कोई बारह बज चुके थे। दुनिया के पर्दे से स्वप्न की रानी झाँक रही थी—विजेता की भाँति, उसके नूपुर के मिलन-गीत से पृथ्वी मूर्छित-सी होती जाती थी।
वकील केशव के उस बड़े मकान के सभी कमरों की बत्तियाँ बुझ चुकी थीं, केवल सहाना का कमरा तब भी बिजली-शिखा से उज्ज्वल हो रहा था। मख़मल के काउच पर कुत्ते के बच्चे को लिए वह बैठी थी। पलंग के सफ़ेद रेशम के बिस्तर को किसी ने छुआ तक नहीं था, गुलदस्तों के फूलों की मीठी सुगंध से कमरे की हवा व्याकुल हो रही थी, गुलाब जल से बसे पान के बीड़े अनादर से रकाबी पर ही सूख रहे थे, दीवाल पर के ऑयल-पेंटिंग चित्रों के नीचे की दीप-शिखाएँ उस गहरी रात में कुछ म्लान-सी हो रही थी, शायद नींद से उनकी आँखें भी अलसा रही हों, किंतु उसकी पलकों में नींद की एक हलकी-सी छाया भी न थी। वह उस बच्चे को सुला रही थी, परम आदर के साथ । कभी उसे आदर, प्यार, सोहाग से बेचैन कर देती तो कभी उसे हृदय से लगाती, मुँह चूमने लगती। वह भूल बैठी थी पति के अस्तित्व को जो कि कुछ ही दूर आराम कुर्सी पर अधलेटे हुए नारी हृदय की ममता की प्यास को, मातृत्व की बुभुक्षा को अपलक नेत्रों से देख रहा था। उसकी दृष्टि जीवंत विस्मय से विमूढ़ हो रही थी। मुक़दमे के काग़ज़ वैसे ही इधर-उधर पड़े थे, उस ओर ध्यान देने योग्य उस समय उसके मन की स्थिति नहीं थी।
आज अचानक नहीं, परंतु कई दिनों से केशव शायद अपनी भूल कुछ-कुछ समझ रहा था। एक अनजान दर्द, एक अपरिचित प्रभाव से यह कभी बेचैन हो जाता, चेष्टा करने पर उसकी समझ में बात नहीं आती कि वह व्यथा, वह अभाव किस लिए और क्यों है? वह अनजान-सा बना रहता।
पत्नी का दीर्घ श्वास, कुत्ते के प्रति उसकी वह लालायित दृष्टि केशव के अंतर के किसी गोपनीय अंश में आघात कर बैठी, जूही की झाड़ी आँखों के सामने से हट गई, मोती-जैसे फूल बिखर गए। गत-दिवस के वे रंगीले दृश्य चल-चित्र के समान सामने अड़ गए, जहाँ कि एक नारी रूप, रूप-गंध-पूर्ण अपने सुगठित यौवन की मदिरा भरे कलश को लेकर उसी के पैर तले बैठी वर्षों विनिद्र रजनी बिता दिया करती थी, नारी रूप-उपासक के पैरों में अपने श्रेष्ठ मातृत्व तक को न्योछावर करने में जिसने विचार तक नहीं किया था, पति की तुष्टि के लिए जिसके नयन, प्रत्येक रोम सदा ख़ुशी की वर्षा किया करते थे, नूतनत्व-विहीन संपूर्ण लुटी हुई नारी वह यही है। बाहरी जगत के तीव्र आकर्षण, करोड़ों कामों में पिसकर जिसे कि आज बासी माला की तरह दूर फेंक देना पड़ा है, वह दूसरी नहीं—यही है—यही, यही। जिसे कि आज इस विलासिता के अंदर तपस्विनी गौरी की तरह जागते ही रात बितानी पड़ रही है, कुत्तों और बिल्ली के बच्चों को लेकर माँ की प्यास—केशव जबरन ही हँस पड़ा। अपने आपको डाँटने लगा—यह सब वह क्या सोच रहा था? वह आश्चर्य में था कि ऐसे विचार उसके मन में उठे ही क्यों?
