhool chuka tha. unko pata nahin kaise sumatra mein baithe baithe jankipul ki yaad aa gai thi.
hua ye ki collector e. ke. sinha sahab ka tabadla ho gaya aur unki patni pul parker janki janmabhumi dekhne ka sapna sanjoe hi rah gain. uske baad jab bhi main dipavali ke aas paas chhuttiyan bitane gaanv aata to yahi khabar sunta ki agle budget mein pul zarur ban jayega. har saal jab budget ka paisa aata to nadi mein baaDh aa jati aur jab baaDh ka pani utarta to budget samapt ho chuka hota tha. is prakar har saal jankipul ka nirman kaary agle budget tak ke liye tal jata.
chhuttiyon mein jata to ila se milne ka koi bahana nahin rahta tha. uske paas to phone tha lekin tab aaj ki tarah gali gali pi. si. o. booth nahin khule hue the ki aap gaye do rupae diye aur phone par baat ho gai. tab phone baDe baDe logon ke hi paas hota tha. main gaanv mein rahta tha aur mere paas phone hone ka saval hi nahin uthta tha. dilli jane ke kuch saal baad jab mainne apne dost shrivallabh ke ghar se pahli baar ila ko phone kiya to pata chala uski
shadi amerika mein rah rahe kisi sauphtveyar injiniyar se tay ho gai thi. usne mujhe milne ke liye bulaya. samay tab bhi gyarah se ek ka hi raha. use shayad achchha laga ho ki itne saal dilli rahne ke baad bhi main use bhula nahin tha aur uske ek baar kahne par hi tatkal usse milne pahunch gaya. us mulaqat mein mainne usse kuch nishani mangi thi. akhiri taki uski yaad rahe. usne apni tasvir pichhe vid best vishez likhkar mujhe diya. mainne bhi apni tasvir use deni chahi to usne hanste hue kaha, itna chhota sa to tumhara chehra hai, hamesha mere dil mein bsa rahega. main jeb mein uski tasvir sambhale laut aaya tha.
wo ila se meri akhiri mulaqat thi. na mere gaanv mein pul bana na wo use paar kar ganna khane, anvla khane vahan aa pai. wo amerika chali gai. haDsan aur misisipi nadi par bane pulon ko paar karte hue. . .
nandu bhai hangakang chale gaye the. isi beech dadaji ka dehant ho gaya tha aur marte vaqt unhonne mere ritayarD ho chuke pashu chikitsak pita ki ankhon ko apna sapna de diya tha. unhonne kaha tha ki pul banega zarur isliye zamin bechne mein haDbaDi mat karna. in dinon pitaji gaanv mein rahte the aur aas paas ke ilaqe mein pashuon ke achuk chikitsak ke roop mein jane jate the.
buaji nagpur mein bus gai theen, chachaji lucknow mein, mama kalkatta mein, didi bilaspur mein. sab telephone se rishtedari nibhate rahte the. nadi par pul nahin bana to kya unhonne telephone ke hi pul bana liye the.
nandu bhai se kafi dinon tak koi sampark nahin rah gaya tha. bhala ho intarnet ka, pichhle chaar paanch salon se usne hum bhai bahnon ko phir se joD diya tha. mainne nandu bhai ko i mel kiya tha ki dilli mein pichhle chaar paanch salon mein itne phlaiovar ban chuke hain ki pahchanna mushkil paD jayega.
aisa nahin hai ki in bees salon mein madhuvan gaanv ke log us pul ko bhool gaye hon. is beech gaanv mein haath haath mobile aa gaya tha, rangin telivizan aa gaya tha, samuhik jeneretar aa gaya tha, school khul chuka tha aur jankipul. . .
kai barson baad jab main pichhli baar dipavali par ghar gaya tha to pitaji ne bataya tha ki agle budget mein pakka ban jayega. . .
soch raha hoon nandu bhai ko yahi i mel kar doon. gaanv mein ab bhi log pakaD chauk par baithte hain to jankipul ki charcha chal paDti hai. bhale hi uska shilanyas ka patthar ab pahchana nahin jata aur wo saDak jisne pul ka sapna ganvvalon ki ankhon mein bhara tha, wo bhi jagah jagah se tutkar badshakl ho chuki thi. ganvvale ab bhi yahi sochte hain ki ek baar pul ban jaye sab theek ho jayega—jankipul.
