जब वह इस दुनिया में आया तो बेहद कमज़ोर और दुर्बल था। पड़ोसी पालने के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। माँ और बच्चे को देख आपस में अफ़सोस ज़ाहिर करने लगे। उनमें लुहार की पत्नी सबसे तज़ुर्बेकार थी, सो अपने अंदाज़ में बीमार स्त्री को दिलासा देने लगी।
तुम चुपचाप लेटी रहो, मैं पवित्र मोमबत्ती जलाती हूँ, तुम्हारे पास ज़्यादा वक़्त नहीं है, दूसरी दुनिया में जाने की तैयारी करो। बेहतर होगा अगर कोई जल्दी से जाए और अंतिम क्रियाकर्म के लिए पादरी को बुला लाए।
बच्चे का भी फ़ौरन नामकरण करना होगा,” दूसरी एक स्त्री बोली, मेरे ख़्याल से तो यह पादरी के आने तक भी नहीं बचेगा। बेहतर होगा कि जल्दी नामकरण हो जाए, वरना इसकी बेनाम आत्मा यहाँ-वहाँ भटकेगी।
यह बोलते-बोलते उसने पवित्र मोमबत्ती जलाई। शिशु को गोद में उठाया। उस पर पवित्र जल का छिड़काव करती रही, जब तक शिशु ने आँखें झपकानी शुरू नहीं कर दीं। साथ में पवित्र पाठ का जाप करती जा रही थी।
“परम पूज्य पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से मैं तेरा नामकरण करती हूँ। तेरा नाम होगा जेन, फिर वह मृत्यु के वक़्त की जाने वाली प्रार्थना को याद करते हुए जल्दी-जल्दी कुछ बुदबुदाने लगी।
हे ईसाई आत्मा! इस दुनिया से अब विदा ले और जहाँ से जन्म लिया है वहीं शरण ले, आमीन!
पर इस ईसाई आत्मा का इस दुनिया से विदा लेने का कोई इरादा नहीं था। उलटे वह ज़ोर-ज़ोर से लातें चलाने लगा और रोना शुरू कर दिया। बहरहाल उसके रोने का स्वर इतना क्षीण और मंद था, जैसे बिल्ली का कोई बच्चा हौले-हौले मिमिया रहा हो।
पादरी को बुलाया गया था। उसने आकर पूजा-पाठ किया और चला गया। मरने की बजाय माँ पूरी तरह भली-चंगी हो गई। हफ़्ते-भर में काम-काज में भी जुट गई।
शिशु की साँसें नाज़ुक डोर से लटकी हुई थीं। लगता था जैसे वह बड़ी मुश्किल से साँस ले पा रहा है, बेहद दुर्बल व कमज़ोर जो था। पर जब वह चार बरस का था तो एक दिन कुटिया की छत पर पपीहे ने तीन बार कुहू-कुहू की तान छेड़ी। पोलिश लोक-विश्वास के अनुसार यह एक शुभ शकुन माना जाता है। उसके बाद शिशु की हालत सुधरने लगी। दिन बीतते गए और वह दस बरस का हो गया। पर हमेशा दुबला-पतला और नाज़ुक ही बना रहा। झुकी देह और पिचके गाल! उसके धूसर बाल हमेशा उसकी उजली चमकदार आँखों पर गिरते रहते। उन आँखों में सदैव एक ख़्वाब अँगड़ाई लेता रहता। आँखें हमेशा दूर, बहुत दूर कहीं टिकी रहतीं, मानो कुछ ऐसा देख रही हों, जो दूसरों से अनदेखा है।
जाड़े के दिनों में वह सिगड़ी के पीछे दुबककर बैठ जाता और ठंड के मारे रोने लगता। अक्सर वह भूख से भी बिलखता क्योंकि माँ कई बार अलमारी या डिब्बे में खाने के लिए कुछ नहीं रख पाती थी। गर्मियों में छोटे सफ़ेद झबले में यहाँ-वहाँ दौड़-भाग करता रहता, जो रूमाल से उसकी कमर में बँधा रहता था। सिर पर पुआल की पुरानी टोपी रहती, जिसके सूराख़ों से उसके भूरे बाल बाहर झाँकते रहते। उत्सुक निगाहें पक्षी की भाँति यहाँ-वहाँ भटकती रहतीं। बेचारी माँ क्या करती, मुश्किल से दो जून की रोटी जुटा पाती थी। हालाँकि जेन से उसे बेइंतहा प्यार था से पर उसकी पिटाई भी ख़ूब करती। अकसर उसे 'चेंजलिंग' कहकर बुलाती। जब वह महज़ आठ बरस का था, तभी से उसने अपने बूते पर जीना और अपनी देखभाल ख़ुद करना शुरू कर दिया था। कभी भेड़ें चराने ले जाता, कभी जब घर पर खाने के लिए कुछ नहीं होता तो मशरूम खोजने घने जंगल में घुस जाता। ख़ुदा का शुक्र था कि ऐसी दिलेरी के वक़्त कभी किसी भेड़िए ने उसे अपना शिकार नहीं बनाया था। वह एहतियात बरतने वाले बच्चों में से नहीं था। देहाती बच्चों की तरह बातचीत के वक़्त मुँह में उँगली रख लेता था। उसे देख पड़ोसी भविष्यवाणी करने से बाज नहीं आते कि यह बच्चा ज़्यादा दिन जी नहीं पाएगा। अगर जीवित भी रहा तो माँ को कभी सुख नहीं दे पाएगा, क्योंकि उसका शरीर कभी इस लायक़ नहीं बन पाएगा कि वह कड़ी मेहनत कर सके।
उसमें एक अनोखी ख़ूबी थी। क़ुदरत की जाने यह कैसी लीला थी कि उसे यह नियामत बख़्शी थी। संगीत से उसे बेइंतहा मुहब्बत थी और यह मुहब्बत ही उसका जुनून थी। हर क़िस्म की आवाज़ में उसे संगीत सुनाई देता। हर आवाज़ वह डूबकर सुनता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, लय और सुर में उसकी दिलचस्पी बढ़ती गई। वह भेड़-बकरियाँ चराने जाता या साथियों के साथ जंगल में बेर चुनने, ख़ाली हाथ ही घर लौटता और माँ से तुतलाकर बोलता, ओह माँ, कैसा ख़ूबसूरत संगीत था! कैसी मधुर तान थी—ला ला...!
चल हट, बंदर कहीं का! अब मैं तेरा बाजा बजाऊँगी, न काम का, न काज का! उसकी माँ ग़ुस्से चिल्लाती और करछी से उसकी पिटाई कर देती। बेचारा नन्हा सा बालक चीख़ता और दोबारा कभी संगीत न सुनने का वादा करता; मगर उसका मन तो जंगल में ही बसता था। वह सोचता रहता कि वहाँ कितने मधुर स्वर हैं, जो गूँजते और बजते रहते हैं। पूरा जंगल गाता है और उसकी प्रतिध्वनि से जंगल गूँज उठता है। मेड़ों पर घास की पत्तियाँ गाती हैं, घर के पीछे बगिया में चिड़ियाँ चहकतीं हैं, चेरी का वृक्ष सरसराता और कँपकँपाता है। शाम ढलते ही उसे हर तरह की आवाज़ें सुनाई देतीं। देहात में सुनाई देने वाले एक से एक स्वर उसके ज़ेहन में बजने लगते। लगता, जैसे समूचे गाँव में मधुर स्वरलहरी गूँज उठी है। उसके संगी-साथी आश्चर्य जताते, क्योंकि उन्हें तो ऐसा कोई भी स्वर सुनाई नहीं देता था। काम के वक़्त जब वह खेतों में सूखी घास साफ़ करने जाता तो हवा की सरसराहट में खो जाता। दूर खड़ा निरीक्षक जब उसे यूँ ही निठल्ला, बाल पीछे की ओर खिसकाए, हवा के संगीत में खोया हुआ देखता तो फुटपट्टी उठाकर दो-तीन सटाक से दे मारता, ताकि इस स्वप्नद्रष्टा को होश में लाया जा सके। पर सब बेकार। आख़िरकार पड़ोसियों ने उसका नाम ही रख दिया संगीतकार जेन्को!
