महात्मा वेदव्यासजी ने महाभारत में लिखा है— गंगापुत्र भीष्म के पिता श्री शांतनु महाराज को देखते ही बूढ़ा प्राणी जवान हो जाता था।
मगर, मैं भूल कर रहा हूँ। वह भीष्म के पिताजी नहीं, दादाजी थे, जिनमें उक्त गुणों का आरोप महाभारतकार ने किया है।
एक बार भीष्म पितामह के पितामहजी सुरसरि-तट पर, गंगा-तरंग-हिम-शीतल शिलाखंड पर विराजमान भगवान् के ध्यान, तप या योग में निरत थे। काफ़ी वय हो जाने पर भी वह तेजस्वी थे—बली—विशाल बाहु। ललाट उज्ज्वल और उन्नत, आँखें बड़ी और कमलवत। वह सुश्री दर्शनीय थे!
गंगा के मानस पर उनकी अद्भुत छवि ज्यों ही प्रतिफलित हुई, जीवन-तरंगें लहराने लगी। भीष्म के दादाजी पर मुग्ध हो नवयुवती सुंदरी का रूप धर गंगा प्रकट ही तो हुईं। ध्यानावस्थित राजर्षि की दाहिनी पलथी पर वह महाउन्मत्त हो जा बैठीं!
चमककर नेत्र खोलते ही तप में बाधा की तरह अपने आधे अंग पर गंगा को मौजें मारते दादाजी ने देखा।
“कौन...औरत...?”—गंभीर स्वर से प्रश्न हुआ।
“जी मैं गंगा हूँ, महाराज! आपके दिव्य रूप को देखते ही—चंद्र पर चकोर की तरह—मैं पागल हो उठी हूँ! अब मैं आपकी हूँ—हर तरह से।”
लज्जा से अनुरंजित हो गंगा ने अपनी गोरी बाँहें भीष्म के दादा के सुकंठ की ओर बढ़ा दीं।
“मगर, सुंदरी...! मैं नीतिज्ञ हूँ, विज्ञ हूँ...।”
“तो, क्या हुआ महाराज! मैं भी दिव्य हूँ, पवित्र हूँ।”
“गंगे!”—दादाजी ने सतेज जवाब दिया—“तुम एकाएक मेरी दाहिनी जाँघ पर आ बैठीं, जो बेटी या बहू के बैठने का स्थान है। अब तुम्हें-पत्नी रूप में स्वीकार करने से सनातनी आर्य-मर्यादा भंग हो जाएगी। मर्यादा—अपनी चाल—टूटने से कुल विनष्ट हो जाता है। कुल के विनाश से पितरों को घोर नरक-यातना होती है, जिससे मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है।”
क्षत्रिय राजर्षि का तर्क उचित और मान्य—गंगा मारे लाज के पृथ्वी में डूबती नज़र आने लगीं। हताश हो, सूखी-सी, वह दादाजी की गोद से नीचे सरक रहीं।
और गंगा-सी पवित्र, दर्शनीया रमणी को लज्जित और निराश करने का क्षत्रिय महाराज के मन में घोर खेद हुआ।
“महाराज!”—सजल गंगा बोलीं—“दैव विधानानुसार मैं माता बनना चाहती हूँ, इसी हेतु से तपोपूत, कुलीन जानकर आपकी सेवा में आई। लेकिन आपने तो मुझको बेटी बना दिया!”
निराश न हो गंगे! कभी अवसर मिले, तो मेरे शांतनु से तुम अपनी इच्छा प्रकट कर सकती हो। मुझे इसमें ज़रा भी आपत्ति न होगी; बल्कि तुम-सी दिव्य वधू पाकर मेरी सात पीढ़ियाँ तर जाएँगी।”
“महाराज की जय हो!”—गंभीर वाणी से गंगा ने भीष्म के दादा को आशीर्वाद दिया—“देवताओं का अभिप्राय पूरा हुआ। अब मैं देवव्रत की माता बन सकूँगी। आर्य! आपके सद्व्यवहार और सदाचार से संतुष्ट हो मैं आपको अक्षय यौवन का वरदान देती हूँ। आज से, आपके दर्शन करते ही, बूढ़ा-से-बूढ़ा प्राणी भी फ़ौरन नवयुवक हो जाएगा।”
राजर्षि को आश्चर्यचकित छोड़ गंगा, अपनी ही लहरों में लीन हो गई।
गंगदत्त...
उन्हीं दिनों पंडित गंगदत्त शर्मा नाम के एक मूर्ख विद्वान् इंद्रप्रस्थ महानगर के निकटस्थ किसी ग्राम में रहा करते थे। पंडितजी को मूर्ख विद्वान् लिखने में क़लम की कोई भूल नहीं; क्योंकि दुनिया में बहुत ऐसे प्राणी हैं, जो अक़्ल रखते हुए भी बेवक़ूफ़ी करते हैं। पंडित गंगदत्त शर्मा वैसे लोगों के पुराणकालीन अगुआ थे, इसमें ज़रा भी शक-ओ-शुब्ह की गुंजाइश नहीं है।
भीष्म पितामह के दादाजी की तरह पंडित गंगदत्तजी भी दादा स्वरूप हो गए थे, मगर, गंगा के तट पर पद्मासनासीन योग, नहीं, घोर भोग-विलास की वासना उनके मन में अब भी लहरा रही थी।
पंडितजी के 55 लड़के थे और 52 लड़कियाँ। वह उन सब के नाम कहाँ तक याद रखते! अतः 107 मनकों की एक माला उन्होंने तैयार करार्इ और प्रत्येक दाने पर एक-एक नाम खुदा लिया 55 लड़के, 52 लड़कियों का जोड़ 107।
पंडित गंगदत्त ने सोचा, दो दाने और होने से सुमेर के साथ पूरी माला तैयार हो जाएगी। मगर अब! गंगदत्तजी का शरीर शिथिल था। मन ही का कुनमुनाना नहीं रुकता था; अतः ...
“गांगी!”—अपनी धर्मपत्नी को संबोधित कर गंगदत्तजी बोले— “सुंदरी, दो बच्चों के अभाव से माला अधूरी रहती है। यदि तू कृपा करे...!”
“चुप रहो!”—स्त्री सुलभ लज्जा से लाल और पति की पुरुष-दुर्लभ निर्लज्जता से पीली पड़ कर गांगी बोली— ‘‘पौने दो सौ सालों से विलास करते आ रहे हो, और अब भी दो मनके बाक़ी हैं! हाथ हिलने लगे—बयार में झोपड़ी से लटकते तिनके की तरह, झूलने लगी—रसोई-घर की छान के झाले की तरह, इन्द्रियाँ पड़ गई हैं शिथिल; नाक में पानी, आँख में पानी—कमर गई है झुक; लेकिन दो मनकों की अभी कमी है! महाराज! अब तो रामराम!”
“शांत सुंदरी!”—अपनी 150 वर्ष की पत्नी के पोपले गालों को घोंघा-सा मुँह बनाकर स्पर्श करते हुए गंगदत्तजी ने कहा—“राम-राम नहीं, मैं ‘शिव-शिव’ का उपासक हूँ। और भगवान् शंकर ऐसे दयालु हैं कि भक्त को माँगते ही—मति गति भूति संपत्ति बड़ाई—फ़ौरन सौंप देते हैं। मुझसे और भोला बाबा से मित्रता भी है। तुम ज़रा क्षमा करो—मुझे तप कर आने दो! दो ही क्या सौ-सौ दाने बनाने की योग्यता—यौवन, सदाशिव से मैं वरदान माँग लाऊँ। जानती हो, तप से आर्यों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं।”
‘‘धिक्! ब्राह्मण’’—ब्राह्मणी ने सच कहा- ‘‘आर्यावर्त में रहते हुए भी आप विज्ञानी नहीं, ज्ञानी नहीं, कोरे अज्ञानी हैं! आपके पुत्र हैं, पुत्रियाँ हैं और हैं पुत्र-पुत्रियों के बच्चे...! फिर भी शंकर जैसे भगवान् को संतुष्ट कर आप लेंगे केवल यौवन! रत्नाकर से माँगना पंक! हिमालय से भर आँख धूल की कामना! छि:! सौ बार छि: ब्राह्मण!”
“तब यह माला पूरी कैसे होगी?”
गंगदत्त को ज्ञान का उतना ध्यान नहीं था। उन्हें तो माला पूरी करने की चिंता थी। गंगदत्तजी की मूर्खता विकारहीन थी।
“माला पूरी होगी चिता पर... मेरे मुँह से कुभाषा न सुनिए! मैं कहे देती हूँ—जप या तप से जवान बनकर अगर आप मेरे सामने आवेंगे, तो कह नहीं सकती, किस भाव से मैं आपका स्वागत करूँगी?”
“याने!”—तोते-सी गोल आँखें नचाकर आश्चर्य से गंगदत्त ने पूछा- “मैं जवान हो जाऊँगा, तो मुझे देखते ही तुम अहिंसा धर्म से निरत हो उठोगी?”
