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रमणी का रहस्य

ramni ka rahasy

राय कृष्णदास

राय कृष्णदास

रमणी का रहस्य

राय कृष्णदास

और अधिकराय कृष्णदास

    लड़कपन में वणिक्-पुत्र सुना करता कि सात समुद्र, नव द्वीप के पार एक स्फटिकमय भूमि है। वहाँ एक तपस्वी क्या जाने कब से अविराम तप कर रहा है और उसकी पवित्रता के कारण सूर्यनारायण निरंतर उसकी परिक्रमा किया करते हैं और उसके तेज़ से वहाँ कभी अंधकार नहीं होता।

    उस यती के एक कन्या है—वही इस संसार में उसकी एकमात्र कुटुंबी है। वह कन्या प्रभात बेला के जैसी टटकी और कमनीय है तथा स्वाती की बूँद की तरह निर्मल, शीतल और दुर्लभ है।

    उन दिनों वह सोचता कि मैं ऐसी अच्छी सखी पाऊँ, तो दिन-का-दिन उसके संग खेलता-कूदता रहूँ, ऊधम मचाता रहूँ। अपने प्रत्येक खेल-कूद में वह उसका स्थान नियत कर लेता और कल्पना से उसकी पूर्ति कर लेता।

    किंतु, धीरे-धीरे कल्पनापूर्ण लड़कपन यथार्थता खोजने वाली युवावस्था में परिवर्तित हो गया और वणिक्-पुत्र के लिए जो बातें सच थी, अब लड़कपन का खिलवाड़ हो गईं। और उसे उस कुमारी को वस्तुतः प्राप्त करके अपनी जीवन-सहचरी बनाकर युवावस्था का अधूरापन दूर करने की चिंता दिन-रात सताने लगी।

    धीरे-धीरे अनेक नगरों से उसके ब्याह की बातचीत आने लगी; किंतु ब्याह का नाम सुनते ही उसका मुँह लटक जाता। उसकी यह दशा देख उसके पिता ने एक दिन पूछा—हे वत्स! क्या कारण है कि विवाह का नाम सुनकर तुम अवसन्न हो जाते हो?

    तब उस वणिक् पुत्र ने अपना तात्पर्य छिपाकर नम्रतापूर्वक पिता से कहा—तात! वैश्यकुल में मेरा जन्म हुआ है; अतः वाणिज्य मेरा धर्म है। सो मेरी इच्छा है कि अपने बाहुबल में कुछ अर्जन कर लूँ, तब गृहस्थाश्रम में प्रवेश करूँ; क्योंकि स्वार्जित वित्त के व्यय और उपभोग से मेरा आनंद, उत्साह और हृदय द्विगुण हो उठेगा।

    ‘पुत्र! तुमने बहुत उचित सोचा है और यद्यपि मेरा हृदय तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता और तुम्हारे वियोग से तुम्हारी माता की वृद्धावस्था भार-रूप हो जाएगी, तो भी तुमने स्वधर्म की बात विचारी है, अतः मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा। कल ही मैं तुम्हारे लिए सात पोत लदवाए देता हूँ, तुम उन्हें लेकर अपने परिकर समेत देश-देशांतर भ्रमण कर के यथेष्ट व्यापार और उपार्जन करो।’

    आज्ञा पाकर उसके आनंद का पारावार रहा और रात-दिन परिश्रम कर के सात दिन में वह अपनी यात्रा के लिए पूर्णतः तैयार हो गया।

    आठवें दिन प्रातःकाल वह अपने माता-पिता से विदा हुआ। उस समय उनकी आँखों में आँसू भर जाने से उनकी दृष्टि धुंधली पड़ रही थी, अतः वे अपनी संतान को ठीक-ठीक देख भी सके। यद्यपि वणिक्-पुत्र को उनका वियोग सहज था, तो भी नए देशों के देखने का उत्साह और अपनी कल्पना की प्रेयसी के मिलने की प्रत्याशा से उसका हृदय आनंद से फड़क रहा था।

