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रमज़ान में मौत

ramzan mein maut

मंजूर एहतेशाम

मंजूर एहतेशाम

रमज़ान में मौत

मंजूर एहतेशाम

और अधिकमंजूर एहतेशाम

    असद मियाँ की आँखें बंद थीं। एक पल के लिए मैंने सोचा, वापिस चला जाऊँ। दूसरे ही पल असद मियाँ आँखें खोले देख रहे थे। उन आँखों में कोहरा भरी सुबह-सी रौशनी थी।

    —ख़ुदा के लिए अयाज़...सीना दर्द से टूटा जा रहा है।

    सुहेला भाभी आइने के सामने खड़ी हुई डैबिंग करके चेहरे के धब्बे मिटा रही थीं। कमरे में जलते हुए बल्ब की रौशनी धीरे-धीरे बाहर फैलते अँधेरे के साथ उभरने लगी थी। सूरज डूबने में कुछ और देर थी।

    —जमील! अरे, जमील! सुहेला भाभी ने आवाज़ दी।

    असद मियाँ के पलंग की चादर सफ़ेद थी। पलंग के नीचे दो फटी हुई चप्पलों में उलझी हुई एक सलाबची थी, जिसे शायद वह पिछले कई घंटों से लगातार इस्तेमाल करते रहे थे। उनके पैर गंदे और एड़ियों की खाल चटख़ी हुई थी। बिस्तर पर चादर का वह हिस्सा जहाँ उनके पैर थे, दाग़दार हो चुका था।

    —ज़फ़र भाई रहे हैं, मैंने असद मियाँ से आँखें बचाते हुए कहना चाहा, लेकिन फिर मैंने देखा आँखें तो वो ख़ुद ही बंद कर चुके थे। सुहेला भाभी ने मज़ाक उड़ाती हुई-सी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा और फिर आवाज़ देने लगीं—जमील... अरे, कहाँ ग़ारत हो गया?

    —अरे, रहा हूँ। कहीं बाहर से आवाज़ आई।

    दूर आसमान में चमक-सी फैली। एक सकते के बाद धमाका हुआ।

    असद मियाँ की आँखों के पपोटे हलके से हिले, लेकिन आँखें बंद ही रहीं।

    ...दो...तीन...चार तोपें चल रही थीं। इफ़्तार का वक़्त हो गया था।

    —लेकिन यार तोपें ही क्यों? ये तो बिलकुल ऐसा लगता है, जैसे किसी को सलामी दी जा रही हो। सायरन भी तो बजाया जा सकता है? एक बार मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा था और मैं हँसकर रह गया था।

    —अगर ख़ुद साफ़ नहीं रह सकते तो दूसरों को तो चैन से करने दें! ख़ुद के पलंग पर नहीं लेट सके, सारी चादर का सत्यानाश कर दिया! सुहेला भाभी ख़ुद को एक ख़ूबसूरत सिंगार मेज़ में लगे आइने में देखते हुए बुदबुदा रही थीं—और अगर चाँद दिख गया तो कल ईद है। कोई धुली चादर भी होगी।

    मैंने देखा, आइना बिलकुल बेदाग़ था, लेकिन लकड़ी के बने मेज़ के फ़ेम की पॉलिश जगह-जगह से उड़ गई थी और कई जगह पड़े हुए गड्ढों से लकड़ी का अपना रंग झाँकने लगा था। आइने के नीचे बेगिनती शीशियाँ रखी हुई थीं—कॉस्मेटिक्स, परफ़्यूम्स और स्प्रेज़ की सुंदर शीशियाँ जिनमें से, मैंने अंदाज़ा लगाया, ज़ियादातर ख़ाली होंगी।

    जमील तेज़ी से कमरे में दाख़िल हुआ। हाथ उठाकर उसने सलाम किया। फिर अजीब तरह से मुस्कुराकर अपने बाप असद मियाँ की तरफ़ देखने लगा।

    —क्या कह रही थीं, अम्मी?-फिर जैसे मुझसे छुपाते हुए असद मियाँ की तरफ़ इशारा करके उसने आँखों-ही-आँखों में कोई सवाल अपनी माँ से पूछा।

    सुहेला भाभी ने होंठ सिकोड़कर गर्दन हिला दी।

    —बुलाने के लिए तुम्हें घंटों आवाज़ें देनी पड़ती हैं। उनके लहजे में तेज़ी थी।

    —मुझे क्या मालूम, आप गईं? बग़ैर कहे तो चली गई थीं। जमील ने दूँबदूँ जवाब दिया।

    —चाँद दिखा?

    —ऊँहुँ।

    —देखो, तुम कहीं जाना मत। अभी थोड़ी देर बाद तुम्हें मेरे साथ चलना है।

    —अम्मी! जमील ने शिकायती स्वर में कहा—शन्नो और दूसरे लड़के मेरा इंतिज़ार कर रहे हैं। मुझे उनके साथ जाना है।

    —जाना-वाना कहीं नहीं है, आप मेरा इंतिज़ार कीजिए। कहते हुए सुहेला भाभी भीतरी कमरे में चली गई।

    केवल असद मियाँ के साँस लेने की आवाज़! जफ़र मियाँ अभी तक नहीं आए थे। क्या वह आएँगे?