रात में जब मेंढक टर्राते, चरागाहों पर कुक्कुट चीत्कार करते, दलदल में तितलौवे धमाचौकड़ी मचाते और बाड़ों के पीछे मुर्गे बाँग देते तो यह बालक सो नहीं पाता था। वह चरम आनंद की अनुभूति से भर उठता और इन स्वरों में खो जाता। उसे इन तमाम मिले-जुले स्वरों में एक अद्भुत सुरसंगति सुनाई देती। गनीमत थी कि माँ उसे गिरजाघर नहीं ले जाती, क्योंकि वहाँ जब वाद्ययंत्रों और घंटियों की झंकार गूँजती तो बालक की आँखें धुँधली और नम हो उठतीं और उनमें एक ऐसी चमक दमकने लगती, मानो वे किसी दूसरी ही दुनिया की रोशनी से प्रदीप्त हो उठी हों। रात के वक़्त गाँव में पहरा देने वाला चौकीदार कभी-कभार यूँ ही ख़ुद को जगाए रखने के लिए तारे गिनने लगता या बेहद धीमे-धीमे किसी कुत्ते से गपियाने लगता। ऐसे वक़्त कई बार उसने शराबख़ाने की धुँधली रोशनी में छोटे सफ़ेद झबले में जेन्को को यहाँ-वहाँ दौड़ते देखा था। हालाँकि वह बालक कभी शराबख़ाने के भीतर नहीं जाता था। वह दीवार से सटकर बैठ जाता और भीतर का संगीत सुनने की कोशिश करता। भीतर जब कई युगल संगीत की मधुर धुन पर थिरकते और झूमते तो पैरों की थाप और बालाओं के मस्ती-भरे स्वर सुनाई देते। हौले-हौले वायलिन बजता रहता। पियानो का तेज़ स्वर गूँजता रहता, खिड़कियाँ रोशनी से नहा उठतीं। डांस फ्लोर का काठ चरमराने, गाने और झूमने लगता। जेन्को तल्लीन होकर यह सब सुनता। ऐसी मधुर धुन वाले वायलिन को पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था। मगर अफ़सोस, उसके नसीब में यह सब कहाँ? वह इसे कैसे पा सकता था? काश, वे उसे एक बार वायलिन हाथ में लेने भर देते तो वह धन्य हो उठता...पर नहीं, उसकी क़िस्मत में तो बस सुनना लिखा था। वह देर तक बुत बना सुनता रहता, जब तक दूर से अँधेरे को चीरती चौकीदार की आवाज़ न आ जाती—
चलो, अब जाओ, सोने का वक़्त हो गया है।
तब वह नन्हा-सा बालक नंगे पाँव रात के अँधेरे में भागते हुए कुटिया की ओर जाता, पर वायलिन के स्वर देर तक उसका पीछा नहीं छोड़ते।
जब फ़सल कटने या शादी-ब्याह के मौक़ों पर बाजे व सारंगी बजतीं तो उसे ख़ूब आनंद आता। ऐसे वक़्त वह सिगड़ी के पीछे दुबककर बैठ जाता और कई-कई दिनों तक एक लफ़्ज़ तक नहीं बोलता। दमकती आँखें सामने की ओर यूँ टिकी रहतीं, जैसे रात के वक़्त बिल्ली की आँखें दिखती हों।
आख़िरकार उसने काठ के फ़लक से अपने लिए एक सारंगी बना ही डाली। घोड़े के बाल का तार के रूप में इस्तेमाल किया, पर उसके स्वर मयख़ाने में बजने वाले वायलिन जैसे मधुर नहीं थे। तारों से बेहद महीन स्वर निकलता, मानो मक्खियाँ या कीड़े-मकोड़े भिन-भिन कर रहे हों। फिर भी सुबह से देर रात तक वह उसे बजाता रहता। हालाँकि उसे अपनी इस लत के लिए बहुत मार खानी पड़ती थी, पर यह सब छोड़ना उसके बस में नहीं था। यह उसकी फ़ितरत में था।
बालक दिनोंदिन कमज़ोर और दुर्बल होता जा रहा था और बालों का गुच्छा पहले से घना। आँखें हर वक़्त चौकन्नी और आँसुओं से भरी रहतीं। छाती और गाल धँसते जा रहे थे। वह कभी भी आम बच्चों की तरह तंदुरुस्त नहीं हो पाया। उसका वही हाल था, जो उस बेचारी ग़रीब सारंगी का था, जो मुश्किल से ही बज पाती थी। फ़सलों की कटाई के वक़्त तो वह लगभग फ़ाक़े ही करता था। क्योंकि ऐसे वक़्त वह महज़ कच्चे शलजम खाकर जीवित रहता था। उसकी एक ही चाहत थी कि किसी तरह एक वायलिन उसे मिल जाए। मगर अफ़सोस, उसकी इस चाहत ने उस बदनसीब की जान ही ले ली।
ऊपर बँगले का मालिक बैरन और उसका पूरा परिवार अरसे से इटली में रह रहा था। बँगले की देखभाल करने वाले वर्दीधारी सिपाही के पास एक वायलिन था, जो कभी-कभार वह अपनी ख़ूबसूरत प्रेमिका या फिर नौकरों को ख़ुश करने के लिए बजाता था। जेन्को अकसर ऊँचे-ऊँचे पौधों के बीच नौकरों के हॉल के दरवाज़े के पास दुबककर बैठा रहता। उस पर एक ही धुन सवार रहती कि किसी तरह उस संगीत को सुन सके या फिर कम से कम वायलिन की एक झलक-भर पा सके। वायलिन हमेशा दरवाज़े के सामने दीवार पर टँगा रहता था। बालक हसरतभरी निगाहों से उसे निहारता। ऐसे वक़्त उसकी समूची आत्मा आँखों में उतर आती। यह उसके लिए दुनिया की सबसे क़ीमती चीज़ थी। अचानक एक मूक चाहत ने उसे जकड़ लिया। काश, किसी तरह वह एक बार उसे अपने हाथों से छूकर या बहुत नज़दीक से जाकर देखे! इस ख़याल मात्र से उसका दिल बल्लियों उछलने लगा।
एक शाम उसने देखा कि नौकरों के कमरे में कोई नहीं था। पूरा परिवार यूँ भी इटली में ही रह रहा था। घर ख़ाली था। वर्दीधारी सिपाही भी अपनी प्रेमिका के साथ कहीं घूमने निकल गया था। झाड़ियों के बीच छिपा जेन्को दरवाज़े की झिरी में से बहुत देर से अपने लक्ष्य पर नज़रें टिकाए बैठा था।
चंद्रमा अपने पूरे शबाब के साथ आसमान में दमक रहा था। कमरे के भीतर भी उसकी किरणों से एक घेरा बन गया था, जो सामने की दीवार पर पड़ रहा था। फिर धीरे-धीरे रोशनी का यह घेरा वायलिन पर सिमट आया और वायलिन रोशनी में नहा उठा। बालक ने देखा कि घने अँधेरे के बीच दूधिया रोशनी में वायलिन चमक रहा था। इस क़दर उज्ज्वल कि उसकी चकाचौंध से वह बौरा गया। उसके तार, गर्दन, किनारे सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहे थे। खूँटियाँ जुगनू की मानिंद चमक रही थीं और वायलिन का गज भी एकदम जादू की छड़ी के माफ़िक़ था।
वाह! कितना ख़ूबसूरत है, एकदम जादुई! जेन्को ललचाई नज़रों से उसे ताकने लगा। वह लताओं के बीच दुबककर बैठा था। उसकी कोहनियाँ कमज़ोर घुटनों पर टिकी हुई थीं। अवाक् निश्चल, उस एक चीज़ पर टकटकी बाँधे! वह मायूसी से भर उठा। अगले ही पल उत्कट आकांक्षा ने उसे घेर लिया। क्या यह कोई जादू है या कुछ और? वायलिन का जुनून उस पर मँडरा रहा था। क्षण-भर के लिए वायलिन अँधेरे में डूब गई, पर फिर दुगुनी आभा से वह चमक उठी। जादू वाक़ई यह जादू ही था। इसी बीच हवा सरसराने लगी, पेड़ डोलने लगे, लताएँ मंद-मंद फुसफुसाने लगीं और ये सभी मानो उस बालक को उकसा रहे थे—“चलो जेन्को, आगे बढ़ो, वहाँ कोई भी नहीं है...जाओ, जेन्को।
रात उजली और निर्मल थी। बगीचे में तालाब के किनारे बुलबुल ने कुहुकना शुरू कर दिया। कभी हौले-हौले तो कभी ज़ोर से। उसके गीत के बोल थे—आगे बढ़ो, हिम्मत करो, जाकर छू लो प्यारे! एक ईमानदार काला कौआ बालक के सिर पर मँडराने लगा और काँव-काँव कर बोला, नहीं, जेन्को नहीं। कौआ उड़ गया। बुलबुल अभी भी गा रही थी। लताएँ दुगने वेग से फुसफुसाने लगीं—जाओ, वहाँ कोई नहीं है।
वायलिन अब भी चंद्रमा की रोशनी के घेरे में टँगा हुआ था। अब वह घनी लताओं के पीछे से उठ खड़ा हुआ। दहलीज़ पर उस नाज़ुक बालक की धौंकनी की तरह चल रही साँसों को साफ़ सुना जा सकता था। क्षण-भर बाद ही सफ़ेद झबला ओझल हो चुका था। केवल एक नन्हा पैर सीढ़ियों पर दिख रहा था। दोस्त कौए ने एक बार फिर व्यर्थ में चक्कर काटकर आगाह किया, नहीं, नहीं। पर जेन्को भीतर घुस चुका था। तालाब में मेंढ़क अचानक टर्राने लगे, मानो किसी ने उन्हें डरा दिया हो। फिर अचानक शांत हो गए। बुलबुल ने गाना बंद कर दिया। बेलों की फुसफुसाहट भी थम गई। इस बीच जेन्को अपने लक्ष्य के और क़रीब पहुँच गया था, पर भय ने उसे जकड़ लिया। घर के भीतर लताओं की छाया पड़ रही थी। झुरमुट में वह एक जंगली जीव की भाँति दिख रहा था। वह तेज़ चल रहा था, पर साँस धीमे-धीमे चल रही थी।
पूर्व से पश्चिम की ओर गर्मियों की कँपकँपाती लपकती बिजली से पूरा कमरा क्षण-भर के लिए रोशन हो उठा। उसी एक पल में दोनों हाथों और पैरों पर झुका बेचारा जेन्को काँपता दिखाई दिया। वायलिन के पास सिर को आगे की ओर फैलाकर वह पालथी मारकर बैठा था। फिर बिजली कड़कनी बंद हो गई। चंद्रमा को बादलों ने ढक लिया। चारों ओर निस्तब्धता पसर गई।
एक विराम के बाद अँधेरे में हलके क्रंदन-सी आवाज़ आई, मानो किसी ने अनजाने में तारों को छेड़ दिया हो। उसी वक़्त कमरे के कोने से कर्कश, मगर उनींदी आवाज़ फूट पड़ी—
कौन है वहाँ?
