असद मियाँ की आँखें बंद थीं। एक पल के लिए मैंने सोचा, वापिस चला जाऊँ। दूसरे ही पल असद मियाँ आँखें खोले देख रहे थे। उन आँखों में कोहरा भरी सुबह-सी रौशनी थी।
—ख़ुदा के लिए अयाज़...सीना दर्द से टूटा जा रहा है।
सुहेला भाभी आइने के सामने खड़ी हुई डैबिंग करके चेहरे के धब्बे मिटा रही थीं। कमरे में जलते हुए बल्ब की रौशनी धीरे-धीरे बाहर फैलते अँधेरे के साथ उभरने लगी थी। सूरज डूबने में कुछ और देर थी।
—जमील! अरे, जमील! सुहेला भाभी ने आवाज़ दी।
असद मियाँ के पलंग की चादर सफ़ेद थी। पलंग के नीचे दो फटी हुई चप्पलों में उलझी हुई एक सलाबची थी, जिसे शायद वह पिछले कई घंटों से लगातार इस्तेमाल करते रहे थे। उनके पैर गंदे और एड़ियों की खाल चटख़ी हुई थी। बिस्तर पर चादर का वह हिस्सा जहाँ उनके पैर थे, दाग़दार हो चुका था।
—ज़फ़र भाई आ रहे हैं, मैंने असद मियाँ से आँखें बचाते हुए कहना चाहा, लेकिन फिर मैंने देखा आँखें तो वो ख़ुद ही बंद कर चुके थे। सुहेला भाभी ने मज़ाक उड़ाती हुई-सी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा और फिर आवाज़ देने लगीं—जमील... अरे, कहाँ ग़ारत हो गया?
—अरे, आ रहा हूँ। कहीं बाहर से आवाज़ आई।
दूर आसमान में चमक-सी फैली। एक सकते के बाद धमाका हुआ।
असद मियाँ की आँखों के पपोटे हलके से हिले, लेकिन आँखें बंद ही रहीं।
...दो...तीन...चार तोपें चल रही थीं। इफ़्तार का वक़्त हो गया था।
—लेकिन यार तोपें ही क्यों? ये तो बिलकुल ऐसा लगता है, जैसे किसी को सलामी दी जा रही हो। सायरन भी तो बजाया जा सकता है? एक बार मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा था और मैं हँसकर रह गया था।
—अगर ख़ुद साफ़ नहीं रह सकते तो दूसरों को तो चैन से करने दें! ख़ुद के पलंग पर नहीं लेट सके, सारी चादर का सत्यानाश कर दिया! सुहेला भाभी ख़ुद को एक ख़ूबसूरत सिंगार मेज़ में लगे आइने में देखते हुए बुदबुदा रही थीं—और अगर चाँद दिख गया तो कल ईद है। कोई धुली चादर भी न होगी।
मैंने देखा, आइना बिलकुल बेदाग़ था, लेकिन लकड़ी के बने मेज़ के फ़ेम की पॉलिश जगह-जगह से उड़ गई थी और कई जगह पड़े हुए गड्ढों से लकड़ी का अपना रंग झाँकने लगा था। आइने के नीचे बेगिनती शीशियाँ रखी हुई थीं—कॉस्मेटिक्स, परफ़्यूम्स और स्प्रेज़ की सुंदर शीशियाँ जिनमें से, मैंने अंदाज़ा लगाया, ज़ियादातर ख़ाली होंगी।
जमील तेज़ी से कमरे में दाख़िल हुआ। हाथ उठाकर उसने सलाम किया। फिर अजीब तरह से मुस्कुराकर अपने बाप असद मियाँ की तरफ़ देखने लगा।
—क्या कह रही थीं, अम्मी?-फिर जैसे मुझसे छुपाते हुए असद मियाँ की तरफ़ इशारा करके उसने आँखों-ही-आँखों में कोई सवाल अपनी माँ से पूछा।
सुहेला भाभी ने होंठ सिकोड़कर गर्दन हिला दी।
—बुलाने के लिए तुम्हें घंटों आवाज़ें देनी पड़ती हैं। उनके लहजे में तेज़ी थी।
—मुझे क्या मालूम, आप आ गईं? बग़ैर कहे तो चली गई थीं। जमील ने दूँबदूँ जवाब दिया।
—चाँद दिखा?
—ऊँहुँ।
—देखो, तुम कहीं जाना मत। अभी थोड़ी देर बाद तुम्हें मेरे साथ चलना है।
—अम्मी! जमील ने शिकायती स्वर में कहा—शन्नो और दूसरे लड़के मेरा इंतिज़ार कर रहे हैं। मुझे उनके साथ जाना है।
—जाना-वाना कहीं नहीं है, आप मेरा इंतिज़ार कीजिए। कहते हुए सुहेला भाभी भीतरी कमरे में चली गई।
केवल असद मियाँ के साँस लेने की आवाज़! जफ़र मियाँ अभी तक नहीं आए थे। क्या वह आएँगे?
—यार! तुम चलो, मैंने इफ्तार पर कुछ दोस्तों को बुलाया है। असद मियाँ के तीसरे बुलावे पर उन्होंने मुझसे कहा था। मैं शहनाज़ आपा के पास बैठा ईद के शीर-ख़ुर्मा की लिस्ट बना रहा था। तुम चलो, मैं आता हूँ।
असद मियाँ के सिरहाने कैलेंडर के पन्ने कई महीनों से नहीं बदले गए थे। कमरे के एक हिस्से में काली अपहोलस्ट्री के गहरे सोफ़े बिछे हुए थे। कोने में लंबे-से बुकशेल्फ़ पर तरतीब और बेतरतीबी के साथ बहुत-सी किताबें थीं-इंसाइक्लोपीडियाज़? बिज़नेस डायरेक्ट्रीज, दाईं तरफ़ दीवार पर एक बिदकते घोड़े की पेंटिंग टॅगी हुई थी। सेंटर टेबल के नीचे का क़ालीन फट चुका था। वैसे भी क़ालीन का डिज़ाइन ज़ियादा इस्तेमाल की वजह से डल हो गया था। केवल कुछ उड़े-उड़े से रंग थे जिनमें बुनियादी यक्सानियत शायद धूल की शिदत्त की वजह से थी।
—ज़फ़र नहीं आए अब तक? असद मियाँ की झिलमिलाती-सी आँखें मेरी तरफ़ देख रही थीं।
—कुछ दोस्तों को खाने बुलाया है, आते ही होंगे। मैंने धीरे से कहा—कब से तबीअत ख़राब है?
—ऐं...? तबीअत...? चार-पाँच दिन से ख़राब है। सीने में सख़्त दर्द है, दिल बिलकुल बैठा जा रहा है, उनकी साँस ऊपर-नीचे हो रही थी।
—तमशाबाज़ी है! निरी ऐक्टिंग! और सारे मर्ज़ों की एक ही दवा है—पैथिडीन! असद मियाँ के दूसरे बुलावे पर ज़फ़र मियाँ ने झुंझलाकर कहा था। कुछ और काम भी करने हैं! चाँद दिख गया तो कल ईद है। मज़ाक़ बना लिया है उन्होंने तो-फिर घड़ी खोलकर यूँ ही झटका देने के बाद वह उसे कान से लगाकर सुनने लगे थे। उस समय मुझे गाँव से आए कोई एक घंटा हुआ था।
—किसी डॉक्टर को दिखाया? मैंने असद मियाँ की कलाई थामते हुए पूछा।
सब कुछ फिर ख़ामोशी में डूब गया। असद मियाँ छत की तरफ़ मुस्कुराती-सी नज़रों से देख रहे थे। उनकी निगाहें जाने या अनजाने छत के उसी हिस्से पर टिकी थीं जहाँ पंखा लगाने का हुक था। बिजली की फिटिंग वहाँ तक बक़ायदगी से जाकर एकदम दो नंगे वायरों की आँखों से झाँकने लगी थी।
—तुम मेरा एक काम कर दो। उनकी आवाज़ और आँखें पहली बार मेरी ओर मुड़ीं।
—जी।
—मेरी तबीअत ठीक नहीं है, और मैंने कल से इंजेक्शन भी नहीं लिया है। कल दोपहर से। शायद उससे तबीअत कुछ बेहतर हो जाए। उनके स्वर में बला की मिन्नत थी—तीन इंजेक्शन पैथिडीन के। मदन के यहाँ मिल जाएँगे।
मैंने धीरे से ठंडी साँस ली। असद मियाँ बिना पलकें झपकाए उन्हीं मिन्नत भरी नज़रों से मेरी ओर देख रहे थे। उसी समय हाथ में काले चमड़े का बैग थोमे, प्याज़ी रंग की साड़ी पहने सुहेला भाभी कमरे में दाख़िल हुईं।
—मुझे ज़रा बाहर जाना है। जैसे उन्होंने अपने-आपसे कहा—ये जमील कहाँ चला गया? फिर बिना किसी जवाब की प्रतीक्षा किए वह पर्दा उठाकर बाहर निकल गई।
असद मियाँ उसी तरह मेरी तरफ़ देख रहे थे।
सीढ़ियाँ उतरते-उतरते मैं न चाहते हुए ज़फ़र मियाँ के घर की ओर मुड़ गया। फ़लक मंज़िल के बाहरी हिस्से में ज़फ़र मियाँ और इसके पीछे उनकी छोटी बहन शाहिदा रहती थी। पिछले टुकड़े में सबसे बड़े भाई असद मियाँ का ख़ानदान था। घूमकर मैं ज़फ़र मियाँ के कमरे में पहुँचा।
शहनाज़ आपा तन्नू को उसका ईद का जूता दिखा रही थीं।
—मामूँ आ गए। देखिए मामूँ, अब्बू हमारा नया जूता लाए। तन्नू बहुत ख़ुश था।
—और बेटा, मामूँ को नहीं बताया कि तुमने शेर कैसे मारा था? और तुम्हारी बंदूक़ कहाँ है?
ज़फ़र मियाँ बाहर के कमरे से अंदर आ गए थे। तन्नू नक़ल करके बता रहा था कि झाड़ी में से 'हाऊँ' करता कैसे शेर निकला और कैसे उसने अपनी कॉर्क वाली बंदूक़ से उसे ढेर कर दिया। फिर दीवान पर बिछी शेर की खाल की तरफ़ इशारा करके उसने ठेठ शिकारियों वाले लहजे में कहा— उसी की खाल है। जफ़र मियाँ हँस-हँसकर लोटे जा रहे थे।
—भई खाना तैयार हो गया? रियाज़? का तो रोज़ा था, सूख गए होंगे। उन्होंने शहनाज़ आपा से कहा और दोनों बावर्चीख़ाने की तरफ़ चले गए।
तन्नू अपनी बंदूक़ लटकाए शायद दादी माँ को शेर का शिकार सुनाने चला गया और मैं अकेला दीवान पर बैठा रह गया। कमरे के दो कोनों में रखे लैम्प्स के शेड्स में से रौशनी छन-छनकर अँधेरे में घुल रही थी और कुल मिलाकर ऐसा लग रहा था कि सूरज निकलने के थोड़े पहले या डूबने के बिलकुल बाद का समय हो। बीच में महोगनी के सिरहाने की ख़ूबसूरत दोहरी मसहरी थी जिसके लिए ऊपर छत में मच्छरदानी के स्ट्रिंग्स लटक रहे थे। बाज़ू में दीवार से लगी हुई गहरे काले रंग की वार्डरोब्ज़ थी और उसके बाद लगभग कोने में लैम्प के पास ड्रेसिंग टेबिल। बिलकुल वैसी ही जैसी असद मियाँ के घर में थी। इसमें पॉलिश की चमक अब भी बाक़ी थी। दूसरी तरफ़ जूते रखने का स्टैंड या जिसमें बहुत से ज़नाने और मर्दाने जूते रखे हुए थे। पलंग से अटेच्ड, सिरहाने एक छोटा-सा बुक-रैक था जिसमें क़ायदे से किताबें जमी हुई थीं। पूरे कमरे में ब्लड-रैड और ब्लैक के मिले-जुले पैटर्न का क़ालीन बिछा हुआ था।
नहीं! ज़फ़र मियाँ भूल नहीं सकते थे। फिर क्या जानकर वह असद मियाँ के ज़िक्र को टाल गए थे? पंद्रह दिन पहले भी जब मैं गाँव से आया था, असद मियाँ की तबीअत ख़राब चल रही थी। बल्कि रमज़ान से पहले तो एक दिन उनकी हालत नाज़ुक हो गई थी। तब मैंने ज़फ़र मियाँ से कहा था—किसी डॉक्टर को दिखा दें?