    —यार! तुम चलो, मैंने इफ्तार पर कुछ दोस्तों को बुलाया है। असद मियाँ के तीसरे बुलावे पर उन्होंने मुझसे कहा था। मैं शहनाज़ आपा के पास बैठा ईद के शीर-ख़ुर्मा की लिस्ट बना रहा था। तुम चलो, मैं आता हूँ।

    असद मियाँ के सिरहाने कैलेंडर के पन्ने कई महीनों से नहीं बदले गए थे। कमरे के एक हिस्से में काली अपहोलस्ट्री के गहरे सोफ़े बिछे हुए थे। कोने में लंबे-से बुकशेल्फ़ पर तरतीब और बेतरतीबी के साथ बहुत-सी किताबें थीं-इंसाइक्लोपीडियाज़? बिज़नेस डायरेक्ट्रीज, दाईं तरफ़ दीवार पर एक बिदकते घोड़े की पेंटिंग टॅगी हुई थी। सेंटर टेबल के नीचे का क़ालीन फट चुका था। वैसे भी क़ालीन का डिज़ाइन ज़ियादा इस्तेमाल की वजह से डल हो गया था। केवल कुछ उड़े-उड़े से रंग थे जिनमें बुनियादी यक्सानियत शायद धूल की शिदत्त की वजह से थी।

    —ज़फ़र नहीं आए अब तक? असद मियाँ की झिलमिलाती-सी आँखें मेरी तरफ़ देख रही थीं।

    —कुछ दोस्तों को खाने बुलाया है, आते ही होंगे। मैंने धीरे से कहा—कब से तबीअत ख़राब है?

    —ऐं...? तबीअत...? चार-पाँच दिन से ख़राब है। सीने में सख़्त दर्द है, दिल बिलकुल बैठा जा रहा है, उनकी साँस ऊपर-नीचे हो रही थी।

    —तमशाबाज़ी है! निरी ऐक्टिंग! और सारे मर्ज़ों की एक ही दवा है—पैथिडीन! असद मियाँ के दूसरे बुलावे पर ज़फ़र मियाँ ने झुंझलाकर कहा था। कुछ और काम भी करने हैं! चाँद दिख गया तो कल ईद है। मज़ाक़ बना लिया है उन्होंने तो-फिर घड़ी खोलकर यूँ ही झटका देने के बाद वह उसे कान से लगाकर सुनने लगे थे। उस समय मुझे गाँव से आए कोई एक घंटा हुआ था।

    —किसी डॉक्टर को दिखाया? मैंने असद मियाँ की कलाई थामते हुए पूछा।

    सब कुछ फिर ख़ामोशी में डूब गया। असद मियाँ छत की तरफ़ मुस्कुराती-सी नज़रों से देख रहे थे। उनकी निगाहें जाने या अनजाने छत के उसी हिस्से पर टिकी थीं जहाँ पंखा लगाने का हुक था। बिजली की फिटिंग वहाँ तक बक़ायदगी से जाकर एकदम दो नंगे वायरों की आँखों से झाँकने लगी थी।

    —तुम मेरा एक काम कर दो। उनकी आवाज़ और आँखें पहली बार मेरी ओर मुड़ीं।

    —जी।

    —मेरी तबीअत ठीक नहीं है, और मैंने कल से इंजेक्शन भी नहीं लिया है। कल दोपहर से। शायद उससे तबीअत कुछ बेहतर हो जाए। उनके स्वर में बला की मिन्नत थी—तीन इंजेक्शन पैथिडीन के। मदन के यहाँ मिल जाएँगे।

    मैंने धीरे से ठंडी साँस ली। असद मियाँ बिना पलकें झपकाए उन्हीं मिन्नत भरी नज़रों से मेरी ओर देख रहे थे। उसी समय हाथ में काले चमड़े का बैग थोमे, प्याज़ी रंग की साड़ी पहने सुहेला भाभी कमरे में दाख़िल हुईं।

    —मुझे ज़रा बाहर जाना है। जैसे उन्होंने अपने-आपसे कहा—ये जमील कहाँ चला गया? फिर बिना किसी जवाब की प्रतीक्षा किए वह पर्दा उठाकर बाहर निकल गई।

    असद मियाँ उसी तरह मेरी तरफ़ देख रहे थे।

    सीढ़ियाँ उतरते-उतरते मैं चाहते हुए ज़फ़र मियाँ के घर की ओर मुड़ गया। फ़लक मंज़िल के बाहरी हिस्से में ज़फ़र मियाँ और इसके पीछे उनकी छोटी बहन शाहिदा रहती थी। पिछले टुकड़े में सबसे बड़े भाई असद मियाँ का ख़ानदान था। घूमकर मैं ज़फ़र मियाँ के कमरे में पहुँचा।

    शहनाज़ आपा तन्नू को उसका ईद का जूता दिखा रही थीं।

    —मामूँ गए। देखिए मामूँ, अब्बू हमारा नया जूता लाए। तन्नू बहुत ख़ुश था।

    —और बेटा, मामूँ को नहीं बताया कि तुमने शेर कैसे मारा था? और तुम्हारी बंदूक़ कहाँ है?