दीवार से माचिस की तीली रगड़ने की आवाज़ सुनाई दी। एकाएक रोशनी की लहर फूट पड़ी और फिर हाय राम! गालियों, घूँसों, मुक्कों की बरसात होने लगी। बच्चा रोने लगा, बिलखने, याचना करने लगा, ईश्वर के वास्ते!
कुत्तों का भौंकना, रोशनी लेकर लोगों की भगदड़ शुरू हो गई। पूरे घर में खलबली मच गई।
दो दिन बाद अभागा जेन्को मजिस्ट्रेट के सामने था। क्या चोरी के ज़ुर्म में उस पर मुक़दमा चलाया जाए? बेशक।
न्यायाधीश और मकान मालिक ने कटघरे में खड़े अपराधी को देखा। मुँह में उँगली डाले, फटी भयभीत आँखें, बेहद दुर्बल, छोटा, गंदा, चोटों से भरा वह बालक चुपचाप खड़ा था। इस बात से पूरी तरह अनजान कि क्यों और कैसे उसे यहाँ लाया गया है और वे लोग उसके साथ क्या करने वाले हैं? न्यायाधीश सोच में पड़ गया कि इस क़दर दुर्बल, महज़ दस वर्ष के इस अभागे को क्या दंड दिया जा सकता है, जो अपने पैरों पर ढंग से खड़ा भी नहीं हो पा रहा है? क्या इसे क़ैदखाने भेजा जा सकता है? यूँ भी बच्चों के साथ इतना बेरहम नहीं हुआ जा सकता! क्या यह बेहतर नहीं होगा कि चौकीदार इसे ले जाकर बेंत से थोड़ी पिटाई कर दे, जिससे उसे दोबारा चोरी न करने का सबक मिल जाए। इस तरह मामला भी निपट जाएगा।
हाँ, यही बढ़िया रहेगा! चौकीदार को बुलाया गया।
इसे ले जाओ, चेतावनी के बतौर बेंत से पिटाई करो।
मोटी बुद्धि वाले चौकीदार ने अपना सिर हिलाया। जेन्को को वह किसी बिल्ली के बच्चे की माफ़िक़ बगल में दुबकाकर अस्तबल में ले गया।
या तो उस बालक को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था अथवा वइ इस क़दर भयभीत था कि उसने मुँह नहीं खोला। मामला चाहे जो हो वह एक शब्द तक नहीं बोला। भयभीत नन्हें परिंदे की भाँति चारों ओर देखने लगा। उसे तब जाकर अहसास हुआ, जब चौकीदार ने पकड़कर फ़र्श पर लिटा दिया और उसे हाथ से पकड़कर बेंत से पीटने लगा।
बेचारा जेन्को चीख़ पड़ा, माँ... हर वार के साथ उसकी आवाज़ क्षीण और कमज़ोर होती जाती थी। कुछ देर बाद वह चुप हो गया। फिर उसने माँ को पुकारना बंद कर दिया।
बेचारा टूटा हुआ वायलिन!
क्रूर चौकीदार ने बड़ी बेरहमी से बालक को पीटा था। यूँ भी अभागा नन्हा जेन्को हमेशा से ही दुबला-पतला और कमज़ोर था। बड़ी मुश्किल से साँस ले पाता था। आख़िर उसकी माँ आई और बच्चे को अपने साथ ले गई। पर उसे गोद में उठाकर ले जाना पड़ा।
अगले रोज़ जेन्को उठ नहीं सका। तीसरे रोज़ उसने आख़िरी साँस ली। घोड़े की जीन के कपड़े से ढके बिस्तर पर वह हमेशा की नींद में सो गया। जब वह इस तरह मृत्यु के आग़ोश में था तो खिड़की के पास चेरी के वृक्ष पर अबावील पक्षी चहकने लगे, सूरज की किरणें भीतर झाँकने लगीं और बालक के लच्छेदार बाल और रक्तहीन सूखे चेहरे के चारों ओर ज्योति का एक पुंज दमकने लगा। मानो किरणों ने इस नन्हें से बालक की आत्मा को स्वर्ग में ले जाने का मार्ग बना दिया था।
ऐसे बदनसीब बालक को कम से कम मृत्यु की इस घड़ी में सूरज की रोशनी से भरा एक उज्ज्वल और चौड़ा मार्ग नसीब हुआ था, वरना जीवन-भर उसे कँटीले रास्ते पर ही चलना पड़ा था। उसकी बेजान छाती अभी भी हलके-हलके हिल रही थी। बालक अभी भी बाहरी दुनिया की आवाज़ों के प्रति सचेत था, जो खिड़की की मार्फ़त भीतर आ रही थी।
शाम का वक़्त था। खेतिहर बालाएँ काम से लौट रही थीं और गाते हुए जा रही थीं। पास से ही नदी की कलकल सुनाई दे रही थी। जेन्को ने आख़िरी मर्तबा देहात के संगीत को सुना। घोड़े की जीन के कपड़े पर उसके पास ही वह सारंगी भी रखी थी, जो उसने काठ के टुकड़े से बनाई थी। मरणासन्न बालक का चेहरा अचानक चमक उठा। उसके सफ़ेद होंठ फुसफुसाए, “माँ!”
'क्या बात है मेरे लाडले? माँ ने पूछा, लेकिन उसकी आवाज़ सिसकियों में दब गई।
माँ, भगवान् मुझे स्वर्ग में असली वायलिन देगा?
हाँ, मेरे बच्चे। वह इससे ज़्यादा कुछ नहीं बोल पाई। भीतर जज़्ब आँसुओं का सैलाब फूट पड़ा था। वह केवल बुदबुदाई।
ओ जीसस! फिर मेज़ पर सिर रखकर फूट-फूटकर विलाप करने लगी।
सब ख़त्म हो चुका था। जब उसने सिर उठाया तो देखा कि नन्हें संगीतकार की आँखें खुलीं पर निश्चल थीं। मुख पर शांति, गंभीरता और दृढ़ निश्चय झलक रहा था। सूरज डूब चुका था। नन्हें जेन्को, ईश्वर तुम्हें शांति दे!