aisa laga jaise koi bhuli kahani yaad aa gai ho. sara qissa nandu bhai ke i mel se shuru hua. nandu bhai pichhle kai varshon se inDoneshiya ke ramnaiy dveep sumatra mein rah rahe hain. vahan nandu bhai ek prasiddh kaghaz nirman kampni mein injiniyar hain. sumatra se nandu bhai i mel se hi rishtedari nibha liya karte. .
pichhli baar dipavali par jab nandu bhai ka happy dipavali ki i mel aaya to na jane kyon is baar nandu bhai ko bees varsh pahle apni nani aur meri dadi ke gaanv mein manai gai us dipavali ka smarn ho aaya tha jab hamne akhiri baar dipavali par saath saath patakhe chhoDe the. lage haath nandu bhai ne us jankipul ka bhi smarn kar liya tha, jo usi saal banna shuru hua tha ya kam se kam uska shilanyas to hua hi tha jo mere gaanv madhuvan aur shahr sitamDhi ke beech ki duri ko mita dene vala tha. . . .
bees saal pahle us gaanv ke sapne mein ek pul lahraya tha. . .
nandu bhai bhale mere sage bhai nahin hai. meri sagi bua ke laDke hain. main un dinon apne gaanv mein rahta tha. aur apni cycle par baithe das kilomitar door shahr paDhne jaya karta tha. darasal mere gaanv aur shahr ke beech ek badha thi. nepal ki nadi bagamti ki ek dhara mere gaanv aur shahr ko alag karti thi. pul bante hi wo duri ghatkar ekaadh kilomitar rah jane vali thi. nadi hone ke karan shahr dusri taraf se jana paDta. garmiyon mein jab nadi mein pani kuch kam hota to gaanv ke kuch bahadur nadi tairkar paar kar jate aur us paar sitamDhi bazar pahunch jate.
usi saal desh mein telivizan ka rangin prasaran shuru hua tha aur gaanv ke jo log shahron mein maravaDi sethon ya sahbon ke yahan kaam karte the ve bataya karte ki kis tarah rangin t. vi. par hum log dekhana ya ‘chitrhar’ dekhana bilkul vaise hi lagta hai jaise seth bhagchand govarddhanmal ke kiran talkies mein cinema dekhana lagta hai. . . . sach kahta hoon tab mujhe apna gaanv mein rahna behad salta tha.
buaji har saal dipavali mein ek mahine ki chhutti manane aaya karti. nandu bhai bhi saath mein hote. jis samay mujhe ye khabar mili ki pul banne vala hai us vaqt november ki duphar buaji dadi ke safed balon ko kanghi se sidha karne mein lagi thi. maan buaji ke liye tulsi ka kaDha banane mein lagi thi aur main nandu bhai ke liye amrud toDne mein laga tha. tarah tarah ke amrudon ke peD the—koi upar se to hara hota tha aur andar uska guda gulabi hota, kisi amrud mein beej hi beej hote to kisi mein beej DhunDhe nahin milte. main amrudon ke us vichitr sansar ki sair kar nandu bhai ke saath kachche pakke amrudon ko jebon mein bharkar lauta to mainne dekha dadaji bulaki parsad mishr, ritayarD headmaster apni aram kursi par uthange hue the aur unke baghal mein ek kursi par mukhiyaji baithe hue the.
“aaj pul ka shilanyas ho gaya.
mainne suna mukhiya ji kah rahe the. dadaji ne javab mein tangi javahar laal nehru ki dhundhlai si tasvir ki or bus dekh bhar liya tha. mano unke prati kritagytagyapan kar rahe hon. mainne nandu bhai ki or dekha tha, mere liye tab jivan ki sabse baDi khabar thi ye, us pul ke ban jane ke baad mujhe kisi se bhi sharmane ki zarurat nahin paDti ye batane mein ki bhale hi main shahr ke behtarin school mein paDhta tha aur din din bhar rozana apni atlas cycle se shahr ki galiyon ki hi khaak chhanta rahta lekin rahta main madhuvan mein tha—madhuvan jo shahr ka koi mohalla nahin tha balki nadi ki dusri taraf bsa chhota sa gaanv tha.
