चेतना लौटने लगी। साँस में गंधक की तरह तेज़ बदबूदार और दम घुटाने वाली हवा भरी हुई थी। कोबायाशी ने महसूस किया कि बम के उस प्राण-घातक धड़ाके की गूँज अभी-भी उसके दिल में धँस रही है। भय अभी-भी उस पर छाया हुआ है। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा है। उसे साँस लेने में तकलीफ़ होती है, उसकी साँस बहुत भारी और धीमी चल रही है।
हारे हुए कोबायाशी का ज़र्ज़र मन इन दोनों अनुभवों से खीझकर कराह उठा। उसका दिल फिर ग़फ़लत में डूबने लगा। होश में आने के बाद, मृत्यु के पंजे से छूटकर निकल आने पर जो जीवनदायिनी स्फूर्ति और शांति उसे मिलनी चाहिए थी, उसके विपरीत यह अनुभव होने से ऊबकर, तन और मन की सारी कमज़ोरी के साथ वह चिढ़ उठा। जीवन कोबायाशी के शरीर में अपने अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विद्रोह करने लगा। उसमें बल का संचार हुआ।
कोबायाशी ने आँखें खोलीं। गहरे कुहासे की तरह दम घुटाने वाला ज़हरीला धुआँ हर तरफ़ छाया हुआ था। उसके स्पर्श से कोबायाशी को अपने रोम-रोम में हज़ारों सुइयाँ चुभने का-सा अनुभव हो रहा था। रोम-रोम से चिनगियाँ छूट रही थी। उसकी आँखों में भी जलन होने लगी; पानी आ गया। कोबायाशी ने घबराकर आँखें मीच लीं।
लेकिन आँखें बंद कर लेने से तो और भी ज़्यादा दम घुटता है। कोबायाशी के प्राण घबरा उठे। वे कहीं भी सुरक्षित न थे। मौत अँधेरे की तरह उस पर छाने लगी। यह हीनावस्था की पराकाष्ठा थी। कोबायाशी की आत्मा रो उठी। हारकर उसने फिर अपनी आँखें खोल दीं। हठ के साथ वह उन्हें खोले ही रहा। ज़हरीला धुआँ लाल-मिर्च के पाउडर की तरह उसकी आँखों में भर रहा था। लाख तकलीफ़ हो, मगर वह दुनिया को कम-से-कम देख तो रहा है। बम गिरने के बाद भी दुनिया अभी नेस्तनाबूद नहीं हुई—आँखें खुली रहने पर यह तसल्ली तो उसे हो ही रही है। गर्दन घुमाकर उसने हिरोशिमा की धरती को देखा, जिस पर वह पड़ा हुआ था। धरती के लिए उसके मन में ममत्व जाग उठा। कमज़ोर हाथ आप-ही-आप आगे बढ़कर अपने नगर की मिट्टी को स्पर्श करने का सुख अनुभव करने लगे।
...मन कहीं खोया। अपने अंदर उसे किसी ज़बरदस्त कमी का एहसास हुआ। यह एहसास बढ़ता ही गया। आंतरिक हृदय से सुख का अनुभव करते ही उसकी कल्पना दुःख की ओर प्रेरित हुई। स्मृति झकोले खाने लगी।
चेतन बुद्धि पर छाए हुए भय से बचने के लिए अंतर-चेतना की किसी बात की विस्मृति का मोटा पर्दा पड़ रहा था। मौत के चंगुल से छूटकर निकल आने पर, पार्थिवता की बोझ-स्वरूप धरती के स्पर्श से, जीवन को स्पर्श करने का सुख उसे प्राप्त हुआ था; परंतु भावना उत्पन्न होते ही उसके सुख में धुन भी लग गए। भय ने नीवें डगमगा दीं। अपनी अनास्था को दबाने के लिए वह बार-बार ज़मीन को छूता था। अंतर के अविश्वास को चमत्कार का रूप देते हुए, इस खुली जगह में पड़े रहने के बावजूद अपने जीवित बच जाने के बारे में उसे भगवान की लीला दिखाई देने लगी।
करुणा सोते की तरह दिल से फूट निकली। पराजय के आँसू इस तरह अपना रूप बदलकर दिल में घुमेड़े ले रहे थे। ज़हरीले धुएँ के कारण आँखों में भरे हुए पानी के साथ-साथ वे आँसू भी घुल-मिलकर गाल से ढुलकते हुए ज़मीन पर टपकने लगे।
बेहोश होने से कुछ मिनट पहले उसने जिस प्रलय को देखा था, उसकी विकरालता अपने पूरे वज़न के साथ कोबायाशी की स्मृति पर आघात करके उसके टुकड़े-टुकड़े कर रही थी। वह ठीक-ठीक सोच नहीं पा रहा था कि जो दृश्य उसने देखा, वह सत्य था क्या?...धड़ाका! जूड़ी-बुख़ार की कँपकँपी की तरह ज़मीन काँप उठी थी। बम था—दुश्मनों का हवाई हमला। हज़ारों लोग अपने प्राणों की पूरी शक्ति लगाकर चीख़ उठे थे।...कहाँ हैं वे लोग? वे प्राणांतक चीख़ें, वह आर्त्तनाद जो बम के धड़ाके से भी अधिक ऊँचा उठ रहा था—वह इस समय कहाँ है? ख़ुद वह इस समय कहाँ है? और...