अगले रोज़ बैरन और उसके परिवार वाले इटली से अपने बँगले में लौट आए। घर के दूसरे सदस्यों के साथ बेटी और उसका मँगेतर भी था।
इटली वाक़ई कितना दिलकश देश है? वह युवक बोला।
हाँ, वहाँ के लोग भी शानदार हैं। कलाकारों का देश है। वाक़ई उनकी कला को देखने और उसे प्रोत्साहित करने में कितना आनंद मिलता है। नवयुवती ने जवाब दिया।
जेन्को की क़ब्र पर कितने ही कीड़े-मकोड़े भिनभिना रहे थे।
jab wo is duniya mein aaya to behad kamzor aur durbal tha. paDosi palne ke ird gird ikatthe ho gaye. maan aur bachche ko dekh aapas mein afsos zahir karne lage. unmen luhar ki patni sabse tazurbekar thi, so apne andaz mein bimar istri ko dilasa dene lagi.
tum chupchap leti raho, main pavitra mombatti jalati hoon, tumhare paas zyada vaक़t nahin hai, dusri duniya mein jane ki taiyari karo. behtar hoga agar koi jaldi se jaye aur antim kriyakarm ke liye padari ko bula laye.
bachche ka bhi fauran namakarn karna hoga,” dusri ek istri boli, mere khyaal se to ye padari ke aane tak bhi nahin bachega. behtar hoga ki jaldi namakarn ho jaye, varna iski benam aatma yahan vahan bhatkegi.
ye bolte bolte usne pavitra mombatti jalai. shishu ko god mein uthaya. us par pavitra jal ka chhiDakav karti rahi, jab tak shishu ne ankhen jhapkani shuru nahin kar deen. saath mein pavitra paath ka jaap karti ja rahi thi.
“param poojy pita, putr aur pavitra aatma ke naam se main tera namakarn karti hoon. tera naam hoga jen, phir wo mirtyu ke vaक़t ki jane vali pararthna ko yaad karte hue jaldi jaldi kuch budbudane lagi.
he isai atma! is duniya se ab vida le aur jahan se janm liya hai vahin sharan le, amin!
par is isai aatma ka is duniya se vida lene ka koi irada nahin tha. ulte wo zor zor se laten chalane laga aur rona shuru kar diya. baharhal uske rone ka svar itna kshain aur mand tha, jaise billi ka koi bachcha haule haule mimiya raha ho.
padari ko bulaya gaya tha. usne aakar puja paath kiya aur chala gaya. marne ki bajay maan puri tarah bhali changi ho gai. hafte bhar mein kaam kaaj mein bhi jut gai.
shishu ki sansen nazuk Dor se latki hui theen. lagta tha jaise wo baDi mushkil se saans le pa raha hai, behad durbal va kamzor jo tha. par jab wo chaar baras ka tha to ek din kutiya ki chhat par papihe ne teen baar kuhu kuhu ki taan chheDi. polish lok vishvas ke anusar ye ek shubh shakun mana jata hai. uske baad shishu ki haalat sudharne lagi. din bitte gaye aur wo das baras ka ho gaya. par hamesha dubla patla aur nazuk hi bana raha. jhuki deh aur pichke gaal! uske dhusar baal hamesha uski ujli chamakdar ankhon par girte rahte. un ankhon mein sadaiv ek khvab angDai leta rahta. ankhen hamesha door, bahut door kahin tiki rahtin, mano kuch aisa dekh rahi hon, jo dusron se andekha hai.
jaDe ke dinon mein wo sigDi ke pichhe dubakkar baith jata aur thanD ke mare rone lagta. aksar wo bhookh se bhi bilakhta kyonki maan kai baar almari ya Dibbe mein khane ke liye kuch nahin rakh pati thi. garmiyon mein chhote safed jhable mein yahan vahan dauD bhaag karta rahta, jo rumal se uski kamar mein bandha rahta tha. sir par pual ki purani topi rahti, jiske surakhon se uske bhure baal bahar jhankte rahte. utsuk nigahen pakshi ki bhanti yahan vahan bhatakti rahtin. bechari maan kya karti, mushkil se do june ki roti juta pati thi. halanki jen se use beintha pyaar tha se par uski pitai bhi khoob karti. aksar use chenzling kahkar bulati. jab wo mahz aath baras ka tha, tabhi se usne apne bute par jina aur apni dekhbhal khu karna shuru kar diya tha. kabhi bheDen charane le jata, kabhi jab ghar par khane ke liye kuch nahin hota to mushroom khojne ghane jangal mein ghus jata. khuda ka shukr tha ki aisi dileri ke vaक़t kabhi kisi bheDiye ne use apna shikar nahin banaya tha. wo ehtiyat baratne vale bachchon mein se nahin tha. dehati bachchon ki tarah batachit ke vaक़t munh mein ungli rakh leta tha. use dekh paDosi bhavishyavanai karne se baaz nahin aate ki ye bachcha zyada din ji nahin payega. agar jivit bhi raha to maan ko kabhi sukh nahin de payega, kyonki uska sharir kabhi is layaq nahin ban payega ki wo kaDi mehnat kar sake.
usmen ek anokhi khubi thi. qudrat ki jane ye kaisi lila thi ki use ye niyamat bakhshi thi. sangit se use beintha muhabbat thi aur ye muhabbat hi uska junun thi. har qim ki avaz mein use sangit sunai deta. har avaz wo Dubkar sunta. jaise jaise wo baDa hota gaya, lai aur sur mein uski dilchaspi baDhti gai. wo bheD bakriyan charane jata ya sathiyon ke saath jangal mein ber chunne, khali haath hi ghar lautta aur maan se tutlakar bolta, oh maan, kaisa khubsurat sangit tha! kaisi madhur taan thi—la la. . . !
chal hat, bandar kahin ka! ab main tera baja bajaungi, na kaam ka, na kaaj ka! uski maan ghusse chillati aur kalchhi se uski pitai kar deti. bechara nanha sa balak chikhta aur dobara kabhi sangit na sunne ka vada karta; magar uska man to jangal mein hi basta tha. wo sochta rahta ki vahan kitne madhur svar hain, jo gunjte aur bajte rahte hain. pura jangal gata hai aur uski pratidhvani se jangal goonj uthta hai. meDon par ghaas ki pattiyan gati hain, ghar ke pichhe bagiya mein chiDiyan chahaktin hain, cheri ka vriksh sarsarata aur kanpknpata hai. shaam Dhalte hi use har tarah ki avazen sunai detin. dehat mein sunai dene vale ek se ek svar uske zehn mein bajne lagte. lagta, jaise samuche gaanv mein madhur svarlahri goonj uthi hai. uske sangi sathi ashchary jatate, kyonki unhen to aisa koi bhi svar sunai nahin deta tha. kaam ke vaक़t jab wo kheton mein sukhi ghaas saaf karne jata to hava ki sarsarahat mein kho jata. door khaDa nirikshak jab use yoon hi nithalla, baal pichhe ki or khiskaye, hava ke sangit mein khoya hua dekhta to phutpatti uthakar do teen satak se de marta, taki is svapnadrashta ko hosh mein laya ja sake. par sab bekar. akhiraka paDosiyon ne uska naam hi rakh diya sangitkar jenko!
raat mein jab menDhak tarrate, charagahon par kukkut chitkar karte, daldal mein titlauve dhamachaukDi machate aur baDon ke pichhe murge baang dete to ye balak so nahin pata tha. wo charam anand ki anubhuti se bhar uthta aur in svron mein kho jata. use in tamam mile jule svron mein ek adbhut sursangati sunai deti. ganimat thi ki maan use girjaghar nahin le jati, kyonki vahan jab vadyyantron aur ghantiyon ki jhankar gunjti to balak ki ankhen dhundhli aur nam ho uthtin aur unmen ek aisi chamak damakne lagti, mano ve kisi dusri hi duniya ki roshni se pradipt ho uthi hon. raat ke vaक़t gaanv mein pahra dene vala chaukidar kabhi kabhar yoon hi khu ko jagaye rakhne ke liye tare ginne lagta ya behad dhime dhime kisi kutte se gapiyane lagta. aise vaक़t kai baar usne sharabkhane ki dhundhli roshni mein chhote safed jhable mein jenko ko yahan vahan dauDte dekha tha. halanki wo balak kabhi sharabkhane ke bhitar nahin jata tha. wo divar se satkar baith jata aur bhitar ka sangit sunne ki koshish karta. bhitar jab kai yugal sangit ki madhur dhun par thirakte aur jhumte to pairon ki thaap aur balaon ke masti bhare svar sunai dete. haule haule vayalin bajta rahta. piano ka tez svar gunjta rahta, khiDkiyan roshni se nha uthtin. Daans phlor ka kaath charmarane, gane aur jhumne lagta. jenko tallin hokar ye sab sunta. aisi madhur dhun vale vayalin ko pane ke liye wo kuch bhi karne ko taiyar tha. magar afsos, uske nasib mein ye sab kahan? wo ise kaise pa sakta tha? kaash, ve use ek baar vayalin haath mein lene bhar dete to wo dhany ho uthta. . . par nahin, uski qimat mein to bus sunna likha tha. wo der tak but bana sunta rahta, jab tak door se andhere ko chirti chaukidar ki avaz na aa jati—
chalo, ab jao, sone ka vaक़t ho gaya hai.