उस हँसी से सहाना चौकी—अभी सोओगे? बत्ती बुझा दूँ?
‘नहीं, अभी काग़ज़ देखना है।’
‘क्या रात-भर काम ही करते रहोगे? दो बज रहे हैं।’
‘किंतु अभी तक तो तुम्हारे खेल को देख रहा था। बुढ़ापे में कुत्तों के पिल्लों से खेलते तुम्हें शर्म नहीं आती, लोग कहेंगे क्या?
सहाना ने सहमी हुई आँखें उठाई—उसकी माँ मर गई है, बच्चा दिन-रात रोया करता है। आँसू छिपाने के लिए सहाना ने दूसरी ओर मुँह फेर लिया।
‘एक दिन मरना तो सबको है; फिर कुत्ते-बिल्ली के लिए यदि सभी आँसू बहा दोगी तो मेरे लिए बचेगा क्या?’
‘तुम फिर वही बातें करते हो।’ उसने अभिमान से मुँह फेर लिया। बहुत दिनों के बाद पति के मुँह से उसी भूले-से परिहास को सुनकर वह विस्मित हो रही थी। गत प्रेम के दिनों का जीवन ही कितना था? बूँद भर ओस, जुगुनू की दीवट, फूल की पँखुड़ी की तरह छोटे, बहुत ही छोटे दिन, किंतु उन छोटे दिनों की वह प्रेम-स्मृति सहाना के निकट अमर और अविनाशी थी।
‘बहुत दिनों के बाद।’ उसने धीरे से कहा।
‘मैं उन बातों को भूला नहीं हूँ सहाना। किंतु मैं कभी आश्चर्य करता हूँ, सोचता रहता हूँ कि जिस अंतर में कभी दिन-रात प्रेम-प्यार की पुकार उठा करती थी, आज चेष्टा करने पर भी क्यों नहीं उठती? शायद मेरा यौवन मर चुका हो।’ केशव का स्वर दर्द से भरा हुआ था। सहाना हँसी, उस हँसी की जाति ही निराली थी।
(दो)
‘पूजा के कमरे में आज से तुम मत जाना दुलहिन।’ सहाना की सास नर्मदा ने कहा।
फूल चुनते-चुनते वह रुकी—क्यों अम्माजी?
‘सबेरे हल्कू को दूध नहीं पिला रही थी?’
‘वह रो रहा था।’
‘साईस का लड़का रोए या मरे, अपने को क्या? बड़े घर में आई हो, ज़ात-पात का भी तो कुछ विचार किया करो। कहाँ वह जैसवारा और कहाँ हम ब्राह्मण! ‘कुत्ते-बिल्ली दिन-भर लिए रहती हो, मेरे हज़ार सर पीटने पर भी मानती नहीं। दिन-पर-दिन तुम हठी होती जाती हो। ऐसा अनाचार मैं सह नहीं सकती हूँ।’
उत्तर देने के लिए सहाना के कंठ में शब्दों की भीड़-सी लग गई। किंतु फिर भी उसका उत्तर संक्षिप्त ही हुआ—वह छह महीने का अबोध शिशु है अम्माजी! मरते वक़्त दुखिया बच्चा मुझे सौंप गई थी।
‘आज जैसवारा तो कल मेहतर के बच्चे को उठा लाना। मेरे रहते इस घर में तेरा अधिकार ही कौन-सा है? मेरे मत विरुद्ध यहाँ कोई काम नहीं हो सकता है। उसे अभी दूर कर दे।’ गृहिणी झुँझला पड़ी।
‘नहीं।’
‘क्या नहीं?
‘नहीं।’
नर्मदा के चिल्लाने से केशव भीतर आ गया—’क्या है?’
‘भैया, मुझे तू काशी पहुँचा दे।’
‘क्यों माँ?’
‘क्योंकि मैं नौकरानी बनकर नहीं रह सकती हूँ। तुम्हीं से पूछती हूँ—घर की मालकिन बहू है या मैं?’
