शायद मरते वक़्त वह खिलखिलाकर हँसा था, मन में पहला विचार यही आया। बाक़ी खोपड़ी कुछ इस तरह से जलकर काली पड़ गई थी, और आस-पास की खाल कुछ ऐसे वीभत्स रूप से सिकुड़ी हुई थी कि सिर्फ़ बत्तीसी की सफ़ेदी ही पहली निगाह में दीखती थी और बाक़ी चेहरा न देखो तो यही भ्रम होता था कि वह हँस रहा है। शायद 'ममी' का चेहरा भी ऐसा ही लगता होगा।
गेरू-पुती उस बिल्डिंग के बरामदे और फिर काली सड़क पर लोगों की भनभनाहट गुँथकर चंदोवे की तरह तन गई थी, जिसे संबंधियों और परिवार वालों का रोना-पीटना खंभों की तरह ऊपर उठाए था। सभी कोई चंचल और आंदोलित थे, लेकिन एक सकते से स्तब्ध। मैं पीछे वालों का आग्रह झेलता हुआ गर्दन ताने बीच के गोले में झाँकते रहने में सफल हो गया था। लाल पत्थर की पेटियों वाले फ़र्श पर बीचों-बीच, सफ़ेद चादर से ढंकी वह लाश लेटी थी। चादर पर जगह-जगह ख़ून और तेल के दाग़ लगे थे और वह मैली थी। अभी कोई अठारह-बीस साल की युवती उस पर दहाड़ मारकर रोते हुए गिरी थी और इससे विचलित होकर कुछ दुर्बल-हृदय मुँह तोड़कर भीड़ से बाहर निकलने के लिए छटपटाए थे, तभी मौक़ा देखकर मैं भीतर घुस गया था। उस समय दो-तीन औरतें उसे, जो साफ़ ही मृतक की पत्नी थी, गोद में भरकर उस लाश से अलग कर रही थीं, इस प्रयत्न से चादर खिंच गई थी और लाश का चेहरा दीखने लगा था, जिसे पास ही उकडूँ बैठे दो व्यक्तियों ने फिर ठीक कर दिया था। चादर की सिकुड़नें ठीक होते ही टूटी गहरी कत्थई चूड़ियों के टूकड़े सरककर लाश की अगल-बग़ल ज़मीन पर आ गिरे थे। चादर की बुनाई के रेशों में फैलकर कई सुर्ख़ दाग़ निहायत बेढंग हो गए थे और यह जान पाना मुश्किल था कि चूड़ियों के टूटने से, कलाई से निकले ख़ून के हैं, सिंदूर है या लाश के शरीर से निकले रक्त के पहले दाग़ हैं। छूकर देखने से ही पता चलता कि ताज़े हैं या पुराने, देखने में ही ताज़े लगते थे।
...या तो मरते वक़्त वह खिल-खिलाकर हँसा था या हँसते-हँसते मरा था, मैं अभी भी यही सोच रहा था। लेकिन दोनों में से एक भी बात की संभावना नहीं थी। स्तब्ध और चुप रहकर देखता रहा। वीभत्स और भयानक का भी अपना एक सम्मोहन होता है, ठीक अश्लीलता की तरह—मन की बनावट और संस्कार विद्रोह करते रहते हैं, लेकिन कुछ है जो बाँधे रहते हैं। आतंक, आशंका या दृश्य की भयानकता के कारण एक मितली-सी बार-बार उठकर गले तक आ जाती थी...लेकिन लगता था, जैसे बाहर के दृश्य का सारा अरुचिकर मेरे भीतर उतर आया है और दिमाग़ में एक के ऊपर एक काटती आवाज़ें एक के ऊपर एक फेंकी जा रही हैं—विभिन्न कोणों से फेंके भालों की तरह...
हटो, हटो...इस तरह लदे क्यों आ रहे हो? कभी-कभी कोई सिपाही, सफ़ेद लंबा कोट पहने अपने अस्पताल की नर्स या कोई नीली वर्दीधारी कर्मचारी डाँटकर भीड़ को पीछे ठेल देता...भीड़ एक औपचारिक ढंग से पीछे हटती और फिर वहीं दमघोंटू घेरा सँकरा होने लगता।
दोनों घुटनों पर कुहनियाँ रखें, सामने की ओर हाथ फैलाए बैठा सूनी भावहीन नज़रों से कहीं भी न देखता आदमी या तो लाश का बाप है या पंद्रह-बीस वर्ष बड़ा भाई, यह किसी के बताए बिना भी साफ़ था। साँवले चेहरे पर सफ़ेद-सफ़ेद झाग-जैसे बाल थे, यानी हजामत कई दिनों से नहीं बनी थी और मटमैली आँखों में लाल डोरों का जाल था, नीचे के पपोटों में गोलियाँ-जैसी लटक आई थीं। सिर पर खिचड़ी बालों के बीच छोटा-सा गंज-द्वीप था, चेहरे पर ख़ून नहीं था। क़मीज़ और धोती पहने इस तरह बैठा था, जैसे कोयलों के जल के बाद राख के आकार रह गया हो और ज़रा छूने से ही ढह जाएगा।
पाँच साल पहले इसका बड़ा लड़का पानी में डूबकर मर गया था...। किसी ने बताया, क्या क़िस्मत का खेल है...! दो लड़के थे और दोनों ही नहीं रहे...। अब मेरी समझ में आया कि वह बाप ही है। किसी दफ़्तर में हैड-क्लर्क है।
हाय...हाय...! सुनने वाले ने बड़ी गहरी साँस ली, हे भगवान, कैसी मिट्टी बिगड़ी है बुढ़ापे में, रिटायर होने में पाँच-सात साल होंगे..।
मैं भी यही सोच रहा था। पूछा, लड़के की उम्र क्या थी?
