यूटोपिया
yutopiya
नज्जो के अब्बा नहीं थे।
गुज़र चुके थे उसके पैदा होने के दो ही साल बाद। नज्जो को याद नहीं, अब्बा दिखते कैसे थे? एक धुँधलाई सफ़ेद काली तस्वीर देखी थी अम्मी के गुलाबी फूल हरे पत्ते वाले टिन के ढक्कन वाले बक्से में कभी। खेलते-खेलते पहुँच गई थी वो, घर के अंतिम कोने की आख़िरी काली दमघोंटू कोठरी में। कोठरी एकदम काली-काली थी। वहाँ कुछ नज़र नहीं आता था, सिर्फ़ टिन के बक्से का गुलाबी फूलों वाला ढक्कन अबूझ आकर्षण से नज्जो को अपनी ओर खींचने लगा। नज्जो गिरती पड़ती बक्से तक पहुँची और बक्से पर चढ़ गई। वो उस पर चढ़कर अपनी फ़्रॉक दोनों हाथों में भींच दाँए-बाँए ख़ूब इठलाई। फिर उसे लगा उसके कूदने पर भी बक्सा झन-झन कर ही नहीं रहा है...क्यों? उसने ज़मीन पर बक्से के सामने पालथी मारी और बैठ गई। उसने बक्से के ढक्कन से ज़ोर आज़माइश शुरू कर दी। बक्से का कुंदा उसके हाथ में आ गया और उसकी आँखें चमक उठीं। उसने ज़ोर लगाया और बक्सा खुल गया। वाह! उसमें तो मज़ेदार चीज़ें थीं। तरह-तरह की। चमकदार और लुभावनी। उसे एक चमचमाता मोतिया बटुआ दिखा, एक लौंग का पंखा जिसमें नीले लाल शनील की झालर लगी थी और ढेर सारे चाँदी के बर्तन जो कुछ मटियाए सफ़ेद दिख रहे थे, और इन सब ठस्समठस चीज़ों के नीचे, ख़ूब नीचे दबा था एक कालापन लिए लाल-लाल गरारा सूट। नज्जो की आँखों की रोशनी और चम-चम कर उठी। “अल्लाह शादी का जोड़ा...। ऐसे कई जोड़े उसने देखे थे, उन बेगिनती शादियों में जिसमें वह अपनी अम्मी की उँगली पकड़, उनकी परछाई बन जाया करती थी। उन शादियों में उसकी इस अदा पर ख़ूब ठिठोली भी हुआ करती थी “ऐ नज्जो, छोड़ अम्मी की उँगली...। क्या अपनी शादी में अम्मी को लेकर जाएगी? दहेज़ बनाकर...? नज्जो की आँखें डबडबा जाती थीं। उसके अंदर की ज़िद, दीदे फाड़ फब्ती कसने वालों को जवाब देती “मैं अम्मी को छोड़ कहीं नहीं जाऊँगी...? अच्छा...? औरतें नज़रें मटकाती, हाथ घुमाते नचाते कहतीं, और “शादी... न करेगी?” “नहीं!” वो ज़िद को ग़ुस्से में ढाल चीख़ती “कभी नहीं करूँगी, शादी।” औरतें फाहश हँसी हँसती, अम्मी तुरंत उसकी बलैया लेने लगतीं, “अल्लाह करम करे, ऐसा नहीं बोलते...।” लेकिन बचपने वाली ज़िद नज्जो के व्यक्तित्व का दूसरा हिस्सा बन हरदम ही उसके दिल में ठोस ढंग से प्रतिध्वनित होती रही, ये घर के लोगों को बहुत बाद में समझ आता। नज्जो तो सब जानती थी। उसी का खेला था सब, उसी का किया कराया।
लाल जोड़ा निकाल नज्जो उसे बेतरतीबी से अलटने-पलटने लगी। एक पुलक के साथ। उसे शादी करने का ख़याल चिढ़ाता था लेकिन शादी का जोड़ा उसके मन में न समझ में आने वाली एक ख़ुशी का एहसास फूँक देता था। नज्जों का जी होता, लाल जोड़ा पहन ख़ूब नाचे इतराए, मगर अम्मी का साथ न छूटे कभी। उसका उसकी अम्मी से लगाव इस क़दर बेपनाह था कि उसके भाई चिंता करते “अम्मी, माना एकलौती है, माना सबसे छोटी है, माना अब्बू नहीं अब, लेकिन इसका आपसे ऐसा लगाव ठीक नहीं, इतनी ढील देती हो, ज़िद्दी हो रही है।” अम्मी रसोई में सालन पकाते हुए ठिठक जातीं, रुक कर अपने तीन जवान लड़कों को देखतीं और उनका जी जुड़ा जाता। अपने ख़ाविंद के जाने का ग़म आधा हो जाता। लड़के उनके तीनों समझदार थे। उनके प्यार के पप्पू, गुड्डू और राजा। पप्पू को तो उसके अब्बू के इंतिक़ाल के बाद उन्हीं के आफ़िस वालों ने, वहीं ड्राइवर रख लिया था, जहाँ वे ख़ुद थे। पप्पू ने अपनी जान-पहचान की बदौलत गुड्डू और राजा को भी प्राइवेट गाड़ियों पर लगवा दिया था। मिला जुला कर तीनों दस बारह हज़ार की आमदनी हर महीने पैदा कर लेते थे। अभी सब ठीक था। अम्मी जानती थीं, दुल्हनों के आने पर सारे मामले दुबारा जमाने पड़ेंगे। नज्जो की शादी भी चार-पाँच साल में कहीं ठहरानी होगी। उनके जिगर का टुकड़ा थी वो, लेकिन जीवन भर अपनी छाती पर थोड़े बिछाकर रख सकती थीं वे उसे। बेपनाह लाड़ था उसका इस घर में। हो सकता है, इससे थोड़ी ज़िद्दी हो गई थी वो? लेकिन अम्मी जानती थीं, लड़कियाँ बारह तेरह साल की हुई नहीं कि ख़ुद ही सँभल जाती हैं। अक़्ल न जाने कैसे उनकी सारी अदाओं, आदतों को चीर, घुस जाती है, उनके ज़ेहन में। फिर दुपट्टा ठीक से लपेटने को कहना भी नहीं होता है उन्हें। थोड़ा सा ढलका और लड़कियाँ ख़ुद ही चौकस अपनी चीज़ों को सँभालने लगती हैं। अम्मी भी उसी रास्ते बड़ी हुई थीं। उसी तरह दुपट्टा सँभालने से लेकर नमाज़ की पाबंदी और सालन पकाने का हुनर इख़्तियार किया था उन्होंने। अम्मी अपने जवान बेटों की चिंता का मर्म समझते हुए भी उसे ज़्यादा तवज्जो नहीं देती थी। क्या करना है? अकुवा के जंगली झाड़ों की तरह बेसँभाल ढंग से बढ़ना है लड़कियों को, वो बढ़ेंगी ही। कुछ साल और। फिर कहाँ चहकेगी नज्जो उनके इस घर में, उसे तो फैलना होगा किसी दूसरे की ओट में। पूरी की पूरी ओट में। अम्मी के ऊपर सोच-सोच कर घबराहट तारी हो जाती। उनके मियाँ ने तो पर्दा नहीं कराया उनसे, बुर्क़ा बुर्क़ा कुछ नहीं, बस चादर से ढँका उन्होंने अपने आपको, मगर क्या जाने नज्जो की ससुराल वाले कैसे हों?
अम्मी बेटों को आँखों ही आँखों में मुस्कुरा कर राहत की बदली से भिगो देतीं। “मैं हूँ न...” की तर्ज़ पर। लड़के अम्मी का मान रखते थे। मेहनतकश कामकाजी थे, अनावश्यक हील-हुज्जत, से दूर रहते थे।
अम्मी को सालन पकाते-पकाते अपनी बहुत देर से गुम बिटिया की याद आई। गुम बिटियाओं से घर हमेशा ही हौलनाक और ग़मगीन हो जाया करते हैं, अम्मी जानती थीं। उनके घर की फुदकती चिड़िया उन्हें हमेशा ज़िंदगी के ख़ूबसूरत मायने बताती थी। उस आवाज़ के बिना उनको सूनापन घेरने लगा। उन्होंने अपने चारों ओर यूँ ही बुन गए, मकड़जालों को हटा हटा कर साफ़ किया और चिल्लाई “नज्जो...! नज्जोऽऽ!, नज्जो!”
नज्जो अभी लाल गरारा सूट ठीक से देख भी न पाई होगी कि लगा कि अम्मी की आवाज़ कहीं दूर किसी पहाड़ की तराई को पुकारती, गूँजती सी उस तक पहुँची। नज्जो ने न पहाड़ देखे थे न तराई। उसने गाँव और खेत भी ठीक से नहीं देखे थे। उसकी आँखों के दायरे में तो इस शहर की पूरी परिधि भी नहीं बँध पाई थी। उसके लिए राजीव नगर मुहल्ले से थोड़ी दूर बना उसका ये आधा पक्का आधा कच्चा घर ही उसकी पूरी दुनिया थी। कभी-कभी बस वह शहर की सैर को निकलती थी, जब भाइयों की ड्यूटी ख़त्म हो जाती थी और तब भी गाड़ी उनके हाथों में रहती थी। भाई उसे लाड़ से शहर घुमा लाते थे, वर्ना तो अम्मी का हाथ पकड़ वह मुहल्ले और रिश्तेदारों में जाने तक को ही अपना जहान नापना मानती थी।
अम्मी की आवाज़ का टूट-टूट कर उस पर आना उसे न जाने क्यों दहला गया। उसने चिहुँक कर गरारा हाथ से गिरा दिया। गरारे के हाथ से छूटते ही एक कड़ाक की आवाज़ हुई और आवाज़ के साथ अम्मी के तेज़ी से नज़दीक आते क़दमों की थापों की जादुई जुगलबंदी हुई और वे नज्जो की दुनिया में अचानक ही कई जानकारियों के साथ प्रवेश कर गए। “अरे नज्जोऽऽ, यहाँ अँधेरे में क्या कर रही?” “अरे क्या तोड़ा?” “लिल्लाह ये लड़की ये लड़की न जाने क्या गुल खिलाएगी?”
