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अतिथि देवो भव

atithi devo bhav

अब्दुल बिस्मिल्लाह

अब्दुल बिस्मिल्लाह

अतिथि देवो भव

अब्दुल बिस्मिल्लाह

और अधिकअब्दुल बिस्मिल्लाह

    गर्मी बहुत तेज़ थी। तीन-चार दिनों से बराबर लू चल रही थी और जगह-जगह मौतें हो रही थीं। शहर की सड़कें चूल्हे पर चढ़े तवे की तरह तप रही थीं। बड़े लोगों ने दरवाज़ों पर खस की टट्टियाँ लगवा ली थीं और उनके नौकर उन्हें पानी से तर कर रहे थे। दूकानों पर पर्दे गिरे हुए थे। पटरी पर बैठने वाले नाई, खोमचे वाले और लाटरी के टिकट बेचने वाले ओवर ब्रिज के नीचे पहुँच गए थे और शाम होने का इंतिज़ार कर रहे थे। रिक्शों में लोग इस तरह दुबककर बैठते थे, मानो शरीर का कोई अंग अगर बाहर निकलेगा तो वह जल जाएगा। प्रायः सभी के रूमाल पसीना पोंछते-पोंछते काले हो गए थे। देहात के लोग तो अपने चेहरों को मोटे तौलिए या गमछे से इस तरह लपेटे हुए थे कि दूर से वे डाकू-जैसे दिखाई पड़ते थे। पैदल चलने वाले लोगों ने अपने सिर पर छाता नहीं तो अपना बैग ही रख लिया था। किसी-किसी ने तो रूमाल को ही सिर पर बांध लिया था। ठेलों पर बिकने वाला पानी पाँच पैसे गिलास से बढ़कर दस पैसे के भाव हो गया था।

    इस तरह गर्मी ने उस शहर की समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। लोग आज़ाद होते हुए भी ग़ुलाम थे और मज़े की बात यह कि वे गर्मी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे। अत: लू से बचने लिए उन्होंने अपने जेबों में प्याज़ की छोटी-मोटी पोलियाँ रख ली थीं और शुक्र मना रहे थे।

    एक छोटा-सा प्याज़ सलमान साहब की जेब में भी पड़ा था। इसे उनकी बीवी ने चुपके से रख दिया था। सलमान साहब को हालाँकि इस बात का पूरा पता था, पर वे यही मानकर चल रहे थे कि प्याज़ के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं मालूम। और अपने इस विश्वास पर वे डटे हुए थे कि लू का प्याज़ से कोई संबंध नहीं होता।

    सलमान साहब अपना सूटकेस उठाए छन्-छन् करती सड़क पर बढ़े जा रहे थे, हालाँकि उनकी इच्छा हो रही थी कि अपने सिर पर औरों की तरह वे भी रूमाल बाँध लें या तौलिया निकालकर चेहरे के इर्द-गिर्द लपेट लें, पर असुविधा के ख़याल से वे ऐसा नहीं कर पा रहे थे। इसके अलावा उन्हें इस बात की उतावली भी थी कि जल्दी से वे मिश्रीलाल गुप्ता के निवास पर पहुँच जाएँ। रिक्शा उन्हें मिला नहीं था, अतः अपने मन को वे यह भी समझाते जा रहे थे कि स्टेशन से उसका कमरा ज़ियादा दूर नहीं है। यह बात मिश्रीलाल ने ही उन्हें बताई थी।

    सलमान साहब मिश्रीलाल गुप्ता से मिलने पहली बार उस शहर में पहुँचे थे। मकान नंबर तो उन्हें याद था, पर सिचुएशन का पता नहीं था। लेकिन उन्हें पूरा विश्वास था कि वे मिश्रीलाल गुप्ता को अवश्य ही ढूँढ़ लेंगे।