कुछ खो देने का एहसास फिर हुआ। कोबायाशी विचलित हुआ। उसने कराहते हुए करवट बदलकर उठने की कोशिश की, लेकिन उसमें हिलने की भी ताब न थी। उसने फिर अपनी गर्दन ज़मीन पर डाल दी। हवा में काले-काले ज़र्रे भरे हुए थे। धुओं, गर्मी, जलन, प्यास—उसका हलक़ सूखा जा रहा था। बेचैनी बढ़ रही थी। वह उठना चाहता था। उठकर वह अपने चारों तरफ़ देखना चाहता था। क्या?...यह अस्पष्ट था। उसके दिमाग़ में एक दुनिया चक्कर काट रही थी। नगर, इमारतें, जनसमूह से भरी हुई सड़के, आती-जाती सवारियाँ, मोटरें, गाड़ियाँ, साइकिलें... और... और... दिमाग़ इन सब में खोया हुआ कुछ ढूँढ रहा था; अटका, मगर फ़ौरन ही बढ़ गया। जीवन के पच्चीस वर्ष जिस वातावरण से आत्मवत् परिचित और घनिष्ठ रहे थे, वह उसके दिमाग़ की स्क्रीन पर चलती-फिरती तस्वीरों की तरह नुमायाँ हो रहा था; लेकिन सब कुछ अस्पष्ट, मिटा-मिटा-सा! कल्पना में वे चित्र बड़ी तेज़ी के साथ झलक दिखाकर बिखर जाते थे। इससे कोबायाशी का मन और भी उद्विग्न हो उठा।
प्यास बढ़ रही थी। हलक़ में काँटे पड़ गए थे।—और उसमें उठने की भी ताब न थी। एक बूँद पानी के लिए ज़िंदगी देह को छोड़कर चले जाने की धमकी दे रही थी, और शरीर फिर भी नहीं उठ पाता था। कोबायाशी को इस वक़्त मौत ही भली लगी। बड़े दर्द के साथ उसने आँखें बंद कर लीं।
मगर मौत न आई।
कोबायाशी सोच रहा था— “मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जिसकी यह सज़ा मुझे मिल रही है? अमीरों और अफ़सरों को छोड़कर कौन ऐसा आदमी था, जो यह लड़ाई चाहता था? दुनिया अगर दुश्मनी निकालती, तो उन लोगों से। हमने उनका क्या बिगाड़ा था? हमें क्यों मारा गया?...प्यास लग रही है। पानी न मिलेगा। ऐसी बुरी मौत मुझे क्यों मिल रही है? ईश्वर! मैंने ऐसा क्या अपराध किया था?
करुणासागर ईश्वर कोबायाशी के दिल में उमड़ने लगा। आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी। सबसे बड़े मुंसिफ़ के हुज़ूर में लाठी और भैंसवाले न्याय के विरुद्ध वह रो-रोकर फ़रियाद कर रहा था। आँसू हलाकान किए दे रहे थे। लंबी-लंबी हिचकियाँ बँध रही थी, जिनसे पसलियों को और सारे शरीर को, बार-बार झटके लग रहे थे। इस तरह, रोने से दम घोंटने वाला ज़हरीला धुआँ जल्दी-जल्दी पेट में जाता था। उसका जी मिचलाने लगा। उसके प्राण अटकने लगे।
—प्राणों के भय से एक लंबी हिचकी को रोकते हुए जो साँस खींची तो कई पल तक वह उसे अंदर ही रोके रहा; फिर सुबकियों में वह धीरे-धीरे टूटी। रो भी नहीं सकता!—कोबायाशी की आँखों में फिर पानी भर आया। कमज़ोर हाथ उठाकर उसने बेजान-सी उँगलियों से अपने आँसू पोंछे।
आँखों के पानी से उँगलियों के दो पोर गीले हुए; उतनी जगह में तरावट आई। कोबायाशी की काँटों-पड़ी ज़बान और हलक़ को फिर से तरावट की तलब हुई। प्यास बगुले-सी फिर भड़क उठी। हठात् उसने अपनी आँसुओं से नम उँगलियाँ ज़बान से चाट लीं। दो उँगलियों के बीच में बिखरी हुई आँसुओं की एक बूँद उसकी ज़बान का ज़ायक़ा बदल गई। और उसे पछतावा होने लगा—इतनी देर रोया, मगर बेकार ही गया। उसकी फिर से रोने की तबिअत होने लगी, मगर आँसू अब न निकलते थे। कोबायाशी के दोनों हाथों में ताक़त आ गई। नम आँखों से लेकर गीले गालों के पीछे कनपटियों तक आँसू की एक बूँद जुटाकर अपनी प्यास बुझाने के लिए वह उँगलियाँ दौड़ाने लगा। आँसू ख़ुश्क हो चले थे; और कोबायाशी की प्यास दम तोड़ रही थी।
चक्कर आने लगे। ग़फ़लत फिर बढ़ने लगी। बराबर सुन्न पड़ते जाने की चेतना अपनी हार पर बुरी तरह से चिढ़ उठी। और उसकी चिढ़ विद्रोह में बदल गई। ग़ुस्सा शक्ति बनकर उसके शरीर में दमकने लगा—क़ाबू से बाहर होने लगा। माथे की नसें तड़कने लगीं। वह एकदम अपने क़ाबू से बाहर हो गया। दोनों हाथ टेककर उसने बड़े ज़ोम के साथ उठने की कोशिश की। वह कुछ उठा भी। कमज़ोरी की वजह से माथे में फिर मुरछा आने लगी। उसने सँभाला—मन भी, तन भी। दोनों हाथ मज़बूती से ज़मीन पर टेके रहा। हाँफते हुए, मुँह से एक लंबी साँस ली; और अपनी भुजाओं के बल पर घिसटकर वह कुछ और उठा। पीठ लगी तो घूमकर देखा—पीछे दीवार थी। उसने ज़िंदगी की एक और निशानी देखी। कोबायाशी का हौसला बढ़ा। मौत को पहली शिकस्त देकर पुरुषार्थ ने गर्व का बोध किया; परंतु पीड़ा और जड़ता का ज़ोर अभी भी कुछ कम न था। फिर भी उसे शांति मिली। दीवार की तरफ़ देखते ही ध्यान बदला। सिर उठाकर ऊँचे देखा, दीवार टूट गर्इ थी। उसे आश्चर्यमय प्रसन्नता हुई। दीवार से टूटा हुआ मलबा दूसरी तरफ़ गिरा था। भगवान ने उसकी कैसी रक्षा की। जीवन के प्रति फिर से आस्था उत्पन्न होने लगी। टूटी हुई दीवार की ऊँचाई के साथ-साथ उसका ध्यान और ऊँचा गया। उसे ध्यान आया कि यह तो अस्पताल की दीवार है।...अभी-अभी वह अपनी पत्नी को भरती करा के बाहर निकला था। सबेरे से उसे दर्द उठ रहे थे, नई ज़िंदगी आने को थी। पत्नी, जिसे बच्चा होने वाला था...