main behad khush tha. us raat sote samay jab nandu bhai telivizan par aane vale dharavahik hum log ke qisse suna rahe the to mainne us raat unse kaha tha ki us saal ve mere liye jivan ki sabse baDi khushi lekar aaye the. . . agle din main nandu bhai ke saath shilanyas ka wo patthar dekhne bhi gaya. us par likha tha. mananiy sinchai mantri shri ashfaq khaan ji ke kar kamlon dvara jankipul ka shilanyas kiya gaya. hum donon ne kafi der tak patthar chhu chhukar dekha aur ye andaza lagate rahe ki kitne dinon mein pul ban jayega.
un dinon main yani aditya mishr shahr ke prasiddh shri radhakrishn goyanka mahavidyalay mein barahvin mein paDhta tha. un dinon mere kai chhote chhote sapne hote the. jaise ek sapna ye tha ki mere paas sitamDhi mein rahne ke liye ek ghar ho jaye. ek sapna ye tha ki mere paas bhi na sahi rangin, black enD white telivizan set hi ho jaye taki main bhi us par kiran taukij ki tarah hum log aur chitrhar dekh sakun. mere in sapnon mein aksar kuch sapne juDte ghumte rahte the. un dinon jo sapna mere sapnon mein aa juDa tha wo ila ka sapna tha—ila chuturvedi.
ila mere aise sapnon mein rahi jise mere siva sirf nandu bhai hi jante the. main radhakrishn goyanka mahavidyalay mein kala vishay ka chhaatr tha aur mere tayushan guru murli manohar jha ki un dinon itihas, rajaniti vigyan, angezi jaise vishyon ke parangat shikshak ke roop mein dhoom machi thi. unhin dinon shahr ki mashhur jachcha bachcha visheshagya Dauktarni malini chaturvedi ne jab professor sahab se apni gyarahvin kaksha mein paDhne vali laDki ila ko parikshaon tak ghar aakar itihas aur rajaniti vigyan paDha jane ka agrah kiya to professor sahab ne apni vyasttaon ka havala dete hue unke ghar aane mein apni asmarthata vyakt kar di thi. lekin saath hi saath professor sahab ne unhen is baat ka pakka bharosa dilaya ki ve guess paper aur nots apne kisi pratibhashali, yogya shishya ke hathon bhijva diya karenge. professor sahab ne wo mauqa mujhe ye kahte hue diya tha ki tum par baDa vishvas karta hoon.
sach kahta hoon mainne unka vishvas kabhi nahin toDa. main ila ke ghar kabhi vireshvar parsad sinh ki rajnitishastr ke siddhant ya b. en. panDe ka bharat ka itihas ya raay ravindr kumar sinha ki pustak bharatiy shasan evan rajaniti dene lene jaya karta ya guess paper aur nots lekar jata. yahan mujhe shayad ye batane ki avashyakta nahin paDni chahiye ki jis samay ki main baat kar raha hoon us vaqt to fotostet jaisi suvidha dilli jaise shahr mein bhi itni aam nahin hua karti thi. main jis shahr sitamDhi ki baat kar raha hoon sahab, us samay pure shahr mein kul ek fotostet machine hua karti thi aur fotostet karvana tab itna mahnga paDta tha ki baDe baDe maravaDi sethon ke laDke hi uska laabh uthane ki ayyashi kar sakte the.
ila ke ghar aane jane ka mera silsila chal paDa. main ek baar uske ghar nots dene jata aur ek baar nots vapas lene aur phir nae nots ya koi pustak dene jata rahta.
ila ne shuru mein do ek baar gyarah se ek baje ke beech aane ki hidayat di lekin main samajh gaya ki uske ghar jane ka sabse mufid samay yahi hota tha jab uski doctor maan ya to klinik mein hoti thi ya apne public prasikyutar premi y. en. nishad ke saath hoti jiske bare mein shahr bhar mein afvah phaili rahti ki kal kale rang ki phiyet mein sursanD roD mein dekhi gai thi ya parson hotel sitayan mein, vaghairah vaghairah. is dauran uske vakil papa vinod chaturvedi sivil court mein muvakkil phansane mein lage rahte the. . . main usi daramyan kabhi rajaniti vigyan, kabhi itihas ke nots ya to dene ya lene jaya karta. wo iska ehtiyat rakhti ki chitthi mere nots ke hi bache hisse par likh diya karti. kabhi alag se usne kuch nahin likha.