अजी कुछ भी नहीं, मुश्किल से बाईस-तेईस साल का होगा...पिछले जाड़ों में ही तो गौना हुआ था...। सफ़ेद छल्ले वाले माइनस-सात के काँचों में आँखें मिचमिचाकर उस व्यक्ति ने बताया। ज़रूर चश्मा उतारने के बाद उसे तलाश करने में इसे बहुत दिक़्क़त होती होगी।
पता नहीं इन लोगों का मानसिक स्तर कैसा है, विधवा-विवाह करेंगे भी या नहीं? इनका पता ले लें तो बाद में विधवा-विवाह के तर्क में अच्छी-सी किताब पोस्ट से भिजवाई जा सकती है। मैंने सोचते हुऐ मानो इसी निगाह से बीच की खुली जगह के किनारे एक बुढ़िया की गोद में पड़ी एक बहू को देखा, उसकी साड़ी ज़मीन पर बिखरी थी, हरे ब्लाउज़ के बटन खुले थे, लेकिन उसे शायद होश ही नहीं था...चेहरे पर पसीने, आँसुओं और बिखरे बालों का ऐसा गुंजलक चिपक गया था कि पता ही नहीं लगता था—मुँह नीचे की ओर है या ऊपर...बुढ़िया ने उसे इस तरह गोद में भर रखा था कि वह छूटकर फिर लाश पर जा गिरेगी...बाद में यही बुढ़िया इसे गालियाँ दिया करेगी, बर्तन मँजवाएगी और कपड़े धुलवाएगी। मेरा अनुमान ग़लत था।
माँ ज़मीन पर सिर फोड़-फोड़कर रो रही थी और देवी चढ़ आने पर झूमने वाली चुड़ैल जैसी लगती थी, सारे वातावरण में उसी की बोली लगातार और ऊँचे स्वर में सुनाई पड़ती थी, बाक़ी बोलियाँ किधर से आ रही थीं, यह जानना मुश्किल था। उसका गला बैठ गया था और उसकी आवाज़ से कभी-कभी कुत्ते और गाय की बोली का भ्रम होता था, हाय...हाय, अब मैं किसके लिए जिऊँगी...इस बिचारी को किसके लिए छोड़ गया बेटा...इनसे कहा था—रुपए दे आओ, रुपए दे आओ, अब रुपयों की छाती पर रखकर ले जाना...अरे, मेरे जवान-जमान बेटे को चीर डाला इन डॅाक्टरों ने...अरे इनके बेटे भी इनकी आँखों के सामने यों ही मरेंगे... वह लंबी लय के साथ रो रही थी। मैंने सोचा, ये औरतें रोते हुए गाती हैं और गाने में रोने की बातें करती हैं।
तभी किसी बड़ी-बूढ़ी ने उसे टोक दिया, अरी, पता नहीं किस जनम के सराप का फल तो तुम अब भोग रही हो कि जवान-जमान बेटे यों उठ गए। अब क्यों किसी को कोसती हो? ज़रा-सा धीरज धरो।
अरे, मैं कहाँ से धीरज धरुँ...? मेरे दोनों पाले-पनासे बेटे चले गए...हाय, हाय ज़रा इंजेक्शन लगवाओ, अभी तो साँस बाक़ी है...अब कौन सुबह उठकर जलेबी की ज़िद करेगा...कौन मेरे हाथ-पाँव दबाकर सिनेमा के पैसों के लिए ख़ुशामद करेगा..अभी तो शादी की हल्दी भी बदन से नहीं उतरी है... और उसने फिर झपटकर चादर के नीचे से लाश का काला पड़ा हुआ हाथ निकाल लिया और उसे अपनी छाती से चिपकाकर ज़मीन पर बिखर-बिखरकर रोने लगी...
लाश पर एकाध आदमी यों ही हाथ से हवा कर देता था, जैसे मक्खियों को हटा रहा हो। फैलती बदबू से लगता था कि कई दिनों पहले मरा है। मैंने मन को दिलासा दिया कि बेचारी माँ का दिल है, उसे तो एक-एक बात याद आएगी ही और वह यों ही ज़िंदगी-भर रोएगी। आस-पास की दो-एक औरतें लय बाँधकर रोने के बीच में ही कभी-कभी बोल देती थीं, अरे, मुझसे आकर बोला था—चाची, बहुत दिनों से तुम्हारे हाथ का सरसों का साग नहीं खाया है...हाय, अब मैं किसे खिलाऊँगी... मैंने सोचा, घर के रोने वाले काफ़ी कम हैं। शायद अभी सब लोगों तक ख़बर नहीं पहुँची है या हो सकता है, ये ही इस नगर में नए हों...अभी तो मुहल्ले-पड़ोस के लोग ले-दे भागे आ रहे हों...शायद तय नहीं कर पाए होंगे कि कौन-से कपड़े पहनें, पीछे कौन रहे या किसका वहाँ ज़्यादा ज़रूरी है, अस्पताल जाएँ या सीधे शमशान ही पहुँचे। कपड़ा ढँकी लाश कैसी आतंकस्पद लगती है...मैं ज़रा पीछे हट आया, एक तो पीछे के दबाव को संभालना कठिन हो गया था, दूसरे, बहुत देर खड़े रहने से घबराहट होने लगती थी...मान लो, लाश की जगह मैं होता तो आस-पास रोने वालों में कौन-कौन होते? इस विचार से सामने के ग़मगीन लोगों के चेहरों की जगह मुझे अपने एक-एक परिचित का चेहरा याद आने लगा; कल्पना बहुत ही कष्टदाई लगी। मैंने सोचना बंद कर दिया और बाहर निकलकर जल्दी-जल्दी सिगरेट पीने लगा।
“यों समझो, गोद-गोदकर मारा है।” भीड़ के बाहरी सिरे पर अस्पताल का जमादारनुमा आदमी बता रहा था।
“लेकिन बदन तो ऐसा काला पड़ गया है जैसे जल गया हो!” किसी ने पूछ लिया।
“अरे, धूनी दी होगी। ऊपर पेड़ से लटकाकर नीचे से आग जला देते हैं। देखा नहीं, चेहरा कैसा बैंगन की तरह जल गया है!” तीसरे ने बताया।
“सुनते हैं, चिट्ठी आई थी, दस हज़ार फ़लानी जगह पहुँचा दो, वरना लड़के को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। पुलिस को ख़बर की तो ख़ैर नहीं है...।” आधी बाँहों की क़मीज़ और नेकर पहने साइकिल लिए एक भारी-से सज्जन जिस अधिकार से बता रहे थे उसी से लगता था कि एक ही मुहल्ले के हैं, उनको ख़बर लग गई होगी कि पिछले साल ही गौना हुआ है, सो नकदी सोना कुछ-न-कुछ तो होगा ही...”
“किसी ने ख़बर कर दी होगी,” धूप से आँखों की आड़ करते हुए दूसरे ने राय दी।
“अरे साहब, उनके मुख़बिर सब जगह लगे होते हैं, मिनट-मिनट का हाल उन तक पहुँच जाता है...।” हम दोनों ने एक-दूसरे को इस तरह देखा कि हम में मुख़बिर कौन है?
“हाँ साहब, फिर...फिर क्या हुआ?” इन बेकार की बातों के बीच में आ जाने से झल्लाकर किसी बेचैन श्रोता ने सवाल किया।
“फिर क्या?” वे सज्जन बताने लगे, “दो-तीन दिन तो बेचारों ने इसी सोच-विचार में निकाल दिेए कि रुपयों का इंतज़ाम करें तो करें कैसे? पंद्रह-बीस साल की नौकरी हो गई तो क्या हुआ? तुम तो जानते हो, आज के ज़माने में इतना रुपया है किसके पास? फिर कोई सेठ-साहूकारों हों तो बात दूसरी है। नौकरी-पेशा आदमी बेचारा महीने के ख़र्चें ही कैसे पूरा करता है, हम जानते हैं। जितना सोचा था, लड़के की शादी में उतना मिला नहीं। जो जोड़ा था, वह लड़कियों कि शादी में लगा चुके थे—ऊपर से क़र्ज़ा और था...मगर साहब, लड़के की जान का मामला ठहरा...हाथ-पाँव जोड़कर, किसी तरह माँग-जाँचकर रुपए जमा किए, फिर किसी हम-तुमवार ने समझा दिया होगा या पता नहीं क्या दिमाग़ में आई कि चुपके से पुलिस में जाकर ख़बर कर दी...
“च्च् च्च् हरे राम-राम!” कई एक साथ बोले, “बस, यही ग़लती कर दी...अरे भाई, पुलिस वाले साले तो ये सब कराते ही हैं। उनसे मिले ही रहते ही हैं। उनसे मिले रहते हैं। और इस तरह के, उठकर ले जाने वाले डाकू तो समझो, बड़े चौकन्ने होते हैं। जहाँ उन्हें ऐसा कुछ, शक हुआ कि फिर तो बोटी-बोटी काट देते हैं...पिछली बार सुना नहीं था...”
काफ़ी भीड़ इधर ही मड़ आई थी और साँस रोके यह क़िस्सा सुन रही थी। बात किसी और क़िस्से में बह जाएगी, इस अधीरता से झल्लाकर किसी ने नेकर वाले से पूछा, “तो फिर...फिर क्या हुआ?”