डॉक्टर, नर्स, मरीज़ों के पलंग...डॉक्टर ने उससे कहा था—‘बाहर जाकर इंतिज़ार करो।’ वह फिर बाहर आकर अस्पताल के नीचे ही कंकड़ों की कच्ची सड़क पर सिगरेट पीते हुए टहलने लगा था। आज उसने काम से भी छुट्टी ले रखी थी। वह बहुत ख़ुश था।—जब अचानक आसमान पर कानों के पर्दे फाड़ने वाला धमाका हुआ था। अँधा बना देने वाली तीन प्रकाश की किरणें कहीं से फूटकर चारों तरफ़ बिखर गर्इं। पलक मारते ही काले धुएँ की मोटी चादर बादलों से घिरे हुए आसमान पर तेज़ी से बिछती चली गई। काले धुएँ की बरसात होने लगी। चमकते हुए विद्युत्कण सारे वातावरण में फैल गए थे। सारा शरीर झुलस गया; दम घुटने लगा था। सैकड़ों चीख़ें एक साथ सुनाई दी थी। इस अस्पताल से भी गई होंगी। दीवार उसी तरफ़ गिरी है। और उन चीख़ों में उसकी पत्नी की चीख भी ज़रूर शामिल रही होगी।... कोबायाशी का दिल तड़प उठा। उसे अपनी पत्नी को देखने की तीव्र उत्कंठा हुई।
होश में आने के बाद पहली बार कोबायाशी को अपनी पत्नी का ध्यान आया था। बहुत देर से जिसकी स्मृति खोई हुई थी, उसे पाकर कोबायाशी को एक पल के लिए राहत हुई। इससे उसकी उत्कंठा का वेग और भी तीव्र हो गया।
साल-भर पहले उसने विवाह किया था। एक वर्ष का यह सुख उसके जीवन की अमूल्य निधि बन गया था। दुःख, यातना और संघर्ष के पिछले चौबीस वर्षों के मरुस्थल-से जीवन में आज की यह महायंत्रणा जुड़कर सुख-शांति के एक वर्ष को पानी की एक बूँद की तरह सोख गई थी।
बचपन में ही उसके माँ-बाप मर गए थे। एक छोटा भाई था, जिसके भरण-पोषण के लिए कोबायाशी को दस बरस की उम्र में ही बुज़ुर्गों की तरह मर्द बनना पड़ा था। दिन और रात जी तोड़कर मेहनत-मजूरी की, उसे शाहज़ादे की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया। तीन बरस हुए वह फ़ौज में भरती होकर चीन की लड़ाई पर चला गया। और फिर कभी न लौटा।
अपने भाई को खोकर कोबायाशी ज़िंदगी से ऊब गया था। जीवन से लड़ने के लिए उसे कहीं से प्रेरणा नहीं मिलती थी। वह निराश हो चुका था। बेवा मकान-मालकिन की लड़की उसके जीवन में नया रस ले आई। उनका विवाह हुआ।...और उसके घर में एक नई ज़िंदगी आने वाली थी। आज सवेरे से ही वह बड़े जोश में था। उसके सारे जोश और उल्लास पर यह गाज गिरी! ज़हरीले धुएँ की तपिश ने उसके अंतर तक को भून दिया था। वेदना असह्य हो गई थी—और चेतना लुप्त हो गई।
अपनी पत्नी से मिलने के लिए कोबायाशी सब खोकर तड़प रहा था। वह जैसे बच गया। वैसे ही भगवान ने शायद उसे भी बचा लिया हो; लेकिन दीवार तो उधर गिरी है।—“नहीं!”
—कोबायाशी चीख़ उठा। होश में आने के बाद पहली बार उसका कंठ फूटा था। सारे शरीर में उत्तेजना की एक लहर दौड़ गई। स्वर की तेज़ी से उसके सूखे हुए निष्प्राण कंठ में ख़राश पैदा हुई। प्यास फिर होश में आर्इ। कोबायाशी के लिए बैठा रहना असह्य हो गया। अंदरूनी ज़ोम का दौरा कमज़ोर शरीर को झिझोड़कर उठाने लगा। दीवार का सहारा लेकर वह अपने पागल जोश के साथ तेज़ी से उठा। वह दौड़ना चाहता था। दिमाग़ में दौड़ने की तेज़ी लिए हुए, कमज़ोर और डगमगाते हुए पैरों से वह धीरे-धीरे अस्पताल के फाटक की तरफ़ बढ़ा।
फाटक टूटकर गिर चुका था। अंदर मलबा-मिट्टी ज़मीन की सतह से लगा हुआ पड़ा था। कुछ नहीं—वीरान! जैसे यहाँ कभी कुछ बना ही न था। सब मिट्टी और खंडहर! दूर-दूर तक वीरान—ख़ाली! ख़ाली! ख़ाली! उसकी पत्नी नहीं है। उसकी दुनिया नहीं है। वह दुनिया, जो उसने पच्चीस बरसों तक देखी, समझी और बरती थी, आज उसे कहीं भी नहीं दिखाई पड़ती। सपने की तरह वह काफ़ूर हो चुकी है।
मीलों तक फैली हुई वीरानी को देखकर वह अपने को भूल गया, अपनी पत्नी को भूल गया। इस महानाश के विराट शून्य को देखकर उसका अपनापन उसी में विलीन हो गया। उसकी शक्ति उस महाशून्य में लय हो गर्इ। जीवन के विपरीत यह अनास्था उसे चिढ़ाने लगी। टूटी दीवार का सहारा छोड़कर वह बेतहाशा दौड़ पड़ा। वह ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा था—“मुझे क्यों मारा? मुझे क्यों मारा?”—मीलों तक उजड़े हुए हिरोशिमा नगर के इस खंडहर में लाखों निर्दोष प्राणियों की आत्मा बनकर पागल कोबायाशी चीख़ रहा था—“मुझे क्यों मारा? मुझे क्यों मारा?”
***
कैंप अस्पताल में हज़ारों ज़ख़्मी और पागल लाए जा रहे थे। डॉक्टरों को फ़ुर्सत नहीं, नर्सों को आराम नहीं; लेकिन इलाज कुछ भी नहीं हो रहा था। क्या इलाज करे? चारों ओर चीख़-चिल्लाहट, दर्द और यंत्रणा का हंगामा! “गोरा—दुश्मन! ख़ुदा—दुश्मन! बादशाह—दुश्मन!”—पागलपन के उस शोर में हर तरफ़ अपने लिए दर्द का, अपने परिवार और बच्चों के लिए सवाल था, जिसकी यह सज़ा उन्हें मिली है! और दुश्मनों के लिए नफ़रत थी, जिन्होंने बिना किसी अपराध के उनकी जान ली।
अस्पताल के बरामदे में एक मरीज़ दहन फाड़कर चिल्ला उठा—“मुझे क्यों मारा? मुझे क्यों मारा?”
