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छुट्टी का दिन

chhutti ka din

दैजो कोस्तोलान्यि

दैजो कोस्तोलान्यि

छुट्टी का दिन

दैजो कोस्तोलान्यि

और अधिकदैजो कोस्तोलान्यि

    धूप उजली थी।

    मानो रात को फ़ोटो खींचने के लिए आलोकित किया गया हो, वलातोन झील का विहार धूप से चमक-दमक रहा था। बलुहे समुद्र तट के हाशिए के भीतर सब-कुछ, सफ़ेदी से पुती कोठरियों से लेकर पीली बरसातियों तक सब कुछ निष्कलंक उजला हो रहा था। आकाश भी शुभ्र था और बबूल की धूलभरी पत्तियाँ कोरे कागज़-सी सफ़ेद थीं।

    क़रीब ढाई बजा था।

    शुहायदा ने खाना जल्दी खा लिया था। वह बंगले के सदर दरवाज़े से सीढ़ियाँ उतर रहा था, जो अहाते से बग़ीची तक आती थीं।

    “कहाँ चले?” श्रीमती शुहायदा ने पूछा। वह नन्हें-नन्हें शोख फूलों के बीच बैठी क्रोशियाकारी कर रही थीं।

    “नहाने” शुहायदा ने जम्हाई लेते हुए जवाब दिया। हाथ में चेरी रंग का जाँघिया था।

    “सुनो, उसे लेते जाओ” स्त्री ने मिन्नत से कहा।

    “नहीं!”

    “क्यों नहीं?”

    “क्योंकि वह शरारती है,” शुहायदा ने उत्तर दिया, “क्योंकि वह निकम्मा नालायक लड़का है,” और फिर ज़रा ठहरकर बोले, “क्योंकि वह पढ़ता नहीं है।”

    “पढ़ता तो है।” पत्नी ने हाथ नचाकर विरोध किया, “सवेरे से पढ़ ही तो रहा है।”

    रसोईघर के सामने कोई ग्यारह बरस का एक लड़का बेंच पर बैठा कान खुजा रहा था। उसकी गोद में एक बंद किताब पड़ी थी—उसका लैटिन-व्याकरण।

    वह सुकट्टी हो रहा था और उसका सर घुटा हुआ था। वह लाल बनियान और सूती पतलून पहने था। उघरे पाँव में चमड़े की सैंडिल थी। माँ-बाप की ओर मिंची आँखों से वह देख रहा था।

    “अच्छा”, शुहायदा ने सिर झटककर रुखाई से पूछा, “इसे कैसे कहोगे...वे मेरी प्रशंसा करेंगे?”

    “लाडेरेटुरं” लड़के ने मुन्न से कहा। वह बिना सोचे घबराकर बोला था, मगर उत्तर देने के पहले खड़ा हो गया था मानो स्कूल में हो।

    “लाडेरेटुरं” शुहायदा ने व्यंग्य से सिर हिलाकर हामी भरी, “लाडेरेटुरं”, क्या कहने। दूसरी परीक्षा में भी तुम फेल होगे।”

    “नहीं-नहीं, वह जानता है”, माँ बच्चे की मदद को आई, “मगर वह गड़बड़ा जाता है। तुम से डर जाता है वह।”

    “मैं इसकी पढ़ाई छुड़ा दूँगा, सच कहता हूँ। ईश्वर की क़सम’’, पिता गरजकर बोला, “घसियारा बनेगा या भाड़ झोंकेगा।”

    उन्हें ख़ुद मालूम नहीं, उन्होंने ग़ुस्से में ये दो धंधे क्यों सोचे थे, जबकि इन दोनों का उन्हें कुछ ज्ञान था।

    “मेरे पास आओ जानी बेटे,” माँ बोली, “तुम पढ़ोगे न, क्यों बेटे?”