—तुम भी यार कमाल करते हो! हर तीसरे दिन किस डॉक्टर को दिखाया जा सकता है? फिर कुछ बीमारी हो तब ना। सड़क पर कोई पहचानवाला मिल जाए तो टाँग में चोट लगने से फ्रेक्चर तक ही कहानी उसे सुना देते हैं। दवा के पैसे माँग लेते हैं और जाकर वही पैथिडीन! किसी जान-पहचानवाले के यहाँ अगर मुर्ग़ियाँ पली हैं तो जाकर कहेंगे बच्चों ने बहुत दिन से अंडे नहीं खाए हैं। जो कुछ मिल गया सिंधी को बेच देंगे और फिर वही पैथिडीन! जीना हराम कर दिया है। इंशोरेंसवालों से जो कुछ मकान का किराया मिलता है, वह भी इन्हीं घपलों में उड़ाते हैं। ज़मील चोरी के अलावा अब सट्टे से भी शौक़ करने लगे हैं। इधर भाभी की हरकतें देखो! नसरीन भी उन्हीं के रास्ते पर जा रही है। पता नहीं किन-किन हरामज़ादों के साथ खुली हुई जीपों में घूमती-फिरती है। यही सब दोनों छोटी बेटियाँ भी करेंगी। वह तो बहुत ग़नीमत है कि सारा और समीना की शादियाँ हो गईं। मियाँ, हमने तो उधर फटकना भी छोड़ दिया। अम्मी की ज़िंदगी तो हराम हो ही गई। तुम ख़ुद सुनते रहते हो, दुनिया की कौन-सी ज़लालत बची है जो अब फ़लक मंज़िल के नाम से न जोड़ी जा सके! और फिर मेरी अपनी प्रॉब्लम्स हैं। आख़िर कब तक! ज़फ़र मियाँ के चेहरे पर ऐसा तअस्सुर था जैसे उनके अनजाने ही मैंने उन्हें किसी भद्दे मज़ाक़ में घसीट लिया हो।
और असद मियाँ की माँ?
—बद-नसीब है! माँ ने फूट-फूटकर रोते हुए कहा था—ज़िंदगी और मौत दोनों की तरफ़ से बद-नसीब! जैसे जिया है वैसे ही मरेगा! रमज़ान के मुबारक महीने में तो उस गुनाहगार को मौत तक नीसब नहीं हो सकती। और फिर, जैसे कुछ सोचकर, वह चुप हो गई थीं और बहुत देर तक कुछ भी नहीं बोली थीं।
मैं ज़फ़र मियाँ के कुछ कहे बग़ैर कमरे और फिर फ़लक मंज़िल के बाहर आ गया।
खुली सड़क पर हल्की-सी खुनकी का एहसास हो रहा था। बहुत आगे स्ट्रीट लैम्प जल रहा था और वहाँ तक घुप अँधेरा था। मेन रोड तक पहुँचने के लिए मुझे काफ़ी पैदल चलना था। पीछे से आते हुए स्कूटर की रौशनी और आवाज़ से सड़क पर छाया हुआ अँधेरा जैसे धड़का, फिर ख़ामोशी और अँधेरा एक-दूसरे में घुलकर दूर तक फैलते चले गए।
—ज़िंदगी में लेन-देन के कुछ क़ानून शायद लिखे ही नहीं गए। यह भी क्या कि जो कुछ हमें तर्के-विर्से में मिल जाए, हम उसे अपना समझ, ज़रब देने के तरीक़े ढूँढ़ने लगें। ये न लिखे गए क़ानून उन लोगों के लिए हैं, जो सिर्फ़ उस चीज़ को छूते हैं जिस पर अपना हक़ तसलीम करते हों, जो उन्होंने दाव पर लगाकर वसूल की हो। बाक़ी सब तो ज़माने की तरफ़ से लादा गया बोझ है। एक बार काफ़ी ज़ियादा शराब पीने के बाद मेरे सामने असद मियाँ ने लोगों से कहा था। उस रात जुए में वह कोई बीस हज़ार रूपये हारे थे। तब ज़फ़र मियाँ और शहनाज़ आपा की शादी को दो साल हुए थे और मैं अलीगढ़ से छुट्टियों में कुछ दिन के लिए शहनाज आपा के पास ठहरा हुआ था। मुझे पता नहीं क्यों असद मियाँ अच्छे लगते थे। मेरे उनसे ज़ियादा मेल-मिलाप को देखते हुए शहनाज़ आपा ने समझाया था कि मैं उनके पास न जाया करूँ, क्योंकि वहाँ लोग जुआ खेलने और शराब पीने के लिए इकट्ठे होते थे।
फिर धीरे-धीरे सब सामने आ गया था। असद मियाँ ने फ़लक मंज़िल तीन अलग-अलग पार्टियों को रहन रख दी थी—इंशोरेंस कंपनी और कुछ दूसरे मालदार सेठों को। देखते-ही-देखते डिक्रियाँ आने लगी थीं और फ़लक मंज़िल के एक बड़े हिस्से को फ़्लैटों में तब्दील करके किराए पर उठा दिया गया था, उधार वालों की क़िस्तें चुकाने के लिए। असद मियाँ की माँ ने पहले काफ़ी बर्दाश्त किया क्योंकि असद मियाँ वैसे भी उनके सबसे लाड़ले बेटे थे। —नवाबों से ज़ियादा लाड से पाला है मैंने इसे, आँखों में आँसू भरकर वह कहा करती थीं। लेकिन फिर उन्होंने इस बात को लेकर मुक़दमा दायर कर दिया था कि जायदाद क्योंकि उनके नाम थी, इसलिए उनके जीते-जी उसे रहन रखने का हक़ असद मियाँ को नहीं था। हाइकोर्ट में मुक़दमा चल रहा था और उम्मीद थी कि असद मियाँ के हिस्से को छोड़कर ज़फ़र मियाँ और शाहिदा को उनका हक़ मिल जाएगा।
शाहिदा के ख़याल से मेरे मुँह में कड़वाहट फैल गई। अलीगढ़ जाने से पहले मैं शाहिदा के बहुत क़रीब आ गया था और मेरी आने वाली ज़िंदगी के ज़ियादातर प्लानों में मैंने शाहिदा को भी शामिल समझ लिया था।
—प्लान! जैसे मैंने ख़ुद से ही कहा। दो साल की मेहनत के बावजूद मैं प्रि-मेडिकल में इतने मार्क्स नहीं ला पाया कि किसी मेडिकल कॉलिज में दाख़िला पा सकूँ। जब तीन साल बाद मैं मुस्तक़िल तौर पर पर शहर लौटा तो शाहिदा, घर में बच्चों को पढ़ाने वाले मास्टर साजिद से शादी कर चुकी थी। साजिद एक ग़रीब घर का लड़का था। और ख़ानदान के उन तेज़ी से बिगड़ते हालात में शायद शाहिदा को वही एक सहारा नज़र आया था। बहरहाल, इस बात को भी अब पाँच साल हो चुके थे। शाहिदा और साजिद का एक बच्चा था और अब असद और ज़फ़र मियाँ की माँ भी अपनी बेटी और दामाद के साथ ही रहती थीं।
सड़क के अगले मोड़ का बल्ब भी किसी ने फोड़ दिया था। अँधेरा उसी तरह छाया हुआ था। सिर्फ़ पास की कोठी की हल्की-सी रौशनी नज़र आ रही थी और कुत्ते के भौंकने की आवाज़! मेरे क़दम धीरे-धीरे उठते रहे।
सबसे ज़ियादा हैरत मुझे असद मियाँ के उस अंदाज़ पर होती थी, जिसके साथ उन्होंने पिछले आठ सालों में हर स्टेज पर हालात को स्वीकार किया था। एक ख़ास लापरवाही और बेनियाज़ी उनके अंदाज़ में थी। माँ से कोई बात मनवाने में नाकाम होने से लेकर जुए में कोई बड़ी रक़म हारने और उसके बाद अब अपने एक ज़माने के यार-दोस्तों के, एक रुपए तक के इंकार को उन्होंने उसी नानकेलन्स के साथ क़बूल किया था। एक ज़माने में जो तअस्सुर उनके चेहरे पर, खाने में कोई नापसंद चीज़ देखकर होता था, आज वही किसी भी दोस्त या अजनबी की झिड़की, व्यंग्य या मज़ाक सुनने के बाद। ज़फ़र मियाँ ने हालात से लड़ने के लिए हाथ-पैर मारे थे। अब उनके दोस्तों की महफ़िलें कम हो गई थीं, तफ़रीहें कम हो गई थीं, यहाँ तक कि कभी-कभी तो ब्यूक में पेट्रोल डलवाना भी मुश्किल हो जाता था। शहनाज़ आपा अच्छे कल की ख़्वाहिश में लॉट्रियों के टिकट ख़रीदती रहती थीं, लेकिन फिर भी उनकी बदहाली एक ख़ास स्टेज तक आकर रुक गई थी। शाहिदा भी एक हरी-भरी बेल की तरह अपने सबसे क़रीब की दीवार का सहारा लेने पर मजबूर हो गई थी। लेकिन असद मियाँ बिना किसी तब्दीली के, वक़्त के साथ-साथ नीचे बैठते गए थे। जैसे उनकी नज़रों में जो कुछ हो रहा था, सिर्फ़ वही हो सकता था। शहर के विभिन्न हिस्सों में न जाने कितने लोगों से उन्होंने झूठ बोलकर पैसे लिए थे। किसी को नायाब कारतूस लाके देने को, तो कसी को कोई और ज़रूरी चीज़ दिलाने के बहाने, किसी से बीमारी, किसी से भूख का बहाना, लेकिन किसी शर्म का तअस्सुर उनके चेहरे पर कभी नहीं रहा था। यहाँ तक कि पिछले दिनों तो वह पीर-फ़कीरों के मज़ारों पर बैठने लगे थे—नज़र और चढ़ावे मिल जाने की उम्मीद में। जमील चोरी करना सीख गया था, लेकिन उसके चोरी करने पर असद मियाँ ने कभी कोई एतिराज़ नहीं किया था। सारा घर उनको भूलकर, उनकी तबीअत की तरफ़ से आँखें बंद करके ईद की तैयारियों में लगा हुआ था। ज़फ़र मियाँ के यहाँ एक हफ़्ते से घर की लिपाई-पुताई चल रही थी। शाहिदा और ज़फ़र मियाँ के यहाँ बच्चों के कपड़े सिए जा रहे थे। शीर-ख़ुर्मे के लिए सूखे नारियल घिसे जा रहे थे, बादाम-पिस्ते काट-धोकर सुखाए जा रहे थे। गरज़ यह कि हर आदमी अपनी जगह मशग़ूल था और असद मियाँ जैसे उनके सबकी मजबूरी को समझते थे।
असद मियाँ को इन सब लोगों—बहन, भाई, माँ और दोस्तों के बीच देखकर पता नहीं क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता था, और जैसे सिर्फ़ एक असद मियाँ ही अपने मुक़ाम पर थे, और सारी दुनिया बदल गई थी।
फ़लक मंज़िल का बाहरी हिस्सा गहरे अँधेरे में डूबा हुआ था। कम्पाउंड-वॉल में जगह-जगह रख़ने पड़ गए थे और कई जगह आसानी के ख़याल से लोगों ने दाख़िले के लिए दीवार तोड़ डाली थी। दाख़िले के दरवाज़े की जगह दोनों तरफ़ सिर्फ़ सीमेंट के पिलर्स रह गए थे। सामने पोर्च में ज़फ़र मियाँ की ब्यूक खड़ी हुई थी। दाईं तरफ़ शाहिदा और साजिद का हिस्सा था, जिसके बाहर एक साइकिल खड़ी हुई थी। इसके ऊपर और आगे दूर तक फ़लक मंज़िल का हिस्सा और ज़मीन किराए पर उठा दी गई थी। अपने वकील दोस्तों के मशवरे और मदद से ज़फर मियाँ ज़मीन का कुछ हिस्सा मार्टगेज से बचाने में कामयाब हो गए थे। इस हिस्से पर शहनाज़ आपा ने अपना ज़ेवर गिरवी रखकर एक छोटा-सा फ़्लैट बनवा दिया था, जिसमें किराए पर कोई मिलट्री के मेजर रहते थे। दाईं तरफ़ कम्पाउंड में घास-ही-घास थी, जो बीच में बने ख़ूबसूरत हौज़ और फ़व्वारे को जैसे निगल गई थी।
पोर्च से गुज़रकर घूमने के बाद फ़लक मंज़िल का वह हिस्सा था जहाँ असद मियाँ रहते थे। उनके कमरे की हल्की-हल्की रौशनी मुझे दूर से ही नज़र आ रही थी। दूर, सामने लगभग पचास फ़ीट नीचे, लहरें मारता हुआ तालाब था। कमरे के बाहर लगे यूक्लिप्टस के नीचे खड़े होकर बरसात की ख़ामोश, तेज़ हवा की रातों में मैंने अक्सर पानी की लहरों और यूक्लिप्टस की पत्तियों की थरथराहट को सुना था। इस वक़्त दोनों चीज़ें चुप थीं।
सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले एक लम्हें के लिए मैं रुका। दूर, दाईं तरफ़ दरख़्तों और जंगली घास में घिरी लकड़ी के अध-टूटे शेड्स नज़र आ रहे थे। उस हिस्से में जहाँ की छत गिर चुकी थी या टीन की छत उतारकर बेची जा चुकी थी, किसी ऊपरी कमरे की रौशनी एक आरा-मशीन पर पड़ रही थी जो नामालूम कैसे अपनी जगह लगी रह गई थी। ऐसा लग रहा था कि कोई झुकी कमर की शबीह पनाह ढूँढ़ने के लिए वहाँ जा छुपी हो या वहाँ से पनाह पाने के लिए सर उठाए खड़ी हो। मेरी आँखों में वर्कशॉप का पुराना नक़्शा घूम गया। असद मियाँ के बाप अपने ज़माने में सूबे के सबसे बड़े लकड़ी के व्यापारी और फ़र्नीचर डीलर थे। एक ही वक़्त में कोई डेढ़ सौ कारीगर उनके शेड में काम किया करते थे।
दरवाज़ा खुला हुआ था। असद मियाँ की बेचैन निगाहें मुझ पर ठहर गईं। वह बिस्तर पर उठकर बैठ गए थे। एक पल के लिए वह कुछ सोचते से रहे फिर झपटकर उन्होंने इंजेक्शन मेरे हाथ से ले लिए।
—लाएगा कौन?—मैंने थोड़ी हिम्मत करके पूछा।
जवाब में असद मियाँ मुस्कुराते हुए बिस्तर से उठे। खड़े होने की कोशिश में पहले तो वह डगमगाए फिर संभलकर नंगे पैर ही अंदर के कमरे में चले गए। थोड़ी देर बाद वह सीरेंज हाथ में लिए वापस आए और देखते-ही-देखते वह तीनों इंजेक्शन उन्हीं के हाथों, उनके ख़ून में दाख़िल हो गए। पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें उनके माथे पर जगमगाने लगी थीं और उनके मुँह से 'सी-सी' की आवाज़ निकल रही थी। थोड़ी देर आँखें बंद किए, गर्दन अकड़ाए वह बिलकुल ख़ामोश बैठे रहे, फिर जब उन्होंने आँखें खोली तो उनमें दर्द और तकलीफ़ का तअस्सुर ख़त्म हो चुका था।
मुझे एकदम लगा जैसे मैं किसी चीज़ का इंतिज़ार कर रहा हूँ। किसी ऐसी चीज़ का जो मैं चाहता था कि न हो लेकिन फिर भी जिसका इंतिज़ार था। असद मियाँ के अगले सवाल का। वह सवाल जो मुझे मालूम था। जो मैं चाहता था व न करे, लेकिन जो वह करने वाले थे।
—यार क्या किसी के पास तीन सौ बोर के कारतूस मिल सकते हैं? आबिद मियाँ को चाहिए। सुना है पीस-कोर में कोई आदमी बेच रहा है?
इसके बाद थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी रही। असद मियाँ अब बिस्तर पर लेटकर मेरी तरफ़ करवट ले चुके थे। मैंने जैसे पहली बार देखा कि असद मियाँ के सर पर बाल बहुत कम रह गए थे। उनके सर की खाल बालों में से तक़रीबन साफ़ नज़र आने लगी थी। और फिर बालों का रंग-न सफ़दे न काला। बिलकुल राख का-सा रंग हो गया था।
—और तुम्हारी खेती के क्या हाल हैं? मुझे लगा जैसे लहजे में कुछ छिपा हुआ था, मज़ाक़, तंज़ या कुछ और, लेकिन क्या मैं समझ नहीं पाया?
—ठीक है, ट्रैक्टर चल रहा है। मैंने ज़रूरतन जवाब दिया।
—मेरा मशवरा मानों तो यह है कि तुम अब भी संजीदगी के साथ पढ़ डालो। क्या रखा है इस तरह खेती-वेती में। आज तो बहन है, कल भानजे बड़े हो जाएँगे तो क्या करोगे? यह सब कुछ तुम्हारे बस का नहीं है। अभी तो सब ख़ुश हैं कि बहनोई की मौत के बाद भाई, बहन और भानजों के लिए कितना कर रहा है, लेकिन धीरे-धीरे सब बदल जाएगा... अरे हाँ! यह तो बताओ—क्या तुमने कभी किसी जिन को देखा है?
—जी? मुझे यक़ीन नहीं आया।
—जिन-मेरा मतलब जिन्नातों से है। लोग नमाजें-वज़ीफ़े पढ़कर जिनों को अपने क़ब्ज़े में कर लेते हैं। क्या कहते हैं उन्हें?—मवक्किल! मवक्किल जिसके क़ब्ज़े में हो उसकी हर ख़्वाहिश पूरी करता है। हर काम करता है। किसी भी तरह का। आज एक साहब कह रहे थे कि उन्होंने एक ज़माने में जिनों को देखने और क़ब्ज़े में करने के लिए बड़े जतन किए। वीरानों में जा-जाकर इबादतें कीं। उजाड़ और ग़ैर-आबाद मस्जिदों में अज़ानें दीं, लेकिन उन्हें कभी कोई जिन इंसानी शक्ल में नज़र नहीं आ सका। हाँ, एक साँप के रूप में ज़रूर नज़र आया। कोई डेढ़ बालिश्त लंबा, बहुत ही ख़ूबसूरत लाल रंग का। वैसे ख़ुदा मालूम उन्हें यह कैसे पता चला कि वह जिन ही था, कभी तुम्हारा दिल भी चाहता है जिनों को देखने के लिए?
—जी नहीं, मुझे झुरझुरी-सी आ रही थी।
—एक ज़माने में शहर में एक पहुँची हुई औरत थी। सुना है उनके क़ब्ज़े में मवक्किल था। ज़ाहिर है वह उनकी हर ख़्वाहिश पूरी कर सकता था, लेकिन बेचारी मरी बहुत ग़रीबी में। क्या पता, कभी क़ब्ज़े में आए तो पता चले! और असद मियाँ हँसने लगे— तुम गाँव कब वापस जाओगे—उन्होंने पूछा।
—बासी ईद को या उसके अगले दिन।
—खेतों के लिए खाद का कोई इंतिज़ाम हुआ?
—अभी तक तो नहीं।
—ओह, हाँ...वो फ़र्टीलायज़र्स कारपोरेशन के शर्मा जी मेरी पहचान के हैं, एकदम असद मियाँ मेरे चेहरे के बजाय कहीं और देखने लगे थे, जैसे उनकी आँखें मुझसे बचना चाह रही थीं—मैंने यूँ ही बताया। तुम चाहो तो मैं खाद दिलवा...और उन्होंने जुमला पूरा नहीं किया।
अब असद मियाँ छत की तरफ़ देखने लगे थे। फिर एक ठंडी साँस लेकर वह अड़ी थकी आवाज़ में बोले—बस, अब तुम जाओ। मैं बिलकुल ठीक हूँ।
उनकी आँखें झिलमिला गईं।
सन्नाटे में लहरों की आवाज़ और यूक्लिप्टस की पत्तियों की थरथराहट शुरू हो गई थी।
सब लोग अपने-आपको जैसे उस हादसे के लिए तैयार चुके थे। कमरे में पूरी फ़लक मंज़िल जमा थी।
असद मियाँ के हलक़ से अजीब-सी आवाज़ें निकल रही थीं और उनका मुँह फटकर खुल गया था। गर्दन और माथे की रगें खिंचकर उभर आईं थीं और चेहरे पर नीलाहट दौड़ने लगी थी... बिलकुल वैसी ही नीलाहट जैसे बर्फ़ में दबे गोश्त में पैदा हो जाती है। सुहेला भाभी उसी प्याज़ी साड़ी में उनका सर अपनी गोद में रखे बैठी थीं और उनके चेहरे पर एक अजीब-सी वीरानी घिर आई थी। उनकी ख़ूबसूरत साड़ी में असद मियाँ का मैला चेहरा बड़ा बेमेल लग रहा था।
—यासीन शरीफ़ पढ़ो मियाँ! सैयदानी बुआ ने ज़फ़र मियाँ से कहा और ज़फ़र मियाँ झपटकर भागे। कुछ ही लम्हें बाद वह पंचसूरा हाथ में लिए कमरे में लौटे। टोपी लगाने से उनके चेहरे पर एक अजीब से सीधेपन या बेवक़ूफ़ी का तअस्सुर पैदा हो गया था। चश्में के पिछे उनकी आँखों में बेचैनी थी। असद मियाँ के सिरहाने बैठकर वह धीमी-धीमी आवाज़ में यासीन शुरू कर चुके थे—मौत की तकलीफ़ को कम करने के लिए। कहीं से किसी की हिचकियों की आवाज़ उभर रही थी। मैंने देखा—मियाँ की माँ अपना सर उनके पैरों में रखे रो रही थीं।
पल भर के लिए मानों सब कुछ रुक गया। असद मियाँ का जिस्म बेहरकत हो गया था—पर सुहेला भाभी की चीख़ से पहले ही असद मियाँ ने आँखें खोल दीं, फिर बड़े मासूमाना अंदाज़ में उन्होंने अपने चारों तरफ़ इकट्ठी भीड़ पर नज़र डाली।
ज़फ़र मियाँ यासीन शरीफ़ पढ़ना बंद कर चुके थे। सुहेला भाभी के चेहरे पर वही तंज़िया-सी मुस्कुराहट फिर खेलने लगी थी। वह एक चमचे से असद मियाँ के हलक़ में पानी टपका रही थीं। मैंने घड़ी की तरफ़ देखा। रात के साढ़े बारह बज चुके थे।
—कुछ बोलो बेटा? —कैसी तबीअत है? —क्या हो गया था? असद मियाँ की माँ कह रही थीं। उनकी आवाज़ ऐसी लग रही थी जैसे किसी ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड को कम स्पीड पर बजा दिया गया हो। आँखों से आँसू बहे जा रहे थे, जिन्हें वह दुपट्टे के पल्ले से पोंछ रही थीं। उनके एक ज़माने के नरम और नाज़ुक हाथों में दूर से ही नज़र आ जाने वाला ख़ुरदरापन आ गया था।
ज़फ़र मियाँ खड़े हुए सर टोपी के ऐंगिल को लगातार बदल रहे थे। पंचसूरा अब भी उनके हाथ में दबा हुआ था। फिर सुहेला भाभी ने असद मियाँ का सर तकियों पर रख दिया। असद मियँ की निगाहें चारों तरफ़ गर्दिश कर रही थीं। सब कुछ गहरी ख़ामोशी में डूब गया था। सिर्फ़ असद मियाँ की माँ की सिसकियाँ थीं, जो धीरे-धीरे कम होती जा रही थीं।
असद मियाँ थोड़ी कोशिश के बाद तकियों के सहारे बैठ गए। उनके चेहरे की मुस्कुराहट हर पल गहरी होती जा रही थी। कमरे में कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं। अचानक अपने कमज़ोर जिस्म के बावजूद असद मियाँ ने खनकती-सी आवाज़ में कहा—नहीं-नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूँ। घबराइए मत, कुछ नहीं होगा। कम से कम रमज़ान की कल शाम तक तो नहीं, आप यक़ीन कीजिए। ख़ुदा मालूम असद मियाँ किससे कह रहे थे, लेकिन उनकी उस मुस्कुराहट में मुझे लगा हज़ारों कहकहे घिर आए थे।
फिर धीरे-धीरे लोग असद मियाँ के कमरे से रुख़्सत होने लगे। थोड़ी देर बाद मैं अकेला वहाँ रह गया। सुहेला भाभी शायद अंदर कपड़े बदल रही थीं और बच्चे सोने के लिए लेट चुके थे। मैं ख़ामोश बैठा ज़मीन पर बिछे कालीन को घूरता रहा। उसके डिज़ाइन, उसके रंग के बारे में सोचता रहा। थोड़ी देर में असद मियाँ को नींद आ गई और वह ख़र्राटे लेने लगे।
उठते वक़्त मैं सोच रहा था कि उस रात असद मियाँ के कमरे से शायद हर आदमी मायूस होकर वापिस लौटा था।
अगली शाम साढ़े चार बजे मैं ज़फ़र मियाँ के कमरे में बैठा ईद की ख़रीदारी का बजट सोच रहा था। शहनाज आपा और ज़फ़र मियाँ आख़िरी रोज़े के इफ़्तार पर कहीं इंवाइटेड थे और तन्नू शाहिदा के यहाँ चला गया था। सबेरे मैं असद मियाँ को देखने गया था और खिड़की में से उन्हें कोई किताब पढ़ता देखकर वापस आ गया था। मैं लिस्ट बना ही रहा था कि जमील भागता हुआ कमरे में दाख़िल हुआ।
—आपको अब्बू बुला रहे हैं। उनकी साँस फूल रही थी।
—अम्मी घर में हैं? मैंने पूछा।
—कोई भी नहीं है।
—तबीअत कैसी है उनकी?