अस्पताल के इंचार्ज डॉक्टर सुज़ुकी इन तमाम आवाज़ों के बीच में खोए हुए खड़े थे। वह हार चुके थे। कल से उन्हें नींद नहीं, आराम नहीं, भूख-प्यास नहीं। ये पागलों का शोर, दर्द, चीख़, कराह! उनका दिल, दिमाग़ और जिस्म थक चुका था। अभी थोड़ी देर पहले उन्हें ख़बर मिली थी, नागासाकी पर भी बम गिराया गया। वे इससे चिढ़ उठे थे—“क्यों नहीं बादशाह और वज़ीर हार मान लेते? क्या अपनी झूठी आन के लिए वह जापान को तबाह कर देंगे?” उन्हें दुश्मनों पर भी ग़ुस्सा आ रहा था “इन्हें क्यों मारा गया? ये किसी के दुश्मन नहीं थे। इन्हें अपने लिए साम्राज्य की चाह नहीं थी। अगर इनका अपराध है, तो केवल यही कि यह अपने बादशाह के मजबूरन बनाए हुए ग़ुलाम हैं। व्यक्ति की सत्ता के शिकार हैं। संस्कारों के ग़ुलाम हैं।...दुश्मन इन्हें मारकर ख़ुश है। जापान की निर्दोष और मूक जनता ने दुश्मनों का क्या बिगाड़ा था, जो उन पर एटम बम बरसाए गए? विज्ञान की नर्इ खोज की शक्ति आज़माने के लिए उन्हें लाखों बे-ज़बान बे-गुनाहों की जान लेने का क्या अधिकार था? क्या यह धर्म युद्ध है?—सदादर्शो के लिए लड़ाई हो रही है? एटम का विनाशकारी प्रयोग विश्व को स्वतंत्र करने की योजना नहीं, उसे ग़ुलाम बनाने की ज़िद है। ऐसी ज़िद, जो इंसान को तबाह करके ही छोड़ेगी।...और इंसानियत के दुश्मन कहते हैं कि एटम का आविष्कार मानव-बुद्धि की सबसे बड़ी सफलता है!... हिः पागल कहीं के!...
नर्स आई। उसने कहा— “डॉक्टर! सेंटर से ख़बर आई है, और नए मरीज़ भेजे जा रहे हैं।”
डॉक्टर सुज़ुकी के थके चेहरे पर सनक-भरी सूखी हँसी दिखाई दी। उन्होंने जवाब दिया— “इन नए मुर्दा मरीज़ों के लिए नई ज़िंदगी कहाँ से लाऊँगा, नर्स? विनाश-लोलुप स्वार्थी मनुष्य शक्ति का प्रयोग भी जीवन नष्ट करने के लिए ही कर रहा है। फिर निर्माण का दूसरा ज़रिया ही क्या रहा? फेंक दो उन ज़िंदा लाशों को, हिरोशिमा की वीरान धरती पर!—या उन्हें ज़हर दे दो! अस्पताल और डॉक्टरों का अब दुनिया में कोई काम नहीं रहा।”
नर्स के पास इन फ़िज़ूल की बातों के लिए समय नहीं था।—नए मरीज़ आ रहे हैं। सैकड़ों अस्पताल में पड़े हैं। वह डॉक्टर पर झुँझला उठी—
“यह वक़्त इन बातों का नहीं है डॉक्टर! हमें ज़िंदगी को बचाना है। यह हमारा पेशा है, फ़र्ज़ है। एटम की शक्ति से हारकर क्या हम इंसान और इंसानियत को चुपचाप मरते हुए देखते रहेंगे? चलिए, आइए, मरीज़ों को इंजेक्शन लगाना है, आगे का काम करना है।”
नर्स डॉक्टर सुज़ुकी का हाथ पकड़कर तेज़ी से आगे बढ़ गई।
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magar maut na i
kobayashi soch raha tha mainne aisa kaun sa apradh kiya, jiski ye saza mujhe mil rahi hai? amiron aur afsaron ko chhoDkar kaun aisa adami tha, jo ye laDai chahta tha? duniya agar dushmani nikalti, to un logon se hamne unka kya bigaDa tha? hamein kyon mara gaya? pyas lag rahi hai pani na milega aisi buri maut mujhe kyon mil rahi hai? ishwar! mainne aisa kya apradh kiya tha?
karunasagar ishwar kobayashi ke dil mein umaDne laga ankhon se ganga jamuna bahne lagi sabse baDe munsif ke huzur mein lathi aur bhainswale nyay ke wiruddh wo ro rokar fariyad kar raha tha ansu halakan kiye de rahe the lambi lambi hichkiyan bandh rahi thi, jinse pasliyon ko, aur sare sharir ko, bar bar jhatke lag rahe the is tarah, rone se dam ghontne wala zahrila dhuan jaldi jaldi pet mein jata tha uska ji michlane laga uske paran atakne lage
—pranon ke bhay se ek lambi hichki ko rokte hue jo sans khinchi to kai pal tak wo use andar hi roke raha; phir subakiyon mein wo dhire dhire tuti ro bhi nahin sakta!—kobayashi ki ankhon mein phir pani bhar aaya kamzor hath uthakar usne bejan si ungliyon se apne ansu ponchhe
ankhon ke pani se ungliyon ke do por gile hue; utni jagah mein tarawat i kobayashi ki kanton paDi zaban aur halaq ko phir se tarawat ki talab hui pyas bagule si phir bhaDak uthi hathat usne apni ansuon se nam ungliyan zaban se chat leen do ungliyon ke beech mein bikhri hui ansuon ki ek boond uski zaban ka zayqa badal gai aur use pachhtawa hone laga—itni der roya, magar bekar hi gaya uski phir se rone ki tabiat hone lagi, magar ansu ab na nikalte the kobayashi ke donon hathon mein taqat aa gai nam ankhon se lekar gile galon ke pichhe kanpatiyon tak ansu ki ek boond jutakar apni pyas bujhane ke liye wo ungliyan dauDane laga ansu khushk ho chale the; aur kobayashi ki pyas dam toD rahi thi
chakkar aane lage ghaflat phir baDhne lagi barabar sunn paDte jane ki chetna apni haar par buri tarah se chiDh uthi aur uski chiDh widroh mein badal gai ghussa shakti bankar uske sharir mein damakne laga—qabu se bahar hone laga mathe ki nasen taDakne lagin wo ekdam apne qabu se bahar ho gaya donon hath tekkar usne baDe zom ke sath uthne ki koshish ki wo kuch utha bhi kamzori ki wajah se mathe mein phir murchha aane lagi usne sambhala—man bhi, tan bhi donon hath mazbuti se zamin par teke raha hanphate hue, munh se ek lambi sans lee; aur apni bhujaon ke bal par ghisatkar wo kuch aur utha peeth lagi to ghumkar dekha—pichhe diwar thi usne zindagi ki ek aur nishani dekhi kobayashi ka hausla baDha maut ko pahli shikast dekar purusharth ne garw ka bodh kiya; parantu piDa aur jaDta ka zor abhi bhi kuch kam na tha phir bhi use shanti mili diwar ki taraf dekhte hi dhyan badla sir uthakar unche dekha, diwar toot gari thi use ashcharymay prasannata hui diwar se tuta hua malba dusri taraf gira tha bhagwan ne uski kaisi rakhsha ki jiwan ke prati phir se astha utpann hone lagi tuti hui diwar ki unchai ke sath sath uska dhyan aur uncha gaya use dhyan aaya ki ye to aspatal ki diwar hai abhi abhi wo apni patni ko bharti kara ke bahar nikla tha sabere se use dard uth rahe the, nai zindagi aane ko thi patni, jise bachcha hone wala tha doctor, nurse, marizon ke palang doctor ne usse kaha tha—bahar jakar intizar karo wo phir bahar aakar aspatal ke niche hi kankDon ki kachchi saDak par cigarette pite hue tahalne laga tha aaj usne kaam se bhi chhutti le rakhi thi wo bahut khush tha —jab achanak asman par kanon ke parde phaDne wala dhamaka hua tha andha bana dene wali teen parkash ki kirnen kahin se phutkar charon taraf bikhar garin palak marte hi kale dhuen ki moti chadar badalon se ghire hue asman par tezi se bichhti chali gai kale dhuen ki barsat hone lagi chamakte hue widyutkan sare watawarn mein phail gaye the sara sharir jhulas gaya; dam ghutne laga tha saikDon chikhen ek sath sunai di thi is aspatal se bhi gai hongi diwar usi taraf giri hai aur un chikhon mein uski patni ki cheekh bhi zarur shamil rahi hogi kobayashi ka dil taDap utha use apni patni ko dekhne ki teewr utkantha hui