tab wo nanha sa balak nange paanv raat ke andhere mein bhagte hue kutiya ki or jata, par vayalin ke svar der tak uska pichha nahin chhoDte.
jab fasal katne ya shadi byaah ke mauqon par baje va sarangi bajtin to use khoob anand aata. aise vaक़t wo sigDi ke pichhe dubakkar baith jata aur kai kai dinon tak ek lafz tak nahin bolta. damakti ankhen samne ki or yoon tiki rahtin, jaise raat ke vaक़t billi ki ankhen dikhti hon.
akhiraka usne kaath ke falak se apne liye ek sarangi bana hi Dali. ghoDe ke baal ka taar ke roop mein istemal kiya, par uske svar maikhane mein bajne vale vayalin jaise madhur nahin the. taron se behad muhin svar nikalta, mano makkhiyan ya kiDe makoDe bhin bhin kar rahe hon. phir bhi subah se der raat tak wo use bajata rahta. halanki use apni is lat ke liye bahut maar khani paDti thi, par ye sab chhoDna uske bus mein nahin tha. ye uski fitrat mein tha.
balak dinondin kamzor aur durbal hota ja raha tha aur balon ka guchchha pahle se ghana. ankhen har vaक़t chaukanni aur ansuon se bhari rahtin. chhati aur gaal dhanste ja rahe the. wo kabhi bhi aam bachchon ki tarah tandurust nahin ho paya. uska vahi haal tha, jo us bechari gharib sarangi ka tha, jo mushkil se hi baj pati thi. faslon ki katai ke vaक़t to wo lagbhag faqe hi karta tha. kyonki aise vaक़t wo mahz kachche shaljam khakar jivit rahta tha. uski ek hi chahat thi ki kisi tarah ek vayalin use mil jaye. magar afsos, uski is chahat ne us badansib ki jaan hi le li.
upar bangale ka malik bairan aur uska pura parivar arse se italy mein rah raha tha. bangale ki dekhbhal karne vale vardidhari sipahi ke paas ek vayalin tha, jo kabhi kabhar wo apni khubsurat premika ya phir naukaron ko khush karne ke liye bajata tha. jenko aksar unche unche paudhon ke beech naukaron ke hall ke darvaze ke paas dubakkar baitha rahta. us par ek hi dhun savar rahti ki kisi tarah us sangit ko sun sake ya phir kam se kam vayalin ki ek jhalak bhar pa sake. vayalin hamesha darvaze ke samne divar par tanga rahta tha. balak hasaratabhri nigahon se use niharta. aise vaक़t uski samuchi aatma ankhon mein utar aati. ye uske liye duniya ki sabse qimti cheez thi. achanak ek mook chahat ne use jakaD liya. kaash, kisi tarah wo ek baar use apne hathon se chhukar ya bahut naज़dik se jakar dekhe! is khayal maatr se uska dil balliyon uchhalne laga.
ek shaam usne dekha ki naukaron ke kamre mein koi nahin tha. pura parivar yoon bhi italy mein hi rah raha tha. ghar khali tha. vardidhari sipahi bhi apni premika ke saath kahin ghumne nikal gaya tha. jhaDiyon ke beech chhipa jenko darvaze ki jhiri mein se bahut der se apne lakshya par nazren tikaye baitha tha.
chandarma apne pure shabab ke saath asman mein damak raha tha. kamre ke bhitar bhi uski kirnon se ek ghera ban gaya tha, jo samne ki divar par paD raha tha. phir dhire dhire roshni ka ye ghera vayalin par simat aaya aur vayalin roshni mein nha utha. balak ne dekha ki ghane andhere ke beech dudhiya roshni mein vayalin chamak raha tha. is क़dar ujjval ki uski chakachaundh se wo baura gaya. uske taar, gardan, kinare sab kuch saaf dikhai de rahe the. khuntiyan jugnu ki manind chamak rahi theen aur vayalin ka gaj bhi ekdam jadu ki chhaDi ke mafiq tha.
vaah! kitna khubsurat hai, ekdam jadui! jenko lalchai nazron se use takne laga. wo lataon ke beech dubakkar baitha tha. uski kohaniyan kamzor ghutnon par tiki hui theen. avak nishchal, us ek cheez par takatki bandhe! wo mayusi se bhar utha. agle hi pal utkat akanksha ne use gher liya. kya ye koi jadu hai ya kuch aur? vayalin ka junun us par manDara raha tha. kshan bhar ke liye vayalin andhere mein Doob gai, par phir duguni aabha se wo chamak uthi. jadu vaqii ye jadu hi tha. isi beech hava sarsarane lagi, peD Dolne lage, latayen mand mand phusaphusane lagin aur ye sabhi mano us balak ko uksa rahe the—“chalo jenko, aage baDho, vahan koi bhi nahin hai. . . jao, jenko.
raat ujli aur nirmal thi. bagiche mein talab ke kinare bulbul ne kuhukna shuru kar diya. kabhi haule haule to kabhi zor se. uske geet ke bol the—age baDho, himmat karo, jakar chhu lo pyare! ek imanadar kala kaua balak ke sir par manDrane laga aur kaanv kaanv kar bola, nahin, jenko nahin. kaua uD gaya. bulbul abhi bhi ga rahi thi. latayen dugne veg se phusaphusane lagin—jao, vahan koi nahin hai.
vayalin ab bhi chandarma ki roshni ke ghere mein tanga hua tha. ab wo ghani lataon ke pichhe se uth khaDa hua. dahliz par us nazuk balak ki dhaunkni ki tarah chal rahi sanson ko saaf suna ja sakta tha. kshan bhar baad hi safed jhabla ojhal ho chuka tha. keval ek nanha pair siDhiyon par dikh raha tha. dost kaue ne ek baar phir byarth mein chakkar katkar agah kiya, nahin, nahin. par jenko bhitar ghus chuka tha. talab mein menDhak achanak tarrane lage, mano kisi ne unhen Dara diya ho. phir achanak shaant ho gaye. bulbul ne gana band kar diya. belon ki phusphusahat bhi tham gai. is beech jenko apne lakshya ke aur qarib pahunch gaya tha, par bhay ne use jakaD liya. ghar ke bhitar lataon ki chhaya paD rahi thi. jhurmut mein wo ek jangali jeev ki bhanti dikh raha tha. wo tez chal raha tha, par saans dhime dhime chal rahi thi.
poorv se pashchim ki or garmiyon ki kanpkanpati lapakti bijli se pura kamra kshan bhar ke liye roshan ho utha. usi ek pal mein donon hathon aur pairon par jhuka bechara jenko kanpta dikhai diya. vayalin ke paas sir ko aage ki or phailakar wo palathi markar baitha tha. phir bijli kaDakni band ho gai. chandarma ko badalon ne Dhak liya. charon or nistabdhata pasar gai.
ek viram ke baad andhere mein halke krandan si avaz i, mano kisi ne anjane mein taron ko chheD diya ho. usi vaक़t kamre ke kone se karkash, magar unindi avaz phoot paDi—
kaun hai vahan?
divar se machis ki tili ragaDne ki avaz sunai di. ekayek roshni ki lahr phoot paDi aur phir haay raam! galiyon, ghunson, mukkon ki barsat hone lagi. bachcha rone laga, bilakhne, yachana karne laga, ishvar ke vaste!
kutton ka bhaunkna, roshni lekar logon ki bhagdaD shuru ho gai. pure ghar mein khalbali mach gai.
do din baad abhaga jenko magistrate ke samne tha. kya chori ke zurm mein us par muqadma chalaya jaye? beshak.
nyayadhish aur makan malik ne katghare mein khaDe apradhi ko dekha. munh mein ungli Dale, phati bhaybhit ankhen, behad durbal, chhota, ganda, choton se bhara wo balak chupchap khaDa tha. is baat se puri tarah anjan ki kyon aur kaise use yahan laya gaya hai aur ve log uske saath kya karne vale hain? nyayadhish soch mein paD gaya ki is क़dar durbal, mahz das varsh ke is abhage ko kya danD diya ja sakta hai, jo apne pairon par Dhang se khaDa bhi nahin ho pa raha hai? kya ise qaidkhane bheja ja sakta hai? yoon bhi bachchon ke saath itna beraham nahin hua ja sakta! kya ye behtar nahin hoga ki chaukidar ise le jakar bent se thoDi pitai kar de, jisse use dobara chori na karne ka sabak mil jaye. is tarah mamla bhi nipat jayega.
