यह कहानी पहले 'गैंग्रीन' नाम से प्रकाशित हुई थी। बाद में यह कहानी 'रोज़' शीर्षक से छापी।
दुपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किंतु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…
मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझाई हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गई। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।
भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, “वे यहाँ नहीं है?’’
‘‘अभी आए नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’
‘‘कब के गए हुए हैं?’’
‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं…’’
मैं “हूँ” कह कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लाई, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आए हो। यहाँ तो…’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।’’
वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुँह’ करके उठी और भीतर चली गई।
मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा—यह क्या है…यह कैसी छाया-सी इस घर पर छाई हुई है…
मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किंतु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर संबंध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छंदता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बंधनों में नहीं घिरा…
मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किंतु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छाई हुई है…और विशेषतया मालती पर…
मालती बच्चे को लेकर लौट आई और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गई। मैंने अपनी कुर्सी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’
मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’
मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आजा,’’ “पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुँ-उहुँ-उहुँ-ऊँ…’’
मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी…
काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किंतु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की…यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ…चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गई? या अब मुझे दूर—इस विशेष अंतर पर—रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छंदता अब तो नहीं हो सकती…पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…
मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई—’’
उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’
यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किंतु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहराई नहीं, चुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किंतु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तंतु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो…वैसे जैसे बहुत देर से प्रयोग में न लाए हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाए कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जंतु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाए…
तभी किसी ने किवाड़ खटखटाए। मैंने मालती की ओर देखा; पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाए गए, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गई।
वे, यानी मालती के पति आए। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गई, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…
मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेंसरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेंसरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दुपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने…उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्ख़े, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताए हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गर्मी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…
मालती हम दोनों के लिए खाना ले आई। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?’’
महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’ पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
महेश्वर खाना आरंभ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आएगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’
मालती टोककर बोली, ‘‘ऊँहू, मेरे लिए तो यह नई बात नहीं है…रोज़ ही ऐसा होता है…’’
मालती बच्चे को गोद में लिए हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।
मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’
मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’ फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुपकर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गई।
जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिंताजनक केस आए हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा…दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है…थोड़ी ही देर में वह चले गए। मालती किवाड़ बंद कर आई और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’
वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किंतु चली गई। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शांत हो गया।
दूर…शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लंबी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है ‘‘तीन बज गए…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य संपन्न हो गया हो…
थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गई, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो…’’
‘‘बहुत था।’’
‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा।
मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं’ मुझे आए पंद्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाए थे वही अभी बरती जा रही है…”
मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीं है?’’
‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए।’’
‘‘बर्तन भी तुम्हीं माँजती हो?’’
‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आई।
मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गई थीं?’’
‘‘आज पानी ही नहीं है, बर्तन कैसे मँजेंगे?’’
‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’
‘‘रोज़ ही होता है…कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बर्तन मँजेंगे।’’
‘‘चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’
यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था; पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।
थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आए कैसे?’’
मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’
‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’
‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’
मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गई। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।
थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किंतु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाए? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे—हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती…
मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।
‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया…
थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आए कैसे हो, लारी में?’’
‘‘पैदल।’’
‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’
‘‘आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ।’’
‘‘ऐसे ही आए हो?’’
‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।’’
‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गई फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ।’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं थका।’’
‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’
‘‘और तुम क्या करोगी?”
‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’
मैंने कहा, ‘‘वाह!’’ क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं…
थोड़ी देर में मालती उठी और चली गई, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा…मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बर्तनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा…
एकाएक वह एक स्वर टूट गया—मौन हो गया। इससे मेरी तंद्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा…
चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गई थी…वही तीन बजे वाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यंत्रवत्—वह भी थके हुए यंत्र के से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गए...’’ मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यंत्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यंत्रवत् विश्रांत स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया…न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गई।
तब छ: कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आए हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिए हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’
उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेंस में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।’’
मैंने पूछा’’ गैंग्रीन कैसे हो गया।’’
‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’
मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’
बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी…’’
मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गई, बोली, ‘‘हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’
महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’
‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’
महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिए। मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं, डाक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़्याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।’’
तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा...टिप, टिप, टिप, टिप,-टिप-टिप, टिप...
मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गई। खनखनाहट से हमने जाना, बर्तन धोए जाने लगे हैं…
टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।
महेश्वर बोले...‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’
मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गर्मी तो बहुत होती है?’’
‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाए? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’
टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ’’, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिए।
अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गए और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किंतु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता या, और फिर एकदम चुप हो जाता था…और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे…
मालती बर्तन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।’’
‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए।’’
मालती ने भीतर जाकर आम उठाए और अपने आँचल में डाल लिए। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अख़बार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती संध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी…वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लंबी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।
मुझे एकाएक याद आया…बहुत दिनों की बात थी…जब हम अभी स्कूल में भर्ती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया…कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।
मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप क़िताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क़ न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘क़िताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया…‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ, मैं प्रश्न पूछूँगा, तो चुप खड़ी रही। पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘क़िताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूँगी।’’
उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गई है, कितनी शांत, और एक अख़बार के टुकड़े को तरसती है… यह क्या, यह…
तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी!’’
‘‘बस, अभी बनाती हूँ।’’
पर अब की बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गई, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गई, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी…
और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।
हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गए थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गई थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरंत ही लेट गया।
मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइए।’’
वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चल कर आए हैं।’’ किंतु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया…थका तो मैं भी हूँ।’’
मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।
तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।
मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में—यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं; लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।
पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।
मैंने देखा...उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यंत शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यंत शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चंद्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो…
मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष…गर्मी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष…धीरे-धीरे गा रहे हों…कोई राग जो कोमल है, किंतु करुण नहीं, अशांतिमय है, किंतु उद्वेगमय नहीं…
मैंने देखा...प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुंदर दीखते हैं…
मैंने देखा...दिन-भर की तपन, अशांति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोए जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्ष रूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं…
पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने…महेश्वर ऊँघ रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बर्तन गर्म पानी से धो रही थी, और कह रही थी… ‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजने वाले हैं,’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं…मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चंद्रमा की चंद्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था…
चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा...‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आई, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गई बेचारे के।’’
यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।
मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है।’’
एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा...मेरे मन न भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला...‘‘माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो...और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!’’
और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुंब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गई है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गई है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गई है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया…
इतनी देर में, पूर्ववत् शांति हो गई थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किंतु क्या चंद्रिका को या तारों को?
तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कंपन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गए…
duphar mein us sune angan mein pair rakhte hue mujhe aisa jaan paDa, mano us par kisi shaap ki chhaya manDara rahi ho, uske vatavran mein kuch aisa akathya, asprishya, kintu phir bhi bojhal aur prkampmay aur ghana sa phail raha tha…
meri aahat sunte hi malti bahar nikli. mujhe dekhkar, pahchankar uski murjhai hui mukh mudra tanik se mithe vismay se jagi si aur phir purvavat ho gai. usne kaha, ‘‘a jao!’’ aur bina uttar ki prtiksha kiye bhitar ki or chali. main bhi uske pichhe ho liya.
‘‘abhi aaye nahin, daftar mein hain. thoDi der mein aa jayenge. koi DeDh do baje aaya karte hain. ’’
‘‘kab ke ge hue hain?’’