hosh mein aane ke baad pahli bar kobayashi ko apni patni ka dhyan aaya tha bahut der se jiski smriti khoi hui thi, use pakar kobayashi ko ek pal ke liye rahat hui isse uski utkantha ka weg aur bhi teewr ho gaya
sal bhar pahle usne wiwah kiya tha ek warsh ka ye sukh uske jiwan ki amuly nidhi ban gaya tha duःkh, yatana aur sangharsh ke pichhle chaubis warshon ke marusthal se jiwan mein aaj ki ye mahayantrna juDkar sukh shanti ke ek warsh ko pani ki ek boond ki tarah sokh gai thi
bachpan mein hi uske man bap mar gaye the ek chhota bhai tha, jiske bharn poshan ke liye kobayashi ko das baras ki umr mein hi buzurgon ki tarah mard banna paDa tha din aur raat ji toDkar mehnat majuri ki, use shahzade ki tarah pal poskar baDa kiya teen baras hue wo fauj mein bharti hokar cheen ki laDai par chala gaya aur phir kabhi na lauta
apne bhai ko khokar kobayashi zindagi se ub gaya tha jiwan se laDne ke liye use kahin se prerna nahin milti thi wo nirash ho chuka tha bewa makan malkin ki laDki uske jiwan mein naya ras le i unka wiwah hua aur uske ghar mein ek nai zindagi aane wali thi aaj sabere se hi wo baDe josh mein tha uske sare josh aur ullas par ye gaj giri! zahrile dhuen ki tapish ne uske antar tak ko bhoon diya tha wedna asahy ho gai thi—aur chetna lupt ho gai
apni patni se milne ke liye kobayashi sab khokar taDap raha tha wo jaise bach gaya waise hi bhagwan ne shayad use bhi bacha liya ho; lekin diwar to udhar giri hai —nahin!
—kobayashi cheekh utha hosh mein aane ke baad pahli bar uska kanth phuta tha sare sharir mein uttejna ki ek lahr dauD gai swar ki tezi se uske sukhe hue nishpran kanth mein kharash paida hui pyas phir hosh mein aari kobayashi ke liye baitha rahna asahy ho gaya andaruni zom ka daura kamzor sharir ko jhijhoDkar uthane laga diwar ka sahara lekar wo apne pagal josh ke sath tezi se utha wo dauDna chahta tha dimagh mein dauDne ki tezi liye hue, kamzor aur Dagmagate hue pairon se wo dhire dhire aspatal ke phatak ki taraf baDha
phatak tutkar gir chuka tha andar malba mitti zamin ki satah se laga hua paDa tha kuch nahin—wiran! jaise yahan kabhi kuch bana hi na tha sab mitti aur khanDhar! door door tak wiran—khali! khali! khali! uski patni nahin hai uski duniya nahin hai wo duniya, jo usne pachchis barson tak dekhi, samjhi aur barti thi, aaj use kahin bhi nahin dikhai paDti sapne ki tarah wo kafur ho chuki hai
milon tak phaili hui wirani ko dekhkar wo apne ko bhool gaya, apni patni ko bhool gaya is mahanash ke wirat shunya ko dekhkar uska apnapan usi mein wilin ho gaya uski shakti us mahashuny mein lai ho gari jiwan ke wiprit ye anastha use chiDhane lagi tuti diwar ka sahara chhoDkar wo betahasha dauD paDa wo zor zor se cheekh raha tha—mujhe kyon mara? mujhe kyon mara?—milon tak ujDe hue hiroshima nagar ke is khanDhar mein lakhon nirdosh praniyon ki aatma bankar pagal kobayashi cheekh raha tha— mujhe kyon mara? mujhe kyon mara?
***
kainp aspatal mein hazaron zakhmi aur pagal laye ja rahe the Dauktron ko fursat nahin, narson ko aram nahin; lekin ilaj kuch bhi nahin ho raha tha kya ilaj kare? charon or cheekh chillahat, dard aur yantrana ka hangama! gora—dushman! khuda—dushman! badashah—dushman!—pagalpan ke us shor mein har taraf apne liye dard ka, apne pariwar aur bachchon ke liye sawal tha, jiski ye saza unhen mili hai! aur dushmanon ke liye nafar thi, jinhonne bina kisi apradh ke unki jaan li
aspatal ke baramde mein ek mariz dahan phaDkar chilla utha—mujhe kyon mara? mujhe kyon mara?
aspatal ke incharge doctor suzuki in tamam awazon ke beech mein khoe hue khaDe the wo haar chuke the kal se unhen neend nahin, aram nahin, bhookh pyas nahin ye pagalon ka shor, dard, cheekh, karah! unka dil, dimagh aur jism thak chuka tha abhi thoDi der pahle unhen khabar mili thi, nagasaki par bhi bam giraya gaya we isse chiDh uthe the—kyon nahin badashah aur wazir haar man lete? kya apni jhuthi aan ke liye wo japan ko tabah kar denge? unhen dushmanon par bhi ghussa aa raha tha inhen kyon mara gaya? ye kisi ke dushman nahin the inhen apne liye samrajy ki chah nahin thi agar inka apradh hai, to kewal yahi ki ye apne badashah ke majburan banaye hue ghulam hain wekti ki satta ke shikar hain sanskaron ke ghulam hain dushman inhen markar khush hai japan ki nirdosh aur mook janta ne dushmanon ka kya bigaDa tha, jo un par atom bam barsaye gaye? wigyan ki nari khoj ki shakti azmane ke liye unhen lakhon be zaban begunahon ki jaan lene ka kya adhikar tha? kya ye dharm yudh hai?—sadadarsho ke liye laDai ho rahi hai? atom ka winashakari prayog wishw ko swatantr karne ki yojna nahin, use ghulam banane ki zid hai aisi zid, jo insan ko tabah karke hi chhoDegi aur insaniyat ke dushman kahte hain ki atom ka awishkar manaw buddhi ki sabse baDi saphalta hai! hiः pagal kahin ke!