“अरे कहाँ मर गई?” नज्जो ने पहली बार अपनी ज़िंदगी में अम्मी को बेगानी अम्मियों की तरह बोलते देखा। पहली बार अम्मी के हाथों के नर्म ख़रगोशपने के बदले कच्ची कैरी के चटकपने का स्वाद लिया और अम्मी की उस टूटी हुई ज़मींदोज़ चीज़ के उठाने पर जाना, अम्मी की बरसों से छुपाई उस इकलौती चीज़ का उसने नुक़सान कर दिया था। उसी दिन नज्जो ने अपने जीवन का पहला दुख भरा गीत अपने दिल में बजते हुए सुना। दुख दिल में इतने निचोड़ पैदा कर आँख के रास्ते बहता है यह भी नज्जो ने जाना उस दिन। इतने सारे दुख के आयामों के उद्घाटन के बावजूद, नज्जो ने समझा “अम्मी का ग़ुस्सा लाज़मी था उस दिन।” उसने अँधेरी कोठरी से घिसटते हुए चुँधियाती रोशनी में पटके जाते कि अँधेरे के बाद यदि आँखें आराम से, के बजाए हड़बड़ी में खोल दी जाएँ तो कितनी तक़लीफ़ होती है। लगता है आँखों में कीलें ठुक रही हैं। उन्हीं सब दुख जानकारियों के बीच, बताया था अम्मी ने बार-बार दिखा-दिखा कर कैसे उसने अपने अब्बू की इकलौती तस्वीर का फ़्रेम और काँच अपने खेल की ख़ातिर पटक कर तोड़ दिया था। उसी दिन तो देखा था उसने, अब्बू उसके कितने काले थे। लंबी भूरी दाढ़ी वाले काले-काले। उसने अपने नए कमाए दुखों के बीच एक हल्की फाँक सी ख़ुशी महसूस की थी, “वो अब्बू जैसी नहीं, वो तो अपनी अम्मी जैसी गोरी-गोरी सुंदर है।” उसने रोते-रोते लाड़ से अम्मी के हाथों से अब्बू की तस्वीर ले ली और अम्मी के हाथ ख़ाली कर दिए। अब अम्मी की गोदी थी और अम्मी के हाथ जिसे उसने अपने चारों ओर लिपटवा लिया और उन्हें बीते हुए कल से आज बना फिर से बामकसद बना दिया।
“अरे पगली..!” अम्मी की आवाज़ थी या सिसकी का शुबहा।
“एक ही तो फ़ोटो थी तेरे अब्बू की, अब उसमें दुबारा फ़्रेम जड़वाना पड़ेगा।”
अम्मी” उसने सब कुछ परे धकेलते हुए उम्र और उसके कौतूहल की ईमानदारी से पूछा था, “तुमने अब्बू की तस्वीर बक्से में क्यों बंद कर रक्खी थी, यहाँ क्यों नहीं टाँगी दीवार पर, इन तस्वीरों के साथ?” उसने “मक्का मदीना” की काली फ़ाइबर पर उकेरी उजली तस्वीरों को दिखाते हुए पूछा था। यहाँ तो इनका कुछ नहीं बिगड़ता और हम रोज़, अब्बू को देखते उनके यहाँ नहीं होने पर भी।
“नहीं..!” अम्मी की उदासी घनी थी। नज्जो नहीं देख पाई उस पार जाके, बहुत छोटी थी तब।
ज़िद कर कुछ उदासी की परतों को फलाँगते हुए नज्जो ने पूछा, अम्मी क्यों नहीं? अम्मी अचकच हो गईं, उन्हें लगा क्या समझाएँ अभी इसे? उनके अंदर का यक़ीं पक्का था ही, सीख लेगी लड़की ज़ात सब जीवन के क़ायदे पाबंदियाँ, रोज़ा, नमाज़, सब जल्द ही।
उन्होंने धीरे से नज्जो को गोद से उतारा उसकी फ़्रॉक खींच कर उसे घुटनों से नीचे करने का असफल प्रयास किया और समझ गई, फ़्रॉक अब नहीं खिंच पाएगी। लड़की बड़ी हो गई है, जल्द सलवार क़मीज़ पहनाने पड़ेंगे। टाँगें तो ऐसी लंबी और चिकनी होती जा रही हैं उसकी। रंग भी माशा अल्लाह खिलता गंदुमी था और मोटी काली आँखें थीं। बाल भी ख़ूब लंबे और काले थे। लंबी चोटी पीठ पर फुदकती रहती थी। आँखों का कजरारापन साँप बन लोगों को डसता रहता था। तभी, उनकी देवरानी ने पहले ही कह दिया था “बाजी नज्जो हमारे यहाँ ही आएगी। लड़के तो इस ख़ानदान के लुटेपिटे दिखे हैं, इस लड़की से ही रौनक़ होगी। नस्लें सुधरेंगी।” अम्मी अपनी देवरानी के चुहल के भीतर छिपी गंभीरता से बहुत पहले से परिचित थीं, उन्हें सोच-सोच, कँपकँपी छूटती थी कि उनकी लाड़ो की, ऐसी गंभीर सास के साथ कहीं साँस तो न बंद हो जाएगी? ऊपर से हाँ बोलते हुए वे हमेशा ही ना ना मनाती थीं। एक दो बार उन्होंने अपने तीनों जवान लड़कों को कहा भी था, “नज्जो का रिश्ता परिवार से बाहर ही ठीक रहेगा।” लड़कों ने ऐसी बात पर तवज्जो देना बंद कर दिया था। वे जानते थे, अपनी नज्जो की बाबत सारी बातें अम्मी और सिर्फ़ अम्मी तय करेंगी, फिर बोल चाहे वे कुछ भी लें।
अगले दिन अम्मी नज्जो को घर में खेलता छोड़ भरी ठेलमठेल गर्मी की जलनख़ोर नासमझी को अपने मक़सद की ज़रूरत से बेपरवाह उड़ाते हुए, 'अग्रवाल एंड संस' की दुकान पर पहुँची। वहीं सेठ की दुकान पर उनका खाता चलता था। सेठ अम्मी जैसे खातेदारों को देख रंग जाता था—ख़ुशी से! धंधा उसका इस छोटे शहर में इन्हीं लोगों की मार्फ़त ज़िंदा रहता था, जो तत्काल भुगतान न करते हुए, लगातार उधारी पर रहते थे। इससे ग्राहकों की संख्या कभी घटती नहीं थी और भले ही तुरंत का नुक़सान उसकी छाती को धोबी पछाड़ सा कूटता था, फिर भी वह आगामी संभावनाओं की वर्षा से बेफ़िक्र हो जाया करता था। “जाएँगे कहाँ ये सारे?” आज नहीं तो कल उसका उधार चुकता करेंगे ही, वर्ना पुलिस और पार्टी के सेवक सब उसकी मदद को तैयार रहते थे। दोनों जगह अच्छा टैक्स भरता था वो। बड़े दुकानदारों में गिनती थी उसकी।
“बोल्लो क्या देखना है?” उसने आवाज़ में चाशनी घोली। अम्मी को सेठ ठीक नहीं लगते हुए भी ठीक लगता था। उनकी कई एक उधारियों के वक़्त भी सेठ की चाशनी कम मीठी नहीं होती थी। एक तो उधार की फ़िक्र उसपे यदि दुकानदार बदतमीज़ी से बात करे तो अपने मुफ़लिस होने का सच उजागर हो जाने को धमकाता था और चूँकि अम्मी फ़िलहाल मुग़ालतों को पोसना चाहती थी, इसलिए मँहगी लेकिन मीठी चाशनी से ही वो बार-बार वास्ता बनाए रखना चाहती थीं। उन्होंने एक छोटे लाल फूलों वाली बिस्कुटी रंग की थान पर हाथ रख दिया, “भइया इसमें से तीन मीटर और इसी फूल से मैचिंग लाल जार्जेट का दुपट्टा।” “दुपट्टा कितना?” दुकान का नौकर चिल्लाकर पूछने लगा। “दुपट्टा डेढ़ मीटर कर दो।” सेठ अम्मी की आँखों में आँखें डाल चाशनी गाढ़ी कर बोला “अच्छा बिटिया रानी के लिए ले रही हो? तो ये काटन क्यों? एक बनारसी कपड़ा आया है, उसमें से ले जाओ अभी तो शादियाँ भी आ रही हैं, जँचेगी लड़की इसमें।” “ऐ...लड़के, दिखा इनको नया आया बनारसी कपड़ा।” सेठ की चाशनी झाड़ू की फटकार में बदल गई थी। अम्मी को बुरा नहीं लगा। अम्मी का रुतबा नौकर से ऊपर रखा था सेठ ने। बनारसी कपड़े के थान पटकने के अंदाज़ में नौकर की छिपी नाफ़रमानी ताड़ ली अम्मी ने “अरे भइया ठीक से दिखा।” उन्हें सेठ की चाशनी का दम था। नौकर दुबारा प्रहारों के बीच पैरों के घुटने मोड़ बैठ गया, विशुद्ध व्यवसायिक अंदाज़ में। उसे भावनाओं से परहेज़ करने का सबक़ बचपन से बालघुट्टी में घोल-घोल पिलाया गया था। “ये लो...कौन सा..देखो...!” अम्मी की आँखें फट गईं। “क्या सुंदर चमकीले रंगों के कपड़े थे सारे!” सब पर ज़री का ताना बाना था। कपड़े के अंदर से सुनहरे फूल उग आए हों जैसे। उन्हें पीले रंग वाला थान सबसे उम्दा लग रहा था। उन्हें लग रहा था इस हल्दी पीले पर उगे ये सुनहरे फूल उनकी गंदूमी रंग की बिटिया पर जब खिलने लगेंगे तो कैसे फुलवारी सी महक जाएगी। उनकी हसरत पूछ बैठी “ये तो महँगा होगा?” “नहीं... बनारसी है लेकिन उसके आधे दामों पर।” अम्मी को दिलासे से धीर बँधया “बनारस वाले अब हम जैसों के लिए भी कपड़ा तैयार करने लगे!” उन्होंने पीले बनारसी थाने से भी तीन मीटर कपड़ा मोलवाया और मुट्ठी में भींचे एक पुराने मुसे कुसे बटुए से दो सौ रुपए निकाल सेठ की ओर बढ़ा दिए “दुपट्टा भी मैच करवा देना और अगले महीने के खाते में पैसा लिख लेना।” सेठ ने पैसों पर झपट्टा मारा, बाक़ी के आगे लिखा-3 रुपए और अपना काम ख़त्म करने के बाद की मुद्रा में अपना मुँह टेबल की दराज़ों में गड़ा दिया।