—वैसी ही है। सीने में दर्द हो रहा है। आपको जल्दी से बुलाया है। जमील मेरे जवाब का इंतिज़ार कर रहा था।
—तुम चलो, मैं आ रहा हूँ। पैथिडीन के लिए बुलाया होगा, मैंने सोचा और पाँच रुपए का नोट मैंने अपने जेब में रख लिया।
असद मियाँ की हालत फिर रात जैसी हो रही थी। रंग नीला पड़ गया था, आँखों की पुतलियाँ फिर गई थीं और साँस बहुत तकलीफ़ से आ रही थी। एक दम पता नहीं क्यों मुझे डर-सा लगा, जैसे किसी सुनसान सड़क पर मैं अकेला खड़ा रह गया हूँ।
थोड़ी देर में लोग इकट्ठे होना शुरू हो गए और मैं भागता हुआ डॉक्टर को बुलाने के ख़याल से बाहर आ गया। काफ़ी दौड़ने के बाद मुझे एक टैक्सी मिली। जब डॉक्टर के साथ टैक्सी फ़लक मंज़िल में दाख़िल हुई तो बहुत देर हो चुकी थी।
शाम के लम्बे साए ज़मीन पर फैलते जा रहे थे।
कमरे में एक तरफ़ सिसकियाँ-ही-सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं।
असद मियाँ की आँखें खुली हुई, अजीब ढंग से कहीं देख रही थीं। कम रौशनी में लग रहा था जैसे उन आँखों में मिला-जुला ग़ुस्सा और मुस्कुराहट अब भी थी। सकते के आलम में, मैं उनके चेहरे को देखता रहा, फिर आगे बढ़कर उन खुली आँखों को बंद कर दिया। डॉक्टर ने उनका जिस्म एक सफ़ेद चादर से ढक दिया।
एकदम किसी चीज़ ने मेरा ख़याल असद मियाँ के मुर्दा चेहरे से अपनी तरफ़ खींच लिया। जैसे दर-ओ-दीवार हिल गए थे। कोई गोला फ़लक मंज़िल के बिलकुल ऊपर आकर फूटा था।
...दो, तीन, चार...तोपें चल रही थीं, रोज़े के इफ़्तार की...ईद के चाँद की। रमज़ान अब ख़त्म हो रहे थे।
asad miyan ki ankhen band theen ek pal ke liye mainne socha, wapis chala jaun dusre hi pal asad miyan ankhen khole dekh rahe the un ankhon mein kohara bhari subah si raushani thi
—khuda ke liye ayaz sina dard se tuta ja raha hai
suhela bhabhi aine ke samne khaDi hui Daibing karke chehre ke dhabbe mita rahi theen kamre mein jalte hue bulb ki raushani dhire dhire bahar phailte andhere ke sath ubharne lagi thi suraj Dubne mein kuch aur der thi
—jamil! are, jamil! suhela bhabhi ne awaz di
asad miyan ke palang ki chadar safed thi palang ke niche do phati hui chappalon mein uljhi hui ek salabchi thi, jise shayad wo pichhle kai ghanton se lagatar istemal karte rahe the unke pair gande aur eDiyon ki khaal chatkhi hui thi bistar par chadar ka wo hissa jahan unke pair the, daghdar ho chuka tha
—zafar bhai aa rahe hain, mainne asad miyan se ankhen bachate hue kahna chaha, lekin phir mainne dekha ankhen to wo khu hi band kar chuke the suhela bhabhi ne mazak uDati hui si nazron se meri taraf dekha aur phir awaz dene lagin—jamil are, kahan gharat ho gaya?
—are, aa raha hoon kahin bahar se awaz i
door asman mein chamak si phaili ek sakte ke baad dhamaka hua
asad miyan ki ankhon ke papote halke se hile, lekin ankhen band hi rahin
do teen chaar topen chal rahi theen iftar ka waqt ho gaya tha
—lekin yar topen hi kyon? ye to bilkul aisa lagta hai, jaise kisi ko salami di ja rahi ho sayran bhi to bajaya ja sakta hai? ek bar mere dost ne mujhse puchha tha aur main hansakar rah gaya tha
—agar khu saf nahin rah sakte to dusron ko to chain se karne den! khu ke palang par nahin let sake, sari chadar ka satyanash kar diya! suhela bhabhi khu ko ek khubsurat singar mez mein lage aine mein dekhte hue budbuda rahi thin—aur agar chand dikh gaya to kal eid hai koi dhuli chadar bhi na hogi
mainne dekha, aina bilkul bedagh tha, lekin lakDi ke bane mez ke fem ki polish jagah jagah se uD gai thi aur kai jagah paDe hue gaDDhon se lakDi ka apna rang jhankne laga tha aine ke niche beginti shishiyan rakhi hui thin—kausmetiks, parafyums aur sprez ki sundar shishiyan jinmen se, mainne andaza lagaya, ziyadatar khali hongi
jamil tezi se kamre mein dakhil hua hath uthakar usne salam kiya phir ajib tarah se muskurakar apne bap asad miyan ki taraf dekhne laga
—kya kah rahi theen, ammi? phir jaise mujhse chhupate hue asad miyan ki taraf ishara karke usne ankhon hi ankhon mein koi sawal apni man se puchha
suhela bhabhi ne honth sikoDkar gardan hila di
—bulane ke liye tumhein ghanton awazen deni paDti hain unke lahje mein tezi thi
—mujhe kya malum, aap aa gain? baghair kahe to chali gai theen jamil ne dunbadun jawab diya
—chand dikha?
—unhun
—dekho, tum kahin jana mat abhi thoDi der baad tumhein mere sath chalna hai
—ammi! jamil ne shikayati swar mein kaha—shanno aur dusre laDke mera intizar kar rahe hain mujhe unke sath jana hai
—jana wana kahin nahin hai, aap mera intizar kijiye kahte hue suhela bhabhi bhitari kamre mein chali gai
kewal asad miyan ke sans lene ki awaz! jafar miyan abhi tak nahin aaye the kya wo ayenge?
—yar! tum chalo, mainne iphtar par kuch doston ko bulaya hai asad miyan ke tisre bulawe par unhonne mujhse kaha tha main shahnaz aapa ke pas baitha eid ke sheer khurma ki list bana raha tha tum chalo, main aata hoon
asad miyan ke sirhane calendar ke panne kai mahinon se nahin badle gaye the kamre ke ek hisse mein kali apholastri ke gahre sofe bichhe hue the kone mein lambe se bukshelf par tartib aur betartibi ke sath bahut si kitaben theen insaiklopiDiyaz? business Dayrektrij, dain taraf diwar par ek bidakte ghoDe ki painting tegi hui thi centre table ke niche ka qalin phat chuka tha waise bhi qalin ka design ziyada istemal ki wajah se Dal ho gaya tha kewal kuch uDe uDe se rang the jinmen buniyadi yaksaniyat shayad dhool ki shidatt ki wajah se thi
—zafar nahin aaye ab tak? asad miyan ki jhilmilati si ankhen meri taraf dekh rahi theen
—kuchh doston ko khane bulaya hai, aate hi honge mainne dhire se kaha—kab se tabiat kharab hai?
—ain ? tabiat ? chaar panch din se kharab hai sine mein sakht dard hai, dil bilkul baitha ja raha hai, unki sans upar niche ho rahi thi
—tamshabazi hai! niri aikting! aur sare marzon ki ek hi dawa hai—paithiDin! asad miyan ke dusre bulawe par zafar miyan ne jhunjhlakar kaha tha kuch aur kaam bhi karne hain! chand dikh gaya to kal eid hai mazaq bana liya hai unhonne to phir ghaDi kholkar yoon hi jhatka dene ke baad wo use kan se lagakar sunne lage the us samay mujhe ganw se aaye koi ek ghanta hua tha
—kisi doctor ko dikhaya? mainne asad miyan ki kalai thamte hue puchha
sab kuch phir khamoshi mein Doob gaya asad miyan chhat ki taraf muskurati si nazron se dekh rahe the unki nigahen jane ya anjane chhat ke usi hisse par tiki theen jahan pankha lagane ka hook tha bijli ki phiting wahan tak baqayadgi se jakar ekdam do nange wayron ki ankhon se jhankne lagi thi
—tum mera ek kaam kar do unki awaz aur ankhen pahli bar meri or muDin
—ji
—meri tabiat theek nahin hai, aur mainne kal se injection bhi nahin liya hai kal dopahar se shayad usse tabiat kuch behtar ho jaye unke swar mein bala ki minnat thi—tin injection paithiDin ke madan ke yahan mil jayenge
mainne dhire se thanDi sans li asad miyan bina palken jhapkaye unhin minnat bhari nazron se meri or dekh rahe the usi samay hath mein kale chamDe ka bag thome, pyazi rang ki saDi pahne suhela bhabhi kamre mein dakhil huin
—mujhe zara bahar jana hai jaise unhonne apne aapse kaha—ye jamil kahan chala gaya? phir bina kisi jawab ki pratiksha kiye wo parda uthakar bahar nikal gai
asad miyan usi tarah meri taraf dekh rahe the
siDhiyan utarte utarte main na chahte hue zafar miyan ke ghar ki or muD gaya falak manzil ke bahari hisse mein zafar miyan aur iske pichhe unki chhoti bahan shahida rahti thi pichhle tukDe mein sabse baDe bhai asad miyan ka khandan tha ghumkar main zafar miyan ke kamre mein pahuncha
shahnaz aapa tannu ko uska eid ka juta dikha rahi theen
—mamun aa gaye dekhiye mamun, abbu hamara naya juta laye tannu bahut khush tha
—aur beta, mamun ko nahin bataya ki tumne sher kaise mara tha? aur tumhari banduq kahan hai?
zafar miyan bahar ke kamre se andar aa gaye the tannu naqal karke bata raha tha ki jhaDi mein se haun karta kaise sher nikla aur kaise usne apni kaurk wali banduq se use Dher kar diya phir diwan par bichhi sher ki khaal ki taraf ishara karke usne theth shikariyon wale lahje mein kaha— usi ki khaal hai jafar miyan hans hansakar lote ja rahe the
—bhai khana taiyar ho gaya? riyaz? ka to roza tha, sookh gaye honge unhonne shahnaz aapa se kaha aur donon bawarchikhane ki taraf chale gaye
tannu apni banduq latkaye shayad dadi man ko sher ka shikar sunane chala gaya aur main akela diwan par baitha rah gaya kamre ke do konon mein rakhe laimps ke sheDs mein se raushani chhan chhankar andhere mein ghul rahi thi aur kul milakar aisa lag raha tha ki suraj nikalne ke thoDe pahle ya Dubne ke bilkul baad ka samay ho beech mein mahogani ke sirhane ki khubsurat dohri masahri thi jiske liye upar chhat mein machchhardani ke strings latak rahe the bazu mein diwar se lagi hui gahre kale rang ki warDrobz thi aur uske baad lagbhag kone mein lamp ke pas dressing tebil bilkul waisi hi jaisi asad miyan ke ghar mein thi ismen polish ki chamak ab bhi baqi thi dusri taraf jute rakhne ka stand ya jismen bahut se zanane aur mardane jute rakhe hue the palang se atechD, sirhane ek chhota sa buk rack tha jismen qayde se kitaben jami hui theen pure kamre mein blaD raiD aur black ke mile jule pattern ka qalin bichha hua tha
nahin! zafar miyan bhool nahin sakte the phir kya jankar wo asad miyan ke zikr ko tal gaye the? pandrah din pahle bhi jab main ganw se aaya tha, asad miyan ki tabiat kharab chal rahi thi balki ramzan se pahle to ek din unki haalat nazuk ho gai thi tab mainne zafar miyan se kaha tha—kisi doctor ko dikha den?