केशव को चुप रहते देखकर माता जल उठी—कहो, मैं तुमसे सुनना चाहती हूँ।—माता ने अपना प्रश्न दुहराया।
‘तुम्हारे रहते हुए तो दूसरी कोई मालकिन बन नहीं सकती। परंतु उसे भी तुम्हीं लाई हो और अधिकार भी दिया है।’
केशव की पूरी बातें सुनने का धीरज उस समय गृहिणी में था नहीं। नर्मदा ने कहा—तो तुम्हारे राज में आज क्या चमार-भंगी के साथ बैठकर खाना पड़ेगा?
‘ऐसा करने को तुमसे किसने कहा?’
‘तुम्हारी पत्नी ने। सवेरे से दुखिया के लड़के को उठा लाई है—कहती है उसे रखूँगी।’
‘क्या यह सच है?’
‘हाँ! उसकी माँ मुझे सौंप गई है।’
‘किंतु वह जैसवारा का लड़का है। इस घर में उसकी जगह कैसे हो सकती है सहाना?’
‘जैसवार के घर में जन्म लेना क्या उसका अपराध है?’
उत्तर दिया नर्मदा ने— ‘ऊपर से लगी जवाब-सवाल करने! तेरी हिम्मत देख-देखकर मैं अवाक होती हूँ। दूसरी सास होती तो तुझ जैसी बाँझ का मुँह भी न देखती।’
व्यथा से उसका चेहरा पीला पड़ गया। अपने को सँभालकर सहाना ने कहा—मैं आप से नहीं, उनसे पूछती हूँ कि यदि आत्मा अमर है, ईश्वर का अंश है और सभी में उसी एक पावन आत्मा का प्रकाश है तो यह छुआछूत का प्रश्न उठा ही क्यों और कैसे?
‘लोकाचार है। समाज का नियम है। जब कि उसी समाज में हमें रहना है, तब उसके नियमों को मानना भी जरूरी बात है।’
‘मैं कब कहती हूँ कि तुम निराले समाज में चले जाओ। किंतु पुराने की महिमा में मुग्ध होकर उसके कीचड़ को संदूक़ में भरकर रखने में कोई पौरुष, कोई श्लाघा नहीं है। प्रकृति के नियम से नित नई वस्तु बनती और मिटती है। पुराने में जो मिली वस्तु है उसका सम्मान और रक्षा हम अवश्य ही करेंगे। परंतु बुरे को सदा त्यागने के साहस की कमी हममें कभी न हो, यह प्रार्थना मैं ईश्वर से किया करती हूँ।’
‘तो तुम इस नियम को ख़राब कहती हो?’
‘हज़ार बार। आदमी आदमी को घृणा करेगा, यह निरी पहेली ही नहीं अपराध भी है।’
‘मैं घृणा की बात नहीं कहता, केवल माँ के सम्मान के लिए तुम बच्चे को हटा दो सहाना!’ वह डर रहा था क्योंकि स्वाधीन स्वभाव की पत्नी को वह भली-भाँति पहचानता था। ‘नहीं’ कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा—नहीं, यह असंभव है, तुम्हारे और माँ के संतोष-सम्मान के लिए अपने प्राण न्योछावर कर सकती हूँ पर दूसरे के नहीं और न उस वचन को तोड़ ही सकती हूँ जो कि उसकी मरन-सेज पर मैं दे चुकी हूँ।
‘सहाना, आज इस जीवन के अंत में तुम मुझसे क्या सुनना, क्या कहना चाहती हो?’
‘कुछ भी नहीं।’ उसने बालक को छाती से लगा लिया। जाते समय कहती गई—बच्चा भूखा है। इसे दूध पिलाकर फिर तुम्हारी बातें सुनूँगी।
माता-पुत्र स्तंभित-से खड़े रह गए।
(तीन)
‘सहाना, अलमारी की चाभी देना, काग़ज़ निकालना है।’ मंदिर के द्वार पर केशव ने पुकारा।
कटोरे में चंदन पोंछकर शीला लौटी। एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उन दृष्टियों में प्रश्न था—तुम कौन हो, कहाँ से आए?
