जैसे ही सड़क दर्रे की तरफ़ मोड़ लेने वाली थी कि पहाड़ी की तलहटी से बारिश का एक झपेटा देवदार के वन को सफ़ेद करता हुआ मेरी तरफ़ आया। मैं उन्नीस साल का था और ईजू प्रायद्वीप की यात्रा अकेले कर रहा था। मैंने एक विद्यार्थी के से ही कपड़े पहन रखे थे। गहरे रंग का किमोन, लकड़ी की ऊँची खड़ाऊँ, स्कूली टोपी और कंधे से लटकता किताबी बस्ता। तीन रातें मैंने प्रायद्वीप के मध्य भाग के निकटवर्ती गरम पानी के स्रोतों के पास बिताई थी। टोकियो से आए आज चौथा दिन था और मैं आमामी दर्रे की चढ़ाई तय करता दक्षिणी ईजू की तरफ़ बढ़ रहा था। शरत का दृश्य लुभावना था, एक पर एक उठती पर्वत शृंखलाएँ, वन-प्रांतर, गहरी घाटियाँ, किंतु यह दृश्य उतना नहीं, जितना कि मुझे एक अन्य प्रत्याशा अधिक प्रोत्साहित कर रही थी। बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें पड़ने लगीं। मैंने दौड़कर सामने की खड़ी चढ़ाई वाली घुमावदार सड़क पार की। ऊपर, दर्रे के मुहाने पर एक चाय की दुकान थी। भाग्य का चमत्कार नहीं तो और क्या कहूँ? नाटक मंडली वहाँ विश्राम कर रही थी।
जिस गद्दी पर वह छोटी नर्तकी बैठी थी, उसे उठाकर, उसने विनम्रतापूर्वक मेरी ओर बढ़ा दिया। मूर्ख की तरह 'अच्छा-अच्छा' बुदबुदाकर मैं उस पर बैठ गया। भौंचक्का और साँस फूला होने की वजह से मुझे कहने को और कुछ नहीं सूझा। वह मेरे पास ही बैठ गई। हम दोनों के चेहरे आमने-सामने थे। मैं तंबाकू झाड़ने के लिए कुछ ढूँढ़ने-सा लगा तो उसने दूसरी स्त्री के सामने से ऐशट्रे उठाकर मुझे दे दी। फिर भी मैं कुछ न बोल पाया।
वह शायद सोलह साल की थी। उसकी केश-राशि, बालों के लपेटों से ऊँचा जूड़ा बनाकर पुराने ढंग से सँवारी हुई थी। केश सँवारने की इस शैली का नाम मैं नहीं जानता। उसका सौम्य लंबी तराश का चेहरा, ऊँचे उठे जूड़े के नीचे और भी छोटा हो आया था। पर फिर भी केश-सज्जा चेहरे पर पूरी तरह फबती थी। बल्कि कुछ ऐसी जैसे प्राचीन चित्रों में सुंदर नारियों के केशों को अतिरंजित सज्जा के साथ दिखाया जाता था।
उसके साथ दो और युवतियाँ थीं और एक चौबीस-पच्चीस वर्ष का युवक। चालीस वर्ष की कठोर मुख-मुद्रावाली एक स्त्री, उस मंडली की मुखिया थी।
मैंने छोटी नर्तकी को दो बार पहले भी देखा था, एक बार प्रायद्वीप के आधे रास्ते में, एक लंबे पुल पर, दो युवतियों के साथ। उसने एक बड़ा-सा ढोल उठाया हुआ था। मैंने बार-बार पीछे मुड़कर देखा था। और अंत में यात्रा के रसास्वादन का यह ठिकाना पाने पर अपने आपको बधाई दी थी।
उसके बाद सराय में बिताई तीसरी रात में उसे नाचते देखा था। वह सराय के फाटक के पास ही नाच रही थी और मैं मुग्ध हो, सीढ़ियों पर बैठा रहा। और फिर आज रात पुल पर। मैंने अपने से कहा था कि कल दर्रे को पार कर युगानों जाते समय, पंद्रह मील के रास्ते में, वे कहीं न कहीं ज़रूर मिलेंगी और इसी प्रत्याशा ने मुझे पहाड़ी सड़क की तरफ़ तेज़ क़दमों से चलाया था, किंतु चाय की दुकान पर मिल जाना इतना अकस्मात् हुआ कि मेरे पाँव धरती पर ठीक से नहीं पड़ रहे थे।
कुछ मिनट बाद, चाय की दुकानदारिन मुझे एक दूसरे कमरे में ले गई, जो बहुत कम इस्तेमाल में आता होगा। वह एक इतनी नीची घाटी की तरफ़ खुलता था कि उसकी तलहटी भी नज़र नहीं आती थी। मेरे दाँत कटकटा रहे थे और बाँहों के रोंगटे खड़े हो गए।
“मुझे थोड़ी-सी सर्दी लग रही है। जिस समय वृद्धा मेरे लिए चाय बनाकर लाई, मेरे मुँह से बोल निकले।
पर तुम तो बिलकुल तर हो। अंदर आओ, अपने को सुखाओ। कहती हुई वह मुझे अपने निजी कमरे की तरफ़ ले चली।
उस कमरे का दरवाज़ा खोलते ही मुझे सुलगती आग का गरम थपेड़ा लगा। मैं अंदर जाकर आग के पास बैठ गया। मेरे किमोनू से भाप उठी। आग की तपिश इतनी ज़्यादा थी कि मेरा सिर दुखने लगा।
इस बीच वृद्धा, नर्तकियों से बात करने बाहर चली गई।
“अच्छा तो, हाँ! यह है वह छोटी-सी लड़की, जो पहले तुम्हारे साथ आई थी। अभी से इतनी बड़ी हो गई। अरे, यह तो पूरी औरत हो गई है! बहुत अच्छी बात है न? ऊपर से इतनी सुंदर भी, लड़कियाँ जल्दी बढ़ान लेती हैं। लेती हैं न?
शायद एक घंटा बीता होगा कि मुझे ऐसा सुनाई दिया, जैसे वे जाने की तैयारी में हों। मेरा दिल ज़ोर से धड़का और छाती पर खिंचाव-सा महसूस हुआ। पर फिर भी इतनी हिम्मत न हुई कि उठू और उनके साथ चल पड़ूँ। मैं आग के पास बैठा कुलबुलाता रहा। आख़िर औरतें ही तो हैं, मान लिया कि वे पैदल चलने की आदी हैं—पर अगर मैं एक-आध मील पीछे छूट भी जाऊँ, तो भी उन तक पहुँचने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी, मेरा मन उनके साथ-साथ नाचता हुआ चला गया। मानो उनके प्रस्थान ने मन को ऐसा करने की स्वछंदता प्रदान की हो।
“वे आज रात कहाँ ठहरेंगे? स्त्री के वापिस आने पर मैंने पूछा।
“इस तरह के लोग कहाँ ठहरेंगे, कौन बता सकता है? जहाँ उन्हें पैसा देने वाले मिलेंगे, वहीं रह जाएँगे, उन्हें क्या यह बात पहले से मालूम होती है कि वे कहाँ रुकेंगे? उसके स्पष्ट तिरस्कार भाव ने मुझमें आवेश भर दिया। मैंने स्वयं से कहा, 'अगर इसका कथन सत्य है तो वह नर्तकी आज की रात मेरे कमरे में बिताएगी!'
बारिश, बूँदाबाँदी में बदल गई थी। दर्रे के ऊपर का आसमान साफ़ हो गया था। मेरे लिए वहाँ और अधिक देर रुकना मुश्किल हो गया। यद्यपि वृद्धा ने पूरी उम्मीद बँधाई कि दस मिनट में धूप खिल जाएगी, नौजवान! नौजवान! कहती वृद्ध मेरे पीछे सड़क तक दौड़ती आई, यह बहुत है, जो तुमने मुझे दिया है। मैं इतना नहीं ले सकती। मेरे पैसे वापिस करने को रोकने के लिए उसने मेरा झोला ज़ोर से पकड़कर खींचा, मैंने पैसे वापिस लेने से मना कर दिया। तब भी वह मेरे साथ क़दम घसीटती चली आई। उसने ज़िद की कि वह कम से कम सड़क तक मुझे छोड़ने आएगी ही। वह कहती रही, ये बहुत ज़्यादा हैं, मैंने कुछ भी तो नहीं किया इसके बदले। मगर मैं यह बात याद रखूँगी और अब तुम इस रास्ते से फिर गुज़रोगे, तो तुम्हारे लिए कुछ न कुछ सहेज रखूँगी। तुम फिर आओगे न? आओगे ज़रूर? मैं नहीं भूलूँगी।
एक सौ पचास येन के सिक्कों के लिए इतनी कृतज्ञ भावना मर्मस्पर्शी थी। पर मुझ पर छोटी नर्तकी तक पहुँचने का जुनून सवार था और उसकी बूढ़ी धीमी चाल मुझे देर करा रही थी।
अंत में सुरंग के मुहाने तक पहुँचकर, मैंने उसे झटककर अलग किया। सड़क, जिसके एक तरफ़ सफ़ेद रंग की रोक-बाड़ किनारे-किनारे लगी हुई थी, सुरंग के मुँह से विद्युत रेखा-सी बलखाती नीचे को जा रही थी। झंकाड़ी आकृति के नीचे, पास ही वह नर्तकी और उसके साथी थे। आधा मील और चलकर मैं उनके पास पहुँच गया। उनके पास पहुँचते ही, एकदम अपनी चाल को धीमी कर, उनकी चाल से मिलाकर चलना अटपटा लगता, इसलिए मैं उन स्त्रियों के पास से बहुत शांत तटस्थ भाव का दिखावा करता गुज़र गया। मुझे आता देख, उनसे कोई दस गज़ आगे चलता व्यक्ति मेरी तरफ़ मुड़ा, पैदल चलने में काफ़ी माहिर हो तुम। क़िस्मत अच्छी है न कि बारिश रुक गई!
इस तरह अपना बचाव पा, मैं उसके साथ चल पड़ा। वह इधर-उधर के प्रश्न पूछने लगा और जब स्त्रियों ने हमें बातें करते देखा तो वे भी धीरे-धीरे चलतीं, हमारे पीछे हो लीं। पुरुष की कमर से बेंत का बना एक बहुत बड़ा बक्सा बँधा था। बड़ी वाली स्त्री की बाँहों में एक पिल्ला था और दोनों युवतियाँ गठरियाँ उठाए थीं। लड़की के पास उसका ढोल और ढोल का साँचा था, जाने कब बड़ी वाली स्त्री, बातचीत में शामिल हो गई।
वह एक स्कूल में पढ़ने वाला लड़का है। उनमें से एक युवती ने छोटी नर्तकी से फुसफुसाकर कहा और मेरे मुड़कर देखते ही खिल-खिल हँसने लगी।
हाँ, यही बात है, इतना तो मैं भी जानती हूँ, लड़की ने पलटकर कहा, “विद्यार्थी बहुधा द्वीप आते हैं।
पुरुष ने बताया कि वे ईजू द्वीपसमूह के नगर ओशिमा के हैं, वे वसंत ऋतु में प्रायद्वीप पर घूमने-फिरने निकली थीं और अब सर्दी शुरू हो गई थी और जाड़ों के कपड़े उनके पास नहीं थे। दक्षिण में शिमोदा में आठ-दस दिन बिताकर वे नाव से अपने द्वीप को लौट जाएँगे।
लड़की ने पास वाली युवती से बात की, तुम्हें मालूम है कि विद्यार्थी ओशिमा में तैराकी करने आते हैं?
'गर्मी में, मेरी समझ से। मैंने पीछे देखते हुए कहा। वह अकबका गई।
'जाड़ों में भी। उसने ऐसी हल्की नन्ही आवाज़ में जवाब दिया कि सुनाई भी मुश्किल से दे।
जाड़ों में भी। उसने दूसरी स्त्री की तरफ़ देखा और कुछ अनिश्चित-सी हँसी।
उसका चेहरा लाल हो गया, 'हाँ में ज़रा-सी गर्दन हिलाई और मुख-मुद्रा सौम्य हो गई। ‘‘बच्ची पगली है, बड़ी वाली स्त्री हँसी।
युगानों से ऊपर छ:-सात मील तक सड़क का रास्ता नदी के साथ-साथ चलता है। दर्रे से उतरते ही पहाड़ों ने दक्षिणी रूप ले लिया था। मैं और वह व्यक्ति मित्र बन गए थे। और जैसे ही नीचे की तरफ़ युगानों की खपरैल की छतें नज़र आईं, मैंने कह डाला कि मैं उनके साथ शिमोदा भी जाऊँगा। वह बेहद ख़ुश नज़र आया।
एक पुरानी-धुरानी सराय के सामने पहुँचकर बड़ी वाली स्त्री ने मेरी तरफ़ अपनी दृष्टि इस तरह ठहराई जैसे कि अब हम परस्पर विदा लेंगे।
पर वह सज्जन तो हमारे साथ चलना चाहते है। पुरुष ने कहा।
“ओह! क्या सचमुच? उसने बड़ी सरल हार्दिकता से कहा, कहते हैं न यात्रा का साथी जीवन नाती। लगता है हम जैसे ग़रीब भी भ्रमण-यात्रा में जान डाल सकते हैं। ज़रूर, अंदर आओ! हम सब एक प्याला चाय पीएँ और आराम कर लें।
हमने दूसरी मंज़िल पर जाकर अपना सामान रख दिया। तिनकों की बिछी चटाइयाँ और दरवाज़े गंदे, टूटे-फूटे थे। छोटी नर्तकी नीचे से चाय लाई। मेरे पास चाय लाते समय चाय का प्याला प्लेट में खड़खड़ाया। अपने बचाव की कोशिश में उसने तेज़ी से प्याला टिकाया, पर वह चाय बिखराने में ही सफल हुई। इस हद तक की गड़बड़ के लिए मैं ज़रा कम ही तैयार था।
हाय रे मैं! बच्ची अब ख़तरनाक उम्र में पैर रख रही है। बड़ी स्त्री ने भौंहें चढ़ाकर, झाड़न को उसकी तरफ़ फेंकते हुए कहा।
तमककर लड़की चाय समेटती रही। ऊपर कही गई बात ने मुझे चौंका दिया। चाय-घर में बूढ़ी स्त्री द्वारा कही गई बात से जगी उत्तेजना और तीव्रतर होती महसूस हुई।
लगभग एक घंटे बाद, वह व्यक्ति मुझे दूसरी सराय में लेकर गया। तब तक मैं यही माने बैठा था कि मुझे उन्हीं के साथ ठहरना है।
हम, सड़क से कोई सौ गज़ दूर, चट्टानों और पत्थर की कटी सीढ़ियों से नीचे उतरे। नदी के तल में गरम पानी का सार्वजनिक स्रोत था और उससे ज़रा आगे एक पुल, जो सराय के बग़ीचे की तरफ़ जाता था।
हम दोनों इकट्ठे नहाने गए। उसने बताया कि वह तेईस वर्ष का है और उसकी पत्नी के दो बार गर्भपात हो चुके हैं। वह होशियार न हो ऐसा नहीं था। मैंने धारणा बना ली कि वह भी मेरी तरह नर्तकी के समीप रहने के ख़ातिर साथ-साथ पैदल चलता रहा था।
सूर्यास्त होते-होते ज़ोर की बारिश होने लगी। भूरे और सफ़ेद पहाड़ दो दिशाओं में चपटे हो फैल गए और नदी क्षण-क्षण में अधिक पीली और मटमैली होने लगी। मुझे विश्वास था कि ऐसी रात को नृत्य-मंडली बाहर नहीं निकलेगी, फिर भी मैं निश्चिंत न बैठ सका। मैं दो-तीन बार स्नानघर के पास गया और फिर बेचैन होकर अपने कमरे में आ गया।
इतने में दूर से बारिश में ढोलक की एक मंद थाप सुनाई दी। मैंने खिड़की को, सींखचे खींचकर ज़ोर का धक्का देकर ऐसे खोला कि जैसे उसे उखाड़ फेंकूँगा और खिड़की से बाहर झुककर झाँका। ढोलक की थाप पर अपना ध्यान जमाने की कोशिश की कि वह कहाँ से आ रही है और इस तरफ़ आ रही है या नहीं। इतने में सामीसेन की झंकार सुनाई पड़ी और बीच-बीच में एक स्त्री-कंठ किसी को पुकारता और ज़ोर की हँसी का ठहाका। ऐसा लगा कि नर्तकी को, उनकी सराय के पास एक रेस्तराँ में पार्टी में बुलाया गया था। मैं इतना अंदाज़ लगा पाया कि दो-तीन स्त्रियों और तीन-चार पुरुषों की आवाज़ें हैं। अपने आप को धीरज बँधाया कि वहाँ सब ख़त्म होने वाला है और वे सब जल्दी ही यहाँ आएँगे। पार्टी अब सीधे-सीधे हँसी-मज़ाक़ के समाँ से हुल्लड़बाज़ी पर उतरती मालूम हुई। एक तीखा स्त्री-स्वर अँधेरे को चीरता हुआ चाबुक की झन्नाहट-सा आया।
मैंने खुले जंगले से बाहर को झाँका तथा और भी किनारे के पास सरककर तनकर बैठ गया। ढोलक की एक-एक थाप मुझे राहत की हिलोर की प्रतीति कराती। अरे! वह अब भी वहाँ है...वह वहाँ है और ढोलक बजा रही है और हर बार जैसे ही ढोलक की थाप रुकती कि चुप्पी को सहना कठिन हो जाता। ऐसी अनुभूति होती, जैसे बारिश मुझे अपनी बौछारों के नीचे उठाए ले जा रही है।
थोड़ी-सी देर में पैरों के ऊबड़-खाबड़ पड़ने की आवाज़ आई। क्या वे लुका-छिपी खेल रहे हैं? क्या वे नाच रहे हैं? और फिर शांत निस्तब्धता में अँधेरे में आँखें फाड़कर देखता रहा। वह क्या कर रही होगी? शेष पूरी रात उसके साथ कौन होगा?
मैंने सींखचे बंद किए और बिस्तर पर लेट गया। मेरी छाती में तनाव के कारण टीस उठ रही थी। मैं फिर स्नानघर गया और ज़ोर-ज़ोर से पानी को छपछपाया। बारिश रुक गई। चाँद निकल आया। शरत का आकाश बारिश से धुला हुआ, स्वच्छ स्फटिक-सा दूर चमक रहा था। मेरा मन, एक क्षण को नंगे पैर जाकर उसे ढूँढ़ने का हुआ। अब दो बज चुके थे।
वह पुरुष अगले दिन सुबह मेरी सराय में आया। मैं तभी सोकर उठा था। मैंने उसे नहाने को निमंत्रित किया। स्नानघर के नीचे, बारिश से चढ़ी हुई नदी दक्षिणी ईजू के शारदीय सूर्य में गरमाई बह रही थी। पिछली रात की मनोव्यथित व्यग्रता अब बहुत वास्तविक नहीं रह गई थी। फिर भी मैं सुनना चाहता था कि क्या हुआ था।
तुम्हारी रात की पार्टी में ख़ूब चहल-पहल थी?