‘‘savere uthte hi chale jate hain…’’
main “hoon” kah kar puchhne ko hua, ‘‘aur tum itni der kya karti ho?’’ par phir socha, aate hi ekayek parashn theek nahin hain. main kamre ke charon or dekhne laga.
malti ek pankha utha lai, aur mujhe hava karne lagi. mainne apatti karte hue kaha, ‘‘nahin, mujhe nahin chahiye. ’’ par wo nahin mani, boli,‘‘vaah! chahiye kaise nahin? itni dhoop mein to aaye ho. yahan to…’’
mainne kaha, ‘‘achchha, lao, mujhe de do. ’’
wo shayad ‘na’ karnevali thi, par tabhi dusre kamre se shishu ke rone ki avaz sunkar usne chupchap pankha mujhe de diya aur ghutnon par haath tekkar ek thaki hui ‘hunh’ karke uthi aur bhitar chali gai.
main uske jate hue, duble sharir ko dekhkar sochta raha—yah kya hai…yah kaisi chhaya si is ghar par chhai hui hai…
malti meri door ke rishte ki bahan hai, kintu use sakhi kahna hi uchit hai, kyonki hamara paraspar sambandh sakhya ka hi raha hai. hum bachpan se ikatthe khele hain, ikatthe laDe aur pite hain, aur hamari paDhai bhi bahut si ikatthe hi hui thi, aur hamare vyvahar mein sada sakhya ki svechchha aur svachchhandta rahi hai, wo kabhi bhratritv ke ya baDe chhotepan ke bandhnon mein nahin ghira…
main aaj koi chaar varsh baad use dekhana aaya hoon. jab mainne use isse poorv dekha tha, tab wo laDki hi thi, ab wo vivahita hai, ek bachche ki maan bhi hai. isse koi parivartan usmen aaya hoga aur yadi aaya hoga to kya, ye mainne abhi tak socha nahin tha, kintu ab uski peeth ki or dekhta hua main soch raha tha, ye kaisi chhaya is ghar par chhai hui hai…aur visheshataya malti par…
malti bachche ko lekar laut aai aur phir mujhse kuch door niche bichhi hui dari par baith gai. mainne apni kursi ghumakar kuch uski or unmukh hokar puchha, ‘‘iska naam kya hai?’’
malti ne bachche ki or dekhte hue uttar diya, ‘‘naam to koi nishchit nahin kiya, vaise titi kahte hain. ’’
mainne use bulaya, ‘‘titi, titi, aaja,’’ “par wo apni baDi baDi ankhon se meri or dekhta hua apni maan se chipat gaya, aur ruansa sa hokar kahne laga, ‘‘uhun uhun uhun uun…’’
malti ne phir uski or ek nazar dekha, aur phir bahar angan ki or dekhne lagi…
kafi der maun raha. thoDi der tak to wo maun akasmik hi tha, jismen main prtiksha mein tha ki malti kuch puchhe, kintu uske baad ekayek mujhe dhyaan hua, malti ne koi baat hi nahin ki…yah bhi nahin puchha ki main kaisa hoon, kaise aaya hun…chup baithi hai, kya vivah ke do varsh mein hi wo bite din bhool gai? ya ab mujhe dur—is vishesh antar par—rakhna chahti hai? kyonki wo nirbadh svachchhandta ab to nahin ho sakti…par phir bhi, aisa maun, jaisa ajnabi se bhi nahin hona chahiye…
mainne kuch khinn sa hokar, dusri or dekhte hue kaha, ‘‘jaan paDta hai, tumhein mere aane se vishesh prasannata nahin hui—’’
usne ekayek chaunkkar kaha, ‘‘hoon?’’
ye ‘hoon’ parashn suchak tha, kintu isliye nahin ki malti ne meri baat suni nahin thi, keval vismay ke karan. isliye mainne apni baat duhrai nahin, chup baith raha. malti kuch boli hi nahin, tab thoDi der baad mainne uski or dekha. wo ektak meri or dekh rahi thi, kintu mere udhar unmukh hote hi usne ankhen nichi kar leen. phir bhi mainne dekha, un ankhon mein kuch vichitr sa bhaav tha, mano malti ke bhitar kahin kuch cheshta kar raha ho, kisi biti hui baat ko yaad karne ki, kisi bikhre hue vayumanDal ko punः jagakar gatiman karne ki, kisi tute hue vyvahar tantu ko punrujjivit karne ki, aur cheshta mein saphal na ho raha ho…vaise jaise bahut der se prayog mein na laye hue ang ko vyakti ekayek uthane lage aur pae ki wo uthta hi nahin hai, chirvismriti mein mano mar gaya hai, utne ksheen bal se (yadyapi wo sara prapya bal hai) uth nahin sakta… mujhe aisa jaan paDa, mano kisi jivit prani ke gale mein kisi mrit jantu ka tauk Daal diya gaya ho, wo use utarkar phenkna chahe, par utaar na pae…
tabhi kisi ne kivaD khatakhtaye. mainne malti ki or dekha; par wo hili nahin. jab kivaD dusri baar khatakhtaye ge, tab wo shishu ko alag karke uthi aur kivaD kholne gai.
ve, yani malti ke pati aaye. mainne unhen pahli baar dekha tha, yadyapi foto se unhen pahchanta tha. parichay hua. malti khana taiyar karne angan mein chali gai, aur hum donon bhitar baithkar batachit karne lage, unki naukari ke bare mein, unke jivan ke bare mein, us sthaan ke bare mein aur aise anya vishyon ke bare mein jo pahle parichay par utha karte hain, ek tarah ka svrakshatmak kavach bankar…
malti ke pati ka naam hai maheshvar. wo ek pahaDi gaanv mein sarkari Dispensri ke Dauktar hain, usi haisiyat se in kvartron mein rahte hain. pratःkal saat baje Dispensri chale jate hain aur DeDh ya do baje lautte hain, uske baad duphar bhar chhutti rahti hai, keval shaam ko ek do ghante phir chakkar lagane ke liye jate hain, Dispensri ke saath ke chhote se aspatal mein paDe hue rogiyon ko dekhne aur anya zaruri hidayten karne…unka jivan bhi bilkul ek nirdisht Dharre par chalta hai, nitya vahi kaam, usi prakar ke marij, vahi hidayten, vahi nuskhe, vahi davaiyan. wo svayan uktaye hue hain aur isiliye aur saath hi is bhayankar garmi ke karan wo apne fursat ke samay mein bhi sust hi rahte hain…
malti hum donon ke liye khana le aai. mainne puchha, ‘‘tum nahin khoogi? ya kha chukin?’’
maheshvar bole, kuch hansakar, ‘‘vah pichhe khaya karti hai…’’ pati Dhai baje khana khane aate hain, isliye patni teen baje tak bhukhi baithi rahegi!
maheshvar khana arambh karte hue meri or dekhkar bole, ‘‘apko to khane ka maza kya hi ayega aise bevaqt kha rahe hain?’’
mainne uttar diya, ‘‘vaah! der se khane par to aur achchha lagta hai, bhookh baDhi hui hoti hai, par shayad malti bahin ko kasht hoga. ’’
malti tokkar boli, ‘‘uunhu, mere liye to ye nai baat nahin hai…roz hi aisa hota hai…’’
malti bachche ko god mein liye hue thi. bachcha ro raha tha, par uski or koi bhi dhyaan nahin de raha tha.
mainne kaha, ‘‘yah rota kyon hai?’’
malti boli, ‘‘ho hi gaya hai chiDchiDa sa, hamesha hi aisa rahta hai. ’’ phir bachche ko Dantakar kaha, ‘‘chupkar. ’’ jisse wo aur bhi rone laga, malti ne bhumi par baitha diya. aur boli, ‘‘achchha le, ro le. ’’ aur roti lene angan ki or chali gai.