    “यह मुझे बरबाद कर देगा, घुन्नहा कहीं का”, शुहायदा कहने लगा। क्रोध उसके जीवन का रस था। “बरबाद कर देगा” उसने फिर कहा और देखा कि उसके ग़ुस्से से उसके शरीर में ख़ून दौड़ने लगा था और दोपहर की ऊब भाग रही थी।

    “मैं पढ़ूँगा” लड़का दबी ज़बान में हकलाया और अपमान के अकेलेपन में उसने सहारे के लिए माँ की ओर ताका। पिता की ओर देखने की उसे ताब थी। वह पिता को देखता नहीं था। वह अकेले उन्हें अनुभव करता था। हर जगह, हर समय, नफ़रत से।

    “मत पढ़ना।” शुहायदा ने तिरस्कार करके कहा, “पढ़ने की क्या ज़रूरत है, बेकार का काम है।”

    “मगर वह पढ़ता तो है” माँ बच्चे के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली, “और तुम तो उसे माफ़ कर दोगे, क्यों न...” यह कहकर तत्काल वह बच्चे से बोली, “अपना जाँघिया झटपट ले आओ, तुम्हारे बापू तुम्हें तैरने साथ ले जाएँगे।”

    जानी ठीक-ठीक समझ पाया कि हो क्या रहा है? वह यह भी तय कर सका कि उसकी माँ के हस्तक्षेप ने किस चमत्कार द्वारा उसकी और पिता की वह लंबी तकरार ख़त्म करा दी है? जो हो, वह दौड़कर दरवाज़े तक और दरवाज़े से अपनी छोटी-सी अँधेरी कोठरी में चला गया। वहाँ वह फ़ुर्ती से चेरी के रंग वाला अपना जाँघिया ख़ोजने लगा। वह उसके पिता का-सा ही था, हाँ उससे छोटा था। श्रीमती शुहायदा ने ही दोनों के बनाए थे।

    पिता हिचकिचाते दिखाई दिए। अपनी पत्नी के निवेदन का स्पष्ट उत्तर देकर वह गूज़बेरी की झाड़ी के पास ठिठके रहे; मानो लड़के के लपककर जाने की प्रतीक्षा कर रहे हों। फिर उन्होंने मानो इरादा बदल दिया और बग़ीची के छुटके दरवाज़े से निकल आए। झील की ओर वह और दिनों से धीमी चाल से चलने लगे।

    लड़के को अपनी जाँघिया ख़ोजने में कई एक मिनट लग गए।

    जानी माध्यमिक स्कूल की दूसरी श्रेणी में लैटिन की परीक्षा में फेल हो गया था। वह शरद में फिर परीक्षा देने की तैयारी कर रहा था, परंतु कुछ ढीला-सा था। पिता ने दंड दिया था कि सप्ताह-भर तैरने को नहीं मिलेगा। ऐसे दो दिन और बिना तैरे काटने होते, इससे हाथ आए सुनहरे अवसर का वह जी भरकर उपभोग करना चाहता था। उसने सारे कपड़े-लत्ते खँखोड़ डाले। अंतत: जब उसे जाँघिया मिल गया तो उसे तह करना भूलकर हाथ में उठाए हुए वह अहाते में दौड़कर आया। माँ वहाँ उसका इंतज़ार कर रही थी। उसने पंजों के बल हुमसकर वह प्यारा मुँह चूमा, जिसको उसकी इतनी फ़िक्र थी और फिर पिता के पीछे भागा। माँ ने पीछे से आवाज़ दी कि मैं थोड़ी देर में तट पर आऊँगी।

    शुहायदा अपने लड़के से कोई बीस क़दम आगे था। अपनी चमड़े की सैंडिलों से धूल उड़ाता हुआ जानी उसके पीछे दौड़ा। कैंपियन की झाड़ी पर उसने अपने बाप को जा पकड़ा। मगर वह सीधा उसके पास तक नहीं गया, बग़ल-बग़ल दुबका हुआ ऐसे चलने लगा, जैसे वह कुत्ता चले जिसे ठीक मालूम हो कि उसे पुचकारा जाएगा या नहीं।