    ज़फ़र मियाँ बाहर के कमरे से अंदर गए थे। तन्नू नक़ल करके बता रहा था कि झाड़ी में से 'हाऊँ' करता कैसे शेर निकला और कैसे उसने अपनी कॉर्क वाली बंदूक़ से उसे ढेर कर दिया। फिर दीवान पर बिछी शेर की खाल की तरफ़ इशारा करके उसने ठेठ शिकारियों वाले लहजे में कहा— उसी की खाल है। जफ़र मियाँ हँस-हँसकर लोटे जा रहे थे।

    —भई खाना तैयार हो गया? रियाज़? का तो रोज़ा था, सूख गए होंगे। उन्होंने शहनाज़ आपा से कहा और दोनों बावर्चीख़ाने की तरफ़ चले गए।

    तन्नू अपनी बंदूक़ लटकाए शायद दादी माँ को शेर का शिकार सुनाने चला गया और मैं अकेला दीवान पर बैठा रह गया। कमरे के दो कोनों में रखे लैम्प्स के शेड्स में से रौशनी छन-छनकर अँधेरे में घुल रही थी और कुल मिलाकर ऐसा लग रहा था कि सूरज निकलने के थोड़े पहले या डूबने के बिलकुल बाद का समय हो। बीच में महोगनी के सिरहाने की ख़ूबसूरत दोहरी मसहरी थी जिसके लिए ऊपर छत में मच्छरदानी के स्ट्रिंग्स लटक रहे थे। बाज़ू में दीवार से लगी हुई गहरे काले रंग की वार्डरोब्ज़ थी और उसके बाद लगभग कोने में लैम्प के पास ड्रेसिंग टेबिल। बिलकुल वैसी ही जैसी असद मियाँ के घर में थी। इसमें पॉलिश की चमक अब भी बाक़ी थी। दूसरी तरफ़ जूते रखने का स्टैंड या जिसमें बहुत से ज़नाने और मर्दाने जूते रखे हुए थे। पलंग से अटेच्ड, सिरहाने एक छोटा-सा बुक-रैक था जिसमें क़ायदे से किताबें जमी हुई थीं। पूरे कमरे में ब्लड-रैड और ब्लैक के मिले-जुले पैटर्न का क़ालीन बिछा हुआ था।

    नहीं! ज़फ़र मियाँ भूल नहीं सकते थे। फिर क्या जानकर वह असद मियाँ के ज़िक्र को टाल गए थे? पंद्रह दिन पहले भी जब मैं गाँव से आया था, असद मियाँ की तबीअत ख़राब चल रही थी। बल्कि रमज़ान से पहले तो एक दिन उनकी हालत नाज़ुक हो गई थी। तब मैंने ज़फ़र मियाँ से कहा था—किसी डॉक्टर को दिखा दें?

    —तुम भी यार कमाल करते हो! हर तीसरे दिन किस डॉक्टर को दिखाया जा सकता है? फिर कुछ बीमारी हो तब ना। सड़क पर कोई पहचानवाला मिल जाए तो टाँग में चोट लगने से फ्रेक्चर तक ही कहानी उसे सुना देते हैं। दवा के पैसे माँग लेते हैं और जाकर वही पैथिडीन! किसी जान-पहचानवाले के यहाँ अगर मुर्ग़ियाँ पली हैं तो जाकर कहेंगे बच्चों ने बहुत दिन से अंडे नहीं खाए हैं। जो कुछ मिल गया सिंधी को बेच देंगे और फिर वही पैथिडीन! जीना हराम कर दिया है। इंशोरेंसवालों से जो कुछ मकान का किराया मिलता है, वह भी इन्हीं घपलों में उड़ाते हैं। ज़मील चोरी के अलावा अब सट्टे से भी शौक़ करने लगे हैं। इधर भाभी की हरकतें देखो! नसरीन भी उन्हीं के रास्ते पर जा रही है। पता नहीं किन-किन हरामज़ादों के साथ खुली हुई जीपों में घूमती-फिरती है। यही सब दोनों छोटी बेटियाँ भी करेंगी। वह तो बहुत ग़नीमत है कि सारा और समीना की शादियाँ हो गईं। मियाँ, हमने तो उधर फटकना भी छोड़ दिया। अम्मी की ज़िंदगी तो हराम हो ही गई। तुम ख़ुद सुनते रहते हो, दुनिया की कौन-सी ज़लालत बची है जो अब फ़लक मंज़िल के नाम से जोड़ी जा सके! और फिर मेरी अपनी प्रॉब्लम्स हैं। आख़िर कब तक! ज़फ़र मियाँ के चेहरे पर ऐसा तअस्सुर था जैसे उनके अनजाने ही मैंने उन्हें किसी भद्दे मज़ाक़ में घसीट लिया हो।

    और असद मियाँ की माँ?