अम्मी भी नीली पन्नी में सिमटे अपने सामान को ले दुकान से बाहर निकलीं। उनके मन में आया कॉटन का सूट वे ख़ुद सिल लें, मगर बनारसी वाला शकीला दर्जन को दें। क्या बढ़िया लेडीज़ सूट सिलती थी। अभी हाल में अम्मी का एक सिला था उसने। अपने सूट को याद कर अम्मी को अजीब सी शर्मिंदगी तबाह करने लगी। उन्होंने एक उल्टी साँस खींची। इतने सालों से साड़ी के अलावा कुछ नहीं पहना था, उन्होंने, लेकिन इधर कुछ अर्सा पहले उनके बड़े बेटे पप्पू ने नमाज़ के बाद मस्जिद में होने वाली बातचीत का हवाला देते हुए कहा था, “अम्मी मौलवी साहब कह रहे थे, औरतों को नमाज़ पढ़ते वक़्त सलवार क़मीज़ पहनना होगा। साड़ी में नंगापन होता है।” अम्मी उम्र के इस पड़ाव पर बेटे के मुँह से ऐसी बात सुन हिल गई थीं। पचपन की पहुँचती उम्र में साड़ी के बाहर उसका पेट बालिश्त भर नज़र भी आ जाता, तो क्या नज़र आता वहाँ? झाँकती, छुपती कुछ सफ़ेद फटी लकीरें और झूलती ढीली चमड़ी? वो क्या किसी की भी आँखों से देखने पर नंगई होती? वो तो इतने बच्चों को पेट में रखने का नतीजा था बस। मुहल्ले की ज़्यादातर औरतों ने लेकिन मौलवी साहब की बात का लिहाज़ रखते हुए अब नमाज़ पढ़ते वक़्त सलवार कुर्ते पहनने शुरू कर दिए थे। अम्मी के अंदर कुछ ख़ौफ़ सा अधकचरा बवाल उठता। कहीं बात न मानने की वजह से उन्हें मुहल्ला बदर न कर दिया जाए, या कुछ उल्टा-सुल्टा कह दिया जाए तो...? लिहाज़ा बहुत झिझकते हुए वो नमाज़ के वक़्त अपना सूट पहन लिया करती थीं।
शकीला दर्जन ख़ूब खुलकर हँसी कपड़ा देख “क्यों नज्जो की अम्मा, लड़की के लिए रिश्ते आने लगे क्या?” “नई...नई,” अम्मी ने मुस्कुरा कर शकीला के उत्साह का साथ दिया। अरे— तुम्हारी बिटिया तो चंदा है, कितने भी कपड़ों से ढक दोगी, फिर भी रोशनी खिलाएगी। उसे सँभालकर रखना होगा तुम्हें। मुहल्ले में लौंडों की फ़ौज बढ़ती जा रही है। ये जो हिंदुअन के लड़के हैं न, ये आजकल ज़्यादा ही चढ़बढ़ गए हैं। वैसे भी ज़माना ख़राब है, लड़की ज़ात के लिए, क्या हिंदू क्या मुसलमान?' ये सब सुन अम्मी अनजानी बदख़यालियों से भर गईं। “अभी तो पाँचवी में है, आठवीं तक सगाई कर दूँगी उसकी।” उन्होंने तय किया और शकीला को कपड़ा कम पैसे में सिलने की धौंस दे घर चल पड़ी।
भारी गर्मी पड़ रही थी। अम्मी को लगा चलते-चलते कहीं पिघल न जाएँ वे। उन्होंने अपनी साड़ी का पल्ला सिर के ऊपर खींच कर सिर ढक लिया अपना और तेज़ क़दमों से चल पड़ीं। उनकी चाल की वजह से उनकी हल्की नीले रंग की साड़ी भी फदर फदर हवा में शोर करते उड़ती फिरी। अम्मी को समझ में ही नहीं आया अब मौलवी उस्मान अली उनके सामने पड़ गए। अम्मी को देख वे ठिठक गए और सलाम वालैकुम की रस्म-ए-अदाइगी के बाद अम्मी को रोक कुछ-कुछ बतियाने लगे। अम्मी की नज़रें चोर हो गईं। वे मौलवी उस्मान अली की आँखों से होते हुए अपने उघड़े पेट पर जाकर लुक गईं। उन्होंने वहीं लुके-लुके जानना चाहा कि पेट पर कुछ नंगई नाच रही है क्या? मौलवी साहब अपनी पैनी आवाज़ में पान थूक कह रहे थे “ज़माना बड़ा ख़राब है बीबी, लड़कों बच्चों को सँभालना होगा। ये टी.वी. सिनेमा की बदौलत सब कुछ...!” अब हम कितनी तक़रीरें करें, जब घरवाले नहीं समझते तो बच्चों को क्या समझाया जाए? जवान लड़कों ने मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने आना बंद ही कर दिया समझे। सिर्फ़ जुमे के दिन मस्जिद भरती अब तो। ठीक नहीं सब। मौलवी ने नाराज़ निराशा से अपनी लंबी भूरी दाढ़ी पर हाथ फेरा। अम्मी के सीने में क्या कुछ बराबर होने को मचलने लगा। उन्हें मौलवी उस्मान अली की बातों से पैदा हुई हलचल नागवार लग रही थी। उन्होंने 'जी... जी' ...कर मौलवी के पार जाना चाहा। ये ल्लौ...मौलवी उस्मान अली ने उनके लिए रास्ता बनाया और साथ हो लिए। वक़्त की नाज़ाकत को सँभालते हुए अम्मी कह उठीं “मेरे लड़के तो मौलवी साहब जब भी ड्यूटी से फ़ुर्सत मिलती है नमाज़ की पाबंदी निभाते हैं...कहीं हों।” “तुम्हारे लड़कों की नहीं कह रहा मैं, ज़माने की कह रहा हूँ।” “बीबी-पैसा! रहस्य से आवाज़ धीमी की मौलवी ने, “शहर के सारे सेठों का पैसा तो हिंदुओं के त्यौहारों में फूँका जा रहा है। अब मस्जिद के पास ही देख लो “नव दुर्गा समिति' बना कर बैठ गए हैं, ये तो सारी तंग करने वाली बातें हैं न। लौंडों की फ़ौज है, वहीं गाना बजाना करेंगे, हल्ला मचाएँगे और हमारी नमाज़ में खलल डालेंगे।” “जी, अच्छा” अम्मी ने टालने की ग़रज़ से एक टुकड़ा जवाब दे डाला। लेकिन मौलवी कहाँ मानने वाले थे—जारी रहे “इस बार मुहल्ले का वो जवान छोकरा बन गया है, समिति का कर्ताधर्ता। आवारा कहीं का।” “कौन?” अम्मी की भवों ने जिज्ञासा का लिबास ओढ़ तलबगारी की। “अरे वही तुम्हारे मुहल्ले वाला। वही जिसका बाप अपने फ़ारुख़ मियाँ के साथ वाली दुकान में फल लगाता था। कित्ता भला आदमी था उसका बाप। फ़ारुख़ और उसकी कैसे घुटती थी। अब इसके लौंडे को देखो कुछ किया कराया नहीं, बस इसी करने में लगे हैं। फ़िज़ा ख़राब करते हैं ये बीबी...।”
अम्मी की चोर निगाहें अब उनके अपने मन के भीतर घुस गईं। जिस लड़के की बात मौलवी कर रहे थे उन्हें वो लड़का कुछ बरस पहले तक बड़ा प्यारा लगता था। नज्जो के अब्बा से उस लड़के के अब्बा के अच्छे तअल्लुक़ात थे। घर आना-जाना भी था। गुज़रे ज़माने की बातें थीं सभी, अब कहाँ। अम्मी ने एक शर्मिंदा साँस को आज़ाद किया। लगता था उनके इस छोटे से क़स्बाई शहर का पूरा समाज ही बदल गया था। बचपन में उस लड़के को कई एक बार पुचकारा था उन्होंने, कैसे गुलाबी होंठ थे उस लड़के के, एकदम लड़कियों जैसे नर्म। हाँ, अम्मी को उसका नाम पसंद नहीं था, इतना लंबा और जीभ घुमाऊँ नाम था। 'अच्युतानंद गोसाई'। उसके घर के बग़ल वाले ख़ाली प्लाट में खेलता था वो, मुहल्ले के और बच्चों के साथ। अक्सर, टोली बना दुर्गा उत्सव का चंदा लेने आता था उनके यहाँ। बस यही कोई पिछले दो सालों से ये चंदा माँगने वालों का चंदा माँगने का सिलसिला, यूँही ठप हो गया था। हालाँकि अम्मी को चंदा माँगने वालों से परेशानी होती थी, लेकिन चंदा माँगने में अचानक आई तब्दीली बरसों से चले आए एक सिलसिले को कर्कश आवाज़ से तोड़ती थी। उसका तीखापन सुई सी पैनी टीस के साथ एक नए उग आए घाव से, फ़र्क़ की ओर इशारा करता था, जिसे अम्मी का जी आसानी से क़ुबूल करने को राज़ी नहीं होता था। उनके बचपन के ज़माने के शहर से कितना बदल गया था, आज के ज़माने का शहर! उनके ज़माने से तो कहीं ज़्यादा बदल रहे थे मुसलमान, पढ़ना लिखना, नौकरी सब में इज़ाफ़ा हो गया था, लेकिन साथ ही साथ एक न समझ में आने वाली सख़्ती भी मुसलमानों के अंदर ही अंदर पकती जा रही थी। उस पकने की तासीर का असर इधर-उधर हर जगह होने लगा था। मुसलमानों के भीतरपने से बाहर हिंदुओं के भीतरपने में भी। अम्मी के घर उनके लड़के आके सारी बातें बताते थे, दुनिया जहान की। वे बड़ी पार्टियों को टूर पर ले जाते थे, कभी आगरा, दिल्ली, मैसूर। वहाँ की बातें, वहाँ की इमारतें लाल किले से ताजमहल तक सब देखती थीं अम्मी लड़कों की बातों में, वे सियासत और नेताओं की नज़दीकी बातें भी समझने लगी थीं, लड़कों, टीवी और अख़बार के बदौलत। वे जानती कम थी, और समझती ज़्यादा थीं। 'बच के रहना' उनकी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बनता जा रहा था। जब अनजाने ही लोगों की नज़रें बदलने लगें, पलटने लगें, अपने बरसों के रिश्तों की गर्मी घुल कर बह जाने से, तो शरीर को ढक, मन को बाँध, सिमट जाना होता था, अपने-अपने मैले दड़बों में, अपने समान नुकूशों वाले ढेरों बकरों समान। डरते, लेकिन, एक साथ होने के नक़ली हौसलों से जीते जिलाते। न जाने दड़बों के बाहर कौन खड़ा हो झटके के गोश्त के इंतज़ाम में। मौलवी उस्मान अली की बातें नागवार होते हुए भी वक़्त के सच्चे ज़रूरी घंटे बजाते हुए फ़िज़ा में हल्के से बार-बार बहने का एहसास कराती थीं। उनका मन होता इस मुए को भगा दें यहाँ से कहीं, उनके अंदर के असमंजसों को और बढ़ाता था ये इंसान। 'ख़ुदा हाफ़िज़' वो बोलने को हुईं और परूक गईं। बचपन से ऐसे ही बोलते आई थी, लेकिन इधर लड़कों के कहने पर 'अल्लाह हाफ़िज़' कहने में आने लगा था। 'अल्लाह' अपने होने का एहसास एक भारीपने से करवाता था। समाज में लोगों को अब 'ख़ुदा' लफ़्ज़ की ख़ुशनुमाई से ज़्यादा भारीपना और बयान पसंद आने लगा था, लिहाज़ा मन मार कर सलवार क़मीज़ के साथ 'अल्लाह हाफ़िज़' भी उनके वजूद में चल निकला था। उन्होंने आवाज़ में पूरा ठहराव भर 'अल्लाह हाफ़िज़' कहा। मौलवी उस्मान अली को यूँ टरका दिया जाना अच्छा नहीं लगा, वे शिकायत करने लगे “अए क्या, मुझे लगा चाय पिलवाओगी?” “ओह!” ...अम्मी का एतराज़ असरदार था। “अभी मंडी जाना है, सब्ज़ी ख़त्म है।” “अच्छाऽऽ” हवा में मायूसी टाँगने की कोशिश की मौलवी ने, लेकिन अम्मी पे उसका एक हिस्सा भी न खुल पाया। वे मौलवी को अपने ही घर के दरवाज़े पर वापसी की राह बता, अंदर घुस चुकी थीं।