haan, yahi baDhiya rahega! chaukidar ko bulaya gaya.
ise le jao, chetavni ke bataur bent se pitai karo.
moti buddhi vale chaukidar ne apna sir hilaya. jenko ko wo kisi billi ke bachche ki mafiq bagal mein dubkakar astabal mein le gaya.
ya to us balak ko kuch bhi samajh mein nahin aa raha tha athva vai is क़dar bhaybhit tha ki usne munh nahin khola. mamla chahe jo ho wo ek shabd tak nahin bola. bhaybhit nanhen parinde ki bhanti charon or dekhne laga. use tab jakar ahsas hua, jab chaukidar ne pakaDkar farsh par lita diya aur use haath se pakaDkar bent se pitne laga.
bechara jenko cheekh paDa, maan. . . har vaar ke saath uski avaz kshain aur kamzor hoti jati thi. kuch der baad wo chup ho gaya. phir usne maan ko pukarna band kar diya.
bechara tuta hua vayalin!
kroor chaukidar ne baDi berahmi se balak ko pita tha. yoon bhi abhaga nanha jenko hamesha se hi dubla patla aur kamzor tha. baDi mushkil se saans le pata tha. akhir uski maan i aur bachche ko apne saath le gai. par use god mein uthakar le jana paDa.
agle roz jenko uth nahin saka. tisre roz usne akhiri saans li. ghoDe ki jeen ke kapDe se Dhake bistar par wo hamesha ki neend mein so gaya. jab wo is tarah mirtyu ke aghosh mein tha to khiDki ke paas cheri ke vriksh par abavil pakshi chahakne lage, suraj ki kirnen bhitar jhankne lagin aur balak ke lachchhedar baal aur raktahin sukhe chehre ke charon or jyoti ka ek punj damakne laga. mano kirnon ne is nanhen se balak ki aatma ko svarg mein le jane ka maarg bana diya tha.
aise badansib balak ko kam se kam mirtyu ki is ghaDi mein suraj ki roshni se bhara ek ujjval aur chauDa maarg nasib hua tha, varna jivan bhar use kantile raste par hi chalna paDa tha. uski bejan chhati abhi bhi halke halke hil rahi thi. balak abhi bhi bahari duniya ki avazon ke prati sachet tha, jo khiDki ki marfat bhitar aa rahi thi.
shaam ka vaक़t tha. khetihar balayen kaam se laut rahi theen aur gate hue ja rahi theen. paas se hi nadi ki kalkal sunai de rahi thi. jenko ne akhiri martaba dehat ke sangit ko suna. ghoDe ki jeen ke kapDe par uske paas hi wo sarangi bhi rakhi thi, jo usne kaath ke tukDe se banai thi. marnaasann balak ka chehra achanak chamak utha. uske safed honth phusaphusaye, “maan!”
kya baat hai mere laDle? maan ne puchha, lekin uski avaz siskiyon mein dab gai.
maan, bhagvan mujhe svarg mein asli vayalin dega?
haan, mere bachche. wo isse zyada kuch nahin bol pai. bhitar jazb ansuon ka sailab phoot paDa tha. wo keval budabudai.
o jisas! phir mez par sir rakhkar phoot phutkar vilap karne lagi.
sab khatm ho chuka tha. jab usne sir uthaya to dekha ki nanhen sangitkar ki ankhen khulin par nishchal theen. mukh par shanti, gambhirta aur driDh nishchay jhalak raha tha. suraj Doob chuka tha. nanhen jenko, ishvar tumhein shanti de!
agle roz bairan aur uske parivar vale italy se apne bangale mein laut aaye. ghar ke dusre sadasyon ke saath beti aur uska mangetar bhi tha.
italy vaqii kitna dilkash desh hai? wo yuvak bola.
haan, vahan ke log bhi shanadar hain. kalakaron ka desh hai. vaqii unki kala ko dekhne aur use protsahit karne mein kitna anand milta hai. navyuvti ne javab diya.
jenko ki क़br par kitne hi kiDe makoDe bhinbhina rahe the.
jab wo is duniya mein aaya to behad kamzor aur durbal tha. paDosi palne ke ird gird ikatthe ho gaye. maan aur bachche ko dekh aapas mein afsos zahir karne lage. unmen luhar ki patni sabse tazurbekar thi, so apne andaz mein bimar istri ko dilasa dene lagi.
tum chupchap leti raho, main pavitra mombatti jalati hoon, tumhare paas zyada vaक़t nahin hai, dusri duniya mein jane ki taiyari karo. behtar hoga agar koi jaldi se jaye aur antim kriyakarm ke liye padari ko bula laye.
bachche ka bhi fauran namakarn karna hoga,” dusri ek istri boli, mere khyaal se to ye padari ke aane tak bhi nahin bachega. behtar hoga ki jaldi namakarn ho jaye, varna iski benam aatma yahan vahan bhatkegi.
ye bolte bolte usne pavitra mombatti jalai. shishu ko god mein uthaya. us par pavitra jal ka chhiDakav karti rahi, jab tak shishu ne ankhen jhapkani shuru nahin kar deen. saath mein pavitra paath ka jaap karti ja rahi thi.
“param poojy pita, putr aur pavitra aatma ke naam se main tera namakarn karti hoon. tera naam hoga jen, phir wo mirtyu ke vaक़t ki jane vali pararthna ko yaad karte hue jaldi jaldi kuch budbudane lagi.
he isai atma! is duniya se ab vida le aur jahan se janm liya hai vahin sharan le, amin!
par is isai aatma ka is duniya se vida lene ka koi irada nahin tha. ulte wo zor zor se laten chalane laga aur rona shuru kar diya. baharhal uske rone ka svar itna kshain aur mand tha, jaise billi ka koi bachcha haule haule mimiya raha ho.
padari ko bulaya gaya tha. usne aakar puja paath kiya aur chala gaya. marne ki bajay maan puri tarah bhali changi ho gai. hafte bhar mein kaam kaaj mein bhi jut gai.
shishu ki sansen nazuk Dor se latki hui theen. lagta tha jaise wo baDi mushkil se saans le pa raha hai, behad durbal va kamzor jo tha. par jab wo chaar baras ka tha to ek din kutiya ki chhat par papihe ne teen baar kuhu kuhu ki taan chheDi. polish lok vishvas ke anusar ye ek shubh shakun mana jata hai. uske baad shishu ki haalat sudharne lagi. din bitte gaye aur wo das baras ka ho gaya. par hamesha dubla patla aur nazuk hi bana raha. jhuki deh aur pichke gaal! uske dhusar baal hamesha uski ujli chamakdar ankhon par girte rahte. un ankhon mein sadaiv ek khvab angDai leta rahta. ankhen hamesha door, bahut door kahin tiki rahtin, mano kuch aisa dekh rahi hon, jo dusron se andekha hai.
jaDe ke dinon mein wo sigDi ke pichhe dubakkar baith jata aur thanD ke mare rone lagta. aksar wo bhookh se bhi bilakhta kyonki maan kai baar almari ya Dibbe mein khane ke liye kuch nahin rakh pati thi. garmiyon mein chhote safed jhable mein yahan vahan dauD bhaag karta rahta, jo rumal se uski kamar mein bandha rahta tha. sir par pual ki purani topi rahti, jiske surakhon se uske bhure baal bahar jhankte rahte. utsuk nigahen pakshi ki bhanti yahan vahan bhatakti rahtin. bechari maan kya karti, mushkil se do june ki roti juta pati thi. halanki jen se use beintha pyaar tha se par uski pitai bhi khoob karti. aksar use chenzling kahkar bulati. jab wo mahz aath baras ka tha, tabhi se usne apne bute par jina aur apni dekhbhal khu karna shuru kar diya tha. kabhi bheDen charane le jata, kabhi jab ghar par khane ke liye kuch nahin hota to mushroom khojne ghane jangal mein ghus jata. khuda ka shukr tha ki aisi dileri ke vaक़t kabhi kisi bheDiye ne use apna shikar nahin banaya tha. wo ehtiyat baratne vale bachchon mein se nahin tha. dehati bachchon ki tarah batachit ke vaक़t munh mein ungli rakh leta tha. use dekh paDosi bhavishyavanai karne se baaz nahin aate ki ye bachcha zyada din ji nahin payega. agar jivit bhi raha to maan ko kabhi sukh nahin de payega, kyonki uska sharir kabhi is layaq nahin ban payega ki wo kaDi mehnat kar sake.
