मानो रात को फ़ोटो खींचने के लिए आलोकित किया गया हो, वलातोन झील का विहार धूप से चमक-दमक रहा था। बलुहे समुद्र तट के हाशिए के भीतर सब-कुछ, सफ़ेदी से पुती कोठरियों से लेकर पीली बरसातियों तक सब कुछ निष्कलंक उजला हो रहा था। आकाश भी शुभ्र था और बबूल की धूलभरी पत्तियाँ कोरे कागज़-सी सफ़ेद थीं।
क़रीब ढाई बजा था।
शुहायदा ने खाना जल्दी खा लिया था। वह बंगले के सदर दरवाज़े से सीढ़ियाँ उतर रहा था, जो अहाते से बग़ीची तक आती थीं।
“कहाँ चले?” श्रीमती शुहायदा ने पूछा। वह नन्हें-नन्हें शोख फूलों के बीच बैठी क्रोशियाकारी कर रही थीं।
“नहाने” शुहायदा ने जम्हाई लेते हुए जवाब दिया। हाथ में चेरी रंग का जाँघिया था।
“सुनो, उसे लेते जाओ” स्त्री ने मिन्नत से कहा।
“नहीं!”
“क्यों नहीं?”
“क्योंकि वह शरारती है,” शुहायदा ने उत्तर दिया, “क्योंकि वह निकम्मा नालायक लड़का है,” और फिर ज़रा ठहरकर बोले, “क्योंकि वह पढ़ता नहीं है।”
“पढ़ता तो है।” पत्नी ने हाथ नचाकर विरोध किया, “सवेरे से पढ़ ही तो रहा है।”
रसोईघर के सामने कोई ग्यारह बरस का एक लड़का बेंच पर बैठा कान खुजा रहा था। उसकी गोद में एक बंद किताब पड़ी थी—उसका लैटिन-व्याकरण।
वह सुकट्टी हो रहा था और उसका सर घुटा हुआ था। वह लाल बनियान और सूती पतलून पहने था। उघरे पाँव में चमड़े की सैंडिल थी। माँ-बाप की ओर मिंची आँखों से वह देख रहा था।
“अच्छा”, शुहायदा ने सिर झटककर रुखाई से पूछा, “इसे कैसे कहोगे...वे मेरी प्रशंसा करेंगे?”
“लाडेरेटुरं” लड़के ने मुन्न से कहा। वह बिना सोचे घबराकर बोला था, मगर उत्तर देने के पहले खड़ा हो गया था मानो स्कूल में हो।
“लाडेरेटुरं” शुहायदा ने व्यंग्य से सिर हिलाकर हामी भरी, “लाडेरेटुरं”, क्या कहने। दूसरी परीक्षा में भी तुम फेल होगे।”
“नहीं-नहीं, वह जानता है”, माँ बच्चे की मदद को आई, “मगर वह गड़बड़ा जाता है। तुम से डर जाता है वह।”
“मैं इसकी पढ़ाई छुड़ा दूँगा, सच कहता हूँ। ईश्वर की क़सम’’, पिता गरजकर बोला, “घसियारा बनेगा या भाड़ झोंकेगा।”
उन्हें ख़ुद मालूम नहीं, उन्होंने ग़ुस्से में ये दो धंधे क्यों सोचे थे, जबकि इन दोनों का उन्हें कुछ ज्ञान न था।
“यह मुझे बरबाद कर देगा, घुन्नहा कहीं का”, शुहायदा कहने लगा। क्रोध उसके जीवन का रस था। “बरबाद कर देगा” उसने फिर कहा और देखा कि उसके ग़ुस्से से उसके शरीर में ख़ून दौड़ने लगा था और दोपहर की ऊब भाग रही थी।
“मैं पढ़ूँगा” लड़का दबी ज़बान में हकलाया और अपमान के अकेलेपन में उसने सहारे के लिए माँ की ओर ताका। पिता की ओर देखने की उसे ताब न थी। वह पिता को देखता नहीं था। वह अकेले उन्हें अनुभव करता था। हर जगह, हर समय, नफ़रत से।
“मत पढ़ना।” शुहायदा ने तिरस्कार करके कहा, “पढ़ने की क्या ज़रूरत है, बेकार का काम है।”
“मगर वह पढ़ता तो है” माँ बच्चे के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली, “और तुम तो उसे माफ़ कर दोगे, क्यों न...” यह कहकर तत्काल वह बच्चे से बोली, “अपना जाँघिया झटपट ले आओ, तुम्हारे बापू तुम्हें तैरने साथ ले जाएँगे।”
जानी ठीक-ठीक समझ न पाया कि हो क्या रहा है? वह यह भी तय न कर सका कि उसकी माँ के हस्तक्षेप ने किस चमत्कार द्वारा उसकी और पिता की वह लंबी तकरार ख़त्म करा दी है? जो हो, वह दौड़कर दरवाज़े तक और दरवाज़े से अपनी छोटी-सी अँधेरी कोठरी में चला गया। वहाँ वह फ़ुर्ती से चेरी के रंग वाला अपना जाँघिया ख़ोजने लगा। वह उसके पिता का-सा ही था, हाँ उससे छोटा था। श्रीमती शुहायदा ने ही दोनों के बनाए थे।
पिता हिचकिचाते दिखाई दिए। अपनी पत्नी के निवेदन का स्पष्ट उत्तर न देकर वह गूज़बेरी की झाड़ी के पास ठिठके रहे; मानो लड़के के लपककर आ जाने की प्रतीक्षा कर रहे हों। फिर उन्होंने मानो इरादा बदल दिया और बग़ीची के छुटके दरवाज़े से निकल आए। झील की ओर वह और दिनों से धीमी चाल से चलने लगे।
लड़के को अपनी जाँघिया ख़ोजने में कई एक मिनट लग गए।
जानी माध्यमिक स्कूल की दूसरी श्रेणी में लैटिन की परीक्षा में फेल हो गया था। वह शरद में फिर परीक्षा देने की तैयारी कर रहा था, परंतु कुछ ढीला-सा था। पिता ने दंड दिया था कि सप्ताह-भर तैरने को नहीं मिलेगा। ऐसे दो दिन और बिना तैरे काटने होते, इससे हाथ आए सुनहरे अवसर का वह जी भरकर उपभोग करना चाहता था। उसने सारे कपड़े-लत्ते खँखोड़ डाले। अंतत: जब उसे जाँघिया मिल गया तो उसे तह करना भूलकर हाथ में उठाए हुए वह अहाते में दौड़कर आया। माँ वहाँ उसका इंतज़ार कर रही थी। उसने पंजों के बल हुमसकर वह प्यारा मुँह चूमा, जिसको उसकी इतनी फ़िक्र थी और फिर पिता के पीछे भागा। माँ ने पीछे से आवाज़ दी कि मैं थोड़ी देर में तट पर आऊँगी।
शुहायदा अपने लड़के से कोई बीस क़दम आगे था। अपनी चमड़े की सैंडिलों से धूल उड़ाता हुआ जानी उसके पीछे दौड़ा। कैंपियन की झाड़ी पर उसने अपने बाप को जा पकड़ा। मगर वह सीधा उसके पास तक नहीं गया, बग़ल-बग़ल दुबका हुआ ऐसे चलने लगा, जैसे वह कुत्ता चले जिसे ठीक मालूम न हो कि उसे पुचकारा जाएगा या नहीं।
पिता ने एक शब्द भी नहीं कहा। उनका चेहरा, जिसे बच्चा कनखियों से बार-बार ताक रहा था, कठोर और सपाट था। वह सिर उठाए शून्य में देख रहे थे। उन्होंने बग़ल में, चलते हुए बच्चे को देखा ही नहीं जैसे कि उन्हें उसके होने का ज्ञान ही न हो।
जानी जो कि कुछ मिनट पहले बहुत ख़ुश हो गया था, फिर निराश और निस्तेज हो गया। उसे प्यास लग रही थी। वह पानी पीना चाहता था या चाहता था कि किसी पेड़ के पीछे छिपा रहे या फिर लौट ही जाए, लेकिन उसे डर था कि उसका बाप उस पर फिर चिल्लाएगा। इसलिए वह इस स्थिति को, जो कि उसने पैदा की थी, सह रहा था कि कहीं वह बद-से-बदतर न हो जाए। वह सोच रहा था कि अब मेरा क्या होगा?