“मुझे विरत या निरत कुछ भी न होना होगा। सारी गृहस्थी की मैं मालकिन हूँ। ये 107 बच्चे मेरे हैं। आपके जवान होने पर घर की जो परिस्थिति होगी, उसे काल ही जानता होगा।”
“गंगदत्तजी! ओ पंडित गंगदत्तजी!” बाहर से किसी ने पुकारा।
“कौन? आवाज़ तो ब्राह्मण मोहदत्त की मालूम पड़ती है सुंदरी!”—बुड्ढी से गंगदत्तजी ने कहा—“ज़रा एक आसन तो लाओ। मेरा मित्र, ब्राह्मण मोहदत्त, इंद्रप्रस्थ से आया है...।”
तब तक एक निहायत जवान और गठीला, तेजस्वी ब्राह्मण कुटी के आँगन में आ धमका!
“हा-हा-हा! गंगदत्त! बूढ़े!”—आगंतुक ने कहा- ”तुमने मुझे पहचाना नहीं! हा-हा-हा-हा! मैं इंद्रप्रस्थ के तपस्वी सम्राट् के दर्शन-मात्र से जवान हो गया! हा हा हा हा!”
“क्या?”—आँखें फाड़-फाड़कर गठीले ब्राह्मण को गंगदत्त ने देखा पहचाना था, वह मोहदत्त ही!
“क्या?”—ब्राह्मणी बेचारी कुछ समझ ही न सकी—“तपस्वी राजा के दर्शनों से बूढ़ा मोहदत्त जवान हो गया! अब तो मेरा ब्राह्मण यह आतुर मर्द बिना जवान बने शायद ही रहे! तो क्या जवानी वाँछनीय है? तो क्या राजा के दर्शन तथा यौवन-लाभ कोई सद्लाभ हैं?”—ब्राह्मणी व्याकुल विचारने लगी।
और गांगी नाम से पाठक यों न समझें कि द्वापर युग की वह ब्राह्मणी मूर्खा थी! नहीं, वह विदुषी थी, पूरी। ब्राह्मणी का घर का नाम था मनोरमा, मगर, पंडित गंगदत्त ने उसको बदलकर गांगी इसलिए कर दिया था कि अर्धांगिनी का नाम भी अगर पति ही की तरह हो तो परम उत्तम! ख़ैर...
“अरे मोहा...!”—गंगदत्त ने पूछा- “तू जवान कैसे हो गया? परसों तक तो तेरी गति थी—‘अंगं गलितं पलितं मुण्डम्’; और आज! क्या एक ही रात में तूने भगवान् शंकर को प्रसन्न कर लिया...? या... क्या?”
“भाई गंगदत्त!”—मोहदत्त ने समझाया- “देर न करो! बुढ़ापे में एक क्षण भी काटना नरकवास है! ब्राह्मणी को संग लो और चलो मेरे साथ इंद्रप्रस्थ! महाराज के दर्शन कर मुक्त हो जाओ जरा के जाल से।”
“हाँ, हाँ”—आतुर गंगदत्त ने ब्राह्मणी की ओर देखते हुए कहा- चलो प्रिये! रथ भी मेरा मित्र मोहदत्त लेता आया है। जो वक़्त पर काम आवे वही मित्र। वाह भाई मोहदत्त! आज यह संवाद, ऐसी सदिच्छा से यहाँ लाकर तुमने हमें कृतार्थ कर दिया! चलो देर न करो!”—ब्राह्मणी को उन्होंने पुनः ललकारा।
मगर, वह आर्या टस से मस न हुई...
“जवानी, ऐसी नारकीय अवस्था के लिए मैं न तो किसी देव से वरदान माँगूगी, न ही परपुरुष का मुँह ताकती फिरूँगी।”
“जवानी-नारकीय कैसे?” स्त्री के हठ से चिढ़कर गंगदत्त ने पूछा।
“इसे मैं जानती हूँ। 107 बार माता बनने में जो नारकीय कष्ट मुझे भोगने पड़े, वे क्यों? इसी जवानी के लिए। बचपन में अज्ञान है, बुढ़ापे में ज्ञान। मगर, इस जवानी में ज्ञानाज्ञान का ऐसा गोरखधंधा है, जिसमें पड़ कर धोखा खाए बिना शायद ही कोई बचा हो। ज्ञान ही की तरह, मैं तो, शुद्ध अज्ञान को भी दिव्य मानती हूँ। मगर, भ्रम से है मुझे घृणा। और भ्रम ही में जवानी सबकी मचलती चलती है।”
“यौवन-ऐसी देवदुर्लभ अवस्था को यह मूर्खा ब्राह्मणी भ्रम और नरक का फाटक कह रही है। देखते हो मोहदत्त..., स्त्री-बुद्धिः प्रलयंकरी!”
“अच्छा, इन्हें बूढ़ी ही रहने दीजिए!”—मोहृदत्त ने मित्र को राय दी—“आप तो चलकर महाराज के दर्शन प्राप्त कीजिए और प्राप्त कीजिए अप्राप्य यौवन—अनायास! मेरे कहने का अभिप्राय यह कि जो चीज़ अनायास मिले, उसे ग्रहण कर भोग लेने में ब्राह्मण के लिए शास्त्रानुसार भी कोई दोष नहीं।”
“क्षमा, आर्य मोहदत्त!”—नम्रता से ब्राह्मणी ने व्यंग किया—“अनायास अगर मैला मिल जाए, तो क्या ब्राह्मण उसका शास्त्रानुसार भोग करेगा? अ—हँ! आप दोनों सज्जन मेरे तर्क पर नाक फुला रहे हैं। मैं सच कहती हूँ—और ब्राह्मणी सच ही कहती है—यौवन मानव जीवन का मैला है।”
“अरी मूर्खा! क्रोध मुझे न दिला!”—बिगड़े अब पंडित गंगदत्तजी—“चरक भगवान् ने लिखा है कि मैला पेट में न रहे, तो आदमी जी नहीं सकता! मनुष्य के अंग-अंग से, रोम-रोम से, क्या प्रकट होता है?—मैला! इस मैले संसार में वही मोटा नज़र आवेगा, जो पुष्ट हो, जिसमें मैले ज़्यादा हो। यौवन? हाँ, है मैला। यह, जिसकी सफ़ाई होते ही मनुष्य जीवन की भी सफ़ाई हो जाती है—चौका लग जाता है। मैले का महत्त्व तुझको समझाना होगा नारी...?”
इसके बाद मोहदत्त से, दुखित भावेन गंगदत्त ने कहा— ‘‘जाओ भाई! मैं इस औरत के वश में हूँ। बिना अर्धांगिनी की इच्छा—कोई भी काम शास्त्र के मत से मैं नहीं कर सकता। चलो बाहर। इस कुटी की वायु में मुझे जरा और मरण भयंकर नज़र आ रहे हैं।”
कुटी के बाहर आते ही मोहदत्त ने देखा उनके रथ को घेरकर कोई सौ-सवा सौ नर-नारियों की भीड़ खड़ी है। कुछ साफ़ न समझ उन्होंने गंगदत्त से पूछा— ‘‘क्यों? क्या ये लोग आपके दर्शनार्थ आए हैं...या शिष्य हैं, कि यजमान?’’
‘‘अरे वाह!”—गंगदत्त ने मुँह पसारकर उत्तर दिया—“ब्राह्मण! तुम मेरे परिवार को भूल गए? मैं कुल मिलाकर 107 आदमियों का पिता हूँ। ये सब मेरे बच्चे! आपके रथ की कलामयी कारीगरी देख रहे हैं।”
“हा-हा-हा! भाई गंगदत्त! पहली जवानी में जब तुमने इतनी सृष्टि रच दी, तो एक बार और जवान होने से तुम्हारा नाम प्रजापति दक्ष (द्वितीय) मशहूर होगा।”
“यह बुड्ढी ब्राह्मणी माने तब तो। मैं प्रजापति को भी, सृष्टि में क्रांति दिखा दूँ, मगर मेरी औरत, जरठ होने से, बुद्धिहीन हो गई!”—दुख-कातर गंगदत्त ने उत्तर दिया। वह मुँह में पानी भरकर अपने मित्र का नवयौवन निहारने लगे। तब तक दोनों रथ के निकट आ रहे। भीड़ छँट गई।
“वाह!”—रथ के सफ़ेद घोड़ों की तारीफ़ करते हुए गंगदत्त ने कहा- “मोहदत्त! घोड़े तो बड़े बाँके हैं।”
‘‘घोड़े मैंने श्वेत द्वीप से मँगाए हैं। मुझे रथ का बड़ा शौक़ है।’’—मस्त मोहदत्त ने रास सँभाली—वह बैठ भी गया रथ पर— ‘‘आओ गंगदत्त मित्र! इंद्रप्रस्थ से होते आओ। औरत के फेर में स्वर्गलाभ से वंचित न हो!’’