बस साहब, ये रुपए रख आए और पुलिस ने मोर्चा साध लिया...घंटा, दो घंटा, तीन घंटा...कोई रुपए लेने ही नहीं आया।”
“कोई नहीं आया?” भीड़ में सामने वाले ने पूछा।
“उन्हें तो पता लग गया न...वो क्यों आते?” नेकर वाला बोला, “दूसरे दिन ही चिट्ठी आ गई कि आपने हमारे साथ धोखा करके पुलिस को ख़बर कर दी, अब हमारा कोई दोष नहीं है...” यहाँ सुनाने वाले ने गहरी साँस ली, “सो बेचारे को मार-मारकर कल रात को नाले पर डाल गए...यों देखो कि एक-एक इंच पर चोट के निशान हैं...।”
“और रही-सही कसर, पोस्टमार्टम के नाम पर डॉक्टरों ने पूरी कर दी। किसी ने जोड़ा। शायद सभी का यही ख़्याल था कि पोस्टमार्टम या डॉक्टरी रिपोर्ट का अर्थ एक-एक अंग चीर-फाड़कर देखना है।
सारी भीड़ पर नए सिरे से एक आतंक का आलम तारी हो गया...और जैसे सब अपने-अपने बच्चों की बातें सोचने लगे। वपहला ख़याल मुझे भी यही आया, चलो अच्छा है, मेरे बच्चे यहाँ नहीं हैं; फिर सोचा, लेकिन ऐसे दल तो वहाँ भी होंगे। आज ही चिट्ठी लिखूँगा—बच्चों को एकदम बाहर मत निकलने देना...
“पहली चिट्ठी तो लड़के के हाथ की ही बताते हैं।” किसी ने कुछ देर छाई दमघोंटू चुप्पी को तोड़ा।
“मार-मारकर लिखवाई होगी। समझदारी से, मुँडासा बाँधे एक नंबरदार जैसा आदमी बोला, “इन लोगों को दया-माया थोड़े ही होती है...”
ऐसे समय क्या बोलना चाहिए, यह तय करना बड़ा ही मुश्किल है। मैंने समझदारी से कहा, “वो तो कहो, लड़का था, सो मार दिया; लड़की होती तो पता नहीं बेचारी की क्या दुर्गत करते...किसके हाथों कहाँ जा बेचते...” लेकिन शायद यह मन-ही-मन कहा, क्योंकि किसी पर कोई असर नहीं हुआ। वहीं मुँडासे वाला समझा रहा था, “ऐसा वक़्त आ गया है कि चोर-डाकू न बने तो क्या करे? गेहूँ साठ रुपए मन हो गया है, खाना-पीना मिलता नहीं। बरसों इस दफ़्तर से उस दफ़्तर चक्कर मारो, नौकरी को कोई पूछता नहीं। अभी तो और होगा, तुम देखते रहना।” मैंने उसे ग़ौर से देखा—कहीं यह व्यक्ति भी तो डाकुओं में से नहीं है। वे इसी तरह आदमियों को भेज देते हैं और सारी जानकारी इकट्ठी करते रहते हैं...उसकी बात पर जो आदमी सबसे अधिक मुग्ध-भाव से सिर हिला रहा था वह बिना क्रीज़, गंदी पतलून, बनियानहीन क़मीज़ में अधेड़-सा दिखाई देता था। या तो वह ख़ुद बेकार था, या उसका बेटा-भाई काफ़ी दिनों से बेकार बैठा था, मैंने अनुमान लगाया।
अब भीड़ डाकुओं के क़िस्सों और उसके कारण में भटक गई थी। उस क्षण शायद सबका ध्यान पास पड़ी लाश और रोते हुए घर वालों की तरफ़ से हट गया था। लाल बिल्डिंग की आड़ में धूप से बचकर खड़े-खड़े मैं तय नहीं कर पाया था कि अब यहाँ खड़ा रहूँ या चल दूँ। बड़ी देर कोशिश करने पर भी याद नहीं आया कि मुझे जाना किधर है। अब यहाँ तो होना-जाना कुछ नहीं है। हालत बहुत बुरी होती जा रही है, आदमी का सुरक्षित चलना- फिरना मुहाल हो गया है। चलते-चलते मैंने उससे कह, “लेकिन इस तरह आदमी को जान से मार डालने से उन्हें क्या मिला? रुपया तो मिला नहीं, उल्टे एक आदमी जान से हाथ धो बैठा।”
“अब आगे कोई पुलिस में ख़बर देने या माँगा हुआ रुपया न देने से पहले कई बार सोचेगा तो सही।” उसने तड़ाक्-से जवाब दिया। हाँ यह बात भी काफ़ी वज़नदार हैं, मैंने सोचा और जगह छोड़ने से पहले मन में प्रलोभन आया, एक बार उस लाश को भी देखता चलूँ, हालाँकि जानता था—वहाँ ऐसा नया कुछ भी नहीं है। दो आदमियों के बीच में से जगह बनाकर भीड़ में घुसा तो फिर वही घेरा था...वही लाल-पत्थरों के फ़र्श पर पड़ी पतली-सी लाश थी और चार-पाँच रोने वाली औरतों की आवाज़ें थीं, आँखों पर कुहनियाँ रखे रोते पुरुष थे और राख की तरह बैठा बाप था...सामने पड़े उस व्यक्ति को अपने से तोड़ लेने की कोशिश में ये लोग कैसी भीषण शारीरिक-मानसिक यातनाओं से गुज़र रहे थे...मैंने दार्शनिक ढंग से सोचा। मान लीजिए, किसी जादू से वह उठकर बैठ जाए तो शायद फिर से अपने-आपको इसके साथ जोड़ने में भी इन्हें इतनी ही तकलीफ़ होगी...और मैं भीड़ से निकलकर लौटने को ही था कि एक और घटना हो गई और सारी भीड़ से निकलकर लौटने को ही था कि एक और घटना हो गई और सारी भीड़ बड़े ही विचित्र भाव से आंदोलित हो उठी...स्प्रिंगवाला स्विंग-दरवाज़ा खोलकर नीचा सफ़ेद कोट पहने पहले वाले डॉक्टरनुमा आदमी ने नीकलकर बिना किसी को संबोधित किए पूछा, तुम्हारे बेटे का नाम हरीकिशन था न...?
हरीकिशन हो या चरनराम, अब क्या फ़र्क़ पड़ता है? मैंने सोचा ही था कि किसी ने कराहते-से ढंग से कहा, “हाँ बाबू जी, हरीकिशन ही था...” कहने वाला बाप नही था। शायद ये लोग अपनी कोई खानापूरी करने को पूछ रहे हैं।
“उसके ऊपर वाले होंठ पर चोट का निशान था?” डॉक्टरों ने फिर निराकार सवाल किया।
“हाँ जी...हाँ जी,” ज़रा देर को सहसा औरतों का रोना रुक गया। इस उम्मीद में कि शायद डॉक्टर कोई ऐसा समाचार देगा कि सारा दुख बदल जाएगा...”
“देखो, यह लाश ग़लती से आ गई है। नंबर गड़बड़ हो गया था। तुम्हारे बेटे की लाश दूसरी है। यह तो भट्टी में जलने का केस था...” डॉक्टर ने निहायत ही मशीनी ढंग से कहा और दरवाज़ा छोड़कर भीतर हटा ही था कि नीले गँदे-से नेकर-क़मीज़ पहने दो आदमी आगे-पीछे एक नी स्ट्रेचर उठा लाए...