    पिता ने एक शब्द भी नहीं कहा। उनका चेहरा, जिसे बच्चा कनखियों से बार-बार ताक रहा था, कठोर और सपाट था। वह सिर उठाए शून्य में देख रहे थे। उन्होंने बग़ल में, चलते हुए बच्चे को देखा ही नहीं जैसे कि उन्हें उसके होने का ज्ञान ही हो।

    जानी जो कि कुछ मिनट पहले बहुत ख़ुश हो गया था, फिर निराश और निस्तेज हो गया। उसे प्यास लग रही थी। वह पानी पीना चाहता था या चाहता था कि किसी पेड़ के पीछे छिपा रहे या फिर लौट ही जाए, लेकिन उसे डर था कि उसका बाप उस पर फिर चिल्लाएगा। इसलिए वह इस स्थिति को, जो कि उसने पैदा की थी, सह रहा था कि कहीं वह बद-से-बदतर हो जाए। वह सोच रहा था कि अब मेरा क्या होगा?

    घर से समुद्र तट तक पैदल चलने में 4 मिनट से ज़्यादा नहीं लगे। सैलानियों के विहार जैसे होते हैं, वैसी ही यह जगह भी काफ़ी दरिद्र थी। बिजली नहीं थी, सुविधाएँ नहीं थीं। तट पत्थरों से भरा था, सारी जगह निरी घटिया दर्ज़े की थी। कम तनख़्वाह वाले क्लर्क अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ सपरिवार बिताने यहाँ आया करते थे।

    उमस से भरे अहातों में शहतूतों के नीचे औरतें और आदमी नंगे पाँव अधनंगे बदन बैठे थे। कोई तरबूज़ खा रहा था, कोई भुट्टा।

    शुहायदा ने जान-पहचान वालों से भलेमानुषों की तरह नमस्ते किया। विरामसंधि के इन आनंदमय क्षणों में बच्चे ने विश्वासपूर्वक नतीजा निकाला कि उसके बाप के मन में उतना ग़ुस्सा नहीं है, जितना वह देखता है। लेकिन ज़रा ही देर में उसके बाप की भौंहें फिर तन गईं।

    धूप में झींगुर झँकार रहे थे। झील से उठकर एक मीठी सड़ाँध पिता-पुत्र नाक में आई। तभी गिरा-पड़ा स्नानघर दिखाई देने लगा, लेकिन शुहायदा का मौन नहीं टूटा।

    चौकीदारनी श्रीमती इस्तेनेश ने जो कि सर पर बुंदकियोंदार लाल रूमाल बाँधे थी, उन दोनों की कोठरियाँ खोल दीं—एक पिता के लिए और दूसरी, जिसमें आमतौर से श्रीमती शुहायदा कपड़े बदलती थीं, लड़के के लिए। एक पुरानी नाव की मरम्मत में लगे हुए एक नौजवान को छोड़कर समुद्र तट पर और कोई था। वह नौजवान उस वक़्त कुछ टेढ़ी-मेढ़ी जंगखाई कीलें, हथौड़ी से सीधी करने की कोशिश कर रहा था।

    पहले जानी ने कपड़े बदले।

    वह अपनी कोठरी से बाहर गया। मगर समझ नहीं पाया कि क्या करे, पहले ख़ुद पानी में उतरने की हिम्मत उसे नहीं हो रही थी, हालाँकि इसके लिए जाने कब से वह व्याकुल था। अनिश्चय और असमंजस में अपने पिता का इंतज़ार करते हुए अपने पैरों को ऐसे घूरता रहा, जैसे उसने उन्हें पहली बार देखा हो।

    आख़िरकार शुहायदा चेरी के रंग का जाँघिया पहने हुए अपनी कोठरी से बाहर निकला। वह कुछ मुटा चला था, लेकिन उसकी काठी मज़बूत थी और उसका सीना काले बालों से भरा हुआ था, जिसे देखकर बच्चा हमेशा चकित रह जाया करता था।

    जानी ने उसके मुँह की ओर देखा। उसकी आँखों का भाव पढ़ने की कोशिश की, पर वह उनके भीतर झाँक सका। सुनहरे फ़्रेम वाला चश्मा इतना तेज़ चमक रहा था। असमंजस और लज्जा से वह खड़ा अपने पिता को झील में पैठते देखता रहा।

    वह उसके पीछे-पीछे नहीं गया। एकाएक शुहायदा ने दूसरी ओर मुँह किए हुए उसको डाँट बताई।

    “चले आओ!”

