चीनी के खिलौने, पैसे में दो; खेल लो, खिला लो, टूट जाए तो खा लो—पैसे में दो।
सुरीली आवाज़ में यह कहता हुआ खिलौनेवाला एक छोटी-सी घंटी बजा रहा था।
उसको आवाज़ सुनते ही त्रिवेणी बोल, उठी—माँ, पैसा दो, खिलौना लूँगी।
आज पैसा नहीं है, बेटी।
एक पैसा माँ, हाथ जोड़ती हूँ।
नहीं है त्रिवेणी, दूसरे दिन ले लेना।
त्रिवेणी के मुख पर संतोष की झलक दिखलाई दी।
उसने खिड़की से पुकारकर कहा— ऐ खिलौनेवाले, आज पैसा नहीं है; कल आना।
चुप रह, ऐसी बात भी कहीं कही जाती है? उसकी माँ ने भुनभुनाते हुए कहा।
तीन वर्ष की त्रिवेणी की समझ में न आया। किंतु उसकी माँ अपने जीवन के अभाव का पर्दा दुनिया के सामने खोलने से हिचकती थी। कारण, ऐसा सूखा विषय केवल लोगों के हँसने के लिए ही होता है।
और सचमुच-वह खिलौनेवाला मुस्कुराता हुआ, अपनी घंटी बजाकर, चला गया।
संध्या हो चली थी।
लज्जावती रसोईघर में भोजन बना रही थी। दफ्तर से उसके पति के लौटने का समय था। आज घर में कोई तरकारी न थी, पैसे भी न थे। विजयकृष्ण को सूखा भोजन ही मिलेगा! लज्जा रोटी बना रही थी और त्रिवेणी अपने बाबूजी की प्रतीक्षा कर रही थी।
माँ, बड़ी तेज़ भूख लगी है। कातर वाणी में त्रिवेणी ने कहा।
बाबूजी को आने दो, उन्हीं के साथ भोजन करना, अब आते ही होंगे।– लज्जा ने समझाते हुए कहा। कारण, एक ही थाली में त्रिवेणी और विजयकृष्ण साथ बैठकर नित्य भोजन करते थे और उन दोनों के भोजन कर लेने पर उसी थाली में लज्जावती टुकड़ों पर जीनेवाले अपने पेट की ज्वाला को शांत करती थी जूठन ही उसका सोहाग था।
लज्जावती ने दीपक जलाया। त्रिवेणी ने आँख बन्द कर दीपक को नमस्कार किया; क्योंकि उसकी माता ने प्रतिदिन उसे ऐसा करना सिखाया था।
द्वार पर खटका हुआ। विजय दिन-भर का थका लौटा था। त्रिवेणी ने उछलते हुए कहा—माँ, बाबूजी आ गये।
विजय कमरे के कोने में अपना पुराना छाता रखकर खूँटी पर कुरता और टोपी टाँग रहा था।
लज्जा ने पूछा—महीने का वेतन आज मिला न?
नहीं मिला, कल बँटेगा। साहब ने बिल पास कर दिया है।—हताश स्वर में विजयकृष्ण ने कहा।
लज्जावती चिंतित भाव से थाली परोसने लगी। भोजन करते समय, सूखी रोटी और दाल की कटोरी की ओर देखकर विजय न जाने क्या सोच रहा था। सोचने दो; क्योंकि चिन्ता ही दरिद्रों का जीवन है और आशा ही उनका प्राण।
किसी तरह दिन कट रहे थे। रात्रि का समय था। त्रिवेणी सो गई थी, लज्जा बैठी थी।
देखता हूँ, इस नौकरी का भी कोई ठिकाना नहीं है।—गंभीर आकृति बनाते हुए विजयकृष्ण ने कहा।
क्यों! क्या कोई नई बात है?—लज्जावती ने अपनी झुकी हुई आँखें ऊपर उठाकर, एक बार विजय की ओर देखते हुए, पूछा।
बड़ा साहब मुझसे अप्रसन्न रहता है। मेरे प्रति उसकी आँखें सदैव चढ़ी रहती हैं।
किसलिए?