ये बाहर का कमरा उनका पक्की सीमेंट का बन गया था और इसके साथ लगा पप्पू का कमरा। उनका सोचना था धीरे-धीरे कर तीन कमरे तो पक्के करवा ही लेंगी। तीन लड़कों को तीन दुल्हनों के वास्ते। नज्जो तो इंशाअल्लाह ससुराल चली जाएगी ही। रही बात उनकी, तो, उनका क्या, बाहर के कमरे के एक कोने में उनका पलंग बिछ जाया करेगा। ‘अल्लाह’ का शुक्र था, नज्जो के अब्बा के यूँ ही अचानक उठ जाने के बाद के गड़बड़ हालत अब लम्हा-लम्हा सुधर रहे थे।
“नज्जो... नज्जो”, उन्होंने पुकारा, नज्जो अम्मी का लाया लाल दुपट्टा सिर पर डाल इठलाने लगी। अम्मी ने झल बलैयाँ चटखीं। इस लड़की के बड़े होने से ख़तरे बढ़ते जा रहे हैं। उन्होंने तय किया, ढीले से ढीला कुर्ता सिलेंगी और शकीला दर्जन को भी कल कभी जाकर हिदायत दे आएँगी।
मुहल्ले के लड़कों की टोली नज्जों के घर के पास वाले ख़ाली प्लाट में रोज़ ही धमाल मचाया करती थी। इधर अम्मी ने मनाकर दिया था नज्जो को वहाँ जाकर उनके साथ खेलने को, क्योंकि रोज़ ही वह शक्ल से पिटी हुई वापस आती थी। वर्ना तो नज्जो रोज़ वहाँ चलते क्रिकेट के खेल में हिस्सेदारी कर दिया करती थी। लड़के उसे दौड़ा-दौड़ा कर फ़ील्डिंग करवाते थे और उसके टेढ़ेमेढ़े आड़े तिरछे दौड़ने पर ख़ूब हँसते थे। वहीं एक दिन उसे अच्युतानंद गोसाई ने शाट मार कर, बॉल पकड़ने को ख़ूब दौड़ाया था। वहीं सब बेहिसाब हँसते-हँसते गिर पड़े थे और नज्जो अपनी दुर्गत पर घुटनों में सिर रखकर थकान और तौहीन के आँसू रो दी थी। वहीं फिर उसने सिर उठाया था, घुटनों के बीच से, वहीं अच्युतानंद गोसाई का पहला तआरुफ़ हुआ था, दो दहकते अनारों के इर्द-गिर्द डसते साँपों से। वह एकाएक सहम गया था, फिर एक उदास न समझ में आने वाली तर्ज़ में हल्के, डूबने उतराने लगा था। उसे ज़ोर की रुलाई आने लगी थी। उसका दिल किया, नज्जो के गाल पर चिपके उन अनारों को नोंच कर फेंक दे। वे इतने लाल क्यों थे? उसी दिल किया नज्जो की आँखें ही फोड़ दें, वो इतनी काली क्यों थीं? वो उसे इतनी चोट क्यों पहुँचा रहीं थीं? उसने आँखों बंद कर लीं, और जब उन्हें दोस्तों के हिलाने पर खोला तो देखा नज्जो ग़ायब थी। उसे लगा सामने का दृश्य पूरा ख़ाली हो गया है, कभी न भरने के आतंक सा ख़ाली! उस दिन के बाद से नज्जो नहीं आई उस ख़ाली जगह को भरने। उस जगह का ख़ालीपन अच्युतानंद के हृदय में कभी न जाने की धमकी सा बैठ गया।
एक साल बड़े होने में बीत गया। अच्युतानंद की मसें भींज गई। उसकी आवाज़ फट कर मर्दाना हो गई, उसके कपड़े छोटे हो गए, उसने ख़ाली प्लाट पर क्रिकेट खेलने जाना बंद कर दिया।
अच्युतानंद को दो सामांतर ग्रहणों ने एक साथ दबोचा−बाप की असमय मृत्यु ने उसे फल वाली दुकान पर बैठने को मजबूर कर उसकी सारी आवारा आज़ादी पर अंकुश लगाया और उसके अंदर के निरंतर बढ़ते ख़ालीपन ने उसे कहीं का न छोड़ा। वह ग्रहणग्रस्त हो झँवाता चला गया।
एक दिन दुकान में ऊब बैठा था, जब पार्षद श्री राममोहन उसकी दुकान पर आए और उसके भइया से कहने लगे, “लड़के को कहाँ उलझा रखा है? अरे हमारे साथ लगा दो, कुछ पार्टी का काम सिखाएँगे, यहाँ तो पैसे का हिसाब करते करते, ये भरी जवानी में बूढ़ा हो जाएगा।” बड़े भाई को धंधे के सिवाय कुछ ख़ास समझ में आता नहीं था। उसने भावुक अंदाज़ में हाथ जोड़ कहा, “ले जाओ साहब आदमी बनाओ इसे, मैं कोई लड़का रख लूँगा अपनी मदद को, पर इसे तो आप अपने साथ रख कुछ बना ही दो...।” पार्षद राममोहन हँसे “हँ-हँ..” “चल बे उठ, आज से ही मेरे साथ चल। ये फल का थैला पकड़।” थैले में पपीते, चीकू एक-दूसरे के घाव सहला रहे थे, अच्युतानंद को खीज उठ आई, उसे फलों में आदमी और आदमियों में फलों का रूप क्यों नज़र आता था? कई बार वो आदमियों को फल समझ काट डालना चाहता था, पहले दाँतों से फिर उनके ज़िद्दी और कड़े होने पर छुरी से। उसे सारी बातें दिमाग़ में एक कोहरे के अंदर छटपटाती दिखती थी। बाप के मरने पर कोहरा और घना हो गया था। स्कूल में लगातार दो बार तीन साल तक फेल होने पर उसे निकाल दिया गया था। वैसे भी सत्रह साल का लड़का सातवीं कितनी बार पढ़ता? एक दो साल तो दादागिरी में मज़ा था, फिर ऊब होने लगी थी। अच्युतानंद अपने लिए माकूल ठिकानों और मक़सदों की तलाश में यूँ ही बेवजह भटक रहा था कि श्री राममोहन उसके जीवन में अवतारित हो गए थे। उसे वो ख़ास पसंद थे नहीं। मोटे भसंदर, तरबूज़े से गाल। मन होता वहीं चाक लगा कर देखे, अंदर से सुर्ख़ लाल हैं कि नहीं। आदमी लेकिन वह काम के थे, पैसा रुपया उगाना जानते थे, बेरोज़गार लड़कों को काम पर लगाना जानते थे, एवज़ में उनसे जम के काम लेना जानते थे और कुल मिला-जुला कर लड़कों को आगे बढ़ाते हुए उन्हें मक़सद देना जानते थे।
सबसे पहले वे अपने रंगरूटों का ख़ूब बढ़िया भोजन करवाते थे, फिर पीने-पिलाने के तौर-तरीक़ों की शुरुआत, बियर से होती थी। जब लड़के उनके डेरे पर बैठने के आदी हो जाते थे, तो उसकी विधिवत कोचिंग होती थी। उन्हें धर्म, भारतीय संस्कृति के प्रेरक प्रसंग सुनवाए जाते थे। शहर में यज्ञों का आयोजन, शहर उत्सव समिति में शिरकत और त्यौहार प्रबंधन समिति के कार्यकर्ता तैयार कराए जाते थे। मक़सदहीन लड़के बामक़सद हो, श्री राममोहन के पूरे मुरीद हो जाते थे। कोचिंग के अंतिम चरण में इधर दो साल से शहर में वीडियो टेप्स और साधुओं के भाषणों में दिमाग़ी शुद्धिकरण का प्रयास ताबड़तोड़ जारी था, उम्मीद थी युवा लड़कों के दिमाग़ों में बात का असर, ज़्यादा मारक ढंग से होगा और ये शहर की आब-ओ-हवा बदलने में मददगार साबित होगा।
अच्युतानंद गोसाई का पहला असाईनमेंट था, भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की हार के लिए, शहर में यज्ञ का आयोजन। घोषणा हुई, शहर में माइक रख आटो घुमाया गया, सभी ख़ास बज़ार और स्टेशन पर बैनर लगाए गए। शहर में हल्ला बोला गया। देश में आस्था प्रकट करने की सब शहरवासियों से अपील की गई। पार्टी के सारे युवा कार्यकर्ता बटोरे गए। शहर के ज़्यादातर लोग जमा हो गए, सब भारत की जीत के लिए प्रार्थना करने बैठ गए। टी.वी. पर डाइरेक्ट टेलीकास्ट था। सबने देखा “ॐऽऽ स्वाहा ॐऽऽ स्वाहा ॐऽऽ स्वाहा” के मंत्रोच्चार के बीच अच्युतानंद गोसाई का चेहरा धधकने लगा। देश के प्रति आस्था की रोशनी जगमग करने लगी। उसकी छाती फूल गई, इतनी कि मुँह पर हाथ रख वो खाँसने लगा। लोगों ने दौड़कर उसे पानी पिलाया। जब बाद में भारत ने पाकिस्तान पर पाँच विकेट से जीत दर्ज कर ली, तो शहर में अच्युतानंद गोसाई को कंधे पर बैठा घुमाया गया। खुली जीप में बैठे लड़के भाँगड़ा जैसा कुछ बल्ले-बल्ले करते चले। अच्युतानंद हीरो का दर्जा पा रहा था, शहर वाले देख रहे थे।
राजीव नगर के ख़ाली प्लाट के बग़ल वाले घर में भी सबने टीवी पर देखा। वो छोकरा जो बॉल लाने के लिए उस घर में रहने वाली एक लड़की को दौड़ाता था, अब मुहल्ले का अदना क्रिकेट खिलाड़ी नहीं रह गया था, अब वो बॉल के बजाए देश की चिंता करने वाले जवान में तब्दील हो गया था। उस घर में इस समाचार को देखने के बाद, बेचैनी और घुटन के चूल्हों पर उल्टे तवे पर रख रोटी सेंकी गई जो अजीब धुँआए स्वाद से भरी थी। नज्जो का मन किया उस स्वाद को ग़ुसलख़ाने में कहीं थूक आए और पानी से हरहरा कर बहा दे। उसके अंदर एक रोष का जुगनू कट-कट करने लगा। कुछ भी कहीं भी उस धुँआए स्वाद से बेइज़्ज़त न हो, न तख़्त, न कुर्सी न दर, न दीवार, न ग़ुसलख़ाना। चूल्हों को नए सिरे से धो दिया जाए और दरवाज़े कसके बंद कर दिए जाएँ, जो बाहर सड़कों से आते विजय गीतों की ताल को वहीं सड़क छाप बना छोड़ दिया करें। माहुर का रंग गीतों को नशीला बना रहा था और और नज्जो ने अपने बड़े होने के समय में पहली बार किसी ऐसी ज़िद का इज़हार किया, जिसका तर्क अम्मी की अब समझने वाली अक़्ल भी न समझ पाई। “अम्मी... पर्दे लगाओ मोटे-मोटे खिड़कियों पर। बहुत धूप गर्मी और धूल होती है। ख़ास तौर से ख़ाली प्लाट की ओर खुलती खिड़कियाँ ढकनी ज़रूरी हैं—लूँ चलती है वहाँ से!!!”