घर से समुद्र तट तक पैदल चलने में 4 मिनट से ज़्यादा नहीं लगे। सैलानियों के विहार जैसे होते हैं, वैसी ही यह जगह भी काफ़ी दरिद्र थी। बिजली नहीं थी, सुविधाएँ नहीं थीं। तट पत्थरों से भरा था, सारी जगह निरी घटिया दर्ज़े की थी। कम तनख़्वाह वाले क्लर्क अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ सपरिवार बिताने यहाँ आया करते थे।
उमस से भरे अहातों में शहतूतों के नीचे औरतें और आदमी नंगे पाँव अधनंगे बदन बैठे थे। कोई तरबूज़ खा रहा था, कोई भुट्टा।
शुहायदा ने जान-पहचान वालों से भलेमानुषों की तरह नमस्ते किया। विरामसंधि के इन आनंदमय क्षणों में बच्चे ने विश्वासपूर्वक नतीजा निकाला कि उसके बाप के मन में उतना ग़ुस्सा नहीं है, जितना वह देखता है। लेकिन ज़रा ही देर में उसके बाप की भौंहें फिर तन गईं।
धूप में झींगुर झँकार रहे थे। झील से उठकर एक मीठी सड़ाँध पिता-पुत्र नाक में आई। तभी गिरा-पड़ा स्नानघर दिखाई देने लगा, लेकिन शुहायदा का मौन नहीं टूटा।
चौकीदारनी श्रीमती इस्तेनेश ने जो कि सर पर बुंदकियोंदार लाल रूमाल बाँधे थी, उन दोनों की कोठरियाँ खोल दीं—एक पिता के लिए और दूसरी, जिसमें आमतौर से श्रीमती शुहायदा कपड़े बदलती थीं, लड़के के लिए। एक पुरानी नाव की मरम्मत में लगे हुए एक नौजवान को छोड़कर समुद्र तट पर और कोई न था। वह नौजवान उस वक़्त कुछ टेढ़ी-मेढ़ी जंगखाई कीलें, हथौड़ी से सीधी करने की कोशिश कर रहा था।
पहले जानी ने कपड़े बदले।
वह अपनी कोठरी से बाहर आ गया। मगर समझ नहीं पाया कि क्या करे, पहले ख़ुद पानी में उतरने की हिम्मत उसे नहीं हो रही थी, हालाँकि इसके लिए न जाने कब से वह व्याकुल था। अनिश्चय और असमंजस में अपने पिता का इंतज़ार करते हुए अपने पैरों को ऐसे घूरता रहा, जैसे उसने उन्हें पहली बार देखा हो।
आख़िरकार शुहायदा चेरी के रंग का जाँघिया पहने हुए अपनी कोठरी से बाहर निकला। वह कुछ मुटा चला था, लेकिन उसकी काठी मज़बूत थी और उसका सीना काले बालों से भरा हुआ था, जिसे देखकर बच्चा हमेशा चकित रह जाया करता था।
जानी ने उसके मुँह की ओर देखा। उसकी आँखों का भाव पढ़ने की कोशिश की, पर वह उनके भीतर झाँक न सका। सुनहरे फ़्रेम वाला चश्मा इतना तेज़ चमक रहा था। असमंजस और लज्जा से वह खड़ा अपने पिता को झील में पैठते देखता रहा।
वह उसके पीछे-पीछे नहीं गया। एकाएक शुहायदा ने दूसरी ओर मुँह किए हुए उसको डाँट बताई।
“चले आओ!”
तब भी वह पानी में कूदा नहीं, न मेंढक की तरह तैरने का अपना आमतौर का तरीक़ा बरता। वह बस सहमा-सहमा अपने पिता के पीछे हिचकिचाता हुआ बढ़ा। उसे प्रोत्साहन के एक शब्द की प्रतीक्षा थी। शुहायदा ने बच्चे का बर्ताव लक्ष्य किया।
“डरते हो?” उसने उधर पीठ किए हुए बेरुख़ी से पूछा।
“नहीं।”
“तब फिर बेवक़ूफ़ की तरह क्या कर रहे हो?”
दोनों उस बाँस के पास खड़े हुए थे, जहाँ पानी बच्चे की छाती तक और पिता की कमर के ज़रा नीचे तक आता था। दोनों ने पानी में गर्दन तक डुबकी लगाई और उसके मधुर दुलार और उसकी सेब-जैसी सफ़ेद चमक का आनंद लिया।
शुहायदा का मन प्रसन्न हुआ तो उसे खिलवाड़ सूझा।
“दोस्त, तुम डरपोक हो।”
“नहीं।”
शुहायदा ने अपने बेटे को दोनों हाथों से ऊपर उठाया और पानी में फेंक दिया।
जानी दूर खड़े ज़ोरों के छपाके के साथ चूतड़ों के बल पानी पर गिरा। झील उसके तले खुल गई और फिर उसके सिर के ऊपर गरजती हुई एक रहस्यमय हुँकार के साथ बंद हो गई। उसे हाथ-पाँव मारते हुए सतह तक आने में कुछ सैकिंड लगे। पानी उसके मुँह और नाक से बुलबुले बनाता हुआ निकल रहा था। उसने अपनी दोनों मुट्ठियों से अपनी चौंधियायी हुई आँखें मलीं।
“लगा।” पिता ने पूछा।
“नहीं।”
तक एक बार और हो जाए “एक-दो”—और उसने लड़के को दोनों हाथों से उठा लिया।
“तीन” शब्द कहते ही उसने लड़के को उसी दिशा में लेकिन उससे कुछ और दूर अगले खंभे के आगे, जिससे कई रस्सियाँ बँधी हुई थीं, घुमाकर फेंक दिया। इसलिए वह देख नहीं पाया कि उसका लड़का कलाबाज़ी खाने के बाद जब पानी में गिरा तो वह गर्दन उठाए हुए था और उसकी बाँहें फैली हुई थीं। बिना किसी आशंका के शुहायदा दूसरी ओर देखने लगा।
उसके सामने धूप में चमकता हुआ समुद्र तट फैला हुआ था और उसके और तट के बीच पानी की सतह ऐसे चमक रही थी, जैसे लाखों तितलियाँ उस पर अपने हीरे के पंख फड़फड़ा रही हों।
पहली बार की तरह वह कुछ सैकिंड ठहरा। फिर उसने चिढ़कर आवाज़ दी—
“हो क्या रहा है?”