    मिश्रीलाल गुप्ता सलमान साहब के पड़ोस का एक ऐसा लड़का था जो क़स्बे-भर में अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण मशहूर था। गुप्ता-ख़ानदान का वह पहला युवक था जिसने मांस खाना आरंभ कर दिया था और मुसलमान होटलों में चाय पिया करता था। जी हाँ, जिस तरह बनारस का विश्वविद्यालय हिंदू है और अलीगढ़ का विश्वविद्यालय मुसलमान, ठीक उसी तरह उनके क़स्बे के होटल भी हिंदू और मुसलमान थे। यह बात अलग है कि हिंदू होटलों में मुसलमानों के लिए या मुसलमान होटलों में हिंदुओं के लिए प्रवेश की कोई मनाही नहीं थी, फिर भी जो धार्मिक लोग थे, वे इसे बुरा समझा करते थे। सलमान साहब के पड़ोसी जैकी साहब हमेशा मुसलमान हलवाई के यहाँ से ही मिठाई मँगवाते थे, क्योंकि शिवचरण हलवाई जो था, वह इस्तिजे से नहीं रहता था।

    उस क़स्बे में उन दिनों एक ही स्कूल था और वहाँ सबको अनिवार्य रूप से संस्कृत पढ़नी पड़ती थी, अत: सलमान साहब ने भी 'रामः, रामौ, रामाः' पढ़ा, और नतीजा यह निकला कि वे उर्दू नहीं पढ़ सके! जैसे मिश्रीलाल के बाबा गिरधारीलाल गुप्ता अपने ज़माने में सिर्फ़ उर्दू ही पढ़ सके थे, संस्कृत सीखने का मौक़ा उन्हें नहीं मिला था। एक तो वैश्य, दूसरे मदरसे में उसका प्रबंध नहीं था। सो, इसी क़िस्म की मजबूरियों ने सलमान साहब से संस्कृत पढ़वाई और जब वे उच्च शिक्षा लेने के लिए शहर पहुँचे तो वहाँ भी उन्होंने संस्कृत ही पढ़ी। उन्हें विश्वास था कि एम०ए० करने के बाद वे कहीं-न-कहीं संस्कृत के लेक्चरर हो जाएँगे, पर ऐसा नहीं हुआ और अब वे अपने ही क़स्बे के नये-नये खुले इस्लामिया मिडिल स्कूल में हिस्ट्री पढ़ाने लगे थे।

    मिश्रीलाल जिन दिनों इंटर कर रहा था, सलमान साहब ने उसे सुबह-शाम संस्कृत पढ़ाई थी, अतः वह उन्हें अपना गुरु मानता था और चरण छूता था। अब वह बी०ए० कर चुका था और किसी कंपीटीशन की तैयारी कर रहा था। उसकी प्रबल इच्छा थी कि सलमान साहब जब उसके शहर में आएँ तो उसके निवास पर अवश्य पधारें। मिश्रीलाल की इस इच्छा को अनपेक्षित रूप से पूर्ण करने के लिए ही वे बग़ैर सूचना दिए उस शहर में पहुँच गए थे। अचानक उसके दरवाज़े पर दस्तक देकर उसे चौंका देना चाहते थे।

    सलमान सहब ने मुहल्ले का नाम याद किया-गोपालगंज। हाँ, यही नाम है। मकान नं० बी-पाँच सौ बासठ। राधारमण मिश्र का मकान। स्टेशन से यही कोई आध मील पर स्थित।

    “क्यों भाई साहब, गोपालगंज किधर पड़ेगा?” उन्होंने एक दूकानदार से पूछा तो पान की पीक थूकने का कष्ट करते हुए उसने गलगलाकर यह बताया कि वे महाशय थोड़ा आगे निकल आए हैं। पीछे मुड़कर बिजली के उस वाले ख़ेमे से सटी हुई गली में घुस जाएँ।