“हाँ!”—उछलकर आतुर और बूढ़ा ब्राह्मण अब अपने मित्र के पार्श्व में डट गया—“सारथी का काम आश्रम में मैंने भी सीखा है—ये घोड़े—वाह! रास ज़रा मुझे तो देना—!”
और गंगदत्त ने मोहदत्त के रथ के बाँके घोड़ों को इशारा किया! और क्षण-भर बाद, दोनों मित्र, इंद्रप्रस्थ की ओर सनकते नज़र आने लगे।
कोई ज़्यादा दूर जाना तो था नहीं। शाम होने से पहले ही राजधानी में मोहदत्त का रथ गंगदत्त हाँकते दिखाई पड़े।
याने, मनोरथ उन्होंने अपना पूरा किया अविलंब दर्शन लाभ कर महाराजर्षि के, जिन्हें अनंत यौवन का वरदान गंगा ने दिया था!
और लो, ब्राह्मण गंगदत्त भी मोहदत्त की तरह पूर्ण नव यौवन पा गए।
यौवन पाते ही गंगदत्त ने अपने मित्र का साथ छोड़ दिया और छोड़ दिया स्वार्थपूर्ण उजलत से! उन्हें बड़ी इच्छा हुई, पहले दर्पण में मुँह देखने की। मगर, वहाँ दर्पण कहाँ। इंद्रप्रस्थ के बाज़ार में बिकते होंगे बीसियों, लेकिन पैसे—? ब्राह्मण के पास पैसे कहाँ! गंगदत्त ने सोचा—तो किसी तालाब के पानी मे मुँह देखना चाहिए। मगर, रात का ध्यान आते ही यह विचार भी छोड़ देना पड़ा।
नवयुवक ब्राह्मण गंगदत्तजी रात अधिक बीत जाने तक राजधानी की सड़कों पर चक्कर काटते रहे। मगर, आईना पाने की सूरत उन्हें न दिखाई पड़ी। आख़िर हताश हो, ज्यों ही वह अपनी कुटी की ओर लौटना चाहते थे, त्यों ही, नर्तकी रामा के घर की ओर उनकी नज़र गई।
रामा अपनी रमणीक बैठक में बैठी (प्राचीन चीन के) दर्पण में मुँह देख रही थी। कंचन की चौकी पर रत्न का एक दीपक पास ही जल रहा था।
ब्राह्मण ने विचार किया—यदि किसी तरह इस नर्तकी के दर्पण में मैं अपना मुँह देख पाता!
आख़िर आतुर गंगदत्तजी, विवेकहीन हो, दबे पाँव, नर्तकी के पीछे जा खड़े हुए और चोरों की तरह उन्होंने दर्पण में झाँका!
“अहो! अहो! धन्य! धन्य!”—अपना नवस्वरूप देखते ही गंगदत्त पागलों की तरह प्रसन्नता से नाच और चिल्ला उठे।
नर्तकी रामा चौंककर मारे भय के घिघियाने लगी—बचाओ! चोर, उचक्का!
सैकड़ों नागरिक जुट गए और विकल ब्राह्मण यज्ञोपवीत दिखाकर पिटते-पिटते बचा!
कुटी की ओर लौटते हुए गंगदत्त ने सोचा बेशक मैं जवान हो गया। क्योंकि जवानी की पहली निशानी अविवेक मुझमें प्रकट हो गया! नर्तकी के दर्पण में मैंने अपना मुँह देखा आतुर होकर—बचा पीठ की पूजा पाते-पाते! वाह!
वाह!—नवब्राह्मण ने सोचा—वेश्या वह युवती...? मेरी पत्नी भी अगर महाराज के दर्शन कर ले, तो वह भी इसी वेश्या-सी नवेली—आह!—गंगदत्त का मुँह प्राचीन उच्छृङखल होने से पुनः बिचका—मैं... ब्राह्मण अपनी पत्नी की समता वेश्या के यौवन से! है न अविवेक? वाह! अब मैं जवान हो गया—बेशक!
और गंगदत्त का पूरा कुल एक ही जगह पर बसा हुआ था—उनकी कुटी के चौगिर्द। अधिक रात हो जाने के कारण सभी सो गए थे। ब्राह्मणों के घृत के दीपक भी बुझ चुके थे। ऐसे अवसर पर गंगदत्त चुपचाप अपनी झोपड़ी में घुसे।
“कौन...?”—सजग ब्राह्मणी ने खाँसकर पूछा।
“मैं हूँ... सुंदरी!”—निर्भय और प्रसन्न गंगदत्त ने कहा।
पति की आवाज़ पहनानते ही ब्राह्मणी ने अग्निहोत्र की आग से दीपक प्रज्वलित किया और देखा।
“अरे, ज्ञानदत्त! पुत्र!”—देखते ही ब्राह्मणी बिगड़ी- “पापी! इस रात में अपनी माता को तू 'सुंदरी' पुकारने यहाँ आया है? क्या तूने आज सुरा पी है? निकल, तेरी कुटी उधर है... हाय रे, मेरा ब्राह्मण रथ पर चढ़कर कहाँ चला गया?”
“मैं—मैं ही हूँ वह ब्राह्मण तुम्हारा सुंदरी!”—गंगदत्त ने पुनः समझाना चाहा—“मैं जवान हो गया हूँ—राजर्षि के दर्शन कर। डरो मत। भागो मत! मैं तुम्हारा पति हूँ।”
“बाप रे! दौड़ो रे!”—ब्राह्मणी अधिक अपमान न सह सकी—“बचाओ! मेरा पुत्र पागल हो गया है?
और सारा कुल—अँधेरी रात में उल्काएँ हाथों में लिए—कुटी के चारों ओर इकट्ठा हो गया!
भारी कोलाहल मचा—कौन लड़का है? कौन ऐसा नालायक़ है? मारो! इसकी हत्या कर दो! सभी झपटे अपने बेचारे ब्राह्मण बाप पर, उसके कायाकल्प से अज्ञात।
अब गंगदत्त बड़े फेर में पड़े। किसी को उनकी बात पर एतबार ही न आया। उन्हीं के अनेक लड़के इस वक़्त देखने में गंगदत्तजी के चचा मालूम पड़ते थे!
गंगदत्तजी ने एक-एक का नाम लेकर परिचय दिया। बहुत-सी घरेलू बातें बताई। यहाँ तक कि सारे कुल को उन्होंने अपने पीछे का एक धब्बा भी खोलकर दिखाया—मगर, फिर भी किसी ने विश्वास न किया।
तब, मारे झुँझलाहट, खीझ और लाचारी के नौजवान गंगदत्त ब्राह्मण बालकों की तरह रो पड़े।
“हाय रे! जवानी लेकर मैंने कहाँ का पाप ख़रीदा...मेरी सारी शांति नष्ट हो गई।”
मगर, सारा कुल इतना क्षुब्ध हो उठा कि अगर भाग न जाते तो गंगदत्तजी की हत्या उन्हीं के परिवार के लोग उस रात में ज़रूर कर देते!
गांगी...
उक्त घटना के कई दिनों बाद तक जब पंडित गंगदत्तजी का कोई पता कुलवालों को न लगा तब ब्राह्मणी विकल हो उठी। उसने अपने पुत्रों को राजधानी में भेजकर मोहदत्त से पता लगाया, तो भेद सारा खुल गया! अब मालूम हुआ गंगदत्त के कुल को कि उस रात में जो नवयुवक पिटते-पिटते बचा, उसकी बातें सच थीं। वह और कोई नहीं—पंडित गंगदत्त स्वयं थे, जो राजाधिराज के दर्शन से युवक बन गए थे।
अब तो सारे कुल में स्यापा छा गया! ब्राह्मणी दहाड़ मार-मारकर रोने लगी। पति के अपमान से जो नरक उसे परलोक में भोगना पड़ेगा, उसकी कल्पनामात्र से वह काँप-काँप उठी!
“आह!”—उसने सोचा—“पतिदेव इसलिए भाग गए कि बूढ़ी मैं उनके योग्य नहीं, बल्कि दुःख का कारण हूँ। तो? क्या मैं भी पर-पुरुष से आँखें मिलाकर नवयुवती बनूँ और पतिदेव को सुखी करूँ, जो आर्या का परम धर्म है? मगर नहीं, पर-पुरुष की ओर मैं कदापि न देखूँगी। मैं...!”—गांगी गंभीर हो सोचने लगी—“मैं तपस्विनी बनूँगी। पति के प्रसन्नतार्थ यौवन पाने के लिए माता गौरी पार्वती की तपस्या करूँगी।”
और ब्राह्मणी, दृढ़, दूसरे ही दिन उठ भोर, सारी मोह-माया त्याग तप करने हिमालय चली गई।
और उसने ऐसी तपस्या की कि ऐसी तपस्विनी से माता पार्वती प्रसन्न हो प्रकट हो गर्इं! उन्होंने ब्राह्मणी को फ़ौरन युवती बना दिया!