    —बद-नसीब है! माँ ने फूट-फूटकर रोते हुए कहा था—ज़िंदगी और मौत दोनों की तरफ़ से बद-नसीब! जैसे जिया है वैसे ही मरेगा! रमज़ान के मुबारक महीने में तो उस गुनाहगार को मौत तक नीसब नहीं हो सकती। और फिर, जैसे कुछ सोचकर, वह चुप हो गई थीं और बहुत देर तक कुछ भी नहीं बोली थीं।

    मैं ज़फ़र मियाँ के कुछ कहे बग़ैर कमरे और फिर फ़लक मंज़िल के बाहर गया।

    खुली सड़क पर हल्की-सी खुनकी का एहसास हो रहा था। बहुत आगे स्ट्रीट लैम्प जल रहा था और वहाँ तक घुप अँधेरा था। मेन रोड तक पहुँचने के लिए मुझे काफ़ी पैदल चलना था। पीछे से आते हुए स्कूटर की रौशनी और आवाज़ से सड़क पर छाया हुआ अँधेरा जैसे धड़का, फिर ख़ामोशी और अँधेरा एक-दूसरे में घुलकर दूर तक फैलते चले गए।

    —ज़िंदगी में लेन-देन के कुछ क़ानून शायद लिखे ही नहीं गए। यह भी क्या कि जो कुछ हमें तर्के-विर्से में मिल जाए, हम उसे अपना समझ, ज़रब देने के तरीक़े ढूँढ़ने लगें। ये लिखे गए क़ानून उन लोगों के लिए हैं, जो सिर्फ़ उस चीज़ को छूते हैं जिस पर अपना हक़ तसलीम करते हों, जो उन्होंने दाव पर लगाकर वसूल की हो। बाक़ी सब तो ज़माने की तरफ़ से लादा गया बोझ है। एक बार काफ़ी ज़ियादा शराब पीने के बाद मेरे सामने असद मियाँ ने लोगों से कहा था। उस रात जुए में वह कोई बीस हज़ार रूपये हारे थे। तब ज़फ़र मियाँ और शहनाज़ आपा की शादी को दो साल हुए थे और मैं अलीगढ़ से छुट्टियों में कुछ दिन के लिए शहनाज आपा के पास ठहरा हुआ था। मुझे पता नहीं क्यों असद मियाँ अच्छे लगते थे। मेरे उनसे ज़ियादा मेल-मिलाप को देखते हुए शहनाज़ आपा ने समझाया था कि मैं उनके पास जाया करूँ, क्योंकि वहाँ लोग जुआ खेलने और शराब पीने के लिए इकट्ठे होते थे।

    फिर धीरे-धीरे सब सामने गया था। असद मियाँ ने फ़लक मंज़िल तीन अलग-अलग पार्टियों को रहन रख दी थी—इंशोरेंस कंपनी और कुछ दूसरे मालदार सेठों को। देखते-ही-देखते डिक्रियाँ आने लगी थीं और फ़लक मंज़िल के एक बड़े हिस्से को फ़्लैटों में तब्दील करके किराए पर उठा दिया गया था, उधार वालों की क़िस्तें चुकाने के लिए। असद मियाँ की माँ ने पहले काफ़ी बर्दाश्त किया क्योंकि असद मियाँ वैसे भी उनके सबसे लाड़ले बेटे थे। —नवाबों से ज़ियादा लाड से पाला है मैंने इसे, आँखों में आँसू भरकर वह कहा करती थीं। लेकिन फिर उन्होंने इस बात को लेकर मुक़दमा दायर कर दिया था कि जायदाद क्योंकि उनके नाम थी, इसलिए उनके जीते-जी उसे रहन रखने का हक़ असद मियाँ को नहीं था। हाइकोर्ट में मुक़दमा चल रहा था और उम्मीद थी कि असद मियाँ के हिस्से को छोड़कर ज़फ़र मियाँ और शाहिदा को उनका हक़ मिल जाएगा।

    शाहिदा के ख़याल से मेरे मुँह में कड़वाहट फैल गई। अलीगढ़ जाने से पहले मैं शाहिदा के बहुत क़रीब गया था और मेरी आने वाली ज़िंदगी के ज़ियादातर प्लानों में मैंने शाहिदा को भी शामिल समझ लिया था।

    —प्लान! जैसे मैंने ख़ुद से ही कहा। दो साल की मेहनत के बावजूद मैं प्रि-मेडिकल में इतने मार्क्स नहीं ला पाया कि किसी मेडिकल कॉलिज में दाख़िला पा सकूँ। जब तीन साल बाद मैं मुस्तक़िल तौर पर पर शहर लौटा तो शाहिदा, घर में बच्चों को पढ़ाने वाले मास्टर साजिद से शादी कर चुकी थी। साजिद एक ग़रीब घर का लड़का था। और ख़ानदान के उन तेज़ी से बिगड़ते हालात में शायद शाहिदा को वही एक सहारा नज़र आया था। बहरहाल, इस बात को भी अब पाँच साल हो चुके थे। शाहिदा और साजिद का एक बच्चा था और अब असद और ज़फ़र मियाँ की माँ भी अपनी बेटी और दामाद के साथ ही रहती थीं।

    सड़क के अगले मोड़ का बल्ब भी किसी ने फोड़ दिया था। अँधेरा उसी तरह छाया हुआ था। सिर्फ़ पास की कोठी की हल्की-सी रौशनी नज़र रही थी और कुत्ते के भौंकने की आवाज़! मेरे क़दम धीरे-धीरे उठते रहे।