    तब भी वह पानी में कूदा नहीं, मेंढक की तरह तैरने का अपना आमतौर का तरीक़ा बरता। वह बस सहमा-सहमा अपने पिता के पीछे हिचकिचाता हुआ बढ़ा। उसे प्रोत्साहन के एक शब्द की प्रतीक्षा थी। शुहायदा ने बच्चे का बर्ताव लक्ष्य किया।

    “डरते हो?” उसने उधर पीठ किए हुए बेरुख़ी से पूछा।

    “नहीं।”

    “तब फिर बेवक़ूफ़ की तरह क्या कर रहे हो?”

    दोनों उस बाँस के पास खड़े हुए थे, जहाँ पानी बच्चे की छाती तक और पिता की कमर के ज़रा नीचे तक आता था। दोनों ने पानी में गर्दन तक डुबकी लगाई और उसके मधुर दुलार और उसकी सेब-जैसी सफ़ेद चमक का आनंद लिया।

    शुहायदा का मन प्रसन्न हुआ तो उसे खिलवाड़ सूझा।

    “दोस्त, तुम डरपोक हो।”

    “नहीं।”

    शुहायदा ने अपने बेटे को दोनों हाथों से ऊपर उठाया और पानी में फेंक दिया।

    जानी दूर खड़े ज़ोरों के छपाके के साथ चूतड़ों के बल पानी पर गिरा। झील उसके तले खुल गई और फिर उसके सिर के ऊपर गरजती हुई एक रहस्यमय हुँकार के साथ बंद हो गई। उसे हाथ-पाँव मारते हुए सतह तक आने में कुछ सैकिंड लगे। पानी उसके मुँह और नाक से बुलबुले बनाता हुआ निकल रहा था। उसने अपनी दोनों मुट्ठियों से अपनी चौंधियायी हुई आँखें मलीं।

    “लगा।” पिता ने पूछा।

    “नहीं।”

    तक एक बार और हो जाए “एक-दो”—और उसने लड़के को दोनों हाथों से उठा लिया।

    “तीन” शब्द कहते ही उसने लड़के को उसी दिशा में लेकिन उससे कुछ और दूर अगले खंभे के आगे, जिससे कई रस्सियाँ बँधी हुई थीं, घुमाकर फेंक दिया। इसलिए वह देख नहीं पाया कि उसका लड़का कलाबाज़ी खाने के बाद जब पानी में गिरा तो वह गर्दन उठाए हुए था और उसकी बाँहें फैली हुई थीं। बिना किसी आशंका के शुहायदा दूसरी ओर देखने लगा।

    उसके सामने धूप में चमकता हुआ समुद्र तट फैला हुआ था और उसके और तट के बीच पानी की सतह ऐसे चमक रही थी, जैसे लाखों तितलियाँ उस पर अपने हीरे के पंख फड़फड़ा रही हों।

    पहली बार की तरह वह कुछ सैकिंड ठहरा। फिर उसने चिढ़कर आवाज़ दी—

    “हो क्या रहा है?”

    फिर जब मौन ही छाया रहा तो उसने धमकी के स्वर में कुछ और ऊँची फटी हुई आवाज़ लगाई—

    “चले आओ, तमाशा मत करो!”

    फिर भी कोई उत्तर नहीं।

    “तुम कहाँ हो?” वह ज़रा और ज़ोर से चीख़ा और अपने चारों तरफ़ ताका और दूर तक भी निगाह दौड़ाई, क्योंकि जानी पानी के अंदर भी तैर लेता था और हो सकता था कि जहाँ चाहे वहाँ निकल आए।

    तो भी शुहायदा को बराबर यह आश्वस्ति का भाव बना रहा कि पिछली बार से ज़्यादा समय इस बार निकल गया है।

    वह एकदम शंकाकुल हो उठा।

    वह उछलकर जितनी तेज़ी से हो सकता था पानी को चीरता हुआ उस जगह पहुँचने की कोशिश करने लगा, जहाँ अनुमानत: उसका लड़का लुप्त हुआ था और बराबर आवाज़ देता रहा।

    “जानी जानी!”