जैसे किसी नाटक का दृश्य हो, सधे हाथों से उन्होंने स्ट्रेचर ज़मीन पर रखी, एक ने सिर और दूसरे ने पाँव से उठाकर लाश को ज़मीन पर लिटाया तो दो-एक ने बड़ी तत्परता से बीच में हाथों का सहारा दिया...अब दो लाशें बराबर-बराबर लेटी थीं। फिर उन्होंने उसी रिहर्सल किए गए ढंग से पहली लाश को टाँगों और सिर की तरफ से उठकर स्ट्रेचर पर रखा, पीछे की ओर घूमकर स्ट्रेचर के हत्थे पकड़कर घूमे, उठे और झटके से मोड़ लेकर अंदर की ओर चल दिए...शायद लाश भारी थी।
किसी ने नई लाश की सफ़ेद चादर बहुत ही डरते-डरते ज़रा-सी उठाई...और रोना-धोना एकदम नए सिरे से शुरू हो गया...बाहों में बंधी बहू नए सिरे से छूटकर लाश पर जा गिरी और छाती पर सिर मार-मारकर रोने लगी। माँ ज़मीन पर पहले की तरह सिर फोड़ रही थी, बाल नोच रही थी बाप ने नए सिरे से सिर पर हाथ मारा था और पहले से भी ज़्यादा ढेर होकर बैठ गया था...पृष्ठभूमि का रुदन-संगीत उस गति से चलने लगा था।
स्ट्रेचर ले जाते हुए दोनों जमादारों ने जाली खुले दरवाज़े गुटके हटा दिया थे और दरवाज़े के भट्-भट् करके बंद हो गए थे...निगाह फिर बीच की लाश पर लौट आई...औरतें बहू को हटा रही थीं और लोग चादर को पकड़े थे कि बहू को हटाने में खिंची न चली आए। टूटी चूड़ियों के ज़मीन पर बिखरे टुकड़ों को देखकर समझ पाना बड़ा मुश्किल था कि ये अभी-अभी टूटे हैं, क्या पहली लाश पर टूटे थे...मेरी इच्छा हुई कि एक बार ज़रा-सी चादर हटे तो देखूँ कि क्या इस चेहरे पर भी दाँत उसी तरह लगते हैं? किसी ने कहा था, “हमें तो पहले ही लगा था...”
दूर सड़क पर चिचियाती आवाज़ देर तक पीछा करती रही—‘हाय मेरे बेटे...!’ लेकिन उसमें अब पहले जैसी ‘उठान’ नहीं थी।
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haay. . . haay. . . ! sunne vale ne baDi gahri saans li, he bhagvan, kaisi mitti bigDi hai buDhape mein, retire hone mein paanch saat saal honge. . .
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maan zamin par sir phoD phoDkar ro rahi thi aur devi chaDh aane par jhumne vali chuDail jaisi lagti thi, sare vatavarn mein usi ki boli lagatar aur unche svar mein sunai paDti thi, baqi boliyan kidhar se aa rahi theen, ye janna mushkil tha. uska gala baith gaya tha aur uski avaz se kabhi kabhi kutte aur gaay ki boli ka bhram hota tha, haay. . . haay, ab main kiske liye jiungi. . . is bichari ko kiske liye chhoD gaya beta. . . inse kaha tha—rupae de aao, rupae de aao, ab rupyon ki chhati par rakhkar le jana. . . are, mere javan jaman bete ko cheer Dala in Deaktaron ne. . . are inke bete bhi inki ankhon ke samne yon hi marenge. . . wo lambi lai ke saath ro rahi thi. mainne socha, ye aurten rote hue gati hain aur gane mein rone ki baten karti hain.
tabhi kisi baDi buDhi ne use tok diya, ari, pata nahin kis janam ke sarap ka phal to tum ab bhog rahi ho ki javan jaman bete yon uth gaye. ab kyon kisi ko kosti ho? zara sa dhiraj dharo.
are, main kahan se dhiraj dharun. . . ? mere donon pale panase bete chale gaye. . . haay, haay zara injection lagvao, abhi to saans baqi hai. . . ab kaun subah uthkar jalebi ki zid karega. . . kaun mere haath paanv dabakar cinema ke paison ke liye khushamad karega. . abhi to shadi ki haldi bhi badan se nahin utri hai. . . aur usne phir jhapatkar chadar ke niche se laash ka kala paDa hua haath nikal liya aur use apni chhati se chipkakar zamin par bikhar bikharkar rone lagi. . .
laash par ekaadh adami yon hi haath se hava kar deta tha, jaise makkhiyon ko hata raha ho. phailti badbu se lagta tha ki kai dinon pahle mara hai. mainne man ko dilasa diya ki bechari maan ka dil hai, use to ek ek baat yaad ayegi hi aur wo yon hi zindagi bhar roegi. aas paas ki do ek aurten lai bandhakar rone ke beech mein hi kabhi kabhi bol deti theen, are, mujhse aakar bola tha—chachi, bahut dinon se tumhare haath ka sarson ka saag nahin khaya hai. . . haay, ab main kise khilaungi. . . mainne socha, ghar ke rone vale kafi kam hain. shayad abhi sab logon tak khabar nahin pahunchi hai ya ho sakta hai, ye hi is nagar mein nae hon. . . abhi to muhalle paDos ke log le de bhage aa rahe hon. . . shayad tay nahin kar pae honge ki kaun se kapDe pahnen, pichhe kaun rahe ya kiska vahan zyada zaruri hai, aspatal jayen ya sidhe shamshan hi pahunche. kapDa Dhanki laash kaisi atankaspad lagti hai. . . main zara pichhe hat aaya, ek to pichhe ke dabav ko sambhalna kathin ho gaya tha, dusre, bahut der khaDe rahne se ghabrahat hone lagti thi. . . maan lo, laash ki jagah main hota to aas paas rone valon mein kaun kaun hote? is vichar se samne ke ghamgin logon ke chehron ki jagah mujhe apne ek ek parichit ka chehra yaad aane laga; kalpana bahut hi kashtdai lagi. mainne sochna band kar diya aur bahar nikalkar jaldi jaldi cigarette pine laga.
“yon samjho, god godkar mara hai. ” bheeD ke bahari sire par aspatal ka jamadaranuma adami bata raha tha.
“lekin badan to aisa kala paD gaya hai jaise jal gaya ho!” kisi ne poochh liya.
“are, dhuni di hogi. upar peD se latkakar niche se aag jala dete hain. dekha nahin, chehra kaisa bengan ki tarah jal gaya hai!” tisre ne bataya.
“sunte hain, chitthi i thi, das hazar falani jagah pahuncha do, varna laDke ko zinda nahin chhoDenge. police ko khabar ki to khair nahin hai. . . . ” aadhi banhon ki qamiz aur nekar pahne cycle liye ek bhari se sajjan jis adhikar se bata rahe the usi se lagta tha ki ek hi muhalle ke hain, unko khabar lag gai hogi ki pichhle saal hi gauna hua hai, so nakdi sona kuch na kuch to hoga hi. . . ”
“kisi ne khabar kar di hogi,” dhoop se ankhon ki aaD karte hue dusre ne raay di.
“are sahab, unke mukhbir sab jagah lage hote hain, minat minat ka haal un tak pahunch jata hai. . . . ” hum donon ne ek dusre ko is tarah dekha ki hum mein mukhbir kaun hai?
“haan sahab, phir. . . phir kya hua?” in bekar ki baton ke beech mein aa jane se jhallakar kisi bechain shrota ne saval kiya.