    सबसे ज़ियादा हैरत मुझे असद मियाँ के उस अंदाज़ पर होती थी, जिसके साथ उन्होंने पिछले आठ सालों में हर स्टेज पर हालात को स्वीकार किया था। एक ख़ास लापरवाही और बेनियाज़ी उनके अंदाज़ में थी। माँ से कोई बात मनवाने में नाकाम होने से लेकर जुए में कोई बड़ी रक़म हारने और उसके बाद अब अपने एक ज़माने के यार-दोस्तों के, एक रुपए तक के इंकार को उन्होंने उसी नानकेलन्स के साथ क़बूल किया था। एक ज़माने में जो तअस्सुर उनके चेहरे पर, खाने में कोई नापसंद चीज़ देखकर होता था, आज वही किसी भी दोस्त या अजनबी की झिड़की, व्यंग्य या मज़ाक सुनने के बाद। ज़फ़र मियाँ ने हालात से लड़ने के लिए हाथ-पैर मारे थे। अब उनके दोस्तों की महफ़िलें कम हो गई थीं, तफ़रीहें कम हो गई थीं, यहाँ तक कि कभी-कभी तो ब्यूक में पेट्रोल डलवाना भी मुश्किल हो जाता था। शहनाज़ आपा अच्छे कल की ख़्वाहिश में लॉट्रियों के टिकट ख़रीदती रहती थीं, लेकिन फिर भी उनकी बदहाली एक ख़ास स्टेज तक आकर रुक गई थी। शाहिदा भी एक हरी-भरी बेल की तरह अपने सबसे क़रीब की दीवार का सहारा लेने पर मजबूर हो गई थी। लेकिन असद मियाँ बिना किसी तब्दीली के, वक़्त के साथ-साथ नीचे बैठते गए थे। जैसे उनकी नज़रों में जो कुछ हो रहा था, सिर्फ़ वही हो सकता था। शहर के विभिन्न हिस्सों में जाने कितने लोगों से उन्होंने झूठ बोलकर पैसे लिए थे। किसी को नायाब कारतूस लाके देने को, तो कसी को कोई और ज़रूरी चीज़ दिलाने के बहाने, किसी से बीमारी, किसी से भूख का बहाना, लेकिन किसी शर्म का तअस्सुर उनके चेहरे पर कभी नहीं रहा था। यहाँ तक कि पिछले दिनों तो वह पीर-फ़कीरों के मज़ारों पर बैठने लगे थे—नज़र और चढ़ावे मिल जाने की उम्मीद में। जमील चोरी करना सीख गया था, लेकिन उसके चोरी करने पर असद मियाँ ने कभी कोई एतिराज़ नहीं किया था। सारा घर उनको भूलकर, उनकी तबीअत की तरफ़ से आँखें बंद करके ईद की तैयारियों में लगा हुआ था। ज़फ़र मियाँ के यहाँ एक हफ़्ते से घर की लिपाई-पुताई चल रही थी। शाहिदा और ज़फ़र मियाँ के यहाँ बच्चों के कपड़े सिए जा रहे थे। शीर-ख़ुर्मे के लिए सूखे नारियल घिसे जा रहे थे, बादाम-पिस्ते काट-धोकर सुखाए जा रहे थे। गरज़ यह कि हर आदमी अपनी जगह मशग़ूल था और असद मियाँ जैसे उनके सबकी मजबूरी को समझते थे।

    असद मियाँ को इन सब लोगों—बहन, भाई, माँ और दोस्तों के बीच देखकर पता नहीं क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता था, और जैसे सिर्फ़ एक असद मियाँ ही अपने मुक़ाम पर थे, और सारी दुनिया बदल गई थी।

    फ़लक मंज़िल का बाहरी हिस्सा गहरे अँधेरे में डूबा हुआ था। कम्पाउंड-वॉल में जगह-जगह रख़ने पड़ गए थे और कई जगह आसानी के ख़याल से लोगों ने दाख़िले के लिए दीवार तोड़ डाली थी। दाख़िले के दरवाज़े की जगह दोनों तरफ़ सिर्फ़ सीमेंट के पिलर्स रह गए थे। सामने पोर्च में ज़फ़र मियाँ की ब्यूक खड़ी हुई थी। दाईं तरफ़ शाहिदा और साजिद का हिस्सा था, जिसके बाहर एक साइकिल खड़ी हुई थी। इसके ऊपर और आगे दूर तक फ़लक मंज़िल का हिस्सा और ज़मीन किराए पर उठा दी गई थी। अपने वकील दोस्तों के मशवरे और मदद से ज़फर मियाँ ज़मीन का कुछ हिस्सा मार्टगेज से बचाने में कामयाब हो गए थे। इस हिस्से पर शहनाज़ आपा ने अपना ज़ेवर गिरवी रखकर एक छोटा-सा फ़्लैट बनवा दिया था, जिसमें किराए पर कोई मिलट्री के मेजर रहते थे। दाईं तरफ़ कम्पाउंड में घास-ही-घास थी, जो बीच में बने ख़ूबसूरत हौज़ और फ़व्वारे को जैसे निगल गई थी।

    पोर्च से गुज़रकर घूमने के बाद फ़लक मंज़िल का वह हिस्सा था जहाँ असद मियाँ रहते थे। उनके कमरे की हल्की-हल्की रौशनी मुझे दूर से ही नज़र रही थी। दूर, सामने लगभग पचास फ़ीट नीचे, लहरें मारता हुआ तालाब था। कमरे के बाहर लगे यूक्लिप्टस के नीचे खड़े होकर बरसात की ख़ामोश, तेज़ हवा की रातों में मैंने अक्सर पानी की लहरों और यूक्लिप्टस की पत्तियों की थरथराहट को सुना था। इस वक़्त दोनों चीज़ें चुप थीं।

    सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले एक लम्हें के लिए मैं रुका। दूर, दाईं तरफ़ दरख़्तों और जंगली घास में घिरी लकड़ी के अध-टूटे शेड्स नज़र रहे थे। उस हिस्से में जहाँ की छत गिर चुकी थी या टीन की छत उतारकर बेची जा चुकी थी, किसी ऊपरी कमरे की रौशनी एक आरा-मशीन पर पड़ रही थी जो नामालूम कैसे अपनी जगह लगी रह गई थी। ऐसा लग रहा था कि कोई झुकी कमर की शबीह पनाह ढूँढ़ने के लिए वहाँ जा छुपी हो या वहाँ से पनाह पाने के लिए सर उठाए खड़ी हो। मेरी आँखों में वर्कशॉप का पुराना नक़्शा घूम गया। असद मियाँ के बाप अपने ज़माने में सूबे के सबसे बड़े लकड़ी के व्यापारी और फ़र्नीचर डीलर थे। एक ही वक़्त में कोई डेढ़ सौ कारीगर उनके शेड में काम किया करते थे।

    दरवाज़ा खुला हुआ था। असद मियाँ की बेचैन निगाहें मुझ पर ठहर गईं। वह बिस्तर पर उठकर बैठ गए थे। एक पल के लिए वह कुछ सोचते से रहे फिर झपटकर उन्होंने इंजेक्शन मेरे हाथ से ले लिए।

    —लाएगा कौन?—मैंने थोड़ी हिम्मत करके पूछा।

    जवाब में असद मियाँ मुस्कुराते हुए बिस्तर से उठे। खड़े होने की कोशिश में पहले तो वह डगमगाए फिर संभलकर नंगे पैर ही अंदर के कमरे में चले गए। थोड़ी देर बाद वह सीरेंज हाथ में लिए वापस आए और देखते-ही-देखते वह तीनों इंजेक्शन उन्हीं के हाथों, उनके ख़ून में दाख़िल हो गए। पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें उनके माथे पर जगमगाने लगी थीं और उनके मुँह से 'सी-सी' की आवाज़ निकल रही थी। थोड़ी देर आँखें बंद किए, गर्दन अकड़ाए वह बिलकुल ख़ामोश बैठे रहे, फिर जब उन्होंने आँखें खोली तो उनमें दर्द और तकलीफ़ का तअस्सुर ख़त्म हो चुका था।

    मुझे एकदम लगा जैसे मैं किसी चीज़ का इंतिज़ार कर रहा हूँ। किसी ऐसी चीज़ का जो मैं चाहता था कि हो लेकिन फिर भी जिसका इंतिज़ार था। असद मियाँ के अगले सवाल का। वह सवाल जो मुझे मालूम था। जो मैं चाहता था करे, लेकिन जो वह करने वाले थे।

    —यार क्या किसी के पास तीन सौ बोर के कारतूस मिल सकते हैं? आबिद मियाँ को चाहिए। सुना है पीस-कोर में कोई आदमी बेच रहा है?

    इसके बाद थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी रही। असद मियाँ अब बिस्तर पर लेटकर मेरी तरफ़ करवट ले चुके थे। मैंने जैसे पहली बार देखा कि असद मियाँ के सर पर बाल बहुत कम रह गए थे। उनके सर की खाल बालों में से तक़रीबन साफ़ नज़र आने लगी थी। और फिर बालों का रंग-न सफ़दे काला। बिलकुल राख का-सा रंग हो गया था।

    —और तुम्हारी खेती के क्या हाल हैं? मुझे लगा जैसे लहजे में कुछ छिपा हुआ था, मज़ाक़, तंज़ या कुछ और, लेकिन क्या मैं समझ नहीं पाया?

    —ठीक है, ट्रैक्टर चल रहा है। मैंने ज़रूरतन जवाब दिया।

    —मेरा मशवरा मानों तो यह है कि तुम अब भी संजीदगी के साथ पढ़ डालो। क्या रखा है इस तरह खेती-वेती में। आज तो बहन है, कल भानजे बड़े हो जाएँगे तो क्या करोगे? यह सब कुछ तुम्हारे बस का नहीं है। अभी तो सब ख़ुश हैं कि बहनोई की मौत के बाद भाई, बहन और भानजों के लिए कितना कर रहा है, लेकिन धीरे-धीरे सब बदल जाएगा... अरे हाँ! यह तो बताओ—क्या तुमने कभी किसी जिन को देखा है?

    —जी? मुझे यक़ीन नहीं आया।

    —जिन-मेरा मतलब जिन्नातों से है। लोग नमाजें-वज़ीफ़े पढ़कर जिनों को अपने क़ब्ज़े में कर लेते हैं। क्या कहते हैं उन्हें?—मवक्किल! मवक्किल जिसके क़ब्ज़े में हो उसकी हर ख़्वाहिश पूरी करता है। हर काम करता है। किसी भी तरह का। आज एक साहब कह रहे थे कि उन्होंने एक ज़माने में जिनों को देखने और क़ब्ज़े में करने के लिए बड़े जतन किए। वीरानों में जा-जाकर इबादतें कीं। उजाड़ और ग़ैर-आबाद मस्जिदों में अज़ानें दीं, लेकिन उन्हें कभी कोई जिन इंसानी शक्ल में नज़र नहीं सका। हाँ, एक साँप के रूप में ज़रूर नज़र आया। कोई डेढ़ बालिश्त लंबा, बहुत ही ख़ूबसूरत लाल रंग का। वैसे ख़ुदा मालूम उन्हें यह कैसे पता चला कि वह जिन ही था, कभी तुम्हारा दिल भी चाहता है जिनों को देखने के लिए?

