आख़िर को लैला की माँ ने मंज़ूर कर लिया, कहा— “अब लैला को मजनू के हाथ ही सौंप दूँगी!”
सुनने वाले इस समाचार से ख़ुश हो गए। लोगों ने लैला की माँ को बधाइयाँ दीं। मजनू बिचारा कितनी मुद्दत से लैला के पीछे तड़प रहा था। आशिक़ी के कारण इस दुनिया और उस दुनिया दोनों जगह बदनाम हो गया था। मिट्टी भारी हो गई थी और प्राणों में केवल आह भर ही बच रही थी। चलो, लैला की माँ का फ़ैसला बड़ा अच्छा हुआ। आशिक़-माशूक़ की जोड़ी मिल जाएगी। दोनों का भला होगा।
और उधर लैला की माँ शादी का बजट बना रही थी—सत्तर गज़ कीम-खाब, एक सौ सत्तर गज़ तंज़ेब, सत्रह बोरे गेहूँ, बीस बोरे चावल, पंद्रह कनस्तर घी !!...
बजट तो बन गया, पास-पड़ोस वालों ने उसे पास भी कर दिया, लेकिन सौदा कैसे मिले? लैला की माँ ने बाज़ार में पहुँच कर देखा कि किराने वालों के यहाँ ख़रीददारों का मेला लगा हुआ है, किरासन तेलवाले अपनी-अपनी दुकानें बंद करके सो रहे हैं, बाज़ार की दुकानों में लाठियाँ चल रही हैं। यह जर्मन की लड़ाई क्या हुई कि आफ़त हो गई। लैला की माँ घबरा गई। भीड़ के इस धक्के में हड्डी-पसली किसी का भी पता नहीं मिलेगा। या ख़ुदा, अब क्या करूँ?
सहसा अँधेरे में बिजली की चमक की तरह वहाँ मजनू दिखलाई दे गया। शादी की ख़ुशी में वह अपने दोस्त के साथ सैर करने को निकला था। लैला की माँ उसके पास पहुँचकर गिड़गिड़ाने लगी—“शादी क्या हुई, मुसीबत हो गई; कोई भी जिन्स नहीं मिलती, बेटा! देखो, मदद करो; तुम्हारी ही शादी की चीज़ें हैं। शुक्रगुज़ार होऊँगी।”
मजनू हक्का-बक्का। आँखें फाड़कर उसने पूछा—“तुम चाहती हो कि इस भीड़ में घुसकर मैं गेहूँ ख़रीद लाऊँ?”
“हाँ बेटा, ज़ियादा नहीं, फ़क़त सत्रह बोरे!”
सत्रह बोरे! सुनते ही मजनू की आँखों के आगे सत्रह हज़ार सितारे नाचने लगे। आसमान को घूँसा मार आना आसान है, लेकिन सत्रह बोरे गेहूँ ख़रीद सकना उससे भी ज़्यादा मुश्किल है। पसीने-पसीने होकर मजनू ने जवाब दिया—“यह तो नामुमकिन है अम्माजान! तीन सेर का सवाल हो तो कहो; मैं लँगोट कसकर और लैला का नाम लेकर भीड़ में घुस जाता हूँ और तीन सेर गेहूँ ख़रीद लाता हूँ।”
लैला की माँ ने कहा—“लेकिन शादी की बात है, सत्रह बोरे से कम में काम नहीं चल सकता।”
मजनू ने आह भरकर जवाब दिया—“अब शादी हो या न हो, सत्रह बोरे गेहूँ तो तुम्हें किसी हालत में नहीं मिल सकते।”
मजनू के जवाब से लैला की माँ की हिम्मत टूट गई। आँखों में आँसू भरकर बोली—“तो क्या तुम चाहते हो कि गेहूँ के चलते मैं तुम्हारे साथ लैला की शादी मंसूख़ कर दूँ?”
मजनू ने कहा—“चाहता तो मैं नहीं, लेकिन लाचारी है!”
“तो यह शादी नहीं होगी?”
“शादी तो हो सकती है, लेकिन शादी में गेहूँ नहीं होंगे।”
“मैं कहती हूँ, गेहूँ के बिना शादी नहीं हो सकती।”
“तो शादी मुश्किल है!”
“यानी तुम कुछ कर न सकोगे?”
“इस मामले में मैं कर ही क्या सकता हूँ?”
अब लैला की माँ आँसू बहाती बाज़ार में खड़ी थी।
शहर के नामी गुंडे उस्मान की नज़र उस ओर गई। लैला की माँ के पास पहुँचकर वह उसके रोने का कारण पूछने लगा।
लैला की माँ रोती गई, फफकती गई और कारण बताती गई। सब कुछ सुन लेने के बाद उस्मान ने कहा—“इन सारी चीज़ों का मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। तुम जो-जो कहो, मैं सारी चीज़ें ख़रीद दूँ; लेकिन दुनिया में एक मजनू ही तो लड़का नहीं। मैं भी लैला के लिए कब से तरस रहा हूँ; लेकिन हाँ, उस मजनू की तरह चिल्ला-चिल्लाकर मुझसे आह नहीं भरी जाती। तो देखो, अगर लैला की शादी मेरे साथ कर सको...”
और भीड़ को चीरकर उस्मान दूकानदार के पास पहुँच गया—“क्यों सेठ, लगाऊँ दो रद्दे या देते हो सत्रह बोरे गेहूँ?”
दुकानदार ने घबरा कर कहा—“सत्रह बोरे!”
“हाँ-हाँ, सत्रह से लेकर सत्रह सौ बोरे तक गेहूँ तुम्हें देना पड़ेगा, समझ रखो, वर्ना तुम हो और मैं हूँ!”
दुकानदार उस्मान के कान में जाकर फुसफुसाने लगा—“भाई, तुम्हें जो-जो चीज़ें चाहिए, उनकी लिस्ट देते जाओ। सारी जिन्स जहाँ तुम कहो, पहुँचवा दूँगा। दाम के लिए भी कोई बात नहीं। हाँ!”
और गेहूँ, गल्ला, कपड़े, किरासन सब ठेले पर लद-लदकर लैला की माँ के दरवाज़े पर पहुँचने लगे।
अब आज के समाचार-पत्र में पढ़ रहा हूँ कि लैला की शादी उसी उस्मान से होने वाली है। मजनू बेचारा निराश होकर मिलिट्री में भर्ती हो गया।
- पुस्तक : हिंदी कहानियाँ जैनेंद्र कुमार संपादित
- संपादक : जैनेंद्र कुमार
- रचनाकार : राधाकृष्ण
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 1677
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