    शीघ्र ही वह अपने जहाज़ पर बैठा और उसका, सातों जहाज़ों का बेड़ा, अनुकूल पवन पाता हुआ द्वीप-पर-द्वीप तय करता गया।

    प्रत्येक द्वीप में व्यापार करते-करते उसने स्वर्ण की बड़ी भारी राशि बटोर ली थी और यों तीन वर्ष बीतने पर जब वह स्कंध नाम देश में पहुँचा, जहाँ के लोग भालू और सामुद्रिक सिंह की खाल पहनते हैं, तो उसने बड़ा उत्सव मनाया, क्योंकि उसे अनेक देश देखने का तथा अर्थ के लाभ का आनंद तो दिखाने-मात्र को था; उसको प्रसन्नता तो इस बात की थी कि वह अपने लक्ष्य-स्थान के पास पहुँच गया था, क्योंकि यहाँ से वह स्फटिक द्वीप केवल एक मास की दूरी पर था।

    तब वणिक्-पुत्र ने अपने छ: जलयानों को और समस्त साथियों को वहीं छोड़ा और अकेला एक पोत पर अपने अभीष्ट स्थान की ओर चल पड़ा। उसके साथी तो उसे रोकने में ही कृतकार्य हुए, उसका यह उद्देश्य जानने में ही।

    दो दिन में उसका जहाज़ उस समुद्र में पहुँच गया, जो ठीक शरद् के आकाश की नाईं है, क्योंकि वह वैसा ही प्रशस्त है, वैसा ही निर्मल है और वैसा ही नील है, साथ ही जैसे इसमें शुभ्र घन घूमा करते हैं, वैसे ही उसमें बड़े-बड़े बर्फ़ के पहाड़ तैर रहे थे। उन्हें देखकर माँझियों के छक्के छूट गए, किंतु वणिक्-पुत्र में ऐसी दृढ़ता गई थी कि उसने उन लोगों को पूरा धीरज बँधा दिया और स्वयं जहाज़ का मार्ग निर्दिष्ट करने लगा। सचमुच ही उसके निश्चय को उन विशालकाय हिम-पर्वतों ने मार्ग देना आरंभ किया और अपनी यात्रा के महीनवें दिन वह जहाज़ स्फटिक द्वीप के किनारे जा लगा।

    अब वणिक्-पुत्र ने उन माँझियों से भी पिंड छुड़ाया और अकेला उस द्वीप पर एक ओर चल पड़ा! वास्तव में वह द्वीप भी बर्फ़ का ही था, और वह कुछ दूर भी नहीं गया होगा कि मारे शीत के उसके पैर निष्प्राण-से हो उठे, किंतु उसका साहस उसे घसीट ले चला और उसे एक झुंड ऐसे पक्षियों का आता दिखलाई पड़ा, जो क़रीब-क़रीब मनुष्य ही के जितने ऊँचे थे और झूमते हुए मोटे मनुष्य की तरह चल भी रहे थे! उनके संपूर्ण शरीर रोएँदार पर से ढँके हुए थे और अपनी भाषा में कुछ कहते हुए वे उसी की ओर बढ़े रहे थे।

    वणिक्-पुत्र उनका कोलाहल तो समझ सका, किंतु इतना जान गया कि वे उसकी सहायता के लिए रहे हैं, अतएव वह वहीं ठहर गया। कुछ क्षणों में वे उसके निकट गए और उसे चारों ओर से इस तरह घेर लिया कि उनकी गर्मी से शीघ्र ही वह स्वस्थ हो गया। फिर तो पक्षियों का वह झुंड, उसके साथ हो लिया और उसे बड़े सुख से मार्ग दिखाता हुआ उस तापस के आश्रम की ओर ले चला!