    सलमान साहब उसकी दूकान के शेड से जब बाहर निकले तो लू का एक थपेड़ा चट्ट से उनके गाल पर लगा और उन्होंने अपनी एक हथेली कनपटी पर लगा ली। ठीक उसी वक़्त उन्हें अपनी जेब में पड़े हुए प्याज़ का भी ख़याल आया और क्षण-भर को वे आश्वस्त हुए। हाँ, यही गली तो है। उन्होंने बिजली के खंभे को ध्यान से देखा और गली में घुस गए।

    दाहिनी ओर ब्लॉक था। सलमान साहब ने सोचा कि बाईं ओर ज़रूर बी ब्लॉक होगा, पर उधर एच ब्लॉक था। वे और आगे बढ़े, शायद वाली साइड में ही आगे चलकर बी पड़े। लेकिन नहीं, जहाँ ख़त्म हुआ वहाँ से एम शुरू हो रहा था। बाईं ओर सी था। वे चकरा गए।

    “कहाँ जाना है?” एक सज्जन सड़क पर चारपाई निकालकर उसे पटक रहे थे और नीचे गिरे हुए खटमलों को मार रहे थे। उन्होंने उनकी बेचैनी को शायद भाँप लिया था। सलमान साहब ने ख़ुद अपने जूते से खटमल के एक बच्चे को मारा और पूछा, “यह बी-पाँच सौ बासठ किधर पड़ेगा?”

    “ओह, मिसिर जी का मकान? पह पुराने गोपालगंज में है। आप इधर से चले जाइए और आगे चलकर मंदिर के पास से दाहिने मुड़ जाइएगा। वहाँ किसी से पूछ लीजिएगा। सलमान साहब ने उन्हें धन्यवाद दिया और चल पड़े। मंदिर के पास पहुँचकर जब वे दाहिनी ओर मुड़े तो उन्होंने देखा कि पीछे चार-पाँच भैंसे बँधी हैं और एक लड़की अपने बरामदे में खड़ी होकर दूर जा रहे चूड़ीवाले को बुला रही है।

    पुराना गोपालगंज क्या यही है? उन्होंने उस लड़की से ही जानकारी लेनी चाही, पर उसने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उसका सारा ध्यान चूड़ीवाले के ठेले पर लगा हुआ था। सलमान साहब आगे बढ़ गए।

    थोड़ा और आगे जाने पर पुराने ढंग के ऊँचे-ऊँचे मकान उन्हें दिखाई पड़े, जिनकी छाया में उस इलाक़े की सँकरी सड़कें अपेक्षाकृत काफी ठंडी थीं और नंग-धडंग बच्चे उन पर उछल रहे थे। सलमान साहब का मन हुआ कि यहाँ वे क्षण-भर के लिए खड़े हो जाएँ, पर अपने इस विचार का उन्होंने तुरंत ही परित्याग किया और चलते रहे।

    सामने एक लड़का दौड़ा रहा था। उसके पीछे-पीछे एक मोटा-सा चूहा घिसटा रहा था। लड़के ने चूहे की पूँछ में सुतली बाँध दी थी और उसका एक छोर थामे हुए था। सलमान साहब को देखकर-जैसी कि उन्हें उम्मीद थी-वह बिलकुल नहीं ठिठका और उनकी बग़ल से भागने के चक्कर में उनसे टकरा गया।

    ये बी-पाँच सौ बासठ किधर है जी? तुम्हें पता है, मिश्रजी का मकान?

    लड़के ने उनकी ओर उड़ती-सी नज़र डाली और एक मकान की ओर संकेत करता हुआ भाग गया। उसके पीछे-पीछे चूहा भी घिसटता हुआ चला गया।

    सलमान साहब ने एक ठंडी साँस ली और उस विशालकाय इमारत के सामने जाकर खड़े हो गए। वहाँ बाहर की दो औरतें चारपाई पर बैठी थीं और पंजाब-समस्या को अपने ढंग से हल करने में लगी हुई थीं—

    अरी बिट्टन की अम्माँ, वो तो भाग मनाओ कि हम हिंदुस्तान में हैं, पंजाब में होतीं तो जाने क्या गत हुई होती...।

    “राधाचरण मिश्रजी का मकान यही है?