उसी दिन से सहाना का मंदिर में जाना तथा रसोई आदि में जाना—नर्मदा देवी ने बंद कर दिया था। ये बातें केशव जानता नहीं था, ऐसा नहीं। कदाचित अभ्यासवश फिर भी वह उस दिन मंदिर-द्वार पर खड़ा हो गया। उसे स्मरण हो पाया कि रात में इसी शीला की बात सहाना कह रही थी। वह नर्मदा की अनाथ ज्ञाती कन्या थी, अविवाहिता थी। नर्मदा ने उसे बुला लिया था!
‘चाभी तो मेरे पास नहीं है। मैं शीला हूँ। कल यहाँ आई हूँ।’
इस तरुणी की संकोचहीन बातों से केशव-कम विस्मित न हुआ। वह उन आयत नयनों के सामने संकुचित हो रहा था। बोला—‘अच्छा तो मैं जाता हूँ।’ किसी तरह इतना कहकर वह भागा।
भोजन के आसन पर बैठकर केशव विरक्ति से यहाँ-वहाँ निहारने लगा। शीला थाली और कटोरों को रखकर पंखे से मक्खी भगाने लगी। रसोई ब्राह्मण बनाता था। किंतु भोजन के समय सहाना सामने बैठती थी दो-चार तरकारियाँ भी पति के लिए अपने हाथ से बनाया करती थी, परंतु हल्कू के आने के बाद से गृहिणी उसे दूर रखकर स्वयं उन कामों को कर लिया करती थी और आज उन्होंने शीला को अपना स्थान सौंप दिया था।
‘केशव, करेले कैसे बने हैं?’ माता सामने आकर खड़ी हो गई।
‘अच्छे।’
‘शीला ने बनाए हैं। बड़ी काम की लड़की है और वैसी ही नम्र-शांत भी है। मैं जिस काम को कह देती हूँ उसे जी खोलकर करती है। आलू के बड़े भी उसी ने बनाए हैं, अच्छे बने हैं न?’
‘हाँ।’
‘क्यों झूठ बोलते हैं! आपने उन्हें छुआ तक नहीं।’—शीला हँस पड़ी।
अप्रस्तुत होने के साथ-ही-साथ शीला के सरल व्यवहार से केशव संतुष्ट भी हुआ।
‘शीला सच कह रही है भैया! तुमने तो आज कुछ नहीं खाया।’
‘ख़राब बना होगा।’
‘नहीं-नहीं, सब चीज़ें अच्छी बनी हैं। भूख नहीं है।’
‘फिर भी आप झूठ कहते हैं। मैं कहती हूँ मौसी, भौजी को बुला लो, अभी ये भरपेट भोजन कर लेंगे।’
इस तरुणी की मुँह पर सच कहने की शक्ति को देखकर केशव मन में उसकी प्रशंसा करने लगा।
‘ऐसा तो नहीं हो सकता शीला कि मेरे जीते-जी घर में भंगी बसोरों का निवास हो जाए। बहू घर की लक्ष्मी कहलाती है, वही यदि अनाचार करने लगे तो उस घर की भलाई कब तक हो सकती है! एक तो इस वंश का ही नाश होने बैठा है। एक बच्चा तक नहीं हुआ। वंश-रक्षा करना एक ज़रूरी बात है। किंतु कोई सुनता ही नहीं। मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने हाथों अपना सर पीट लूँ।’
एक अनजान के सामने इन बातों की अवतारणा से केशव चिढ़ रहा था, फिर भी उसने हँसकर कहा—‘तो अपना सर पीटकर ही देख लो।’
‘क्या दाँत निकालते हो भैया, मेरा तो जी जला जाता है। उसी की बात सब कुछ हो गई और मेरी बात को कोई पूछता तक नहीं।’
‘ऐसा तो नहीं है माँ!’