अच्युतानंद गोसाई मंझ रहा था। उसके भीतर तक अंदरूनी अलख जगती जा रही थी, जिसमें कई गुत्थमगुत्था अड़चने थीं। उसमें कई तरह के फल थे, फलों में आदमी थे और आदमियों में फल थे। उसमें कई तरह की गंधें थीं। कई तरह के अस्पष्ट स्मृति दंश थे और इन सबसे बना एक साँवला झुटपुटा था। यह अलक और झुटपुटे का युद्ध था, जिसमें श्री राममोहन की ट्रेनिंग की बदौलत, झुटपुटे के पार जाने की एक आश्वस्त सी ताक़त थी। उसके अंदर पहली बार इस अलख का ज़ोर हुआ, कुछ वीडियो रेकार्डिंग्स देख। वह सन्न रह गया। उसके सर्दियाए हाथ, पैर अकड़ कर उसे गठरी बना गए। “एक पुरानी मस्जिद थी कहीं। कहीं किसी शहर अयोध्या में, जो शायद इसी भारत के किसी कोने का हिस्सा थी। वीडियो में बताया जा रहा था, मस्जिद की बुनियाद झूठ पर रची थी।” कमेंटरी चल रही थी और मस्जिद टूट रही थी। “हमें नीच समझा..., डरपोक समझा, हम पर राज किया...। अब तो इकट्ठे हो जाओ और इस मस्जिद को ख़त्म करो, वर्ना नपुंसक कहलाओ। यह संदेश दो, हमारी क़ौम नामर्द नहीं और उन लोगों को कह दो इस देश में रहना है तो यहाँ के बन के रहें।
अच्युतानंद ने जैसे ही उन लोगों को यहाँ का बन के रहें सुना, उसकी कनपटियाँ गर्म होने लगी। उसे कुछ बरस पहले के दहकते अनार किचमिच हो बार-बार नज़र आने लगे। उसका ध्यान बार-बार उस ख़ाली प्लाट आर उसके बग़ल में रहने वालों पर घूम-घूम पर जाने लगा। वीडियो रिकार्डिंग और उन लोगों में मेल ही क्या था...? फिर भी! उसने अपनी देह की गठरी को खोला और श्री राममोहन के डेरे से बाहर निकल आया। बाहर शाम का झीनापन घिरने को था। एक सतरंगी आभा आसमान में धीमी चाल से पसर गई थी। वो आसमान और सड़क के बीच पतंग और डोर बन गया। वो उड़कर सड़क नापने लगा, पहले बाज़ार, फिर स्टेशन, फिर न समझ में आने वाली ललक से राजीव नगर, उसके बाहर, उसके नज़दीक का ख़ाली प्लाट और वह ख़ाली जगह। वो जाकर उस ख़ाली जगह के सामने बैठ गया और उसने पाया कि प्लाट के अंतिम छोर पर एक गुलमोहर का पेड़ तेज़ी से बड़ा हो चुका था और उसमें लाल-लाल फूल भी आने लगे थे। ये उसके यहाँ से कुछ बरस पहले चले जाने के बाद की नई घटना थी। कच्चे पेड़ के लाल फूलों को देख वो रोमांचित हो उठा। उसने उठ कर पेड़ के कई फूलों के गुच्छे तोड़ डाले और वापस लौट उस ख़ाली जगह को उन फूलों से भर दिया, जिस ख़ाली जगह से वो इतने दिनों तक जुड़ा हुआ था और जो उसके अंदर के ख़ालीपन का अंतहीन सबब बनी हुई थीं। फूलों को सामने रख वो पैर जोड़ धूल में बैठ गया और अनजाने रस से भीगते हुए उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, इस नाउम्मीद ख़याल से कि अब उसमें कुछ पुराना लौटता हुआ दिखाई पड़ेगा। लेकिन आँखें बंद करने पर उसे काले भुतहा दृश्य दिखाई दिए, जिसमें किसी ख़ौफ़नाक बाबर की शक्ल थी, एक बेतरतीब ढही हुई मस्जिद थी, हज़ारों नई ईंटें थी और जिनपे मर्यादा पुरुषोत्तम का न मिटने वाला नाम था, और इन सबके साथ लाखों लोग थे जो उन ईंटों को सिर पर ढोए चले जा रहे थे। ख़ूब सारी चीख़ों पुकार के बीच एक वाक्य था जो करोड़ों प्रहार के समान दमदार और रसूख़वाला था 'एक धक्का और दो'।
अच्युतानंद गोसाई को कस के ग़ुस्सा चढ़ आया। पिछले तीन चार बरस से जिस दिमाग़ी कोहरे को श्री राममोहन पार्षद साफ़ करने में लगे थे वो उसकी दिमाग़ में और गहरा गया था। साँझ रात हो चुकी थी। बाहर कालापन था, भीतर उससे भी ज़्यादा कालापन घिर गया। अच्युतानंद अपनी आँखों खोजने में लग गया। ख़ूब ताक़त लगाकर आँखें खोलने पर उसे दिखाई दिया एक अदृश्य सा वृत्त, उसके अंदर क़ैद एक ठोस ख़ाली जगह जिसे आज उसने गुलमोहर के लाल फूलों से भरना चाहा था। लेकिन कोई कमाल नहीं हुआ, कुछ मज़ा भी नहीं आया। वह तमक कर उठ खड़ा हुआ। फूल टूटने पर जल्द कुम्हलाने लगे थे। उसने अपने जूतों में पैरों की पूरी ताक़त भर दी और उन फूलों को और मसल डाला, फिर ख़ाली जगह पर एक किक मारी और ढेर सारी धूल कालेपन के साए में उड़ाता हुआ चल दिया।
अम्मी ठीक समझती रहीं। नज्जो का बढ़ना कोई कहाँ रोक पाया, न अम्मी के ढीले ढाले कुर्ते, न चादर की तहें, न रोज़ा, नमाज़ की पाबंदियाँ न घर की छतों दीवारों की महफ़ूज़ सरहदें। मुहल्ले के बाहर, नज्जो के उर्दू स्कूल के कैम्पस के बाहर नज्जो पर लाइन मारने वालों की लंबी क़तारें हुआ करती थीं। मगर नज्जो समझदार हो गई थी, बहुत समझदार। उसे रोज़ा, नमाज़ से लगाव हो गया था, नज्जो के चलन का मुसलमान घरों में क़सीदा पढ़ा जाता था, उसे ऐसे घरों से अपनाइयत महसूस होती थी, उसका जी होता था, उसके जी में मचलने वाली हज़ारों ख़्वाहिशों के बावजूद वो अल्लाहवाली बनी रहे और राहें मौजूँ होती रहें। वो अब फ़्रॉक उठाकर नाचने वाली लड़की भी नहीं थी, अब तो वो अपने सभी कपड़ों को सलीक़े से दबा, मुँह पर, पर दुपट्टा बाँध चलती थी। उसकी सहेलियाँ ख़ूब लुत्फ़ उठाती थीं। घायल मजनू उसे देख और घायल हो जाते थे। एक मजनू तो रोज़ अपने बालों को पीछे दबाता सा, गाता मिल जाता था “झलक दिखला जा, एक बार आजा आजा आजा...।” सहेलियाँ हँसती चली जाती थीं, नज्जो को छेड़ती हुई। मस्त और ख़ुशगवार सी बयार उनके शरीरों से हवा में बिखरती जाती थी। उन सभी को बड़े होने में ख़ास मज़ा आ रहा था।
एक दिन लड़कियों ने फ़ैसला किया, स्कूल से लौट कपड़े बदल बाज़ार जाएँगी। इस बार टेकरी वाली मस्जिद के पास वाली नव दुर्गा समिति ने ख़ूब बढ़िया मूर्ति बैठाई है। मूर्ति पर ख़ूब सुंदर कपड़े गहने हैं और साथ में कुछ बिजली से चलने वाली झाँकियाँ भी है। लड़कियाँ शाम को सज धज कर चलीं। बाज़ार में लड़कियाँ ख़ुश रोशनी हो गईं, और जगमग करने लगीं।
ठसमठस भीड़ के बीच लोगों को क़तार में बाँध, पंडाल की सज्जा और झाँकियाँ दिखाई जा रही थी। लड़कियाँ भी क़तार में बँध खिल-खिल कर आगे बढ़ रही थीं। “चलिए, चलिए, ज़्यादा समय मत लगाईए, बढ़ते जाइए... एक जगह भीड़ मत बढ़ाइए।” वॉलन्टीयर लड़के बोले जा रहे थे और लोग आगे बढ़ते जा रहे थे। इन्हीं मिली जुली आवाज़ों के बीच लोगों के कानों ने सुना एक ख़ाली भारी आवाज़ को “प्रसाद भी देते जाओ भाई...।” नज्जो के कानों में भी आवाज़ के बँटते रेशों को तार-तार अपने तक पहुँचते हुए पाया। उसे आवाज़ का ख़ालीपन और भारीपन दोनों अखर गया। उसने सिर उठाकर देखा। उसके सिर पर दुपट्टा था, उसका सिर्फ़ चेहरा दिख रहा था, बदन पर कपड़ों की मज़बूत तालेबंदी थी। आसपास खड़े लोगों ने झलक भर देखा और उस एक झलक में जान गए कि लड़की की उम्र ज़्यादा नहीं, फिर भी ज़्यादा लगने की तैयारी में थी। उस ख़ाली और भारी आवाज़ के जिस्म में अच्युतानंद गोसाई का साबका हुआ, वह आवाज़ हुआ, फिर जिस्म हुआ, उसने भी सामने देखा और उसके अंतर की ऐतिहासिक खोज भड़क उठी। इतनी भीड़ के बीच भी उसने बिलकुल साफ़ आँखों से देखा, उसे फल ही दिखाई दिए। दो दहकते अनार और इर्द-गिर्द डसते साँप-कुछ बरस पहले जो उसके जीवन में धमक मचाकर और फिर रूठकर चले गए थे और जिनके जाने से वहाँ एक ख़ाली जगह बन गई थीं, जो न मालूम क्यों आज तक ख़ाली बनी हुई थी। अच्युतानंद गोसाई को एक चुप लग गई, उसने लोगों की क़तारों को चीरते हुए, भीड़ को नियंत्रित करने वाली रस्सी के उस पार जा कर, उस लड़की के बहुत पास जाकर, अपनी चुप की खोई आवाज़ में फुसफसा कर कहा “नज्जो...नज्जो है न तू?”