हो सकता है, मेरी निरीहता हो इसका कारण हो।
लज्जा चुप थी।
पंद्रह रुपए मासिक पर दिन-भर परिश्रम करना पड़ता है। इतने पर भी।
ओह, बड़ा भयानक समय आ गया है!—लज्जावती ने दुःख की एक लंबी साँस खींचते हुए कहा।
मकानवाले का दो मास का किराया बाकी है, इस बार वह नहीं मानेगा।
इस बार न मिलने से वह बड़ी आफत मचाएगा।—लज्जा ने भयभीत होकर कहा।
क्या करूँ? जान देकर भी इस जीवन से छुटकारा होता।
ऐसा सोचना व्यर्थ है। घबड़ाने से क्या लाभ? कभी दिन फिरंगे ही।
कल रविवार है, छुट्टी का दिन है, एक जगह दुकान पर चिट्ठी-पत्री लिखने का काम है। पाँच रुपए महीना देने को कहता था। घंटे-दो-घंटे उसका काम करना पड़ेगा। मैं आठ माँगता था। अब सोचता हैं, कल उससे मिलकर स्वीकार कर लूँ। दफ़्तर से लौटने पर उसके यहाँ जाया करूँगा,—कहते हुए विजयकृष्ण के हृदय में उत्साह की एक हल्की रेखा दौड़ पड़ी।
जैसा ठीक समझो।– कहकर लज्जा विचार में पड़ गई। वह जानती थी कि विजय का स्वास्थ्य परिश्रम करने से दिन-दिन खराब होता जा रहा है। मगर रोटी का प्रश्न था।
दिन, सप्ताह और महीने उलझते चले गए।
विजय प्रतिदिन दफ़्तर जाता। वह किसी से बहुत कम बोलता। उसकी इस नीरसता पर प्रायः दफ़्तर के अन्य कर्मचारी उससे व्यंग करते।
उसका पीला चेहरा और धँसी हुई आँखें लोगों को विनोद करने के लिए उन्साहित करती थीं। लेकिन वह चुपचाप ऐसी बातों को अनसुनी कर जाता, कभी उत्तर न देता। इसपर भी सब उससे असंतुष्ट रहते थे।
विजय के जीवन में आज एक अनहोनी घटना हुई। वह कुछ समझ न सका। मार्ग में उसके पैर आगे न बढ़ते। उसको आँखों के सामने चिनगारियाँ झलमलाने लगीं। मुझसे क्या अपराध हुआ?—कई बार उसने मन ही में प्रश्न किए।
घर से दफ़्तर जाते समय बिल्ली ने रास्ता काटा था। आगे चलकर खाली घड़ा दिखाई पड़ा था। इसीलिए तो सब अपशकुनों ने मिलकर आज उसके भाग्य का फैसला कर दिया था!
साहब बड़ा अत्याचारी है। क्या गरीबों का पेट काटने के लिए ही पूँजीपतियों का आविष्कार हुआ है? नाश हो इनका—वह कौन-सा दिन होगा जब रुपयों का अस्तित्व संसार से मिट जाएगा? भूखा मनुष्य दूसरे के सामने हाथ न फैला सकेगा?—सोचते हुए विजय का माथा घूमने लगा। वह मार्ग में गिरते-गिरते संभल गया।
सहसा उसने आँखें उठाकर देखा, वह अपने घर के सामने आ गया था; बड़ी कठिनाई से वह घर में घुसा। कमरे में आकर धम्म से बैठ गया।
लज्जावती ने घबराकर पूछा—तबीयत कैसी है?
जो कहा था वही हुआ।
क्या हुआ?
नौकरी छूट गई। साहब ने जवाब दे दिया।—कहते-कहते उसकी आँखें छलछला गईं।
विजय की दशा पर लज्जा को रुलाई आ गई। उसकी आँखें बरस पड़ीं। उन दोनों को रोते देखकर त्रिवेणी भी सिसकने लगी।
संध्या की मलिन छाया में तीनों बैठकर रोते थे।
इसके बाद शांत होकर विजय ने अपनी आँखें पोंछीं; लज्जावती ने अपनी और त्रिवेणी की।
क्योंकि संसार में एक और बड़ी शक्ति है, जो इन सब शासन करनेवाली चीजों से कहीं ऊँची है—जिसके भरोसे बैठा हुआ मनुष्य आँख फाड़कर अपने भाग्य की रेखा को देखा करता है।
chini ke khilaune, paise mein do; khel lo, khila lo, toot jaye to kha lo—paise mein do
surili awaj mein ye kahta hua khilaunewala ek chhoti si ghanti baja raha tha
usko awaj sunte hi triweni bol, uthi—man, paisa do, khilauna lungi
aj paisa nahin hai, beti
ek paisa man, hath joDti hoon
nahin hai triweni, dusre din le lena
triweni ke mukh par santosh ki jhalak dikhlai di
usne khiDki se pukarkar kaha ai khilaunewale, aaj paisa nahin hai; kal aana
chup rah, aisi baat bhi kahin kahi jati hai ? uski man ne bhunabhunate hue kaha
teen warsh ki triweni ki samajh mein na aaya kintu uski man apne jiwan ke abhaw ka parda duniya ke samne kholne se hichakti thi karan, aisa sukha wishay kewal logon ke hansne ke liye hi hota hai
aur sachmuch wo khilaunewala muskurata hua, apni ghanti bajakar, chala gaya
sandhya ho chali thi
lajjawati rasoighar mein bhojan bana rahi thi daphtar se uske pati ke lautne ka samay tha aaj ghar mein koi tarkari na thi, paise bhi na the wijaykrishn ko sukha bhojan hi milega! lajja roti bana rahi thi aur triweni apne babuji ki pratiksha kar rahi thi
man, baDi tej bhookh lagi hai katar wani mein triweni ne kaha
babuji ko aane do, unhin ke sath bhojan karna, ab aate hi honge lajja ne samjhate hue kaha karan, ek hi thali mein triweni aur wijaykrishn sath baithkar nity bhojan karte the aur un donon ke bhojan kar lene par usi thali mein lajjawati tukDon par jinewale apne pet ki jwala ko shant karti thi juthan hi uska sohag tha!