    उसने उसे बाँस के पीछे नहीं पाया। अब वह दोनों हाथों से इस तरह पानी हटाने लगा, जैसे फावड़े से बजरी हटा रहा हो। उसने जहाँ-तहाँ पानी को मथ डाला। उसने तल में झाँकने की कोशिश की, लेकिन मटमैला पानी अगम ही बना रहा। उसने अपना सिर, जो कि अभी तक सूखा था, पानी के भीतर डाल दिया। उसकी आँखें चश्मे के पीछे मछली की आँखों की तरह उभर आईं। फिर उसने पानी के नीचे बाकायदा ख़ोजना शुरू किया। तल की मिट्टी पर पेट के बल लेटकर, झुककर, सिकुड़कर, पहले एक करवट, फिर दूसरी लेकर चारों ओर चक्कर लगाकर, फिर इधर-से-उधर जाकर लेकिन सब बेकार था।

    लड़का कहीं नहीं मिल रहा था और उसके चारों ओर पानी-ही-पानी था। पानी की भयंकर एकरूपता। वह हाँफ़ता और बड़बड़ाता हुआ बाहर आकर दम लेने लगा।

    जब वह पानी के नीचे था तो उसे एक अस्पष्ट-सी आशा थी कि जब वह बाहर आएगा तो उसका लड़का वहाँ चुका होगा। या तो हँसता हुआ बाँस के नज़दीक या उससे और आगे खड़ा होगा या शायद कपड़ा पहनने के लिए कोठरी में भाग गया होगा। लेकिन जब शुहायदा ऊपर आया तो उसने जाना कि हालाँकि नीचे समय अनंत प्रतीत हो रहा था। वह वास्तव में कुछ ही सेकिंड पानी के भीतर रहा था और उतनी देर में उस झील से दूर कहीं नहीं जा सकता था।

    पानी की सतह के ऊपर एक ऐसी शांत निस्संगता छाई हुई थी, जिसकी कल्पना पहले कभी करना उसके लिए असंभव था।

    “हेलो, हेलो।” उसने तट की ओर मुँह करके जिस स्वर में आवाज़ दी, उसे वह स्वयं पहचान नहीं पाया, “वह कहीं नहीं मिल रहा है।”

    जो लड़का नाव में ठोंक-पीट कर रहा था कान पर हाथ रखकर सुनने लगा;

    “क्या बात है?”

    “वह कहीं है नहीं” पिता ने व्याकुल होकर जवाब दिया।

    “कौन?”

    “उसका पता नहीं चल रहा है।” वह इतने ज़ोर से चिल्लाया कि उसकी आवाज़ बँध गई, “दौड़ो-दौड़ो।”

    लड़के ने हथौड़ी नाव के अंदर रख दी, पतलून उतार फेंकी, जिससे कि वह सूखी रहे और झील में धँस गया। वह जितनी तेज़ी से सकता था रहा था। लेकिन पानी में खड़े हताश आदमी को लगा, जैसे वह खाली इतरा रहा है। इस बीच शुहायदा ने एक के बाद एक कई गोते लगाए और घुटनों के बल चल-चलकर एक और दिशा में भी खोजा। हर बार जब वह दूर तक जाता तो यह देखकर कि वह बहुत दूर निकल आया है, हर बार वहीं लौटकर जाता, जहाँ से चला था, और जहाँ मानो वह अपने को पहरे पर खड़ा कर आया था। वह दोनों हाथों से पकड़कर खंभे से लिपट गया मानो उसे जो चक्कर रहा था उसका शिकार होने से बचना चाहता हो। नौजवान जब तक शुहायदा के पास पहुँचा, तब तक शुहायदा बदहवास हाँफ़ने लगा था। वह लड़के के किसी सवाल का ठीक जवाब दे सका।