फिर भी, यह सब करते-कराते ग्यारह महीने बीत ही गए। ग्यारह महीने बाद, जवान बनकर, गांगी एक रात, अपनी कुटी में लौट आई और माता पार्वती के प्रसाद से, उसी रात, गांगी के पतिदेव भी पुनः झोपड़ी पर पधारे—“गांगी! देवी! लो शंकर की तपस्या कर मैं फिर से बूढ़ा बनकर आ गया! तुम बूढ़ी—मैं बूढ़ा! प्रिये! हम में द्वैध अब नहीं—हम एकाकार है! आग लगे ऐसी कायाकल्पित नवजवानी में जिसके कारण मैं पिटते-पिटते, मरते-मरते बचा—अरे!”
इसी समय, कुटी के बाहर आती गांगी नवयौवना को गंगदत्त ने ग़ौर से गुरेर कर ताका।
“कौन? ब्राह्मणी? क्या तू भी राजर्षि के दर्शन कर आई?”
“हम स्त्रियाँ माता गौरी की कृपा से नवयौवन, जीवन, तन, मन, धन पाती हैं साजन!”
गौरी की कृपा से रसीली गांगी ने, शंकर के वरदान से सूखे गंगदत्त के हिलते हिमशीतल हाथों को प्रेम से पुलकित हो अपनी मृणाल-सी बाहु में लपेट लिया।
ganga
mahatma wedawyasji ne mahabharat mein likha hai gangaputr bheeshm ke pita shri shantnu maharaj ko dekhte hi buDha parani jawan ho jata tha
magar, main bhool kar raha hoon wo bheeshm ke pitaji nahin, dadaji the, jinmen ukt gunon ka aarop mahabharatkar ne kiya hai
ek bar bheeshm pitamah ke pitamahji surasari tat par, ganga tarang him shital shilakhanD par wirajman bhagwan ke dhyan, tap ya yog mein nirat the kafi way ho jane par bhi wo tejaswi the—bali—wishal bahu lalat ujjwal aur unnat, ankhen baDi aur kamalwat wo sushri darshaniy the!
ganga ke manas par unki adbhut chhawi jyon hi pratiphlit hui, jiwan tarangen lahrane lagi bheeshm ke dadaji par mugdh ho nawyuwti sundari ka roop dhar ganga prakat hi to huin dhyanawasthit rajarshai ki dahini palthi par wo mahaunmatt ho ja baithin!
chamakkar netr kholte hi tap mein badha ki tarah apne aadhe ang par ganga ko maujen marte dadaji ne dekha
“kaun aurat ?”—gambhir swar se parashn hua
“ji main ganga hoon, maharaj! aapke diwy roop ko dekhte hi—chandr par chakor ki tarah—main pagal ho uthi hoon! ab main apaki hun—har tarah se ”
lajja se anuranjit ho ganga ne apni gori banhen bheeshm ke dada ke sukanth ki or baDha deen
“gange!”—dadaji ne satej jawab diya—“tum ekayek meri dahini jaangh par aa baithin, jo beti ya bahu ke baithne ka sthan hai ab tumhein patni roop mein swikar karne se sanatani aary maryada bhang ho jayegi maryada—apni chal—tutne se kul winsht ho jata hai kul ke winash se pitron ko ghor narak yatana hoti hai, jisse manushya ka sarwanash ho jata hai ”
kshatriy rajarshai ka tark uchit aur many—ganga mare laj ke prithwi mein Dubti nazar aane lagin hatash ho, sukhi si, wo dadaji ki god se niche sarak rahin
aur ganga si pawitra, darshniya ramni ko lajjit aur nirash karne ka kshatriy maharaj ke man mein ghor khed hua
“maharaj!”—sajal ganga bolin—“daiw widhananusar main mata banna chahti hoon, isi hetu se tapoput, kulin jankar apaki sewa mein i lekin aapne to mujhko beti bana diya!”
nirash na ho gange! kabhi awsar mile, to mere shantnu se tum apni ichha prakat kar sakti ho mujhe ismen zara bhi apatti na hogi; balki tum si diwy wadhu pakar meri sat piDhiyan tar jayengi ”
“maharaj ki jay ho!”—gambhir wani se ganga ne bheeshm ke dada ko ashirwad diya—“dewtaon ka abhipray pura hua ab main dewawrat ki mata ban sakungi aary! aapke sadwyawhar aur sadachar se santusht ho main aapko akshay yauwan ka wardan deti hoon aaj se, aapke darshan karte hi, buDha se buDha parani bhi fauran nawyuwak ho jayega ”
rajarshai ko ashcharyachkit chhoD ganga, apni hi lahron mein leen ho gai
gangdatt
unhin dinon panDit gangdatt sharma nam ke ek moorkh widwan indraprastha mahangar ke niktasth kisi gram mein raha karte the panDitji ko moorkh widwan likhne mein qalam ki koi bhool nahin; kyonki duniya mein bahut aise parani hain, jo aqal rakhte hue bhi bewaqufi karte hain panDit gangdatt sharma waise logon ke purankalin agua the, ismen zara bhi shak o shubah ki gunjaish nahin hai
bheeshm pitamah ke dadaji ki tarah panDit gangdattji bhi dada swarup ho gaye the, magar, ganga ke tat par padmasnasin yog, nahin, ghor bhog wilas ki wasana unke man mein ab bhi lahra rahi thi
panDitji ke 55 laDke the aur 52 laDkiyan wo un sab ke nam kahan tak yaad rakhte! at 107 mankon ki ek mala unhonne taiyar karari aur pratyek dane par ek ek nam khuda liya 55 laDke, 52 laDkiyon ka joD 107
panDit gangdatt ne socha, do dane aur hone se sumer ke sath puri mala taiyar ho jayegi magar ab! gangdattji ka sharir shithil tha man hi ka kunmunana nahin rukta tha; at
“gangi!”—apni dharmpatni ko sambodhit kar gangdattji bole “sundri, do bachchon ke abhaw se mala adhuri rahti hai yadi tu kripa kare !”
“chup raho!”—istri sulabh lajja se lal aur pati ki purush durlabh nirlajjata se pili paD kar gangi boli ‘‘paune do sau salon se wilas karte aa rahe ho, aur ab bhi do manke baqi hain! hath hilne lage—bayar mein jhopDi se latakte tinke ki tarah, jhulne lagi—rasoi ghar ki chhan ke jhale ki tarah, indriyan paD gai hain shithil; nak mein pani, ankh mein pani—kamar gai hai jhuk; lekin do mankon ki abhi kami hai! maharaj! ab to ramram!”
“shant sundri!”—apni 150 warsh ki patni ke pople galon ko ghongha sa munh banakar sparsh karte hue gangdattji ne kaha—“ram ram nahin, main shiw shiw ka upasak hoon aur bhagwan shankar aise dayalu hain ki bhakt ko mangte hi—mati gati bhuti sampatti baDai—fauran saunp dete hain mujhse aur bhola baba se mitrata bhi hai tum zara kshama karo—mujhe tap kar aane do! do hi kya sau sau dane banane ki yogyata—yauwan, sadashiw se main wardan mang laun janti ho, tap se aryon ke liye kuch bhi durlabh nahin ”
‘‘dhik! brahman’’—brahmanai ne sach kaha ‘‘aryawart mein rahte hue bhi aap wigyani nahin, gyani nahin, kore agyani hain! aapke putr hain, putriyan hain aur hain putr putriyon ke bachche ! phir bhi shankar jaise bhagwan ko santusht kar aap lenge kewal yauwan! ratnakar se mangna pank! himale se bhar ankh dhool ki kamna! chhih! sau bar chhih brahman!”
“tab ye mala puri kaise hogi?”
gangdatt ko gyan ka utna dhyan nahin tha unhen to mala puri karne ki chinta thi gangdattji ki murkhata wikarhin thi
“mala puri hogi chita par mere munh se kubhasha na suniye! main kahe deti hun—jap ya tap se jawan bankar agar aap mere samne awenge, to kah nahin sakti, kis bhaw se main aapka swagat karungi?”
“yane!”—tote si gol ankhen nachakar ashchary se gangdatt ne puchha “main jawan ho jaunga, to mujhe dekhte hi tum ahinsa dharm se nirat ho uthogi?”
“mujhe wirat ya nirat kuch bhi na hona hoga sari grihasthi ki main malkin hoon ye 107 bachche mere hain aapke jawan hone par ghar ki jo paristhiti hogi, use kal hi janta hoga ”
“gangdattji! o panDit gangdattji!” bahar se kisi ne pukara
“kaun? awaz to brahman mohdatt ki malum paDti hai sundri!”—buDDhi se gangdattji ne kaha—“zara ek aasan to lao mera mitr, brahman mohdatt, indraprastha se aaya hai ”
tab tak ek nihayat jawan aur gathila, tejaswi brahman kuti ke angan mein aa dhamka!