फिर जब मौन ही छाया रहा तो उसने धमकी के स्वर में कुछ और ऊँची फटी हुई आवाज़ लगाई—
“चले आओ, तमाशा मत करो!”
फिर भी कोई उत्तर नहीं।
“तुम कहाँ हो?” वह ज़रा और ज़ोर से चीख़ा और अपने चारों तरफ़ ताका और दूर तक भी निगाह दौड़ाई, क्योंकि जानी पानी के अंदर भी तैर लेता था और हो सकता था कि जहाँ चाहे वहाँ निकल आए।
तो भी शुहायदा को बराबर यह आश्वस्ति का भाव बना रहा कि पिछली बार से ज़्यादा समय इस बार निकल गया है।
वह एकदम शंकाकुल हो उठा।
वह उछलकर जितनी तेज़ी से हो सकता था पानी को चीरता हुआ उस जगह पहुँचने की कोशिश करने लगा, जहाँ अनुमानत: उसका लड़का लुप्त हुआ था और बराबर आवाज़ देता रहा।
“जानी जानी!”
उसने उसे बाँस के पीछे नहीं पाया। अब वह दोनों हाथों से इस तरह पानी हटाने लगा, जैसे फावड़े से बजरी हटा रहा हो। उसने जहाँ-तहाँ पानी को मथ डाला। उसने तल में झाँकने की कोशिश की, लेकिन मटमैला पानी अगम ही बना रहा। उसने अपना सिर, जो कि अभी तक सूखा था, पानी के भीतर डाल दिया। उसकी आँखें चश्मे के पीछे मछली की आँखों की तरह उभर आईं। फिर उसने पानी के नीचे बाकायदा ख़ोजना शुरू किया। तल की मिट्टी पर पेट के बल लेटकर, झुककर, सिकुड़कर, पहले एक करवट, फिर दूसरी लेकर चारों ओर चक्कर लगाकर, फिर इधर-से-उधर जाकर लेकिन सब बेकार था।
लड़का कहीं नहीं मिल रहा था और उसके चारों ओर पानी-ही-पानी था। पानी की भयंकर एकरूपता। वह हाँफ़ता और बड़बड़ाता हुआ बाहर आकर दम लेने लगा।
जब वह पानी के नीचे था तो उसे एक अस्पष्ट-सी आशा थी कि जब वह बाहर आएगा तो उसका लड़का वहाँ आ चुका होगा। या तो हँसता हुआ बाँस के नज़दीक या उससे और आगे खड़ा होगा या शायद कपड़ा पहनने के लिए कोठरी में भाग गया होगा। लेकिन जब शुहायदा ऊपर आया तो उसने जाना कि हालाँकि नीचे समय अनंत प्रतीत हो रहा था। वह वास्तव में कुछ ही सेकिंड पानी के भीतर रहा था और उतनी देर में उस झील से दूर कहीं नहीं जा सकता था।
पानी की सतह के ऊपर एक ऐसी शांत निस्संगता छाई हुई थी, जिसकी कल्पना पहले कभी करना उसके लिए असंभव था।
“हेलो, हेलो।” उसने तट की ओर मुँह करके जिस स्वर में आवाज़ दी, उसे वह स्वयं पहचान नहीं पाया, “वह कहीं नहीं मिल रहा है।”
जो लड़का नाव में ठोंक-पीट कर रहा था कान पर हाथ रखकर सुनने लगा;
“क्या बात है?”
“वह कहीं है नहीं” पिता ने व्याकुल होकर जवाब दिया।
“कौन?”
“उसका पता नहीं चल रहा है।” वह इतने ज़ोर से चिल्लाया कि उसकी आवाज़ बँध गई, “दौड़ो-दौड़ो।”
लड़के ने हथौड़ी नाव के अंदर रख दी, पतलून उतार फेंकी, जिससे कि वह सूखी रहे और झील में धँस गया। वह जितनी तेज़ी से आ सकता था आ रहा था। लेकिन पानी में खड़े हताश आदमी को लगा, जैसे वह खाली इतरा रहा है। इस बीच शुहायदा ने एक के बाद एक कई गोते लगाए और घुटनों के बल चल-चलकर एक और दिशा में भी खोजा। हर बार जब वह दूर तक जाता तो यह देखकर कि वह बहुत दूर निकल आया है, हर बार वहीं लौटकर जाता, जहाँ से चला था, और जहाँ मानो वह अपने को पहरे पर खड़ा कर आया था। वह दोनों हाथों से पकड़कर खंभे से लिपट गया मानो उसे जो चक्कर आ रहा था उसका शिकार होने से बचना चाहता हो। नौजवान जब तक शुहायदा के पास पहुँचा, तब तक शुहायदा बदहवास हाँफ़ने लगा था। वह लड़के के किसी सवाल का ठीक जवाब न दे सका।
दोनों निरुद्देश्य इधर-उधर ख़ोजते भटक रहे थे।
तट पर श्रीमती इस्तेनेश हाथ मल रही थीं। उसकी चीख़-पुकार से बीस-तीस आदमियों की भीड़ जमा हो गई थी। वे काँटे और जाल लाए, एक डोंगी भी दुर्घटना के स्थल की ओर रवाना की गई जिसकी कोई ज़रूरत न थी; क्योंकि पानी वहाँ काफ़ी छिछला था।
गाँव-भर में ख़बर फैलते देर न लगी कि कोई डूब गया है। डूब गया है, यह मानो सिद्ध हो चुका था।
ठीक उसी क्षण बग़ीची के फूलों के बीच श्रीमती शुहायदा अपना क्रोशिया समेट कर रख रही थीं। वह उस अँधेरी कोठरी में गई, जिसमें थोड़ी देर पहले जानी अपना जाँघिया ढूँढने गया था। उन्होंने कोठरी को ताला लगाया और जैसा कि उन्होंने जानी से वायदा किया था झील की ओर चल पड़ीं। धूप की चकाचौंध से बचने के लिए छतरी लगाए वह यह सोचती हुई कि नहाएँ या न नहाएँ, धीरे- धीरे चल रही थीं। आख़िर में उन्होंने न नहाने का फैसला किया। जब कैंपियन की झाड़ी आई तो उनकी उधेड़बुन का ताँता टूटकर बिखर गया और वह छतरी बंद करके दौड़ने लगीं। वह दौड़ते-ही-दौड़ते समुद्र-तट पहुँची।
वहाँ उन्होंने दो पुलिस के आदमी और भनभनाती हुई भीड़ देखी, जिसमें अधिसंख्य देहातिनें थीं। उनमें से कई रो रही थीं।
माँ तुरंत समझ गई कि क्या हुआ है? विवश बिलखती हुई वह समुद्र तट की ओर गिरती-पड़ती चलीं, जहाँ बालू में चित पड़े उसके बेटे के चारों ओर एक छोटी-सी भीड़ ने घेरा बाँध दिया था। उन्होंने उसे वहाँ आने नहीं दिया। उन्होंने उसे एक कुर्सी पर बिठा दिया। वह बेहोश हो चलीं, मगर बार-बार पूछती जा रही थीं कि क्या उसके जान है?