विभिन्न हलचलों के वातावरण में एक नई हलचल पैदा हो गई। उस हलचल का रंग न काला था न सफ़ेद, उसमें जो शोर था उसकी भाषा को भी ठीक-ठीक खोला नहीं जा सकता। वह मिलीजुली थी, वह कुछ नया बनाने का संकेत करती थी, वह अभी अनगढ़ थी, लिहाज़ा गीली गीली थी, उस हलचल में पानी की थपकी नहीं शोर था, उससे तरावट नहीं, एक उद्वेलन तारी हो रहा था और शायद इसीलिए लड़कियाँ बेजोड़ ढंग से डर गई। उन्होंने उतावली घबराहट से नज्जो को आगे की ओर धकेल दिया, “निकल यहाँ से निकल... वे भूतों की भाषा में बुदबुदाईं। गिरते पड़ते, डरी-डराई वे पंडाल से बाहर हो गई। अच्युतानंद वहीं ठगा, खड़ा रह गया।
लड़कियों ने आपस में ही अच्युतानंद के यूँही अचानक नज़दीक चले आने की बात को सीने में दफ़न कर देने की सौगंध ली, वर्ना उन सभी के घरों से बाहर अकेले निकलना बंद कर दिया जाता। “कुछ मत बताना यार... वर्ना भाई लोग...।” “हाँ” नज्जो ने गंभीर हो अपने बड़े भाइयों को याद किया... “...नहीं...नहीं, किसी को नहीं पता चलना चाहिए।” मौलवी उस्मान अली का उसी वक़्त बग़ल की टेकरी वाली मस्जिद से इस घटनाक्रम के उस एक क्षण में तपाक से प्रवेश कर जाना, कुछ जिन्नात के बलबले सा लगा लड़कियों को। मौलवी की मौजूदगी ने उनकी बोलती बंद कर दी। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपनी आवाज़ कहीं से ढूँढ़ी और कहा “अस्सलामवलैकुम...।” उनके रहस्यों में मौलवी उस्मान अली की घुसपैठ वक़्त का तक़ाज़ा बन गई और लड़कियाँ सहम कर झुक कर दुहरी हो गई।
ख़ाली प्लाट के बग़ल वाले घर में अगले दिन सारी बातों को समझदारी से अपने दिमाग़ से ख़ारिज करते हुए नज्जो ने सुना, वक़्त उसकी ख़ारिज बातों को अपनी झोली में लपक चुका था, और उसे कुछ सजाएँ देने पर उतारू था, क्योंकि उसके जैसी लड़कियाँ सज़ा से ही पाक बनी रह सकती थीं। टी.वी. पर एक परिवार का झगड़ा चल रहा था, टी.वी. से भी ज़्यादा ऊँची आवाज़ में पप्पू भाई को बोलना पड़ रहा था, क्योंकि ज़िद्दी नज्जो कभी टीवी की आवाज़ कम नहीं करती थी और अम्मी उसे कभी कुछ न कहती थीं। “अम्मी, मौलवी उस्मान अली बता रहे थे ये लड़कियाँ कल देवी देखने गई थीं। ये कुफ़्र है, उस मूर्ति की छाया से लड़कियाँ ख़राब हो जाएँगी। एकदम नापाक।”
नज्जो बचपन के बाद आज फिर उसी तरह दहल गई जैसे कभी कुछ नई जानकारियों के जीवन में प्रवेश करने से दहल जाया करती थी। अम्मी का जवाब सुनने की उत्कंठा से उसके शरीर में एक सिकुड़न फैल गई। उसके दिमाग़ ने सारी नमाज़ परस्ती के बावजूद, मूर्ति की छया और उससे उसके ख़राब हो जाने के दबाव को छूटते ही नकार दिया, “क्यों बेजान चीज़ें किसी को ख़राब कर सकती हैं?” वो दम साधकर बैठ गई। दम साधने पर बचपन की छुप्पम छुपाई का खेल उसको धड़कनों की आवाज़ को अपनी मुट्ठी में बंधक बना गया। उसे उस अंदर के सन्नाटे से बहुत दिन बाद रूहानी ताल्लुक़ात बनाते हुए, जाना पहचाना एहसास हुआ, इतने दिनों के बाद मिलने के अटपटेपन से परे सा। वहीं उसे अम्मी की आवाज़ रेशा-रेशा कर पास आती सुनाई पड़ी।
“मैं समझा दूँगी, अकेले आना-जाना नहीं करेगी अब।” सन्नाटा कच्ची मिट्टी का घड़ा बन कहीं भीतर टूट गया। वहाँ एक क्रिकेट की गेंद आकर लगी थी और सब कुछ इतना चुपचाप हुआ था कि मिट्टी समेटने का न तो वक़्त रहा था न मौक़ा। अगर सिसकी से कुछ बिखरे टुकड़े समेटे जा सकते थे, तो सिसकी भी अपने पूरेपन के शबाब पर आने से इंकार कर रही थी। ज़िल्लत, सिर्फ़ ज़िल्लत और-और ज़िल्लत के अलावा उस अच्युतानंद गोसाई ने नज्जो की ज़िंदगी को कोई और रंग नहीं दिया था। उसका नज्जो से क्या कहीं कोई रिश्ता था? वो तो उससे इतना दूर था, लेकिन फिर भी उसकी ज़िंदगी तबाह करने पर तुला था। वो क्यों हर जगह था? वो क्यों ख़ाली प्लाट पर था, टी.वी. पर था, बाज़ार में था, नव दुर्गा समिति के पंडाल में था? उसकी सहेलियों के बीच, उसकी अम्मी के और उसके बीच, उसके और उसके भाइयों के बीच और यहाँ तक कि मौलवी उस्मान अली और उसके बीच रोड़ा बनता हुआ, उसके अंदर काँटे उगाता हुआ न होने पर भी उसके उसके लोगों से खींच कर दूर करता हुआ। नज्जो की मुट्ठियाँ बँध गई, आवेश से बदन थरथराने लगा। उठकर उसने घर के बाहर जाने वाला मैरून फूलों वाला पर्दा सरकाया और मुँह में उठ आए ज़िल्लत के बगूले को हिक़ारत और नफ़रत से थूक दिया।
इधर नज्जो के अंदर एक नए शिष्टाचार ने ज़ोरदार दस्तक दी। स्थाई रहनवारी के सिब्जबाग़ में चंदन के लोबान की मौसीक़ी थी। नज्जो ने मौसीक़ी को शब्द दिए और ज़ोर से मन कह उठा 'नफ़रत-बनाम अच्युतानंद गोसाई।' वही वह दूसरा था, उससे अलग, जिस दूसरे की हवाओं में गुपचुप बातें हुआ करती थीं। वह भी जानती थीं, कुल एक मस्जिद की कहानी से शुरू हुई थी बातें सब, उसके शहर में। टी.वी. पर तो सब दिखाते थे, कैसे उसके पैदा होने के दो साल बाद कोई मस्जिद थी, जिसे अच्युतानंद जैसे लोगों ने किसी अयोध्या शहर में गिरा दिया था और उसके गिरने की थरथराहट से उसका ये शहर भी काँपा था इस देश के और बाक़ी शहरों के साथ, और एक सिलसिला सा बन गया था। उसके पैदा होने के ठीक दो साल बाद जो आज तक बरस दर बरस जारी था, और वो इन्हीं बरसों में बड़ी होती जा रही थी और अब पुख़्ता हो रही थी, इस जानकारी के साथ कि नफ़रत जैसे शिष्टाचार से वाबस्ता होना उसे उसके अपने लोगों के बीच कितना महफ़ूज़ और अपना बनाता है। छः दिसंबर को, हर बरस जब से उसने पढ़ना सीखा था, उसने जाना था, उसके शहर की दीवारें कैसे गेरुए अक्षरों से पुती रहती थीं। 'राम लला हम आएँगे, मंदिर वहीं बनाएँगे।’ यह जुमला कभी पुराना नहीं होता था, हर बरस यूँही नया और ताज़ा हो दीवारों पर दमक उठता था। उसके अपने घर में भी हर बरस छः दिसंबर से पहले तैयारियाँ कर ली जाती थीं। घर के पर्दो को खींचकर ताना जाता था, दरवाज़ों पर ताले जड़ दिए जाते थे। मिट्टी के तेल के कनस्तर भरवा लिए जाते थे और छुरों में धार बढ़ाई जाती थी। अम्मी ऐसे समय में कुछ ग़म खा जाती थीं। वे किसी बाबर को नहीं जानती थीं। उन्हें अयोध्या की सरहदों और उसके होने के बारे में भी बहुत कम ही पता था। यहाँ इस शहर में बैठे-बैठे क्या फ़र्क़ पड़ता था, अगर कहीं कोई मस्जिद बचे या ढहे...? मगर पप्पू, गुड्डू और राजा को फ़र्क़ पड़ता था। मौलवी उस्मान अली फ़र्क़ पड़वाते थे और इस तरह पूरे मुहल्ले में फ़र्क़ एक निहायत ज़रूरी जज़्बे की तरह हवाओं के हाज़में में फेंक दिया जाता था बेहद ज़िंदा और पोशीदा तरीक़े से।
श्री राममोहन के घर पर लकड़ी के सोफ़े पर ऊँघता पड़ा था, अच्युतानंद गोसाई। शहर के आर्चीज शो रूम में टँगे, ग़ुब्बारे कार्ड्स और गुड्डे-गुड़ियाँ बार-बार उसकी आँखों में कौंध रहे थे। लाल, सफ़ेद, गुलाबी ग़ुब्बारे रूपी दिल। फट-फट कर टूट जाने वाले असली दिल! असली दिल टूट जाने वाले! सभी को फोड़ा था, तोड़ा था, उसने अपने इन्हीं हाथों से, इसी बरस चौदह फ़रवरी की दुपहर जब, प्रचार हो रहा था, किसी वेलेंटाइन डे का ये कहते हुए कि यह प्रेम दिवस है और उस दिन खुली छूट होती है, प्रेम प्रदर्शन की। श्री राममोहन के निर्देश पर अच्युतानंद अपने छः शागिर्दों के साथ लाठी और चेनों के साथ उस दुकान पर पहुँचा था और इंतिहा मच गर्इ थी। सारे प्रेम प्रदर्शनों पर ख़ूब मार पड़ी उस दिन। उसने अपने इन्हीं हाथों से गला घोंटा था उस सबका। लेकिन आज लगभग आठ महीने बाद उसे वो ग़ुब्बारे, ग़ुब्बारों को थामे गुड्डे-गुड़ियाँ ख़ूब याद आ रहे थे। वो टूटती-फूटती दुकान, वो हाथ में पकड़ दबोचे गए, फटाक की आवाज़ के साथ टूटते दिल...।
यार लोग अच्युतानंद गोसाईं उर्फ़ उनके लिए अच्चू भैया जी के इस ग़मगीन मिज़ाज से अपरिचित थे। उन्होंने भइया जी को ठंडी बियर की कई बोतलें खोलकर देनी चाहीं, लेकिन भइया जी ने आँख उठाकर नहीं देखा। भइया जी की बात भी राममोहन को बताई गई तो वो एक आँख शरारत से दबाकर हँसे, लड़कों की सब ज़रूरतों से वाक़िफ़ ही नहीं रहते थे वे, बल्कि उन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए सचेत भी। जाओ, पिक्चर वग़ैरह दिखाओ इसे, अच्छी शराब पिलाओ, या कुछ इंतज़ाम करो...। इंतज़ाम का नाम रीना, सायरा या मीना हो सकता था और वो शहर के दूसरे छोर पर स्टेशन के पास वाले मुहल्ले में हो सकता था। शार्गिदों ने भइया जी को कंधे पर उठाया, ठीक इस तरह जिस तरह जश्न जीतने के वक़्त उठाकर 'जय हो' करते थे और भइया जी हँस बन, गर्दन सिकोड़-मोड़ अपनी जयकार का अभिवादन स्वीकार करते थे। लेकिन आज भइया जी ने आश्चर्यजनक रूप से अपना बदल ढीला छोड़, गिरा दिया और अजीब लुंजपुंज अंदाज़ में जीप पर सवार सुख की तलाश में ही लिए।