wo aam taur par chitthi patri kuch is tarah se likhti thi jaise mere kapDon, meri chaal Dhaal, likhne paDhne aadi ki tarif kar rahi ho. wo isi tarah ke kuch vaaky angezi mein likh diya karti thi jo ki aksar angezi ke muhavare hua karte the taki koi agar use paDh bhi le to kuch aur na samajh le. main hi use aur aur samjhata raha. . . uske un muhavrenuma patron ko paDhne ke chakkar mein unhin unhin nots ko baar baar paDhta raha mano mujhe barahvin ka nahin gyarahvin ka parcha dena ho.
un sare sapnon mein juDa sabse naya sapna tha—jankipul.
shahr ke s. d. o. sahab ke ardali ramaprkash, jo hamare hi gaanv ka tha, ne jo khabar di thi uske mutabik pul ka shilanyas bhale hi sinchai mantri ashfaq khaan ke hathon hua ho lekin is pul ke banane ki asal zid to shahr ke collector sahab e. ke. sinha ki patni Dau. rekha sinha ne thani thi. rekha sinha asal mein to sahity ki doctor thi yani hindi sahity ki pi. ech. d. thi aur strivadi rujhanon ke karan maan janki ya sita ki anany bhaktini thi. maan sita ki janmabhumi mein hi apne pati ke padasthapan ko ve maan janki ki asim anukampa hi manti theen aur isliye ek bhi din ve bina unke darshan ke nahin bitana chahti theen. unhonne hi ek din apne pati ko nashte ke vaqt ye sujhav diya tha ki is nadi par agar ek chhota sa pul ban jaye to maan sita ki janmabhumi jakar darshan karne mein baDi suvidha ho jayegi.
maan janki ki janmasthli nadi ke dusri or to do kilomitar hi thi, lekin dusri or se aane mein lagbhag ek ghanta lag jata tha aur roz roz aana sambhav nahin ho pata tha. . .
collector sahab ko sujhav pasand aa gaya tha. unhonne aanan fanan mein shilanyas karva diya tha. yojna thi agle budget tak pul banane ka kaam shuru ho jayega. . .
sara madhuvan gaanv jankipul ke sapne mein jine laga tha. pakki saDak kuch saal pahle hi ban chuki thi aur tabhi se gaanv valon ki ummid jagi thi ki ab unke gaanv aur shahr ki duri khatm ho jayegi. . .
pul ke shilanyas ki khabar ke baad mere dadaji baDe ashavadi ho chale the. sathattar ke chunav mein vahan mahant keshvanand giri sansad bane, jinke bare mein baad mein ye kaha gaya ‘ve andhi ki tarah aaye aur tufan ki tarah chale gaye. unhin mahant ji ne aur kuch kiya ho ya na kiya ho par na jane kyon chunav prasar ke dauran madhuvan gaanv ke nivasiyon se ye vada kar aaye the ki agar ve chunav jeet gaye to us gaanv mein zarur pakki koltar ki saDak banva denge aur sabse ashcharyajnak raha ki na jane kyon chunav jitne ke baad unhonne jate jate saDak banvane ka apna vada pura bhi kar diya. agar ve kuch din aur sansad rahe hote to unhonne zarur vahan pul bhi banva diya hota. lekin ek to chunav jaldi ho gaye aur dusre ve chunav bhi nahin jeet pae.
jab tak pakki saDak nahin bani thi. madhuvan gaanv ke log baDe santoshpurvak rahte aur nadi ke us paar ke jivan ko shahr ka jivan mante aur apne jivan ko gramin aur baDe santoshpurvak apna sukh dukh jite. koltar ki us pakki saDak ne unke man ko ummidon se bhar diya tha. dadaji se milne kabhi kabhi jab gaanv ke ekmaatr rayabhadur alakh narayan sinh aate to ye charcha unke beech hoti ki ab bus pul ki kami hai aur hamara gaanv kis mamle mein shahr sitamDhi se kam rah jayega? raay sahab chaay ki chuskiyon ke beech kahte, mere jite ji bijli i. pani patane ka boring aaya, ab saDak bhi aa hi gai hai to to pul bhi ban hi jayega. ” dadaji bhi unki haan mein haan milate.