तुम तक हमारी आवाज़ पहुँच रही थी?
हाँ, बिलकुल।
“यहीं के मूल निवासी हैं। वे बहुत शोर मचाते हैं। पर असल में कुछ ज़्यादा ऐसा नहीं है उनमें।
उसके लिए वह घटना जैसे प्रतिदिन की बिलकुल साधारण-सी बात थी। मैंने भी कुछ और नहीं कहा।
देखो, वे सब नहाने गए हैं, नदी के पार! लानत है उन पर, अगर उन्होंने हमें नहीं देखा है। ज़रा उनका हँसना तो देखो।
उसने एक सार्वजनिक स्नानघर की तरफ़ इशारा किया, जहाँ पानी से उठती भाप के बीच से छह-सात आकार दिखाई दे रहे थे।
एक छोटा आकार धूप की रोशनी में भागकर आया और उसने चबूतरे की मुँडेर पर एक मिनट खड़े होकर, इस तरह बाँहें ऊपर उठाकर जैसे नदी में कूदने को तैयार हो, हमसे कुछ कहा। यह, वह छोटी नर्तकी थी। मैंने उसे देखा। उसकी किशोर टाँगें, शिल्प-निर्मित गोरी देह। और मुझे प्रतीति हुई जैसे ताज़े पानी का एक झोंका मेरे हृदय पर से प्रक्षालन करता हुआ, चला गया। मैं ख़ुशी से हँस पड़ा। वह एक बच्ची थी। केवल एक बच्ची, एक ऐसी बच्ची, जो अपने मित्र को देखकर ख़ुशी में नंगे बदन, धूप में भागकर पंजों के बल आ खड़ी हुई, मैं हँसता ही रहा। एक स्निग्ध प्रसन्न हँसी। जैसे मेरे सिर पर से एक धूल की तरह साफ़ हो गई हो। और मैं हँसता ही चला गया। अपनी घनी केश राशि के कारण, वह बड़ी दिखाई देती थी और इसलिए भी कि उसका पहनावा और शृंगार पंद्रह-सोलह साल की लड़की का-सा किया गया था। मैं वास्तव में बहुत बड़ी भूल कर बैठा था।
जब दोनों स्त्रियों में से बड़ी वाली बग़ीचे के फूलों को देखने उधर आई, उससे पहले हम दोनों मेरे कमरे में वापस पहुँच चुके थे। छोटी नर्तकी पुल पार के आधे रास्ते तक उसके पीछे आई थी कि वृद्धा स्त्री, त्योरी चढ़ाए स्नानघर से बाहर निकली। नर्तकी ने अपने कंधे उचकाए और हँसती हुई वापस भाग गई, जैसे कह रही हो कि अगर और नज़दीक आएगी, तो उसे डाँट पड़ेगी। बड़ी वाली युवती पुल तक आई।
उधर की तरफ़ आओ। उसने मुझसे कहा।
उधर की तरफ़ आओ। छोटी वाली युवती ने भी उसकी बात दोहराई। और वे दोनों अपनी सराय की तरफ़ मुड़ गईं।
पुरुष, संध्या होने तक मेरी सराय में ठहरा रहा।
उस रात जब मैं एक यात्री विक्रेता के साथ शतरंज खेल रहा था, बग़ीचे में ढोलक सुनाई दी। मैं बरामदे की तरफ़ जाने को उठा तो विक्रेता ने पूछा, “एक और न हो जाए? एक बाज़ी और खेलें? मैंने टालने की हँसी हँसी। कुछ देर बाद बात को आई-गई समझ वह कमरे में चला गया।
इसके तुरंत बाद ही दोनों युवतियाँ और पुरुष अंदर आए, मैंने पूछा, “क्या आज रात को तुम्हें और कहीं जाना है?
चाहने पर भी आज ग्राहक नहीं मिलेंगे।
वे आधी रात बीतने के बाद तक वहीं बैठे चैकर्ज खेलते रहे। जब वे चले गए तो मेरा दिमाग़ साफ़ हुआ और जान में जान आई। मैं जानता था कि मुझे नींद नहीं आएगी। मैंने हॉल से उस विक्रेता को बुलाया।
वाह ख़ूब! वह फ़ौरन बाज़ी लेने आ गया।
“आज सारी रात की बाज़ी है। हम रात-भर खेलेंगे। मैं अपराजित अनुभव कर रहा था। हमें अगले दिन सुबह आठ बजे युगानों से चलना था। मैंने अपनी स्कूली टोपी किताबों के झोले में रखी। एक शिकारी टोपी पहनी, जो सार्वजनिक स्नानघर के पास ही दुकान से ख़रीदी थी और सराय तक राजमार्ग से पहुँचा। मैं निश्चित भाव से ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ता गया। दूसरी मंज़िल की झिलमिली खुली थीं। मगर मैं हॉल में पहुँचते ही रुक गया। वे सब अभी बिस्तर में ही थे।
नाचनेवाली लड़की, सबसे छोटी वाली स्त्री की बग़ल में, बिलकुल मेरे पाँवों के पास लेटी थी। वह एकदम लाल हो गई और हड़बड़ाकर एकदम से अपने हाथों से चेहरे को दबा लिया। पहली शाम के कुछ शृंगार-चिह्न अभी तक चेहरे पर शेष थे। एकदम मनमोहक छोटा-सा आकार, मेरी निगाह जैसे ही नीचे को उस पर पड़ी कि आनंद की एक चमकीली हिलोर प्राणों में दौड़ गई। वह एकाएक, मुँह ढके-ढके पलटा लेकर, बिस्तर से बाहर हो गई और हॉल में मेरे सामने प्रणाम करने झुक गई। मैं गूँगा बना भौंचक्का खड़ा रह गया। यही सोचता कि क्या करूँ!
वह आदमी और बड़ी युवती एक साथ सो रहे थे। वह परस्पर विवाहित हैं, यह बात पहले से ध्यान में नहीं आई थी।
बिस्तर में से उठकर बैठती हुई बड़ी युवती बोली, “आपको हमें क्षमा करना होगा, हम आज ही चल देना चाहते हैं, लेकिन सुना है कि आज रात को यहाँ एक पार्टी है। हमने सोचा है कि देखें क्या कर सकते हैं उसमें! यदि आपको जाना ज़रूरी है तो, तब तो फिर हम शायद शिमोदा में ही मिल पाएँ। हम हमेशा कोशिया सराय में ठहरते हैं। उसे ढूँढ़ने में मुश्किल नहीं होगी। मुझे लगा, जैसे मैं निर्वासित कर दिया गया।
या ऐसा न करो कि कल तक ठहर जाओ, पुरुष ने सुझाया, यह कह रही है कि हमें आज रुकना है। मगर रास्ता काटने में बातचीत करने वाला साथी हो तो अच्छा रहता है। चलो, कल सब साथ चलें।
बहुत बढ़िया ख़्याल है! स्त्री ने हाँ में हाँ मिलाई, “कल तो चाहे कुछ भी हो, हम ज़रूर चल पड़ेंगे। परसों, बच्चे को गुज़रे उन्चास दिन होंगे। बराबर यह बात मन में रही है कि शिमोदा में अनुष्ठान करना है, जिससे यह ज़ाहिर हो कि कम से कम हमें याद है और हम वहाँ समय पर पहुँचने की जल्दी में रहे हैं। आपकी सचमुच बड़ी कृपा होगी—मेरे मन में यह बात बिना आए नहीं रहती कि इस सबके पीछे ज़रूर कुछ कारण है कि हम परस्पर इस तरह मित्र बन गए।
मैं एक दिन और रुकने को तैयार हो गया और अपनी सराय वापिस चला गया। उनके तैयार होकर आने के इंतज़ार में मैं गंदे छोटे-से दफ़्तर में बैठकर प्रबंधक से बात करता रहा। थोड़ी देर में वह पुरुष आया और हम दोनों शहर से थोड़ी दूर एक रमणीय पुल तक गए। वह रेलिंग के सहारे टिककर अपने बारे में बताने लगा। वह काफ़ी अरसे तक टोकियो की एक नाटक-मंडली में रहा था। कभी-कभी वह अब भी ओशिमा के नाटकों में अभिनय करता था और वैसे सड़कों पर होती पार्टियों में अगर बुलाया जाता था, तो अभिनेताओं की नक़ल उतारकर दिखा सकता था।
उसने बताया कि उसकी गठरी में जो एक अजीब-सा उभार था, वह मंच-तलवार है और बेंत के संदूक में पोशाकें व घर-गृहस्थी का सामान है। मैंने ग़लती की और ख़ुद को बरबाद कर लिया। मेरे भाई ने कोकू में घर-परिवार सँभाल लिया और सचमुच वहाँ के लिए बेकार हो गया।
'मेरा ख़्याल था कि तुम नागाओका की सराय के हो।
नहीं, ऐसा नहीं है। दोनों स्त्रियों में जो बड़ी है, वह मेरी पत्नी है। वह तुमसे एक साल छोटी है। वह अपना दूसरा बच्चा, इन्हीं गर्मियों में पैदल यात्रा करते समय, खो बैठी। वह सिर्फ़ एक सप्ताह जीवित रहा। अभी यह पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं हुई है। बूढ़ी स्त्री, उसकी माँ और लड़की मेरी बहिन है।
तुमने बताया था कि तुम्हारी एक तेरह साल की बहिन है।
हाँ, यह वही है। मैंने बहुत जतन किया कि उसे इस धंधे में न पड़ने दूँ। मगर कई कारणों से वह बात सध न सकी।
उसने बताया कि उसका नाम ईंकिची, उसकी पत्नी का चियोको और नर्तकी-बहन का नाम काओरू है। दूसरी लड़की यूरिको सहायक की तरह है। वह सोलह साल की है और उन सबमें वही एक असल में ओशिमा की है। ईंकिची बहुत भावुक हो उठा। वह नदी की तरफ़ टकटकी लगाकर देखता रहा, और एक बार मुझे लगा कि रोनेवाला है।
वापस आते हुए, सड़क से कुछ दूर, हमने छोटी नर्तकी को एक कुत्ते को दुलारते देखा। उसने अपना बनाव-शृंगार धो डाला था।
“सराय आओ न?” मैंने उधर से गुज़रते हुए कहा।
“मैं अपने आप नहीं आ सकती।
“अपने भाई को ले आना।
“धन्यवाद! मैं अभी आती हूँ।
थोड़ी देर बाद ईंकिची आ खड़ा हुआ।
और सब कहाँ हैं?
वे माँ से छुट्टी न पा सके।
मगर उनमें से तीन, पुल को खट-खट पार करती हुई आईं और ज़ीने के ऊपर चढ़कर जहाँ हम चैकर्ज खेल रहे थे, पहुँचीं।
विस्तार से झुक-झुककर अभिवादन कर वे झिझकती-सी हॉल में खड़ी रहीं। चियोको सबसे पहले कमरे में आई। उसने प्रफुल्लता से औरों को बुलाया, आ जाओ, आओ। इसके कमरे में औपचारिकता की ज़रूरत नहीं।
उसके लगभग एक घंटे बाद, वे सब नीचे नहाने गईं। उन्होंने मुझे भी साथ नहाने के लिए ज़ोर दिया। पर तीन युवा स्त्रियों के साथ नहाने का विचार कुछ ज़्यादा ही उत्तेजक था। मैंने कह दिया कि मैं कुछ देर में आऊँगा। एक मिनट बाद वह छोटी नर्तकी ऊपर आई।
“चियोको कहती है, अगर तुम अभी नीचे आकर स्नान करो तो वह तुम्हारी पीठ धो देगी।
पर हुआ यह कि वह मेरे पास रुक गई और हम दोनों चैकर्ज खेलते रहे। खेलने में वह बहुत तेज़ निकली। मैं खेलने में बहुतों से होशियार हूँ और ईंकिची व औरों के साथ खेलने में मुझे ज़रा भी दिक़्क़त नहीं हुई, पर ये तो मुझे हरा देने की हद तक पहुँच गई। इससे बड़ी राहत महसूस हुई कि जानबूझकर घटिया खेल नहीं खेलना पड़ा। शुरू में एकदम तनी कायदे की मूर्ति बनी, पासा फेंकने को हाथ बढ़ाती हुई, वह जल्दी ही अपने को भूल गई और बोर्ड के ऊपर पूरे ग़ौर से झुक गई। उसकी इतनी घनी केश-राशि जो नक़ली-सी लगती थी, मेरी छाती को छू रही थी। अचानक उसका चेहरा लाल हो गया।
मुझे क्षमा करें, मुझे इस बात पर डाँट पड़ेगी, कहती हुई वह आधा खेल छोड़कर भाग गई। बड़ी स्त्री नदी के पार सार्वजनिक स्नानगृह के पास खड़ी थी। चियोको और यूरिको नीचे वाले स्नानघर से लगभग उसी समय खटखट करती बाहर आईं और विदा का नमस्कार कहने की चिंता न कर, पुल पार, वापस हो लीं।
ईंकिची ने फिर दिन-भर मेरी सराय में बिताया, यद्यपि प्रबंधक की पत्नी, जो सबकी चिंता करने वाले स्वभाव की-सी थी, मुझे इस बात से सावधान कर चुकी थी कि ऐसे लोगों को खाना खिलाना, अच्छे खाने को बरबाद करना है।
जब मैं संध्या को राजपथ से होता हुआ उनकी सराय पहुँचा तो नर्तकी सैमीसेन का अभ्यास कर रही थी। मुझे देखकर उसने साज नीचे रख दिया, पर बड़ी स्त्री के कहने पर फिर उठा लिया।
मालूम हुआ कि गली के पार वाले रेस्तराँ की दूसरी मंज़िल पर हो रही पार्टी में ईंकिची कुछ पाठ करके सुना रहा था।
“दुनिया की क्या अजूबा चीज़ है वह?
“वह? वह एक नोह नाटक पढ़कर सुना रहा है।
कुछ विचित्र-सी बात कर रहा है, तुम अनुमान नहीं लगा सकते कि अगले क्षण वह क्या करेगा! उसके पास पूरा भानुमती का पिटारा है।
लड़की ने सकुचाते हुए मुझसे कहानी-संग्रह में से एक कहानी सुनाने को कहा।
मैंने ख़ुशी से एक आशा मन में सँजोए किताब को उठा लिया। जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो उसका सिर लगभग मेरे कंधे पर था और उसने बड़े ध्यान और ग़ौर की भावमुद्रा से ऊपर मेरी तरफ़, चमकदार बेझपकी आँखों से देखा। उसके नाक-नक़्शे में सबसे सुंदर वस्तु थी—उसकी बड़ी और कजरारी आँखें। भारी पलकों की रेखाएँ इतनी मनोहर कि कहा न जाए और उसकी हँसी! एक फूल की हँसी, जब उसके बारे में सोचता हूँ तो उसकी हँसी को फूल की-सी हँसी कहना, ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं लगती।
पढ़कर सुनाते कुछ ही मिनट बीते होंगे कि गली के पार वाले रेस्तराँ से एक सहायिका उसे बुलाने आई।
“मैं अभी वापिस आई, अपने कपड़ों को सँवारती वह बोली, “जाना नहीं। मैं बाक़ी भी सुनना चाहती हूँ।
हॉल में घुटनों के बल बैठकर, उसने बाकायदा जाने की आज्ञा ली।
हम लड़की को ऐसे देख पा रहे थे, जैसे बग़लवाले कमरे में हो, हमारी तरफ़ पीठकर उसने ढोलक के सामने घुटने टिकाए। मंद गति लय ने मुझे एक निर्मल उच्छ्वास से भर दिया।
स्त्री ने कहा, “पार्टी में तभी जान आती है, जब ढोलक शुरू होती है। चियोको और यूरिको कुछ देर बाद रेस्तराँ में गईं और लगभग एक घंटे में चारों वापस आ गईं।
उन्होंने बस इतना ही दिया। नर्तकी ने लापरवाही से पचास येन अपनी भिंची मुट्ठी से बड़ी स्त्री के हाथ में डाल दिए। मैंने बाक़ी कहानी पढ़कर सुनाई, और उस बच्चे की बातें करते रहे, जो गुज़र गया था। मैं उनके साथ न जिज्ञासावश रुका हुआ था और न ही उनके प्रति किसी प्रकार की कृपालु भावना की प्रतीति थी। असल में मेरे चित्त से यह बात उतर चुकी थी कि वे निम्न वर्ग के हैं—पथ-यात्री रंगकर्मी। उन्हें इसका एहसास था और यह बात उनके मर्म को स्पर्श करती थी। उन्होंने यह पूर्ण निश्चय कर लिया था कि मैं ओशिमा में ज़रूर मिलूँ।
हम इन्हें बूढ़े के घर में ठहराएँगे।
उन्होंने प्रत्येक बात सोच-विचार कर तय कर ली। “वह काफ़ी बड़ा रहेगा। और अगर हम बूढ़े को कहीं और रख देंगे, तब तो ये जितने दिन चाहें, वहीं रहकर शांति से पढ़ाई-लिखाई कर सकते हैं।
“हमारे दो छोटे-छोटे घर हैं, वे हम तुम्हें दे सकते हैं। यह भी निश्चय हो गया कि नए वर्ष के उपलक्ष्य में ओशिमा में जो नाटक वे करेंगे, उसमें मैं उन्हें सहयोग दूँगा।
मैंने पाया कि पथ-यात्री रंगकर्मियों का जीवन कष्टसाध्य नहीं था, जैसी मैंने कल्पना की थी। बल्कि सहज-सुगम-सुविधाजनक व विश्रांति का, पर्वतों और घाटियों की सुगंध साथ लिए। तिस पर यह मंडली तो घनिष्ठ पारिवारिक प्रेम से जुड़ी थी। केवल वेतन पर नियुक्त लड़की यूरिको, लजीली आयु में पैर रख चुकी थी, इसीलिए मेरी उपस्थिति में संकोच अनुभव करती थी।
आधी रात बीत चुकी थी, जब मैंने उनकी सराय छोड़ी। लड़कियाँ मुझे दरवाज़े तक विदा करने आईं और छोटी नर्तकी ने मेरी सैंडल पलटकर ऐसे रुख रखीं कि मैं बिना मुड़े, उनमें पैर रख सकूँ। वह बाहर को झाँकी और स्वच्छ आकाश की तरफ़ ऊपर ताका।
“आह! चाँद निकल आया है और कल हम शिमोदा में होंगे। मुझे शिमोदा बहुत अच्छा लगता है। हम बच्चे के लिए प्रार्थना करेंगे और माँ ने वायदा किया था कि वह मुझे कंघी देंगी। और उसके बाद कितनी तरह की चीज़ें हैं जो हम कर सकेंगे। क्या आप मुझे मूवी ले चलेंगे?