नहीं, उसके नहीं थी। उन्होंने 15 मिनट ख़ोजने के बाद उसे उस खंभे के ठीक पीछे वहीं पाया था, जहाँ उसका पिता सब समय गोता मारता रहा था। उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया था। उसकी पुतलियों पर रोशनी बेअसर हो गई थी। डाक्टर ने उसे उल्टा लटकाकर उसके पेट से पानी निकालकर उसके सीने को मलकर नकली साँस देने की कोशिश की थी। छोटी-छोटी मुर्दा बाँहों को बड़ी देर तक कसरत कराकर आले से दिल की धड़कन सुननी चाही थी—पर सुन नहीं पाया था। अंतत: उसने अपने औजार अपने बक्से में रख लिए थे और चला गया था।
यह मौत जो इतनी अचानक, इतने धोखे से हुई थी अब हमेशा के लिए सत्य, निश्चित और अटल हो गई थी, जैसे कि पर्वतों में सबसे महान् पर्वत हो।
माँ को एक किसान के रेहड़े में घर लाया गया। शुहायदा अपना चेरी रंग का जाँघिया पहने तट पर बैठा रहा। उसके चेहरे और चश्मे से पानी और आँसू टपक रहे थे। वह अपने से ही कहता रहा, ‘हे ईश्वर—हे ईश्वर—हे ईश्वर।’ आख़िरकार उसे उठा कर खड़ा किया गया और कोठरी में ले जाया गया कि वह कपड़े बदल ले।
तब तीन बजा था।
dhoop ujli thi.
manon raat ko foto khinchne ke liye alokit kiya gaya ho, valaton jheel ka vihar dhoop se chamak damak raha tha. baluhe samudr tat ke hashiye ke bhitar sab kuch, safedi se puti kothariyon se lekar pili barsatiyon tak sab kuch nishklank ujla ho raha tha. akash bhi shubhr tha aur babul ki dhulabhri pattiyan kore kagaz si safed theen.
qarib Dhai baja tha.
shuhayda ne khana jaldi kha liya tha. wo bangle ke sadar darvaze se siDhiyan utar raha tha, jo ahate se bagichi tak aati theen.
“kahan chale?” shrimti shuhayda ne puchha. wo nanhen nanhen shokh phulon ke beech baithi kroshiyakari kar rahi theen.
“nahane” shuhayda ne jamhai lete hue javab diya. haath mein cheri rang ka janghiya tha.
“suno, use lete jao” stri ne minnat se kaha.
“nahin!”
“kyon nahin?”
“kyonki wo shararti hai,” shuhayda ne uttar diya, “kyonki wo nikamma nalayak laDka hai,” aur phir zara thaharkar bole, “kyonki wo paDhta nahin hai. ”
paDhta to hai. ” patni ne haath nachakar virodh kiya, “savere se paDh hi to raha hai. ”
rasoighar ke samne koi gyarah baras ka ek laDka bench par baitha kaan khuja raha tha. uski god mein ek band kitab paDi thi—uska laitin vyakran.
wo sukatti ho raha tha aur uska sar ghuta hua tha. wo laal banyain aur suti patlun pahne tha. ughre paanv mein chamDe ki sainDil thi. maan baap ki o minchi ankhon se wo dekh raha tha.
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“laDereturan” laDke ne munn se kaha. wo bina soche ghabrakar bola tha, magar uttar dene ke pahle khaDa ho gaya tha manon skool mein ho.
“laDereturan” shuhayda ne vyangya se sir hilakar hami bhari, “laDereturan”, kya kahne. dusri pariksha mein bhi tum phel hoge. ”
“nahin nahin, wo janta hai”, maan bachche ki madad ko aai, “magar wo gaDbaDa jata hai. tum se Dar jata hai wo. ”
“main iski paDhai chhuDa dunga, sach kahta hoon. iishvar ki qasam’, pita garajkar bola, “ghasiyara banega ya bhaaD jhonkega.
unhe khud malum nahin, unhonne ghusse mein ye do dhandhe kyon soche the, jab ki in donon ka unhen kuch gyaan na tha.
“mere paas aao jani bete,” maan boli, “tum paDhoge na, kyon bete?”
“yah mujhe barbad kar dega, ghunnha kahin ka”, shuhayda kahne laga. krodh uske jivan ka ras tha. “barbad kar dega” usne phir kaha aur dekha ki uske ghusse se uske sharir mein khoon dauDne laga tha aur dopahar ki uub bhaag rahi thi.
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“magar wo paDhta to hai” maan bachche ke sir par haath pherti hui boli, “aur tum to use maaf kar doge, kyon na. . . ” ye kahkar tatkal wo bachche se boli, “apna janghiya jhatpat le aao, tumhare bapu tumhein tairne saath le jayenge. ”
jani theek theek samajh na paya ki ho kya raha hai? wo ye bhi tay na kar saka ki uski maan ke hastakshep ne kis chamatkar dvara uski aur pita ki wo lambi takrar khatm kara di hai? jo ho, wo dauDkar darvaze tak aur darvaze se apni chhoti si andheri kothari mein chala gaya. vahan wo furti se cheri ke rang vala apna janghiya khojne laga. wo uske pita ka sa hi tha, haan usse chhota tha. shrimti shuhayda ne hi donon ke banaye the.
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jani madhyamik skool ki dusri shreni mein laitin ki pariksha mein phel ho gaya tha. wo sharad mein phir pariksha dene ki taiyari kar raha tha, parantu kuch Dhila sa tha. pita ne danD diya tha ki saptah bhar tairne ko nahin milega. aise do din aur bina taire katne hote, isse haath aaye sunahre avsar ka wo ji bharkar upbhog karna chahta tha. usne sare kapDe latte khankhoD Dale. anttah jab use janghiya mil gaya to use tah karna bhulkar haath mein uthaye hue wo ahate mein dauDkar aaya. maan vahan uska intzaar kar rahi thi. usne panjon ke bal humaskar wo pyara munh chuma, jisko uski itni fikr thi aur phir pita ke pichhe bhaga. maan ne pichhe se avaz di ki main thoDi der mein tat par auungi.
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shuhayda ne jaan pahchan valon se bhalemanushon ki tarah namaste kiya. viramsandhi ke in anandmay kshnon mein bachche ne vishvaspurvak natija nikala ki uske baap ke man mein utna ghussa nahin hai, jitna wo dekhta hai. lekin zara hi der mein uske baap ki bhaunhen phir tan gain.
dhoop mein jhingur jhankar rahe the. jheel se uthkar ek mithi saDandh pita putr naak mein aai. tabhi gira paDa snanghar dikhai dene laga, lekin shuhayda ka maun nahin tuta.
chaukidarni shrimti istenesh ne jo ki sar par bundakiyondar laal rumal bandhe thi, un donon ki kothriyan khol din—ek pita ke liye aur dusri, jismen amtaur se shrimti shuhayda kapDe badalti theen, laDke ke liye. ek purani naav ki marammat mein lage hue ek naujavan ko chhoDkar samudr tat par aur koi na tha. wo naujavan us vaqt kuch teDhi meDhi jangkhai kilen, hathauDi se sidhi karne ki koshish kar raha tha.
pahle jani ne kapDe badle.
wo apni kothari se bahar aa gaya. magar samajh nahin paya ki kya kare, pahle khud pani mein utarne ki himmat use nahin ho rahi thi, halanki iske liye na jane kab se wo vyakul tha. anishchay aur asmanjas mein apne pita ka intzaar karte hue apne pairon ko aise ghurta raha, jaise usne unhen pahli baar dekha ho.
akhirkar shuhayda cheri ke rang ka janghiya pahne hue apni kothari se bahar nikla. wo kuch muta chala tha, lekin uski kathi mazbut thi aur uska sina kale balon se bhara hua tha, jise dekhkar bachcha hamesha chakit rah jaya karta tha.
jani ne uske munh ki or dekha. uski ankhon ka bhaav paDhne ki koshish ki, par wo unke bhitar jhaank na saka. sunahre frem vala chashma itna tez chamak raha tha. asmanjas aur lajja se wo khaDa apne pita ko jheel mein paithte dekhta raha.
wo uske pichhe pichhe nahin gaya. ekayek shuhayda ne dusri or munh kiye hue usko Daant batai.