bhale hi mahant ji sansad ka chunav haar gaye lekin madhuvan valon ki ankhon mein ummid chhoD gaye the. sapna chhoD gaye the. . .
ab pul ka shilayans to jaise us sapne ko sach mein hi badalne vala tha. mainne paDh rakha tha ki aisa sapna jise bahut sari ankhen ek saath dekhne lagen to wo sapna nahin rahta. wo sach ho jata hai. . .
jankipul us gaanv ka aisa sapna ban gaya tha jo bus sach hone hi vala tha.
gaanv ke bichombich ek pipal ka peD tha—pakki saDke ke theek kinare. ganvvale pipal ko pakaD kahte the aur bhavishya ke shahr ka khayal karke us jagah ko unhonne chauk bana Dala aur uska naam rakh diya—pakaD chauk. vahan par barson se gaanv ke rickshaw chalanevalon, bazar mein dihaDi kamane valon ko kashi chayvala chaay pilaya karta tha aur chaay ke saath khane ke liye biscuit vaghairah bhi rakha karta tha. usne apni baans ki khapachchiyon ki joDi hui dukan ke bahar shahr sitamDhi ke dukandaron ki tarz par tin ka sainborD lagva liya tha aur us par likhva liya tha—kashi ki prasiddh chaay ki dukan, men roD, madhuvan. bus intizar isi ka tha ki ek baar jankipul ban jaye aur men roD, madhuvan men roD, sitamDhi ka hissa ban jaye.
gaanv bhar mein pul ban jane ke baad ke jivan ko lekar charchayen chalti rahti theen, yojnayen banti rahti theen. koi apni zamin par market banvana chahta tha, koi apni dukan ke aage aur pichhe ghar banvana chahta tha. kabhi khabar aati ki patna ke ek prasiddh school ke malik aaye the, school ke liye zamin kharidne. kabhi khabar aati ki shahr ke ek prasiddh doctor vahan zamin dekhne aaye the, shayad narsing hom kholana chahte the.
kul milakar, yahi lag raha tha ki bus pul ban jaye uske baad dekhiye kya kya hota hai madhuvan mein. dadaji bulaki parsad mishr ne apni kuch alag hi yojna bana rakhi thi. mere pashu chikitsa adhikari pita jab chhuttiyon mein aate to dadaji samjhate ki ek acre zamin hai nadi ke paas saDak kinare apni. bech ke baink mein rakh denge paisa. do ek piDhi to baithkar khayegi hi.
main us daramyan jab bhi ila ke yahan nots lene dene jata ya DaymanD cricket club ke baqayda sadasy ki haisiyat se cricket khelne jata to baat baat mein un sabko apne gaanv mein ban rahe pul ke bare mein batata. ila aksar kahti ki achchha hai ek baar pul ban jaye to main tumhare gaanv ganna khane aungi ya kabhi anvale ka peD dekhne ki baat kahti. javab mein main kahta tab hamara gaanv, gaanv thoDe hi rah jayega. ila ashchary se puchhti ki jab ye bhi nahin rah jayega tumhare gaanv mein to kya baqi rah jayega vahan? main sochta rah jata tha.
meri barahvin ki pariksha aa gai. ila ki gyarahvin ki. donon hi achchhe nambron se paas hue. ila barahvin mein aa gai lekin uski barahvin mein nots pahunchane, kitab pahunchane ke liye main sitamDhi mein nahin rah paya. main aage ki paDhai karne ke liye dilli aa gaya.
ye baat bees saal pahle ki hai.
ab main nandu bhai ko kya batata ki in bees salon mein kya kya hua! pul ke bare mein to main bhi bhool chuka tha. unko pata nahin kaise sumatra mein baithe baithe jankipul ki yaad aa gai thi.