लगता है कि कुछ ऐसा है वहाँ, जिसने शिमोदा की सड़क की पटरियों को, ईजू और आमागी के गरम जलस्रोतों के इलाक़े में घूमने वाले ख़ानाबदोश रंगकर्मियों के लिए उनका घरनुमा ठिकाना बना दिया है।
सामान उसी तरह अलग-अलग बाँट दिया गया, जैसा आमागी दर्रे को पार करते दिन किया था। पिल्ला एक अभ्यस्त यात्री की तरह शांतचित्त अपने अगले पंजे बड़ी स्त्री की बाँहों पर रखे लेटा था। आमागी से हम फिर पर्वतीय प्रांत में पहुँचे। हमने समुद्र के ऊपर चमकते प्रात: काल के सूर्य को देखा, जो हमारी पर्वतीय घाटी को उष्णता प्रदान कर रहा था। नदी के मुहाने पर एक समुद्रीतट श्वेत और खुलता हुआ दिखाई दिया।
यह है होशिमा, कितना विशाल! तुम सचमुच आओगे न? ज़रूर आओगे न? नर्तकी ने कहा।
किसी कारण से—क्या शरत के आकाश की स्वच्छता थी, जिसके कारण ऐसा लगा? वह समुद्र जिसके ऊपर सूर्य उग रहा था, झरने की फुहारों जैसे कुहरे से आच्छादित था। शिमोदा कोई दस मील पर था। कुछ देर के लिए पहाड़ों ने समुद्र को ओट में कर दिया। चियोको ने मंद अलसाए स्वर में एक गाना गुनगुनाया।
सड़क दो शाखाओं में बँटी हुई थी। एक कुछ चढ़ाई का रास्ता था, जो दूसरे से एक मील छोटा था। मैं छोटा खड़ी चढ़ाई वाला रास्ता पकडूँ या लंबा सीधा रास्ता? मैंने छोटा रास्ता पकड़ा।
सड़क, एक जंगल में से घूमकर जाती थी। और एक जगह चढ़ाई इतनी सीधी आई कि उस पर चढ़ना ऐसा था, जैसे हाथ पर हाथ रखकर दीवार पर चढ़ना। इस पर भरे हुए पत्तों ने एक फिसलनी तह बिछा दी थी। जब साँस लेने में ज़्यादा तकलीफ़ हुई तो एक अविचारी दुःसाहस उभर आया। और मैं तेज़ से तेज़ चाल से अपने को धकेलता, हर क़दम पर घुटने को मुट्ठी से दबाता, आगे बढ़ा। और सब इतने पीछे छूट गए कि मुझे पेड़ों से छनकर आती, सिर्फ़ उनकी आवाज़ सुनाई दे रही थी, लेकिन वह नर्तकी अपने घाघरे को ऊँचा खोसे, छोटे नन्हें क़दमों से मेरे पीछे आ रही थी। वह मुझसे कुछ गज़ पीछे ही रहती, न वह कोशिश करती कि मेरे और नज़दीक हो जाए और न ये कि बहुत पीछे हट जाए। कभी-कभी मैं उससे बात करता और वह रुककर अपनी छोटी-सी चौंकी-चौंकी हँसी से जवाब देती। और जब वह बोलती तो मैं भी रुक जाता कि शायद वह चलती हुई मेरे पास तक आकर मेरे साथ हो ले, पर जब तक मैं आगे न चल पड़ता, वह रुकी रहती और वही दो गज़ का फ़ासला रखकर पीछे-पीछे चलती।
सड़क और भी खड़ी चढ़ाई वाली और चक्करदार हो गई। मैं अपने को तेज़ी से आगे ले जा रहा था और वह भी पीछे-पीछे आती रही, वही दो गज़ की दूरी रखे, पूरे मनोयोग और दृढ़ संकल्प के साथ। पहाड़ सन्नाटे में थे। अब औरों की आवाज़ मुझे सुनाई नहीं दे रही थी।
“आप टोकियो में कहाँ रहते हैं?
एक शयनशाला (डार्मिटरी) में, असल में मैं टोकियो में नहीं रहता।
मैं टोकियो गई हूँ। मैं एक बार नृत्य करने गई थी। जिन दिनों चेरी फूल रही थी, पर मैं बहुत छोटी थी उस समय, मुझे वहाँ का कुछ याद नहीं।
आपके माता-पिता जीवित हैं? वह फिर बात शुरू करती है, आप कभी कोफू गए हैं?
वह बातें करती, या तो शिमोदा की मूवीज के बारे में, या मरे हुए बच्चे की।
हम चोटी पर पहुँच गए। अपनी ढोलक को एक बेंच पर, झड़े पत्तों के बीच टिकाकर, उसने अपना मुँह रुमाल से पोंछा। उसके बाद उसका ध्यान अपने पैरों की तरफ़ गया, पर उसने अपना इरादा बदल लिया। और उसकी जगह मेरे किमोनू के घाघरे को झाड़ा, मैं अचकचाकर पीछे को हटा और वह घुटनों के बल गिर पड़ी। मेरे सामने झुके-झुके जब उसने आगे और पीछे से मुझे अच्छी तरह झाड़ दिया, तो खड़ी होकर अपने घाघरे को नीचे किया, घाघरा अभी तक जैसे चलने के समय ऊपर को खोस रखा था, वैसा ही था। मैं हाँफ रहा था, उसने मुझे नीचे बैठ जाने को कहा।
बेंच के पास से नन्हें पक्षियों का एक झुंड उड़ा। हवा इतनी गर्म थी कि पक्षीदल बैठा तो सूखी पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। मैंने अपनी उँगली से एक-दो बार ढोलक को थपथपाया तो पक्षी चौंककर उड़ गए।
मुझे प्यास लग रही है।
देखूँ, अगर पास में कहीं पानी मिल जाए?
पर थोड़ी देर बाद वह पीले पड़े पत्तों के बीच से ख़ाली हाथ लौट आई।
“आशिमा में क्या करती रहती हो?
उसने दो-तीन लड़कियों के नाम लिए, जिनका मेरे लिए कुछ अर्थ न था और पुरानी यादों की बेसिर-पैर की बातें सुनाती रही। वह आशिमा के नहीं, बल्कि कोफू के बारे में बताती रही, जिससे ज़ाहिर था कि उसने ग्रैमर स्कूल में पहली दूसरी कक्षा तक पढ़ाई की थी। अपनी सहेलियों की स्मृतियाँ जैसे-जैसे उसके मन में तिरती आतीं, वह भोले-भोलेपन से उनके बारे में बोलती चली जाती।
ईंकिची और दोनों नवयुवतियाँ दस मिनट बाद वहाँ पहुँचीं और उनसे बड़ी वाली महिला और भी दस मिनट बाद। नीचे उतरते समय मैं जानबूझकर ईंकिची से बातें करता, पीछे रहा। मगर लगभग दो सौ गज़ आगे से, वह छोटी नर्तकी दौड़ती हुई पीछे आई।
नीचे एक पानी का झरना है। वे तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं कि तुम पहले पानी पियो।”
मैं उसके साथ नीचे की तरफ़ दौड़ा। छायादार चट्टानों में से स्वच्छ निर्मल जल छलछला रहा था। स्त्रियाँ उसके चारों ओर खड़ी थीं।
“पानी पियो। हमें लगा कि शायद हमारे झकोल देने के बाद तुम पानी न पियो।
मैंने हाथों की ओक बनाकर पानी पिया। स्त्रियाँ थोड़ी देर बाद वहाँ से चलीं। उन्होंने अपने स्माल गीले किए और चेहरे पर आया पसीना धोया।
ढलान से उतरकर हम शिमोदा राजमार्ग पर निकल आए। राजमार्ग से नीचे, जहाँ-तहाँ, कोयला बनाने वालों की भट्ठियों से धुएँ की लपटें ऊपर उठ रही थीं। हम लोग एक लकड़ियों के ढेर पर सुस्ताने बैठ गए। नर्तकी, पिल्ले के झबरे बालों को गुलाबी कंघी से साफ़ करने लगी।
बड़ी स्त्री ने टोका, “तुम दाँतें तोड़ दोगी।'
सब ठीक है। शिमोदा में मुझे नई मिलने वाली है। यह कंघी वह अपने जूड़े में लगाए रखती थी। मैंने सोचा हुआ था कि युगानो पहुँचने के बाद यह कंघी उससे माँग लूँगा। कुत्ते पर कंघी को फेरते देख मुझे कुछ परेशानी हुई।
उसमें क्या है? बस एक सोने का दाँत ही तो उसे लगवाना पड़ेगा। फिर उस तरफ़ ध्यान ही नहीं जाएगा, एकाएक नर्तकी की आवाज़ सुनाई दी।
मैंने मुड़कर पीछे देखा।
ज़ाहिर था कि वे मेरे टेढ़े दाँत के बारे में बात कर रही थीं। चियोको ने बात उठाई होगी और नन्हीं नर्तकी ने सोने का दाँत लगाने का सुझाव दिया होगा। न मुझे यह बुरा लगा कि वे मेरे बारे में बात कर रही हैं और न कोई विशेष चाहना हुई कि अपने बारे में उनकी बातें सुनूँ।
वह भला है। है न बहुत भला? लड़की की आवाज़ फिर आई।
वह बहुत ही अच्छा लगता है।
वह सचमुच ही बहुत अच्छा लगता है।
मुझे तो कोई ऐसा ही मिले, यह जी चाहता है।
उसके बोलने का ढंग मुक्त था, तरुण और मन:पूत, ऐसा कि जो आया, सो कह दिया जिससे मेरे लिए अपने को वास्तव में स्पष्ट अच्छा मानना संभव हुआ। मैंने नवीन भाव से भर ऊपर पहाड़ों को देखा। इतने चमकीले कि मेरी आँखों में कुछ चुभन-सी हुई। मैं उन्नीस वर्ष की उम्र में ही अपने को मानव विद्वेषी, एकाकी, कहीं न खपने वाला व्यक्ति मानने लगा था। और इस धारणा की निराशा ने ही मुझे ईजू की तरफ़ धकेला था। और अब मैंने अपने को प्रतिदिन की भाषा में अच्छा इंसान कहाने के योग्य अनुभव किया। इसका अर्थ मेरे लिए क्या था, यह अभिव्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं। पहाड़ और भी चमकीले होते गए। हम शिमोदा और समुद्र के समीप पहुँच गए थे।
जब-तब गाँव की चौहद्दी के बाहर एक सूचना लिखी दिखाई देती—'ख़ानाबदोश रंगकर्मी बाहर रहें!”
शिमोदा के उत्तरी सिरे पर कोशिया एक सस्ती सराय थी। मैं औरों के पीछे दूसरी मंज़िल पर एक अटारीनुमा कमरे में पहुँचा। उस पर कोई भीतरी छत नहीं पड़ी थी। बाहरी छत इतनी ढलवाँ थी कि जिस खिड़की से बाहर की तरफ़ झाँका जा सकता था, उसके पास सीधे होकर आराम से बैठना असंभव था।
बड़ी वाली स्त्री ने लड़की के विषय में परेशानी-सी जताते हुए पूछा, तेरा कंधा तो नहीं अकड़ गया? हाथों में दर्द तो नहीं है?
लड़की ने ढोलक बजाने की अत्यंत सुघड़, सुडौल मुद्राओं को प्रदर्शित किया।
बिलकुल नहीं दुख रहे। मुझे कुछ तकलीफ़ नहीं होगी। ज़रा भी नहीं थक रहे।
बड़ी अच्छी बात है। मुझे फ़िकर-सा हो रहा था।
मैंने ढोलक को उठाया, भारी है यह।
हाँ, जितना तुमने समझा था उससे अधिक भारी है। कहती हुई वह हँसी।
तुम्हारी जो पोटली है, उससे अधिक बोझ है इसका। उन्होंने अन्य ठहरे हुए अतिथियों से परस्पर अभिवादन किया। फेरी लगाने वालों और यात्री-रंगकर्मियों से होटल भरा था। लगता था कि शिमोदा स्थानांतरण करने वालों का बसेरा है। नर्तकी ने बाहर-अंदर लपकते-झपकते बच्चों के हाथों में पैसे दिए। जैसे ही मैं जाने को तैयार हुआ, वह मेरी ख़ातिर सैंडिलों को दरवाज़े में ठीक ढंग से रखने दौड़ी।
मुझे मूवी ले जाओगे न! उसने जैसे अपने से ही फुसफुसाकर कहा। थोड़ी दूर तक कोशिया सराय के एक बदनाम-से दिखने वाले आदमी के बताए रास्ते चलकर मैं और ईंकिची एक सराय में गए, जो वहाँ के भूतपूर्व मेयर की कही जाती थी। हम दोनों ने इकट्ठे स्नान किया और दुपहर का खाना खाया, जिसमें समुद्र से आई ताज़ी मछली थी।
जब वह जाने लगा, मैंने उसे कुछ पैसे पकड़ाए, कुल के अनुष्ठान के लिए कुछ फूल ख़रीद लेना।'' मैंने उसे बता दिया था कि मुझे कल सुबह की नाव से टोकियो जाना है। असल में मेरे पैसे ख़त्म हो गए थे, पर उनको यही जताया कि मुझे स्कूल जाना है।
ठीक है, पर इन सर्दियों में तो तुमसे हर हालत में मिलना होगा ही, बड़ी वाली स्त्री ने कहा, हम सब तुम्हें जहाज़ पर लेने आएँगे। तुम ज़रूर ख़बर करना कि कब आ रहे हो। हमारे पास ही ठहरोगे। यह तो हम सोच ही नहीं सकते कि हम तुम्हें होटल में जाने देंगे। याद रखना कि हम तुम्हारा इंतज़ार करेंगे और सब तुम्हें नाव पर लेने जाएँगे।
जब सब कमरे से चले गए तो मैंने चियोको और यूरिको से अपने साथ मूवी चलने को कहा। चियोको पीली थकी-माँदी पेट को हाथों से दबाए लेटी हुई थी, मैं नहीं जा सकूँगी। धन्यवाद, असल में मैं अभी इतना चलने लायक़ नहीं हुई हूँ।
यूरिको स्तंभित-सी ज़मीन की ओर ताक़ती रही। छोटी नर्तकी नीचे, सराय के बच्चों के साथ खेल रही थी। जब उसने मुझे नीचे उतरते देखा तो वह दौड़ी और बड़ी वाली स्त्री से मूवी जाने की आज्ञा लेने की साँठ-गाँठ बैठाने लगी। किंतु वह वापिस आई तो दूर-दूर और हतोत्साहित थी।
मुझे तो इसमें कुछ ख़राबी नज़र नहीं आती। वह क्यों नहीं उसके साथ अकेली जा सकती? ईंकिची ने तर्क किया। मुझे इस बात को समझने में कठिनाई हो रही थी, पर स्त्री झुकी नहीं। जब मैं सराय से बाहर निकला तो नर्तकी बाहर हॉल में बैठी कुत्ते को थपथपा रही थी। यह नई औपचारिकता इतनी भाव-शून्य रूखी-सूखी थी कि मैं अपने को उससे बात करने को उकसा नहीं पाया और लगा, जैसे उसमें भी आँख उठाने की शक्ति नहीं थी।
मैं अकेला मूवी देखने गया। एक स्त्री, छोटी कौंध बत्ती की रोशनी में संवाद पढ़ रही थी। मैं तत्काल ही वहाँ से चल पड़ा और वापिस अपनी सराय आ गया। बहुत देर तक मैं खिड़की की चौखट पर कोहनियाँ टिकाए बाहर की तरफ़ ताक़ता रहा। शहर अँधेरे में डूब गया था। मुझे लगा, जैसे कहीं दूर से आती ढोलक की आवाज़ सुन रहा हूँ। बिना किसी समुचित कारण के मैंने पाया कि मैं रो रहा हूँ।
अगली सुबह सात बजे जब मैं नाश्ता कर रहा था, ईंकिची ने नीचे सड़क पर से मुझे पुकारा। ऐसा लगा कि वह मेरी ख़ातिर में शिष्टाचारी किमोनू पहनकर आया था। स्त्रियाँ उसके साथ नहीं थीं। मैं सहसा एकाकी हो गया। उसने कहा, वे सब तुम्हें विदाई देने आना चाहती थीं। पर कल रात हम इतनी देर तक बाहर रहे कि वे सुबह बिस्तर से जल्दी उठने में असमर्थ थीं। उन्होंने मुझसे कहा है कि उनकी तरफ़ से क्षमा माँग लूँ। वे इन सर्दियों में तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगी।
शरत की ठंडी हवा शहर में बह रही थी। जहाज़ पर पहुँचने के रास्ते से उसने मेरे लिए कुछ फल और तंबाकू ख़रीदा और 'काओरो' नाम की एक कोलोन की शीशी।
उसका नाम 'काओरो' है न? उसने मुस्कराते हुए कहा।
जहाज़ पर संतरे खाना ठीक नहीं रहता, पर (पसीमैन) खाकी खा सकते हो। वे समुद्री मितली से फ़ायदा करते हैं।
मैं क्यों न तुम्हें दे दूँ। अपने सामान से स्कूली टोपी निकालकर उसकी कुछ सलवटें निकालते हुए मैंने कहा और अपनी शिकारी टोपी उसे पहना दी और हम दोनों हँस पड़े। जैसे ही हम जहाज़ी घाट पर आए कि मेरे दिल ने एक तेज़ उछाल लिया। देखा कि वह छोटी नर्तकी पानी के किनारे बैठी है। जब तक हम उस तरफ़ ऊपर बढ़ते रहे, वह बिना हिले-डुले वहीं बैठी रही, सिर्फ़ सिर झुकाकर, चुपचाप अभिवादन जताया। उसके चेहरे पर शृंगार के कुछ निशान ही शेष थे, जो मुझे बहुत मनोरम लगे और आँखों के कोओं में लगा चटक लाल रंग उसे एक नवीन यौवन प्रदान करता प्रतीत हुआ।
“और सब भी आ रही हैं? ईंकिची ने पूछा।
उसने 'न' में अपना सिर हिलाया।
वे सब अभी बिस्तर में हैं?