‘फिर तू ब्याह क्यों नहीं करता?’
‘विवाहित हूँ।’
‘इससे क्या हुआ। वंश-रक्षा के लिए लोग जाने कितने विवाह करते हैं। किंतु इधर तो उसने सौगंध रखा दी है; माँ की सौगंध को कौन मानता है।’
‘उसने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा, यह विचार तुम्हारा ग़लत है। उसका मत छोटा नहीं है, माँ! वह तुम्हारे विरुद्ध कभी कुछ कहती नहीं।’
‘अरे, मैं सब कुछ जानती हूँ! आज वही तो तेरी सब-कुछ है। एक दिन वह था जब कि इस बुढ़िया के बिना तेरा दिन कटना मुश्किल था। तेरी आँखों के सामने वह तेरी ही माँ का अपमान करे? एक जैसवारे के लड़के को घर में रखे, दिन-भर गोद में लिए रहे और तू औरतों-जैसा देखता रहे। धिक्कार है ऐसी ज़िंदगी पर!’
केशव आसन पर से उठ पड़ा।
‘तुमने ऐसा क्यों कहा मौसी, उन्होंने खाया तक नहीं।’
‘क्या मैं चुपचाप यह सब सह लूँ?’
‘किंतु तुमने मेरे सामने क्यों कहा? यही बात उन्हें बुरी लगी।’
‘तुमसे सच कहती हूँ शीला, केशव ऐसा नहीं था। बहू ने उस पर जादू किया है।’
इस बार ‘शीला अपनी हँसी न रोक सकी। वह हँसते-हँसते लोटने लगी।’
‘तू हँसती क्यों है? इसमें हँसने की कौन-सी बात है?’
‘तुम अंधेर करती हो मौसी, भला जादू भी कोई चीज़ है? फिर भौजी के लिए तो ऐसे विचार भी नहीं उठ सकते। उनकी बातचीत की रीति, उनकी शिक्षा ही निराले ढंग की है। वे हज़ारों में एक स्त्री हैं।’
‘तू भी ऐसा कहती है, शीला! मैं तुझे अपना समझे हुए थी। मेरा भाग्य ही ऐसा है।’
शीला नर्मदा के गले से लिपट गई—नाराज़ हो गई मौसी?
(चार)
मल्लार रागिनी का आलाप लिए वर्षा तब पृथ्वी के सिरहाने उतर आई थी। घर-द्वार, तरु-पल्लवों में उसके पैरों की हरियाली छाप पड़ने लग गई थी। उस हरियाली ने बूढ़े बट के नीरस हृदय तक को सजीवता के साथ-ही-साथ रसपूर्ण भी कर दिया था। वर्षा की इस अलसाई हुई संध्या ने केशव के निद्रालु चित्त में नवीनता का मोहक मंत्र फूँक दिया। वह धीरे-धीरे सहाना के कमरे की ओर बढ़ा। बहुत दिनों के बाद द्वार को और पीठ किए वह आईने के सामने खड़ी बालों को सँवार रही थी। बालों के गुच्छे कमर पर लहरा रहे थे। साड़ी का आँचल ज़मीन पर लोट रहा था। उसके ओठों पर हल्की-सी मुस्कान थिरक रही थी—वही रूप-यौवन की मुस्कान।
‘सहाना!’ उसकी पीठ पर हाथ रखकर प्यार से केशव ने पुकारा।
‘आप?’ चंचल हरिणी की तरह वह लौटकर खड़ी हो गई।
‘तुम तो शीला हो! सहाना—मेरी सहाना को तुम लोगों ने कहाँ भगा दिया?’
‘मैंने!’ किंतु दूसरे पल शीला सहमकर बोलीं—वे तो घर ही हैं, नीचे कुछ कर रही हैं।
‘फिर तुम उसके कमरे में उसी की तरह इस आईने के सामने क्यों खड़ी थी?’