    स्त्रियाँ चारपाई पर बैठी रहीं, जबकि सलमान साहब ने सोचा था कि वे उठ खड़ी होंगी-जैसा कि उनके क़स्बे में होता-है लेकिन यह तो शहर है...

    मिसिर जी यहाँ नहीं रहते। वे जवाहर नगर में रहते हैं। यहाँ सिरिफ़ उनके किराएदार रहते हैं।” एक स्त्री ने उन्हें जानकारी दी और ख़ामोश हो गई।

    “क्या काम है?” दूसरी ने पूछा और अपना सिर खुजलाने लगी।

    उनके मकान में एक लड़का रहता है मिश्रीलाल गुप्ता, उसी से मिलना था।

    ऊपर चले जाइए, सीढ़ी चढ़कर दूसरा कमरा उन्हीं का है। उस सिर खुजलाने वाली औरत ने बताया और खड़ी हो गई।

    सलमान साहब भीतर घुस गए।

    वहाँ अँधेरा था और सीढ़ी नज़र नहीं रही थी। थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद उन्हें कोने में एक नल दिखाई पड़ा, फिर सीढ़ी भी दिखने लगी और वे संभल-संभलकर ऊपर चढ़ने लगे।

    इस बीच उन्होंने अनुमान लगाया कि मिश्रीलाल सो रहा होगा और दरवाज़ा खटखटाकर उसे जगाना पड़ेगा। वह हड़बड़ाकर उठेगा और सिटकिनी खोलकर आँखें मलते हुए बाहर देखेगा। फिर सामने उन्हें पाकर चरणों पर झुक जाएगा।

    “कौन?”

    सीढ़ियाँ ख़त्म होते ही इस पार से किसी स्त्री का प्रश्न सुनाई पड़ा और वे ठिठक गए।

    मिश्रीलाल जी हैं क्या?

    “थोड़ा ठहरिए।”

    उस स्त्री ने ज़रा सख़्ती के साथ कहा और सलमान साहब को लगा कि स्त्री किसी महत्वपूर्ण काम में लगी हुई है। वे बिना किवाड़ों वाले उस द्वार के इस पार खड़े हो गए और कुछ सोचने लगे। तभी उन्होंने देखा कि अधेड़ वय की गोरी-सी औरत मात्र पेटीकोट और ब्रेसियर पहने बरामदे से भागकर सामने वाली कोठरी में घुस गई और जल्दी से साड़ी लपेटकर ब्लाउज का हुक लगाते हुई बाहर निकल आई।

    आइए!

    उसने सलमान साहब को पुकारा तो वे इस प्रकार भीतर घुसे, जैसे उन्होंने उस स्त्री को अभी थोड़ी देर पहले भीतर घुसते हुए देखा ही नहीं। स्त्री ने भी शायद यही सोचा और इत्मिनान से खड़ी रही।

    सलमान साहब ने देखा कि बरामदे में बने परनाले के मुहाने पर एक उतरी हुई गीली साड़ी है और जय साबनु की गंध पूरे माहौल में भरी हुई है।

    मिश्रीलाल जी बग़लवाले कमरे में रहते हैं, पर वे हैं नहीं। सुबह से ही कहीं गए हुए हैं। आप कहाँ से रहे हैं? बैठिए।

    स्त्री ने अत्यंत विनम्रता के साथ यह सब कहा और एक बंसखट बिछाकर फिर भीतर घुस गई। थोड़ी देर बाद वह एक तश्तरी में गुड़ और गिलास में पानी लिए हुए बाहर आई और बंसखट पर तश्तरी रखकर खड़ी हो गई।

    पानी पीजिए, आज गर्मी बहुत है।

    इतना कहकर उसने अपनी उतारी हुई साड़ी की ओर देखा और जाने क्या सोचकर पानी रखकर फिर भीतर घुस गई। अबकी वह ताड़ का एक पंखा लेकर लौटी और उसे भी बँसखट पर रख दिया।

    सलमान साहब ने गुड़ खाया, पानी पिया और पंखा लेकर उसे हल्के-हल्के डुलाने लगे। “मिश्रीलाल कहीं बाहर तो नहीं चला गया है?