nurse i usne kaha doctor! centre se khabar i hai, aur nae mariz bheje ja rahe hain
doctor suzuki ke thake chehre par sanak bhari sukhi hansi dikhai di unhonne jawab diya in nae murda marizon ke liye nai zindagi kahan se launga, nurse? winash lolup swarthi manushya shakti ka prayog bhi jiwan nasht karne ke liye hi kar raha hai phir nirman ka dusra zariya hi kya raha? phenk do un zinda lashon ko, hiroshima ki wiran dharti par!—ya unhen zahr de do! aspatal aur Dauktron ka ab duniya mein koi kaam nahin raha
nurse ke pas in fizul ki baton ke liye samay nahin tha —nae mariz aa rahe hain saikDon aspatal mein paDe hain wo doctor par jhunjhla uthi
yah waqt in baton ka nahin hai doctor! hamein zindagi ko bachana hai ye hamara pesha hai, farz hai atom ki shakti se harkar kya hum insan aur insaniyat ko chupchap marte hue dekhte rahenge? chaliye, aiye, marizon ko injection lagana hai, aage ka kaam karna hai
nurse doctor suzuki ka hath pakaDkar tezi se aage baDh gai
chetna lautne lagi sans mein gandhak ki tarah tez badbudar aur dam ghutane wali hawa bhari hui thi kobayashi ne mahsus kiya ki bam ke us paran ghatak dhaDake ki goonj abhi bhi uske dil mein dhans rahi hai bhay abhi bhi us par chhaya hua hai uska dil zor zor se dhaDak raha hai use sans lene mein taklif hoti hai, uski sans bahut bhari aur dhimi chal rahi hai
hare hue kobayashi ka jarjar man in donon anubhwon se khijhkar karah utha uska dil phir ghaflat mein Dubne laga hosh mein aane ke baad, mirtyu ke panje se chhutkar nikal aane par jo jiwandayini sphurti aur shanti use milani chahiye thi, uske wiprit ye anubhaw hone se ubkar, tan aur man ki sari kamzori ke sath wo chiDh utha jiwan kobayashi ke sharir mein apne astitw ko siddh karne ke liye widroh karne laga usmen bal ka sanchar hua
kobayashi ne ankhen kholin gahre kuhase ki tarah dam ghutane wala zahrila dhuan har taraf chhaya hua tha uske sparsh se kobayashi ko apne rom rom mein hazaron suiyan chubhne ka sa anubhaw ho raha tha rom rom se chinagiyan chhoot rahi thi uski ankhon mein bhi jalan hone lagi; pani aa gaya kobayashi ne ghabrakar ankhen meech leen
lekin ankhen band kar lene se to aur bhi ziyada dam ghutta hai kobayashi ke paran ghabra uthe we kahin bhi surakshait na the maut andhere ki tarah us par chhane lagi ye hinawastha ki parakashtha thi kobayashi ki aatma ro uthi harkar usne phir apni ankhen khol deen hath ke sath wo unhen khole hi raha zahrila dhuan lal mirch ke pauDar ki tarah uski ankhon mein bhar raha tha lakh taklif ho, magar wo duniya ko kam se kam dekh to raha hai bam girne ke baad bhi duniya abhi nestanabud nahin hui—ankhen khuli rahne par ye tasalli to use ho hi rahi hai gardan ghumakar usne hiroshima ki dharti ko dekha, jis par wo paDa hua tha dharti ke liye uske man mein mamatw jag utha kamzor hath aap hi aap aage baDhkar apne nagar ki mitti ko sparsh karne ka sukh anubhaw karne lage
man kahin khoya apne andar use kisi zabardast kami ka ehsas hua ye ehsas baDhta hi gaya antrik hirdai se sukh ka anubhaw karte hi uski kalpana duःkh ki or prerit hui smriti jhakole khane lagi
chetan buddhi par chhaye hue bhay se bachne ke liye antar chetna ki kisi baat ki wismriti ka mota parda paD raha tha maut ke changul se chhutkar nikal aane par, parthiwta ki bojh swarup dharti ke sparsh se, jiwan ko sparsh karne ka sukh use prapt hua tha; parantu bhawna utpann hote hi uske sukh mein dhun bhi lag gaye bhay ne niwen Dagmaga deen apni anastha ko dabane ke liye wo bar bar zamin ko chhuta tha antar ke awishwas ko chamatkar ka roop dete hue, is khuli jagah mein paDe rahne ke bawjud apne jiwit bach jane ke bare mein use bhagwan ki lila dikhai dene lagi
karuna sote ki tarah dil se phoot nikli parajay ke ansu is tarah apna roop badalkar dil mein ghumeDe le rahe the zahrile dhuen ke karan ankhon mein bhare hue pani ke sath sath we ansu bhi ghul milkar gal se Dhulakte hue zamin par tapakne lage
behosh hone se kuch minat pahle usne jis prlay ko dekha tha, uski wikralta apne pure wazan ke sath kobayashi ki smriti par aghat karke uske tukDe tukDe kar rahi thi wo theek theek soch nahin pa raha tha ki jo drishya usne dekha, wo saty tha kya? dhaDaka! juDi bukhar ki kanpkanpi ki tarah zamin kanp uthi thi bam tha—dushmnon ka hawai hamla hazaron log apne pranon ki puri shakti lagakar cheekh uthe the kahan hain we log? we pranantak chikhen, wo artanad jo bam ke dhaDake se bhi adhik uncha uth raha tha—wah is samay kahan hai? khu wo is samay kahan hai? aur
kuch kho dene ka ehsas phir hua kobayashi wichlit hua usne karahte hue karwat badalkar uthne ki koshish ki, lekin usmen hilne ki bhi tab na thi usne phir apni gardan zamin par Dal di hawa mein kale kale zarre bhare hue the dhuon, garmi, jalan, pyas—uska halaq sukha ja raha tha bechaini baDh rahi thi wo uthna chahta tha uthkar wo apne charon taraf dekhana chahta tha kya? ye aspasht tha uske dimagh mein ek duniya chakkar kat rahi thi nagar, imaraten, janasmuh se bhari hui saDke, aati jati swariyan, motaren, gaDiyan, cyclen aur aur dimagh in sab mein khoya hua kuch DhoonDh raha tha; atka, magar fauran hi baDh gaya jiwan ke pachchis warsh jis watawarn se atmwat parichit aur ghanishth rahe the, wo uske dimagh ki screen par chalti phirti taswiron ki tarah numayan ho raha tha; lekin sab kuch aspasht, mita mita sa! kalpana mein we chitr baDi tezi ke sath jhalak dikhakar bikhar jate the isse kobayashi ka man aur bhi udwign ho utha
pyas baDh rahi thi halaq mein kante paD gaye the —aur usmen uthne ki bhi tab na thi ek boond pani ke liye zindagi deh ko chhoDkar chale jane ki dhamki de rahi thi, aur sharir phir bhi nahin uth pata tha kobayashi ko is waqt maut hi bhali lagi baDe dard ke sath usne ankhen band kar leen
magar maut na i
kobayashi soch raha tha mainne aisa kaun sa apradh kiya, jiski ye saza mujhe mil rahi hai? amiron aur afsaron ko chhoDkar kaun aisa adami tha, jo ye laDai chahta tha? duniya agar dushmani nikalti, to un logon se hamne unka kya bigaDa tha? hamein kyon mara gaya? pyas lag rahi hai pani na milega aisi buri maut mujhe kyon mil rahi hai? ishwar! mainne aisa kya apradh kiya tha?