“phir kyaa?” ve sajjan batane lage, “do teen din to becharon ne isi soch vichar mein nikal diee ki rupyon ka intazam karen to karen kaise? pandrah bees saal ki naukari ho gai to kya hua? tum to jante ho, aaj ke zamane mein itna rupaya hai kiske paas? phir koi seth sahukaron hon to baat dusri hai. naukari pesha adami bechara mahine ke kharchen hi kaise pura karta hai, hum jante hain. jitna socha tha, laDke ki shadi mein utna mila nahin. jo joDa tha, wo laDkiyon ki shadi mein laga chuke the—upar se qarza aur tha. . . magar sahab, laDke ki jaan ka mamla thahra. . . haath paanv joDkar, kisi tarah maang janchakar rupae jama kiye, phir kisi hum tumvar ne samjha diya hoga ya pata nahin kya dimagh mein i ki chupke se police mein jakar khabar kar di. . .
“chch chch hare raam raam!” kai ek saath bole, “bus, yahi ghalati kar di. . . are bhai, police vale sale to ye sab karate hi hain. unse mile hi rahte hi hain. unse mile rahte hain. aur is tarah ke, uthkar le jane vale Daku to samjho, baDe chaukanne hote hain. jahan unhen aisa kuch, shak hua ki phir to boti boti kaat dete hain. . . pichhli baar suna nahin tha. . . ”
kafi bheeD idhar hi maD i thi aur saans roke ye qissa sun rahi thi. baat kisi aur qisse mein bah jayegi, is adhirata se jhallakar kisi ne nekar vale se puchha, “to phir. . . phir kya hua?”
bus sahab, ye rupae rakh aaye aur police ne morcha saadh liya. . . ghanta, do ghanta, teen ghanta. . . koi rupae lene hi nahin aaya. ”
“koi nahin aya?” bheeD mein samne vale ne puchha.
“unhen to pata lag gaya na. . . wo kyon ate?” nekar vala bola, “dusre din hi chitthi aa gai ki aapne hamare saath dhokha karke police ko khabar kar di, ab hamara koi dosh nahin hai. . . ” yahan sunane vale ne gahri saans li, “so bechare ko maar markar kal raat ko nale par Daal gaye. . . yon dekho ki ek ek inch par chot ke nishan hain. . . . ”
“aur rahi sahi kasar, postmortem ke naam par Dauktron ne puri kar di. kisi ne joDa. shayad sabhi ka yahi khyaal tha ki postmortem ya Dauktri report ka arth ek ek ang cheer phaDkar dekhana hai.
sari bheeD par nae sire se ek atank ka aalam tari ho gaya. . . aur jaise sab apne apne bachchon ki baten sochne lage. vapahla khayal mujhe bhi yahi aaya, chalo achchha hai, mere bachche yahan nahin hain; phir socha, lekin aise dal to vahan bhi honge. aaj hi chitthi likhunga—bachchon ko ekdam bahar mat nikalne dena. . .
“pahli chitthi to laDke ke haath ki hi batate hain. ” kisi ne kuch der chhai damghontu chuppi ko toDa.
“maar markar likhvai hogi. samajhdari se, munDasa bandhe ek nambardar jaisa adami bola, “in logon ko daya maya thoDe hi hoti hai. . . ”
aise samay kya bolna chahiye, ye tay karna baDa hi mushkil hai. mainne samajhdari se kaha, “vo to kaho, laDka tha, so maar diya; laDki hoti to pata nahin bechari ki kya durgat karte. . . kiske hathon kahan ja bechte. . . ” lekin shayad ye man hi man kaha, kyonki kisi par koi asar nahin hua. vahin munDase vala samjha raha tha, “aisa vaqt aa gaya hai ki chor Daku na bane to kya kare? gehun saath rupae man ho gaya hai, khana pina milta nahin. barson is daftar se us daftar chakkar maro, naukari ko koi puchhta nahin. abhi to aur hoga, tum dekhte rahna. ” mainne use ghaur se dekha—kahin ye vekti bhi to dakuon mein se nahin hai. ve isi tarah adamiyon ko bhej dete hain aur sari jankari ikatthi karte rahte hain. . . uski baat par jo adami sabse adhik mugdh bhaav se sir hila raha tha wo bina kreez, gandi patlun, baniyanhin qamiz mein adheD sa dikhai deta tha. ya to wo khu bekar tha, ya uska beta bhai kafi dinon se bekar baitha tha, mainne anuman lagaya.
ab bheeD dakuon ke qisson aur uske karan mein bhatak gai thi. us kshan shayad sabka dhyaan paas paDi laash aur rote hue ghar valon ki taraf se hat gaya tha. laal building ki aaD mein dhoop se bachkar khaDe khaDe main tay nahin kar paya tha ki ab yahan khaDa rahun ya chal doon. baDi der koshish karne par bhi yaad nahin aaya ki mujhe jana kidhar hai. ab yahan to hona jana kuch nahin hai. haalat bahut buri hoti ja rahi hai, adami ka surakshait chalna phirna muhal ho gaya hai. chalte chalte mainne usse kah, “lekin is tarah adami ko jaan se maar Dalne se unhen kya mila? rupaya to mila nahin, ulte ek adami jaan se haath dho baitha. ”
“ab aage koi police mein khabar dene ya manga hua rupaya na dene se pahle kai baar sochega to sahi. ” usne taDak se javab diya. haan ye baat bhi kafi vazandar hain, mainne socha aur jagah chhoDne se pahle man mein pralobhan aaya, ek baar us laash ko bhi dekhta chalun, halanki janta tha—vahan aisa naya kuch bhi nahin hai. do adamiyon ke beech mein se jagah banakar bheeD mein ghusa to phir vahi ghera tha. . . vahi laal patthron ke farsh par paDi patli si laash thi aur chaar paanch rone vali aurton ki avazen theen, ankhon par kuhaniyan rakhe rote purush the aur raakh ki tarah baitha baap tha. . . samne paDe us vekti ko apne se toD lene ki koshish mein ye log kaisi bhishan sharirik manasik yatnaon se guzar rahe the. . . mainne darshanik Dhang se socha. maan lijiye, kisi jadu se wo uthkar baith jaye to shayad phir se apne aapko iske saath joDne mein bhi inhen itni hi taklif hogi. . . aur main bheeD se nikalkar lautne ko hi tha ki ek aur ghatna ho gai aur sari bheeD se nikalkar lautne ko hi tha ki ek aur ghatna ho gai aur sari bheeD baDe hi vichitr bhaav se andolit ho uthi. . . springvala sving darvaza kholkar nicha safed coat pahne pahle vale Dauktaranuma adami ne nikalkar bina kisi ko sambodhit kiye puchha, tumhare bete ka naam harikishan tha na. . . ?
harikishan ho ya charanram, ab kya farq paDta hai? mainne socha hi tha ki kisi ne karahte se Dhang se kaha, “haan babu ji, harikishan hi tha. . . ” kahne vala baap nahi tha. shayad ye log apni koi khanapuri karne ko poochh rahe hain.
“uske upar vale honth par chot ka nishan tha?” Dauktron ne phir nirakar saval kiya.