शीला के लिए यह एक अद्भुत प्रश्न तो था ही और जो कुछ था वह था अपमान और तिरस्कार। फिर भी उसकी शिक्षा ने उसे आपे से बाहर होने से रोका। कौन-सी भयानक स्थिति ने केशव जैसे गंभीर प्रकृति के मनुष्य को इस तरह विचलित कर दिया है?—इस बात को सोचकर शीला सिहर उठी। वह हट गई।
केशव पत्नी के सामने जाकर खड़ा हो गया—एक दीर्घ श्वास की तरह—कहाँ थी तुम?
सहाना जल्दी से हल्कू के उन नन्हे प्यारे हाथों को छोड़कर ज़रा हट आई। वह जानती थी कि उसी दुखी, असहाय शिशु को लेकर उसकी गृहस्थी में कैसा तूफ़ान उठा हुआ है।
‘तुम मेरे साथ-साथ रहा करो सहाना।’
पति की उन व्याकुल बाँहों में अपने को सौंपकर वह उसका मुँह निहारने लगी। समुद्र-सा अथाह विस्मय उसके सामने था। बच्चा रोने लगा। इतनी देर के बाद केशव की दृष्टि हल्कू पर पड़ी—इसी के लिए आज तुम मुझे भूल रही हो? मेरी यह दशा हो रही है। सारे अनिष्ट की जड़ यही है। अच्छा ठहरो! केशव ने बालक को उठा लिया। शायद उसे फेंकना चाहता हो।
उन्मादिनी की भाँति सहाना ने बालक को छीन लिया। अपनी छाती से उसे लगाकर हाँफने लगी।
‘उसे दे दो सहाना, वरना आज मुझे कठोर बर्ताव करना पड़ेगा।’
‘नहीं, नहीं, मेरे बच्चे का ख़ून मत करो। पहले मुझे मार डालो।’ वह बच्चे को गोद में लेकर ज़मीन पर बैठ गई।
केशव को ज़िद-सी हो गई—मैं उसे लेकर ही छोड़ूँगा। वह उसे छीनना चाहने लगा। सहसा उसकी आँखें सहाना की आँखों से मिल गई! सहाना की उस दृष्टि को वह सह न सका—यह कैसी रिक्त, सर्वशात दृष्टि है? केशव सिहर उठा। उसके हाथ अपने-आप रुक गए। हृदय में प्रश्नों की झड़ी-सी लग गई—वह जो गतयौवना, रूपवती नारी मर्द के रूप की प्यास बुझाने के लिए आज सब कुछ खो बैठी है, उसके जीवन के लंबे दिन क्या यूँ ही दीर्घ श्वास की नाईं छोटे से पल में उड़ जाएँगे? अणु-परमाणु माता होने के लिए सृजे गए थे, उसे व्यर्थ करने का अधिकार दुनिया में किसी को भी था? शायद जीवन के आरंभ में वह पावन दीप जलाए संतान की प्रतीक्षा में बैठी थी। उसकी उस प्रतीक्षा को निष्फल किसने किया? पति के अभिमान से अंधा बनकर उसके शुद्ध सुंदर मातृत्व को छीन लेने वाला वह राक्षस कौन था? कठोर तपस्या शेष कर जीवन की संध्या-वेला में जो रमणी भिखारिन की तरह संतान की भीख माँग रही है, उसकी भिक्षा की झोली आज वह किस चीज़ से भरेगा?