“chale ao!”
tab bhi wo pani mein kuda nahin, na menDhak ki tarah tairne ka apna amtaur ka tariqa barta. wo bas sahma sahma apne pita ke pichhe hichkichata hua baDha. use protsahan ke ek shabd ki prtiksha thi. shuhayda ne bachche ka bartav lakshya kiya.
“Darte ho?” usne udhar peeth ke hue berukhi se puchha.
“nahin. ”
“tab phir bevaquf ki tarah kya kar rahe ho?”
donon us baans ke paas khaDe hue the, jahan pani bachche ki chhati tak aur pita ki kamar ke zara niche tak aata tha. donon ne pani mein gardan tak Dubki lagai aur uske madhur dular aur uski seb jaisi safed chamak ka anand liya.
shuhayda ka man prasann hua to use khilvaD sujha.
“dost, tum Darpok ho. ”
“nahin. ”
shuhayda ne apne bete ko donon hathon se uupar uthaya aur pani mein phenk diya.
jani door khaDe zoron ke chhapake ke saath chutDon ke bal pani par gira. jheel uske tale khul gai aur phir uske sir ke uupar garajti hui ek rahasyamay hankar ke saath band ho gai. use haath paanv marte hue satah tak aane mein kuch saikinD lage. pani uske munh aur naak se bulbule banata hua nikal raha tha. usne apni donon mutthiyon se apni chaundhiyayi hui ankhen malin.
“laga. ” pita ne puchha.
“nahin. ”
tak ek baar aur ho jaye “ek do”—aur usne laDke ko donon hathon se utha liya.
“teen” shabd kahte hi usne laDke ko usi disha mein lekin usse kuch aur door agle khambhe ke aage, jisse kai rassiyan bandhi hui theen, ghumakar phenk diya. isliye wo dekh nahin paya ki uska laDka kalabazi khane ke baad jab pani mein gira to wo gardan uthaye hue tha aur uski banhen phaili hui theen. bina kisi ashanka ke shuhayda dusri or dekhne laga.
uske samne dhoop mein chamakta hua samudr tat phaila hua tha aur uske aur tat ke beech pani ki satah aise chamak rahi thi, jaise lakhon titliyan us par apne hire ke pankh phaDphaDa rahi hon.
pahli baar ki tarah wo kuch saikinD thahra. phir usne chiDhkar avaz dee—
“ho kya raha hai?”
phir jab maun hi chhaya raha to usne dhamki ke svar mein kuch aur uunchi phati hui avaz lagai—
“chale aao, tamasha mat karo!”
phir bhi koi uttar nahin.
“tum kahan ho?” wo zara aur zor se chikha aur apne charon taraf taka aur door tak bhi nigah dauDai, kyonki jani pani ke andar bhi tair leta tha aur ho sakta tha ki jahan chahe vahan nikal aaye.
to bhi shuhayda ko barabar ye asvasti ka bhaav bana raha ki pichhli baar se zyada samay is baar nikal gaya hai.
wo ekdam shankakul ho utha.
wo uchhalkar jitni tezi se ho sakta tha pani ko chirta hua us jagah pahunchne ki koshish karne laga, jahan anumantah uska laDka lupt hua tha aur barabar avaz deta raha.
“jani jani!”
usne use baans ke pichhe nahin paya. ab wo donon hathon se is tarah pani hatane laga, jaise phavDe se bajri hata raha ho. usne jahan tahan pani ko math Dala. usne tal mein jhankne ki koshish ki, lekin matmaila pani agam hi bana raha. usne apna sir, jo ki abhi tak sukha tha, pani ke bhitar Daal diya. uski ankhen chashme ke pichhe machhli ki ankhon ki tarah ubhar aai. phir usne pani ke niche bakayada khojna shuru kiya. tal ki mitti par pet ke bal letkar, jhukkar, sikuDkar, pahle ek karvat, phir dusri lekar charon or chakkar lagakar, phir idhar se udhar jakar lekin sab bekar tha.
laDka kahin nahin mil raha tha aur uske charon or pani hi pani tha. pani ki bhayankar ekrupata. wo hanfata aur baDbaData hua bahar aakar dam lene laga.
jab wo pani ke niche tha to use ek aspasht si aasha thi ki jab wo bahar ayega to uska laDka vahan aa chuka hoga. ya to hansta hua baans ke nazdik ya usse aur aage khaDa hoga ya shayad kapDa pahanne ke liye kothari mein bhaag gaya hoga. lekin jab shuhayda uupar aaya to usne jana ki halanki niche samay anant pratit ho raha tha. wo vastav mein kuch hi sekinD pani ke bhitar raha tha aur utni der mein us jheel se door kahin nahin ja sakta tha.
pani ki satah ke uupar ek aisi shaant nissangta chhai hui thi, jiski kalpana pahle kabhi karna uske liye asambhav tha.
“helo, helo. ” usne tat ki or munh karke jis svar mein avaz di, use wo svayan pahchan nahin paya, “vah kahin nahin mil raha hai. ”
jo laDka naav mein thonk peet kar raha tha kaan par haath rakhkar sunne laga;
“kya baat hai?”
“vah kahin hai nahin” pita ne vyakul hokar javab diya.
“kaun?”
“uska pata nahin chal raha hai. ” wo itne zor se chillaya ki uski avaz bandh gai, “dauDo dauDo. ”
laDke ne hathauDi naav ke andar rakh di, patlun utaar phenki, jisse ki wo sukhi rahe aur jheel mein dhans gaya. wo jitni tezi se aa sakta tha aa raha tha. lekin pani mein khaDe hatash adami ko laga, jaise wo khali itra raha hai. is beech shuhayda ne ek ke baad ek kai gote lagaye aur ghutnon ke bal chal chalkar ek aur disha mein bhi khoja. har baar jab wo door tak jata to ye dekhkar ki wo bahut door nikal aaya hai, har baar vahin lautkar jata, jahan se chala tha, aur jahan manon wo apne ko pahre par khaDa kar aaya tha. wo donon hathon se pakaDkar khambhe se lipat gaya manon use jo chakkar aa raha tha uska shikar hone se bachna chahta ho. naujavan jab tak shuhayda ke paas pahuncha, tab tak shuhayda badahvas hanphane laga tha. wo laDke ke kisi saval ka theek javab na de saka.
tat par shrimti istenesh haath mal rahi theen. uski cheekh pukar se bees tees adamiyon ki bheeD jama ho gai thi. ve kante aur jaal laye, ek Dongi bhi durghatna ke sthal ki or ravana ki gai jiski koi zarurat na thee; kyonki pani vahan kafi chhichhla tha.