उसने 'हाँ' में सिर हिलाया।
ईंकिची जहाज़ और माल-नौका के टिकट ख़रीदने गया। मैंने बातचीत करने की कोशिश की, मगर वह चुपचाप उस बिंदु पर नज़र टिकाए रही, जहाँ नहर बंदरगाह में जाकर मिल रही थी। बीच-बीच में, इससे पहले कि मैं बात ख़त्म करूँ, वह जल्दी से ज़रा-सा सिर हिला देती थी। माल-नौका ज़ोर से उछली। नर्तकी अपने होंठों को कसकर दबाए सामने की तरफ़ ताक़ती रही। जैसे ही मैंने रस्सी की सीढ़ी पर पैर रखा, तो मुड़कर देखा। मैं अलविदा कहना चाहता था, पर सिर्फ़ सिर ही झुका पाया। माल-नौका खींच ली गई। ईंकिची ने शिकारी टोपी हिलाई और जैसे-जैसे शहर दूर और दूर होता गया, लड़की ने कोई सफ़ेद-सी चीज़ हिलानी शुरू की।
मैं रेलिंग के सहारे खड़ा, ओशिमा की तरफ़ तब तक ताक़ता रहा, जब तक ईजू प्रायद्वीप का दक्षिणी कोना, निगाहों से ओझल नहीं हो गया। ऐसी प्रतीति हुई, जैसे मैंने बहुत देर पहले नर्तकी से विदा ली थी। मैं अंदर गया और अपने कमरे में घुसा। समुद्र इतना तूफ़ानी था कि सीधा बैठना भी मुश्किल था। एक जहाज़ी कर्मचारी आकर समुद्री मितली के लिए धातु के तसले दे गया। मैं निर्मल और रिक्त मन लिए, किताबी झोले को सिरहाना लगाकर लेट गया। अब मैं समय बीतने के प्रति सचेत नहीं रहा था। मैं चुपचाप रोता रहा और जब गीले गालों पर ठंडक का एहसास हुआ, तो झोले को ऊपर उलट लिया। एक किशोर लड़का मेरे पास लेटा था, वह ईजू के किसी फ़ैक्टरी मालिक का लड़का था और हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करके टोकियो जा रहा था। मेरी स्कूल की टोपी ने उसका ध्यान आकर्षित किया था।
कुछ देर बाद उसने पूछा, क्या कुछ बुरा घट गया है?
नहीं, मैंने किसी से विदा ली है। सच्ची बात छिपाने की कोई तुक दिखाई नहीं दी और आँसुओं के कारण कोई शर्म नहीं आई। मैं कुछ नहीं सोच रहा था। ऐसा लगा, जैसे मैं शांत-परितोष की गहरी नींद में हूँ। मुझे पता नहीं चला, कब संध्या हो आई, किंतु जब आतामी से गुज़रे तो बत्तियाँ जल चुकी थीं। मुझे भूख लग रही थी और कुछ सर्दी भी। लड़के ने अपना खाना निकाला और मैंने उसके साथ ऐसे खा लिया, जैसे मेरा ही हो। बाद में उसके ही लबादे के थोड़े-से हिस्से से अपने को ढक लिया। मैं एक मोहक शून्य में तैर रहा था और मुझे यह सहज स्वाभाविक लगा कि उसकी सहृदयता को अपनाकर लाभ ले लूँ। प्रत्येक वस्तु एक आलिंगन करती समस्वरता में निमग्न थी।
बत्तियाँ बुझ गईं और समुद्र में पड़ी मछलियों और फलके में रखी मछलियों की गंध तेज़ हो गई। अँधियारे में, लड़के के पार्श्व में होने की गरमाई पा, स्वयं को आँसुओं के हवाले कर दिया। मेरा सिर, जैसे स्वच्छ जल उन्मुख हो, आनंदसिक्त बूँद-बूँद टपक रहा था, शीघ्र ही सब निःशेष हो जाएगा।
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par tum to bilkul tar ho. andar aao, apne ko sukhao. kahti hui wo mujhe apne niji kamre ki taraf le chali.
us kamre ka darvaza kholte hi mujhe sulagti aag ka garam thapeDa laga. main andar jakar aag ke paas baith gaya. mere kimonu se bhaap uthi. aag ki tapish itni zyada thi ki mera sir dukhne laga.
is beech vriddha, nartakiyon se baat karne bahar chali gai.
“achchha to, haan! ye hai wo chhoti si laDki, jo pahle tumhare saath i thi. abhi se itni baDi ho gai. are, ye to puri aurat ho gai hai! bahut achchhi baat hai n? upar se itni sundar bhi, laDkiyan jaldi baDhan leti hain. leti hain n?
shayad ek ghanta bita hoga ki mujhe aisa sunai diya, jaise ve jane ki taiyari mein hon. mera dil zor se dhaDka aur chhati par khinchav sa mahsus hua. par phir bhi itni himmat na hui ki uthu aur unke saath chal paDun. main aag ke paas baitha kulbulata raha. akhir aurten hi to hain, maan liya ki ve paidal chalne ki aadi hain—par agar main ek aadh meel pichhe chhoot bhi jaun, to bhi un tak pahunchne mein koi diqqat nahin hogi, mera man unke saath saath nachta hua chala gaya. mano unke prasthan ne man ko aisa karne ki svachhandta pradan ki ho.
“ve aaj raat kahan thahrenge? istri ke vapis aane par mainne puchha.
“is tarah ke log kahan thahrenge, kaun bata sakta hai? jahan unhen paisa dene vale milenge, vahin rah jayenge, unhen kya ye baat pahle se malum hoti hai ki ve kahan rukenge? uske aspasht tiraskar bhaav ne mujhmen avesh bhar diya. mainne svayan se kaha, agar iska kathan saty hai to wo nartki aaj ki raat mere kamre mein bitayegi!
barish, bundabandi mein badal gai thi. darre ke upar ka asman saaf ho gaya tha. mere liye vahan aur adhik der rukna mushkil ho gaya. yadyapi vriddha ne puri ummid bandhai ki das minat mein dhoop khil jayegi, naujavan! naujavan! kahti vriddh mere pichhe saDak tak dauDti i, yah bahut hai, jo tumne mujhe diya hai. main itna nahin le sakti. mere paise vapis karne ko rokne ke liye usne mera jhola zor se pakaDkar khincha, mainne paise vapis lene se mana kar diya. tab bhi wo mere saath qadam ghasitti chali i. usne ज़id ki ki wo kam se kam saDak tak mujhe chhoDne ayegi hi. wo kahti rahi, ye bahut zyada hain, mainne kuch bhi to nahin kiya iske badle. magar main ye baat yaad rakhungi aur ab tum is raste se phir guzroge, to tumhare liye kuch na kuch sahej rakhungi. tum phir aoge n? aoge zarur? main nahin bhulungi.
ek sau pachas yen ke sikkon ke liye itni kritaj~n bhavna marmasparshi thi. par mujh par chhoti nartki tak pahunchne ka junun savar tha aur uski buDhi dhimi chaal mujhe der kara rahi thi.
ant mein surang ke muhane tak pahunchakar, mainne use jhatakkar alag kiya. saDak, jiske ek taraf safed rang ki rok baaD kinare kinare lagi hui thi, surang ke munh se vidyut rekha si balkhati niche ko ja rahi thi. jhankaDi akriti ke niche, paas hi wo nartki aur uske sathi the. aadha meel aur chalkar main unke paas pahunch gaya. unke paas pahunchte hi, ekdam apni chaal ko dhimi kar, unki chaal se milakar chalna atpata lagta, isliye main un istriyon ke paas se bahut shaant tatasth bhaav ka dikhava karta guज़r gaya. mujhe aata dekh, unse koi das gaz aage chalta vekti meri taraf muDa, paidal chalne mein kafi mahir ho tum. qimat achchhi hai na ki barish ruk gai!
is tarah apna bachav pa, main uske saath chal paDa. wo idhar udhar ke parashn puchhne laga aur jab istriyon ne hamein baten karte dekha to ve bhi dhire dhire chaltin, hamare pichhe ho leen. purush ki kamar se bent ka bana ek bahut baDa baksa bandha tha. baDi vali istri ki banhon mein ek pilla tha aur donon yuvatiyan gathriyan uthaye theen. laDki ke paas uska Dhol aur Dhol ka sancha tha, jane kab baDi vali istri, batachit mein shamil ho gai.
vah ek school mein paDhne vala laDka hai. unmen se ek yuvati ne chhoti nartki se phusaphusakar kaha aur mere muDkar dekhte hi khil khil hansne lagi.
haan, yahi baat hai, itna to main bhi janti hoon, laDki ne palatkar kaha, “vidyarthi bahudha dveep aate hain.
purush ne bataya ki ve iiju dvipasmuh ke nagar oshima ke hain, ve vasant ritu mein prayadvip par ghumne phirne nikli theen aur ab sardi shuru ho gai thi aur jaDon ke kapड़e unke paas nahin the. dakshain mein shimoda mein aath das din bitakar ve naav se apne dveep ko laut jayenge.
laDki ne paas vali yuvati se baat ki, tumhen malum hai ki vidyarthi oshima mein tairaki karne aate hain?
garmi mein, meri samajh se. mainne pichhe dekhte hue kaha. wo akabka gai.
jaDon mein bhi. usne aisi halki nannhi avaz mein javab diya ki sunai bhi mushkil se de.
jaDon mein bhi. usne dusri istri ki taraf dekha aur kuch anishchit si hansi.
uska chehra laal ho gaya, haan mein zara si gardan hilai aur mukh mudra saumy ho gai. ‘‘bachchi pagli hai, baDi vali istri hansi.
yuganon se upar chhe saat meel tak saDak ka rasta nadi ke saath saath chalta hai. darre se utarte hi pahaDon ne dakshainai roop le liya tha. main aur wo vekti mitr ban gaye the. aur jaise hi niche ki taraf yuganon ki khaprail ki chhaten nazar ain, mainne kah Dala ki main unke saath shimoda bhi jaunga. wo behad khush nazar aaya.
ek purani dhurani saray ke samne pahunchakar baDi vali istri ne meri taraf apni drishti is tarah thahrai jaise ki ab hum paraspar vida lenge.
par wo sajjan to hamare saath chalna chahte hai. purush ne kaha.
“oh! kya sachmuch? usne baDi saral hardikta se kaha, kahte hain na yatra ka sathi jivan nati. lagta hai hum jaise gharib bhi bhramn yatra mein jaan Daal sakte hain. zarur, andar aao! hum sab ek pyala chaay piyen aur aram kar len.
hamne dusri manzil par jakar apna saman rakh diya. tinkon ki bichhi chataiyan aur darvaze gande, tute phute the. chhoti nartki niche se chaay lai. mere paas chaay late samay chaay ka pyala plate mein khaDakhDaya. apne bachav ki koshish mein usne tezi se pyala tikaya, par wo chaay bikhrane mein hi saphal hui. is had tak ki gaDbaD ke liye main zara kam hi taiyar tha.
haay re main! bachchi ab khatarnak umr mein pair rakh rahi hai. baDi istri ne bhaunhen chaDhakar, jhaDan ko uski taraf phenkte hue kaha.
tamakkar laDki chaay sametti rahi. upar kahi gai baat ne mujhe chaunka diya. chaay ghar mein buDhi istri dvara kahi gai baat se jagi uttejna aur tivrtar hoti mahsus hui.
lagbhag ek ghante baad, wo vekti mujhe dusri saray mein lekar gaya. tab tak main yahi mane baitha tha ki mujhe unhin ke saath thaharna hai.
hum, saDak se koi sau gaz door, chattanon aur patthar ki kati siDhiyon se niche utre. nadi ke tal mein garam pani ka sarvajnik srot tha aur usse zara aage ek pul, jo saray ke baghiche ki taraf jata tha.
hum donon ikatthe nahane gaye. usne bataya ki wo teis varsh ka hai aur uski patni ke do baar garbhpat ho chuke hain. wo hoshiyar na ho aisa nahin tha. mainne dharanaa bana li ki wo bhi meri tarah nartki ke samip rahne ke ख़atir saath saath paidal chalta raha tha.
suryast hote hote zor ki barish hone lagi. bhure aur safed pahaD do dishaon mein chapte ho phail gaye aur nadi kshan kshan mein adhik pili aur matmaili hone lagi. mujhe vishvas tha ki aisi raat ko nrity manDli bahar nahin niklegi, phir bhi main nishchint na baith saka. main do teen baar snanghar ke paas gaya aur phir bechain hokar apne kamre mein aa gaya.
itne mein door se barish mein Dholak ki ek mand thaap sunai di. mainne khiDki ko, sinkhche khinchkar zor ka dhakka dekar aise khola ki jaise use ukhaaD phenkunga aur khiDki se bahar jhukkar jhanka. Dholak ki thaap par apna dhyaan jamane ki koshish ki ki wo kahan se aa rahi hai aur is taraf aa rahi hai ya nahin. itne mein samisen ki jhankar sunai paDi aur beech beech mein ek istri kanth kisi ko pukarta aur zor ki hansi ka thahaka. aisa laga ki nartki ko, unki saray ke paas ek restaran mein party mein bulaya gaya tha. main itna andaz laga paya ki do teen istriyon aur teen chaar purushon ki avazen hain. apne aap ko dhiraj bandhaya ki vahan sab khatm hone vala hai aur ve sab jaldi hi yahan ayenge. party ab sidhe sidhe hansi mazaq ke saman se hullaDbazi par utarti malum hui. ek tikha istri svar andhere ko chirta hua chabuk ki jhannahat sa aaya.
mainne khule jangle se bahar ko jhanka tatha aur bhi kinare ke paas sarakkar tankar baith gaya. Dholak ki ek ek thaap mujhe rahat ki hilor ki pratiti karati. are! wo ab bhi vahan hai. . . wo vahan hai aur Dholak baja rahi hai aur har baar jaise hi Dholak ki thaap rukti ki chuppi ko sahna kathin ho jata. aisi anubhuti hoti, jaise barish mujhe apni bauchharon ke niche uthaye le ja rahi hai.
thoDi si der mein pairon ke ubaD khabaD paDne ki avaz i. kya ve luka chhipi khel rahe hain? kya ve naach rahe hain? aur phir shaant nistabdhata mein andhere mein ankhen phaDkar dekhta raha. wo kya kar rahi hogi? shesh puri raat uske saath kaun hoga?
mainne sinkhche band kiye aur bistar par let gaya. meri chhati mein tanav ke karan tees uth rahi thi. main phir snanghar gaya aur zor zor se pani ko chhapachhpaya. barish ruk gai. chaand nikal aaya. sharat ka akash barish se dhula hua, svachchh sphatik sa door chamak raha tha. mera man, ek kshan ko nange pair jakar use DhunDhane ka hua. ab do baj chuke the.
wo purush agle din subah meri saray mein aaya. main tabhi sokar utha tha. mainne use nahane ko nimantrit kiya. snanghar ke niche, barish se chaDhi hui nadi dakshainai iiju ke sharadiy surya mein garmai bah rahi thi. pichhli raat ki manovythit vyagrata ab bahut vastavik nahin rah gai thi. phir bhi main sunna chahta tha ki kya hua tha.
tumhari raat ki party mein khoob chahl pahal thee?
tum tak hamari avaz pahunch rahi thee?
haan, bilkul.
“yahin ke mool nivasi hain. ve bahut shor machate hain. par asal mein kuch zyada aisa nahin hai unmen.
uske liye wo ghatna jaise pratidin ki bilkul sadharan si baat thi. mainne bhi kuch aur nahin kaha.
dekho, ve sab nahane gaye hain, nadi ke paar! lanat hai un par, agar unhonne hamein nahin dekha hai. zara unka hansna to dekho.
usne ek sarvajnik snanghar ki taraf ishara kiya, jahan pani se uthti bhaap ke beech se chhah saat akar dikhai de rahe the.
ek chhota akar dhoop ki roshni mein bhagkar aaya aur usne chabutre ki munDer par ek minat khaDe hokar, is tarah banhen upar uthakar jaise nadi mein kudne ko taiyar ho, hamse kuch kaha. ye, wo chhoti nartki thi. mainne use dekha. uski kishor tangen, shilp nirmit gori deh. aur mujhe pratiti hui jaise taze pani ka ek jhonka mere hirdai par se prakshalan karta hua, chala gaya. main khushi se hans paDa. wo ek bachchi thi. keval ek bachchi, ek aisi bachchi, jo apne mitr ko dekhkar khushi mein nange badan, dhoop mein bhagkar panjon ke bal aa khaDi hui, main hansta hi raha. ek snigdh prasann hansi. jaise mere sir par se ek dhool ki tarah saaf ho gai ho. aur main hansta hi chala gaya. apni ghani kesh rashi ke karan, wo baDi dikhai deti thi aur isliye bhi ki uska pahnava aur shringar pandrah solah saal ki laDki ka sa kiya gaya tha. main vastav mein bahut baDi bhool kar baitha tha.
jab donon istriyon mein se baDi vali baghiche ke phulon ko dekhne udhar i, usse pahle hum donon mere kamre mein vapas pahunch chuke the. chhoti nartki pul paar ke aadhe raste tak uske pichhe i thi ki vriddha istri, tyori chaDhaye snanghar se bahar nikli. nartki ne apne kandhe uchkaye aur hansti hui vapas bhaag gai, jaise kah rahi ho ki agar aur naज़dik ayegi, to use Daant paDegi. baDi vali yuvati pul tak i.
udhar ki taraf aao. usne mujhse kaha.
udhar ki taraf aao. chhoti vali yuvati ne bhi uski baat dohrai. aur ve donon apni saray ki taraf muD gain.
purush, sandhya hone tak meri saray mein thahra raha.
us raat jab main ek yatri vikreta ke saath shatranj khel raha tha, baghiche mein Dholak sunai di. main baramde ki taraf jane ko utha to vikreta ne puchha, “ek aur na ho jaye? ek bazi aur khelen? mainne talne ki hansi hansi. kuch der baad baat ko i gai samajh wo kamre mein chala gaya.
iske turant baad hi donon yuvatiyan aur purush andar aaye, mainne puchha, “kya aaj raat ko tumhein aur kahin jana hai?
chahne par bhi aaj gerahak nahin milenge.
ve aadhi raat bitne ke baad tak vahin baithe chaikarj khelte rahe. jab ve chale gaye to mera dimagh saaf hua aur jaan mein jaan i. main janta tha ki mujhe neend nahin ayegi. mainne hall se us vikreta ko bulaya.
vaah khoob! wo fauran bazi lene aa gaya.