jab hamne bhojan samapt kiya tab teen bajne vale the. maheshvar ne bataya ki unhen aaj jaldi aspatal jana hai, yahan ek do chintajnak kes aaye hue hain, jinka aupreshan karna paDega…do ki shayad taang katni paDe, gaingrin ho gaya hai…thoDi hi der mein wo chale ge. malti kivaD band kar aai aur mere paas baithne hi lagi thi ki mainne kaha, ‘‘ab khana to kha lo, main utni der titi se khelta hoon. ’’
wo boli, ‘‘kha lungi, mere khane ki kaun baat hai,’’ kintu chali gai. main titi ko haath mein lekar jhulane laga, jisse wo kuch der ke liye shaant ho gaya.
dur…shayad aspatal mein hi, teen khaDke. ekayek main chaunka, mainne suna, malti vahin angan mein baithi apne aap hi ek lambi si thaki hui saans ke saath kah rahi hai ‘‘teen baj ge…’’ mano baDi tapasya ke baad koi karya sampann ho gaya ho…
thoDi hi der mein malti phir aa gai, mainne puchha, ‘‘tumhare liye kuch bacha bhi tha? sab kuch to…’’
‘‘bahut tha. ’’
‘‘haan, bahut tha, bhaji to sari main hi kha gaya tha, vahan bacha kuch hoga nahin, yon hi raub to na jamao ki bahut tha. ’’ mainne hansakar kaha.
malti mano kisi aur vishay ki baat kahti hui boli, ‘‘yahan sabzi vabzi to kuch hoti hi nahin, koi aata jata hai, to niche se manga lete hain’ mujhe aaye pandrah din hue hain, jo sabzi saath laye the vahi abhi barti ja rahi hai…”
mainne puchha, ‘‘naukar koi nahin hai?’’
‘‘koi theek mila nahin, shayad ek do din mein ho jaye. ’’
‘‘bartan bhi tumhin manjati ho?’’
‘‘aur kaun?’’ kahkar malti kshan bhar angan mein jakar laut aai.
mainne puchha, ‘‘kahan gai theen?’’
‘‘aaj pani hi nahin hai, bartan kaise manjenge?’’
‘‘kyon, pani ko kya hua?’’
‘‘roz hi hota hai…kabhi vaqt par to aata nahin, aaj shaam ko saat baje ayega, tab bartan manjenge. ’’
‘‘chalo, tumhein saat baje tak chhutti hui,’’ kahte hue main man hi man sochne laga, ‘ab ise raat ke gyarah baje tak kaam karna paDega, chhutti kya khaak hui?’
yahi usne kaha. mere paas koi uttar nahin tha; par meri sahayata titi ne ki, ekayek phir rone laga aur malti ke paas jane ki cheshta karne laga. mainne use de diya.
thoDi der phir maun raha, mainne jeb se apni notabuk nikali aur pichhle dinon ke likhe hue not dekhne laga, tab malti ko yaad aaya ki usne mere aane ka karan to puchha nahin, aur boli, ‘‘yahan aaye kaise?’’
mainne kaha hi to, ‘‘achchha, ab yaad aaya? tumse milne aaya tha, aur kya karne?’’
‘‘to do ek din rahoge na?’’
‘‘nahin, kal chala jaunga, zaruri jana hai. ’’
malti kuch nahin boli, kuch khinn si ho gai. main phir notabuk ki taraf dekhne laga.
thoDi der baad mujhe bhi dhyaan hua, main aaya to hoon malti se milne kintu, yahan wo baat karne ko baithi hai aur main paDh raha hoon, par baat bhi kya ki jaye? mujhe aisa lag raha tha ki is ghar par jo chhaya ghiri hui hai, wo agyat rahkar bhi mano mujhe bhi vash mein kar rahi hai, main bhi vaisa hi niras nirjiv sa ho raha hoon, jaise—han, jaise ye ghar, jaise malti…
mainne puchha, ‘‘tum kuch paDhti likhti nahin?’’ main charon aur dekhne laga ki kahin kitaben deekh paDen.
‘‘yahan!’’ kahkar malti thoDa sa hans di. wo hansi kah rahi thi, ‘yahan paDhne ko hai kyaa?’
mainne kaha, ‘‘achchha, main vapas jakar zarur kuch pustken bhejunga…’’ aur vartalap phir samapt ho gaya…
thoDi der baad malti ne phir puchha, ‘‘aye kaise ho, lari men?’’
‘‘paidal. ’’
‘‘itni door? baDi himmat ki. ’’
‘‘akhir tumse milne aaya hoon. ’’
‘‘aise hi aaye ho?’’
‘‘nahin, kuli pichhe aa raha hai, saman lekar. mainne socha, bistara le hi chalun. ’’
‘‘achchha kiya, yahan to bas…’’ kahkar malti chup rah gai phir boli, ‘‘tab tum thake hoge, let jao. ’’
‘‘nahin, bilkul nahin thaka. ’’
‘‘rahne bhi do, thake nahin, bhala thake hain?’’
‘‘aur tum kya karogi?”
‘‘main bartan maanj rakhti hoon, pani ayega to dhul jayenge. ’’
thoDi der mein malti uthi aur chali gai, titi ko saath lekar. tab main bhi let gaya aur chhat ki or dekhne laga…mere vicharon ke saath angan se aati hui bartnon ke ghisne ki khan khan dhvani milkar ek vichitr ek svar utpann karne lagi, jiske karan mere ang dhire dhire Dhile paDne lage, main uunghane laga…
ekayek wo ek svar toot gaya—maun ho gaya. isse meri tandra bhi tuti, main us maun mein sunne laga…
chaar khaDak rahe the aur isi ka pahla ghanta sunkar malti ruk gai thi…vahi teen baje vali baat mainne phir dekhi, abki baar ugr roop mein. mainne suna, malti ek bilkul anaichchhik, anubhutihin, niras, yantrvat—vah bhi thake hue yantr ke se svar mein kah rahi hai, ‘‘chaar baj ge. . . ’’ mano is anaichchhik samay ko ginne mein hi uska mashin tulya jivan bitta ho, vaise hi, jaise motar ka spiDo mitar yantrvat fasla napta jata hai, aur yantrvat vishrant svar mein kahta hai (kisse!) ki mainne apne amit shunyapath ka itna ansh tay kar liya…na jane kab, kaise mujhe neend aa gai.
tab chhah kabhi ke baj chuke the, jab kisi ke aane ki aahat se meri neend khuli, aur mainne dekha ki maheshvar laut aaye hain aur unke saath hi bistar liye hue mera kuli. main munh dhone ko pani mangne ko hi tha ki mujhe yaad aaya, pani nahin hoga. mainne hathon se munh ponchhte ponchhte maheshvar se puchha, ‘‘apne baDi der kee?’’
unhonne kinchit glani bhare svar mein kaha, ‘‘haan, aaj wo gaingrin ka apreshan karna hi paDa, ek kar aaya hoon, dusre ko embulens mein baDe aspatal bhijva diya hai. ’’
mainne puchha’’ gaingrin kaise ho gaya. ’’
‘‘ek kanta chubha tha, usi se ho gaya, baDe laparvah log hote hain yahan ke…’’
mainne puchha, ‘‘yahan aapko kes achchhe mil jate hain? aay ke lihaj se nahin, Dauktri ke abhyas ke liye?’’
bole, ‘‘haan, mil hi jate hain, yahi gaingrin, har dusre chauthe din ek kes aa jata hai, niche baDe asptalon mein bhee…’’
malti angan se hi sun rahi thi, ab aa gai, boli, ‘‘haan, kes banate der kya lagti hai? kanta chubha tha, is par taang katni paDe, ye bhi koi Dauktri hai? har dusre din kisi ki taang, kisi ki baanh kaat aate hain, isi ka naam hai achchha abhyas!’’
maheshvar hanse, bole, ‘‘na katen to uski jaan ganvayen?’’