“ha ha ha! gangdatt! buDhe!”—agantuk ne kaha ”tumne mujhe pahchana nahin! ha ha ha ha! main indraprastha ke tapaswi samrat ke darshan matr se jawan ho gaya! ha ha ha ha!”
“kya?”—ankhen phaD phaDkar gathile brahman ko gangdatt ne dekha pahchana tha, wo mohdatt hee!
“kya?”—brahmanai bechari kuch samajh hi na saki—“tapaswi raja ke darshnon se buDha mohdatt jawan ho gaya! ab to mera brahman ye aatur mard bina jawan bane shayad hi rahe! to kya jawani wanchhaniy hai? to kya raja ke darshan tatha yauwan labh koi sadlabh hain?”—brahmanai wyakul wicharne lagi
aur gangi nam se pathak yon na samjhen ki dwapar yug ki wo brahmanai murkha thee! nahin, wo widushai thi, puri brahmanai ka ghar ka nam tha manorama, magar, panDit gangdatt ne usko badalkar gangi isliye kar diya tha ki ardhangini ka nam bhi agar pati hi ki tarah ho to param uttam! khair
“are moha !”—gangdatt ne puchha “tu jawan kaise ho gaya? parson tak to teri gati thi—‘angan galitan palitan munDam’; aur aaj! kya ek hi raat mein tune bhagwan shankar ko prasann kar liya ? ya kya?”
“bhai gangdatt!”—mohdatt ne samjhaya “der na karo! buDhape mein ek kshan bhi katna narakwas hai! brahmanai ko sang lo aur chalo mere sath indraprastha! maharaj ke darshan kar mukt ho jao jara ke jal se ”
“han, han”—atur gangdatt ne brahmanai ki or dekhte hue kaha chalo priye! rath bhi mera mitr mohdatt leta aaya hai jo waqt par kaam aawe wahi mitr wah bhai mohdatt! aaj ye sanwad, aisi sadichchha se yahan lakar tumne hamein kritarth kar diya! chalo der na karo!”—brahmanai ko unhonne pun lalkara
magar, wo aarya tas se mas na hui
“jawani, aisi narakiy awastha ke liye main na to kisi dew se wardan mangugi, na hi parpurush ka munh takti phirungi ”
“jawani narakiy kaise?” istri ke hath se chiDhkar gangdatt ne puchha
“ise main janti hoon 107 bar mata banne mein jo narakiy kasht mujhe bhogne paDe, we kyon? isi jawani ke liye bachpan mein agyan hai, buDhape mein gyan magar, is jawani mein gyanagyan ka aisa gorakhdhandha hai, jismen paD kar dhokha khaye bina shayad hi koi bacha ho gyan hi ki tarah, main to, shuddh agyan ko bhi diwy manti hoon magar, bhram se hai mujhe ghrina aur bhram hi mein jawani sabki machalti chalti hai ”
“yauwan aisi dewdurlabh awastha ko ye murkha brahmanai bhram aur narak ka phatak kah rahi hai dekhte ho mohdatt , istri buddhiः pralyankri!”
“achchha, inhen buDhi hi rahne dijiye!”—mohridatt ne mitr ko ray di—“ap to chalkar maharaj ke darshan prapt kijiye aur prapt kijiye aprapy yauwan—anayas! mere kahne ka abhipray ye ki jo cheez anayas mile, use grahn kar bhog lene mein brahman ke liye shastranusar bhi koi dosh nahin ”
“kshama, aary mohdatt!”—namrata se brahmanai ne wyang kiya—anayas agar maila mil jay, to kya brahman uska shastranusar bhog karega? a—han! aap donon sajjan mere tark par nak phula rahe hain main sach kahti hun—aur brahmanai sach hi kahti hai—yauwan manaw jiwan ka maila hai ”
“ari murkha! krodh mujhe na dila!”—bigDe ab panDit gangdattji—“charak bhagwan ne likha hai ki maila pet mein na rahe, to adami ji nahin sakta! manushya ke ang ang se, rom rom se, kya prakat hota hai?—maila! is maile sansar mein wahi mota nazar awega, jo pusht ho, jismen maile zyada ho yauwan? han, hai maila ye, jiski safai hote hi manushya jiwan ki bhi safai ho jati hai—chauka lag jata hai maile ka mahattw tujhko samjhana hoga nari ?”
iske baad mohdatt se, dukhit bhawen gangdatt ne kaha ‘‘jao bhai! main is aurat ke wash mein hoon bina ardhangini ki ichha—koi bhi kaam shastr ke mat se main nahin kar sakta chalo bahar is kuti ki wayu mein mujhe jara aur marn bhayankar nazar aa rahe hain ”
kuti ke bahar aate hi mohdatt ne dekha unke rath ko gherkar koi sau sawa sau nar nariyon ki bheeD khaDi hai kuch saf na samajh unhonne gangdatt se puchha ‘‘kyon? kya ye log aapke darshanarth aaye hain ya shishya hain, ki yajman?’’
‘‘are wah!”—gangdatt ne munh pasarkar uttar diya—“brahman! tum mere pariwar ko bhool gaye? main kul milakar 107 adamiyon ka pita hoon ye sab mere bachche! aapke rath ki kalamyi karigari dekh rahe hain ”
“ha ha ha! bhai gangdatt! pahli jawani mein jab tumne itni sirishti rach di, to ek bar aur jawan hone se tumhara nam prajapati daksh (dwitiy) mashhur hoga ”
“yah buDDhi brahmanai mane tab to main prajapati ko bhi, sirishti mein kranti dikha doon, magar meri aurat, jarath hone se, buddhihin ho gai!”—dukh katar gangdatt ne uttar diya wo munh mein pani bharkar apne mitr ka nawyauwan niharne lage tab tak donon rath ke nikat aa rahe bheeD chhant gai
“wah!”—rath ke safed ghoDon ki tarif karte hue gangdatt ne kaha “mohdatt! ghoDe to baDe banke hain ”
‘‘ghoDe mainne shwet dweep se mangaye hain mujhe rath ka baDa shauq hai ’’—mast mohdatt ne ras sambhali—wah baith bhi gaya rath par ‘‘ao gangdatt mitr! indraprastha se hote aao aurat ke pher mein swarglabh se wanchit na ho!’’
“han!”—uchhalkar aatur aur buDha brahman ab apne mitr ke parshw mein Dat gaya—“sarthi ka kaam ashram mein mainne bhi sikha hai—ye ghoDe—wah! ras zara mujhe to dena—!”
aur gangdatt ne mohdatt ke rath ke banke ghoDon ko ishara kiya! aur kshan bhar baad, donon mitr, indraprastha ki or sanakte nazar aane lage
koi zyada door jana to tha nahin sham hone se pahle hi rajdhani mein mohdatt ka rath gangdatt hankte dikhai paDe
yane, manorath unhonne apna pura kiya awilamb darshan labh kar maharajarshi ke, jinhen anant yauwan ka wardan ganga ne diya tha!
aur lo, brahman gangdatt bhi mohdatt ki tarah poorn naw yauwan pa gaye
yauwan pate hi gangdatt ne apne mitr ka sath chhoD diya aur chhoD diya swarthpurn ujlat se! unhen baDi ichha hui, pahle darpan mein munh dekhne ki magar, wahan darpan kahan indraprastha ke bazar mein bikte honge bisiyon, lekin paise—? brahman ke pas paise kahan! gangdatt ne socha—to kisi talab ke pani mae munh dekhana chahiye magar, raat ka dhyan aate hi ye wichar bhi chhoD dena paDa
nawyuwak brahman gangdattji raat adhik beet jane tak rajdhani ki saDkon par chakkar katte rahe magar, aina pane ki surat unhen na dikhai paDi akhir hatash ho, jyon hi wo apni kuti ki or lautna chahte the, tyon hi, nartki rama ke ghar ki or unki nazar gai
rama apni ramnik baithak mein baithi (prachin cheen ke) darpan mein munh dekh rahi thi kanchan ki chauki par ratn ka ek dipak pas hi jal raha tha
brahman ne wichar kiya—yadi kisi tarah is nartki ke darpan mein main apna munh dekh pata!
akhir aatur gangdattji, wiwekhin ho, dabe panw, nartki ke pichhe ja khaDe hue aur choron ki tarah unhonne darpan mein jhanka!