—tum bhi yar kamal karte ho! har tisre din kis doctor ko dikhaya ja sakta hai? phir kuch bimari ho tab na saDak par koi pahchanwala mil jaye to tang mein chot lagne se phrekchar tak hi kahani use suna dete hain dawa ke paise mang lete hain aur jakar wahi paithiDin! kisi jaan pahchanwale ke yahan agar murghiyan pali hain to jakar kahenge bachchon ne bahut din se anDe nahin khaye hain jo kuch mil gaya sindhi ko bech denge aur phir wahi paithiDin! jina haram kar diya hai inshorenswalon se jo kuch makan ka kiraya milta hai, wo bhi inhin ghaplon mein uDate hain zamil chori ke alawa ab satte se bhi shauq karne lage hain idhar bhabhi ki harkaten dekho! nasrin bhi unhin ke raste par ja rahi hai pata nahin kin kin haramzadon ke sath khuli hui jeepon mein ghumti phirti hai yahi sab donon chhoti betiyan bhi karengi wo to bahut ghanimat hai ki sara aur samina ki shadiyan ho gain miyan, hamne to udhar phatkna bhi chhoD diya ammi ki zindagi to haram ho hi gai tum khu sunte rahte ho, duniya ki kaun si zalalat bachi hai jo ab falak manzil ke nam se na joDi ja sake! aur phir meri apni praublams hain akhir kab tak! zafar miyan ke chehre par aisa tassur tha jaise unke anjane hi mainne unhen kisi bhadde mazaq mein ghasit liya ho
aur asad miyan ki man?
—bad nasib hai! man ne phoot phutkar rote hue kaha tha—zindgi aur maut donon ki taraf se bad nasib! jaise jiya hai waise hi marega! ramzan ke mubarak mahine mein to us gunahgar ko maut tak nisab nahin ho sakti aur phir, jaise kuch sochkar, wo chup ho gai theen aur bahut der tak kuch bhi nahin boli theen
main zafar miyan ke kuch kahe baghair kamre aur phir falak manzil ke bahar aa gaya
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asad miyan ko in sab logon—bahan, bhai, man aur doston ke beech dekhkar pata nahin kyon mujhe hamesha aisa lagta tha, aur jaise sirf ek asad miyan hi apne muqam par the, aur sari duniya badal gai thi
falak manzil ka bahari hissa gahre andhere mein Duba hua tha kampaunD waul mein jagah jagah rakhne paD gaye the aur kai jagah asani ke khayal se logon ne dakhle ke liye diwar toD Dali thi dakhle ke darwaze ki jagah donon taraf sirf cement ke pilars rah gaye the samne porch mein zafar miyan ki byook khaDi hui thi dain taraf shahida aur sajid ka hissa tha, jiske bahar ek cycle khaDi hui thi iske upar aur aage door tak falak manzil ka hissa aur zamin kiraye par utha di gai thi apne wakil doston ke mashware aur madad se zaphar miyan zamin ka kuch hissa martgej se bachane mein kamyab ho gaye the is hisse par shahnaz aapa ne apna zewar girwi rakhkar ek chhota sa flat banwa diya tha, jismen kiraye par koi milatri ke major rahte the dain taraf kampaunD mein ghas hi ghas thi, jo beech mein bane khubsurat hauz aur fawware ko jaise nigal gai thi
porch se guzarkar ghumne ke baad falak manzil ka wo hissa tha jahan asad miyan rahte the unke kamre ki halki halki raushani mujhe door se hi nazar aa rahi thi door, samne lagbhag pachas feet niche, lahren marta hua talab tha kamre ke bahar lage yukliptas ke niche khaDe hokar barsat ki khamosh, tez hawa ki raton mein mainne aksar pani ki lahron aur yukliptas ki pattiyon ki thartharahat ko suna tha is waqt donon chizen chup theen
siDhiyan chaDhne se pahle ek lamhen ke liye main ruka door, dain taraf darakhton aur jangali ghas mein ghiri lakDi ke adh tute sheDs nazar aa rahe the us hisse mein jahan ki chhat gir chuki thi ya teen ki chhat utarkar bechi ja chuki thi, kisi upri kamre ki raushani ek aara machine par paD rahi thi jo namalum kaise apni jagah lagi rah gai thi aisa lag raha tha ki koi jhuki kamar ki shabih panah DhunDhane ke liye wahan ja chhupi ho ya wahan se panah pane ke liye sar uthaye khaDi ho meri ankhon mein warkshaup ka purana naqsha ghoom gaya asad miyan ke bap apne zamane mein sube ke sabse baDe lakDi ke wyapari aur furniture Dilar the ek hi waqt mein koi DeDh sau karigar unke shade mein kaam kiya karte the
darwaza khula hua tha asad miyan ki bechain nigahen mujh par thahar gain wo bistar par uthkar baith gaye the ek pal ke liye wo kuch sochte se rahe phir jhapatkar unhonne injection mere hath se le liye
—layega kaun?—mainne thoDi himmat karke puchha
jawab mein asad miyan muskurate hue bistar se uthe khaDe hone ki koshish mein pahle to wo Dagmagaye phir sambhalkar nange pair hi andar ke kamre mein chale gaye thoDi der baad wo sirenj hath mein liye wapas aaye aur dekhte hi dekhte wo tinon injection unhin ke hathon, unke khoon mein dakhil ho gaye pasine ki nanhin nanhin bunden unke mathe par jagmagane lagi theen aur unke munh se si si ki awaz nikal rahi thi thoDi der ankhen band kiye, gardan akDaye wo bilkul khamosh baithe rahe, phir jab unhonne ankhen kholi to unmen dard aur taklif ka tassur khatm ho chuka tha
mujhe ekdam laga jaise main kisi cheez ka intizar kar raha hoon kisi aisi cheez ka jo main chahta tha ki na ho lekin phir bhi jiska intizar tha asad miyan ke agle sawal ka wo sawal jo mujhe malum tha jo main chahta tha wa na kare, lekin jo wo karne wale the
—yar kya kisi ke pas teen sau bor ke kartoos mil sakte hain? aabid miyan ko chahiye suna hai pees kor mein koi adami bech raha hai?
iske baad thoDi der ke liye khamoshi rahi asad miyan ab bistar par letkar meri taraf karwat le chuke the mainne jaise pahli bar dekha ki asad miyan ke sar par baal bahut kam rah gaye the unke sar ki khaal balon mein se taqriban saf nazar aane lagi thi aur phir balon ka rang na safde na kala bilkul rakh ka sa rang ho gaya tha
—aur tumhari kheti ke kya haal hain? mujhe laga jaise lahje mein kuch chhipa hua tha, mazaq, tanz ya kuch aur, lekin kya main samajh nahin paya?
—theek hai, tracktor chal raha hai mainne zaruratan jawab diya
—mera mashwara manon to ye hai ki tum ab bhi sanjidgi ke sath paDh Dalo kya rakha hai is tarah kheti weti mein aaj to bahan hai, kal bhanje baDe ho jayenge to kya karoge? ye sab kuch tumhare bus ka nahin hai abhi to sab khush hain ki bahnoi ki maut ke baad bhai, bahan aur bhanjon ke liye kitna kar raha hai, lekin dhire dhire sab badal jayega are han! ye to batao—kya tumne kabhi kisi jin ko dekha hai?
—jee? mujhe yaqin nahin aaya
—jin mera matlab jinnaton se hai log namajen wazife paDhkar jinon ko apne qabze mein kar lete hain kya kahte hain unhen?—mawakkil! mawakkil jiske qabze mein ho uski har khwahish puri karta hai har kaam karta hai kisi bhi tarah ka aaj ek sahab kah rahe the ki unhonne ek zamane mein jinon ko dekhne aur qabze mein karne ke liye baDe jatan kiye wiranon mein ja jakar ibadaten keen ujaD aur ghair abad masjidon mein azanen deen, lekin unhen kabhi koi jin insani shakl mein nazar nahin aa saka han, ek sanp ke roop mein zarur nazar aaya koi DeDh balisht lamba, bahut hi khubsurat lal rang ka waise khuda malum unhen ye kaise pata chala ki wo jin hi tha, kabhi tumhara dil bhi chahta hai jinon ko dekhne ke liye?
—ji nahin, mujhe jhurjhuri si aa rahi thi
—ek zamane mein shahr mein ek pahunchi hui aurat thi suna hai unke qabze mein mawakkil tha zahir hai wo unki har khwahish puri kar sakta tha, lekin bechari mari bahut gharib mein kya pata, kabhi qabze mein aaye to pata chale! aur asad miyan hansne lage— tum ganw kab wapas jaoge—unhonne puchha
—basi eid ko ya uske agle din
—kheton ke liye khad ka koi intizam hua?