‘‘haan, pahle to duniya mein kante hi nahin hote honge? aaj tak to suna nahin tha ki kanton ke chubhne se mar jate hain…’’
maheshvar ne uttar nahin diya, muskra diye. malti meri or dekhkar boli, ‘‘aise hi hote hain, Daktar, sarkari aspatal hai na, kya parvah hai! main to roz hi aisi baten sunti hoon! ab koi mar mur jaye to khyaal hi nahin hota. pahle to raat raat bhar neend nahin aaya karti thi. ’’
tabhi angan mein khule hue nal ne kaha. . . tip, tip, tip, tip, tip tip, tip. . .
malti ne kaha, ‘‘pani!’’ aur uthkar chali gai. khanakhnahat se hamne jana, bartan dhoe jane lage hain…
titi maheshvar ki tangon ke sahare khaDa meri or dekh raha tha, ab ekayek unhen chhoDkar malti ki or khisakta hua chala. maheshvar ne kaha, ‘‘udhar mat ja!’’ aur use god mein utha liya, wo machalne aur chilla chillakar rone laga.
mainne puchha, ‘‘aap log bhitar hi sote hain? garmi to bahut hoti hai?’’
‘‘hone ko to machchhar bhi bahut hote hain, par ye lohe ke palang uthakar bahar kaun le jaye? ab ke niche jayenge to charpaiyan le ayenge. ’’ phir kuch rukkar bole, ‘‘aaj to bahar hi soenge. aapke aane ka itna laabh hi hoga. ’’
titi abhi tak rota hi ja raha tha. maheshvar ne use ek palang par bitha diya, aur palang bahar khinchne lage, mainne kaha, ‘‘main madad karta hoon’’, aur dusri or se palang uthakar nikalva diye.
ab hum tinon… maheshvar, titi aur main, do palangon par baith ge aur vartalap ke liye upyukt vishay na pakar us kami ko chhupane ke liye titi se khelne lage, bahar aakar wo kuch chup ho gaya tha, kintu beech beech mein jaise ekayek koi bhula hua karttavya yaad karke ro uthta ya, aur phir ekdam chup ho jata tha…aur kabhi kabhi hum hans paDte the, ya maheshvar uske bare mein kuch baat kah dete the…
malti bartan dho chuki thi. jab wo unhen lekar angan ke ek or rasoi ke chhappar ki or chali, tab maheshvar ne kaha, ‘‘thoDe se aam laya hoon, wo bhi dho lena. ’’
‘‘kahan hain?’’
‘‘angithi par rakhe hain, kaghaz mein lipte hue. ’’
malti ne bhitar jakar aam uthaye aur apne anchal mein Daal liye. jis kaghaz mein ve lipte hue the wo kisi purane akhbar ka tukDa tha. malti chalti chalti sandhya ke us kshan parkash mein usi ko paDhti ja rahi thi…vah nal ke paas jakar khaDi use paDhti rahi, jab donon or paDh chuki, tab ek lambi saans lekar use phenkkar aam dhone lagi.
mujhe ekayek yaad aya…bahut dinon ki baat thi…jab hum abhi skool mein bharti hue hi the. jab hamara sabse baDa sukh, sabse baDi vijay thi haziri ho chukne ke baad chori se klaas se nikal bhagna aur skool se kuch duri par aam ke baghiche mein peDon par chaDhkar kachchi amiyan toD toD khana. mujhe yaad aya…kabhi jab main bhaag aata aur malti nahin aa pati thi tab main bhi khinn man laut aaya karta tha.
malti kuch nahin paDhti thi, uske mata pita tang the, ek din uske pita ne use ek pustak lakar di aur kaha ki iske bees pej roz paDha karo, hafte bhar baad main dekhun ki ise samapt kar chuki ho, nahin to maar maar kar chamDi udheD dunga. malti ne chupchap qitab le li, par kya usne paDhi? wo nitya hi uske das panne, bees pej, phaaD kar phenk deti, apne khel mein kisi bhanti farq na paDne deti. jab athven din uske pita ne puchha, ‘‘qitab samapt kar lee?’’ to uttar diya…‘‘han, kar li,’’ pita ne kaha, ‘‘lao, main parashn puchhunga, to chup khaDi rahi. pita ne kaha, to uddhat svar mein boli, ‘‘qitab mainne phaaD kar phenk di hai, main nahin paDhungi. ’’
uske baad wo bahut piti, par wo alag baat hai. is samay main yahi soch raha tha ki wo uddhat aur chanchal malti aaj kitni sidhi ho gai hai, kitni shaant, aur ek akhbar ke tukDe ko tarasti hai… ye kya, yah…
tabhi maheshvar ne puchha, ‘‘roti kab banegi!’’
‘‘bas, abhi banati hoon. ’’
par ab ki baar jab malti rasoi ki or chali, tab titi ki karttavya bhavna bahut vistirn ho gai, wo malti ki or haath baDha kar rone laga aur nahin mana, malti use bhi god mein lekar chali gai, rasoi mein baith kar ek haath se use thapakne aur dusre se kai chhote chhote Dibbe uthakar apne samne rakhne lagi…
aur hum donon chupchap ratri ki, aur bhojan ki aur ek dusre ke kuch kahne ki, aur na jane kis kis nyunata ki purti ki prtiksha karne lage.
hum bhojan kar chuke the aur bistron par let ge the aur titi so gaya tha. malti palang ke ek or momajama bichhakar use us par lita gai thi. wo so gaya tha, par neend mein kabhi kabhi chaunk uthta tha. ek baar to uthkar baith bhi gaya tha, par turant hi let gaya.
mainne maheshvar se puchha, ‘‘aap to thake honge, so jaiye. ’’
wo bole, ‘‘thake to aap adhik honge… atharah meel paidal chal kar aaye hain. ’’ kintu unke svar ne mano joD diya…thaka to main bhi hoon. ’’
main chup raha, thoDi der mein kisi apar sangya ne mujhe bataya, wo uungh rahe hain.
tab lagbhag saDhe das baje the, malti bhojan kar rahi thi.
main thoDi der malti ki or dekhta raha, wo kisi vichar men—yadyapi bahut gahre vichar mein nahin; leen hui dhire dhire khana kha rahi thi, phir main idhar udhar khisak kar, par aram se hokar, akash ki or dekhne laga.
purnima thi, akash anabhr tha.