“aaj sari raat ki bazi hai. hum raat bhar khelenge. main aprajit anubhav kar raha tha. hamein agle din subah aath baje yuganon se chalna tha. mainne apni skuli topi kitabon ke jhole mein rakhi. ek shikari topi pahni, jo sarvajnik snanghar ke paas hi dukan se kharidi thi aur saray tak rajamarg se pahuncha. main nishchit bhaav se upar ki siDhiyon par chaDhta gaya. dusri manzil ki jhilmili khuli theen. magar main hall mein pahunchte hi ruk gaya. ve sab abhi bistar mein hi the.
nachnevali laDki, sabse chhoti vali istri ki baghal mein, bilkul mere panvon ke paas leti thi. wo ekdam laal ho gai aur haDabDakar ekdam se apne hathon se chehre ko daba liya. pahli shaam ke kuch shringar chihn abhi tak chehre par shesh the. ekdam manmohak chhota sa akar, meri nigah jaise hi niche ko us par paDi ki anand ki ek chamkili hilor pranon mein dauD gai. wo ekayek, munh Dhake Dhake palta lekar, bistar se bahar ho gai aur hall mein mere samne parnam karne jhuk gai. main gunga bana bhaunchakka khaDa rah gaya. yahi sochta ki kya karun!
wo adami aur baDi yuvati ek saath so rahe the. wo paraspar vivahit hain, ye baat pahle se dhyaan mein nahin i thi.
bistar mein se uthkar baithti hui baDi yuvati boli, “apko hamein kshama karna hoga, hum aaj hi chal dena chahte hain, lekin suna hai ki aaj raat ko yahan ek party hai. hamne socha hai ki dekhen kya kar sakte hain usmen! yadi aapko jana zaruri hai to, tab to phir hum shayad shimoda mein hi mil payen. hum hamesha koshiya saray mein thahrte hain. use DhunDhane mein mushkil nahin hogi. mujhe laga, jaise main nirvasit kar diya gaya.
ya aisa na karo ki kal tak thahar jao, purush ne sujhaya, yah kah rahi hai ki hamein aaj rukna hai. magar rasta katne mein batachit karne vala sathi ho to achchha rahta hai. chalo, kal sab saath chalen.
bahut baDhiya khyaal hai! istri ne haan mein haan milai, “kal to chahe kuch bhi ho, hum zarur chal paDenge. parson, bachche ko guzre unchaas din honge. barabar ye baat man mein rahi hai ki shimoda mein anushthan karna hai, jisse ye zahir ho ki kam se kam hamein yaad hai aur hum vahan samay par pahunchne ki jaldi mein rahe hain. apaki sachmuch baDi kripa hogi—mere man mein ye baat bina aaye nahin rahti ki is sabke pichhe zarur kuch karan hai ki hum paraspar is tarah mitr ban gaye.
main ek din aur rukne ko taiyar ho gaya aur apni saray vapis chala gaya. unke taiyar hokar aane ke intzaar mein main gande chhote se daftar mein baithkar prabandhak se baat karta raha. thoDi der mein wo purush aaya aur hum donon shahr se thoDi door ek ramnaiy pul tak gaye. wo railing ke sahare tikkar apne bare mein batane laga. wo kafi arse tak tokyo ki ek naatk manDli mein raha tha. kabhi kabhi wo ab bhi oshima ke natkon mein abhinay karta tha aur vaise saDkon par hoti partiyon mein agar bulaya jata tha, to abhinetaon ki naqal utarkar dikha sakta tha.
usne bataya ki uski gathri mein jo ek ajib sa ubhaar tha, wo manch talvar hai aur bent ke sanduk mein poshaken va ghar grihasthi ka saman hai. mainne ghalati ki aur khu ko barbad kar liya. mere bhai ne koku mein ghar parivar sanbhal liya aur sachmuch vahan ke liye bekar ho gaya.
mera khyaal tha ki tum nagaoka ki saray ke ho.
nahin, aisa nahin hai. donon istriyon mein jo baDi hai, wo meri patni hai. wo tumse ek saal chhoti hai. wo apna dusra bachcha, inhin garmiyon mein paidal yatra karte samay, kho baithi. wo sirf ek saptah jivit raha. abhi ye puri tarah svasth bhi nahin hui hai. buDhi istri, uski maan aur laDki meri bahin hai.
tumne bataya tha ki tumhari ek terah saal ki bahin hai.
haan, ye vahi hai. mainne bahut jatan kiya ki use is dhandhe mein na paDne doon. magar kai karnon se wo baat sadh na saki.
usne bataya ki uska naam iinkichi, uski patni ka chiyoko aur nartki bahan ka naam kaoru hai. dusri laDki yuriko sahayak ki tarah hai. wo solah saal ki hai aur un sabmen vahi ek asal mein oshima ki hai. iinkichi bahut bhavuk ho utha. wo nadi ki taraf takatki lagakar dekhta raha, aur ek baar mujhe laga ki ronevala hai.
vapas aate hue, saDak se kuch door, hamne chhoti nartki ko ek kutte ko dularte dekha. usne apna banav shringar dho Dala tha.
“saray aao n?” mainne udhar se guzarte hue kaha.
“main apne aap nahin aa sakti.
“apne bhai ko le aana.
“dhanyavad! main abhi aati hoon.
thoDi der baad iinkichi aa khaDa hua.
aur sab kahan hain?
ve maan se chhutti na pa sake.
magar unmen se teen, pul ko khat khat paar karti hui ain aur zine ke upar chaDhkar jahan hum chaikarj khel rahe the, pahunchin.
vistar se jhuk jhukkar abhivadan kar ve jhijakti si hall mein khaDi rahin. chiyoko sabse pahle kamre mein i. usne praphullata se auron ko bulaya, a jao, aao. iske kamre mein aupacharikta ki zarurat nahin.
uske lagbhag ek ghante baad, ve sab niche nahane gain. unhonne mujhe bhi saath nahane ke liye zor diya. par teen yuva istriyon ke saath nahane ka vichar kuch zyada hi uttejak tha. mainne kah diya ki main kuch der mein aunga. ek minat baad wo chhoti nartki upar i.
“chiyoko kahti hai, agar tum abhi niche aakar snaan karo to wo tumhari peeth dho degi.
par hua ye ki wo mere paas ruk gai aur hum donon chaikarj khelte rahe. khelne mein wo bahut tez nikli. main khelne mein bahuton se hoshiyar hoon aur iinkichi va auron ke saath khelne mein mujhe zara bhi diqqat nahin hui, par ye to mujhe hara dene ki had tak pahunch gai. isse baDi rahat mahsus hui ki janbujhkar ghatiya khel nahin khelna paDa. shuru mein ekdam tani kayde ki murti bani, pasa phenkne ko haath baDhati hui, wo jaldi hi apne ko bhool gai aur board ke upar pure ghaur se jhuk gai. uski itni ghani kesh rashi jo naqli si lagti thi, meri chhati ko chhu rahi thi. achanak uska chehra laal ho gaya.
mujhe kshama karen, mujhe is baat par Daant paDegi, kahti hui wo aadha khel chhoDkar bhaag gai. baDi istri nadi ke paar sarvajnik snangrih ke paas khaDi thi. chiyoko aur yuriko niche vale snanghar se lagbhag usi samay khatkhat karti bahar ain aur vida ka namaskar kahne ki chinta na kar, pul paar, vapas ho leen.
iinkichi ne phir din bhar meri saray mein bitaya, yadyapi prabandhak ki patni, jo sabki chinta karne vale svbhaav ki si thi, mujhe is baat se savdhan kar chuki thi ki aise logon ko khana khilana, achchhe khane ko barbad karna hai.
jab main sandhya ko rajapath se hota hua unki saray pahuncha to nartki saimisen ka abhyas kar rahi thi. mujhe dekhkar usne saaj niche rakh diya, par baDi istri ke kahne par phir utha liya.
malum hua ki gali ke paar vale restaran ki dusri manzil par ho rahi party mein iinkichi kuch paath karke suna raha tha.
“duniya ki kya ajuba cheez hai vah?
“vah? wo ek noh naatk paDhkar suna raha hai.
kuchh vichitr si baat kar raha hai, tum anuman nahin laga sakte ki agle kshan wo kya karega! uske paas pura bhanumti ka pitara hai.
laDki ne sakuchate hue mujhse kahani sangrah mein se ek kahani sunane ko kaha.
mainne khushi se ek aasha man mein sanjoe kitab ko utha liya. jab mainne paDhna shuru kiya to uska sir lagbhag mere kandhe par tha aur usne baDe dhyaan aur ghaur ki bhavmudra se upar meri taraf, chamakdar bejhapki ankhon se dekha. uske naak naqshe mein sabse sundar vastu thi—uski baDi aur kajrari ankhen. bhari palkon ki rekhayen itni manohar ki kaha na jaye aur uski hansi! ek phool ki hansi, jab uske bare mein sochta hoon to uski hansi ko phool ki si hansi kahna, zara bhi atishyokti nahin lagti.
paDhkar sunate kuch hi minat bite honge ki gali ke paar vale restaran se ek sahayika use bulane i.
“main abhi vapis i, apne kapDon ko sanvarti wo boli, “jana nahin. main baqi bhi sunna chahti hoon.
hall mein ghutnon ke bal baithkar, usne bakayada jane ki aagya li.
hum laDki ko aise dekh pa rahe the, jaise baghalvale kamre mein ho, hamari taraf pithkar usne Dholak ke samne ghutne tikaye. mand gati lai ne mujhe ek nirmal uchchhvaas se bhar diya.
istri ne kaha, “party mein tabhi jaan aati hai, jab Dholak shuru hoti hai. chiyoko aur yuriko kuch der baad restaran mein gain aur lagbhag ek ghante mein charon vapas aa gain.
unhonne bus itna hi diya. nartki ne laparvahi se pachas yen apni bhinchi mutthi se baDi istri ke haath mein Daal diye. mainne baqi kahani paDhkar sunai, aur us bachche ki baten karte rahe, jo guज़r gaya tha. main unke saath na jigyasavash ruka hua tha aur na hi unke prati kisi prakar ki kripalu bhavna ki pratiti thi. asal mein mere chitt se ye baat utar chuki thi ki ve nimn varg ke hain—path yatri rangkarmi. unhen iska ehsaas tha aur ye baat unke marm ko sparsh karti thi. unhonne ye poorn nishchay kar liya tha ki main oshima mein zarur milun.
ham inhen buDhe ke ghar mein thahrayenge.
unhonne pratyek baat soch vichar kar tay kar li. “vah kafi baDa rahega. aur agar hum buDhe ko kahin aur rakh denge, tab to ye jitne din chahen, vahin rahkar shanti se paDhai likhai kar sakte hain.
“hamare do chhote chhote ghar hain, ve hum tumhein de sakte hain. ye bhi nishchay ho gaya ki nae varsh ke uplakshy mein oshima mein jo naatk ve karenge, usmen main unhen sahyog dunga.
mainne paya ki path yatri rangkarmiyon ka jivan kashtasadhy nahin tha, jaisi mainne kalpana ki thi. balki sahj sugam suvidhajanak va vishranti ka, parvton aur ghatiyon ki sugandh saath liye. tis par ye manDali to ghanishth parivarik prem se juDi thi. keval vetan par niyukt laDki yuriko, lajili aayu mein pair rakh chuki thi, isiliye meri upasthiti mein sankoch anubhav karti thi.
aadhi raat beet chuki thi, jab mainne unki saray chhoDi. laDkiyan mujhe darvaze tak vida karne ain aur chhoti nartki ne meri sainDal palatkar aise rukh rakhin ki main bina muDe, unmen pair rakh sakun. wo bahar ko jhanki aur svachchh akash ki taraf upar taka.
“aah! chaand nikal aaya hai aur kal hum shimoda mein honge. mujhe shimoda bahut achchha lagta hai. hum bachche ke liye pararthna karenge aur maan ne vayada kiya tha ki wo mujhe kanghi dengi. aur uske baad kitni tarah ki chizen hain jo hum kar sakenge. kya aap mujhe muvi le chalenge?
lagta hai ki kuch aisa hai vahan, jisne shimoda ki saDak ki ptriyon ko, iiju aur amagi ke garam jalasroton ke ilaqe mein ghumne vale khanabadosh rangkarmiyon ke liye unka gharanuma thikana bana diya hai.
saman usi tarah alag alag baant diya gaya, jaisa amagi darre ko paar karte din kiya tha. pilla ek abhyast yatri ki tarah shantchitt apne agle panje baDi istri ki banhon par rakhe leta tha. amagi se hum phir parvatiy praant mein pahunche. hamne samudr ke upar chamakte pratah kaal ke surya ko dekha, jo hamari parvatiy ghati ko ushnata pradan kar raha tha. nadi ke muhane par ek samudritat shvet aur khulta hua dikhai diya.
yah hai hoshima, kitna vishal! tum sachmuch aoge n? zarur aoge n? nartki ne kaha.
kisi karan se—kya sharat ke akash ki svachchhata thi, jiske karan aisa laga? wo samudr jiske upar surya ug raha tha, jharne ki phuharon jaise kuhre se achchhadit tha. shimoda koi das meel par tha. kuch der ke liye pahaDon ne samudr ko ot mein kar diya. chiyoko ne mand alsaye svar mein ek gana gungunaya.
saDak do shakhaon mein banti hui thi. ek kuch chaDhai ka rasta tha, jo dusre se ek meel chhota tha. main chhota khaDi chaDhai vala rasta pakDun ya lamba sidha rasta? mainne chhota rasta pakDa.
saDak, ek jangal mein se ghumkar jati thi. aur ek jagah chaDhai itni sidhi i ki us par chaDhna aisa tha, jaise haath par haath rakhkar divar par chaDhna. is par bhare hue patton ne ek phisalni tah bichha di thi. jab saans lene mein zyada taklif hui to ek avichari duasahas ubhar aaya. aur main tez se tez chaal se apne ko dhakelta, har qadam par ghutne ko mutthi se dabata, aage baDha. aur sab itne pichhe chhoot gaye ki mujhe peDon se chhankar aati, sirf unki avaz sunai de rahi thi, lekin wo nartki apne ghaghre ko uncha khose, chhote nanhen qadmon se mere pichhe aa rahi thi. wo mujhse kuch gaz pichhe hi rahti, na wo koshish karti ki mere aur naज़dik ho jaye aur na ye ki bahut pichhe hat jaye. kabhi kabhi main usse baat karta aur wo rukkar apni chhoti si chaunki chaunki hansi se javab deti. aur jab wo bolti to main bhi ruk jata ki shayad wo chalti hui mere paas tak aakar mere saath ho le, par jab tak main aage na chal paDta, wo ruki rahti aur vahi do gaz ka fasla rakhkar pichhe pichhe chalti.
saDak aur bhi khaDi chaDhai vali aur chakkardar ho gai. main apne ko tezi se aage le ja raha tha aur wo bhi pichhe pichhe aati rahi, vahi do gaz ki duri rakhe, pure manoyog aur driDh sankalp ke saath. pahaD sannate mein the. ab auron ki avaz mujhe sunai nahin de rahi thi.
“aap tokyo mein kahan rahte hain?
ek shayanshala (Darmitri) mein, asal mein main tokyo mein nahin rahta.
main tokyo gai hoon. main ek baar nrity karne gai thi. jin dinon cheri phool rahi thi, par main bahut chhoti thi us samay, mujhe vahan ka kuch yaad nahin.
apke mata pita jivit hain? wo phir baat shuru karti hai, aap kabhi kophu gaye hain?
wo baten karti, ya to shimoda ki muvij ke bare mein, ya mare hue bachche ki.
hum choti par pahunch gaye. apni Dholak ko ek bench par, jhaDe patton ke beech tikakar, usne apna munh rumal se ponchha. uske baad uska dhyaan apne pairon ki taraf gaya, par usne apna irada badal liya. aur uski jagah mere kimonu ke ghaghre ko jhaDa, main achakchakar pichhe ko hata aur wo ghutnon ke bal gir paDi. mere samne jhuke jhuke jab usne aage aur pichhe se mujhe achchhi tarah jhaaD diya, to khaDi hokar apne ghaghre ko niche kiya, ghaghara abhi tak jaise chalne ke samay upar ko khos rakha tha, vaisa hi tha. main haanph raha tha, usne mujhe niche baith jane ko kaha.
bench ke paas se nanhen pakshiyon ka ek jhunD uDa. hava itni garm thi ki pakshidal baitha to sukhi pattiyon ki sarsarahat sunai di. mainne apni ungli se ek do baar Dholak ko thapthapaya to pakshi chaunkkar uD gaye.
mujhe pyaas lag rahi hai.
dekhun, agar paas mein kahin pani mil jaye?
par thoDi der baad wo pile paDe patton ke beech se khali haath laut i.
“ashima mein kya karti rahti ho?
usne do teen laDkiyon ke naam liye, jinka mere liye kuch arth na tha aur purani yadon ki besir pair ki baten sunati rahi. wo ashima ke nahin, balki kophu ke bare mein batati rahi, jisse zahir tha ki usne graimar school mein pahli dusri kaksha tak paDhai ki thi. apni saheliyon ki smritiyan jaise jaise uske man mein tirti atin, wo bhole bholepan se unke bare mein bolti chali jati.
iinkichi aur donon navayuvatiyan das minat baad vahan pahunchin aur unse baDi vali mahila aur bhi das minat baad. niche utarte samay main janbujhkar iinkichi se baten karta, pichhe raha. magar lagbhag do sau gaz aage se, wo chhoti nartki dauDti hui pichhe i.
niche ek pani ka jharna hai. ve tumhara intzaar kar rahe hain ki tum pahle pani piyo. ”
main uske saath niche ki taraf dauDa. chhayadar chattanon mein se svachchh nirmal jal chhalachhla raha tha. striyan uske charon or khaDi theen.
“pani piyo. hamein laga ki shayad hamare jhakol dene ke baad tum pani na piyo.
mainne hathon ki ok banakar pani piya. striyan thoDi der baad vahan se chalin. unhonne apne smaal gile kiye aur chehre par aaya pasina dhoya.