“aho! aho! dhany! dhany!”—apna nawaswrup dekhte hi gangdatt pagalon ki tarah prasannata se nach aur chilla uthe
nartki rama chaunkkar mare bhay ke ghighiyane lagi—bachao! chor, uchakka!
kuti ki or lautte hue gangdatt ne socha beshak main jawan ho gaya kyonki jawani ki pahli nishani awiwek mujhmen prakat ho gaya! nartki ke darpan mein mainne apna munh dekha aatur hokar—bacha peeth ki puja pate pate! wah!
wah!—nawabrahman ne socha—weshya wo yuwati ? meri patni bhi agar maharaj ke darshan kar le, to wo bhi isi weshya si naweli—ah!—gangdatt ka munh prachin uchchhringkhal hone se pun bichka—main brahman apni patni ki samta weshya ke yauwan se! hai na awiwek? wah! ab main jawan ho gaya—beshak!
aur gangdatt ka pura kul ek hi jagah par bsa hua tha—unki kuti ke chaugird adhik raat ho jane ke karan sabhi so gaye the brahmnon ke ghrit ke dipak bhi bujh chuke the aise awsar par gangdatt chupchap apni jhopDi mein ghuse
“kaun ?”—sajag brahmanai ne khansakar puchha
“main hoon sundri!”—nirbhay aur prasann gangdatt ne kaha
pati ki awaz pahnante hi brahmanai ne agnihotr ki aag se dipak prajwalit kiya aur dekha
“are, gyandatt! putr!”—dekhte hi brahmanai bigDi “papi! is raat mein apni mata ko tu sundri pukarne yahan aaya hai? kya tune aaj sura pi hai? nikal, teri kuti udhar hai hay re, mera brahman rath par chaDhkar kahan chala gaya?”
“main—main hi hoon wo brahman tumhara sundri!”—gangdatt ne pun samjhana chaha—“main jawan ho gaya hun—rajarshai ke darshan kar Daro mat bhago mat! main tumhara pati hoon ”
“bap re! dauDo re!”—brahmanai adhik apman na sah saki—“bachao! mera putr pagal ho gaya hai?
aur sara kul—andheri raat mein ulkayen hathon mein liye—kuti ke charon or ikattha ho gaya!
bhari kolahal macha—kaun laDka hai? kaun aisa nalayaq hai? maro! iski hattya kar do! sabhi jhapte apne bechare brahman bap par, uske kayakalp se agyat
ab gangdatt baDe pher mein paDe kisi ko unki baat par etbar hi na aaya unhin ke anek laDke is waqt dekhne mein gangdattji ke chacha malum paDte the!
gangdattji ne ek ek ka nam lekar parichai diya bahut si gharelu baten batai yahan tak ki sare kul ko unhonne apne pichhe ka ek dhabba bhi kholkar dikhaya—magar, phir bhi kisi ne wishwas na kiya
tab, mare jhunjhlahat, kheejh aur lachari ke naujawan gangdatt brahman balkon ki tarah ro paDe
“hay re! jawani lekar mainne kahan ka pap kharida meri sari shanti nasht ho gai ”
magar, sara kul itna kshaubdh ho utha ki agar bhag na jate to gangdattji ki hattya unhin ke pariwar ke log us raat mein zarur kar dete!
gangi
ukt ghatna ke kai dinon baad tak jab panDit gangdattji ka koi pata kulwalon ko na laga tab brahmanai wikal ho uthi usne apne putron ko rajdhani mein bhejkar mohdatt se pata lagaya, to bhed sara khul gaya! ab malum hua gangdatt ke kul ko ki us raat mein jo nawyuwak pitte pitte bacha, uski baten sach theen wo aur koi nahin—panDit gangdatt swayan the, jo rajadhiraj ke darshan se yuwak ban gaye the
ab to sare kul mein syapa chha gaya! brahmanai dahaD mar markar rone lagi pati ke apman se jo narak use parlok mein bhogna paDega, uski kalpnamatr se wo kanp kanp uthi!
“ah!”—usne socha—“patidew isliye bhag gaye ki buDhi main unke yogya nahin, balki duःkh ka karan hoon to? kya main bhi par purush se ankhen milakar nawyuwti banun aur patidew ko sukhi karun, jo aarya ka param dharm hai? magar nahin, par purush ki or main kadapi na dekhungi main !”—gangi gambhir ho sochne lagi—“main tapaswini banungi pati ke prsanntarth yauwan pane ke liye mata gauri parwati ki tapasya karungi ”
aur brahmanai, driDh, dusre hi din, uth bhor, sari moh maya tyag, tap karne himale chali gai
aur usne aisi tapasya ki ki aisi tapaswini se mata parwati prasann ho prakat ho garin! unhonne brahmanai ko fauran yuwati bana diya!
phir bhi, ye sab karte karate gyarah mahine beet hi gaye gyarah mahine baad, jawan bankar, gangi ek raat, apni kuti mein laut i aur mata parwati ke parsad se, usi raat, gangi ke patidew bhi pun jhopDi par padhare—“gangi! dewi! lo shankar ki tapasya kar main phir se buDha bankar aa gaya! tum buDhi—main buDha! priye! hum mein dwaidh ab nahin—ham ekakar hai! aag lage aisi kayakalpit nawajwani mein jiske karan main pitte pitte, marte marte bacha—are!”
isi samay, kuti ke bahar aati gangi nawyauwana ko gangdatt ne ghaur se gurer kar taka
“kaun? brahmanai? kya tu bhi rajarshai ke darshan kar i?”
“ham striyan mata gauri ki kripa se nawyauwan, jiwan, tan, man, dhan pati hain sajan!”
gauri ki kripa se rasili gangi ne, shankar ke wardan se sukhe gangdatt ke hilte himshital hathon ko prem se pulkit ho apni mrinal si bahu mein lapet liya
ganga
mahatma wedawyasji ne mahabharat mein likha hai gangaputr bheeshm ke pita shri shantnu maharaj ko dekhte hi buDha parani jawan ho jata tha
magar, main bhool kar raha hoon wo bheeshm ke pitaji nahin, dadaji the, jinmen ukt gunon ka aarop mahabharatkar ne kiya hai
ek bar bheeshm pitamah ke pitamahji surasari tat par, ganga tarang him shital shilakhanD par wirajman bhagwan ke dhyan, tap ya yog mein nirat the kafi way ho jane par bhi wo tejaswi the—bali—wishal bahu lalat ujjwal aur unnat, ankhen baDi aur kamalwat wo sushri darshaniy the!
ganga ke manas par unki adbhut chhawi jyon hi pratiphlit hui, jiwan tarangen lahrane lagi bheeshm ke dadaji par mugdh ho nawyuwti sundari ka roop dhar ganga prakat hi to huin dhyanawasthit rajarshai ki dahini palthi par wo mahaunmatt ho ja baithin!
chamakkar netr kholte hi tap mein badha ki tarah apne aadhe ang par ganga ko maujen marte dadaji ne dekha
“kaun aurat ?”—gambhir swar se parashn hua
“ji main ganga hoon, maharaj! aapke diwy roop ko dekhte hi—chandr par chakor ki tarah—main pagal ho uthi hoon! ab main apaki hun—har tarah se ”
lajja se anuranjit ho ganga ne apni gori banhen bheeshm ke dada ke sukanth ki or baDha deen
“gange!”—dadaji ne satej jawab diya—“tum ekayek meri dahini jaangh par aa baithin, jo beti ya bahu ke baithne ka sthan hai ab tumhein patni roop mein swikar karne se sanatani aary maryada bhang ho jayegi maryada—apni chal—tutne se kul winsht ho jata hai kul ke winash se pitron ko ghor narak yatana hoti hai, jisse manushya ka sarwanash ho jata hai ”
kshatriy rajarshai ka tark uchit aur many—ganga mare laj ke prithwi mein Dubti nazar aane lagin hatash ho, sukhi si, wo dadaji ki god se niche sarak rahin
aur ganga si pawitra, darshniya ramni ko lajjit aur nirash karne ka kshatriy maharaj ke man mein ghor khed hua
“maharaj!”—sajal ganga bolin—“daiw widhananusar main mata banna chahti hoon, isi hetu se tapoput, kulin jankar apaki sewa mein i lekin aapne to mujhko beti bana diya!”
nirash na ho gange! kabhi awsar mile, to mere shantnu se tum apni ichha prakat kar sakti ho mujhe ismen zara bhi apatti na hogi; balki tum si diwy wadhu pakar meri sat piDhiyan tar jayengi ”
“maharaj ki jay ho!”—gambhir wani se ganga ne bheeshm ke dada ko ashirwad diya—“dewtaon ka abhipray pura hua ab main dewawrat ki mata ban sakungi aary! aapke sadwyawhar aur sadachar se santusht ho main aapko akshay yauwan ka wardan deti hoon aaj se, aapke darshan karte hi, buDha se buDha parani bhi fauran nawyuwak ho jayega ”
rajarshai ko ashcharyachkit chhoD ganga, apni hi lahron mein leen ho gai
gangdatt
unhin dinon panDit gangdatt sharma nam ke ek moorkh widwan indraprastha mahangar ke niktasth kisi gram mein raha karte the panDitji ko moorkh widwan likhne mein qalam ki koi bhool nahin; kyonki duniya mein bahut aise parani hain, jo aqal rakhte hue bhi bewaqufi karte hain panDit gangdatt sharma waise logon ke purankalin agua the, ismen zara bhi shak o shubah ki gunjaish nahin hai
bheeshm pitamah ke dadaji ki tarah panDit gangdattji bhi dada swarup ho gaye the, magar, ganga ke tat par padmasnasin yog, nahin, ghor bhog wilas ki wasana unke man mein ab bhi lahra rahi thi
panDitji ke 55 laDke the aur 52 laDkiyan wo un sab ke nam kahan tak yaad rakhte! at 107 mankon ki ek mala unhonne taiyar karari aur pratyek dane par ek ek nam khuda liya 55 laDke, 52 laDkiyon ka joD 107
panDit gangdatt ne socha, do dane aur hone se sumer ke sath puri mala taiyar ho jayegi magar ab! gangdattji ka sharir shithil tha man hi ka kunmunana nahin rukta tha; at
“gangi!”—apni dharmpatni ko sambodhit kar gangdattji bole “sundri, do bachchon ke abhaw se mala adhuri rahti hai yadi tu kripa kare !”