mainne dekha. . . us sarkari kvartar ki din mein atyant shushk aur niras lagne vali slet ki chhat bhi chandni mein chamak rahi hai, atyant shitalta aur snigdhata se chhalak rahi hai, mano chandrika un par se bahti hui aa rahi ho, jhar rahi ho…
mainne dekha, pavan mein cheeD ke vriksh…garmi se sookh kar matamaile hue cheeD ke vriksh…dhire dhire ga rahe hon…koi raag jo komal hai, kintu karun nahin, ashantimay hai, kintu udvegmay nahin…
mainne dekha. . . parkash se dhundhale nile akash ke tat par jo chamgadaD nirav uDaan se chakkar kaat rahe hain, ve bhi sundar dikhte hain…
mainne dekha. . . din bhar ki tapan, ashanti, thakan, daah, pahaDon mein se bhaap se uthkar vatavran mein khoe ja rahe hain, jise grhan karne ke liye parvat shishuon ne apni cheeD vriksh rupi bhujayen akash ki or baDha rakhi hain…
par ye sab mainne hi dekha, akele mainne…maheshvar uungh rahe the aur malti us samay bhojan se nivritt hokar dahi jamane ke liye mitti ka bartan garm pani se dho rahi thi, aur kah rahi thee… ‘‘abhi chhutti hui jati hai. ’’ aur mere kahne par hi ki ‘‘gyarah bajne vale hain,’’ dhire se sir hilakar jata rahi thi ki roz hi itne baj jate hain…malti ne wo sab kuch nahin dekha, malti ka jivan apni roz ki niyat gati se baha ja raha tha aur ek chandrma ki chandrika ke liye, ek sansar ke liye rukne ko taiyar nahin tha…
chandni mein shishu kaisa lagta hai is alas jigyasa se mainne titi ki or dekha aur wo ekayek mano kisi shaishvochit vamata se utha aur khisak kar palang se niche gir paDa aur chilla chilla kar rone laga. maheshvar ne chaunkkar kaha. . . ‘‘kya hua?’’ main jhapat kar use uthane dauDa, malti rasoi se bahar nikal aai, mainne us ‘khat’ shabd ko yaad karke dhire se karuna bhare svar mein kaha, ‘‘chot bahut lag gai bechare ke. ’’
ye sab mano ek hi kshan mein, ek hi kriya ki gati mein ho gaya.
malti ne rote hue shishu ko mujhse lene ke liye haath baDhate hue kaha, ‘‘iske choten lagti hi rahti hai, roz hi gir paDta hai. ’’
ek chhote kshan bhar ke liye main stabdh ho gaya, phir ekayek mere man ne, mere samuche astitv ne, vidroh ke svar mein kaha. . . mere man na bhitar hi, bahar ek shabd bhi nahin nikla. . . ‘‘maan, yuvati maan, ye tumhare hriday ko kya ho gaya hai, jo tum apne ekmaatr bachche ke girne par aisi baat kah sakti ho. . . aur ye abhi, jab tumhara sara jivan tumhare aage hai!’’
aur, tab ekayek mainne jana ki wo bhavna mithya nahin hai, mainne dekha ki sachmuch us kutumb mein koi gahri bhayankar chhaya ghar kar gai hai, unke jivan ke is pahle hi yauvan mein ghun ki tarah lag gai hai, uska itna abhinn ang ho gai hai ki ve use pahchante hi nahin, usi ki paridhi mein ghire hue chale ja rahe hain. itna hi nahin, mainne us chhaya ko dekh bhi liya…
itni der mein, purvavat shanti ho gai thi. maheshvar phir let kar uungh rahe the. titi malti ke lete hue sharir se chipat kar chup ho gaya tha, yadyapi kabhi ek aadh siski uske chhote se sharir ko hila deti thi. main bhi anubhav karne laga tha ki bistar achchha sa lag raha hai. malti chupchap uupar akash mein dekh rahi thi, kintu kya chandrika ko ya taron ko?
tabhi gyarah ka ghanta baja, mainne apni bhari ho rahi palken utha kar akasmat kisi aspasht prtiksha se malti ki or dekha. gyarah ke pahle ghante ki khaDkan ke saath hi malti ki chhati ekayek phaphole ki bhanti uthi aur dhire dhire baithne lagi, aur ghanta dhvani ke kampan ke saath hi mook ho janevali avaz mein usne kaha, ‘‘gyarah baj ge…
duphar mein us sune angan mein pair rakhte hue mujhe aisa jaan paDa, mano us par kisi shaap ki chhaya manDara rahi ho, uske vatavran mein kuch aisa akathya, asprishya, kintu phir bhi bojhal aur prkampmay aur ghana sa phail raha tha…
meri aahat sunte hi malti bahar nikli. mujhe dekhkar, pahchankar uski murjhai hui mukh mudra tanik se mithe vismay se jagi si aur phir purvavat ho gai. usne kaha, ‘‘a jao!’’ aur bina uttar ki prtiksha kiye bhitar ki or chali. main bhi uske pichhe ho liya.
‘‘abhi aaye nahin, daftar mein hain. thoDi der mein aa jayenge. koi DeDh do baje aaya karte hain. ’’
‘‘kab ke ge hue hain?’’
‘‘savere uthte hi chale jate hain…’’
main “hoon” kah kar puchhne ko hua, ‘‘aur tum itni der kya karti ho?’’ par phir socha, aate hi ekayek parashn theek nahin hain. main kamre ke charon or dekhne laga.
malti ek pankha utha lai, aur mujhe hava karne lagi. mainne apatti karte hue kaha, ‘‘nahin, mujhe nahin chahiye. ’’ par wo nahin mani, boli,‘‘vaah! chahiye kaise nahin? itni dhoop mein to aaye ho. yahan to…’’
mainne kaha, ‘‘achchha, lao, mujhe de do. ’’
wo shayad ‘na’ karnevali thi, par tabhi dusre kamre se shishu ke rone ki avaz sunkar usne chupchap pankha mujhe de diya aur ghutnon par haath tekkar ek thaki hui ‘hunh’ karke uthi aur bhitar chali gai.
main uske jate hue, duble sharir ko dekhkar sochta raha—yah kya hai…yah kaisi chhaya si is ghar par chhai hui hai…
malti meri door ke rishte ki bahan hai, kintu use sakhi kahna hi uchit hai, kyonki hamara paraspar sambandh sakhya ka hi raha hai. hum bachpan se ikatthe khele hain, ikatthe laDe aur pite hain, aur hamari paDhai bhi bahut si ikatthe hi hui thi, aur hamare vyvahar mein sada sakhya ki svechchha aur svachchhandta rahi hai, wo kabhi bhratritv ke ya baDe chhotepan ke bandhnon mein nahin ghira…
main aaj koi chaar varsh baad use dekhana aaya hoon. jab mainne use isse poorv dekha tha, tab wo laDki hi thi, ab wo vivahita hai, ek bachche ki maan bhi hai. isse koi parivartan usmen aaya hoga aur yadi aaya hoga to kya, ye mainne abhi tak socha nahin tha, kintu ab uski peeth ki or dekhta hua main soch raha tha, ye kaisi chhaya is ghar par chhai hui hai…aur visheshataya malti par…
malti bachche ko lekar laut aai aur phir mujhse kuch door niche bichhi hui dari par baith gai. mainne apni kursi ghumakar kuch uski or unmukh hokar puchha, ‘‘iska naam kya hai?’’
malti ne bachche ki or dekhte hue uttar diya, ‘‘naam to koi nishchit nahin kiya, vaise titi kahte hain. ’’
mainne use bulaya, ‘‘titi, titi, aaja,’’ “par wo apni baDi baDi ankhon se meri or dekhta hua apni maan se chipat gaya, aur ruansa sa hokar kahne laga, ‘‘uhun uhun uhun uun…’’
malti ne phir uski or ek nazar dekha, aur phir bahar angan ki or dekhne lagi…
kafi der maun raha. thoDi der tak to wo maun akasmik hi tha, jismen main prtiksha mein tha ki malti kuch puchhe, kintu uske baad ekayek mujhe dhyaan hua, malti ne koi baat hi nahin ki…yah bhi nahin puchha ki main kaisa hoon, kaise aaya hun…chup baithi hai, kya vivah ke do varsh mein hi wo bite din bhool gai? ya ab mujhe dur—is vishesh antar par—rakhna chahti hai? kyonki wo nirbadh svachchhandta ab to nahin ho sakti…par phir bhi, aisa maun, jaisa ajnabi se bhi nahin hona chahiye…
mainne kuch khinn sa hokar, dusri or dekhte hue kaha, ‘‘jaan paDta hai, tumhein mere aane se vishesh prasannata nahin hui—’’
usne ekayek chaunkkar kaha, ‘‘hoon?’’