—abhi tak to nahin
—oh, han wo fartilayzars karporeshan ke sharma ji meri pahchan ke hain, ekdam asad miyan mere chehre ke bajay kahin aur dekhne lage the, jaise unki ankhen mujhse bachna chah rahi thin—mainne yoon hi bataya tum chaho to main khad dilwa aur unhonne jumla pura nahin kiya
ab asad miyan chhat ki taraf dekhne lage the phir ek thanDi sans lekar wo aDi thaki awaz mein bole—bus, ab tum jao main bilkul theek hoon
unki ankhen jhilmila gain
sannate mein lahron ki awaz aur yukliptas ki pattiyon ki thartharahat shuru ho gai thi
sab log apne aapko jaise us hadse ke liye taiyar chuke the kamre mein puri falak manzil jama thi
asad miyan ke halaq se ajib si awazen nikal rahi theen aur unka munh phatkar khul gaya tha gardan aur mathe ki ragen khinchkar ubhar ain theen aur chehre par nilahat dauDne lagi thi bilkul waisi hi nilahat jaise barf mein dabe gosht mein paida ho jati hai suhela bhabhi usi pyazi saDi mein unka sar apni god mein rakhe baithi theen aur unke chehre par ek ajib si wirani ghir i thi unki khubsurat saDi mein asad miyan ka maila chehra baDa bemel lag raha tha
—yasin sharif paDho miyan! saiydani bua ne zafar miyan se kaha aur zafar miyan jhapatkar bhage kuch hi lamhen baad wo panchsura hath mein liye kamre mein laute topi lagane se unke chehre par ek ajib se sidhepan ya bewaqufi ka tassur paida ho gaya tha chashmen ke pichhe unki ankhon mein bechaini thi asad miyan ke sirhane baithkar wo dhimi dhimi awaz mein yasin shuru kar chuke the—maut ki taklif ko kam karne ke liye kahin se kisi ki hichkiyon ki awaz ubhar rahi thi mainne dekha—miyan ki man apna sar unke pairon mein rakhe ro rahi theen
pal bhar ke liye manon sab kuch ruk gaya asad miyan ka jism beharkat ho gaya tha—par suhela bhabhi ki cheekh se pahle hi asad miyan ne ankhen khol deen, phir baDe masumana andaz mein unhonne apne charon taraf ikatthi bheeD par nazar Dali
zafar miyan yasin sharif paDhna band kar chuke the suhela bhabhi ke chehre par wahi tanziya si muskurahat phir khelne lagi thi wo ek chamche se asad miyan ke halaq mein pani tapka rahi theen mainne ghaDi ki taraf dekha raat ke saDhe barah baj chuke the
—kuchh bolo beta? —kaisi tabiat hai? —kya ho gaya tha? asad miyan ki man kah rahi theen unki awaz aisi lag rahi thi jaise kisi gramophone record ko kam speed par baja diya gaya ho ankhon se ansu bahe ja rahe the, jinhen wo dupatte ke palle se ponchh rahi theen unke ek zamane ke naram aur nazuk hathon mein door se hi nazar aa jane wala khuradrapan aa gaya tha
zafar miyan khaDe hue sar topi ke aingil ko lagatar badal rahe the panchsura ab bhi unke hath mein daba hua tha phir suhela bhabhi ne asad miyan ka sar takiyon par rakh diya asad miyan ki nigahen charon taraf gardish kar rahi theen sab kuch gahri khamoshi mein Doob gaya tha sirf asad miyan ki man ki siskiyan theen, jo dhire dhire kam hoti ja rahi theen
asad miyan thoDi koshish ke baad takiyon ke sahare baith gaye unke chehre ki muskurahat har pal gahri hoti ja rahi thi kamre mein koi apni jagah se hila tak nahin achanak apne kamzor jism ke bawjud asad miyan ne khanakti si awaz mein kaha—nahin nahin, main bilkul theek hoon ghabraiye mat, kuch nahin hoga kam se kam ramzan ki kal sham tak to nahin, aap yaqin kijiye khuda malum asad miyan kisse kah rahe the, lekin unki us muskurahat mein mujhe laga hazaron kahakhe ghir aaye the
phir dhire dhire log asad miyan ke kamre se rukhsat hone lage thoDi der baad main akela wahan rah gaya suhela bhabhi shayad andar kapDe badal rahi theen aur bachche sone ke liye let chuke the main khamosh baitha zamin par bichhe kalin ko ghurta raha uske design, uske rang ke bare mein sochta raha thoDi der mein asad miyan ko neend aa gai aur wo kharrate lene lage
uthte waqt main soch raha tha ki us raat asad miyan ke kamre se shayad har adami mayus hokar wapis lauta tha
agli sham saDhe chaar baje main zafar miyan ke kamre mein baitha eid ki kharidari ka budget soch raha tha shahnaj aapa aur zafar miyan akhiri roze ke iftar par kahin inwaiteD the aur tannu shahida ke yahan chala gaya tha sabere main asad miyan ko dekhne gaya tha aur khiDki mein se unhen koi kitab paDhta dekhkar wapas aa gaya tha main list bana hi raha tha ki jamil bhagta hua kamre mein dakhil hua
—apko abbu bula rahe hain unki sans phool rahi thi
—ammi ghar mein hain? mainne puchha
—koi bhi nahin hai
—tabiat kaisi hai unki?
—waisi hi hai sine mein dard ho raha hai aapko jaldi se bulaya hai jamil mere jawab ka intizar kar raha tha
—tum chalo, main aa raha hoon paithiDin ke liye bulaya hoga, mainne socha aur panch rupae ka not mainne apne jeb mein rakh liya
asad miyan ki haalat phir raat jaisi ho rahi thi rang nila paD gaya tha, ankhon ki putliyan phir gai theen aur sans bahut taklif se aa rahi thi ek dam pata nahin kyon mujhe Dar sa laga, jaise kisi sunsan saDak par main akela khaDa rah gaya hoon
thoDi der mein log ikatthe hona shuru ho gaye aur main bhagta hua doctor ko bulane ke khayal se bahar aa gaya kafi dauDne ke baad mujhe ek taxi mili jab doctor ke sath taxi falak manzil mein dakhil hui to bahut der ho chuki thi
sham ke lambe saye zamin par phailte ja rahe the
kamre mein ek taraf siskiyan hi siskiyan sunai de rahi theen
asad miyan ki ankhen khuli hui, ajib Dhang se kahin dekh rahi theen kam raushani mein lag raha tha jaise un ankhon mein mila jula ghussa aur muskurahat ab bhi thi sakte ke aalam mein, main unke chehre ko dekhta raha, phir aage baDhkar un khuli ankhon ko band kar diya doctor ne unka jism ek safed chadar se Dhak diya
ekdam kisi cheez ne mera khayal asad miyan ke murda chehre se apni taraf kheench liya jaise dar o diwar hil gaye the koi gola falak manzil ke bilkul upar aakar phuta tha
do, teen, chaar topen chal rahi theen, roze ke iftar ki eid ke chand ki ramzan ab khatm ho rahe the
asad miyan ki ankhen band theen ek pal ke liye mainne socha, wapis chala jaun dusre hi pal asad miyan ankhen khole dekh rahe the un ankhon mein kohara bhari subah si raushani thi
—khuda ke liye ayaz sina dard se tuta ja raha hai
suhela bhabhi aine ke samne khaDi hui Daibing karke chehre ke dhabbe mita rahi theen kamre mein jalte hue bulb ki raushani dhire dhire bahar phailte andhere ke sath ubharne lagi thi suraj Dubne mein kuch aur der thi
—jamil! are, jamil! suhela bhabhi ne awaz di
asad miyan ke palang ki chadar safed thi palang ke niche do phati hui chappalon mein uljhi hui ek salabchi thi, jise shayad wo pichhle kai ghanton se lagatar istemal karte rahe the unke pair gande aur eDiyon ki khaal chatkhi hui thi bistar par chadar ka wo hissa jahan unke pair the, daghdar ho chuka tha
—zafar bhai aa rahe hain, mainne asad miyan se ankhen bachate hue kahna chaha, lekin phir mainne dekha ankhen to wo khu hi band kar chuke the suhela bhabhi ne mazak uDati hui si nazron se meri taraf dekha aur phir awaz dene lagin—jamil are, kahan gharat ho gaya?
—are, aa raha hoon kahin bahar se awaz i
door asman mein chamak si phaili ek sakte ke baad dhamaka hua
asad miyan ki ankhon ke papote halke se hile, lekin ankhen band hi rahin
do teen chaar topen chal rahi theen iftar ka waqt ho gaya tha
—lekin yar topen hi kyon? ye to bilkul aisa lagta hai, jaise kisi ko salami di ja rahi ho sayran bhi to bajaya ja sakta hai? ek bar mere dost ne mujhse puchha tha aur main hansakar rah gaya tha
—agar khu saf nahin rah sakte to dusron ko to chain se karne den! khu ke palang par nahin let sake, sari chadar ka satyanash kar diya! suhela bhabhi khu ko ek khubsurat singar mez mein lage aine mein dekhte hue budbuda rahi thin—aur agar chand dikh gaya to kal eid hai koi dhuli chadar bhi na hogi
mainne dekha, aina bilkul bedagh tha, lekin lakDi ke bane mez ke fem ki polish jagah jagah se uD gai thi aur kai jagah paDe hue gaDDhon se lakDi ka apna rang jhankne laga tha aine ke niche beginti shishiyan rakhi hui thin—kausmetiks, parafyums aur sprez ki sundar shishiyan jinmen se, mainne andaza lagaya, ziyadatar khali hongi
jamil tezi se kamre mein dakhil hua hath uthakar usne salam kiya phir ajib tarah se muskurakar apne bap asad miyan ki taraf dekhne laga
—kya kah rahi theen, ammi? phir jaise mujhse chhupate hue asad miyan ki taraf ishara karke usne ankhon hi ankhon mein koi sawal apni man se puchha
suhela bhabhi ne honth sikoDkar gardan hila di
—bulane ke liye tumhein ghanton awazen deni paDti hain unke lahje mein tezi thi
—mujhe kya malum, aap aa gain? baghair kahe to chali gai theen jamil ne dunbadun jawab diya
—chand dikha?
—unhun
—dekho, tum kahin jana mat abhi thoDi der baad tumhein mere sath chalna hai
—ammi! jamil ne shikayati swar mein kaha—shanno aur dusre laDke mera intizar kar rahe hain mujhe unke sath jana hai
—jana wana kahin nahin hai, aap mera intizar kijiye kahte hue suhela bhabhi bhitari kamre mein chali gai
kewal asad miyan ke sans lene ki awaz! jafar miyan abhi tak nahin aaye the kya wo ayenge?
—yar! tum chalo, mainne iphtar par kuch doston ko bulaya hai asad miyan ke tisre bulawe par unhonne mujhse kaha tha main shahnaz aapa ke pas baitha eid ke sheer khurma ki list bana raha tha tum chalo, main aata hoon
asad miyan ke sirhane calendar ke panne kai mahinon se nahin badle gaye the kamre ke ek hisse mein kali apholastri ke gahre sofe bichhe hue the kone mein lambe se bukshelf par tartib aur betartibi ke sath bahut si kitaben theen insaiklopiDiyaz? business Dayrektrij, dain taraf diwar par ek bidakte ghoDe ki painting tegi hui thi centre table ke niche ka qalin phat chuka tha waise bhi qalin ka design ziyada istemal ki wajah se Dal ho gaya tha kewal kuch uDe uDe se rang the jinmen buniyadi yaksaniyat shayad dhool ki shidatt ki wajah se thi
—zafar nahin aaye ab tak? asad miyan ki jhilmilati si ankhen meri taraf dekh rahi theen
—kuchh doston ko khane bulaya hai, aate hi honge mainne dhire se kaha—kab se tabiat kharab hai?
—ain ? tabiat ? chaar panch din se kharab hai sine mein sakht dard hai, dil bilkul baitha ja raha hai, unki sans upar niche ho rahi thi
—tamshabazi hai! niri aikting! aur sare marzon ki ek hi dawa hai—paithiDin! asad miyan ke dusre bulawe par zafar miyan ne jhunjhlakar kaha tha kuch aur kaam bhi karne hain! chand dikh gaya to kal eid hai mazaq bana liya hai unhonne to phir ghaDi kholkar yoon hi jhatka dene ke baad wo use kan se lagakar sunne lage the us samay mujhe ganw se aaye koi ek ghanta hua tha
—kisi doctor ko dikhaya? mainne asad miyan ki kalai thamte hue puchha
sab kuch phir khamoshi mein Doob gaya asad miyan chhat ki taraf muskurati si nazron se dekh rahe the unki nigahen jane ya anjane chhat ke usi hisse par tiki theen jahan pankha lagane ka hook tha bijli ki phiting wahan tak baqayadgi se jakar ekdam do nange wayron ki ankhon se jhankne lagi thi
—tum mera ek kaam kar do unki awaz aur ankhen pahli bar meri or muDin
—ji
—meri tabiat theek nahin hai, aur mainne kal se injection bhi nahin liya hai kal dopahar se shayad usse tabiat kuch behtar ho jaye unke swar mein bala ki minnat thi—tin injection paithiDin ke madan ke yahan mil jayenge
mainne dhire se thanDi sans li asad miyan bina palken jhapkaye unhin minnat bhari nazron se meri or dekh rahe the usi samay hath mein kale chamDe ka bag thome, pyazi rang ki saDi pahne suhela bhabhi kamre mein dakhil huin
—mujhe zara bahar jana hai jaise unhonne apne aapse kaha—ye jamil kahan chala gaya? phir bina kisi jawab ki pratiksha kiye wo parda uthakar bahar nikal gai
asad miyan usi tarah meri taraf dekh rahe the
siDhiyan utarte utarte main na chahte hue zafar miyan ke ghar ki or muD gaya falak manzil ke bahari hisse mein zafar miyan aur iske pichhe unki chhoti bahan shahida rahti thi pichhle tukDe mein sabse baDe bhai asad miyan ka khandan tha ghumkar main zafar miyan ke kamre mein pahuncha
shahnaz aapa tannu ko uska eid ka juta dikha rahi theen
—mamun aa gaye dekhiye mamun, abbu hamara naya juta laye tannu bahut khush tha
—aur beta, mamun ko nahin bataya ki tumne sher kaise mara tha? aur tumhari banduq kahan hai?