    वह झुंड उसे गर्मी पहुँचाता था—जब बर्फ़ पड़ने लगती थी, तब अपने डैनों की आड़ में ले लेता था और रात्रि में अपने डैनों का ओढ़ना-बिछौना बनाकर उसे सुख की नींद सुलाता था, इतना ही नहीं, अपने में साहुत करके प्रति सातवें दिन उनमें से एक अपना प्राण दे देता था, जिससे एक सप्ताह तक वणिक्-पुत्र का उदर-पोषण होता था।

    इस प्रकार इक्कीसवें दिन उसे तापस का आश्रम दिखलाई दिया। ज्यों-ज्यों वह उसके निकट पहुँचने लगा, त्यों-त्यों उसकी विचित्र दशा होती गई—उसके मन, प्राण और शरीर में एक ऐसा ज़बरदस्त तूफ़ान उठ खड़ा हुआ कि उसमें उसका आपा सर्वथा विलीन हुआ जा रहा था। यह अवस्था यहाँ तक बढ़ी कि उस आश्रम में पहुँचते ही ज्यों उस मुनि-कन्या पर उसकी दृष्टि पड़ी, वह पत्थर का हो उठा और मुनि-कन्या, जो ललककर उसके स्वागतार्थ बढ़ी थी, यह दशा देखकर एक चीख़ मार के बेहोश हो गई।

    उसका आरव सुनकर तपस्वी अपने एकांत से उठ आया। उसने अपने तपोबल से वैश्य-कुमार को पुनरुज्जीवित किया, फिर परिचर्या द्वारा अपनी कन्या की मूर्च्छा भी दूर की। वैश्य-कुमार उस समय एक अद्भुत आनंद के समुद्र में डूब-उतरा रहा था; क्योंकि उसने मुनि-कन्या की अपने में जो कल्पना की थी, वह इसके सामने कोई चीज़ ही थी। यह तो आशा के समान लावण्यवती थी और जब उसने पहले-पहल प्रश्न किया—तुम्हें क्या हो गया था?—तब उसे ऐसा जान पड़ा कि वीणा का स्वर—इस कंठ की छूँछी विडंबना मात्र है।

    कुछ ही क्षणों में तापस अपने एकांत में चला गया और वे दोनों ऐसे घुल-मिल गए, मानो जन्म-जन्म के संगी हों, एवं विविध वार्तालाप करने लगे। इस प्रकार जब तीन प्रहर बीत गए, तब वह मुनि पुनः वहाँ आया और वणिक्-पुत्र से कहने लगा—

    वत्स, मैंने जान लिया कि इस कुमारी का जन्म तुम्हारे लिए ही हुआ है, सो इसे ग्रहण करो, मैं इसे तुमको दूँगा। यद्यपि देवता तक इसकी आकांक्षा कर रहे हैं। किंतु मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया है कि यह मर्त्यबाला है और मर्त्य से ही इसका संबंध शोभन होगा। परंतु, मेरी प्रतिज्ञा थी कि जो मर्त्य यहाँ तक पहुँच सकेगा, वही इसका अधिकारी होगा, सो आज तुम गए! अब शुभ-लग्न में मैं इसे तुमको दे दूँगा। चौबीस प्रहर तुम हमारा आतिथ्य स्वीकार करो, उसके बाद वह मुहूर्त्त आवेगा।

    इतना कहकर वह तो चला गया और मुनि-कन्या, जो सिर नीचा किए हुए थी, उसी मुद्रा से उससे बोली—मेरी भी एक प्रतिज्ञा है, उसे तुम समझ लो, क्योंकि बिना उसके पूरा हुए तुम मुझे पा सकोगे।

    वणिक्-पुत्र कहने लगा—चारुहासिनी! वह कौन ऐसी बात है, जो मैं तुम्हारे लिए कर सकूँगा! तुम उसके कहने में संकोच करो, बस शीघ्र ही मुझे अपनी प्रतिज्ञा सुनाओ, क्योंकि मैं अधीर हो रहा हूँ।