ye ‘hoon’ parashn suchak tha, kintu isliye nahin ki malti ne meri baat suni nahin thi, keval vismay ke karan. isliye mainne apni baat duhrai nahin, chup baith raha. malti kuch boli hi nahin, tab thoDi der baad mainne uski or dekha. wo ektak meri or dekh rahi thi, kintu mere udhar unmukh hote hi usne ankhen nichi kar leen. phir bhi mainne dekha, un ankhon mein kuch vichitr sa bhaav tha, mano malti ke bhitar kahin kuch cheshta kar raha ho, kisi biti hui baat ko yaad karne ki, kisi bikhre hue vayumanDal ko punः jagakar gatiman karne ki, kisi tute hue vyvahar tantu ko punrujjivit karne ki, aur cheshta mein saphal na ho raha ho…vaise jaise bahut der se prayog mein na laye hue ang ko vyakti ekayek uthane lage aur pae ki wo uthta hi nahin hai, chirvismriti mein mano mar gaya hai, utne ksheen bal se (yadyapi wo sara prapya bal hai) uth nahin sakta… mujhe aisa jaan paDa, mano kisi jivit prani ke gale mein kisi mrit jantu ka tauk Daal diya gaya ho, wo use utarkar phenkna chahe, par utaar na pae…
tabhi kisi ne kivaD khatakhtaye. mainne malti ki or dekha; par wo hili nahin. jab kivaD dusri baar khatakhtaye ge, tab wo shishu ko alag karke uthi aur kivaD kholne gai.
ve, yani malti ke pati aaye. mainne unhen pahli baar dekha tha, yadyapi foto se unhen pahchanta tha. parichay hua. malti khana taiyar karne angan mein chali gai, aur hum donon bhitar baithkar batachit karne lage, unki naukari ke bare mein, unke jivan ke bare mein, us sthaan ke bare mein aur aise anya vishyon ke bare mein jo pahle parichay par utha karte hain, ek tarah ka svrakshatmak kavach bankar…
malti ke pati ka naam hai maheshvar. wo ek pahaDi gaanv mein sarkari Dispensri ke Dauktar hain, usi haisiyat se in kvartron mein rahte hain. pratःkal saat baje Dispensri chale jate hain aur DeDh ya do baje lautte hain, uske baad duphar bhar chhutti rahti hai, keval shaam ko ek do ghante phir chakkar lagane ke liye jate hain, Dispensri ke saath ke chhote se aspatal mein paDe hue rogiyon ko dekhne aur anya zaruri hidayten karne…unka jivan bhi bilkul ek nirdisht Dharre par chalta hai, nitya vahi kaam, usi prakar ke marij, vahi hidayten, vahi nuskhe, vahi davaiyan. wo svayan uktaye hue hain aur isiliye aur saath hi is bhayankar garmi ke karan wo apne fursat ke samay mein bhi sust hi rahte hain…
malti hum donon ke liye khana le aai. mainne puchha, ‘‘tum nahin khoogi? ya kha chukin?’’
maheshvar bole, kuch hansakar, ‘‘vah pichhe khaya karti hai…’’ pati Dhai baje khana khane aate hain, isliye patni teen baje tak bhukhi baithi rahegi!
maheshvar khana arambh karte hue meri or dekhkar bole, ‘‘apko to khane ka maza kya hi ayega aise bevaqt kha rahe hain?’’
mainne uttar diya, ‘‘vaah! der se khane par to aur achchha lagta hai, bhookh baDhi hui hoti hai, par shayad malti bahin ko kasht hoga. ’’
malti tokkar boli, ‘‘uunhu, mere liye to ye nai baat nahin hai…roz hi aisa hota hai…’’
malti bachche ko god mein liye hue thi. bachcha ro raha tha, par uski or koi bhi dhyaan nahin de raha tha.
mainne kaha, ‘‘yah rota kyon hai?’’
malti boli, ‘‘ho hi gaya hai chiDchiDa sa, hamesha hi aisa rahta hai. ’’ phir bachche ko Dantakar kaha, ‘‘chupkar. ’’ jisse wo aur bhi rone laga, malti ne bhumi par baitha diya. aur boli, ‘‘achchha le, ro le. ’’ aur roti lene angan ki or chali gai.
jab hamne bhojan samapt kiya tab teen bajne vale the. maheshvar ne bataya ki unhen aaj jaldi aspatal jana hai, yahan ek do chintajnak kes aaye hue hain, jinka aupreshan karna paDega…do ki shayad taang katni paDe, gaingrin ho gaya hai…thoDi hi der mein wo chale ge. malti kivaD band kar aai aur mere paas baithne hi lagi thi ki mainne kaha, ‘‘ab khana to kha lo, main utni der titi se khelta hoon. ’’
wo boli, ‘‘kha lungi, mere khane ki kaun baat hai,’’ kintu chali gai. main titi ko haath mein lekar jhulane laga, jisse wo kuch der ke liye shaant ho gaya.
dur…shayad aspatal mein hi, teen khaDke. ekayek main chaunka, mainne suna, malti vahin angan mein baithi apne aap hi ek lambi si thaki hui saans ke saath kah rahi hai ‘‘teen baj ge…’’ mano baDi tapasya ke baad koi karya sampann ho gaya ho…
thoDi hi der mein malti phir aa gai, mainne puchha, ‘‘tumhare liye kuch bacha bhi tha? sab kuch to…’’
‘‘bahut tha. ’’
‘‘haan, bahut tha, bhaji to sari main hi kha gaya tha, vahan bacha kuch hoga nahin, yon hi raub to na jamao ki bahut tha. ’’ mainne hansakar kaha.
malti mano kisi aur vishay ki baat kahti hui boli, ‘‘yahan sabzi vabzi to kuch hoti hi nahin, koi aata jata hai, to niche se manga lete hain’ mujhe aaye pandrah din hue hain, jo sabzi saath laye the vahi abhi barti ja rahi hai…”
mainne puchha, ‘‘naukar koi nahin hai?’’
‘‘koi theek mila nahin, shayad ek do din mein ho jaye. ’’
‘‘bartan bhi tumhin manjati ho?’’
‘‘aur kaun?’’ kahkar malti kshan bhar angan mein jakar laut aai.
mainne puchha, ‘‘kahan gai theen?’’
‘‘aaj pani hi nahin hai, bartan kaise manjenge?’’
‘‘kyon, pani ko kya hua?’’
‘‘roz hi hota hai…kabhi vaqt par to aata nahin, aaj shaam ko saat baje ayega, tab bartan manjenge. ’’
‘‘chalo, tumhein saat baje tak chhutti hui,’’ kahte hue main man hi man sochne laga, ‘ab ise raat ke gyarah baje tak kaam karna paDega, chhutti kya khaak hui?’
yahi usne kaha. mere paas koi uttar nahin tha; par meri sahayata titi ne ki, ekayek phir rone laga aur malti ke paas jane ki cheshta karne laga. mainne use de diya.
thoDi der phir maun raha, mainne jeb se apni notabuk nikali aur pichhle dinon ke likhe hue not dekhne laga, tab malti ko yaad aaya ki usne mere aane ka karan to puchha nahin, aur boli, ‘‘yahan aaye kaise?’’
mainne kaha hi to, ‘‘achchha, ab yaad aaya? tumse milne aaya tha, aur kya karne?’’
‘‘to do ek din rahoge na?’’