Dhalan se utarkar hum shimoda rajamarg par nikal aaye. rajamarg se niche, jahan tahan, koyala banane valon ki bhatthiyon se dhuen ki lapten upar uth rahi theen. hum log ek lakDiyon ke Dher par sustane baith gaye. nartki, pille ke jhabre balon ko gulabi kanghi se saaf karne lagi.
baDi istri ne toka, “tum danten toD dogi.
sab theek hai. shimoda mein mujhe nai milne vali hai. ye kanghi wo apne juDe mein lagaye rakhti thi. mainne socha hua tha ki yugano pahunchne ke baad ye kanghi usse maang lunga. kutte par kanghi ko pherte dekh mujhe kuch pareshani hui.
usmen kya hai? bus ek sone ka daant hi to use lagvana paDega. phir us taraf dhyaan hi nahin jayega, ekayek nartki ki avaz sunai di.
mainne muDkar pichhe dekha.
zahir tha ki ve mere teDhe daant ke bare mein baat kar rahi theen. chiyoko ne baat uthai hogi aur nanhin nartki ne sone ka daant lagane ka sujhav diya hoga. na mujhe ye bura laga ki ve mere bare mein baat kar rahi hain aur na koi vishesh chahna hui ki apne bare mein unki baten sunun.
vah bhala hai. hai na bahut bhala? laDki ki avaz phir i.
vah bahut hi achchha lagta hai.
vah sachmuch hi bahut achchha lagta hai.
mujhe to koi aisa hi mile, ye ji chahta hai.
uske bolne ka Dhang mukt tha, tarun aur manahput, aisa ki jo aaya, so kah diya jisse mere liye apne ko vastav mein aspasht achchha manna sambhav hua. mainne navin bhaav se bhar upar pahaDon ko dekha. itne chamkile ki meri ankhon mein kuch chubhan si hui. main unnis varsh ki umr mein hi apne ko manav vidveshai, ekaki, kahin na khapne vala vekti manne laga tha. aur is dharanaa ki nirasha ne hi mujhe iiju ki taraf dhakela tha. aur ab mainne apne ko pratidin ki bhasha mein achchha insaan kahane ke yogya anubhav kiya. iska arth mere liye kya tha, ye abhivyakt karne ke liye shabd nahin hain. pahaD aur bhi chamkile hote gaye. hum shimoda aur samudr ke samip pahunch gaye the.
jab tab gaanv ki chauhaddi ke bahar ek suchana likhi dikhai deti—khanabadosh rangkarmi bahar rahen!”
shimoda ke uttari sire par koshiya ek sasti saray thi. main auron ke pichhe dusri manzil par ek atarinuma kamre mein pahuncha. us par koi bhitari chhat nahin paDi thi. bahari chhat itni Dhalvan thi ki jis khiDki se bahar ki taraf jhanka ja sakta tha, uske paas sidhe hokar aram se baithna asambhau tha.
baDi vali istri ne laDki ke vishay mein pareshani si jatate hue puchha, tera kandha to nahin akaD gaya? hathon mein dard to nahin hai?
laDki ne Dholak bajane ki atyant sughaD, suDaul mudraon ko pradarshit kiya.
bilkul nahin dukh rahe. mujhe kuch taklif nahin hogi. zara bhi nahin thak rahe.
baDi achchhi baat hai. mujhe fikar sa ho raha tha.
tumhari jo potli hai, usse adhik bojh hai iska. unhonne any thahre hue atithiyon se paraspar abhivadan kiya. pheri lagane valon aur yatri rangkarmiyon se hotel bhara tha. lagta tha ki shimoda sthanantarn karne valon ka basera hai. nartki ne bahar andar lapakte jhapakte bachchon ke hathon mein paise diye. jaise hi main jane ko taiyar hua, wo meri ख़atir sainDilon ko darvaze mein theek Dhang se rakhne dauDi.
mujhe muvi le jaoge n! usne jaise apne se hi phusaphusakar kaha. thoDi door tak koshiya saray ke ek badnam se dikhne vale adami ke bataye raste chalkar main aur iinkichi ek saray mein gaye, jo vahan ke bhutapurv mayor ki kahi jati thi. hum donon ne ikatthe snaan kiya aur duphar ka khana khaya, jismen samudr se i tazi machhli thi.
jab wo jane laga, mainne use kuch paise pakDaye, kul ke anushthan ke liye kuch phool kharid lena. mainne use bata diya tha ki mujhe kal subah ki naav se tokyo jana hai. asal mein mere paise khatm ho gaye the, par unko yahi jataya ki mujhe school jana hai.
theek hai, par in sardiyon mein to tumse har haalat mein milna hoga hi, baDi vali istri ne kaha, ham sab tumhein jahaz par lene ayenge. tum zarur khabar karna ki kab aa rahe ho. hamare paas hi thahroge. ye to hum soch hi nahin sakte ki hum tumhein hotel mein jane denge. yaad rakhna ki hum tumhara intzaar karenge aur sab tumhein naav par lene jayenge.
jab sab kamre se chale gaye to mainne chiyoko aur yuriko se apne saath muvi chalne ko kaha. chiyoko pili thaki mandi pet ko hathon se dabaye leti hui thi, main nahin ja sakungi. dhanyavad, asal mein main abhi itna chalne layaq nahin hui hoon.
yuriko stambhit si zamin ki or taqti rahi. chhoti nartki niche, saray ke bachchon ke saath khel rahi thi. jab usne mujhe niche utarte dekha to wo dauDi aur baDi vali istri se muvi jane ki aagya lene ki saanth gaanth baithane lagi. kintu wo vapis i to door door aur hatotsahit thi.
mujhe to ismen kuch kharabi nazar nahin aati. wo kyon nahin uske saath akeli ja sakti? iinkichi ne tark kiya. mujhe is baat ko samajhne mein kathinai ho rahi thi, par istri jhuki nahin. jab main saray se bahar nikla to nartki bahar hall mein baithi kutte ko thapthapa rahi thi. ye nai aupacharikta itni bhaav shunya rukhi sukhi thi ki main apne ko usse baat karne ko uksa nahin paya aur laga, jaise usmen bhi ankh uthane ki shakti nahin thi.
main akela muvi dekhne gaya. ek istri, chhoti kaundh batti ki roshni mein sanvad paDh rahi thi. main tatkal hi vahan se chal paDa aur vapis apni saray aa gaya. bahut der tak main khiDki ki chaukhat par kohaniyan tikaye bahar ki taraf taqta raha. shahr andhere mein Doob gaya tha. mujhe laga, jaise kahin door se aati Dholak ki avaz sun raha hoon. bina kisi samuchit karan ke mainne paya ki main ro raha hoon.
agli subah saat baje jab main nashta kar raha tha, iinkichi ne niche saDak par se mujhe pukara. aisa laga ki wo meri ख़atir mein shishtachari kimonu pahankar aaya tha. striyan uske saath nahin theen. main sahsa ekaki ho gaya. usne kaha, ve sab tumhein vidai dene aana chahti theen. par kal raat hum itni der tak bahar rahe ki ve subah bistar se jaldi uthne mein asmarth theen. unhonne mujhse kaha hai ki unki taraf se kshama maang loon. ve in sardiyon mein tumhari pratiksha karengi.
sharat ki thanDi hava shahr mein bah rahi thi. jahaz par pahunchne ke raste se usne mere liye kuch phal aur tambaku kharida aur kaoro naam ki ek kolon ki shishi.
uska naam kaoro hai n? usne muskrate hue kaha.
jahaz par santare khana theek nahin rahta, par (pasimain) khaki kha sakte ho. ve samudri mitli se fayda karte hain.
main kyon na tumhein de doon. apne saman se skuli topi nikalkar uski kuch salavten nikalte hue mainne kaha aur apni shikari topi use pahna di aur hum donon hans paDe. jaise hi hum jahazi ghaat par aaye ki mere dil ne ek tez uchhaal liya. dekha ki wo chhoti nartki pani ke kinare baithi hai. jab tak hum us taraf upar baDhte rahe, wo bina hile Dule vahin baithi rahi, sirf sir jhukakar, chupchap abhivadan jataya. uske chehre par shringar ke kuch nishan hi shesh the, jo mujhe bahut manoram lage aur ankhon ke koon mein laga chatak laal rang use ek navin yauvan pradan karta pratit hua.
“aur sab bhi aa rahi hain? iinkichi ne puchha.
usne na mein apna sir hilaya.
ve sab abhi bistar mein hain?
usne haan mein sir hilaya.
iinkichi jahaz aur maal nauka ke ticket kharidne gaya. mainne batachit karne ki koshish ki, magar wo chupchap us bindu par nazar tikaye rahi, jahan nahr bandargah mein jakar mil rahi thi. beech beech mein, isse pahle ki main baat khatm karun, wo jaldi se zara sa sir hila deti thi. maal nauka zor se uchhli. nartki apne honthon ko kaskar dabaye samne ki taraf taqti rahi. jaise hi mainne rassi ki siDhi par pair rakha, to muDkar dekha. main alavida kahna chahta tha, par sirf sir hi jhuka paya. maal nauka kheench li gai. iinkichi ne shikari topi hilai aur jaise jaise shahr door aur door hota gaya, laDki ne koi safed si cheez hilani shuru ki.
main railing ke sahare khaDa, oshima ki taraf tab tak taqta raha, jab tak iiju prayadvip ka dakshainai kona, nigahon se ojhal nahin ho gaya. aisi pratiti hui, jaise mainne bahut der pahle nartki se vida li thi. main andar gaya aur apne kamre mein ghusa. samudr itna tufani tha ki sidha baithna bhi mushkil tha. ek jahazi karmachari aakar samudri mitli ke liye dhatu ke tasle de gaya. main nirmal aur rikt man liye, kitabi jhole ko sirhana lagakar let gaya. ab main samay bitne ke prati sachet nahin raha tha. main chupchap rota raha aur jab gile galon par thanDak ka ehsaas hua, to jhole ko upar ulat liya. ek kishor laDka mere paas leta tha, wo iiju ke kisi factory malik ka laDka tha aur high school ki pravesh pariksha ki taiyari karke tokyo ja raha tha. meri school ki topi ne uska dhyaan akarshait kiya tha.
kuch der baad usne puchha, kya kuch bura ghat gaya hai?
nahin, mainne kisi se vida li hai. sachchi baat chhipane ki koi tuk dikhai nahin di aur ansuon ke karan koi sharm nahin i. main kuch nahin soch raha tha. aisa laga, jaise main shaant paritosh ki gahri neend mein hoon. mujhe pata nahin chala, kab sandhya ho i, kintu jab atami se guzre to battiyan jal chuki theen. mujhe bhookh lag rahi thi aur kuch sardi bhi. laDke ne apna khana nikala aur mainne uske saath aise kha liya, jaise mera hi ho. baad mein uske hi labade ke thoDe se hisse se apne ko Dhak liya. main ek mohak shunya mein tair raha tha aur mujhe ye sahj svabhavik laga ki uski sahrdayta ko apnakar laabh le loon. pratyek vastu ek alingan karti samasvarta mein nimagn thi.
battiyan bujh gain aur samudr mein paDi machhliyon aur phalke mein rakhi machhliyon ki gandh tez ho gai. andhiyare mein, laDke ke paarshv mein hone ki garmai pa, svayan ko ansuon ke havale kar diya. mera sir, jaise svachchh jal unmukh ho, anandsikt boond boond tapak raha tha, sheeghr hi sab niashesh ho jayega.
jaise hi saDak darre ki taraf moD lene vali thi ki pahaDi ki talahti se barish ka ek jhapeta devdar ke van ko safed karta hua meri taraf aaya. main unnis saal ka tha aur iiju prayadvip ki yatra akele kar raha tha. mainne ek vidyarthi ke se hi kapDe pahan rakhe the. gahre rang ka kimon, lakDi ki unchi khaDaun, skuli topi aur kandhe se latakta kitabi basta. teen raten mainne prayadvip ke madhya bhaag ke nikatvarti garam pani ke sroton ke paas bitai thi. tokyo se aaye aaj chautha din tha aur main amami darre ki chaDhai tay karta dakshainai iiju ki taraf baDh raha tha. sharat ka drishya lubhavana tha, ek par ek uthti parvat shrinkhlayen, van prantar, gahri ghatiyan, kintu ye drishya utna nahin, jitna ki mujhe ek any pratyasha adhik protsahit kar rahi thi. barish ki baDi baDi bunden paDne lagin. mainne dauDkar samne ki khaDi chaDhai vali ghumavadar saDak paar ki. upar, darre ke muhane par ek chaay ki dukan thi. bhagya ka chamatkar nahin to aur kya kahun? naatk manDali vahan vishram kar rahi thi.
jis gaddi par wo chhoti nartki baithi thi, use uthakar, usne vinamrtapurvak meri or baDha diya. moorkh ki tarah achchha achchha budabudakar main us par baith gaya. bhaunchakka aur saans phula hone ki vajah se mujhe kahne ko aur kuch nahin sujha. wo mere paas hi baith gai. hum donon ke chehre aamne samne the. main tambaku jhaDne ke liye kuch DhunDhane sa laga to usne dusri istri ke samne se ashtray uthakar mujhe de di. phir bhi main kuch na bol paya.
wo shayad solah saal ki thi. uski kesh rashi, balon ke lapeton se uncha juDa banakar purane Dhang se sanvari hui thi. kesh sanvarne ki is shaili ka naam main nahin janta. uska saumy lambi tarash ka chehra, unche uthe juDe ke niche aur bhi chhota ho aaya tha. par phir bhi kesh sajja chehre par puri tarah phabti thi. balki kuch aisi jaise prachin chitron mein sundar nariyon ke keshon ko atiranjit sajja ke saath dikhaya jata tha.
uske saath do aur yuvatiyan theen aur ek chaubis pachchis varsh ka yuvak. chalis varsh ki kathor mukh mudravali ek istri, us manDali ki mukhiya thi.
mainne chhoti nartki ko do baar pahle bhi dekha tha, ek baar prayadvip ke aadhe raste mein, ek lambe pul par, do yuvatiyon ke saath. usne ek baDa sa Dhol uthaya hua tha. mainne baar baar pichhe muDkar dekha tha. aur ant mein yatra ke rasasvadan ka ye thikana pane par apne aapko badhai di thi.
uske baad saray mein bitai tisri raat mein use nachte dekha tha. wo saray ke phatak ke paas hi naach rahi thi aur main mugdh ho, siDhiyon par baitha raha. aur phir aaj raat pul par. mainne apne se kaha tha ki kal darre ko paar kar yuganon jate samay, pandrah meel ke raste mein, ve kahin na kahin zarur milengi aur isi pratyasha ne mujhe pahaDi saDak ki taraf tez qadmon se chalaya tha, kintu chaay ki dukan par mil jana itna akasmat hua ki mere paanv dharti par theek se nahin paD rahe the.
kuch minat baad, chaay ki dukandarin mujhe ek dusre kamre mein le gai, jo bahut kam istemal mein aata hoga. wo ek itni nichi ghati ki taraf khulta tha ki uski talahti bhi nazar nahin aati thi. mere daant katakta rahe the aur banhon ke rongte khaDe ho gaye.
“mujhe thoDi si sardi lag rahi hai. jis samay vriddha mere liye chaay banakar lai, mere munh se bol nikle.
par tum to bilkul tar ho. andar aao, apne ko sukhao. kahti hui wo mujhe apne niji kamre ki taraf le chali.
us kamre ka darvaza kholte hi mujhe sulagti aag ka garam thapeDa laga. main andar jakar aag ke paas baith gaya. mere kimonu se bhaap uthi. aag ki tapish itni zyada thi ki mera sir dukhne laga.
is beech vriddha, nartakiyon se baat karne bahar chali gai.
“achchha to, haan! ye hai wo chhoti si laDki, jo pahle tumhare saath i thi. abhi se itni baDi ho gai. are, ye to puri aurat ho gai hai! bahut achchhi baat hai n? upar se itni sundar bhi, laDkiyan jaldi baDhan leti hain. leti hain n?
shayad ek ghanta bita hoga ki mujhe aisa sunai diya, jaise ve jane ki taiyari mein hon. mera dil zor se dhaDka aur chhati par khinchav sa mahsus hua. par phir bhi itni himmat na hui ki uthu aur unke saath chal paDun. main aag ke paas baitha kulbulata raha. akhir aurten hi to hain, maan liya ki ve paidal chalne ki aadi hain—par agar main ek aadh meel pichhe chhoot bhi jaun, to bhi un tak pahunchne mein koi diqqat nahin hogi, mera man unke saath saath nachta hua chala gaya. mano unke prasthan ne man ko aisa karne ki svachhandta pradan ki ho.
“ve aaj raat kahan thahrenge? istri ke vapis aane par mainne puchha.
“is tarah ke log kahan thahrenge, kaun bata sakta hai? jahan unhen paisa dene vale milenge, vahin rah jayenge, unhen kya ye baat pahle se malum hoti hai ki ve kahan rukenge? uske aspasht tiraskar bhaav ne mujhmen avesh bhar diya. mainne svayan se kaha, agar iska kathan saty hai to wo nartki aaj ki raat mere kamre mein bitayegi!
barish, bundabandi mein badal gai thi. darre ke upar ka asman saaf ho gaya tha. mere liye vahan aur adhik der rukna mushkil ho gaya. yadyapi vriddha ne puri ummid bandhai ki das minat mein dhoop khil jayegi, naujavan! naujavan! kahti vriddh mere pichhe saDak tak dauDti i, yah bahut hai, jo tumne mujhe diya hai. main itna nahin le sakti. mere paise vapis karne ko rokne ke liye usne mera jhola zor se pakaDkar khincha, mainne paise vapis lene se mana kar diya. tab bhi wo mere saath qadam ghasitti chali i. usne ज़id ki ki wo kam se kam saDak tak mujhe chhoDne ayegi hi. wo kahti rahi, ye bahut zyada hain, mainne kuch bhi to nahin kiya iske badle. magar main ye baat yaad rakhungi aur ab tum is raste se phir guzroge, to tumhare liye kuch na kuch sahej rakhungi. tum phir aoge n? aoge zarur? main nahin bhulungi.
ek sau pachas yen ke sikkon ke liye itni kritaj~n bhavna marmasparshi thi. par mujh par chhoti nartki tak pahunchne ka junun savar tha aur uski buDhi dhimi chaal mujhe der kara rahi thi.
ant mein surang ke muhane tak pahunchakar, mainne use jhatakkar alag kiya. saDak, jiske ek taraf safed rang ki rok baaD kinare kinare lagi hui thi, surang ke munh se vidyut rekha si balkhati niche ko ja rahi thi. jhankaDi akriti ke niche, paas hi wo nartki aur uske sathi the. aadha meel aur chalkar main unke paas pahunch gaya. unke paas pahunchte hi, ekdam apni chaal ko dhimi kar, unki chaal se milakar chalna atpata lagta, isliye main un istriyon ke paas se bahut shaant tatasth bhaav ka dikhava karta guज़r gaya. mujhe aata dekh, unse koi das gaz aage chalta vekti meri taraf muDa, paidal chalne mein kafi mahir ho tum. qimat achchhi hai na ki barish ruk gai!
is tarah apna bachav pa, main uske saath chal paDa. wo idhar udhar ke parashn puchhne laga aur jab istriyon ne hamein baten karte dekha to ve bhi dhire dhire chaltin, hamare pichhe ho leen. purush ki kamar se bent ka bana ek bahut baDa baksa bandha tha. baDi vali istri ki banhon mein ek pilla tha aur donon yuvatiyan gathriyan uthaye theen. laDki ke paas uska Dhol aur Dhol ka sancha tha, jane kab baDi vali istri, batachit mein shamil ho gai.
vah ek school mein paDhne vala laDka hai. unmen se ek yuvati ne chhoti nartki se phusaphusakar kaha aur mere muDkar dekhte hi khil khil hansne lagi.
haan, yahi baat hai, itna to main bhi janti hoon, laDki ne palatkar kaha, “vidyarthi bahudha dveep aate hain.
purush ne bataya ki ve iiju dvipasmuh ke nagar oshima ke hain, ve vasant ritu mein prayadvip par ghumne phirne nikli theen aur ab sardi shuru ho gai thi aur jaDon ke kapड़e unke paas nahin the. dakshain mein shimoda mein aath das din bitakar ve naav se apne dveep ko laut jayenge.
laDki ne paas vali yuvati se baat ki, tumhen malum hai ki vidyarthi oshima mein tairaki karne aate hain?
garmi mein, meri samajh se. mainne pichhe dekhte hue kaha. wo akabka gai.
jaDon mein bhi. usne aisi halki nannhi avaz mein javab diya ki sunai bhi mushkil se de.
jaDon mein bhi. usne dusri istri ki taraf dekha aur kuch anishchit si hansi.
uska chehra laal ho gaya, haan mein zara si gardan hilai aur mukh mudra saumy ho gai. ‘‘bachchi pagli hai, baDi vali istri hansi.
yuganon se upar chhe saat meel tak saDak ka rasta nadi ke saath saath chalta hai. darre se utarte hi pahaDon ne dakshainai roop le liya tha. main aur wo vekti mitr ban gaye the. aur jaise hi niche ki taraf yuganon ki khaprail ki chhaten nazar ain, mainne kah Dala ki main unke saath shimoda bhi jaunga. wo behad khush nazar aaya.
ek purani dhurani saray ke samne pahunchakar baDi vali istri ne meri taraf apni drishti is tarah thahrai jaise ki ab hum paraspar vida lenge.
par wo sajjan to hamare saath chalna chahte hai. purush ne kaha.