“haan ji. . . haan ji,” zara der ko sahsa aurton ka rona ruk gaya. is ummid mein ki shayad doctor koi aisa samachar dega ki sara dukh badal jayega. . . ”
“dekho, ye laash ghalati se aa gai hai. number gaDbaD ho gaya tha. tumhare bete ki laash dusri hai. ye to bhatti mein jalne ka kes tha. . . ” doctor ne nihayat hi mashini Dhang se kaha aur darvaza chhoDkar bhitar hata hi tha ki nile gande se nekar qamiz pahne do adami aage pichhe ek ni stretcher utha laye. . .
jaise kisi naatk ka drishya ho, sadhe hathon se unhonne stretcher zamin par rakhi, ek ne sir aur dusre ne paanv se uthakar laash ko zamin par litaya to do ek ne baDi tatparta se beech mein hathon ka sahara diya. . . ab do lashen barabar barabar leti theen. phir unhonne usi riharsal kiye gaye Dhang se pahli laash ko tangon aur sir ki taraph se uthkar stretcher par rakha, pichhe ki or ghumkar stretcher ke hatthe pakaDkar ghume, uthe aur jhatke se moD lekar andar ki or chal diye. . . shayad laash bhari thi.
kisi ne nai laash ki safed chadar bahut hi Darte Darte zara si uthai. . . aur rona dhona ekdam nae sire se shuru ho gaya. . . bahon mein bandhi bahu nae sire se chhutkar laash par ja giri aur chhati par sir maar markar rone lagi. maan zamin par pahle ki tarah sir phoD rahi thi, baal noch rahi thi baap ne nae sire se sir par haath mara tha aur pahle se bhi zyada Dher hokar baith gaya tha. . . prishthabhumi ka rudan sangit us gati se chalne laga tha.
stretcher le jate hue donon jamadaron ne jali khule darvaze gutke hata diya the aur darvaze ke bhat bhat karke band ho gaye the. . . nigah phir beech ki laash par laut i. . . aurten bahu ko hata rahi theen aur log chadar ko pakDe the ki bahu ko hatane mein khinchi na chali aaye. tuti chuDiyon ke zamin par bikhre tukDon ko dekhkar samajh pana baDa mushkil tha ki ye abhi abhi tute hain, kya pahli laash par tute the. . . meri ichha hui ki ek baar zara si chadar hate to dekhun ki kya is chehre par bhi daant usi tarah lagte hain? kisi ne kaha tha, “hamen to pahle hi laga tha. . . ”
door saDak par chichiyati avaz der tak pichha karti rahi—‘hay mere bete. . . !’ lekin usmen ab pahle jaisi ‘uthan’ nahin thi.
shayad marte vaqt wo khilakhilakar hansa tha, man mein pahla vichar yahi aaya. baqi khopaDi kuch is tarah se jalkar kali paD gai thi, aur aas paas ki khaal kuch aise vibhats roop se sikuDi hui thi ki sirf battisi ki safedi hi pahli nigah mein dikhti thi aur baqi chehra na dekho to yahi bhram hota tha ki wo hans raha hai. shayad mummy ka chehra bhi aisa hi lagta hoga.
geru puti us building ke baramde aur phir kali saDak par logon ki bhanbhanahat gunthakar chandove ki tarah tan gai thi, jise sambandhiyon aur parivar valon ka rona pitna khambhon ki tarah upar uthaye tha. sabhi koi chanchal aur andolit the, lekin ek sakte se stabdh. main pichhe valon ka agrah jhelta hua gardan tane beech ke gole mein jhankte rahne mein saphal ho gaya tha. laal patthar ki petiyon vale farsh par bichon beech, safed chadar se Dhanki wo laash leti thi. chadar par jagah jagah khoon aur tel ke daagh lage the aur wo maili thi. abhi koi atharah bees saal ki yuvati us par dahaD markar rote hue giri thi aur isse vichlit hokar kuch durbal hirdai munh toDkar bheeD se bahar nikalne ke liye chhataptaye the, tabhi mauqa dekhkar main bhitar ghus gaya tha. us samay do teen aurten use, jo saaf hi mritak ki patni thi, god mein bharkar us laash se alag kar rahi theen, is prayatn se chadar khinch gai thi aur laash ka chehra dikhne laga tha, jise paas hi ukDun baithe do vyaktiyon ne phir theek kar diya tha. chadar ki sikuDnen theek hote hi tuti gahri katthai chuDiyon ke tukDe sarakkar laash ki agal baghal zamin par aa gire the. chadar ki bunai ke reshon mein phailkar kai surkh daagh nihayat beDhang ho gaye the aur ye jaan pana mushkil tha ki chuDiyon ke tutne se, kalai se nikle khoon ke hain, sindur hai ya laash ke sharir se nikle rakt ke pahle daagh hain. chhukar dekhne se hi pata chalta ki taze hain ya purane, dekhne mein hi taze lagte the.
. . . ya to marte vaqt wo khil khilakar hansa tha ya hanste hanste mara tha, main abhi bhi yahi soch raha tha. lekin donon mein se ek bhi baat ki sambhavana nahin thi. stabdh aur chup rahkar dekhta raha. vibhats aur bhayanak ka bhi apna ek sammohan hota hai, theek ashlilata ki tarah—man ki banavat aur sanskar vidroh karte rahte hain, lekin kuch hai jo bandhe rahte hain. atank, ashanka ya drishya ki bhayanakta ke karan ek mitli si baar baar uthkar gale tak aa jati thi. . . lekin lagta tha, jaise bahar ke drishya ka sara aruchikar mere bhitar utar aaya hai aur dimagh mein ek ke upar ek katti avazen ek ke upar ek phenki ja rahi hain—vibhinn konon se phenke bhalon ki tarah. . .
hato, hato. . . is tarah lade kyon aa rahe ho? kabhi kabhi koi sipahi, safed lamba coat pahne apne aspatal ki nurse ya koi nili vardidhari karmachari Dantakar bheeD ko pichhe thel deta. . . bheeD ek aupacharik Dhang se pichhe hatti aur phir vahin damghontu ghera sankra hone lagta.
donon ghutnon par kuhaniyan rakhen, samne ki or haath phailaye baitha suni bhavahin nazron se kahin bhi na dekhta adami ya to laash ka baap hai ya pandrah bees varsh baDa bhai, ye kisi ke bataye bina bhi saaf tha. sanvle chehre par safed safed jhaag jaise baal the, yani hajamat kai dinon se nahin bani thi aur matmaili ankhon mein laal Doron ka jaal tha, niche ke papoton mein goliyan jaisi latak i theen. sir par khichDi balon ke beech chhota sa ganj dveep tha, chehre par khoon nahin tha. qamiz aur dhoti pahne is tarah baitha tha, jaise koylon ke jal ke baad raakh ke akar rah gaya ho aur zara chhune se hi Dah jayega.
paanch saal pahle iska baDa laDka pani mein Dubkar mar gaya tha. . . . kisi ne bataya, kya qimat ka khel hai. . . ! do laDke the aur donon hi nahin rahe. . . . ab meri samajh mein aaya ki wo baap hi hai. kisi daftar mein haiD clerk hai.
haay. . . haay. . . ! sunne vale ne baDi gahri saans li, he bhagvan, kaisi mitti bigDi hai buDhape mein, retire hone mein paanch saat saal honge. . .
main bhi yahi soch raha tha. puchha, laDke ki umr kya thee?
aji kuch bhi nahin, mushkil se bais teis saal ka hoga. . . pichhle jaDon mein hi to gauna hua tha. . . . safed chhalle vale mainas saat ke kanchon mein ankhen michamichakar us vekti ne bataya. zarur chashma utarne ke baad use talash karne mein ise bahut diqqat hoti hogi.