“chup raho!”—istri sulabh lajja se lal aur pati ki purush durlabh nirlajjata se pili paD kar gangi boli ‘‘paune do sau salon se wilas karte aa rahe ho, aur ab bhi do manke baqi hain! hath hilne lage—bayar mein jhopDi se latakte tinke ki tarah, jhulne lagi—rasoi ghar ki chhan ke jhale ki tarah, indriyan paD gai hain shithil; nak mein pani, ankh mein pani—kamar gai hai jhuk; lekin do mankon ki abhi kami hai! maharaj! ab to ramram!”
“shant sundri!”—apni 150 warsh ki patni ke pople galon ko ghongha sa munh banakar sparsh karte hue gangdattji ne kaha—“ram ram nahin, main shiw shiw ka upasak hoon aur bhagwan shankar aise dayalu hain ki bhakt ko mangte hi—mati gati bhuti sampatti baDai—fauran saunp dete hain mujhse aur bhola baba se mitrata bhi hai tum zara kshama karo—mujhe tap kar aane do! do hi kya sau sau dane banane ki yogyata—yauwan, sadashiw se main wardan mang laun janti ho, tap se aryon ke liye kuch bhi durlabh nahin ”
‘‘dhik! brahman’’—brahmanai ne sach kaha ‘‘aryawart mein rahte hue bhi aap wigyani nahin, gyani nahin, kore agyani hain! aapke putr hain, putriyan hain aur hain putr putriyon ke bachche ! phir bhi shankar jaise bhagwan ko santusht kar aap lenge kewal yauwan! ratnakar se mangna pank! himale se bhar ankh dhool ki kamna! chhih! sau bar chhih brahman!”
“tab ye mala puri kaise hogi?”
gangdatt ko gyan ka utna dhyan nahin tha unhen to mala puri karne ki chinta thi gangdattji ki murkhata wikarhin thi
“mala puri hogi chita par mere munh se kubhasha na suniye! main kahe deti hun—jap ya tap se jawan bankar agar aap mere samne awenge, to kah nahin sakti, kis bhaw se main aapka swagat karungi?”
“yane!”—tote si gol ankhen nachakar ashchary se gangdatt ne puchha “main jawan ho jaunga, to mujhe dekhte hi tum ahinsa dharm se nirat ho uthogi?”
“mujhe wirat ya nirat kuch bhi na hona hoga sari grihasthi ki main malkin hoon ye 107 bachche mere hain aapke jawan hone par ghar ki jo paristhiti hogi, use kal hi janta hoga ”
“gangdattji! o panDit gangdattji!” bahar se kisi ne pukara
“kaun? awaz to brahman mohdatt ki malum paDti hai sundri!”—buDDhi se gangdattji ne kaha—“zara ek aasan to lao mera mitr, brahman mohdatt, indraprastha se aaya hai ”
tab tak ek nihayat jawan aur gathila, tejaswi brahman kuti ke angan mein aa dhamka!
“ha ha ha! gangdatt! buDhe!”—agantuk ne kaha ”tumne mujhe pahchana nahin! ha ha ha ha! main indraprastha ke tapaswi samrat ke darshan matr se jawan ho gaya! ha ha ha ha!”
“kya?”—ankhen phaD phaDkar gathile brahman ko gangdatt ne dekha pahchana tha, wo mohdatt hee!
“kya?”—brahmanai bechari kuch samajh hi na saki—“tapaswi raja ke darshnon se buDha mohdatt jawan ho gaya! ab to mera brahman ye aatur mard bina jawan bane shayad hi rahe! to kya jawani wanchhaniy hai? to kya raja ke darshan tatha yauwan labh koi sadlabh hain?”—brahmanai wyakul wicharne lagi
aur gangi nam se pathak yon na samjhen ki dwapar yug ki wo brahmanai murkha thee! nahin, wo widushai thi, puri brahmanai ka ghar ka nam tha manorama, magar, panDit gangdatt ne usko badalkar gangi isliye kar diya tha ki ardhangini ka nam bhi agar pati hi ki tarah ho to param uttam! khair
“are moha !”—gangdatt ne puchha “tu jawan kaise ho gaya? parson tak to teri gati thi—‘angan galitan palitan munDam’; aur aaj! kya ek hi raat mein tune bhagwan shankar ko prasann kar liya ? ya kya?”
“bhai gangdatt!”—mohdatt ne samjhaya “der na karo! buDhape mein ek kshan bhi katna narakwas hai! brahmanai ko sang lo aur chalo mere sath indraprastha! maharaj ke darshan kar mukt ho jao jara ke jal se ”
“han, han”—atur gangdatt ne brahmanai ki or dekhte hue kaha chalo priye! rath bhi mera mitr mohdatt leta aaya hai jo waqt par kaam aawe wahi mitr wah bhai mohdatt! aaj ye sanwad, aisi sadichchha se yahan lakar tumne hamein kritarth kar diya! chalo der na karo!”—brahmanai ko unhonne pun lalkara
magar, wo aarya tas se mas na hui
“jawani, aisi narakiy awastha ke liye main na to kisi dew se wardan mangugi, na hi parpurush ka munh takti phirungi ”
“jawani narakiy kaise?” istri ke hath se chiDhkar gangdatt ne puchha
“ise main janti hoon 107 bar mata banne mein jo narakiy kasht mujhe bhogne paDe, we kyon? isi jawani ke liye bachpan mein agyan hai, buDhape mein gyan magar, is jawani mein gyanagyan ka aisa gorakhdhandha hai, jismen paD kar dhokha khaye bina shayad hi koi bacha ho gyan hi ki tarah, main to, shuddh agyan ko bhi diwy manti hoon magar, bhram se hai mujhe ghrina aur bhram hi mein jawani sabki machalti chalti hai ”
“yauwan aisi dewdurlabh awastha ko ye murkha brahmanai bhram aur narak ka phatak kah rahi hai dekhte ho mohdatt , istri buddhiः pralyankri!”
“achchha, inhen buDhi hi rahne dijiye!”—mohridatt ne mitr ko ray di—“ap to chalkar maharaj ke darshan prapt kijiye aur prapt kijiye aprapy yauwan—anayas! mere kahne ka abhipray ye ki jo cheez anayas mile, use grahn kar bhog lene mein brahman ke liye shastranusar bhi koi dosh nahin ”
“kshama, aary mohdatt!”—namrata se brahmanai ne wyang kiya—anayas agar maila mil jay, to kya brahman uska shastranusar bhog karega? a—han! aap donon sajjan mere tark par nak phula rahe hain main sach kahti hun—aur brahmanai sach hi kahti hai—yauwan manaw jiwan ka maila hai ”
“ari murkha! krodh mujhe na dila!”—bigDe ab panDit gangdattji—“charak bhagwan ne likha hai ki maila pet mein na rahe, to adami ji nahin sakta! manushya ke ang ang se, rom rom se, kya prakat hota hai?—maila! is maile sansar mein wahi mota nazar awega, jo pusht ho, jismen maile zyada ho yauwan? han, hai maila ye, jiski safai hote hi manushya jiwan ki bhi safai ho jati hai—chauka lag jata hai maile ka mahattw tujhko samjhana hoga nari ?”
iske baad mohdatt se, dukhit bhawen gangdatt ne kaha ‘‘jao bhai! main is aurat ke wash mein hoon bina ardhangini ki ichha—koi bhi kaam shastr ke mat se main nahin kar sakta chalo bahar is kuti ki wayu mein mujhe jara aur marn bhayankar nazar aa rahe hain ”
kuti ke bahar aate hi mohdatt ne dekha unke rath ko gherkar koi sau sawa sau nar nariyon ki bheeD khaDi hai kuch saf na samajh unhonne gangdatt se puchha ‘‘kyon? kya ye log aapke darshanarth aaye hain ya shishya hain, ki yajman?’’