माता की उस मरुभूमि की-सी तृष्णा को वह किस तरह तृप्त करेगा? उसकी उस ज़रा-सी शांति, संतोष उस अभागे बच्चे को छीनकर क्या पतिपूजा का पुरस्कार वह इसी तरह देगा? केशव की चिंता में बाधा पड़ी। सहाना ने बच्चे को उसके पैर तले डाल दिया—लो, लेते जाओ, आज मैं इसे तुम्हीं की सौंपती हूँ। दोनों हाथों से सहाना ने अपना मुँह ढाँप लिया। केशव ने एक बार पत्नी की ओर और दूसरी बार बच्चे को देखा, फिर हल्कू को धीरे से उठाकर सहाना की गोद में डाल दिया।
(पाँच)
जिस दिन उस बालक का अंत हो गया उस दिन सहाना की आँखों में पानी की एक छोटी-सी बूँद तक नहीं थी। दिन एक-सा बहने लगा, सहाना का अंतर का परिवर्तन बाहरी जगत से छिपा ही रह गया, शायद जीवन-भर के लिए यह सब कामों में योग देती और पति से हँसकर बातें भी करती, केवल दिन में एक बार वह उस नन्हे बच्चे के चित्र को आँखों से लगा देती।
जिस दिन उसकी वह चोरी पकड़ी गई, उस दिन केशव ने विरक्त होकर कहा—बुढ़ापे में क्या तुम पागल हो जाओगी? धूमकेतु यदि मरा भी तो निशानी छोड़ गया।
‘छि:! मरे हुए का ज़रा-सा सम्मान करना सीखो। उसकी भी आत्मा थी।’ सहाना के कंठ में तिरस्कार था।
‘ऐसा! तो उस कमीने के लिए आँसू भी बहाना पड़ेगा?’
‘फिर इससे तुम छोटे न हो जाओगे।’
‘और कुत्ते-बिल्ली के लिए किस दिन आँसू बहाना होगा सो भी कह दो।’
सहाना ने उत्तर नहीं दिया। इन बातों का वह जवाब ही क्या देती?
‘अब जवाब क्यों नहीं देती?’
‘क्या इन बातों का उत्तर भी देना है? और मुझी को।’
उन शब्दों में कौन-सी सम्मोहनी भरी थी सो तो केशव ही जाने, किंतु इसके बाद मारे लज्जा के उसकी आँखें झुक गईं। पिछली बातों के स्मरण से शायद उसके मन में अनुताप की छाया-सी पड़ी, किंतु दूसरे क्षण वह बलात ही अस्वीकार करने लगा—वह तो होनहार था।
झूठ से समझौता करते-करते लोग अपने जीवन की न जाने कितनी अनमोल वस्तुओं को खो बैठते हैं और शायद इसी से केशव फिर मिथ्या से समझौता करने लग गया।
‘तुम बैठी फ़ोटो देखती रहो। और मैं भूखा-प्यासा बैठा तुम्हारा मुँह निहारता रहूँ। यही कहना चाहती हो न?’
‘मैं तुमसे कुछ भी कहना नहीं चाहती। भोजन कर लो।’
‘धन्यवाद! इतनी देर के बाद याद तो आया।’
वह कह सकती थी कि आजकल भोजन छूने का अधिकार उसे नहीं है। कह सकती थी अब उसके बदले शीला उन कामों को किया करती है। परंतु नहीं, उसने कहा कुछ नहीं। चुपके से बाहर निकल गई।
‘आइए’—शीला ने पुकारा।
केशव के कानों में अमृत की वर्षा हो गई—कैसी दर्द भरी पुकार है—मन में कहा केशव ने।
आसन के आगे मिठाई की रकाबी रखे बैठी थी शीला—उसी की प्रतीक्षा में। केशव का अंतर-बाहर आनंद, संतोष से भर उठा। सारे दिन परिश्रम के बाद घर में भी शांति नहीं मिलती थी। उस तरुणी की सेवा, सहानुभूति से केशव बिछुड़े हुए दिनों की उसी ख़ुशी के समुंदर में लहराने लगता था थोड़ी देर के लिए।
गरम-गरम कचौड़ी रकाबी में डालकर शीला ने कहा—इनमें से एक भी न बचे वरना दंड भुगतना पड़ेगा।
केशव ने शीला की ओर देखा—उस तरुणी के सारे अंगों से ख़ुशी का झरना-सा झरता पाया।
‘कौन-सी सज़ा मिलेगी शीला?’ कौतुक से केशव ने पूछा।
‘फिर इतनी ही कचौड़ियाँ और खानी पड़ेंगी।’
‘यदि न खा सकूँ?’