pata nahin in logon ka manasik star kaisa hai, vidhva vivah karenge bhi ya nahin? inka pata le len to baad mein vidhva vivah ke tark mein achchhi si kitab post se bhijvai ja sakti hai. mainne sochte huai mano isi nigah se beech ki khuli jagah ke kinare ek buDhiya ki god mein paDi ek bahu ko dekha, uski saDi zamin par bikhri thi, hare blouse ke button khule the, lekin use shayad hosh hi nahin tha. . . chehre par pasine, ansuon aur bikhre balon ka aisa gunjalak chipak gaya tha ki pata hi nahin lagta tha—munh niche ki or hai ya upar. . . buDhiya ne use is tarah god mein bhar rakha tha ki wo chhutkar phir laash par ja giregi. . . baad mein yahi buDhiya ise galiyan diya karegi, bartan manjavayegi aur kapDe dhulvayegi. mera anuman ghalat tha.
maan zamin par sir phoD phoDkar ro rahi thi aur devi chaDh aane par jhumne vali chuDail jaisi lagti thi, sare vatavarn mein usi ki boli lagatar aur unche svar mein sunai paDti thi, baqi boliyan kidhar se aa rahi theen, ye janna mushkil tha. uska gala baith gaya tha aur uski avaz se kabhi kabhi kutte aur gaay ki boli ka bhram hota tha, haay. . . haay, ab main kiske liye jiungi. . . is bichari ko kiske liye chhoD gaya beta. . . inse kaha tha—rupae de aao, rupae de aao, ab rupyon ki chhati par rakhkar le jana. . . are, mere javan jaman bete ko cheer Dala in Deaktaron ne. . . are inke bete bhi inki ankhon ke samne yon hi marenge. . . wo lambi lai ke saath ro rahi thi. mainne socha, ye aurten rote hue gati hain aur gane mein rone ki baten karti hain.
tabhi kisi baDi buDhi ne use tok diya, ari, pata nahin kis janam ke sarap ka phal to tum ab bhog rahi ho ki javan jaman bete yon uth gaye. ab kyon kisi ko kosti ho? zara sa dhiraj dharo.
are, main kahan se dhiraj dharun. . . ? mere donon pale panase bete chale gaye. . . haay, haay zara injection lagvao, abhi to saans baqi hai. . . ab kaun subah uthkar jalebi ki zid karega. . . kaun mere haath paanv dabakar cinema ke paison ke liye khushamad karega. . abhi to shadi ki haldi bhi badan se nahin utri hai. . . aur usne phir jhapatkar chadar ke niche se laash ka kala paDa hua haath nikal liya aur use apni chhati se chipkakar zamin par bikhar bikharkar rone lagi. . .
laash par ekaadh adami yon hi haath se hava kar deta tha, jaise makkhiyon ko hata raha ho. phailti badbu se lagta tha ki kai dinon pahle mara hai. mainne man ko dilasa diya ki bechari maan ka dil hai, use to ek ek baat yaad ayegi hi aur wo yon hi zindagi bhar roegi. aas paas ki do ek aurten lai bandhakar rone ke beech mein hi kabhi kabhi bol deti theen, are, mujhse aakar bola tha—chachi, bahut dinon se tumhare haath ka sarson ka saag nahin khaya hai. . . haay, ab main kise khilaungi. . . mainne socha, ghar ke rone vale kafi kam hain. shayad abhi sab logon tak khabar nahin pahunchi hai ya ho sakta hai, ye hi is nagar mein nae hon. . . abhi to muhalle paDos ke log le de bhage aa rahe hon. . . shayad tay nahin kar pae honge ki kaun se kapDe pahnen, pichhe kaun rahe ya kiska vahan zyada zaruri hai, aspatal jayen ya sidhe shamshan hi pahunche. kapDa Dhanki laash kaisi atankaspad lagti hai. . . main zara pichhe hat aaya, ek to pichhe ke dabav ko sambhalna kathin ho gaya tha, dusre, bahut der khaDe rahne se ghabrahat hone lagti thi. . . maan lo, laash ki jagah main hota to aas paas rone valon mein kaun kaun hote? is vichar se samne ke ghamgin logon ke chehron ki jagah mujhe apne ek ek parichit ka chehra yaad aane laga; kalpana bahut hi kashtdai lagi. mainne sochna band kar diya aur bahar nikalkar jaldi jaldi cigarette pine laga.
“yon samjho, god godkar mara hai. ” bheeD ke bahari sire par aspatal ka jamadaranuma adami bata raha tha.
“lekin badan to aisa kala paD gaya hai jaise jal gaya ho!” kisi ne poochh liya.
“are, dhuni di hogi. upar peD se latkakar niche se aag jala dete hain. dekha nahin, chehra kaisa bengan ki tarah jal gaya hai!” tisre ne bataya.
“sunte hain, chitthi i thi, das hazar falani jagah pahuncha do, varna laDke ko zinda nahin chhoDenge. police ko khabar ki to khair nahin hai. . . . ” aadhi banhon ki qamiz aur nekar pahne cycle liye ek bhari se sajjan jis adhikar se bata rahe the usi se lagta tha ki ek hi muhalle ke hain, unko khabar lag gai hogi ki pichhle saal hi gauna hua hai, so nakdi sona kuch na kuch to hoga hi. . . ”
“kisi ne khabar kar di hogi,” dhoop se ankhon ki aaD karte hue dusre ne raay di.
“are sahab, unke mukhbir sab jagah lage hote hain, minat minat ka haal un tak pahunch jata hai. . . . ” hum donon ne ek dusre ko is tarah dekha ki hum mein mukhbir kaun hai?
“haan sahab, phir. . . phir kya hua?” in bekar ki baton ke beech mein aa jane se jhallakar kisi bechain shrota ne saval kiya.
“phir kyaa?” ve sajjan batane lage, “do teen din to becharon ne isi soch vichar mein nikal diee ki rupyon ka intazam karen to karen kaise? pandrah bees saal ki naukari ho gai to kya hua? tum to jante ho, aaj ke zamane mein itna rupaya hai kiske paas? phir koi seth sahukaron hon to baat dusri hai. naukari pesha adami bechara mahine ke kharchen hi kaise pura karta hai, hum jante hain. jitna socha tha, laDke ki shadi mein utna mila nahin. jo joDa tha, wo laDkiyon ki shadi mein laga chuke the—upar se qarza aur tha. . . magar sahab, laDke ki jaan ka mamla thahra. . . haath paanv joDkar, kisi tarah maang janchakar rupae jama kiye, phir kisi hum tumvar ne samjha diya hoga ya pata nahin kya dimagh mein i ki chupke se police mein jakar khabar kar di. . .
“chch chch hare raam raam!” kai ek saath bole, “bus, yahi ghalati kar di. . . are bhai, police vale sale to ye sab karate hi hain. unse mile hi rahte hi hain. unse mile rahte hain. aur is tarah ke, uthkar le jane vale Daku to samjho, baDe chaukanne hote hain. jahan unhen aisa kuch, shak hua ki phir to boti boti kaat dete hain. . . pichhli baar suna nahin tha. . . ”
kafi bheeD idhar hi maD i thi aur saans roke ye qissa sun rahi thi. baat kisi aur qisse mein bah jayegi, is adhirata se jhallakar kisi ne nekar vale se puchha, “to phir. . . phir kya hua?”
bus sahab, ye rupae rakh aaye aur police ne morcha saadh liya. . . ghanta, do ghanta, teen ghanta. . . koi rupae lene hi nahin aaya. ”
“koi nahin aya?” bheeD mein samne vale ne puchha.