gaanv bhar mein khabar phailte der na lagi ki koi Doob gaya hai. Doob gaya hai, ye manon siddh ho chuka tha.
theek usi kshan baghiche ke phulon ke beech shrimti shuhayda apna kroshiya samet kar rakh rahi theen. wo us andheri kothari mein gai, jismen thoDi der pahle jani apna janghiya DhunDhne gaya tha. unhonne kothari ko tala lagaya aur jaisa ki unhonne jani se vayada kiya tha jheel ki or chal paDin. dhoop ki chakachaundh se bachne ke liye chhatri lagaye wo ye sochti hui ki nahayen ya na nahayen, dhire dhire chal rahi theen. akhir mein unhonne na nahane ka phaisla kiya. jab kaimpiyan ki jhaDi aai to unki udheDbun ka tanta tutkar bikhar gaya aur wo chhatri band karke dauDne lagin. wo dauDte hi dauDte samudr tat pahunchi.
vahan unhonne do pulis ke adami aur bhanabhnati hui bheeD dekhi, jismen adhisankhya dehatinen theen. unmen se kai ro rahi theen.
maan turant samajh gai ki kya hua hai? vivash bilakhti hui wo samudr tat ki or girti paDti chalin, jahan balu mein chit paDe uske bete ke charon or ek chhoti si bheeD ne ghera baandh diya tha. unhonne use vahan aane nahin diya. unhonne use ek kursi par bitha diya. wo behosh ho chalin, magar baar baar puchhti ja rahi theen ki kya uske jaan hai?
nahin, uske nahin thi. unhonne 15 minat khojne ke baad use us khambhe ke theek pichhe vahin paya tha, jahan uska pita sab samay gota marta raha tha. uske dil ne dhDakna band kar diya tha. uski putaliyon par roshni beasar ho gai thi. Daktar ne use ulta latkakar uske pet se pani nikalkar uske sine ko malkar nakli saans dene ki koshish ki thi. chhoti chhoti murda banhon ko baDi der tak kasrat karakar aale se dil ki dhaDkan sunni chahi thi—par sun nahin paya tha. anttah usne apne aujar apne bakse mein rakh liye the aur chala gaya tha.
ye maut jo itni achanak, itne dhokhe se hui thi ab hamesha ke liye satya, nishchit aur atal ho gai thi, jaise ki parvton mein sabse mahan parvat ho.
maan ko ek kisan ke rehDe mein ghar laya gaya. shuhayda apna cheri rang ka janghiya pahne tat par baitha raha. uske chehre aur chashme se pani aur ansu tapak rahe the. wo apne se hi kahta raha, ‘he iishvar—he iishvar—he iishvar. ’ akhirkar use utha kar khaDa kiya gaya aur kothari mein le jaya gaya ki wo kapDe badal le.
tab teen baja tha.
dhoop ujli thi.
manon raat ko foto khinchne ke liye alokit kiya gaya ho, valaton jheel ka vihar dhoop se chamak damak raha tha. baluhe samudr tat ke hashiye ke bhitar sab kuch, safedi se puti kothariyon se lekar pili barsatiyon tak sab kuch nishklank ujla ho raha tha. akash bhi shubhr tha aur babul ki dhulabhri pattiyan kore kagaz si safed theen.
qarib Dhai baja tha.
shuhayda ne khana jaldi kha liya tha. wo bangle ke sadar darvaze se siDhiyan utar raha tha, jo ahate se bagichi tak aati theen.
“kahan chale?” shrimti shuhayda ne puchha. wo nanhen nanhen shokh phulon ke beech baithi kroshiyakari kar rahi theen.
“nahane” shuhayda ne jamhai lete hue javab diya. haath mein cheri rang ka janghiya tha.
“suno, use lete jao” stri ne minnat se kaha.
“nahin!”
“kyon nahin?”
“kyonki wo shararti hai,” shuhayda ne uttar diya, “kyonki wo nikamma nalayak laDka hai,” aur phir zara thaharkar bole, “kyonki wo paDhta nahin hai. ”
paDhta to hai. ” patni ne haath nachakar virodh kiya, “savere se paDh hi to raha hai. ”
rasoighar ke samne koi gyarah baras ka ek laDka bench par baitha kaan khuja raha tha. uski god mein ek band kitab paDi thi—uska laitin vyakran.
wo sukatti ho raha tha aur uska sar ghuta hua tha. wo laal banyain aur suti patlun pahne tha. ughre paanv mein chamDe ki sainDil thi. maan baap ki o minchi ankhon se wo dekh raha tha.
“achchha”, shuhayda ne sir jhatakkar rukhai se puchha, “ise kaise kahoge. . . ve meri prshansa karenge?”
“laDereturan” laDke ne munn se kaha. wo bina soche ghabrakar bola tha, magar uttar dene ke pahle khaDa ho gaya tha manon skool mein ho.
“laDereturan” shuhayda ne vyangya se sir hilakar hami bhari, “laDereturan”, kya kahne. dusri pariksha mein bhi tum phel hoge. ”
“nahin nahin, wo janta hai”, maan bachche ki madad ko aai, “magar wo gaDbaDa jata hai. tum se Dar jata hai wo. ”
“main iski paDhai chhuDa dunga, sach kahta hoon. iishvar ki qasam’, pita garajkar bola, “ghasiyara banega ya bhaaD jhonkega.
unhe khud malum nahin, unhonne ghusse mein ye do dhandhe kyon soche the, jab ki in donon ka unhen kuch gyaan na tha.
“mere paas aao jani bete,” maan boli, “tum paDhoge na, kyon bete?”
“yah mujhe barbad kar dega, ghunnha kahin ka”, shuhayda kahne laga. krodh uske jivan ka ras tha. “barbad kar dega” usne phir kaha aur dekha ki uske ghusse se uske sharir mein khoon dauDne laga tha aur dopahar ki uub bhaag rahi thi.
“main paDhunga” laDka dabi zaban mein haklaya aur apman ke akelepan mein usne sahare ke liye maan ki or taka. pita ki or dekhne ki use taab na thi. wo pita ko dekhta nahin tha. wo akele unhen anubhav karta tha. har jagah, har samay, nafrat se.