    “बाहर तो नहीं गए हैं, शहर में ही होंगे कहीं। पिक्चर-विक्चर गए होंगे, या किसी दोस्त के यहाँ चले गए होंगे। रोज़ तो कमरे में ही रहते थे, आज ही निकले हैं बाहर।

    सलमान साहब ने घड़ी देखी, तीन बज रहे थे। उन्होंने थकान का अनुभव किया और बंसखट पर थोड़ा पसर गए।

    स्त्री फिर भीतर से तकिया ले आई।

    आप थोड़ा आराम कर लें, गुप्ताजी शाम तक तो ही जाएँगे। स्त्री ने उनके सिरहाने तकिया रखा और अपनी गीली साड़ी बाल्टी में रखकर नीचे उतर गई।

    सलमान साहब जब लेटे तो जेब में पड़ा प्याज़ उन्हें गड़ने लगा और उन्होंने उसे बाहर निकालकर चारपाई के नीचे गिरा दिया। थोड़ी देर बाद उन्हें नींद गई।

    नींद में उन्होंने सपना देखा कि उनके स्कूल में मास्टरों के बीच झगड़ा हो गया है और पी०टी० टीचर सत्यनारायण यादव को हेड मास्टर साहब बुरी तरह डाँट रहे हैं। सलमान साहब उनका पक्ष लेकर आगे बढ़ते हैं तो सारे मास्टर उन पर टूट पड़ते हैं। उनकी नींद टूट जाती है।

    वे उठकर बैठ जाते हैं।

    लगता है, रात हो गई है। भीतर एक मटमैला-सा बल्ब जल रहा है, जिसकी रौशनी बरामदे में भी रही है। बरामदे में कोई बल्ब नहीं है। भीतर से आनेवाली रौशनी के उस चौकोर-से टुकड़े में ही एक स्टोव जल रहा है और स्त्री सब्ज़ी छौंक रही है। जहाँ दोपहर में जय साबुन की गंध भरी हुई थी, वहीं अब ज़ीरे की महक उड़ रही है।

    'मिश्रीलाल नहीं आया अभी तक?

    अरे, अब हम क्या बताएँ कि आज वे कहाँ चले गए हैं? रोज़ाना तो कमरे में ही घुसे रहते थे।

    उस स्त्री ने चिंतित मन से कहा और स्टील के एक गिलास में पहले से तैयार की गई चाय लेकर उनके सामने खड़ी हो गई।

    अरे, आपने क्यों कष्ट किया?

    इसमें कष्ट की क्या बात है? चाय तो बनती ही है शाम को?

    सलमान साहब ने गिलास थाम लिया। स्त्री स्टोव की ओर मुड़ गई।

    तभी एक सद्य:स्नात सज्जन कमर में गमछा लपेटे, जनेऊ मलते हुए सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आए और कमरे में घुस कर हनुमान चालीसा का पाठ करने लगे। ज़ीरे की महक के साथ-साथ अब अगरबत्ती की महक भी वातावरण में तिरने लगी।