“unhen to pata lag gaya na. . . wo kyon ate?” nekar vala bola, “dusre din hi chitthi aa gai ki aapne hamare saath dhokha karke police ko khabar kar di, ab hamara koi dosh nahin hai. . . ” yahan sunane vale ne gahri saans li, “so bechare ko maar markar kal raat ko nale par Daal gaye. . . yon dekho ki ek ek inch par chot ke nishan hain. . . . ”
“aur rahi sahi kasar, postmortem ke naam par Dauktron ne puri kar di. kisi ne joDa. shayad sabhi ka yahi khyaal tha ki postmortem ya Dauktri report ka arth ek ek ang cheer phaDkar dekhana hai.
sari bheeD par nae sire se ek atank ka aalam tari ho gaya. . . aur jaise sab apne apne bachchon ki baten sochne lage. vapahla khayal mujhe bhi yahi aaya, chalo achchha hai, mere bachche yahan nahin hain; phir socha, lekin aise dal to vahan bhi honge. aaj hi chitthi likhunga—bachchon ko ekdam bahar mat nikalne dena. . .
“pahli chitthi to laDke ke haath ki hi batate hain. ” kisi ne kuch der chhai damghontu chuppi ko toDa.
“maar markar likhvai hogi. samajhdari se, munDasa bandhe ek nambardar jaisa adami bola, “in logon ko daya maya thoDe hi hoti hai. . . ”
aise samay kya bolna chahiye, ye tay karna baDa hi mushkil hai. mainne samajhdari se kaha, “vo to kaho, laDka tha, so maar diya; laDki hoti to pata nahin bechari ki kya durgat karte. . . kiske hathon kahan ja bechte. . . ” lekin shayad ye man hi man kaha, kyonki kisi par koi asar nahin hua. vahin munDase vala samjha raha tha, “aisa vaqt aa gaya hai ki chor Daku na bane to kya kare? gehun saath rupae man ho gaya hai, khana pina milta nahin. barson is daftar se us daftar chakkar maro, naukari ko koi puchhta nahin. abhi to aur hoga, tum dekhte rahna. ” mainne use ghaur se dekha—kahin ye vekti bhi to dakuon mein se nahin hai. ve isi tarah adamiyon ko bhej dete hain aur sari jankari ikatthi karte rahte hain. . . uski baat par jo adami sabse adhik mugdh bhaav se sir hila raha tha wo bina kreez, gandi patlun, baniyanhin qamiz mein adheD sa dikhai deta tha. ya to wo khu bekar tha, ya uska beta bhai kafi dinon se bekar baitha tha, mainne anuman lagaya.
ab bheeD dakuon ke qisson aur uske karan mein bhatak gai thi. us kshan shayad sabka dhyaan paas paDi laash aur rote hue ghar valon ki taraf se hat gaya tha. laal building ki aaD mein dhoop se bachkar khaDe khaDe main tay nahin kar paya tha ki ab yahan khaDa rahun ya chal doon. baDi der koshish karne par bhi yaad nahin aaya ki mujhe jana kidhar hai. ab yahan to hona jana kuch nahin hai. haalat bahut buri hoti ja rahi hai, adami ka surakshait chalna phirna muhal ho gaya hai. chalte chalte mainne usse kah, “lekin is tarah adami ko jaan se maar Dalne se unhen kya mila? rupaya to mila nahin, ulte ek adami jaan se haath dho baitha. ”
“ab aage koi police mein khabar dene ya manga hua rupaya na dene se pahle kai baar sochega to sahi. ” usne taDak se javab diya. haan ye baat bhi kafi vazandar hain, mainne socha aur jagah chhoDne se pahle man mein pralobhan aaya, ek baar us laash ko bhi dekhta chalun, halanki janta tha—vahan aisa naya kuch bhi nahin hai. do adamiyon ke beech mein se jagah banakar bheeD mein ghusa to phir vahi ghera tha. . . vahi laal patthron ke farsh par paDi patli si laash thi aur chaar paanch rone vali aurton ki avazen theen, ankhon par kuhaniyan rakhe rote purush the aur raakh ki tarah baitha baap tha. . . samne paDe us vekti ko apne se toD lene ki koshish mein ye log kaisi bhishan sharirik manasik yatnaon se guzar rahe the. . . mainne darshanik Dhang se socha. maan lijiye, kisi jadu se wo uthkar baith jaye to shayad phir se apne aapko iske saath joDne mein bhi inhen itni hi taklif hogi. . . aur main bheeD se nikalkar lautne ko hi tha ki ek aur ghatna ho gai aur sari bheeD se nikalkar lautne ko hi tha ki ek aur ghatna ho gai aur sari bheeD baDe hi vichitr bhaav se andolit ho uthi. . . springvala sving darvaza kholkar nicha safed coat pahne pahle vale Dauktaranuma adami ne nikalkar bina kisi ko sambodhit kiye puchha, tumhare bete ka naam harikishan tha na. . . ?
harikishan ho ya charanram, ab kya farq paDta hai? mainne socha hi tha ki kisi ne karahte se Dhang se kaha, “haan babu ji, harikishan hi tha. . . ” kahne vala baap nahi tha. shayad ye log apni koi khanapuri karne ko poochh rahe hain.
“uske upar vale honth par chot ka nishan tha?” Dauktron ne phir nirakar saval kiya.
“haan ji. . . haan ji,” zara der ko sahsa aurton ka rona ruk gaya. is ummid mein ki shayad doctor koi aisa samachar dega ki sara dukh badal jayega. . . ”
“dekho, ye laash ghalati se aa gai hai. number gaDbaD ho gaya tha. tumhare bete ki laash dusri hai. ye to bhatti mein jalne ka kes tha. . . ” doctor ne nihayat hi mashini Dhang se kaha aur darvaza chhoDkar bhitar hata hi tha ki nile gande se nekar qamiz pahne do adami aage pichhe ek ni stretcher utha laye. . .
jaise kisi naatk ka drishya ho, sadhe hathon se unhonne stretcher zamin par rakhi, ek ne sir aur dusre ne paanv se uthakar laash ko zamin par litaya to do ek ne baDi tatparta se beech mein hathon ka sahara diya. . . ab do lashen barabar barabar leti theen. phir unhonne usi riharsal kiye gaye Dhang se pahli laash ko tangon aur sir ki taraph se uthkar stretcher par rakha, pichhe ki or ghumkar stretcher ke hatthe pakaDkar ghume, uthe aur jhatke se moD lekar andar ki or chal diye. . . shayad laash bhari thi.
kisi ne nai laash ki safed chadar bahut hi Darte Darte zara si uthai. . . aur rona dhona ekdam nae sire se shuru ho gaya. . . bahon mein bandhi bahu nae sire se chhutkar laash par ja giri aur chhati par sir maar markar rone lagi. maan zamin par pahle ki tarah sir phoD rahi thi, baal noch rahi thi baap ne nae sire se sir par haath mara tha aur pahle se bhi zyada Dher hokar baith gaya tha. . . prishthabhumi ka rudan sangit us gati se chalne laga tha.
stretcher le jate hue donon jamadaron ne jali khule darvaze gutke hata diya the aur darvaze ke bhat bhat karke band ho gaye the. . . nigah phir beech ki laash par laut i. . . aurten bahu ko hata rahi theen aur log chadar ko pakDe the ki bahu ko hatane mein khinchi na chali aaye. tuti chuDiyon ke zamin par bikhre tukDon ko dekhkar samajh pana baDa mushkil tha ki ye abhi abhi tute hain, kya pahli laash par tute the. . . meri ichha hui ki ek baar zara si chadar hate to dekhun ki kya is chehre par bhi daant usi tarah lagte hain? kisi ne kaha tha, “hamen to pahle hi laga tha. . . ”
door saDak par chichiyati avaz der tak pichha karti rahi—‘hay mere bete. . . !’ lekin usmen ab pahle jaisi ‘uthan’ nahin thi.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।