“oh! kya sachmuch? usne baDi saral hardikta se kaha, kahte hain na yatra ka sathi jivan nati. lagta hai hum jaise gharib bhi bhramn yatra mein jaan Daal sakte hain. zarur, andar aao! hum sab ek pyala chaay piyen aur aram kar len.
hamne dusri manzil par jakar apna saman rakh diya. tinkon ki bichhi chataiyan aur darvaze gande, tute phute the. chhoti nartki niche se chaay lai. mere paas chaay late samay chaay ka pyala plate mein khaDakhDaya. apne bachav ki koshish mein usne tezi se pyala tikaya, par wo chaay bikhrane mein hi saphal hui. is had tak ki gaDbaD ke liye main zara kam hi taiyar tha.
haay re main! bachchi ab khatarnak umr mein pair rakh rahi hai. baDi istri ne bhaunhen chaDhakar, jhaDan ko uski taraf phenkte hue kaha.
tamakkar laDki chaay sametti rahi. upar kahi gai baat ne mujhe chaunka diya. chaay ghar mein buDhi istri dvara kahi gai baat se jagi uttejna aur tivrtar hoti mahsus hui.
lagbhag ek ghante baad, wo vekti mujhe dusri saray mein lekar gaya. tab tak main yahi mane baitha tha ki mujhe unhin ke saath thaharna hai.
hum, saDak se koi sau gaz door, chattanon aur patthar ki kati siDhiyon se niche utre. nadi ke tal mein garam pani ka sarvajnik srot tha aur usse zara aage ek pul, jo saray ke baghiche ki taraf jata tha.
hum donon ikatthe nahane gaye. usne bataya ki wo teis varsh ka hai aur uski patni ke do baar garbhpat ho chuke hain. wo hoshiyar na ho aisa nahin tha. mainne dharanaa bana li ki wo bhi meri tarah nartki ke samip rahne ke ख़atir saath saath paidal chalta raha tha.
suryast hote hote zor ki barish hone lagi. bhure aur safed pahaD do dishaon mein chapte ho phail gaye aur nadi kshan kshan mein adhik pili aur matmaili hone lagi. mujhe vishvas tha ki aisi raat ko nrity manDli bahar nahin niklegi, phir bhi main nishchint na baith saka. main do teen baar snanghar ke paas gaya aur phir bechain hokar apne kamre mein aa gaya.
itne mein door se barish mein Dholak ki ek mand thaap sunai di. mainne khiDki ko, sinkhche khinchkar zor ka dhakka dekar aise khola ki jaise use ukhaaD phenkunga aur khiDki se bahar jhukkar jhanka. Dholak ki thaap par apna dhyaan jamane ki koshish ki ki wo kahan se aa rahi hai aur is taraf aa rahi hai ya nahin. itne mein samisen ki jhankar sunai paDi aur beech beech mein ek istri kanth kisi ko pukarta aur zor ki hansi ka thahaka. aisa laga ki nartki ko, unki saray ke paas ek restaran mein party mein bulaya gaya tha. main itna andaz laga paya ki do teen istriyon aur teen chaar purushon ki avazen hain. apne aap ko dhiraj bandhaya ki vahan sab khatm hone vala hai aur ve sab jaldi hi yahan ayenge. party ab sidhe sidhe hansi mazaq ke saman se hullaDbazi par utarti malum hui. ek tikha istri svar andhere ko chirta hua chabuk ki jhannahat sa aaya.
mainne khule jangle se bahar ko jhanka tatha aur bhi kinare ke paas sarakkar tankar baith gaya. Dholak ki ek ek thaap mujhe rahat ki hilor ki pratiti karati. are! wo ab bhi vahan hai. . . wo vahan hai aur Dholak baja rahi hai aur har baar jaise hi Dholak ki thaap rukti ki chuppi ko sahna kathin ho jata. aisi anubhuti hoti, jaise barish mujhe apni bauchharon ke niche uthaye le ja rahi hai.
thoDi si der mein pairon ke ubaD khabaD paDne ki avaz i. kya ve luka chhipi khel rahe hain? kya ve naach rahe hain? aur phir shaant nistabdhata mein andhere mein ankhen phaDkar dekhta raha. wo kya kar rahi hogi? shesh puri raat uske saath kaun hoga?
mainne sinkhche band kiye aur bistar par let gaya. meri chhati mein tanav ke karan tees uth rahi thi. main phir snanghar gaya aur zor zor se pani ko chhapachhpaya. barish ruk gai. chaand nikal aaya. sharat ka akash barish se dhula hua, svachchh sphatik sa door chamak raha tha. mera man, ek kshan ko nange pair jakar use DhunDhane ka hua. ab do baj chuke the.
wo purush agle din subah meri saray mein aaya. main tabhi sokar utha tha. mainne use nahane ko nimantrit kiya. snanghar ke niche, barish se chaDhi hui nadi dakshainai iiju ke sharadiy surya mein garmai bah rahi thi. pichhli raat ki manovythit vyagrata ab bahut vastavik nahin rah gai thi. phir bhi main sunna chahta tha ki kya hua tha.
tumhari raat ki party mein khoob chahl pahal thee?
tum tak hamari avaz pahunch rahi thee?
haan, bilkul.
“yahin ke mool nivasi hain. ve bahut shor machate hain. par asal mein kuch zyada aisa nahin hai unmen.
uske liye wo ghatna jaise pratidin ki bilkul sadharan si baat thi. mainne bhi kuch aur nahin kaha.
dekho, ve sab nahane gaye hain, nadi ke paar! lanat hai un par, agar unhonne hamein nahin dekha hai. zara unka hansna to dekho.
usne ek sarvajnik snanghar ki taraf ishara kiya, jahan pani se uthti bhaap ke beech se chhah saat akar dikhai de rahe the.
ek chhota akar dhoop ki roshni mein bhagkar aaya aur usne chabutre ki munDer par ek minat khaDe hokar, is tarah banhen upar uthakar jaise nadi mein kudne ko taiyar ho, hamse kuch kaha. ye, wo chhoti nartki thi. mainne use dekha. uski kishor tangen, shilp nirmit gori deh. aur mujhe pratiti hui jaise taze pani ka ek jhonka mere hirdai par se prakshalan karta hua, chala gaya. main khushi se hans paDa. wo ek bachchi thi. keval ek bachchi, ek aisi bachchi, jo apne mitr ko dekhkar khushi mein nange badan, dhoop mein bhagkar panjon ke bal aa khaDi hui, main hansta hi raha. ek snigdh prasann hansi. jaise mere sir par se ek dhool ki tarah saaf ho gai ho. aur main hansta hi chala gaya. apni ghani kesh rashi ke karan, wo baDi dikhai deti thi aur isliye bhi ki uska pahnava aur shringar pandrah solah saal ki laDki ka sa kiya gaya tha. main vastav mein bahut baDi bhool kar baitha tha.
jab donon istriyon mein se baDi vali baghiche ke phulon ko dekhne udhar i, usse pahle hum donon mere kamre mein vapas pahunch chuke the. chhoti nartki pul paar ke aadhe raste tak uske pichhe i thi ki vriddha istri, tyori chaDhaye snanghar se bahar nikli. nartki ne apne kandhe uchkaye aur hansti hui vapas bhaag gai, jaise kah rahi ho ki agar aur naज़dik ayegi, to use Daant paDegi. baDi vali yuvati pul tak i.
udhar ki taraf aao. usne mujhse kaha.
udhar ki taraf aao. chhoti vali yuvati ne bhi uski baat dohrai. aur ve donon apni saray ki taraf muD gain.
purush, sandhya hone tak meri saray mein thahra raha.
us raat jab main ek yatri vikreta ke saath shatranj khel raha tha, baghiche mein Dholak sunai di. main baramde ki taraf jane ko utha to vikreta ne puchha, “ek aur na ho jaye? ek bazi aur khelen? mainne talne ki hansi hansi. kuch der baad baat ko i gai samajh wo kamre mein chala gaya.
iske turant baad hi donon yuvatiyan aur purush andar aaye, mainne puchha, “kya aaj raat ko tumhein aur kahin jana hai?
chahne par bhi aaj gerahak nahin milenge.
ve aadhi raat bitne ke baad tak vahin baithe chaikarj khelte rahe. jab ve chale gaye to mera dimagh saaf hua aur jaan mein jaan i. main janta tha ki mujhe neend nahin ayegi. mainne hall se us vikreta ko bulaya.
vaah khoob! wo fauran bazi lene aa gaya.
“aaj sari raat ki bazi hai. hum raat bhar khelenge. main aprajit anubhav kar raha tha. hamein agle din subah aath baje yuganon se chalna tha. mainne apni skuli topi kitabon ke jhole mein rakhi. ek shikari topi pahni, jo sarvajnik snanghar ke paas hi dukan se kharidi thi aur saray tak rajamarg se pahuncha. main nishchit bhaav se upar ki siDhiyon par chaDhta gaya. dusri manzil ki jhilmili khuli theen. magar main hall mein pahunchte hi ruk gaya. ve sab abhi bistar mein hi the.
nachnevali laDki, sabse chhoti vali istri ki baghal mein, bilkul mere panvon ke paas leti thi. wo ekdam laal ho gai aur haDabDakar ekdam se apne hathon se chehre ko daba liya. pahli shaam ke kuch shringar chihn abhi tak chehre par shesh the. ekdam manmohak chhota sa akar, meri nigah jaise hi niche ko us par paDi ki anand ki ek chamkili hilor pranon mein dauD gai. wo ekayek, munh Dhake Dhake palta lekar, bistar se bahar ho gai aur hall mein mere samne parnam karne jhuk gai. main gunga bana bhaunchakka khaDa rah gaya. yahi sochta ki kya karun!
wo adami aur baDi yuvati ek saath so rahe the. wo paraspar vivahit hain, ye baat pahle se dhyaan mein nahin i thi.
bistar mein se uthkar baithti hui baDi yuvati boli, “apko hamein kshama karna hoga, hum aaj hi chal dena chahte hain, lekin suna hai ki aaj raat ko yahan ek party hai. hamne socha hai ki dekhen kya kar sakte hain usmen! yadi aapko jana zaruri hai to, tab to phir hum shayad shimoda mein hi mil payen. hum hamesha koshiya saray mein thahrte hain. use DhunDhane mein mushkil nahin hogi. mujhe laga, jaise main nirvasit kar diya gaya.
ya aisa na karo ki kal tak thahar jao, purush ne sujhaya, yah kah rahi hai ki hamein aaj rukna hai. magar rasta katne mein batachit karne vala sathi ho to achchha rahta hai. chalo, kal sab saath chalen.
bahut baDhiya khyaal hai! istri ne haan mein haan milai, “kal to chahe kuch bhi ho, hum zarur chal paDenge. parson, bachche ko guzre unchaas din honge. barabar ye baat man mein rahi hai ki shimoda mein anushthan karna hai, jisse ye zahir ho ki kam se kam hamein yaad hai aur hum vahan samay par pahunchne ki jaldi mein rahe hain. apaki sachmuch baDi kripa hogi—mere man mein ye baat bina aaye nahin rahti ki is sabke pichhe zarur kuch karan hai ki hum paraspar is tarah mitr ban gaye.
main ek din aur rukne ko taiyar ho gaya aur apni saray vapis chala gaya. unke taiyar hokar aane ke intzaar mein main gande chhote se daftar mein baithkar prabandhak se baat karta raha. thoDi der mein wo purush aaya aur hum donon shahr se thoDi door ek ramnaiy pul tak gaye. wo railing ke sahare tikkar apne bare mein batane laga. wo kafi arse tak tokyo ki ek naatk manDli mein raha tha. kabhi kabhi wo ab bhi oshima ke natkon mein abhinay karta tha aur vaise saDkon par hoti partiyon mein agar bulaya jata tha, to abhinetaon ki naqal utarkar dikha sakta tha.
usne bataya ki uski gathri mein jo ek ajib sa ubhaar tha, wo manch talvar hai aur bent ke sanduk mein poshaken va ghar grihasthi ka saman hai. mainne ghalati ki aur khu ko barbad kar liya. mere bhai ne koku mein ghar parivar sanbhal liya aur sachmuch vahan ke liye bekar ho gaya.
mera khyaal tha ki tum nagaoka ki saray ke ho.
nahin, aisa nahin hai. donon istriyon mein jo baDi hai, wo meri patni hai. wo tumse ek saal chhoti hai. wo apna dusra bachcha, inhin garmiyon mein paidal yatra karte samay, kho baithi. wo sirf ek saptah jivit raha. abhi ye puri tarah svasth bhi nahin hui hai. buDhi istri, uski maan aur laDki meri bahin hai.
tumne bataya tha ki tumhari ek terah saal ki bahin hai.
haan, ye vahi hai. mainne bahut jatan kiya ki use is dhandhe mein na paDne doon. magar kai karnon se wo baat sadh na saki.
usne bataya ki uska naam iinkichi, uski patni ka chiyoko aur nartki bahan ka naam kaoru hai. dusri laDki yuriko sahayak ki tarah hai. wo solah saal ki hai aur un sabmen vahi ek asal mein oshima ki hai. iinkichi bahut bhavuk ho utha. wo nadi ki taraf takatki lagakar dekhta raha, aur ek baar mujhe laga ki ronevala hai.
vapas aate hue, saDak se kuch door, hamne chhoti nartki ko ek kutte ko dularte dekha. usne apna banav shringar dho Dala tha.
“saray aao n?” mainne udhar se guzarte hue kaha.
“main apne aap nahin aa sakti.
“apne bhai ko le aana.
“dhanyavad! main abhi aati hoon.
thoDi der baad iinkichi aa khaDa hua.
aur sab kahan hain?
ve maan se chhutti na pa sake.
magar unmen se teen, pul ko khat khat paar karti hui ain aur zine ke upar chaDhkar jahan hum chaikarj khel rahe the, pahunchin.
vistar se jhuk jhukkar abhivadan kar ve jhijakti si hall mein khaDi rahin. chiyoko sabse pahle kamre mein i. usne praphullata se auron ko bulaya, a jao, aao. iske kamre mein aupacharikta ki zarurat nahin.
uske lagbhag ek ghante baad, ve sab niche nahane gain. unhonne mujhe bhi saath nahane ke liye zor diya. par teen yuva istriyon ke saath nahane ka vichar kuch zyada hi uttejak tha. mainne kah diya ki main kuch der mein aunga. ek minat baad wo chhoti nartki upar i.
“chiyoko kahti hai, agar tum abhi niche aakar snaan karo to wo tumhari peeth dho degi.
par hua ye ki wo mere paas ruk gai aur hum donon chaikarj khelte rahe. khelne mein wo bahut tez nikli. main khelne mein bahuton se hoshiyar hoon aur iinkichi va auron ke saath khelne mein mujhe zara bhi diqqat nahin hui, par ye to mujhe hara dene ki had tak pahunch gai. isse baDi rahat mahsus hui ki janbujhkar ghatiya khel nahin khelna paDa. shuru mein ekdam tani kayde ki murti bani, pasa phenkne ko haath baDhati hui, wo jaldi hi apne ko bhool gai aur board ke upar pure ghaur se jhuk gai. uski itni ghani kesh rashi jo naqli si lagti thi, meri chhati ko chhu rahi thi. achanak uska chehra laal ho gaya.
mujhe kshama karen, mujhe is baat par Daant paDegi, kahti hui wo aadha khel chhoDkar bhaag gai. baDi istri nadi ke paar sarvajnik snangrih ke paas khaDi thi. chiyoko aur yuriko niche vale snanghar se lagbhag usi samay khatkhat karti bahar ain aur vida ka namaskar kahne ki chinta na kar, pul paar, vapas ho leen.
iinkichi ne phir din bhar meri saray mein bitaya, yadyapi prabandhak ki patni, jo sabki chinta karne vale svbhaav ki si thi, mujhe is baat se savdhan kar chuki thi ki aise logon ko khana khilana, achchhe khane ko barbad karna hai.
jab main sandhya ko rajapath se hota hua unki saray pahuncha to nartki saimisen ka abhyas kar rahi thi. mujhe dekhkar usne saaj niche rakh diya, par baDi istri ke kahne par phir utha liya.
malum hua ki gali ke paar vale restaran ki dusri manzil par ho rahi party mein iinkichi kuch paath karke suna raha tha.
“duniya ki kya ajuba cheez hai vah?
“vah? wo ek noh naatk paDhkar suna raha hai.
kuchh vichitr si baat kar raha hai, tum anuman nahin laga sakte ki agle kshan wo kya karega! uske paas pura bhanumti ka pitara hai.
laDki ne sakuchate hue mujhse kahani sangrah mein se ek kahani sunane ko kaha.
mainne khushi se ek aasha man mein sanjoe kitab ko utha liya. jab mainne paDhna shuru kiya to uska sir lagbhag mere kandhe par tha aur usne baDe dhyaan aur ghaur ki bhavmudra se upar meri taraf, chamakdar bejhapki ankhon se dekha. uske naak naqshe mein sabse sundar vastu thi—uski baDi aur kajrari ankhen. bhari palkon ki rekhayen itni manohar ki kaha na jaye aur uski hansi! ek phool ki hansi, jab uske bare mein sochta hoon to uski hansi ko phool ki si hansi kahna, zara bhi atishyokti nahin lagti.
paDhkar sunate kuch hi minat bite honge ki gali ke paar vale restaran se ek sahayika use bulane i.
“main abhi vapis i, apne kapDon ko sanvarti wo boli, “jana nahin. main baqi bhi sunna chahti hoon.
hall mein ghutnon ke bal baithkar, usne bakayada jane ki aagya li.
hum laDki ko aise dekh pa rahe the, jaise baghalvale kamre mein ho, hamari taraf pithkar usne Dholak ke samne ghutne tikaye. mand gati lai ne mujhe ek nirmal uchchhvaas se bhar diya.
istri ne kaha, “party mein tabhi jaan aati hai, jab Dholak shuru hoti hai. chiyoko aur yuriko kuch der baad restaran mein gain aur lagbhag ek ghante mein charon vapas aa gain.
unhonne bus itna hi diya. nartki ne laparvahi se pachas yen apni bhinchi mutthi se baDi istri ke haath mein Daal diye. mainne baqi kahani paDhkar sunai, aur us bachche ki baten karte rahe, jo guज़r gaya tha. main unke saath na jigyasavash ruka hua tha aur na hi unke prati kisi prakar ki kripalu bhavna ki pratiti thi. asal mein mere chitt se ye baat utar chuki thi ki ve nimn varg ke hain—path yatri rangkarmi. unhen iska ehsaas tha aur ye baat unke marm ko sparsh karti thi. unhonne ye poorn nishchay kar liya tha ki main oshima mein zarur milun.
ham inhen buDhe ke ghar mein thahrayenge.
unhonne pratyek baat soch vichar kar tay kar li. “vah kafi baDa rahega. aur agar hum buDhe ko kahin aur rakh denge, tab to ye jitne din chahen, vahin rahkar shanti se paDhai likhai kar sakte hain.