    —जी नहीं, मुझे झुरझुरी-सी रही थी।

    —एक ज़माने में शहर में एक पहुँची हुई औरत थी। सुना है उनके क़ब्ज़े में मवक्किल था। ज़ाहिर है वह उनकी हर ख़्वाहिश पूरी कर सकता था, लेकिन बेचारी मरी बहुत ग़रीबी में। क्या पता, कभी क़ब्ज़े में आए तो पता चले! और असद मियाँ हँसने लगे— तुम गाँव कब वापस जाओगे—उन्होंने पूछा।

    —बासी ईद को या उसके अगले दिन।

    —खेतों के लिए खाद का कोई इंतिज़ाम हुआ?

    —अभी तक तो नहीं।

    —ओह, हाँ...वो फ़र्टीलायज़र्स कारपोरेशन के शर्मा जी मेरी पहचान के हैं, एकदम असद मियाँ मेरे चेहरे के बजाय कहीं और देखने लगे थे, जैसे उनकी आँखें मुझसे बचना चाह रही थीं—मैंने यूँ ही बताया। तुम चाहो तो मैं खाद दिलवा...और उन्होंने जुमला पूरा नहीं किया।

    अब असद मियाँ छत की तरफ़ देखने लगे थे। फिर एक ठंडी साँस लेकर वह अड़ी थकी आवाज़ में बोले—बस, अब तुम जाओ। मैं बिलकुल ठीक हूँ।

    उनकी आँखें झिलमिला गईं।

    सन्नाटे में लहरों की आवाज़ और यूक्लिप्टस की पत्तियों की थरथराहट शुरू हो गई थी।

    सब लोग अपने-आपको जैसे उस हादसे के लिए तैयार चुके थे। कमरे में पूरी फ़लक मंज़िल जमा थी।

    असद मियाँ के हलक़ से अजीब-सी आवाज़ें निकल रही थीं और उनका मुँह फटकर खुल गया था। गर्दन और माथे की रगें खिंचकर उभर आईं थीं और चेहरे पर नीलाहट दौड़ने लगी थी... बिलकुल वैसी ही नीलाहट जैसे बर्फ़ में दबे गोश्त में पैदा हो जाती है। सुहेला भाभी उसी प्याज़ी साड़ी में उनका सर अपनी गोद में रखे बैठी थीं और उनके चेहरे पर एक अजीब-सी वीरानी घिर आई थी। उनकी ख़ूबसूरत साड़ी में असद मियाँ का मैला चेहरा बड़ा बेमेल लग रहा था।

    —यासीन शरीफ़ पढ़ो मियाँ! सैयदानी बुआ ने ज़फ़र मियाँ से कहा और ज़फ़र मियाँ झपटकर भागे। कुछ ही लम्हें बाद वह पंचसूरा हाथ में लिए कमरे में लौटे। टोपी लगाने से उनके चेहरे पर एक अजीब से सीधेपन या बेवक़ूफ़ी का तअस्सुर पैदा हो गया था। चश्में के पिछे उनकी आँखों में बेचैनी थी। असद मियाँ के सिरहाने बैठकर वह धीमी-धीमी आवाज़ में यासीन शुरू कर चुके थे—मौत की तकलीफ़ को कम करने के लिए। कहीं से किसी की हिचकियों की आवाज़ उभर रही थी। मैंने देखा—मियाँ की माँ अपना सर उनके पैरों में रखे रो रही थीं।

    पल भर के लिए मानों सब कुछ रुक गया। असद मियाँ का जिस्म बेहरकत हो गया था—पर सुहेला भाभी की चीख़ से पहले ही असद मियाँ ने आँखें खोल दीं, फिर बड़े मासूमाना अंदाज़ में उन्होंने अपने चारों तरफ़ इकट्ठी भीड़ पर नज़र डाली।

    ज़फ़र मियाँ यासीन शरीफ़ पढ़ना बंद कर चुके थे। सुहेला भाभी के चेहरे पर वही तंज़िया-सी मुस्कुराहट फिर खेलने लगी थी। वह एक चमचे से असद मियाँ के हलक़ में पानी टपका रही थीं। मैंने घड़ी की तरफ़ देखा। रात के साढ़े बारह बज चुके थे।

    —कुछ बोलो बेटा? —कैसी तबीअत है? —क्या हो गया था? असद मियाँ की माँ कह रही थीं। उनकी आवाज़ ऐसी लग रही थी जैसे किसी ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड को कम स्पीड पर बजा दिया गया हो। आँखों से आँसू बहे जा रहे थे, जिन्हें वह दुपट्टे के पल्ले से पोंछ रही थीं। उनके एक ज़माने के नरम और नाज़ुक हाथों में दूर से ही नज़र जाने वाला ख़ुरदरापन गया था।