zafar miyan bahar ke kamre se andar aa gaye the tannu naqal karke bata raha tha ki jhaDi mein se haun karta kaise sher nikla aur kaise usne apni kaurk wali banduq se use Dher kar diya phir diwan par bichhi sher ki khaal ki taraf ishara karke usne theth shikariyon wale lahje mein kaha— usi ki khaal hai jafar miyan hans hansakar lote ja rahe the
—bhai khana taiyar ho gaya? riyaz? ka to roza tha, sookh gaye honge unhonne shahnaz aapa se kaha aur donon bawarchikhane ki taraf chale gaye
tannu apni banduq latkaye shayad dadi man ko sher ka shikar sunane chala gaya aur main akela diwan par baitha rah gaya kamre ke do konon mein rakhe laimps ke sheDs mein se raushani chhan chhankar andhere mein ghul rahi thi aur kul milakar aisa lag raha tha ki suraj nikalne ke thoDe pahle ya Dubne ke bilkul baad ka samay ho beech mein mahogani ke sirhane ki khubsurat dohri masahri thi jiske liye upar chhat mein machchhardani ke strings latak rahe the bazu mein diwar se lagi hui gahre kale rang ki warDrobz thi aur uske baad lagbhag kone mein lamp ke pas dressing tebil bilkul waisi hi jaisi asad miyan ke ghar mein thi ismen polish ki chamak ab bhi baqi thi dusri taraf jute rakhne ka stand ya jismen bahut se zanane aur mardane jute rakhe hue the palang se atechD, sirhane ek chhota sa buk rack tha jismen qayde se kitaben jami hui theen pure kamre mein blaD raiD aur black ke mile jule pattern ka qalin bichha hua tha
nahin! zafar miyan bhool nahin sakte the phir kya jankar wo asad miyan ke zikr ko tal gaye the? pandrah din pahle bhi jab main ganw se aaya tha, asad miyan ki tabiat kharab chal rahi thi balki ramzan se pahle to ek din unki haalat nazuk ho gai thi tab mainne zafar miyan se kaha tha—kisi doctor ko dikha den?
—tum bhi yar kamal karte ho! har tisre din kis doctor ko dikhaya ja sakta hai? phir kuch bimari ho tab na saDak par koi pahchanwala mil jaye to tang mein chot lagne se phrekchar tak hi kahani use suna dete hain dawa ke paise mang lete hain aur jakar wahi paithiDin! kisi jaan pahchanwale ke yahan agar murghiyan pali hain to jakar kahenge bachchon ne bahut din se anDe nahin khaye hain jo kuch mil gaya sindhi ko bech denge aur phir wahi paithiDin! jina haram kar diya hai inshorenswalon se jo kuch makan ka kiraya milta hai, wo bhi inhin ghaplon mein uDate hain zamil chori ke alawa ab satte se bhi shauq karne lage hain idhar bhabhi ki harkaten dekho! nasrin bhi unhin ke raste par ja rahi hai pata nahin kin kin haramzadon ke sath khuli hui jeepon mein ghumti phirti hai yahi sab donon chhoti betiyan bhi karengi wo to bahut ghanimat hai ki sara aur samina ki shadiyan ho gain miyan, hamne to udhar phatkna bhi chhoD diya ammi ki zindagi to haram ho hi gai tum khu sunte rahte ho, duniya ki kaun si zalalat bachi hai jo ab falak manzil ke nam se na joDi ja sake! aur phir meri apni praublams hain akhir kab tak! zafar miyan ke chehre par aisa tassur tha jaise unke anjane hi mainne unhen kisi bhadde mazaq mein ghasit liya ho
aur asad miyan ki man?
—bad nasib hai! man ne phoot phutkar rote hue kaha tha—zindgi aur maut donon ki taraf se bad nasib! jaise jiya hai waise hi marega! ramzan ke mubarak mahine mein to us gunahgar ko maut tak nisab nahin ho sakti aur phir, jaise kuch sochkar, wo chup ho gai theen aur bahut der tak kuch bhi nahin boli theen
main zafar miyan ke kuch kahe baghair kamre aur phir falak manzil ke bahar aa gaya
khuli saDak par halki si khunki ka ehsas ho raha tha bahut aage street lamp jal raha tha aur wahan tak ghup andhera tha mein roD tak pahunchne ke liye mujhe kafi paidal chalna tha pichhe se aate hue skutar ki raushani aur awaz se saDak par chhaya hua andhera jaise dhaDka, phir khamoshi aur andhera ek dusre mein ghulkar door tak phailte chale gaye
—zindgi mein len den ke kuch qanun shayad likhe hi nahin gaye ye bhi kya ki jo kuch hamein tarke wirse mein mil jaye, hum use apna samajh, zarab dene ke tariqe DhunDhane lagen ye na likhe gaye qanun un logon ke liye hain, jo sirf us cheez ko chhute hain jis par apna haq taslim karte hon, jo unhonne daw par lagakar wasul ki ho baqi sab to zamane ki taraf se lada gaya bojh hai ek bar kafi ziyada sharab pine ke baad mere samne asad miyan ne logon se kaha tha us raat jue mein wo koi bees hazar rupye hare the tab zafar miyan aur shahnaz aapa ki shadi ko do sal hue the aur main aligaDh se chhuttiyon mein kuch din ke liye shahnaj aapa ke pas thahra hua tha mujhe pata nahin kyon asad miyan achchhe lagte the mere unse ziyada mel milap ko dekhte hue shahnaz aapa ne samjhaya tha ki main unke pas na jaya karun, kyonki wahan log jua khelne aur sharab pine ke liye ikatthe hote the
phir dhire dhire sab samne aa gaya tha asad miyan ne falak manzil teen alag alag partiyon ko rahan rakh di thi—inshorens company aur kuch dusre maldar sethon ko dekhte hi dekhte Dikriyan aane lagi theen aur falak manzil ke ek baDe hisse ko flaiton mein tabdil karke kiraye par utha diya gaya tha, udhaar walon ki qisten chukane ke liye asad miyan ki man ne pahle kafi bardasht kiya kyonki asad miyan waise bhi unke sabse laDle bete the —nawabon se ziyada laD se pala hai mainne ise, ankhon mein ansu bharkar wo kaha karti theen lekin phir unhonne is baat ko lekar muqadma dayar kar diya tha ki jayadad kyonki unke nam thi, isliye unke jite ji use rahan rakhne ka haq asad miyan ko nahin tha haikort mein muqadma chal raha tha aur ummid thi ki asad miyan ke hisse ko chhoDkar zafar miyan aur shahida ko unka haq mil jayega
shahida ke khayal se mere munh mein kaDwahat phail gai aligaDh jane se pahle main shahida ke bahut qarib aa gaya tha aur meri aane wali zindagi ke ziyadatar planon mein mainne shahida ko bhi shamil samajh liya tha
—plan! jaise mainne khu se hi kaha do sal ki mehnat ke bawjud main pri medical mein itne marx nahin la paya ki kisi medical kaulij mein dakhila pa sakun jab teen sal baad main mustaqil taur par par shahr lauta to shahida, ghar mein bachchon ko paDhane wale master sajid se shadi kar chuki thi sajid ek gharib ghar ka laDka tha aur khandan ke un tezi se bigaDte halat mein shayad shahida ko wahi ek sahara nazar aaya tha baharhal, is baat ko bhi ab panch sal ho chuke the shahida aur sajid ka ek bachcha tha aur ab asad aur zafar miyan ki man bhi apni beti aur damad ke sath hi rahti theen
saDak ke agle moD ka bulb bhi kisi ne phoD diya tha andhera usi tarah chhaya hua tha sirf pas ki kothi ki halki si raushani nazar aa rahi thi aur kutte ke bhaunkne ki awaz! mere qadam dhire dhire uthte rahe
sabse ziyada hairat mujhe asad miyan ke us andaz par hoti thi, jiske sath unhonne pichhle aath salon mein har stage par halat ko swikar kiya tha ek khas laparwahi aur beniyazi unke andaz mein thi man se koi baat manwane mein nakam hone se lekar jue mein koi baDi raqam harne aur uske baad ab apne ek zamane ke yar doston ke, ek rupae tak ke inkar ko unhonne usi nankelans ke sath qabu kiya tha ek zamane mein jo tassur unke chehre par, khane mein koi napasand cheez dekhkar hota tha, aaj wahi kisi bhi dost ya ajnabi ki jhiDki, wyangy ya mazak sunne ke baad zafar miyan ne halat se laDne ke liye hath pair mare the ab unke doston ki mahfilen kam ho gai theen, tafrihen kam ho gai theen, yahan tak ki kabhi kabhi to byook mein petrol Dalwana bhi mushkil ho jata tha shahnaz aapa achchhe kal ki khwahish mein lautriyon ke ticket kharidti rahti theen, lekin phir bhi unki badhali ek khas stage tak aakar ruk gai thi shahida bhi ek hari bhari bel ki tarah apne sabse qarib ki diwar ka sahara lene par majbur ho gai thi lekin asad miyan bina kisi tabdili ke, waqt ke sath sath niche baithte gaye the jaise unki nazron mein jo kuch ho raha tha, sirf wahi ho sakta tha shahr ke wibhinn hisson mein na jane kitne logon se unhonne jhooth bolkar paise liye the kisi ko nayab kartoos lake dene ko, to kasi ko koi aur zaruri cheez dilane ke bahane, kisi se bimari, kisi se bhookh ka bahana, lekin kisi sharm ka tassur unke chehre par kabhi nahin raha tha yahan tak ki pichhle dinon to wo peer fakiron ke mazaron par baithne lage the—nazar aur chaDhawe mil jane ki ummid mein jamil chori karna seekh gaya tha, lekin uske chori karne par asad miyan ne kabhi koi etiraz nahin kiya tha sara ghar unko bhulkar, unki tabiat ki taraf se ankhen band karke eid ki taiyariyon mein laga hua tha zafar miyan ke yahan ek hafte se ghar ki lipai putai chal rahi thi shahida aur zafar miyan ke yahan bachchon ke kapDe siye ja rahe the sheer khurme ke liye sukhe nariyal ghise ja rahe the, badam piste kat dhokar sukhaye ja rahe the garaz ye ki har adami apni jagah mashghul tha aur asad miyan jaise unke sabki majburi ko samajhte the
asad miyan ko in sab logon—bahan, bhai, man aur doston ke beech dekhkar pata nahin kyon mujhe hamesha aisa lagta tha, aur jaise sirf ek asad miyan hi apne muqam par the, aur sari duniya badal gai thi
falak manzil ka bahari hissa gahre andhere mein Duba hua tha kampaunD waul mein jagah jagah rakhne paD gaye the aur kai jagah asani ke khayal se logon ne dakhle ke liye diwar toD Dali thi dakhle ke darwaze ki jagah donon taraf sirf cement ke pilars rah gaye the samne porch mein zafar miyan ki byook khaDi hui thi dain taraf shahida aur sajid ka hissa tha, jiske bahar ek cycle khaDi hui thi iske upar aur aage door tak falak manzil ka hissa aur zamin kiraye par utha di gai thi apne wakil doston ke mashware aur madad se zaphar miyan zamin ka kuch hissa martgej se bachane mein kamyab ho gaye the is hisse par shahnaz aapa ne apna zewar girwi rakhkar ek chhota sa flat banwa diya tha, jismen kiraye par koi milatri ke major rahte the dain taraf kampaunD mein ghas hi ghas thi, jo beech mein bane khubsurat hauz aur fawware ko jaise nigal gai thi
porch se guzarkar ghumne ke baad falak manzil ka wo hissa tha jahan asad miyan rahte the unke kamre ki halki halki raushani mujhe door se hi nazar aa rahi thi door, samne lagbhag pachas feet niche, lahren marta hua talab tha kamre ke bahar lage yukliptas ke niche khaDe hokar barsat ki khamosh, tez hawa ki raton mein mainne aksar pani ki lahron aur yukliptas ki pattiyon ki thartharahat ko suna tha is waqt donon chizen chup theen
siDhiyan chaDhne se pahle ek lamhen ke liye main ruka door, dain taraf darakhton aur jangali ghas mein ghiri lakDi ke adh tute sheDs nazar aa rahe the us hisse mein jahan ki chhat gir chuki thi ya teen ki chhat utarkar bechi ja chuki thi, kisi upri kamre ki raushani ek aara machine par paD rahi thi jo namalum kaise apni jagah lagi rah gai thi aisa lag raha tha ki koi jhuki kamar ki shabih panah DhunDhane ke liye wahan ja chhupi ho ya wahan se panah pane ke liye sar uthaye khaDi ho meri ankhon mein warkshaup ka purana naqsha ghoom gaya asad miyan ke bap apne zamane mein sube ke sabse baDe lakDi ke wyapari aur furniture Dilar the ek hi waqt mein koi DeDh sau karigar unke shade mein kaam kiya karte the
darwaza khula hua tha asad miyan ki bechain nigahen mujh par thahar gain wo bistar par uthkar baith gaye the ek pal ke liye wo kuch sochte se rahe phir jhapatkar unhonne injection mere hath se le liye
—layega kaun?—mainne thoDi himmat karke puchha
jawab mein asad miyan muskurate hue bistar se uthe khaDe hone ki koshish mein pahle to wo Dagmagaye phir sambhalkar nange pair hi andar ke kamre mein chale gaye thoDi der baad wo sirenj hath mein liye wapas aaye aur dekhte hi dekhte wo tinon injection unhin ke hathon, unke khoon mein dakhil ho gaye pasine ki nanhin nanhin bunden unke mathe par jagmagane lagi theen aur unke munh se si si ki awaz nikal rahi thi thoDi der ankhen band kiye, gardan akDaye wo bilkul khamosh baithe rahe, phir jab unhonne ankhen kholi to unmen dard aur taklif ka tassur khatm ho chuka tha
mujhe ekdam laga jaise main kisi cheez ka intizar kar raha hoon kisi aisi cheez ka jo main chahta tha ki na ho lekin phir bhi jiska intizar tha asad miyan ke agle sawal ka wo sawal jo mujhe malum tha jo main chahta tha wa na kare, lekin jo wo karne wale the
—yar kya kisi ke pas teen sau bor ke kartoos mil sakte hain? aabid miyan ko chahiye suna hai pees kor mein koi adami bech raha hai?