‘‘nahin, kal chala jaunga, zaruri jana hai. ’’
malti kuch nahin boli, kuch khinn si ho gai. main phir notabuk ki taraf dekhne laga.
thoDi der baad mujhe bhi dhyaan hua, main aaya to hoon malti se milne kintu, yahan wo baat karne ko baithi hai aur main paDh raha hoon, par baat bhi kya ki jaye? mujhe aisa lag raha tha ki is ghar par jo chhaya ghiri hui hai, wo agyat rahkar bhi mano mujhe bhi vash mein kar rahi hai, main bhi vaisa hi niras nirjiv sa ho raha hoon, jaise—han, jaise ye ghar, jaise malti…
mainne puchha, ‘‘tum kuch paDhti likhti nahin?’’ main charon aur dekhne laga ki kahin kitaben deekh paDen.
‘‘yahan!’’ kahkar malti thoDa sa hans di. wo hansi kah rahi thi, ‘yahan paDhne ko hai kyaa?’
mainne kaha, ‘‘achchha, main vapas jakar zarur kuch pustken bhejunga…’’ aur vartalap phir samapt ho gaya…
thoDi der baad malti ne phir puchha, ‘‘aye kaise ho, lari men?’’
‘‘paidal. ’’
‘‘itni door? baDi himmat ki. ’’
‘‘akhir tumse milne aaya hoon. ’’
‘‘aise hi aaye ho?’’
‘‘nahin, kuli pichhe aa raha hai, saman lekar. mainne socha, bistara le hi chalun. ’’
‘‘achchha kiya, yahan to bas…’’ kahkar malti chup rah gai phir boli, ‘‘tab tum thake hoge, let jao. ’’
‘‘nahin, bilkul nahin thaka. ’’
‘‘rahne bhi do, thake nahin, bhala thake hain?’’
‘‘aur tum kya karogi?”
‘‘main bartan maanj rakhti hoon, pani ayega to dhul jayenge. ’’
thoDi der mein malti uthi aur chali gai, titi ko saath lekar. tab main bhi let gaya aur chhat ki or dekhne laga…mere vicharon ke saath angan se aati hui bartnon ke ghisne ki khan khan dhvani milkar ek vichitr ek svar utpann karne lagi, jiske karan mere ang dhire dhire Dhile paDne lage, main uunghane laga…
ekayek wo ek svar toot gaya—maun ho gaya. isse meri tandra bhi tuti, main us maun mein sunne laga…
chaar khaDak rahe the aur isi ka pahla ghanta sunkar malti ruk gai thi…vahi teen baje vali baat mainne phir dekhi, abki baar ugr roop mein. mainne suna, malti ek bilkul anaichchhik, anubhutihin, niras, yantrvat—vah bhi thake hue yantr ke se svar mein kah rahi hai, ‘‘chaar baj ge. . . ’’ mano is anaichchhik samay ko ginne mein hi uska mashin tulya jivan bitta ho, vaise hi, jaise motar ka spiDo mitar yantrvat fasla napta jata hai, aur yantrvat vishrant svar mein kahta hai (kisse!) ki mainne apne amit shunyapath ka itna ansh tay kar liya…na jane kab, kaise mujhe neend aa gai.
tab chhah kabhi ke baj chuke the, jab kisi ke aane ki aahat se meri neend khuli, aur mainne dekha ki maheshvar laut aaye hain aur unke saath hi bistar liye hue mera kuli. main munh dhone ko pani mangne ko hi tha ki mujhe yaad aaya, pani nahin hoga. mainne hathon se munh ponchhte ponchhte maheshvar se puchha, ‘‘apne baDi der kee?’’
unhonne kinchit glani bhare svar mein kaha, ‘‘haan, aaj wo gaingrin ka apreshan karna hi paDa, ek kar aaya hoon, dusre ko embulens mein baDe aspatal bhijva diya hai. ’’
mainne puchha’’ gaingrin kaise ho gaya. ’’
‘‘ek kanta chubha tha, usi se ho gaya, baDe laparvah log hote hain yahan ke…’’
mainne puchha, ‘‘yahan aapko kes achchhe mil jate hain? aay ke lihaj se nahin, Dauktri ke abhyas ke liye?’’
bole, ‘‘haan, mil hi jate hain, yahi gaingrin, har dusre chauthe din ek kes aa jata hai, niche baDe asptalon mein bhee…’’
malti angan se hi sun rahi thi, ab aa gai, boli, ‘‘haan, kes banate der kya lagti hai? kanta chubha tha, is par taang katni paDe, ye bhi koi Dauktri hai? har dusre din kisi ki taang, kisi ki baanh kaat aate hain, isi ka naam hai achchha abhyas!’’
maheshvar hanse, bole, ‘‘na katen to uski jaan ganvayen?’’
‘‘haan, pahle to duniya mein kante hi nahin hote honge? aaj tak to suna nahin tha ki kanton ke chubhne se mar jate hain…’’
maheshvar ne uttar nahin diya, muskra diye. malti meri or dekhkar boli, ‘‘aise hi hote hain, Daktar, sarkari aspatal hai na, kya parvah hai! main to roz hi aisi baten sunti hoon! ab koi mar mur jaye to khyaal hi nahin hota. pahle to raat raat bhar neend nahin aaya karti thi. ’’
tabhi angan mein khule hue nal ne kaha. . . tip, tip, tip, tip, tip tip, tip. . .
malti ne kaha, ‘‘pani!’’ aur uthkar chali gai. khanakhnahat se hamne jana, bartan dhoe jane lage hain…
titi maheshvar ki tangon ke sahare khaDa meri or dekh raha tha, ab ekayek unhen chhoDkar malti ki or khisakta hua chala. maheshvar ne kaha, ‘‘udhar mat ja!’’ aur use god mein utha liya, wo machalne aur chilla chillakar rone laga.
mainne puchha, ‘‘aap log bhitar hi sote hain? garmi to bahut hoti hai?’’
‘‘hone ko to machchhar bhi bahut hote hain, par ye lohe ke palang uthakar bahar kaun le jaye? ab ke niche jayenge to charpaiyan le ayenge. ’’ phir kuch rukkar bole, ‘‘aaj to bahar hi soenge. aapke aane ka itna laabh hi hoga. ’’
titi abhi tak rota hi ja raha tha. maheshvar ne use ek palang par bitha diya, aur palang bahar khinchne lage, mainne kaha, ‘‘main madad karta hoon’’, aur dusri or se palang uthakar nikalva diye.
ab hum tinon… maheshvar, titi aur main, do palangon par baith ge aur vartalap ke liye upyukt vishay na pakar us kami ko chhupane ke liye titi se khelne lage, bahar aakar wo kuch chup ho gaya tha, kintu beech beech mein jaise ekayek koi bhula hua karttavya yaad karke ro uthta ya, aur phir ekdam chup ho jata tha…aur kabhi kabhi hum hans paDte the, ya maheshvar uske bare mein kuch baat kah dete the…
malti bartan dho chuki thi. jab wo unhen lekar angan ke ek or rasoi ke chhappar ki or chali, tab maheshvar ne kaha, ‘‘thoDe se aam laya hoon, wo bhi dho lena. ’’
‘‘kahan hain?’’