lajjawati ne dipak jalaya triweni ne ankh band kar dipak ko namaskar kiya; kyonki uski mata ne pratidin use aisa karna sikhaya tha
dwar par khatka hua wijay din bhar ka thaka lauta tha triweni ne uchhalte hue kaha—man, babuji aa gaye
wijay kamre ke kone mein apna purana chhata rakhkar khunti par kurta aur topi tang raha tha
lajja ne puchha—mahine ka wetan aaj mila n?
nahin mila, kal bantega sahab ne bil pas kar diya hai —hatash swar mein wijaykrishn ne kaha
lajjawati chintit bhaw se thali parosne lagi bhojan karte samay, sukhi roti aur dal ki katori ki or dekhkar wijay na jane kya soch raha tha sochne do; kyonki chinta hi daridron ka jiwan hai aur aasha hi unka paran
kisi tarah din kat rahe the ratri ka samay tha triweni so gai thi, lajja baithi thi
dekhta hoon, is naukari ka bhi koi thikana nahin hai —gambhir akriti banate hue wijaykrishn ne kaha
kyon ! kya koi nai baat hai ?—lajjawati ne apni jhuki hui ankhen upar uthakar, ek bar wijay ki or dekhte hue, puchha
baDa sahab mujhse aprasann rahta hai mere prati uski ankhen sadaiw chaDhi rahti hain
kisaliye?
ho sakta hai, meri nirihata ho iska karan ho
lajja chup thi
pandrah rupye masik par din bhar parishram karna paDta hai itne par bhi
oh, baDa bhayanak samay aa gaya hai!—lajjawati ne duःkh ki ek lambi sans khinchte hue kaha
makanwale ka do mas ka kiraya baki hai, is bar wo nahin manega
is bar na milne se wo baDi aphat machayega —lajja ne bhaybhit hokar kaha
kya karun ? jaan dekar bhi is jiwan se chhutkara hota
aisa sochna byarth hai ghabDane se kya labh? kabhi din phirange hi
kal rawiwar hai, chhutti ka din hai, ek jagah dukan par chitthi patri likhne ka kaam hai panch rupye mahina dene ko kahta tha ghante do ghante uska kaam karna paDega main aath mangta
tha ab sochta hain, kal usse milkar swikar kar loon daphtar se lautne par uske yahan jaya karunga,—kahte hue wijaykrishn ke hirdai mein utsah ki ek halki rekha dauD paDi
jaisa theek samjho kahkar lajja wichar mein paD gai wo janti thi ki wijay ka swasthy parishram karne se din din kharab hota ja raha hai magar roti ka parashn tha!
din, saptah aur mahine ulajhte chale gaye
wijay pratidin daphtar jata wo kisi se bahut kam bolta uski is nirasta par prayः daphtar ke any karmachari usse wyang karte
uska pila chehra aur dhansi hui ankhen logon ko winod karne ke liye unsahit karti theen lekin wo chupchap aisi baton ko anasuni kar jata, kabhi uttar na deta ispar bhi sab usse asantusht rahte the
wijay ke jiwan mein aaj ek anhoni ghatna hui wo kuch samajh na saka marg mein uske pair aage na baDhte usko ankhon ke samne chingariyan jhalamlane lagin mujhse kya apradh hua?—kai bar usne man hi mein parashn kiye
ghar se daphtar jate samay billi ne rasta kata tha aage chalkar khali ghaDa dikhai paDa tha isiliye to sab apashakunon ne milkar aaj uske bhagya ka phaisla kar diya tha!
sahab baDa atyachari hai kya garibon ka pet katne ke liye hi punjiptiyon ka awishkar hua hai? nash ho inka—wah kaun sa din hoga jab rupyon ka astitw sansar se mit jayega? bhukha manushya dusre ke samne hath na phaila sakega?—sochte hue wijay ka matha ghumne laga wo marg mein girte girte samhal gaya
sahsa usne ankhen uthakar dekha, wo apne ghar ke samne aa gaya tha; baDi kathinai se wo ghar mein ghusa kamre mein aakar dhamm se baith gaya
lajjawati ne ghabrakar puchha—tabiyat kaisi hai?
jo kaha tha wahi hua
kya hua?
naukari chhoot gai sahab ne jawab de diya —kahte kahte uski ankhen chhalachhla gain
wijay ki dasha par lajja ko rulai aa gai uski ankhen baras paDin un donon ko rote dekhkar triweni bhi sisakne lagi
sandhya ki malin chhaya mein tinon baithkar rote the
iske baad shant hokar wijay ne apni ankhen ponchhin; lajjawati ne apni aur triweni ki
kyonki sansar mein ek aur baDi shakti hai, jo in sab shasan karnewali chijon se kahin unchi hai—jiske bharose baitha hua manushya ankh phaDkar apne bhagya ki rekha ko dekha karta hai
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।