hua ye ki collector e. ke. sinha sahab ka tabadla ho gaya aur unki patni pul parker janki janmabhumi dekhne ka sapna sanjoe hi rah gain. uske baad jab bhi main dipavali ke aas paas chhuttiyan bitane gaanv aata to yahi khabar sunta ki agle budget mein pul zarur ban jayega. har saal jab budget ka paisa aata to nadi mein baaDh aa jati aur jab baaDh ka pani utarta to budget samapt ho chuka hota tha. is prakar har saal jankipul ka nirman kaary agle budget tak ke liye tal jata.
chhuttiyon mein jata to ila se milne ka koi bahana nahin rahta tha. uske paas to phone tha lekin tab aaj ki tarah gali gali pi. si. o. booth nahin khule hue the ki aap gaye do rupae diye aur phone par baat ho gai. tab phone baDe baDe logon ke hi paas hota tha. main gaanv mein rahta tha aur mere paas phone hone ka saval hi nahin uthta tha. dilli jane ke kuch saal baad jab mainne apne dost shrivallabh ke ghar se pahli baar ila ko phone kiya to pata chala uski
shadi amerika mein rah rahe kisi sauphtveyar injiniyar se tay ho gai thi. usne mujhe milne ke liye bulaya. samay tab bhi gyarah se ek ka hi raha. use shayad achchha laga ho ki itne saal dilli rahne ke baad bhi main use bhula nahin tha aur uske ek baar kahne par hi tatkal usse milne pahunch gaya. us mulaqat mein mainne usse kuch nishani mangi thi. akhiri taki uski yaad rahe. usne apni tasvir pichhe vid best vishez likhkar mujhe diya. mainne bhi apni tasvir use deni chahi to usne hanste hue kaha, itna chhota sa to tumhara chehra hai, hamesha mere dil mein bsa rahega. main jeb mein uski tasvir sambhale laut aaya tha.
wo ila se meri akhiri mulaqat thi. na mere gaanv mein pul bana na wo use paar kar ganna khane, anvla khane vahan aa pai. wo amerika chali gai. haDsan aur misisipi nadi par bane pulon ko paar karte hue. . .
nandu bhai hangakang chale gaye the. isi beech dadaji ka dehant ho gaya tha aur marte vaqt unhonne mere ritayarD ho chuke pashu chikitsak pita ki ankhon ko apna sapna de diya tha. unhonne kaha tha ki pul banega zarur isliye zamin bechne mein haDbaDi mat karna. in dinon pitaji gaanv mein rahte the aur aas paas ke ilaqe mein pashuon ke achuk chikitsak ke roop mein jane jate the.
buaji nagpur mein bus gai theen, chachaji lucknow mein, mama kalkatta mein, didi bilaspur mein. sab telephone se rishtedari nibhate rahte the. nadi par pul nahin bana to kya unhonne telephone ke hi pul bana liye the.
nandu bhai se kafi dinon tak koi sampark nahin rah gaya tha. bhala ho intarnet ka, pichhle chaar paanch salon se usne hum bhai bahnon ko phir se joD diya tha. mainne nandu bhai ko i mel kiya tha ki dilli mein pichhle chaar paanch salon mein itne phlaiovar ban chuke hain ki pahchanna mushkil paD jayega.
aisa nahin hai ki in bees salon mein madhuvan gaanv ke log us pul ko bhool gaye hon. is beech gaanv mein haath haath mobile aa gaya tha, rangin telivizan aa gaya tha, samuhik jeneretar aa gaya tha, school khul chuka tha aur jankipul. . .
kai barson baad jab main pichhli baar dipavali par ghar gaya tha to pitaji ne bataya tha ki agle budget mein pakka ban jayega. . .
soch raha hoon nandu bhai ko yahi i mel kar doon. gaanv mein ab bhi log pakaD chauk par baithte hain to jankipul ki charcha chal paDti hai. bhale hi uska shilanyas ka patthar ab pahchana nahin jata aur wo saDak jisne pul ka sapna ganvvalon ki ankhon mein bhara tha, wo bhi jagah jagah se tutkar badshakl ho chuki thi. ganvvale ab bhi yahi sochte hain ki ek baar pul ban jaye sab theek ho jayega—jankipul.
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (2000-2010) (पृष्ठ 93)
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