iske baad thoDi der ke liye khamoshi rahi asad miyan ab bistar par letkar meri taraf karwat le chuke the mainne jaise pahli bar dekha ki asad miyan ke sar par baal bahut kam rah gaye the unke sar ki khaal balon mein se taqriban saf nazar aane lagi thi aur phir balon ka rang na safde na kala bilkul rakh ka sa rang ho gaya tha
—aur tumhari kheti ke kya haal hain? mujhe laga jaise lahje mein kuch chhipa hua tha, mazaq, tanz ya kuch aur, lekin kya main samajh nahin paya?
—theek hai, tracktor chal raha hai mainne zaruratan jawab diya
—mera mashwara manon to ye hai ki tum ab bhi sanjidgi ke sath paDh Dalo kya rakha hai is tarah kheti weti mein aaj to bahan hai, kal bhanje baDe ho jayenge to kya karoge? ye sab kuch tumhare bus ka nahin hai abhi to sab khush hain ki bahnoi ki maut ke baad bhai, bahan aur bhanjon ke liye kitna kar raha hai, lekin dhire dhire sab badal jayega are han! ye to batao—kya tumne kabhi kisi jin ko dekha hai?
—jee? mujhe yaqin nahin aaya
—jin mera matlab jinnaton se hai log namajen wazife paDhkar jinon ko apne qabze mein kar lete hain kya kahte hain unhen?—mawakkil! mawakkil jiske qabze mein ho uski har khwahish puri karta hai har kaam karta hai kisi bhi tarah ka aaj ek sahab kah rahe the ki unhonne ek zamane mein jinon ko dekhne aur qabze mein karne ke liye baDe jatan kiye wiranon mein ja jakar ibadaten keen ujaD aur ghair abad masjidon mein azanen deen, lekin unhen kabhi koi jin insani shakl mein nazar nahin aa saka han, ek sanp ke roop mein zarur nazar aaya koi DeDh balisht lamba, bahut hi khubsurat lal rang ka waise khuda malum unhen ye kaise pata chala ki wo jin hi tha, kabhi tumhara dil bhi chahta hai jinon ko dekhne ke liye?
—ji nahin, mujhe jhurjhuri si aa rahi thi
—ek zamane mein shahr mein ek pahunchi hui aurat thi suna hai unke qabze mein mawakkil tha zahir hai wo unki har khwahish puri kar sakta tha, lekin bechari mari bahut gharib mein kya pata, kabhi qabze mein aaye to pata chale! aur asad miyan hansne lage— tum ganw kab wapas jaoge—unhonne puchha
—basi eid ko ya uske agle din
—kheton ke liye khad ka koi intizam hua?
—abhi tak to nahin
—oh, han wo fartilayzars karporeshan ke sharma ji meri pahchan ke hain, ekdam asad miyan mere chehre ke bajay kahin aur dekhne lage the, jaise unki ankhen mujhse bachna chah rahi thin—mainne yoon hi bataya tum chaho to main khad dilwa aur unhonne jumla pura nahin kiya
ab asad miyan chhat ki taraf dekhne lage the phir ek thanDi sans lekar wo aDi thaki awaz mein bole—bus, ab tum jao main bilkul theek hoon
unki ankhen jhilmila gain
sannate mein lahron ki awaz aur yukliptas ki pattiyon ki thartharahat shuru ho gai thi
sab log apne aapko jaise us hadse ke liye taiyar chuke the kamre mein puri falak manzil jama thi
asad miyan ke halaq se ajib si awazen nikal rahi theen aur unka munh phatkar khul gaya tha gardan aur mathe ki ragen khinchkar ubhar ain theen aur chehre par nilahat dauDne lagi thi bilkul waisi hi nilahat jaise barf mein dabe gosht mein paida ho jati hai suhela bhabhi usi pyazi saDi mein unka sar apni god mein rakhe baithi theen aur unke chehre par ek ajib si wirani ghir i thi unki khubsurat saDi mein asad miyan ka maila chehra baDa bemel lag raha tha
—yasin sharif paDho miyan! saiydani bua ne zafar miyan se kaha aur zafar miyan jhapatkar bhage kuch hi lamhen baad wo panchsura hath mein liye kamre mein laute topi lagane se unke chehre par ek ajib se sidhepan ya bewaqufi ka tassur paida ho gaya tha chashmen ke pichhe unki ankhon mein bechaini thi asad miyan ke sirhane baithkar wo dhimi dhimi awaz mein yasin shuru kar chuke the—maut ki taklif ko kam karne ke liye kahin se kisi ki hichkiyon ki awaz ubhar rahi thi mainne dekha—miyan ki man apna sar unke pairon mein rakhe ro rahi theen
pal bhar ke liye manon sab kuch ruk gaya asad miyan ka jism beharkat ho gaya tha—par suhela bhabhi ki cheekh se pahle hi asad miyan ne ankhen khol deen, phir baDe masumana andaz mein unhonne apne charon taraf ikatthi bheeD par nazar Dali
zafar miyan yasin sharif paDhna band kar chuke the suhela bhabhi ke chehre par wahi tanziya si muskurahat phir khelne lagi thi wo ek chamche se asad miyan ke halaq mein pani tapka rahi theen mainne ghaDi ki taraf dekha raat ke saDhe barah baj chuke the
—kuchh bolo beta? —kaisi tabiat hai? —kya ho gaya tha? asad miyan ki man kah rahi theen unki awaz aisi lag rahi thi jaise kisi gramophone record ko kam speed par baja diya gaya ho ankhon se ansu bahe ja rahe the, jinhen wo dupatte ke palle se ponchh rahi theen unke ek zamane ke naram aur nazuk hathon mein door se hi nazar aa jane wala khuradrapan aa gaya tha
zafar miyan khaDe hue sar topi ke aingil ko lagatar badal rahe the panchsura ab bhi unke hath mein daba hua tha phir suhela bhabhi ne asad miyan ka sar takiyon par rakh diya asad miyan ki nigahen charon taraf gardish kar rahi theen sab kuch gahri khamoshi mein Doob gaya tha sirf asad miyan ki man ki siskiyan theen, jo dhire dhire kam hoti ja rahi theen
asad miyan thoDi koshish ke baad takiyon ke sahare baith gaye unke chehre ki muskurahat har pal gahri hoti ja rahi thi kamre mein koi apni jagah se hila tak nahin achanak apne kamzor jism ke bawjud asad miyan ne khanakti si awaz mein kaha—nahin nahin, main bilkul theek hoon ghabraiye mat, kuch nahin hoga kam se kam ramzan ki kal sham tak to nahin, aap yaqin kijiye khuda malum asad miyan kisse kah rahe the, lekin unki us muskurahat mein mujhe laga hazaron kahakhe ghir aaye the
phir dhire dhire log asad miyan ke kamre se rukhsat hone lage thoDi der baad main akela wahan rah gaya suhela bhabhi shayad andar kapDe badal rahi theen aur bachche sone ke liye let chuke the main khamosh baitha zamin par bichhe kalin ko ghurta raha uske design, uske rang ke bare mein sochta raha thoDi der mein asad miyan ko neend aa gai aur wo kharrate lene lage
uthte waqt main soch raha tha ki us raat asad miyan ke kamre se shayad har adami mayus hokar wapis lauta tha
agli sham saDhe chaar baje main zafar miyan ke kamre mein baitha eid ki kharidari ka budget soch raha tha shahnaj aapa aur zafar miyan akhiri roze ke iftar par kahin inwaiteD the aur tannu shahida ke yahan chala gaya tha sabere main asad miyan ko dekhne gaya tha aur khiDki mein se unhen koi kitab paDhta dekhkar wapas aa gaya tha main list bana hi raha tha ki jamil bhagta hua kamre mein dakhil hua
—apko abbu bula rahe hain unki sans phool rahi thi
—ammi ghar mein hain? mainne puchha
—koi bhi nahin hai
—tabiat kaisi hai unki?
—waisi hi hai sine mein dard ho raha hai aapko jaldi se bulaya hai jamil mere jawab ka intizar kar raha tha
—tum chalo, main aa raha hoon paithiDin ke liye bulaya hoga, mainne socha aur panch rupae ka not mainne apne jeb mein rakh liya
asad miyan ki haalat phir raat jaisi ho rahi thi rang nila paD gaya tha, ankhon ki putliyan phir gai theen aur sans bahut taklif se aa rahi thi ek dam pata nahin kyon mujhe Dar sa laga, jaise kisi sunsan saDak par main akela khaDa rah gaya hoon
thoDi der mein log ikatthe hona shuru ho gaye aur main bhagta hua doctor ko bulane ke khayal se bahar aa gaya kafi dauDne ke baad mujhe ek taxi mili jab doctor ke sath taxi falak manzil mein dakhil hui to bahut der ho chuki thi
sham ke lambe saye zamin par phailte ja rahe the
kamre mein ek taraf siskiyan hi siskiyan sunai de rahi theen
asad miyan ki ankhen khuli hui, ajib Dhang se kahin dekh rahi theen kam raushani mein lag raha tha jaise un ankhon mein mila jula ghussa aur muskurahat ab bhi thi sakte ke aalam mein, main unke chehre ko dekhta raha, phir aage baDhkar un khuli ankhon ko band kar diya doctor ne unka jism ek safed chadar se Dhak diya
ekdam kisi cheez ne mera khayal asad miyan ke murda chehre se apni taraf kheench liya jaise dar o diwar hil gaye the koi gola falak manzil ke bilkul upar aakar phuta tha
do, teen, chaar topen chal rahi theen, roze ke iftar ki eid ke chand ki ramzan ab khatm ho rahe the
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 93)
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