    तब वणिक्-पुत्र को अपनी चितवन की इन्दीवर माला पहनाते हुए उसने दृढ़ता से कहा—जो यहाँ बसने की प्रतिज्ञा करेगा, वही मुझे पा सकेगा, अन्यथा मैं विवाह करूँगी; क्योंकि पिता को अकेला छोड़कर मैं नहीं जी सकती, कौन उनकी देख-रेख करेगा। पिता से अनुनय करके उन्हें उनके निश्चय से विरत करूँगी और आजन्म कुमारी रहने की अनुज्ञा प्राप्त करूँगी।

    वैश्य-पुत्र ने समझा था कि कुमारी कोई बड़ी समस्या उपस्थित करेगी, किंतु उसकी बात सुनकर उसे अत्यंत आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसे तो अपने देश की कोई सुध ही रह गई थी—वह तो कुमारीमय हो रहा था।

    अविलंब ही वह बोला—यह कौन बड़ी बात है—रम्य प्रेमा जन्म-भूः। भला इससे बढ़कर कौन देश होगा, जहाँ सूर्य कभी अस्त ही नहीं होता और तुम्हारा पूर्ण चंद्रानन नित्य उदित रहता है।

    यह सुनकर कुमारी ने अपनी मुस्कान का जादू उस पर फेर दिया।

    बात करते चौबीस पहर बीत गए, क्योंकि यहाँ कभी सूर्यास्त होने के कारण समय की गणना पहरों से ही होती थी और वह शुभ घड़ी पहुँची, जिसकी अभिलाषा वणिक्-पुत्र को जन्म से ही थी। योगी को मुक्ति से जो आनंद होता है, उसका उसे अनुभव-सा हो उठा और विवाह-कृत्य पूर्ण करके यती जब अपनी साधना में प्रवृत्त हुआ, तब दंपति हाथ-में-हाथ दिए हुए बर्फ़ के मैदान में टहलने के लिए निकल पड़े। उस समय वैश्य-पुत्र को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह अपनी शची को लिए हुए नंदन कामन-बिहारी इंद्र है। प्रेमालाप करते हुए दोनों आगे बढ़े। वणिक्-पुत्र का मुँह दिव्य तेज़ से दमक रहा था, उसने कहा—सखि! मैं यहीं बर्फ़ काटकर तुम्हारे लिए एक ऐसी गुफ़ा बनाऊँगा कि तुम्हें उसमें शीत का लेश-मात्र कष्ट होगा।

    किंतु नवपरिणीता ने इसका कोई उत्तर दिया। वह क्षितिज को एकटक देख रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसकी दृष्टि उस पटल को बेधकर उसके पार के दृश्य देखने में निमग्न है।

    कौतूहल से उसकी यह तन्मयता भंग करते हुए वैश्य-पुत्र ने पूछा—किस ध्यान में हो?

    ‘कुछ नहीं, सोच रही थी कि तुम्हारा देश कैसा होगा!’

    क्यों?—पति ने उत्सुकता से पूछा।

    इसीलिए कि वह तुम्हारा देश है। उसकी ममता ने उत्तर दिया।

    सहसा आर्य-कुमार को जन्मभूमि की याद गई। माता-पिता की विकलता उसका हृदय सालने लगी। तो भी वह बड़ी कठिनता से अपने भावों को सफलतापूर्वक दबाए रहा; किंतु उसकी अर्धांगिनी उन भावों का स्वतः अनुभव कर रही थी। जी से बोली—उत्कट इच्छा होती है वहाँ चलने की; किंतु साथ ही उसने बेबसी से नहीं अपने पिता की प्रीति में पगकर कहा—ऐसा कहाँ संभव है!