रीना, सायरा, मीना... की फ़ेहरिस्त लंबी थी। इंतज़ाम के कई गुणात्मक मूल्य थे, एक चमकती दमकती थाली में परोस कर प्रस्तुत किए गए। भइया जी की देह लू लगी तपिश समान जल रही थी, और भइया जी के मन का सूरज अस्ताचल की ओर विश्राम करने चल पड़ा था। उन्होंने आँख उठाकर भी सामने परोसे नैवेद्यों को नहीं देखा। अब शागिर्दों को चिंता नाम का कीड़ा काटने लगा, वे निराश हो गए। उन्होंने भइया जी को, इतने दिनों बाद उनके घर छोड़ दिया, भइया जी के बड़े भाई और भाभी के पास। भाभी ने अपने छोटे देवर को देख चिंता से इतना ही पूछा “क्या हुआ अच्चू को?” “तबिअत नासाज़ है भाभी, कुछ ताप चढ़ आया है। कल हम लोग डाक्टर को यहीं लाकर दिखवा देंगे।” भाभी ने अच्चू की तीमारदारी की, हाथ पैरों में ठंडा तेल मला, सिर सहलाया, लेकिन अच्चू के शरीर में चुस्ती का संचार नहीं कर पाई। अच्चू का मुखड़ा निस्तेज ही बना रहा, पीला, निचुड़ा। भाभी ने अच्चू भैया के शागिर्दों को फ़ोन कर दिया “लगता है कुछ भूत प्रेत का साया तो नहीं, कुछ ओझा बुला झड़वा दिया जाए। रात भर कुछ 'नज... नज...' कर बड़बड़ाता रहा।”
“अच्छा...।” शगिर्दों को वह ज़र्द पीला चेहरा जो नज की रट में और निचुड़ रहा था और कुम्हलाती जाती जान का संबंध अब समझ में आने लगा। उन्हें अच्चू भैया से शिकायत होने लगी “क्या भइया?” नं. एक बोला
“क्या भइ इया... नं. दो बोला”,
“क्या भइया, इशारा किया होता? नं. तीन ने उत्तेजना दर्शाई।”
“भइया वही चाहिए, तो कभी कहते आप। उठाना मुश्किल थोड़े ही था। वैसे भी उन लोगों की लड़कियाँ उठाने का मज़ा कुछ और है, साले हमारी लड़कियों को आए दिन भगा ले जाते हैं।” अच्युतानंद गोसाईं के लुंज पुंज पड़ी देह में इसपे आड़ी तिरछी हरकत हुई और आग के शोले उसकी आँखों में सवारी करने लगे। वे तपिश से वैसे ही लाल हुई जा रही थीं, अब जलने लगीं। बोलने वाला शार्गिद सिटपिटा गया, उसने तो अपने ट्रेनिंग के हिस्से पैदा हुई बातों को ही दुहराया था।
अच्युतानंद गोसाईं के दिमाग़ी कोहरे पर लपटें आवेग से उछलने लगीं थीं। उसमें कई दृश्य यूहीं घुलमिल जाते थे। वो दृश्यों को अलग कर उन्हें उनके अलग वजूदों के साथ स्पर्श करना चाहता था और श्री राममोहन से पूछना चाहता था, “साहब, इन बार-बार वीडियो में दर्शाए दृश्यों का ख़ाली प्लाट के बग़ल में रहने वाली लड़की से क्या तअल्लुक?” लेकिन वह कभी नहीं पूछ पाता था, क्योंकि वह उन दृश्यों को कभी छाँट कर आज़ाद हस्तियों वाला नहीं बना पाता था।
सारे शार्गिदों ने अपने ताज़ादम तेज़ दिमाग़ी घोड़े दौड़ाए और उनकी आँखों के आइनों में उनकी शख़्सियतों की बची खुची भोलेपन की टिमटिमाहट चमक गई। “अच्चू भैया का दिल कहीं उस मियाइन में अटक गया था। इस बार इस शहर में छः दिसंबर की बरसी अभूतपूर्व ढंग से मनाई जाएगी, और उस मियाइन और उसके परिवार वालों और उसके क़ौमवालों की ऐसी की तैसी की जाएगी। साले, अच्चू भैया को तबाह करने पर तुले हैं। सालों को सबक़ सिखाने के मक़सद से मस्जिद गिराई थी, फिर भी नहीं सुधरते, डिस्टर्बेन्स पैदा करते रहते हैं...।
श्री राममोहन पार्षद ने अपनी कार्यकर्ताओं की सभा आयोजित की और एक महीने पहले से ही छह दिसंबर का दिन ज़ोरदार ढंग से मनाने का निर्णय ले लिया गया।
चिंताओं के सरकते दौर में, अम्मी का मन भारी हो, दुखने लगा था। नज्जो की शादी ठहराने का ख़याल दबिश डालता जवान हो रहा था। अम्मी ने मन ही मन अगले बरस के कुछ दिन तय कर लिए मँगनी और शादी के लिए। नज्जो के लिए पैग़ामों की कमी नहीं थी। बस अम्मी को ही सब सोच समझ तय करना था। साथ ही शादी की तैयारियाँ करनी थीं। उन्हें लगा एक साथ तो तब कर नहीं पाएँगी, धीरे-धीरे कुछ कपड़े सिलवती चली जाएँगी, कुछ गहने बनवाती जाएँगी, बेटों को कह दिल्ली, मुंबई से घर के मिक्सी, गैस मँगवाती चली जाएँगी, तो एक बरस काफ़ी होगा और एकदम से पैसों की ज़रूरत नहीं अखरेगी। 'वे अग्रवाल एंड संस' के सेठ से लगभग रोज़ मिलने लगीं।
प्रोग्राम तय हुआ था पाँच दिसंबर की रात का। श्री राममोहन ने गोपनीय निर्देश दिए थे, ज़्यादा नहीं, बस दो चार घर, वही जिनके लौंडे, दूसरी पार्टियों के मंच से झूठे सेक्यूलरिज़्म का दावा करते हैं, उन्हें ही ठिकाने लगाना है। साले हर बरस हफ़्ते भर पहले से ही हथियार इकट्ठा कर बैठ जाते हैं।
नज्जो के घर कुछ ख़ास तैयारी नहीं थी इस बरस। पप्पू, गुड्डू भाई दोनों ड्यूटी पर थे। शहर के मिज़ाज में ठंडापन था, शौर्य दिवस अपने पूरे रंगों के बावजूद इस बरस थोड़ा कम चमकदार दिखाई पड़ रहा था। इससे अम्मी के मन में थोड़ी ठंडक पड़ी हुई थी और राजा दो दिन की छुट्टी मनाते हुए बिस्तर पर ख़ूब सोने का मन बना रहा था।
अम्मी 'अग्रवाल एंड संस' के सेठ को पैसे देने जाने का मन बनाने लगीं। यह देख नज्जो ज़िद पर उतर आई, बचपना वही...। अम्मी ने बस आँखों के कोने तिरछे कर निमंत्रण दे दिया। नज्जो वही, वही नज्जो, ख़ुश अपनी अम्मी की परछाईं बन चल पड़ी। दुकान पर भारी भीड़ थी। श्री राममोहन पार्षद के लड़के खड़े थे वहाँ, बता रहे थे सेठ को कि कल दुकान बंद कर शहर में निकलने वाले जुलूस में शामिल होना होगा। सेठ सारी बातें ग़ौर से सुन, सहमति में सिर हिला रहा था। इस सब के दरम्यान भी सेठ ने अम्मी को देख लिया, अम्मी से उसका बरसों का नाता जो था। वो दुकानदारी पुलक के साथ बोला “रास्ता ख़ाली करो भाई, आने दो...ग्राहक को आने दो।” लड़के झक सफ़ेद कुर्ते पायजामे पहने हुए थे। कुछ के चमकते ललाटों पर लाल दहकता शृंगार था, त्रिपुंड के आकार का। वे ख़ूब मस्त लग रहे थे, नाजे नहाए और तंदुरुस्त। उन्होंने एक पल ठिठक कर सेठ की बात सुनी और बित्ते भर की जगह ख़ाली कर दी, जिसमें से पहले अम्मी कसमकस कर जूझी और अंदर गद्दी की ओर धकिया दी गईं और पीछे से बचपन वाली नज्जो अम्मी की उँगली न छोड़ने की क़सम से बँधी, सीधे गद्दी पर ठेल दी गई। अच्चू भैया के किसी नामालूम नाम के भगत के ही स्पर्श से आगे ठेली गई थी नज्जो। नामालूम नाम के भगत ने नज्जो को ग़ौर से देखा, गोया तय कर रहा हो, सामने ठेली गई चीज़, चीज़ थी या चीज़ में भरी जान। उसका दिल उछल कर गले में अटक गया, जब उसने देखा चीज़ में भरी जान, नर्म जान थी और वो वही नर्म जान थी, जिसकी वजह से बिचारे अच्चू भैया को ताप चढ़ आया था।
उधर नज्जो के अंदर एक उबाल सिमसिमाने लगा। उसके सिर से दुपट्टा ढलक कर कंधों पर झूल रहा था। उसे वहाँ मौजूद शक्लों के बीच न जाने क्यों हर शक्ल में नामौजूद अच्युतानंद गोसाईं की शक्ल दिखने लगी। उसका मन किया अंदर के उबाल को उस ठिगने चकले सफ़ेद कुर्ते पायजामे पर उलट दे, जिसने उसे भीतर ठेला था। अच्युतानंद ही था, उस शख़्स में भी घुसा हुआ कहीं से। अच्युतानंद के कितने सिर थे।
हिकारत घुट कर कहीं छुप गई जब अग्रवाल एंड संस का सेठ पैसे बटोरने के बाद झिलमिल सूट के कपड़े दिखाने लगा। रंग और डिज़ाइन ने मन से सारा कलषु पोंछ दिया। नज्जो के चेहरे पर रंग और डिज़ायन टँक गए और इतनी रौनक़ बढ़ गई कि सेठ के मन में भी एक बार कुछ ममता जैसा उग आया, फिर तुरंत उसकी दुकानदारी ने हावी हो अपने सामने बैठे ग्राहकों से ग्राहकों का सा सलूक किया और खाते में अम्मी के नाम के आगे उसने झट लिख डाला—बाक़ी, रुपए 2,5/-
अम्मी और नज्जो अब ‘अग्रवाल एंड संस' से बाहर निकले तो शाम का झुरमुट घिर आया था। बाज़ार अपने दरवाज़े बंद कर सर्दियों में जल्दी घर जाने को बेचैन दिखता था। रामरतन बरतन वाला, दुकान के बाहर रखे ग्लास, डोंगे और जग हड़बड़ाकर समेट रहा था। गुड़िया चूड़ी स्टोर के बाहर लगभग ताला बंद होने की तैयारी थी। अलबत्ता ओ.के. डेली नीड्स और जैन बुक स्टोर पर थोड़ी भीड़ डटी थी। अल्पना सिनेमा के बाहर कुछ कम भीड़ थी, रात के नौ बजे वाले शो में अभी काफ़ी वक़्त था, पर चाट पापड़ी वाले अपने घर जाने को मुड़ रहे थे। नौ बजे वाले शो में अब कम ही लोग जाते थे। सर्दी की बारिश का नम आभास हवाओं को और सर्द बना रहा था। कुछ धुँधलाई सी सर्द चुप्पी शहर की सड़कों पर बिछ रही थी। अम्मी के क़दम तेज़ चाल में तब्दील हो रहे थे और नज्जो रुक रुक चल रही थी। उसे रुक रुक कर बचपन के वाक़िए याद आ रहे थे। उसे याद आया बचपन में इसी तरह वह अम्मी के साथ कई बार अकेली जाया करती थी और क़िस्से कहानियों की फ़रमाइश कर अम्मी को तंग कर देती थी, उसका मन किया वापस उसी बचपन में कूद कर प्रवेश कर जाए, अम्मी के संग “अम्मी, यहीं पर सवार आता था न?।” अम्मी सवार की बात सुन डर गई, उन्होंने अपनी चाल धीमी कर नाराज़गी से नज्जो की ओर देखा “अभी ये बात क्यों उठा रही है? पागल है क्या तू?” नज्जो को अम्मी का अंदाज बेगाना लगा “क्या बड़ी हो गई अब वह इतनी कि बचपन की बातें दुहराई भी न जा सकें?” उसे याद आया, अम्मी कितने चाव से सुनाती थीं, ऐन इसी सुनसान सड़क पर चलते, किसी पीर की कहानी जो आज भी सर्दियों की रात में घोड़े पर सवार इस सड़क से गुज़रते हैं। “अल्लाह माफ़ करे,” कई लोगों ने उन्हें रूबरू देखा था यहीं। सवार की कहानी कई सौ सालों से चली आ रही थी और आज भी कई राहगीर दावा करते थे, उन्हें रोक पूछा था सवार ने 'कौन?' 'कौन हो तुम?' 'जाओ, ठीक से जाओ।'