karunasagar ishwar kobayashi ke dil mein umaDne laga ankhon se ganga jamuna bahne lagi sabse baDe munsif ke huzur mein lathi aur bhainswale nyay ke wiruddh wo ro rokar fariyad kar raha tha ansu halakan kiye de rahe the lambi lambi hichkiyan bandh rahi thi, jinse pasliyon ko, aur sare sharir ko, bar bar jhatke lag rahe the is tarah, rone se dam ghontne wala zahrila dhuan jaldi jaldi pet mein jata tha uska ji michlane laga uske paran atakne lage
—pranon ke bhay se ek lambi hichki ko rokte hue jo sans khinchi to kai pal tak wo use andar hi roke raha; phir subakiyon mein wo dhire dhire tuti ro bhi nahin sakta!—kobayashi ki ankhon mein phir pani bhar aaya kamzor hath uthakar usne bejan si ungliyon se apne ansu ponchhe
ankhon ke pani se ungliyon ke do por gile hue; utni jagah mein tarawat i kobayashi ki kanton paDi zaban aur halaq ko phir se tarawat ki talab hui pyas bagule si phir bhaDak uthi hathat usne apni ansuon se nam ungliyan zaban se chat leen do ungliyon ke beech mein bikhri hui ansuon ki ek boond uski zaban ka zayqa badal gai aur use pachhtawa hone laga—itni der roya, magar bekar hi gaya uski phir se rone ki tabiat hone lagi, magar ansu ab na nikalte the kobayashi ke donon hathon mein taqat aa gai nam ankhon se lekar gile galon ke pichhe kanpatiyon tak ansu ki ek boond jutakar apni pyas bujhane ke liye wo ungliyan dauDane laga ansu khushk ho chale the; aur kobayashi ki pyas dam toD rahi thi
chakkar aane lage ghaflat phir baDhne lagi barabar sunn paDte jane ki chetna apni haar par buri tarah se chiDh uthi aur uski chiDh widroh mein badal gai ghussa shakti bankar uske sharir mein damakne laga—qabu se bahar hone laga mathe ki nasen taDakne lagin wo ekdam apne qabu se bahar ho gaya donon hath tekkar usne baDe zom ke sath uthne ki koshish ki wo kuch utha bhi kamzori ki wajah se mathe mein phir murchha aane lagi usne sambhala—man bhi, tan bhi donon hath mazbuti se zamin par teke raha hanphate hue, munh se ek lambi sans lee; aur apni bhujaon ke bal par ghisatkar wo kuch aur utha peeth lagi to ghumkar dekha—pichhe diwar thi usne zindagi ki ek aur nishani dekhi kobayashi ka hausla baDha maut ko pahli shikast dekar purusharth ne garw ka bodh kiya; parantu piDa aur jaDta ka zor abhi bhi kuch kam na tha phir bhi use shanti mili diwar ki taraf dekhte hi dhyan badla sir uthakar unche dekha, diwar toot gari thi use ashcharymay prasannata hui diwar se tuta hua malba dusri taraf gira tha bhagwan ne uski kaisi rakhsha ki jiwan ke prati phir se astha utpann hone lagi tuti hui diwar ki unchai ke sath sath uska dhyan aur uncha gaya use dhyan aaya ki ye to aspatal ki diwar hai abhi abhi wo apni patni ko bharti kara ke bahar nikla tha sabere se use dard uth rahe the, nai zindagi aane ko thi patni, jise bachcha hone wala tha doctor, nurse, marizon ke palang doctor ne usse kaha tha—bahar jakar intizar karo wo phir bahar aakar aspatal ke niche hi kankDon ki kachchi saDak par cigarette pite hue tahalne laga tha aaj usne kaam se bhi chhutti le rakhi thi wo bahut khush tha —jab achanak asman par kanon ke parde phaDne wala dhamaka hua tha andha bana dene wali teen parkash ki kirnen kahin se phutkar charon taraf bikhar garin palak marte hi kale dhuen ki moti chadar badalon se ghire hue asman par tezi se bichhti chali gai kale dhuen ki barsat hone lagi chamakte hue widyutkan sare watawarn mein phail gaye the sara sharir jhulas gaya; dam ghutne laga tha saikDon chikhen ek sath sunai di thi is aspatal se bhi gai hongi diwar usi taraf giri hai aur un chikhon mein uski patni ki cheekh bhi zarur shamil rahi hogi kobayashi ka dil taDap utha use apni patni ko dekhne ki teewr utkantha hui
hosh mein aane ke baad pahli bar kobayashi ko apni patni ka dhyan aaya tha bahut der se jiski smriti khoi hui thi, use pakar kobayashi ko ek pal ke liye rahat hui isse uski utkantha ka weg aur bhi teewr ho gaya
sal bhar pahle usne wiwah kiya tha ek warsh ka ye sukh uske jiwan ki amuly nidhi ban gaya tha duःkh, yatana aur sangharsh ke pichhle chaubis warshon ke marusthal se jiwan mein aaj ki ye mahayantrna juDkar sukh shanti ke ek warsh ko pani ki ek boond ki tarah sokh gai thi
bachpan mein hi uske man bap mar gaye the ek chhota bhai tha, jiske bharn poshan ke liye kobayashi ko das baras ki umr mein hi buzurgon ki tarah mard banna paDa tha din aur raat ji toDkar mehnat majuri ki, use shahzade ki tarah pal poskar baDa kiya teen baras hue wo fauj mein bharti hokar cheen ki laDai par chala gaya aur phir kabhi na lauta
apne bhai ko khokar kobayashi zindagi se ub gaya tha jiwan se laDne ke liye use kahin se prerna nahin milti thi wo nirash ho chuka tha bewa makan malkin ki laDki uske jiwan mein naya ras le i unka wiwah hua aur uske ghar mein ek nai zindagi aane wali thi aaj sabere se hi wo baDe josh mein tha uske sare josh aur ullas par ye gaj giri! zahrile dhuen ki tapish ne uske antar tak ko bhoon diya tha wedna asahy ho gai thi—aur chetna lupt ho gai
apni patni se milne ke liye kobayashi sab khokar taDap raha tha wo jaise bach gaya waise hi bhagwan ne shayad use bhi bacha liya ho; lekin diwar to udhar giri hai —nahin!