    दोनों निरुद्देश्य इधर-उधर ख़ोजते भटक रहे थे।

    तट पर श्रीमती इस्तेनेश हाथ मल रही थीं। उसकी चीख़-पुकार से बीस-तीस आदमियों की भीड़ जमा हो गई थी। वे काँटे और जाल लाए, एक डोंगी भी दुर्घटना के स्थल की ओर रवाना की गई जिसकी कोई ज़रूरत थी; क्योंकि पानी वहाँ काफ़ी छिछला था।

    गाँव-भर में ख़बर फैलते देर लगी कि कोई डूब गया है। डूब गया है, यह मानो सिद्ध हो चुका था।

    ठीक उसी क्षण बग़ीची के फूलों के बीच श्रीमती शुहायदा अपना क्रोशिया समेट कर रख रही थीं। वह उस अँधेरी कोठरी में गई, जिसमें थोड़ी देर पहले जानी अपना जाँघिया ढूँढने गया था। उन्होंने कोठरी को ताला लगाया और जैसा कि उन्होंने जानी से वायदा किया था झील की ओर चल पड़ीं। धूप की चकाचौंध से बचने के लिए छतरी लगाए वह यह सोचती हुई कि नहाएँ या नहाएँ, धीरे- धीरे चल रही थीं। आख़िर में उन्होंने नहाने का फैसला किया। जब कैंपियन की झाड़ी आई तो उनकी उधेड़बुन का ताँता टूटकर बिखर गया और वह छतरी बंद करके दौड़ने लगीं। वह दौड़ते-ही-दौड़ते समुद्र-तट पहुँची।

    वहाँ उन्होंने दो पुलिस के आदमी और भनभनाती हुई भीड़ देखी, जिसमें अधिसंख्य देहातिनें थीं। उनमें से कई रो रही थीं।

    माँ तुरंत समझ गई कि क्या हुआ है? विवश बिलखती हुई वह समुद्र तट की ओर गिरती-पड़ती चलीं, जहाँ बालू में चित पड़े उसके बेटे के चारों ओर एक छोटी-सी भीड़ ने घेरा बाँध दिया था। उन्होंने उसे वहाँ आने नहीं दिया। उन्होंने उसे एक कुर्सी पर बिठा दिया। वह बेहोश हो चलीं, मगर बार-बार पूछती जा रही थीं कि क्या उसके जान है?

    नहीं, उसके नहीं थी। उन्होंने 15 मिनट ख़ोजने के बाद उसे उस खंभे के ठीक पीछे वहीं पाया था, जहाँ उसका पिता सब समय गोता मारता रहा था। उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया था। उसकी पुतलियों पर रोशनी बेअसर हो गई थी। डाक्टर ने उसे उल्टा लटकाकर उसके पेट से पानी निकालकर उसके सीने को मलकर नकली साँस देने की कोशिश की थी। छोटी-छोटी मुर्दा बाँहों को बड़ी देर तक कसरत कराकर आले से दिल की धड़कन सुननी चाही थी—पर सुन नहीं पाया था। अंतत: उसने अपने औजार अपने बक्से में रख लिए थे और चला गया था।

    यह मौत जो इतनी अचानक, इतने धोखे से हुई थी अब हमेशा के लिए सत्य, निश्चित और अटल हो गई थी, जैसे कि पर्वतों में सबसे महान् पर्वत हो।

    माँ को एक किसान के रेहड़े में घर लाया गया। शुहायदा अपना चेरी रंग का जाँघिया पहने तट पर बैठा रहा। उसके चेहरे और चश्मे से पानी और आँसू टपक रहे थे। वह अपने से ही कहता रहा, ‘हे ईश्वर—हे ईश्वर—हे ईश्वर।’ आख़िरकार उसे उठा कर खड़ा किया गया और कोठरी में ले जाया गया कि वह कपड़े बदल ले।

    तब तीन बजा था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 175)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : डेज़्सो कोस्ज़टोलानी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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