usmen ek anokhi khubi thi. qudrat ki jane ye kaisi lila thi ki use ye niyamat bakhshi thi. sangit se use beintha muhabbat thi aur ye muhabbat hi uska junun thi. har qim ki avaz mein use sangit sunai deta. har avaz wo Dubkar sunta. jaise jaise wo baDa hota gaya, lai aur sur mein uski dilchaspi baDhti gai. wo bheD bakriyan charane jata ya sathiyon ke saath jangal mein ber chunne, khali haath hi ghar lautta aur maan se tutlakar bolta, oh maan, kaisa khubsurat sangit tha! kaisi madhur taan thi—la la. . . !
chal hat, bandar kahin ka! ab main tera baja bajaungi, na kaam ka, na kaaj ka! uski maan ghusse chillati aur kalchhi se uski pitai kar deti. bechara nanha sa balak chikhta aur dobara kabhi sangit na sunne ka vada karta; magar uska man to jangal mein hi basta tha. wo sochta rahta ki vahan kitne madhur svar hain, jo gunjte aur bajte rahte hain. pura jangal gata hai aur uski pratidhvani se jangal goonj uthta hai. meDon par ghaas ki pattiyan gati hain, ghar ke pichhe bagiya mein chiDiyan chahaktin hain, cheri ka vriksh sarsarata aur kanpknpata hai. shaam Dhalte hi use har tarah ki avazen sunai detin. dehat mein sunai dene vale ek se ek svar uske zehn mein bajne lagte. lagta, jaise samuche gaanv mein madhur svarlahri goonj uthi hai. uske sangi sathi ashchary jatate, kyonki unhen to aisa koi bhi svar sunai nahin deta tha. kaam ke vaक़t jab wo kheton mein sukhi ghaas saaf karne jata to hava ki sarsarahat mein kho jata. door khaDa nirikshak jab use yoon hi nithalla, baal pichhe ki or khiskaye, hava ke sangit mein khoya hua dekhta to phutpatti uthakar do teen satak se de marta, taki is svapnadrashta ko hosh mein laya ja sake. par sab bekar. akhiraka paDosiyon ne uska naam hi rakh diya sangitkar jenko!
raat mein jab menDhak tarrate, charagahon par kukkut chitkar karte, daldal mein titlauve dhamachaukDi machate aur baDon ke pichhe murge baang dete to ye balak so nahin pata tha. wo charam anand ki anubhuti se bhar uthta aur in svron mein kho jata. use in tamam mile jule svron mein ek adbhut sursangati sunai deti. ganimat thi ki maan use girjaghar nahin le jati, kyonki vahan jab vadyyantron aur ghantiyon ki jhankar gunjti to balak ki ankhen dhundhli aur nam ho uthtin aur unmen ek aisi chamak damakne lagti, mano ve kisi dusri hi duniya ki roshni se pradipt ho uthi hon. raat ke vaक़t gaanv mein pahra dene vala chaukidar kabhi kabhar yoon hi khu ko jagaye rakhne ke liye tare ginne lagta ya behad dhime dhime kisi kutte se gapiyane lagta. aise vaक़t kai baar usne sharabkhane ki dhundhli roshni mein chhote safed jhable mein jenko ko yahan vahan dauDte dekha tha. halanki wo balak kabhi sharabkhane ke bhitar nahin jata tha. wo divar se satkar baith jata aur bhitar ka sangit sunne ki koshish karta. bhitar jab kai yugal sangit ki madhur dhun par thirakte aur jhumte to pairon ki thaap aur balaon ke masti bhare svar sunai dete. haule haule vayalin bajta rahta. piano ka tez svar gunjta rahta, khiDkiyan roshni se nha uthtin. Daans phlor ka kaath charmarane, gane aur jhumne lagta. jenko tallin hokar ye sab sunta. aisi madhur dhun vale vayalin ko pane ke liye wo kuch bhi karne ko taiyar tha. magar afsos, uske nasib mein ye sab kahan? wo ise kaise pa sakta tha? kaash, ve use ek baar vayalin haath mein lene bhar dete to wo dhany ho uthta. . . par nahin, uski qimat mein to bus sunna likha tha. wo der tak but bana sunta rahta, jab tak door se andhere ko chirti chaukidar ki avaz na aa jati—
chalo, ab jao, sone ka vaक़t ho gaya hai.
tab wo nanha sa balak nange paanv raat ke andhere mein bhagte hue kutiya ki or jata, par vayalin ke svar der tak uska pichha nahin chhoDte.
jab fasal katne ya shadi byaah ke mauqon par baje va sarangi bajtin to use khoob anand aata. aise vaक़t wo sigDi ke pichhe dubakkar baith jata aur kai kai dinon tak ek lafz tak nahin bolta. damakti ankhen samne ki or yoon tiki rahtin, jaise raat ke vaक़t billi ki ankhen dikhti hon.
akhiraka usne kaath ke falak se apne liye ek sarangi bana hi Dali. ghoDe ke baal ka taar ke roop mein istemal kiya, par uske svar maikhane mein bajne vale vayalin jaise madhur nahin the. taron se behad muhin svar nikalta, mano makkhiyan ya kiDe makoDe bhin bhin kar rahe hon. phir bhi subah se der raat tak wo use bajata rahta. halanki use apni is lat ke liye bahut maar khani paDti thi, par ye sab chhoDna uske bus mein nahin tha. ye uski fitrat mein tha.
balak dinondin kamzor aur durbal hota ja raha tha aur balon ka guchchha pahle se ghana. ankhen har vaक़t chaukanni aur ansuon se bhari rahtin. chhati aur gaal dhanste ja rahe the. wo kabhi bhi aam bachchon ki tarah tandurust nahin ho paya. uska vahi haal tha, jo us bechari gharib sarangi ka tha, jo mushkil se hi baj pati thi. faslon ki katai ke vaक़t to wo lagbhag faqe hi karta tha. kyonki aise vaक़t wo mahz kachche shaljam khakar jivit rahta tha. uski ek hi chahat thi ki kisi tarah ek vayalin use mil jaye. magar afsos, uski is chahat ne us badansib ki jaan hi le li.
upar bangale ka malik bairan aur uska pura parivar arse se italy mein rah raha tha. bangale ki dekhbhal karne vale vardidhari sipahi ke paas ek vayalin tha, jo kabhi kabhar wo apni khubsurat premika ya phir naukaron ko khush karne ke liye bajata tha. jenko aksar unche unche paudhon ke beech naukaron ke hall ke darvaze ke paas dubakkar baitha rahta. us par ek hi dhun savar rahti ki kisi tarah us sangit ko sun sake ya phir kam se kam vayalin ki ek jhalak bhar pa sake. vayalin hamesha darvaze ke samne divar par tanga rahta tha. balak hasaratabhri nigahon se use niharta. aise vaक़t uski samuchi aatma ankhon mein utar aati. ye uske liye duniya ki sabse qimti cheez thi. achanak ek mook chahat ne use jakaD liya. kaash, kisi tarah wo ek baar use apne hathon se chhukar ya bahut naज़dik se jakar dekhe! is khayal maatr se uska dil balliyon uchhalne laga.
ek shaam usne dekha ki naukaron ke kamre mein koi nahin tha. pura parivar yoon bhi italy mein hi rah raha tha. ghar khali tha. vardidhari sipahi bhi apni premika ke saath kahin ghumne nikal gaya tha. jhaDiyon ke beech chhipa jenko darvaze ki jhiri mein se bahut der se apne lakshya par nazren tikaye baitha tha.
chandarma apne pure shabab ke saath asman mein damak raha tha. kamre ke bhitar bhi uski kirnon se ek ghera ban gaya tha, jo samne ki divar par paD raha tha. phir dhire dhire roshni ka ye ghera vayalin par simat aaya aur vayalin roshni mein nha utha. balak ne dekha ki ghane andhere ke beech dudhiya roshni mein vayalin chamak raha tha. is क़dar ujjval ki uski chakachaundh se wo baura gaya. uske taar, gardan, kinare sab kuch saaf dikhai de rahe the. khuntiyan jugnu ki manind chamak rahi theen aur vayalin ka gaj bhi ekdam jadu ki chhaDi ke mafiq tha.