—kobayashi cheekh utha hosh mein aane ke baad pahli bar uska kanth phuta tha sare sharir mein uttejna ki ek lahr dauD gai swar ki tezi se uske sukhe hue nishpran kanth mein kharash paida hui pyas phir hosh mein aari kobayashi ke liye baitha rahna asahy ho gaya andaruni zom ka daura kamzor sharir ko jhijhoDkar uthane laga diwar ka sahara lekar wo apne pagal josh ke sath tezi se utha wo dauDna chahta tha dimagh mein dauDne ki tezi liye hue, kamzor aur Dagmagate hue pairon se wo dhire dhire aspatal ke phatak ki taraf baDha
phatak tutkar gir chuka tha andar malba mitti zamin ki satah se laga hua paDa tha kuch nahin—wiran! jaise yahan kabhi kuch bana hi na tha sab mitti aur khanDhar! door door tak wiran—khali! khali! khali! uski patni nahin hai uski duniya nahin hai wo duniya, jo usne pachchis barson tak dekhi, samjhi aur barti thi, aaj use kahin bhi nahin dikhai paDti sapne ki tarah wo kafur ho chuki hai
milon tak phaili hui wirani ko dekhkar wo apne ko bhool gaya, apni patni ko bhool gaya is mahanash ke wirat shunya ko dekhkar uska apnapan usi mein wilin ho gaya uski shakti us mahashuny mein lai ho gari jiwan ke wiprit ye anastha use chiDhane lagi tuti diwar ka sahara chhoDkar wo betahasha dauD paDa wo zor zor se cheekh raha tha—mujhe kyon mara? mujhe kyon mara?—milon tak ujDe hue hiroshima nagar ke is khanDhar mein lakhon nirdosh praniyon ki aatma bankar pagal kobayashi cheekh raha tha— mujhe kyon mara? mujhe kyon mara?
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kainp aspatal mein hazaron zakhmi aur pagal laye ja rahe the Dauktron ko fursat nahin, narson ko aram nahin; lekin ilaj kuch bhi nahin ho raha tha kya ilaj kare? charon or cheekh chillahat, dard aur yantrana ka hangama! gora—dushman! khuda—dushman! badashah—dushman!—pagalpan ke us shor mein har taraf apne liye dard ka, apne pariwar aur bachchon ke liye sawal tha, jiski ye saza unhen mili hai! aur dushmanon ke liye nafar thi, jinhonne bina kisi apradh ke unki jaan li
aspatal ke baramde mein ek mariz dahan phaDkar chilla utha—mujhe kyon mara? mujhe kyon mara?
aspatal ke incharge doctor suzuki in tamam awazon ke beech mein khoe hue khaDe the wo haar chuke the kal se unhen neend nahin, aram nahin, bhookh pyas nahin ye pagalon ka shor, dard, cheekh, karah! unka dil, dimagh aur jism thak chuka tha abhi thoDi der pahle unhen khabar mili thi, nagasaki par bhi bam giraya gaya we isse chiDh uthe the—kyon nahin badashah aur wazir haar man lete? kya apni jhuthi aan ke liye wo japan ko tabah kar denge? unhen dushmanon par bhi ghussa aa raha tha inhen kyon mara gaya? ye kisi ke dushman nahin the inhen apne liye samrajy ki chah nahin thi agar inka apradh hai, to kewal yahi ki ye apne badashah ke majburan banaye hue ghulam hain wekti ki satta ke shikar hain sanskaron ke ghulam hain dushman inhen markar khush hai japan ki nirdosh aur mook janta ne dushmanon ka kya bigaDa tha, jo un par atom bam barsaye gaye? wigyan ki nari khoj ki shakti azmane ke liye unhen lakhon be zaban begunahon ki jaan lene ka kya adhikar tha? kya ye dharm yudh hai?—sadadarsho ke liye laDai ho rahi hai? atom ka winashakari prayog wishw ko swatantr karne ki yojna nahin, use ghulam banane ki zid hai aisi zid, jo insan ko tabah karke hi chhoDegi aur insaniyat ke dushman kahte hain ki atom ka awishkar manaw buddhi ki sabse baDi saphalta hai! hiः pagal kahin ke!
nurse i usne kaha doctor! centre se khabar i hai, aur nae mariz bheje ja rahe hain
doctor suzuki ke thake chehre par sanak bhari sukhi hansi dikhai di unhonne jawab diya in nae murda marizon ke liye nai zindagi kahan se launga, nurse? winash lolup swarthi manushya shakti ka prayog bhi jiwan nasht karne ke liye hi kar raha hai phir nirman ka dusra zariya hi kya raha? phenk do un zinda lashon ko, hiroshima ki wiran dharti par!—ya unhen zahr de do! aspatal aur Dauktron ka ab duniya mein koi kaam nahin raha
nurse ke pas in fizul ki baton ke liye samay nahin tha —nae mariz aa rahe hain saikDon aspatal mein paDe hain wo doctor par jhunjhla uthi
yah waqt in baton ka nahin hai doctor! hamein zindagi ko bachana hai ye hamara pesha hai, farz hai atom ki shakti se harkar kya hum insan aur insaniyat ko chupchap marte hue dekhte rahenge? chaliye, aiye, marizon ko injection lagana hai, aage ka kaam karna hai
nurse doctor suzuki ka hath pakaDkar tezi se aage baDh gai
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।