‘‘are wah!”—gangdatt ne munh pasarkar uttar diya—“brahman! tum mere pariwar ko bhool gaye? main kul milakar 107 adamiyon ka pita hoon ye sab mere bachche! aapke rath ki kalamyi karigari dekh rahe hain ”
“ha ha ha! bhai gangdatt! pahli jawani mein jab tumne itni sirishti rach di, to ek bar aur jawan hone se tumhara nam prajapati daksh (dwitiy) mashhur hoga ”
“yah buDDhi brahmanai mane tab to main prajapati ko bhi, sirishti mein kranti dikha doon, magar meri aurat, jarath hone se, buddhihin ho gai!”—dukh katar gangdatt ne uttar diya wo munh mein pani bharkar apne mitr ka nawyauwan niharne lage tab tak donon rath ke nikat aa rahe bheeD chhant gai
“wah!”—rath ke safed ghoDon ki tarif karte hue gangdatt ne kaha “mohdatt! ghoDe to baDe banke hain ”
‘‘ghoDe mainne shwet dweep se mangaye hain mujhe rath ka baDa shauq hai ’’—mast mohdatt ne ras sambhali—wah baith bhi gaya rath par ‘‘ao gangdatt mitr! indraprastha se hote aao aurat ke pher mein swarglabh se wanchit na ho!’’
“han!”—uchhalkar aatur aur buDha brahman ab apne mitr ke parshw mein Dat gaya—“sarthi ka kaam ashram mein mainne bhi sikha hai—ye ghoDe—wah! ras zara mujhe to dena—!”
aur gangdatt ne mohdatt ke rath ke banke ghoDon ko ishara kiya! aur kshan bhar baad, donon mitr, indraprastha ki or sanakte nazar aane lage
koi zyada door jana to tha nahin sham hone se pahle hi rajdhani mein mohdatt ka rath gangdatt hankte dikhai paDe
yane, manorath unhonne apna pura kiya awilamb darshan labh kar maharajarshi ke, jinhen anant yauwan ka wardan ganga ne diya tha!
aur lo, brahman gangdatt bhi mohdatt ki tarah poorn naw yauwan pa gaye
yauwan pate hi gangdatt ne apne mitr ka sath chhoD diya aur chhoD diya swarthpurn ujlat se! unhen baDi ichha hui, pahle darpan mein munh dekhne ki magar, wahan darpan kahan indraprastha ke bazar mein bikte honge bisiyon, lekin paise—? brahman ke pas paise kahan! gangdatt ne socha—to kisi talab ke pani mae munh dekhana chahiye magar, raat ka dhyan aate hi ye wichar bhi chhoD dena paDa
nawyuwak brahman gangdattji raat adhik beet jane tak rajdhani ki saDkon par chakkar katte rahe magar, aina pane ki surat unhen na dikhai paDi akhir hatash ho, jyon hi wo apni kuti ki or lautna chahte the, tyon hi, nartki rama ke ghar ki or unki nazar gai
rama apni ramnik baithak mein baithi (prachin cheen ke) darpan mein munh dekh rahi thi kanchan ki chauki par ratn ka ek dipak pas hi jal raha tha
brahman ne wichar kiya—yadi kisi tarah is nartki ke darpan mein main apna munh dekh pata!
akhir aatur gangdattji, wiwekhin ho, dabe panw, nartki ke pichhe ja khaDe hue aur choron ki tarah unhonne darpan mein jhanka!
“aho! aho! dhany! dhany!”—apna nawaswrup dekhte hi gangdatt pagalon ki tarah prasannata se nach aur chilla uthe
nartki rama chaunkkar mare bhay ke ghighiyane lagi—bachao! chor, uchakka!
kuti ki or lautte hue gangdatt ne socha beshak main jawan ho gaya kyonki jawani ki pahli nishani awiwek mujhmen prakat ho gaya! nartki ke darpan mein mainne apna munh dekha aatur hokar—bacha peeth ki puja pate pate! wah!
wah!—nawabrahman ne socha—weshya wo yuwati ? meri patni bhi agar maharaj ke darshan kar le, to wo bhi isi weshya si naweli—ah!—gangdatt ka munh prachin uchchhringkhal hone se pun bichka—main brahman apni patni ki samta weshya ke yauwan se! hai na awiwek? wah! ab main jawan ho gaya—beshak!
aur gangdatt ka pura kul ek hi jagah par bsa hua tha—unki kuti ke chaugird adhik raat ho jane ke karan sabhi so gaye the brahmnon ke ghrit ke dipak bhi bujh chuke the aise awsar par gangdatt chupchap apni jhopDi mein ghuse
“kaun ?”—sajag brahmanai ne khansakar puchha
“main hoon sundri!”—nirbhay aur prasann gangdatt ne kaha
pati ki awaz pahnante hi brahmanai ne agnihotr ki aag se dipak prajwalit kiya aur dekha
“are, gyandatt! putr!”—dekhte hi brahmanai bigDi “papi! is raat mein apni mata ko tu sundri pukarne yahan aaya hai? kya tune aaj sura pi hai? nikal, teri kuti udhar hai hay re, mera brahman rath par chaDhkar kahan chala gaya?”
“main—main hi hoon wo brahman tumhara sundri!”—gangdatt ne pun samjhana chaha—“main jawan ho gaya hun—rajarshai ke darshan kar Daro mat bhago mat! main tumhara pati hoon ”
“bap re! dauDo re!”—brahmanai adhik apman na sah saki—“bachao! mera putr pagal ho gaya hai?
aur sara kul—andheri raat mein ulkayen hathon mein liye—kuti ke charon or ikattha ho gaya!
bhari kolahal macha—kaun laDka hai? kaun aisa nalayaq hai? maro! iski hattya kar do! sabhi jhapte apne bechare brahman bap par, uske kayakalp se agyat
ab gangdatt baDe pher mein paDe kisi ko unki baat par etbar hi na aaya unhin ke anek laDke is waqt dekhne mein gangdattji ke chacha malum paDte the!
gangdattji ne ek ek ka nam lekar parichai diya bahut si gharelu baten batai yahan tak ki sare kul ko unhonne apne pichhe ka ek dhabba bhi kholkar dikhaya—magar, phir bhi kisi ne wishwas na kiya
tab, mare jhunjhlahat, kheejh aur lachari ke naujawan gangdatt brahman balkon ki tarah ro paDe
“hay re! jawani lekar mainne kahan ka pap kharida meri sari shanti nasht ho gai ”
magar, sara kul itna kshaubdh ho utha ki agar bhag na jate to gangdattji ki hattya unhin ke pariwar ke log us raat mein zarur kar dete!
gangi
ukt ghatna ke kai dinon baad tak jab panDit gangdattji ka koi pata kulwalon ko na laga tab brahmanai wikal ho uthi usne apne putron ko rajdhani mein bhejkar mohdatt se pata lagaya, to bhed sara khul gaya! ab malum hua gangdatt ke kul ko ki us raat mein jo nawyuwak pitte pitte bacha, uski baten sach theen wo aur koi nahin—panDit gangdatt swayan the, jo rajadhiraj ke darshan se yuwak ban gaye the
ab to sare kul mein syapa chha gaya! brahmanai dahaD mar markar rone lagi pati ke apman se jo narak use parlok mein bhogna paDega, uski kalpnamatr se wo kanp kanp uthi!
“ah!”—usne socha—“patidew isliye bhag gaye ki buDhi main unke yogya nahin, balki duःkh ka karan hoon to? kya main bhi par purush se ankhen milakar nawyuwti banun aur patidew ko sukhi karun, jo aarya ka param dharm hai? magar nahin, par purush ki or main kadapi na dekhungi main !”—gangi gambhir ho sochne lagi—“main tapaswini banungi pati ke prsanntarth yauwan pane ke liye mata gauri parwati ki tapasya karungi ”
aur brahmanai, driDh, dusre hi din, uth bhor, sari moh maya tyag, tap karne himale chali gai
aur usne aisi tapasya ki ki aisi tapaswini se mata parwati prasann ho prakat ho garin! unhonne brahmanai ko fauran yuwati bana diya!
phir bhi, ye sab karte karate gyarah mahine beet hi gaye gyarah mahine baad, jawan bankar, gangi ek raat, apni kuti mein laut i aur mata parwati ke parsad se, usi raat, gangi ke patidew bhi pun jhopDi par padhare—“gangi! dewi! lo shankar ki tapasya kar main phir se buDha bankar aa gaya! tum buDhi—main buDha! priye! hum mein dwaidh ab nahin—ham ekakar hai! aag lage aisi kayakalpit nawajwani mein jiske karan main pitte pitte, marte marte bacha—are!”
isi samay, kuti ke bahar aati gangi nawyauwana ko gangdatt ne ghaur se gurer kar taka
“kaun? brahmanai? kya tu bhi rajarshai ke darshan kar i?”
“ham striyan mata gauri ki kripa se nawyauwan, jiwan, tan, man, dhan pati hain sajan!”
gauri ki kripa se rasili gangi ne, shankar ke wardan se sukhe gangdatt ke hilte himshital hathon ko prem se pulkit ho apni mrinal si bahu mein lapet liya
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।