vaah! kitna khubsurat hai, ekdam jadui! jenko lalchai nazron se use takne laga. wo lataon ke beech dubakkar baitha tha. uski kohaniyan kamzor ghutnon par tiki hui theen. avak nishchal, us ek cheez par takatki bandhe! wo mayusi se bhar utha. agle hi pal utkat akanksha ne use gher liya. kya ye koi jadu hai ya kuch aur? vayalin ka junun us par manDara raha tha. kshan bhar ke liye vayalin andhere mein Doob gai, par phir duguni aabha se wo chamak uthi. jadu vaqii ye jadu hi tha. isi beech hava sarsarane lagi, peD Dolne lage, latayen mand mand phusaphusane lagin aur ye sabhi mano us balak ko uksa rahe the—“chalo jenko, aage baDho, vahan koi bhi nahin hai. . . jao, jenko.
raat ujli aur nirmal thi. bagiche mein talab ke kinare bulbul ne kuhukna shuru kar diya. kabhi haule haule to kabhi zor se. uske geet ke bol the—age baDho, himmat karo, jakar chhu lo pyare! ek imanadar kala kaua balak ke sir par manDrane laga aur kaanv kaanv kar bola, nahin, jenko nahin. kaua uD gaya. bulbul abhi bhi ga rahi thi. latayen dugne veg se phusaphusane lagin—jao, vahan koi nahin hai.
vayalin ab bhi chandarma ki roshni ke ghere mein tanga hua tha. ab wo ghani lataon ke pichhe se uth khaDa hua. dahliz par us nazuk balak ki dhaunkni ki tarah chal rahi sanson ko saaf suna ja sakta tha. kshan bhar baad hi safed jhabla ojhal ho chuka tha. keval ek nanha pair siDhiyon par dikh raha tha. dost kaue ne ek baar phir byarth mein chakkar katkar agah kiya, nahin, nahin. par jenko bhitar ghus chuka tha. talab mein menDhak achanak tarrane lage, mano kisi ne unhen Dara diya ho. phir achanak shaant ho gaye. bulbul ne gana band kar diya. belon ki phusphusahat bhi tham gai. is beech jenko apne lakshya ke aur qarib pahunch gaya tha, par bhay ne use jakaD liya. ghar ke bhitar lataon ki chhaya paD rahi thi. jhurmut mein wo ek jangali jeev ki bhanti dikh raha tha. wo tez chal raha tha, par saans dhime dhime chal rahi thi.
poorv se pashchim ki or garmiyon ki kanpkanpati lapakti bijli se pura kamra kshan bhar ke liye roshan ho utha. usi ek pal mein donon hathon aur pairon par jhuka bechara jenko kanpta dikhai diya. vayalin ke paas sir ko aage ki or phailakar wo palathi markar baitha tha. phir bijli kaDakni band ho gai. chandarma ko badalon ne Dhak liya. charon or nistabdhata pasar gai.
ek viram ke baad andhere mein halke krandan si avaz i, mano kisi ne anjane mein taron ko chheD diya ho. usi vaक़t kamre ke kone se karkash, magar unindi avaz phoot paDi—
kaun hai vahan?
divar se machis ki tili ragaDne ki avaz sunai di. ekayek roshni ki lahr phoot paDi aur phir haay raam! galiyon, ghunson, mukkon ki barsat hone lagi. bachcha rone laga, bilakhne, yachana karne laga, ishvar ke vaste!
kutton ka bhaunkna, roshni lekar logon ki bhagdaD shuru ho gai. pure ghar mein khalbali mach gai.
do din baad abhaga jenko magistrate ke samne tha. kya chori ke zurm mein us par muqadma chalaya jaye? beshak.
nyayadhish aur makan malik ne katghare mein khaDe apradhi ko dekha. munh mein ungli Dale, phati bhaybhit ankhen, behad durbal, chhota, ganda, choton se bhara wo balak chupchap khaDa tha. is baat se puri tarah anjan ki kyon aur kaise use yahan laya gaya hai aur ve log uske saath kya karne vale hain? nyayadhish soch mein paD gaya ki is क़dar durbal, mahz das varsh ke is abhage ko kya danD diya ja sakta hai, jo apne pairon par Dhang se khaDa bhi nahin ho pa raha hai? kya ise qaidkhane bheja ja sakta hai? yoon bhi bachchon ke saath itna beraham nahin hua ja sakta! kya ye behtar nahin hoga ki chaukidar ise le jakar bent se thoDi pitai kar de, jisse use dobara chori na karne ka sabak mil jaye. is tarah mamla bhi nipat jayega.
haan, yahi baDhiya rahega! chaukidar ko bulaya gaya.
ise le jao, chetavni ke bataur bent se pitai karo.
moti buddhi vale chaukidar ne apna sir hilaya. jenko ko wo kisi billi ke bachche ki mafiq bagal mein dubkakar astabal mein le gaya.
ya to us balak ko kuch bhi samajh mein nahin aa raha tha athva vai is क़dar bhaybhit tha ki usne munh nahin khola. mamla chahe jo ho wo ek shabd tak nahin bola. bhaybhit nanhen parinde ki bhanti charon or dekhne laga. use tab jakar ahsas hua, jab chaukidar ne pakaDkar farsh par lita diya aur use haath se pakaDkar bent se pitne laga.
bechara jenko cheekh paDa, maan. . . har vaar ke saath uski avaz kshain aur kamzor hoti jati thi. kuch der baad wo chup ho gaya. phir usne maan ko pukarna band kar diya.
bechara tuta hua vayalin!
kroor chaukidar ne baDi berahmi se balak ko pita tha. yoon bhi abhaga nanha jenko hamesha se hi dubla patla aur kamzor tha. baDi mushkil se saans le pata tha. akhir uski maan i aur bachche ko apne saath le gai. par use god mein uthakar le jana paDa.
agle roz jenko uth nahin saka. tisre roz usne akhiri saans li. ghoDe ki jeen ke kapDe se Dhake bistar par wo hamesha ki neend mein so gaya. jab wo is tarah mirtyu ke aghosh mein tha to khiDki ke paas cheri ke vriksh par abavil pakshi chahakne lage, suraj ki kirnen bhitar jhankne lagin aur balak ke lachchhedar baal aur raktahin sukhe chehre ke charon or jyoti ka ek punj damakne laga. mano kirnon ne is nanhen se balak ki aatma ko svarg mein le jane ka maarg bana diya tha.
aise badansib balak ko kam se kam mirtyu ki is ghaDi mein suraj ki roshni se bhara ek ujjval aur chauDa maarg nasib hua tha, varna jivan bhar use kantile raste par hi chalna paDa tha. uski bejan chhati abhi bhi halke halke hil rahi thi. balak abhi bhi bahari duniya ki avazon ke prati sachet tha, jo khiDki ki marfat bhitar aa rahi thi.
shaam ka vaक़t tha. khetihar balayen kaam se laut rahi theen aur gate hue ja rahi theen. paas se hi nadi ki kalkal sunai de rahi thi. jenko ne akhiri martaba dehat ke sangit ko suna. ghoDe ki jeen ke kapDe par uske paas hi wo sarangi bhi rakhi thi, jo usne kaath ke tukDe se banai thi. marnaasann balak ka chehra achanak chamak utha. uske safed honth phusaphusaye, “maan!”
kya baat hai mere laDle? maan ne puchha, lekin uski avaz siskiyon mein dab gai.
maan, bhagvan mujhe svarg mein asli vayalin dega?
haan, mere bachche. wo isse zyada kuch nahin bol pai. bhitar jazb ansuon ka sailab phoot paDa tha. wo keval budabudai.
o jisas! phir mez par sir rakhkar phoot phutkar vilap karne lagi.
sab khatm ho chuka tha. jab usne sir uthaya to dekha ki nanhen sangitkar ki ankhen khulin par nishchal theen. mukh par shanti, gambhirta aur driDh nishchay jhalak raha tha. suraj Doob chuka tha. nanhen jenko, ishvar tumhein shanti de!
agle roz bairan aur uske parivar vale italy se apne bangale mein laut aaye. ghar ke dusre sadasyon ke saath beti aur uska mangetar bhi tha.
italy vaqii kitna dilkash desh hai? wo yuvak bola.
haan, vahan ke log bhi shanadar hain. kalakaron ka desh hai. vaqii unki kala ko dekhne aur use protsahit karne mein kitna anand milta hai. navyuvti ne javab diya.
jenko ki क़br par kitne hi kiDe makoDe bhinbhina rahe the.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 18-26)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : हेन्रिक एडम अलकसेनडर पियस सींकीविक्ज़
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
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