“hamare do chhote chhote ghar hain, ve hum tumhein de sakte hain. ye bhi nishchay ho gaya ki nae varsh ke uplakshy mein oshima mein jo naatk ve karenge, usmen main unhen sahyog dunga.
mainne paya ki path yatri rangkarmiyon ka jivan kashtasadhy nahin tha, jaisi mainne kalpana ki thi. balki sahj sugam suvidhajanak va vishranti ka, parvton aur ghatiyon ki sugandh saath liye. tis par ye manDali to ghanishth parivarik prem se juDi thi. keval vetan par niyukt laDki yuriko, lajili aayu mein pair rakh chuki thi, isiliye meri upasthiti mein sankoch anubhav karti thi.
aadhi raat beet chuki thi, jab mainne unki saray chhoDi. laDkiyan mujhe darvaze tak vida karne ain aur chhoti nartki ne meri sainDal palatkar aise rukh rakhin ki main bina muDe, unmen pair rakh sakun. wo bahar ko jhanki aur svachchh akash ki taraf upar taka.
“aah! chaand nikal aaya hai aur kal hum shimoda mein honge. mujhe shimoda bahut achchha lagta hai. hum bachche ke liye pararthna karenge aur maan ne vayada kiya tha ki wo mujhe kanghi dengi. aur uske baad kitni tarah ki chizen hain jo hum kar sakenge. kya aap mujhe muvi le chalenge?
lagta hai ki kuch aisa hai vahan, jisne shimoda ki saDak ki ptriyon ko, iiju aur amagi ke garam jalasroton ke ilaqe mein ghumne vale khanabadosh rangkarmiyon ke liye unka gharanuma thikana bana diya hai.
saman usi tarah alag alag baant diya gaya, jaisa amagi darre ko paar karte din kiya tha. pilla ek abhyast yatri ki tarah shantchitt apne agle panje baDi istri ki banhon par rakhe leta tha. amagi se hum phir parvatiy praant mein pahunche. hamne samudr ke upar chamakte pratah kaal ke surya ko dekha, jo hamari parvatiy ghati ko ushnata pradan kar raha tha. nadi ke muhane par ek samudritat shvet aur khulta hua dikhai diya.
yah hai hoshima, kitna vishal! tum sachmuch aoge n? zarur aoge n? nartki ne kaha.
kisi karan se—kya sharat ke akash ki svachchhata thi, jiske karan aisa laga? wo samudr jiske upar surya ug raha tha, jharne ki phuharon jaise kuhre se achchhadit tha. shimoda koi das meel par tha. kuch der ke liye pahaDon ne samudr ko ot mein kar diya. chiyoko ne mand alsaye svar mein ek gana gungunaya.
saDak do shakhaon mein banti hui thi. ek kuch chaDhai ka rasta tha, jo dusre se ek meel chhota tha. main chhota khaDi chaDhai vala rasta pakDun ya lamba sidha rasta? mainne chhota rasta pakDa.
saDak, ek jangal mein se ghumkar jati thi. aur ek jagah chaDhai itni sidhi i ki us par chaDhna aisa tha, jaise haath par haath rakhkar divar par chaDhna. is par bhare hue patton ne ek phisalni tah bichha di thi. jab saans lene mein zyada taklif hui to ek avichari duasahas ubhar aaya. aur main tez se tez chaal se apne ko dhakelta, har qadam par ghutne ko mutthi se dabata, aage baDha. aur sab itne pichhe chhoot gaye ki mujhe peDon se chhankar aati, sirf unki avaz sunai de rahi thi, lekin wo nartki apne ghaghre ko uncha khose, chhote nanhen qadmon se mere pichhe aa rahi thi. wo mujhse kuch gaz pichhe hi rahti, na wo koshish karti ki mere aur naज़dik ho jaye aur na ye ki bahut pichhe hat jaye. kabhi kabhi main usse baat karta aur wo rukkar apni chhoti si chaunki chaunki hansi se javab deti. aur jab wo bolti to main bhi ruk jata ki shayad wo chalti hui mere paas tak aakar mere saath ho le, par jab tak main aage na chal paDta, wo ruki rahti aur vahi do gaz ka fasla rakhkar pichhe pichhe chalti.
saDak aur bhi khaDi chaDhai vali aur chakkardar ho gai. main apne ko tezi se aage le ja raha tha aur wo bhi pichhe pichhe aati rahi, vahi do gaz ki duri rakhe, pure manoyog aur driDh sankalp ke saath. pahaD sannate mein the. ab auron ki avaz mujhe sunai nahin de rahi thi.
“aap tokyo mein kahan rahte hain?
ek shayanshala (Darmitri) mein, asal mein main tokyo mein nahin rahta.
main tokyo gai hoon. main ek baar nrity karne gai thi. jin dinon cheri phool rahi thi, par main bahut chhoti thi us samay, mujhe vahan ka kuch yaad nahin.
apke mata pita jivit hain? wo phir baat shuru karti hai, aap kabhi kophu gaye hain?
wo baten karti, ya to shimoda ki muvij ke bare mein, ya mare hue bachche ki.
hum choti par pahunch gaye. apni Dholak ko ek bench par, jhaDe patton ke beech tikakar, usne apna munh rumal se ponchha. uske baad uska dhyaan apne pairon ki taraf gaya, par usne apna irada badal liya. aur uski jagah mere kimonu ke ghaghre ko jhaDa, main achakchakar pichhe ko hata aur wo ghutnon ke bal gir paDi. mere samne jhuke jhuke jab usne aage aur pichhe se mujhe achchhi tarah jhaaD diya, to khaDi hokar apne ghaghre ko niche kiya, ghaghara abhi tak jaise chalne ke samay upar ko khos rakha tha, vaisa hi tha. main haanph raha tha, usne mujhe niche baith jane ko kaha.
bench ke paas se nanhen pakshiyon ka ek jhunD uDa. hava itni garm thi ki pakshidal baitha to sukhi pattiyon ki sarsarahat sunai di. mainne apni ungli se ek do baar Dholak ko thapthapaya to pakshi chaunkkar uD gaye.
mujhe pyaas lag rahi hai.
dekhun, agar paas mein kahin pani mil jaye?
par thoDi der baad wo pile paDe patton ke beech se khali haath laut i.
“ashima mein kya karti rahti ho?
usne do teen laDkiyon ke naam liye, jinka mere liye kuch arth na tha aur purani yadon ki besir pair ki baten sunati rahi. wo ashima ke nahin, balki kophu ke bare mein batati rahi, jisse zahir tha ki usne graimar school mein pahli dusri kaksha tak paDhai ki thi. apni saheliyon ki smritiyan jaise jaise uske man mein tirti atin, wo bhole bholepan se unke bare mein bolti chali jati.
iinkichi aur donon navayuvatiyan das minat baad vahan pahunchin aur unse baDi vali mahila aur bhi das minat baad. niche utarte samay main janbujhkar iinkichi se baten karta, pichhe raha. magar lagbhag do sau gaz aage se, wo chhoti nartki dauDti hui pichhe i.
niche ek pani ka jharna hai. ve tumhara intzaar kar rahe hain ki tum pahle pani piyo. ”
main uske saath niche ki taraf dauDa. chhayadar chattanon mein se svachchh nirmal jal chhalachhla raha tha. striyan uske charon or khaDi theen.
“pani piyo. hamein laga ki shayad hamare jhakol dene ke baad tum pani na piyo.
mainne hathon ki ok banakar pani piya. striyan thoDi der baad vahan se chalin. unhonne apne smaal gile kiye aur chehre par aaya pasina dhoya.
Dhalan se utarkar hum shimoda rajamarg par nikal aaye. rajamarg se niche, jahan tahan, koyala banane valon ki bhatthiyon se dhuen ki lapten upar uth rahi theen. hum log ek lakDiyon ke Dher par sustane baith gaye. nartki, pille ke jhabre balon ko gulabi kanghi se saaf karne lagi.
baDi istri ne toka, “tum danten toD dogi.
sab theek hai. shimoda mein mujhe nai milne vali hai. ye kanghi wo apne juDe mein lagaye rakhti thi. mainne socha hua tha ki yugano pahunchne ke baad ye kanghi usse maang lunga. kutte par kanghi ko pherte dekh mujhe kuch pareshani hui.
usmen kya hai? bus ek sone ka daant hi to use lagvana paDega. phir us taraf dhyaan hi nahin jayega, ekayek nartki ki avaz sunai di.
mainne muDkar pichhe dekha.
zahir tha ki ve mere teDhe daant ke bare mein baat kar rahi theen. chiyoko ne baat uthai hogi aur nanhin nartki ne sone ka daant lagane ka sujhav diya hoga. na mujhe ye bura laga ki ve mere bare mein baat kar rahi hain aur na koi vishesh chahna hui ki apne bare mein unki baten sunun.
vah bhala hai. hai na bahut bhala? laDki ki avaz phir i.
vah bahut hi achchha lagta hai.
vah sachmuch hi bahut achchha lagta hai.
mujhe to koi aisa hi mile, ye ji chahta hai.
uske bolne ka Dhang mukt tha, tarun aur manahput, aisa ki jo aaya, so kah diya jisse mere liye apne ko vastav mein aspasht achchha manna sambhav hua. mainne navin bhaav se bhar upar pahaDon ko dekha. itne chamkile ki meri ankhon mein kuch chubhan si hui. main unnis varsh ki umr mein hi apne ko manav vidveshai, ekaki, kahin na khapne vala vekti manne laga tha. aur is dharanaa ki nirasha ne hi mujhe iiju ki taraf dhakela tha. aur ab mainne apne ko pratidin ki bhasha mein achchha insaan kahane ke yogya anubhav kiya. iska arth mere liye kya tha, ye abhivyakt karne ke liye shabd nahin hain. pahaD aur bhi chamkile hote gaye. hum shimoda aur samudr ke samip pahunch gaye the.
jab tab gaanv ki chauhaddi ke bahar ek suchana likhi dikhai deti—khanabadosh rangkarmi bahar rahen!”
shimoda ke uttari sire par koshiya ek sasti saray thi. main auron ke pichhe dusri manzil par ek atarinuma kamre mein pahuncha. us par koi bhitari chhat nahin paDi thi. bahari chhat itni Dhalvan thi ki jis khiDki se bahar ki taraf jhanka ja sakta tha, uske paas sidhe hokar aram se baithna asambhau tha.
baDi vali istri ne laDki ke vishay mein pareshani si jatate hue puchha, tera kandha to nahin akaD gaya? hathon mein dard to nahin hai?
laDki ne Dholak bajane ki atyant sughaD, suDaul mudraon ko pradarshit kiya.
bilkul nahin dukh rahe. mujhe kuch taklif nahin hogi. zara bhi nahin thak rahe.
baDi achchhi baat hai. mujhe fikar sa ho raha tha.
tumhari jo potli hai, usse adhik bojh hai iska. unhonne any thahre hue atithiyon se paraspar abhivadan kiya. pheri lagane valon aur yatri rangkarmiyon se hotel bhara tha. lagta tha ki shimoda sthanantarn karne valon ka basera hai. nartki ne bahar andar lapakte jhapakte bachchon ke hathon mein paise diye. jaise hi main jane ko taiyar hua, wo meri ख़atir sainDilon ko darvaze mein theek Dhang se rakhne dauDi.
mujhe muvi le jaoge n! usne jaise apne se hi phusaphusakar kaha. thoDi door tak koshiya saray ke ek badnam se dikhne vale adami ke bataye raste chalkar main aur iinkichi ek saray mein gaye, jo vahan ke bhutapurv mayor ki kahi jati thi. hum donon ne ikatthe snaan kiya aur duphar ka khana khaya, jismen samudr se i tazi machhli thi.
jab wo jane laga, mainne use kuch paise pakDaye, kul ke anushthan ke liye kuch phool kharid lena. mainne use bata diya tha ki mujhe kal subah ki naav se tokyo jana hai. asal mein mere paise khatm ho gaye the, par unko yahi jataya ki mujhe school jana hai.
theek hai, par in sardiyon mein to tumse har haalat mein milna hoga hi, baDi vali istri ne kaha, ham sab tumhein jahaz par lene ayenge. tum zarur khabar karna ki kab aa rahe ho. hamare paas hi thahroge. ye to hum soch hi nahin sakte ki hum tumhein hotel mein jane denge. yaad rakhna ki hum tumhara intzaar karenge aur sab tumhein naav par lene jayenge.
jab sab kamre se chale gaye to mainne chiyoko aur yuriko se apne saath muvi chalne ko kaha. chiyoko pili thaki mandi pet ko hathon se dabaye leti hui thi, main nahin ja sakungi. dhanyavad, asal mein main abhi itna chalne layaq nahin hui hoon.
yuriko stambhit si zamin ki or taqti rahi. chhoti nartki niche, saray ke bachchon ke saath khel rahi thi. jab usne mujhe niche utarte dekha to wo dauDi aur baDi vali istri se muvi jane ki aagya lene ki saanth gaanth baithane lagi. kintu wo vapis i to door door aur hatotsahit thi.
mujhe to ismen kuch kharabi nazar nahin aati. wo kyon nahin uske saath akeli ja sakti? iinkichi ne tark kiya. mujhe is baat ko samajhne mein kathinai ho rahi thi, par istri jhuki nahin. jab main saray se bahar nikla to nartki bahar hall mein baithi kutte ko thapthapa rahi thi. ye nai aupacharikta itni bhaav shunya rukhi sukhi thi ki main apne ko usse baat karne ko uksa nahin paya aur laga, jaise usmen bhi ankh uthane ki shakti nahin thi.
main akela muvi dekhne gaya. ek istri, chhoti kaundh batti ki roshni mein sanvad paDh rahi thi. main tatkal hi vahan se chal paDa aur vapis apni saray aa gaya. bahut der tak main khiDki ki chaukhat par kohaniyan tikaye bahar ki taraf taqta raha. shahr andhere mein Doob gaya tha. mujhe laga, jaise kahin door se aati Dholak ki avaz sun raha hoon. bina kisi samuchit karan ke mainne paya ki main ro raha hoon.
agli subah saat baje jab main nashta kar raha tha, iinkichi ne niche saDak par se mujhe pukara. aisa laga ki wo meri ख़atir mein shishtachari kimonu pahankar aaya tha. striyan uske saath nahin theen. main sahsa ekaki ho gaya. usne kaha, ve sab tumhein vidai dene aana chahti theen. par kal raat hum itni der tak bahar rahe ki ve subah bistar se jaldi uthne mein asmarth theen. unhonne mujhse kaha hai ki unki taraf se kshama maang loon. ve in sardiyon mein tumhari pratiksha karengi.
sharat ki thanDi hava shahr mein bah rahi thi. jahaz par pahunchne ke raste se usne mere liye kuch phal aur tambaku kharida aur kaoro naam ki ek kolon ki shishi.
uska naam kaoro hai n? usne muskrate hue kaha.
jahaz par santare khana theek nahin rahta, par (pasimain) khaki kha sakte ho. ve samudri mitli se fayda karte hain.
main kyon na tumhein de doon. apne saman se skuli topi nikalkar uski kuch salavten nikalte hue mainne kaha aur apni shikari topi use pahna di aur hum donon hans paDe. jaise hi hum jahazi ghaat par aaye ki mere dil ne ek tez uchhaal liya. dekha ki wo chhoti nartki pani ke kinare baithi hai. jab tak hum us taraf upar baDhte rahe, wo bina hile Dule vahin baithi rahi, sirf sir jhukakar, chupchap abhivadan jataya. uske chehre par shringar ke kuch nishan hi shesh the, jo mujhe bahut manoram lage aur ankhon ke koon mein laga chatak laal rang use ek navin yauvan pradan karta pratit hua.
“aur sab bhi aa rahi hain? iinkichi ne puchha.
usne na mein apna sir hilaya.
ve sab abhi bistar mein hain?
usne haan mein sir hilaya.
iinkichi jahaz aur maal nauka ke ticket kharidne gaya. mainne batachit karne ki koshish ki, magar wo chupchap us bindu par nazar tikaye rahi, jahan nahr bandargah mein jakar mil rahi thi. beech beech mein, isse pahle ki main baat khatm karun, wo jaldi se zara sa sir hila deti thi. maal nauka zor se uchhli. nartki apne honthon ko kaskar dabaye samne ki taraf taqti rahi. jaise hi mainne rassi ki siDhi par pair rakha, to muDkar dekha. main alavida kahna chahta tha, par sirf sir hi jhuka paya. maal nauka kheench li gai. iinkichi ne shikari topi hilai aur jaise jaise shahr door aur door hota gaya, laDki ne koi safed si cheez hilani shuru ki.
main railing ke sahare khaDa, oshima ki taraf tab tak taqta raha, jab tak iiju prayadvip ka dakshainai kona, nigahon se ojhal nahin ho gaya. aisi pratiti hui, jaise mainne bahut der pahle nartki se vida li thi. main andar gaya aur apne kamre mein ghusa. samudr itna tufani tha ki sidha baithna bhi mushkil tha. ek jahazi karmachari aakar samudri mitli ke liye dhatu ke tasle de gaya. main nirmal aur rikt man liye, kitabi jhole ko sirhana lagakar let gaya. ab main samay bitne ke prati sachet nahin raha tha. main chupchap rota raha aur jab gile galon par thanDak ka ehsaas hua, to jhole ko upar ulat liya. ek kishor laDka mere paas leta tha, wo iiju ke kisi factory malik ka laDka tha aur high school ki pravesh pariksha ki taiyari karke tokyo ja raha tha. meri school ki topi ne uska dhyaan akarshait kiya tha.
kuch der baad usne puchha, kya kuch bura ghat gaya hai?
nahin, mainne kisi se vida li hai. sachchi baat chhipane ki koi tuk dikhai nahin di aur ansuon ke karan koi sharm nahin i. main kuch nahin soch raha tha. aisa laga, jaise main shaant paritosh ki gahri neend mein hoon. mujhe pata nahin chala, kab sandhya ho i, kintu jab atami se guzre to battiyan jal chuki theen. mujhe bhookh lag rahi thi aur kuch sardi bhi. laDke ne apna khana nikala aur mainne uske saath aise kha liya, jaise mera hi ho. baad mein uske hi labade ke thoDe se hisse se apne ko Dhak liya. main ek mohak shunya mein tair raha tha aur mujhe ye sahj svabhavik laga ki uski sahrdayta ko apnakar laabh le loon. pratyek vastu ek alingan karti samasvarta mein nimagn thi.
battiyan bujh gain aur samudr mein paDi machhliyon aur phalke mein rakhi machhliyon ki gandh tez ho gai. andhiyare mein, laDke ke paarshv mein hone ki garmai pa, svayan ko ansuon ke havale kar diya. mera sir, jaise svachchh jal unmukh ho, anandsikt boond boond tapak raha tha, sheeghr hi sab niashesh ho jayega.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 277-294)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : यासुनारी कावाबाता
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।