    पति पुलक उठा। उसने अपनी प्रेयसी को चूम लिया। यह चुंबन उस तापस-कन्या के जीवन में प्रणय का प्रथम चुंबन था। वह अपने को संभाल सकी। उसका शरीर सनसना उठा, आँखें मुँद गईं; किंतु एक ही क्षण में उसकी अकृत्रिम, सरल, नर-नारी-भेद-विहीन उन्मुक्त प्रकृति जहाँ-की-तहाँ गई और उसने कहा—चलो, विवाह मंडप ज्यों-का-त्यों पड़ा है। उसका परिष्कार करना है।

    दोनों लौट पड़े।

    ***

    दो-तीन पहर बाद तापस अपनी साधना से विरत हुआ। नवदंपती कहीं एकांत में बैठे प्रेमालाप कर रहे थे। उसने उन्हें आवाज़ दी और वे उस ओर चले, किंतु पत्नी सकुच रही थी।

    इस जोड़ी को देखकर उसके निराकुल हृदय में भी सांसारिकता की एक लहर गई, जिसके कारण उसकी प्रशांत दृष्टि हर्ष से चमकने लगी। प्रसन्नता का एक उच्छ्वास लेकर उसने जामाता से कहा—धनी! मेरी साधना में आज तक तेरी इस थाती की चिंता बाधक थी, आज उसे तुझको सौंपकर में पूर्णतः निर्मम हो गया। अब तुमको अपने देश जाना चाहिए।

    मुनि-कन्या पति के पीछे आँखें नीची किए खड़ी थी। यह सुनकर उसका हृदय सिहर उठा। उसने कुछ कहना चाहा। पिता से आज तक उसे जो कहना हुआ था, उसने निधड़क कहा था, किंतु इस समय उसका हृदय धड़कने लगा, लाज ने उसका कंठ थाम लिया।

    वैश्य-कुमार ने संभ्रम से पूछा—यहाँ आपकी सेवा...।

    तपस्या और सेवा—ये दो विरुद्ध बातें हैं। तपस्वी को सेवा की क्या आवश्यकता! इसके यहाँ रहने पर मैं इससे परिचारित होता था, इसके ममत्व से सिंचित होता था, इसलिए नहीं कि मुझे उनकी आवश्यकता थी। नारी जगज्जननी हैं, उनका हृदय दया-मया, करुणा से निर्मित होता है। वहाँ से इनकी निरंतर वृष्टि हुआ करती है, जो इस धधकते हुए जगती-तल को शीतल और हरा-भरा बनाए रहती है। उसी वृष्टि को—इनके स्वभाव को—इसी दिन के लिए बनाए रखना मेरा कर्त्तव्य था। आज उसके उपयोग का समय गया है। अब अपने गृहक्षेत्र को उस वृष्टि से यह सींचे।—उस नवीन गृही को तत्त्वदर्शी ने समझाया।

    तो क्या हम लोग आपको ऐसे ही छोड़ दें?—उसने शंका की।

    तपस्वी ने उत्तर दिया—यही तो मेरी सबसे बड़ी सेवा होगी। तुम्हीं सोचो कि तुम लोगों के यहाँ रहने से मेरे मार्ग में विक्षेप के सिवा क्या होगा, गृही और गृहत्यागी का साथ नहीं हो सकता। मुझे तो एकांत दे दो।

    वैश्य ने नतशिर होकर यह आदेश अंगीकार किया। और तपस्वी यह कहकर पुनः एकांत में चला गया कि—अब से डेढ़ पहर बाद तुम्हारे प्रस्थान का मुहूर्त्त है, उस समय आकर मैं तुम्हें विदा दे दूँगा।

    तापस-कन्या रो रही थी। अतीत वर्तमान बनकर उसके सामने अभिनय करने लगा।

    तुम उदास क्यों हो रही हो इतना?—वैश्य-पुत्र उसका पाणि-पीड़न करते हुए समझाने लगा।

    कुछ नहीं, अतीत की स्मृति बड़ी दुखदार्इ होती है।—उसने अनमनेपन से उत्तर दिया।

    हाँ, वह वर्तमान को भी विगत बना देती है।—कुछ गंभीर होकर उसके पति ने कहा।

    सो तो जानती हूँ, किंतु क्या कीजिएगा! प्राण जो रोते हैं!—उसने मृदुलता से कहा, एक लंबी साँस लेकर।