“mat paDhna. ” shuhayda ne tiraskar karke kaha, “paDhne ki kya zarurat hai, bekar ka kaam hai. ”
“magar wo paDhta to hai” maan bachche ke sir par haath pherti hui boli, “aur tum to use maaf kar doge, kyon na. . . ” ye kahkar tatkal wo bachche se boli, “apna janghiya jhatpat le aao, tumhare bapu tumhein tairne saath le jayenge. ”
jani theek theek samajh na paya ki ho kya raha hai? wo ye bhi tay na kar saka ki uski maan ke hastakshep ne kis chamatkar dvara uski aur pita ki wo lambi takrar khatm kara di hai? jo ho, wo dauDkar darvaze tak aur darvaze se apni chhoti si andheri kothari mein chala gaya. vahan wo furti se cheri ke rang vala apna janghiya khojne laga. wo uske pita ka sa hi tha, haan usse chhota tha. shrimti shuhayda ne hi donon ke banaye the.
pita hichkichate dikhai diye. apni patni ke nivedan ka aspasht uttar na dekar wo gujberi ki jhaDi ke paas thithke rahe; manon laDke ke lapakkar aa jane ki prtiksha kar rahe hon. phir unhonne manon irada badal diya aur bagichi ke chhutke darvaze se nikal aaye. jheel ki or wo aur dinon se dhimi chaal se chalne lage.
laDke ko apni janghiya khojne mein kai ek minat lag ge.
jani madhyamik skool ki dusri shreni mein laitin ki pariksha mein phel ho gaya tha. wo sharad mein phir pariksha dene ki taiyari kar raha tha, parantu kuch Dhila sa tha. pita ne danD diya tha ki saptah bhar tairne ko nahin milega. aise do din aur bina taire katne hote, isse haath aaye sunahre avsar ka wo ji bharkar upbhog karna chahta tha. usne sare kapDe latte khankhoD Dale. anttah jab use janghiya mil gaya to use tah karna bhulkar haath mein uthaye hue wo ahate mein dauDkar aaya. maan vahan uska intzaar kar rahi thi. usne panjon ke bal humaskar wo pyara munh chuma, jisko uski itni fikr thi aur phir pita ke pichhe bhaga. maan ne pichhe se avaz di ki main thoDi der mein tat par auungi.
shuhayda apne laDke se koi bees qadam aage tha. apni chamDe ki sainDilon se dhool uData hua jani uske pichhe dauDa. kaimpiyan ki jhaDi par usne apne baap ko ja pakDa. magar wo sidha uske paas tak nahin gaya, baghal baghal dubka hua aise chalne laga, jaise wo kutta chale jise theek malum na ho ki use puchkara jayega ya nahin.
pita ne ek shabd bhi nahin kaha. unka chehra, jise bachcha kanakhiyon se baar baar taak raha tha, kathor aur sapat tha. wo sir uthaye shunya mein dekh rahe the. unhonne baghal mein, chalte hue bachche ko dekha hi nahin jaise ki unhen uske hone ka gyaan hi na ho.
jani jo ki kuch minat pahle bahut khush ho gaya tha, phir nirash aur nistej ho gaya. use pyaas lag rahi thi. wo pani pina chahta tha ya chahta tha ki kisi peD ke pichhe chhipa rahe ya phir laut hi jaye, lekin use Dar tha ki uska baap us par phir chillayega. isliye wo is sthiti ko, jo ki usne paida ki thi, sah raha tha ki kahin wo bad se badtar na ho jaye. wo soch raha tha ki ab mera kya hoga?
ghar mein samudr tat tak paidal chalne mein 4 minat se zyada nahin lage. sailaniyon ke vihar jaise hote hain, vaisi hi ye jagah bhi kafi daridr thi. bijli nahin thi, suvidhayen nahin theen. tat patthron se bhara tha, sari jagah niri ghatiya darze ki thi. kam tanakhvah vale klark apni garmiyon ki chhuttiyan saprivar bitane yahan aaya karte the.
umas se bhare ahaton mein shahtuton ke niche aurten aur adami nange paanv adhnange badan baithe the. koi tarbuz kha raha tha, koi bhutta.
shuhayda ne jaan pahchan valon se bhalemanushon ki tarah namaste kiya. viramsandhi ke in anandmay kshnon mein bachche ne vishvaspurvak natija nikala ki uske baap ke man mein utna ghussa nahin hai, jitna wo dekhta hai. lekin zara hi der mein uske baap ki bhaunhen phir tan gain.
dhoop mein jhingur jhankar rahe the. jheel se uthkar ek mithi saDandh pita putr naak mein aai. tabhi gira paDa snanghar dikhai dene laga, lekin shuhayda ka maun nahin tuta.
chaukidarni shrimti istenesh ne jo ki sar par bundakiyondar laal rumal bandhe thi, un donon ki kothriyan khol din—ek pita ke liye aur dusri, jismen amtaur se shrimti shuhayda kapDe badalti theen, laDke ke liye. ek purani naav ki marammat mein lage hue ek naujavan ko chhoDkar samudr tat par aur koi na tha. wo naujavan us vaqt kuch teDhi meDhi jangkhai kilen, hathauDi se sidhi karne ki koshish kar raha tha.
pahle jani ne kapDe badle.
wo apni kothari se bahar aa gaya. magar samajh nahin paya ki kya kare, pahle khud pani mein utarne ki himmat use nahin ho rahi thi, halanki iske liye na jane kab se wo vyakul tha. anishchay aur asmanjas mein apne pita ka intzaar karte hue apne pairon ko aise ghurta raha, jaise usne unhen pahli baar dekha ho.
akhirkar shuhayda cheri ke rang ka janghiya pahne hue apni kothari se bahar nikla. wo kuch muta chala tha, lekin uski kathi mazbut thi aur uska sina kale balon se bhara hua tha, jise dekhkar bachcha hamesha chakit rah jaya karta tha.
jani ne uske munh ki or dekha. uski ankhon ka bhaav paDhne ki koshish ki, par wo unke bhitar jhaank na saka. sunahre frem vala chashma itna tez chamak raha tha. asmanjas aur lajja se wo khaDa apne pita ko jheel mein paithte dekhta raha.
wo uske pichhe pichhe nahin gaya. ekayek shuhayda ne dusri or munh kiye hue usko Daant batai.
“chale ao!”
tab bhi wo pani mein kuda nahin, na menDhak ki tarah tairne ka apna amtaur ka tariqa barta. wo bas sahma sahma apne pita ke pichhe hichkichata hua baDha. use protsahan ke ek shabd ki prtiksha thi. shuhayda ne bachche ka bartav lakshya kiya.
“Darte ho?” usne udhar peeth ke hue berukhi se puchha.
“nahin. ”
“tab phir bevaquf ki tarah kya kar rahe ho?”
donon us baans ke paas khaDe hue the, jahan pani bachche ki chhati tak aur pita ki kamar ke zara niche tak aata tha. donon ne pani mein gardan tak Dubki lagai aur uske madhur dular aur uski seb jaisi safed chamak ka anand liya.
shuhayda ka man prasann hua to use khilvaD sujha.
“dost, tum Darpok ho. ”
“nahin. ”
shuhayda ne apne bete ko donon hathon se uupar uthaya aur pani mein phenk diya.
jani door khaDe zoron ke chhapake ke saath chutDon ke bal pani par gira. jheel uske tale khul gai aur phir uske sir ke uupar garajti hui ek rahasyamay hankar ke saath band ho gai. use haath paanv marte hue satah tak aane mein kuch saikinD lage. pani uske munh aur naak se bulbule banata hua nikal raha tha. usne apni donon mutthiyon se apni chaundhiyayi hui ankhen malin.
“laga. ” pita ne puchha.
“nahin. ”
tak ek baar aur ho jaye “ek do”—aur usne laDke ko donon hathon se utha liya.
“teen” shabd kahte hi usne laDke ko usi disha mein lekin usse kuch aur door agle khambhe ke aage, jisse kai rassiyan bandhi hui theen, ghumakar phenk diya. isliye wo dekh nahin paya ki uska laDka kalabazi khane ke baad jab pani mein gira to wo gardan uthaye hue tha aur uski banhen phaili hui theen. bina kisi ashanka ke shuhayda dusri or dekhne laga.
uske samne dhoop mein chamakta hua samudr tat phaila hua tha aur uske aur tat ke beech pani ki satah aise chamak rahi thi, jaise lakhon titliyan us par apne hire ke pankh phaDphaDa rahi hon.
pahli baar ki tarah wo kuch saikinD thahra. phir usne chiDhkar avaz dee—
“ho kya raha hai?”
phir jab maun hi chhaya raha to usne dhamki ke svar mein kuch aur uunchi phati hui avaz lagai—
“chale aao, tamasha mat karo!”
phir bhi koi uttar nahin.