    ज़फ़र मियाँ खड़े हुए सर टोपी के ऐंगिल को लगातार बदल रहे थे। पंचसूरा अब भी उनके हाथ में दबा हुआ था। फिर सुहेला भाभी ने असद मियाँ का सर तकियों पर रख दिया। असद मियँ की निगाहें चारों तरफ़ गर्दिश कर रही थीं। सब कुछ गहरी ख़ामोशी में डूब गया था। सिर्फ़ असद मियाँ की माँ की सिसकियाँ थीं, जो धीरे-धीरे कम होती जा रही थीं।

    असद मियाँ थोड़ी कोशिश के बाद तकियों के सहारे बैठ गए। उनके चेहरे की मुस्कुराहट हर पल गहरी होती जा रही थी। कमरे में कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं। अचानक अपने कमज़ोर जिस्म के बावजूद असद मियाँ ने खनकती-सी आवाज़ में कहा—नहीं-नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूँ। घबराइए मत, कुछ नहीं होगा। कम से कम रमज़ान की कल शाम तक तो नहीं, आप यक़ीन कीजिए। ख़ुदा मालूम असद मियाँ किससे कह रहे थे, लेकिन उनकी उस मुस्कुराहट में मुझे लगा हज़ारों कहकहे घिर आए थे।

    फिर धीरे-धीरे लोग असद मियाँ के कमरे से रुख़्सत होने लगे। थोड़ी देर बाद मैं अकेला वहाँ रह गया। सुहेला भाभी शायद अंदर कपड़े बदल रही थीं और बच्चे सोने के लिए लेट चुके थे। मैं ख़ामोश बैठा ज़मीन पर बिछे कालीन को घूरता रहा। उसके डिज़ाइन, उसके रंग के बारे में सोचता रहा। थोड़ी देर में असद मियाँ को नींद गई और वह ख़र्राटे लेने लगे।

    उठते वक़्त मैं सोच रहा था कि उस रात असद मियाँ के कमरे से शायद हर आदमी मायूस होकर वापिस लौटा था।

    अगली शाम साढ़े चार बजे मैं ज़फ़र मियाँ के कमरे में बैठा ईद की ख़रीदारी का बजट सोच रहा था। शहनाज आपा और ज़फ़र मियाँ आख़िरी रोज़े के इफ़्तार पर कहीं इंवाइटेड थे और तन्नू शाहिदा के यहाँ चला गया था। सबेरे मैं असद मियाँ को देखने गया था और खिड़की में से उन्हें कोई किताब पढ़ता देखकर वापस गया था। मैं लिस्ट बना ही रहा था कि जमील भागता हुआ कमरे में दाख़िल हुआ।

    —आपको अब्बू बुला रहे हैं। उनकी साँस फूल रही थी।

    —अम्मी घर में हैं? मैंने पूछा।

    —कोई भी नहीं है।

    —तबीअत कैसी है उनकी?

    —वैसी ही है। सीने में दर्द हो रहा है। आपको जल्दी से बुलाया है। जमील मेरे जवाब का इंतिज़ार कर रहा था।

    —तुम चलो, मैं रहा हूँ। पैथिडीन के लिए बुलाया होगा, मैंने सोचा और पाँच रुपए का नोट मैंने अपने जेब में रख लिया।

    असद मियाँ की हालत फिर रात जैसी हो रही थी। रंग नीला पड़ गया था, आँखों की पुतलियाँ फिर गई थीं और साँस बहुत तकलीफ़ से रही थी। एक दम पता नहीं क्यों मुझे डर-सा लगा, जैसे किसी सुनसान सड़क पर मैं अकेला खड़ा रह गया हूँ।

    थोड़ी देर में लोग इकट्ठे होना शुरू हो गए और मैं भागता हुआ डॉक्टर को बुलाने के ख़याल से बाहर गया। काफ़ी दौड़ने के बाद मुझे एक टैक्सी मिली। जब डॉक्टर के साथ टैक्सी फ़लक मंज़िल में दाख़िल हुई तो बहुत देर हो चुकी थी।

    शाम के लम्बे साए ज़मीन पर फैलते जा रहे थे।

    कमरे में एक तरफ़ सिसकियाँ-ही-सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं।

    असद मियाँ की आँखें खुली हुई, अजीब ढंग से कहीं देख रही थीं। कम रौशनी में लग रहा था जैसे उन आँखों में मिला-जुला ग़ुस्सा और मुस्कुराहट अब भी थी। सकते के आलम में, मैं उनके चेहरे को देखता रहा, फिर आगे बढ़कर उन खुली आँखों को बंद कर दिया। डॉक्टर ने उनका जिस्म एक सफ़ेद चादर से ढक दिया।

    एकदम किसी चीज़ ने मेरा ख़याल असद मियाँ के मुर्दा चेहरे से अपनी तरफ़ खींच लिया। जैसे दर-ओ-दीवार हिल गए थे। कोई गोला फ़लक मंज़िल के बिलकुल ऊपर आकर फूटा था।

    ...दो, तीन, चार...तोपें चल रही थीं, रोज़े के इफ़्तार की...ईद के चाँद की। रमज़ान अब ख़त्म हो रहे थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 93)
    • संपादक : स्वयं प्रकाश
    • रचनाकार : मंजूर एहतेशाम
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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