    सलमान साहब ने भीतर झाँककर देखा तो पाया कि उस कमरे में पूरी गृहस्थी अत्यंत सलीक़े के साथ सजी हुई थी और दीवारों पर राम, कृष्ण, हनुमान, कृष्ण, शंकर पार्वती, लक्ष्मी और गणेश आदि विभिन्न देवी-देवताओं के फोटो टँगे हुए थे। वहीं एक ओर लकड़ी की एक तख़्ती लगी थी, जिस पर लिखा था—राममनोहर पांडे, असिस्टेंट टेलीफोन ऑपरेटर। वे सज्जन अपने दाहिने हाथ में अगरबत्ती लिए, बाएँ हाथ से दाहिने हाथ की टिहुनी थामे सभी तस्वीरों को सुगंधित धूप से सुवासित कर रहे थे और बीच-बीच में गीता के कुछ श्लोक भी सही-ग़लत उच्चारण के साथ बोल जाते थे। छत पर एक गंदा-सा पंखा अत्यंत धीमी चाल से डोल रहा था।

    स्त्री ने सब्ज़ी पका ली थी और अब वह रोटियाँ बना रही थी। सलमान साहब की इच्छा हुई कि अब वे वहाँ से चल दें और किसी होटल में ठहर जाएँ, सुबह आकर मिश्रीलाल से मिल लेंगे, क्योंकि रात काफ़ी होती जा रही है और उसका अभी तक पता नहीं है। वे खड़े हो गए।

    मैं अब चलता हूँ, कल सवेरे आकर मिल लूँगा।

    उन्होंने अपना बैग उठा लिया।

    “कहाँ जाएँगे? स्त्री ने उनसे सीधा सवाल किया और पीछे मुड़कर उनकी ओर ताकने लगी।

    किसी होटल में रुकूँगा।

    क्यों भाई साहब, होटल में क्यों रुकिएगा, क्या यहाँ जगह नहीं है? खाना तैयार हो गया है, खा लीजिए और छत पर चलकर लेटिए, रात में गुप्ता जी ही जाएँगे। और अगर भी आएँ तो सुबह चले जाइएगा। इस टाइम तो मैं आपको जाने दूँगी। आइए, जूता-वूता उतारिए और हाथ-मुँह धोकर खाने बैठिए।

    नहीं भाभीजी, आप क्यों कष्ट उठाती हैं?

    उस स्त्री को अब भाभी कहने में कोई हर्ज नहीं लगा सलमान साहब को।

    “कष्ट की क्या बात है? आइए, खाना खाइए?

    सलमान साहब विवश हो गए। उन्होंने जूते उतारे और हाथ-मुँह धोकर खड़े हो गए। अब तक पांडे जी अपनी पूजा-अराधना से ख़ाली हो गए थे और भीतर बिछी चौकी पर बैठकर कुछ काग़ज़-पत्तर देख रहे थे। सलमान साहब को उनसे नमस्कार करने तक का मौक़ा अभी नहीं मिला था। यह उन्हें बहुत खल रहा था। लेकिन अब इतनी देर बाद नमस्कार करने का कोई औचित्य भी नहीं था, इसलिए उन्होंने सीधे-सीधे बात करने की कोशिश की।

    “भाई साहब, आप भी उठिए।

    नहीं, आप खाइए, मैं थोड़ी देर बाद भोजन करूँगा।'

    उन्होंने तनिक शुष्क स्वर में सलमान साहब को उत्तर दिया और बग़ैर उनकी ओर देखे अपने काग़ज़-पत्तर में उलझे रहे।

    आप बैठिए, दिन-भर के भूखे-प्यासे होंगे। वे बाद में खा लेंगे। दफ़्तर से आकर उन्होंने थोड़ा नाश्ता भी लिया है। आप तो सो रहे थे।

    स्त्री ने एक बार फिर आग्रह किया और पीढ़ा रखकर थाली लगा दी। लोटे में पानी और गिलास रख दिया।

    सलमान साहब बैठ गए।

    वे भीतर से बहुत आह्लादित थे। उनके क़स्बे में ऐसा नहीं हो सकता कि बग़ैर जाति-धर्म की जानकारी किए कोई ब्राह्मण किसी को अपने चौके में बैठाकर खाना खिलाए, लेकिन शहर में ऐसा हो सकता है। यद्यपि यह कोई बड़ा शहर नहीं है और यहाँ के लोग भी बहुत कुछ ग्रामीण संस्कारों वाले हैं, पर है तो आख़िर शहर। यहाँ के पढ़े-लिखे लोग प्रगतिशील विचारों के होते हैं। उनमें संकीर्णता नहीं होती। वे धर्मप्रवण होते हुए भी रूढ़ धारणाओं से मुक्त होते हैं।