“tum kahan ho?” wo zara aur zor se chikha aur apne charon taraf taka aur door tak bhi nigah dauDai, kyonki jani pani ke andar bhi tair leta tha aur ho sakta tha ki jahan chahe vahan nikal aaye.
to bhi shuhayda ko barabar ye asvasti ka bhaav bana raha ki pichhli baar se zyada samay is baar nikal gaya hai.
wo ekdam shankakul ho utha.
wo uchhalkar jitni tezi se ho sakta tha pani ko chirta hua us jagah pahunchne ki koshish karne laga, jahan anumantah uska laDka lupt hua tha aur barabar avaz deta raha.
“jani jani!”
usne use baans ke pichhe nahin paya. ab wo donon hathon se is tarah pani hatane laga, jaise phavDe se bajri hata raha ho. usne jahan tahan pani ko math Dala. usne tal mein jhankne ki koshish ki, lekin matmaila pani agam hi bana raha. usne apna sir, jo ki abhi tak sukha tha, pani ke bhitar Daal diya. uski ankhen chashme ke pichhe machhli ki ankhon ki tarah ubhar aai. phir usne pani ke niche bakayada khojna shuru kiya. tal ki mitti par pet ke bal letkar, jhukkar, sikuDkar, pahle ek karvat, phir dusri lekar charon or chakkar lagakar, phir idhar se udhar jakar lekin sab bekar tha.
laDka kahin nahin mil raha tha aur uske charon or pani hi pani tha. pani ki bhayankar ekrupata. wo hanfata aur baDbaData hua bahar aakar dam lene laga.
jab wo pani ke niche tha to use ek aspasht si aasha thi ki jab wo bahar ayega to uska laDka vahan aa chuka hoga. ya to hansta hua baans ke nazdik ya usse aur aage khaDa hoga ya shayad kapDa pahanne ke liye kothari mein bhaag gaya hoga. lekin jab shuhayda uupar aaya to usne jana ki halanki niche samay anant pratit ho raha tha. wo vastav mein kuch hi sekinD pani ke bhitar raha tha aur utni der mein us jheel se door kahin nahin ja sakta tha.
pani ki satah ke uupar ek aisi shaant nissangta chhai hui thi, jiski kalpana pahle kabhi karna uske liye asambhav tha.
“helo, helo. ” usne tat ki or munh karke jis svar mein avaz di, use wo svayan pahchan nahin paya, “vah kahin nahin mil raha hai. ”
jo laDka naav mein thonk peet kar raha tha kaan par haath rakhkar sunne laga;
“kya baat hai?”
“vah kahin hai nahin” pita ne vyakul hokar javab diya.
“kaun?”
“uska pata nahin chal raha hai. ” wo itne zor se chillaya ki uski avaz bandh gai, “dauDo dauDo. ”
laDke ne hathauDi naav ke andar rakh di, patlun utaar phenki, jisse ki wo sukhi rahe aur jheel mein dhans gaya. wo jitni tezi se aa sakta tha aa raha tha. lekin pani mein khaDe hatash adami ko laga, jaise wo khali itra raha hai. is beech shuhayda ne ek ke baad ek kai gote lagaye aur ghutnon ke bal chal chalkar ek aur disha mein bhi khoja. har baar jab wo door tak jata to ye dekhkar ki wo bahut door nikal aaya hai, har baar vahin lautkar jata, jahan se chala tha, aur jahan manon wo apne ko pahre par khaDa kar aaya tha. wo donon hathon se pakaDkar khambhe se lipat gaya manon use jo chakkar aa raha tha uska shikar hone se bachna chahta ho. naujavan jab tak shuhayda ke paas pahuncha, tab tak shuhayda badahvas hanphane laga tha. wo laDke ke kisi saval ka theek javab na de saka.
tat par shrimti istenesh haath mal rahi theen. uski cheekh pukar se bees tees adamiyon ki bheeD jama ho gai thi. ve kante aur jaal laye, ek Dongi bhi durghatna ke sthal ki or ravana ki gai jiski koi zarurat na thee; kyonki pani vahan kafi chhichhla tha.
gaanv bhar mein khabar phailte der na lagi ki koi Doob gaya hai. Doob gaya hai, ye manon siddh ho chuka tha.
theek usi kshan baghiche ke phulon ke beech shrimti shuhayda apna kroshiya samet kar rakh rahi theen. wo us andheri kothari mein gai, jismen thoDi der pahle jani apna janghiya DhunDhne gaya tha. unhonne kothari ko tala lagaya aur jaisa ki unhonne jani se vayada kiya tha jheel ki or chal paDin. dhoop ki chakachaundh se bachne ke liye chhatri lagaye wo ye sochti hui ki nahayen ya na nahayen, dhire dhire chal rahi theen. akhir mein unhonne na nahane ka phaisla kiya. jab kaimpiyan ki jhaDi aai to unki udheDbun ka tanta tutkar bikhar gaya aur wo chhatri band karke dauDne lagin. wo dauDte hi dauDte samudr tat pahunchi.
vahan unhonne do pulis ke adami aur bhanabhnati hui bheeD dekhi, jismen adhisankhya dehatinen theen. unmen se kai ro rahi theen.
maan turant samajh gai ki kya hua hai? vivash bilakhti hui wo samudr tat ki or girti paDti chalin, jahan balu mein chit paDe uske bete ke charon or ek chhoti si bheeD ne ghera baandh diya tha. unhonne use vahan aane nahin diya. unhonne use ek kursi par bitha diya. wo behosh ho chalin, magar baar baar puchhti ja rahi theen ki kya uske jaan hai?
nahin, uske nahin thi. unhonne 15 minat khojne ke baad use us khambhe ke theek pichhe vahin paya tha, jahan uska pita sab samay gota marta raha tha. uske dil ne dhDakna band kar diya tha. uski putaliyon par roshni beasar ho gai thi. Daktar ne use ulta latkakar uske pet se pani nikalkar uske sine ko malkar nakli saans dene ki koshish ki thi. chhoti chhoti murda banhon ko baDi der tak kasrat karakar aale se dil ki dhaDkan sunni chahi thi—par sun nahin paya tha. anttah usne apne aujar apne bakse mein rakh liye the aur chala gaya tha.
ye maut jo itni achanak, itne dhokhe se hui thi ab hamesha ke liye satya, nishchit aur atal ho gai thi, jaise ki parvton mein sabse mahan parvat ho.
maan ko ek kisan ke rehDe mein ghar laya gaya. shuhayda apna cheri rang ka janghiya pahne tat par baitha raha. uske chehre aur chashme se pani aur ansu tapak rahe the. wo apne se hi kahta raha, ‘he iishvar—he iishvar—he iishvar. ’ akhirkar use utha kar khaDa kiya gaya aur kothari mein le jaya gaya ki wo kapDe badal le.
tab teen baja tha.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 175)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।