    हृदय छोटा करो—वैश्य-पुत्र ने ढाढ़स दिया।

    तुम पुरुषों में इतनी निर्ममता हो और तुम्हीं पर नारी ममता करे, यह भी एक विधि-विडंबना है!—उदासीनता से रुदिता ने कहा।

    पति ने सफ़ाई दी—मुझसे तुम्हारे आँसू नहीं देखे जाते।

    क्योंकि तुम पुरुष हो। तुम रूप रखना जानते हो और नारी से भी उसी की प्रत्याशा करते हो। तभी तो कहती हूँ कि तुम निर्मम होते हो। मैं जानती हूँ कि यहाँ अब मेरा कुछ नहीं। अब तो वही मेरा देश है, वहीं मेरा संसार है; वहीं के लिए उपजी हूँ, फिर भी हृदय नहीं मानता, वह तड़पता है, मैं रोती हूँ। यदि मैं पुरुष होती और रूप रखे होती, तो तुम्हें शांति मिलती।

    वणिक् अवाक हो गया। उसे यह रहस्य अवगत हो उठा कि नारी का प्रकृत रूप उसकी मुस्कान में नहीं, उसके आँसुओं में प्रत्यक्ष होता है।

    वैश्य-बाला रोती रही।

    ***

    डेढ़ पहर बीत गया। तपस्वी पुनः आया। कन्या उसके पाँव पकड़कर रुदन करने लगी। पिता ने उठा लिया। सिर पर हाथ फेरते हुए रुद्ध कंठ से उसने कहा—वत्से! क्यों अपने पिता की ममता को बाँध रही है। इस अकिंचन के पास एक वही तो तुझे दहेज देने को बची है। उसे भी अपनी ममता के अपार भंडार में मिला ले और उसका भूरि-भूरि उपहार उन्हें जाकर दे, जो वहाँ तुम्हारी बाट जोह रहे हैं।

    उसने अपनी बेटी से इतनी भीख माँगी; किंतु कामना करके भी वह उसे प्रदान कर सकी। उलटे इस असमर्थता ने उसकी करुणा को और भी विगलित कर दिया।

    तपस्वी पुनः प्रशांत हो गया। गंभीर होकर बोला—बेटी! तेरी इतने दिनों की साधना का यह शुभ फल मुझे मिला है, अब जिस आश्रम का द्वार तेरे लिए उन्मुक्त हुआ है, उसमें प्रवेश करके उसकी सिद्धि कर। यही परंपरा तो तुझे पूर्णता तक पहुँचावेगी। अब देर कर, मुहूर्त्त बीत रहा है।

    बेटी की रोते-रोते हिचकियाँ बँध गई थीं। उसने चुपचाप पिता के चरण छुए। वैश्य का भी हृदय गद्गद् हो रहा था, उसने भी उनके चरणों पर अपने आँसू चढ़ाए। तपस्वी ने दोनों की पीठ पर हाथ रखकर असीसा—जाओ तुम्हारा संसार सुखी और भरा-पूरा हो।

    ***

    तपस्वी वहीं ज्यों-का-त्यों खड़ा था। उसके दोनों हाथ वक्षस्थल पर मुद्रित थे, दाहिना पंजा बाँयी और बायाँ दाहिनी काँख के नीचे दबा हुआ था। वह एकटक शून्य दृष्टि से उसी ओर देख रहा था, जिधर नवदंपती चले जा रहे थे। उस वीतराग की ममता ही उनका एकमात्र असबाब था। प्रस्थिता के पैर लड़खड़ा रहे थे, मानो पीछे पड़ते हों। वह अपने को संभाल सकती थी—उसका स्वामी उसे सहारा दे रहा था।

    देखते-ही-देखते वे ओझल हो गए और उसी क्षण उस निर्मम की आँखों से ममता की दो बूँदें टपक पड़ीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : इक्कीस कहानियाँ (पृष्ठ 87)
    • संपादक : रायकृष्ण दास, वाचस्पति पाठक
    • रचनाकार : राय कृष्णदास
    • प्रकाशन : भारती भंडार, इलाहाबाद
    • संस्करण : 1961

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