    सलमान साहब सोच रहे थे और खा रहे थे। उन्हें बैंगन की सब्जी बहुत अच्छी लग रही थीं। ताज़े आम का अचार यद्यपि पूरा गला नहीं था, पर स्वादिष्ट था। रोटियों पर घी भी चुपड़ा हुआ था। ऐसी रोटियाँ उनके घर में नहीं बनतीं। वहाँ तो उलटे तवे पर बनी हुई विशालकाय और अर्धसंकी चपातियाँ किसी पुराने कपड़े में लिपटी रखी होती हैं...

    स्त्री ने एक फूली हुई, भाप उड़ाती रोटी उनकी थाली में और डाल दी थी।

    “आप गुप्ता जी के गाँव से आए हैं?

    सलमान साहब ने सिर उठाया। पांडे जी अब काग़ज़-पत्तरों से ख़ाली हो गए थे और आम काट रहे थे। उनकी आवाज़ में उसी तरह की शुष्कता विद्यमान थी।

    जी हाँ! सलमान साहब ने जवाब दिया और अचार उठाकर चाटने लगे।

    पांडे जी ने संकेत से पत्नी को भीतर बुलाया और आम की तीन फाँकिया थमा दीं।

    स्त्री ने उन्हें सलमान साहब की थाली में डाल दिया।

    “आप उनके भाई हैं? फिर वही शुष्क स्वर।

    सलमान साहब को कोफ़्त हुई।

    जी नहीं, वह मेरा शिष्य है।'

    क्या आप अध्यापक हैं?

    जी हाँ।

    कहाँ पढ़ाते हैं?

    आप भी गुप्ता हैं?

    जी नहीं।

    “ब्राह्मण हैं?

    नहीं, मैं मुसलमान हूँ, मेरा नाम मुहम्मद सलमान है।

    उन्होंने अपना पूरा परिचय दिया और रोटी के आख़िरी टुकड़े में सब्ज़ी लपेटने लगे।

    पांडे जी ने अपनी स्त्री की ओर आँखें उठाईं तो पाया कि वह ख़ुद उनकी ओर देख रही थीं। ऐसा लगा कि दोनों ही एक-दूसरे से कुछ कह रहे हैं, पर ठीक-ठीक कह नहीं पा रहे हैं।

    सलमान साहब अगली रोटी का इंतिज़ार कर रहे थे, लेकिन स्त्री स्टोव के पास से उठकर भीतर चली गई थी और कुछ ढूँढने लगी थी।

    सलमान साहब आम खाने लगे थे।

    स्त्री जब बाहर निकली तो उसके हाथ में कांच का एक गिलास था और आँखों में भय।

    उसने सलमान साहब की थाली के पास रखा स्टील का गिलास उठा लिया था और उसकी जगह काँच का गिलास रख दिया था।

    सलमान को याद आया कि अभी शाम को जिस गिलास में उन्होंने चाय पी थी, जिस थाली में वे खाना खा रहे थे, वह स्टील की ही थी। पल-भर के लिए वे चिंतित हुए। फिर उन्होंने अपनी थाली उठाई और परनाले के पास जाकर बैठ गए। गुझना उठाया और अपनी थाली माँजने लगे।

    स्त्री ने थोड़ा-सा पीछे मुड़कर उनकी ओर देखा, लेकिन फिर तुरंत बाद ही वह अपने काम में व्यस्त हो गई।

    मिश्रीलाल अभी तक नहीं आया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 1)
    • संपादक : स्वयं प्रकाश
    • रचनाकार : अब्दुल बिस्मिल्लाह
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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