'कौन?' 'कौन हो तुम?' बोलता हुआ एक ठिगना चकला सफ़ेद कुर्ता पायजामा नज़दीक आया। नज्जो का दिमाग़ पलटियाँ खाने लगा, उसे लगा उसके बचपन की कहानी का सवार यहाँ उपस्थित हो कैसे गया। कहानी ज़िंदा कैसे हो गई? उसने नीम निगाहों से देखने की कोशिश की, सवार घोड़े पर नहीं, एक बंद जीप में आया था और उसकी सूरत किसी पीर से नहीं मिलती थी, बल्कि उस गंदली सूरत से मिलती थी जो कुछ देर पहले 'अग्रवाल एंड संस' के भीड़ भरे माहौल में दिखाई पड़ा था। उसके हलक़ में एक काँपती हुई सनसनी फैली जो चीख़ के बजाए चीख़ का एहसास भर बन पाई और उसके सीने में दुबककर, कहीं हमेशा के लिए खो गई। उसे लगा उसे चक्कर आ रहा है और उसकी डरी आँखें डर से भागने की बेचैनी में मुँद गईं पूरी की पूरी। अम्मी ने अपने पीछे मुड़ देखा, “क्या किसी ने उन्हें पुकारा था?” पीछे मुड़कर देखने पर न पुकार थी न आवाज़ न दृश्य न सच्चाई। उन्हें लगा बच के रहने का फ़लसफ़ा भी आज उन्हें धोखा देने पर उतारू हो गया है। यह क्या है? उनकी नज्जो कहाँ है, ये किसी और दुनिया की बातें हैं और उन्हें किसी और दुनिया में होना चाहिए। उन्हें लगा ठीक-उन्हें मर जाना चाहिए। इच्छा करते ही मौत मिले...। अम्मी को लगा मिल गई, वो पढ़ने लगी क़लमा, ‘ला इलाहा इल्ललहा...' जब उनके माथे पर कुछ ज़ोर की चीज़ टकराई। गिरते-गिरते लेकिन उन्होंने इतना ज़रूर देख लिया, कि नज्जो को उन लोगों ने उठाकर उस बंद जीप में भर दिया था, और ख़ूब सारा धुआँ और हाहाकार छोड़ती हुई जीप उस नम सर्द हवा के चुप्पी भरे अँधेरों में कहीं विलीन हो गई थी।
'नई दुनिया' लॉज का वाचमैन श्री राममोहन पार्षद के सब लड़कों को पहचानता था। शहर से पच्चीस किलोमीटर दूर था लॉज। लड़कों का अड्डा था वो, और श्री राममोहन का शहर से दूर एक अंतरंग ठिकाना। वहाँ बस दो चार नौकर थे, वो भी पूरे ट्रेंड। उनका काम था, लड़कों को आते देख, नज़र दूसरी ओर कर लेना, बिना नज़रों में आए। कमरे खोल देना। बिस्तरों के चादर, तकियों के गिलाफ़ बदल देना। बाथरूम में साफ़ टावल लटका देना। कमरे में साफ़ पानी का जग और गिलास रख देना और उसके बाद अपने आप में अपने वजूदों को ले कहीं अदृश्य हो जाना, अगले आदेश आने तक। उसके बाद के रिक्त स्थानों में न उनकी उपस्थिति भरी जाती थी, न उसकी दरकार थी। सब निर्धारित था।
अच्युतानंद गोसाईं, 'नई दुनिया लॉज' के कमरा नं. 1 में लेटा हुआ था। उसके सामने एक गोल मेज़ पर एक प्लास्टिक का फूलदार टेबल क्लाथ बिछा हुआ था, जिस पर लाल-लाल फूल खिले हुए थे। मेज़ के ऊपर विस्की की आधी ख़ाली बोतल और एक अधख़ाली ग्लास उसके बग़ल में थोड़ा टेढा सा पड़ा हुआ था। अच्युतानंद उन्हें बार-बार वहीं लेटे लेटे देख रहा था और सोच रहा था, उसे आजकल विस्की अच्छी क्यों नहीं लगती थी, और पीने पर नशा चढ़ता क्यों न था? वही हल्के-हल्के सुरूर वाला गुनगुना नशा! तभी उसके कमरे में भड़भड़ाते हुए दाख़िल हुए दो शर्गिद और उनके हाथों और कंधे के सहारे, एक गिरती-पड़ती छाया, जो उसे अपने ख़यालों में छाई नज्जो की छाया से मिलती जुलती सी लग रही थी। लेकिन कैसे? वह लपक कर उठ कर बैठ गया, तो देखता क्या है, छाया उसके बग़ल में सर के नीचे तकिया रख लिटा दी गई। उसे ज़ोर का नशा चढ़ने लगा। उसने अपनी नशे सी चढ़ी आँखों को नीचे कर देखा, दहकते अनार वैसे ही थे। उसे लगा छाया में जान थी, धक-धक करती हुई। उसे लगा कैसे? सब उसकी दिमाग़ी करामत है, यह छाया का खेल सब...! वह निराशा में वहशी हँसी हँसने लगा, सब भ्रम था, सारा का सारा! अच्चू भैया को इतने दिनों बाद हँसते देख, शार्गिदों का हौसला बुलंद हो गया और वे गदगद हो बोले “भइया आपके लिए तोहफ़ा है, कल की तारीख़ में खोलिएगा इसे। गुडनाइट!
अच्चू भैया ने बच्चों के भोलेपन सा हाथ पटका पलंग पर और लटपटाए “साले... बहन... ये सच है कि सपना? कुछ समझ में नहीं आ रहा है?” “भैया जी, सच है सच, भैया जी क़सम से सच, आप ज़रा छू कर तो देखो...।” और इतना बोल शार्गिद कमरे से बाहर हो गए।
उनके जाने के बाद अच्युतानंद गोसाईं ने अपने दिमाग़ी कोहरे के पास जा, सारी घटना को समझने की कोशिश की। ये यारों ने क्या कर डाला? क्या सचमुच ही? आह! उसने बग़ल में लिटाई छाया को छू-छू कर तय करना चाहा, ये सच है या सपना? क्या...? सबसे पहले उसने दहकते अनारों की दहक परखने की कोशिश की। उसकी उँगलियों में जुंबिश हुई और अनारों को छूते वक़्त उसके हाथ जल गए। उसे झुँझलाहट ने घेर लिया, एक तो हाथ जल गए, दूसरे अनारों के इर्द गिर्द जो साँप हुआ करते थे, वो दिखाई नहीं पड़े। उसने खोज शुरू कर दी। कस के उँगलियाँ समेट कर उसने छाया की बाँह पर चिकोटी काटी। 'आह...।' एक आवाज़ कहीं बाहर हो जैसे, वैसी ही धीमी, धुँधली सी, सुनाई पड़ी जो कमरे की दीवारों पर मकड़ी बन चिपक गई। अच्युतानंद ख़ुश हो गया, उसका सपना बोलता सपना था। वो लंबी दूरियाँ पार कर उस तक पहुँचा था और सच हो गया था।
अम्मी को होश, उस सुनसान रास्ते में चलने वाले राहगीरों ने दिलाया। अम्मी गिरी सड़क पर थीं, उठी तो सड़क के किनारे थीं। उनकी बेबसी शूल पैदा कर रही थी। वो चीख़ना चाहती थीं। “हाय मेरी नज्जो...।” पर लड़की ज़ात की इज़्ज़त का सोच वो धीरे-धीरे रो रही थीं। अपने अंतस को डुबाते, एक ऐसे गड्ढे में, जो नज्जो के अब्बा के गुज़र जाने के वक़्त उनके अंदर एक बड़ी जगह घेर चुका था, लेकिन वक़्त ने जिसे रफ़्त-रफ़्ता सुखा दिया था, वह आज फिर बेहयाई से गहराई तक ख़ुद गया था। वह अपने होने के एहसास से अम्मी को झिंझोड़ रहा था, अम्मी की सिसकियों के साथ...। 'क्या हुआ?' 'अरे देखो क्या हुआ?' 'बहन जी क्या हुआ? कौन थे बदमाश, कुछ चुराया क्या?' 'हाँ...हाँ...हाँ, नहीं...नहीं...नहीं।' एक दोपहिए वाले को रोक, राजीव नगर तक पहुँचा दिया गया अम्मी को। अम्मी बदहवास घर की ओर दौड़ी। राजा बाहर यारों की मंडली जमाए बैठा था। 'नज्जोऽऽऽ' बोल गिर पड़ीं अम्मी। जब तक माज़रा समझ में आता, लड़के तैयार हो गए..., हथियारों से लैस। अम्मी बौरा कर चिल्लाने लगी, “अरे लड़ाई-झगड़े से मेरी नज्जो कैसे मिलेगी, पहले उसे ढूँढो, पुलिस में चलो...!” लड़के बिफरने लगे। तमतमाहट और अपमान से राजा की आँख भींगने लगी, वह गरजा “सबको ख़त्म करो...सालों को...!” अम्मी अपने तर्कों के वज़न के बावजूद हारने लगी और मिनमिनाई... ”पुलिस...पुलिस की मदद।” लड़के उन्हें वहीं छोड़ राजीव नगर के घरों में चल दिए, जवानों को अपने अभियान में शामिल करने। तैयारी तो पहले से थी ही। अम्मी मतसुन्न, डगमगाते क़दमों से अपने घर के आख़िरी दमघोंटू कमरे में चलती चली गईं। वहाँ एक गुलाबी फूल और हरी पत्तियों वाला टिन का बक्सा अभी भी रखा हुआ था, जिसपे चिढ़ने का ज़िद में नज्जो एक बार गुम हो गई थी। अम्मी नीम अँधेरे में वहीं नज्जो के पैरों के निशान तलाश करने लगीं।
अच्युतानंद अपने भाग्य से रश्क करता हुआ चीख़ना चाहता था, उत्तेजित आह्लाद से भर, “नज्जो तू सचमुच यहाँ है, मेरे इतने पास?” लेकिन वो चीख़ नहीं पाया। उसे अचानक ही दो काले साँप दिखे जिनकी खोज में वो कुछ देर पहले ही भटक गया था। वे उसके सामने कुंडली मारे बैठे थे उसे डसने को तैयार। हालाँकि वह अभी जीत के घोड़े पर सवार था, लेकिन फिर भी वह सहम गया, उसने झुक कर अपना मुँह उस चेहरे की ओर किया जो नज्जो की परछाईं का ही चेहरा था, और अब परछाईं से निकल पूरा का पूरा नज्जो का चेहरा बन चुका था। उसके ऐसा करने पर उसे अपने मुँह पर कुछ लिसलिसा सा गंदे एहसास वाला फैलता महसूस हुआ, जो उसके अपने मुँह से उसके अंदर तक जाने को तत्पर था। उसे ख़राब-ख़राब लगने लगा। उसने अपनी जेब से रूमाल निकाला और पहले नज्जो का मुँह पोंछा फिर अपना। उसे नज्जो के मुँह से कुछ टूटे-फूटे शब्द निकलते सुनाई पड़े। उसने अपने दिमाग़ और कानों को उस दिशा में मोड़ा जहाँ से शब्द निकल रहे थे। उसने टूटे-फूटे शब्दों को जोड़ा तो उसे घृणास्पद जज़्बों से सने शब्दों के अर्थ समझ में आए। उनमें कुछ विषैले तीर भी थे। उसे आश्चर्य हुआ, इतनी नाज़ुक लड़की इतना मैल अपने अंदर कैसे रख पाई थी? वह इतनी सारी नई बातें देख उन्हें समझने की कोशिश में थक गया। सुस्ताने की ग़रज़ से उसने थोड़ी देर के लिए अपनी स्थिति में परिवर्तन किया। वह पलंग के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया और वहीं से नज्जो के भीतर के रहस्यों को देखने की कोशिश करने लगा। उसके कान में एक घड़ी की टिकटिक सुनाई पड़ी। उसी सुनाई पड़ने के साथ उसे याद हो आए वो वीडियो फ़िल्म्स के दृश्य जो श्री राममोहन के यहाँ उसे बार-बार दिखलाए गए थे। वो एक टूटी-फूटी सी मस्जिद, उसके आस-पास हज़ारों कार सेवक, मस्जिद के ऊपर चढ़े लोग, चीख़ती आवाज़ें, 'एक धक्का और दो...।' उत्तेजना से उसका पूरा शरीर फड़कने लगा, उसने अपना मोर्चा सँभाला, उसके कानों में वही-वही आवाज़ों की रेलपेल मच गई। घड़ी की टिकटिक, समय का बदलना, नए दिन का आग़ाज़, नई दुनिया की ईजाद..., के स्वर से स्वर मिला सारी की सारी पृथ्वी थरथराई और अलसुबह शौर्य दिवस का सूरज इस्तक़बाल में इठलाता चला आया।
- पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (2000-2010) (पृष्ठ 116)
- संपादक : कमला प्रसाद
- रचनाकार : वंदना राग
- प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड
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