‘‘angithi par rakhe hain, kaghaz mein lipte hue. ’’
malti ne bhitar jakar aam uthaye aur apne anchal mein Daal liye. jis kaghaz mein ve lipte hue the wo kisi purane akhbar ka tukDa tha. malti chalti chalti sandhya ke us kshan parkash mein usi ko paDhti ja rahi thi…vah nal ke paas jakar khaDi use paDhti rahi, jab donon or paDh chuki, tab ek lambi saans lekar use phenkkar aam dhone lagi.
mujhe ekayek yaad aya…bahut dinon ki baat thi…jab hum abhi skool mein bharti hue hi the. jab hamara sabse baDa sukh, sabse baDi vijay thi haziri ho chukne ke baad chori se klaas se nikal bhagna aur skool se kuch duri par aam ke baghiche mein peDon par chaDhkar kachchi amiyan toD toD khana. mujhe yaad aya…kabhi jab main bhaag aata aur malti nahin aa pati thi tab main bhi khinn man laut aaya karta tha.
malti kuch nahin paDhti thi, uske mata pita tang the, ek din uske pita ne use ek pustak lakar di aur kaha ki iske bees pej roz paDha karo, hafte bhar baad main dekhun ki ise samapt kar chuki ho, nahin to maar maar kar chamDi udheD dunga. malti ne chupchap qitab le li, par kya usne paDhi? wo nitya hi uske das panne, bees pej, phaaD kar phenk deti, apne khel mein kisi bhanti farq na paDne deti. jab athven din uske pita ne puchha, ‘‘qitab samapt kar lee?’’ to uttar diya…‘‘han, kar li,’’ pita ne kaha, ‘‘lao, main parashn puchhunga, to chup khaDi rahi. pita ne kaha, to uddhat svar mein boli, ‘‘qitab mainne phaaD kar phenk di hai, main nahin paDhungi. ’’
uske baad wo bahut piti, par wo alag baat hai. is samay main yahi soch raha tha ki wo uddhat aur chanchal malti aaj kitni sidhi ho gai hai, kitni shaant, aur ek akhbar ke tukDe ko tarasti hai… ye kya, yah…
tabhi maheshvar ne puchha, ‘‘roti kab banegi!’’
‘‘bas, abhi banati hoon. ’’
par ab ki baar jab malti rasoi ki or chali, tab titi ki karttavya bhavna bahut vistirn ho gai, wo malti ki or haath baDha kar rone laga aur nahin mana, malti use bhi god mein lekar chali gai, rasoi mein baith kar ek haath se use thapakne aur dusre se kai chhote chhote Dibbe uthakar apne samne rakhne lagi…
aur hum donon chupchap ratri ki, aur bhojan ki aur ek dusre ke kuch kahne ki, aur na jane kis kis nyunata ki purti ki prtiksha karne lage.
hum bhojan kar chuke the aur bistron par let ge the aur titi so gaya tha. malti palang ke ek or momajama bichhakar use us par lita gai thi. wo so gaya tha, par neend mein kabhi kabhi chaunk uthta tha. ek baar to uthkar baith bhi gaya tha, par turant hi let gaya.
mainne maheshvar se puchha, ‘‘aap to thake honge, so jaiye. ’’
wo bole, ‘‘thake to aap adhik honge… atharah meel paidal chal kar aaye hain. ’’ kintu unke svar ne mano joD diya…thaka to main bhi hoon. ’’
main chup raha, thoDi der mein kisi apar sangya ne mujhe bataya, wo uungh rahe hain.
tab lagbhag saDhe das baje the, malti bhojan kar rahi thi.
main thoDi der malti ki or dekhta raha, wo kisi vichar men—yadyapi bahut gahre vichar mein nahin; leen hui dhire dhire khana kha rahi thi, phir main idhar udhar khisak kar, par aram se hokar, akash ki or dekhne laga.
purnima thi, akash anabhr tha.
mainne dekha. . . us sarkari kvartar ki din mein atyant shushk aur niras lagne vali slet ki chhat bhi chandni mein chamak rahi hai, atyant shitalta aur snigdhata se chhalak rahi hai, mano chandrika un par se bahti hui aa rahi ho, jhar rahi ho…
mainne dekha, pavan mein cheeD ke vriksh…garmi se sookh kar matamaile hue cheeD ke vriksh…dhire dhire ga rahe hon…koi raag jo komal hai, kintu karun nahin, ashantimay hai, kintu udvegmay nahin…
mainne dekha. . . parkash se dhundhale nile akash ke tat par jo chamgadaD nirav uDaan se chakkar kaat rahe hain, ve bhi sundar dikhte hain…
mainne dekha. . . din bhar ki tapan, ashanti, thakan, daah, pahaDon mein se bhaap se uthkar vatavran mein khoe ja rahe hain, jise grhan karne ke liye parvat shishuon ne apni cheeD vriksh rupi bhujayen akash ki or baDha rakhi hain…
par ye sab mainne hi dekha, akele mainne…maheshvar uungh rahe the aur malti us samay bhojan se nivritt hokar dahi jamane ke liye mitti ka bartan garm pani se dho rahi thi, aur kah rahi thee… ‘‘abhi chhutti hui jati hai. ’’ aur mere kahne par hi ki ‘‘gyarah bajne vale hain,’’ dhire se sir hilakar jata rahi thi ki roz hi itne baj jate hain…malti ne wo sab kuch nahin dekha, malti ka jivan apni roz ki niyat gati se baha ja raha tha aur ek chandrma ki chandrika ke liye, ek sansar ke liye rukne ko taiyar nahin tha…
chandni mein shishu kaisa lagta hai is alas jigyasa se mainne titi ki or dekha aur wo ekayek mano kisi shaishvochit vamata se utha aur khisak kar palang se niche gir paDa aur chilla chilla kar rone laga. maheshvar ne chaunkkar kaha. . . ‘‘kya hua?’’ main jhapat kar use uthane dauDa, malti rasoi se bahar nikal aai, mainne us ‘khat’ shabd ko yaad karke dhire se karuna bhare svar mein kaha, ‘‘chot bahut lag gai bechare ke. ’’
ye sab mano ek hi kshan mein, ek hi kriya ki gati mein ho gaya.
malti ne rote hue shishu ko mujhse lene ke liye haath baDhate hue kaha, ‘‘iske choten lagti hi rahti hai, roz hi gir paDta hai. ’’
ek chhote kshan bhar ke liye main stabdh ho gaya, phir ekayek mere man ne, mere samuche astitv ne, vidroh ke svar mein kaha. . . mere man na bhitar hi, bahar ek shabd bhi nahin nikla. . . ‘‘maan, yuvati maan, ye tumhare hriday ko kya ho gaya hai, jo tum apne ekmaatr bachche ke girne par aisi baat kah sakti ho. . . aur ye abhi, jab tumhara sara jivan tumhare aage hai!’’
aur, tab ekayek mainne jana ki wo bhavna mithya nahin hai, mainne dekha ki sachmuch us kutumb mein koi gahri bhayankar chhaya ghar kar gai hai, unke jivan ke is pahle hi yauvan mein ghun ki tarah lag gai hai, uska itna abhinn ang ho gai hai ki ve use pahchante hi nahin, usi ki paridhi mein ghire hue chale ja rahe hain. itna hi nahin, mainne us chhaya ko dekh bhi liya…
itni der mein, purvavat shanti ho gai thi. maheshvar phir let kar uungh rahe the. titi malti ke lete hue sharir se chipat kar chup ho gaya tha, yadyapi kabhi ek aadh siski uske chhote se sharir ko hila deti thi. main bhi anubhav karne laga tha ki bistar achchha sa lag raha hai. malti chupchap uupar akash mein dekh rahi thi, kintu kya chandrika ko ya taron ko?
tabhi gyarah ka ghanta baja, mainne apni bhari ho rahi palken utha kar akasmat kisi aspasht prtiksha se malti ki or dekha. gyarah ke pahle ghante ki khaDkan ke saath hi malti ki chhati ekayek phaphole ki bhanti uthi aur dhire dhire baithne lagi, aur ghanta dhvani ke kampan ke saath hi mook ho janevali avaz mein usne kaha, ‘‘gyarah baj ge…
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।