‘तो इसी तरह रात-भर बैठे रहना पड़ेगा।’
‘तुम मेरे सामने रहोगी न शीला?’
‘जाइए!’ ये मीठे शब्द बहुत ही मीठे ढंग से कहे गए।
केशव चौंक पड़ा और उसके बाद वह एकदम उठकर भागा चोर की तरह।
आकुल विस्मय से शीला उसे निहारती ही रह गई।
****
सहाना ने धीरे से पति के सिर पर हाथ फेरा, पूछा—इस समय तुम सोए क्यों? जी ख़राब तो नहीं है?
‘सहाना, तुम्हीं मेरी सहधर्मिणी हो और तुम ही रहोगी।’ दोनों हाथों से सहाना का हाथ पकड़कर वह बार-बार कहने लगा।
सहाना धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरने लगी।
‘क्या वे पुराने दिन नहीं लौट सकते, सहाना?’
सहाना का हृदय व्यथा से विकल हो पड़ा।
‘कहो सहाना, जवाब दो।’
‘तुम्हारे दर्द को मैं और बढ़ाना नहीं चाहती।’
‘समझा नहीं’—केशव ने कहा।
‘तुम ज़रा चुपचाप सो जाओ, जी ठीक हो जाएगा।’
‘नहीं, नहीं, मुझे कहने दो, सहाना—सहाना—।’
‘मैं जानती हूँ।’
‘तुम! तुम-जानती हो! क्या जानती हो?’ विराट विस्मय से केशव की आँखें विस्फारित हो रही थी।
‘सब बातों को। किंतु तुम्हारे मुँह से सुनना नहीं चाहती।’ वह हँसी।
केशव का सिर अपने आप झुक गया।
‘कब से जानती हो?’—देर के बाद केशव ने पूछा।
‘बहुत दिनों से।’
‘तुमने मुझे सावधान क्यों न किया? मुझे अपनी बातों से खींच क्यों न लिया?’
‘जबरन भी? किंतु नहीं; मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। वैसी भीख की झोली से मैं घृणा करती हूँ—आंतरिक घृणा। प्रेम-प्यार आदर की वस्तु ज़रूर है, परंतु माँगने की नहीं। उसके लिए दूसरे से झगड़ना, छिःछिः!’
सहाना घृणा से सिहर उठी।
‘तुम पत्थर की बनी हो सहाना।’
‘होगा भी।’—उदार स्वर से उसने कहा!
‘अपना अधिकार मैं इस अवहेलना से नहीं छोड़ सकता था।’
‘अवहेलना? नहीं, घृणा कह सकते हो। मैं कहती थीं, ये सब बातें तभी हठ सकती हैं जब कि अधिकार को कोई छोड़ देता!’
‘फिर यह क्या है?’
‘जो प्रेम एक बार किसी के द्वार पर लुट चुका था, वही प्रेम आज प्रतारक की तरह दूसरे के द्वार पर झाँकने लगे तो उसके लिए सिर की ज़रूरत नहीं है। अधिकार मन की चीज़ है। प्रेम के उसको छीन लेने की शक्ति विधाता को भी नहीं है, फिर हम तो आदमी ही ठहरे।’ सहाना उठी—अब मैं जाती हूँ, काम पड़ा है।
(छः)
काम करते-करते शिशु-कंठ के मीठे गीत से अनमनी-सी सहाना द्वार पर आकर खड़ी हो गई।
गीत गा-गाकर नन्हे-नन्हे बच्चे देश के लिए भीख माँग रहे थे। सहाना पलकहीन नेत्रों से उन्हें देखने लगी।
‘माताजी!’ एक ने पुकारा ।
‘इन झोलियों में कुछ डाल दो माताजी!’ दूसरा बोला।
सहाना ने एक सुंदर शिशु को गले से लगा लिया, बोली—क्या कहा भैया, फिर कहना।
‘इन झोलियों में कुछ डाल दीजिए।’
‘नहीं नहीं, उसी तरह फिर पुकारो।’
‘माताजी!’
‘और छोटे शब्दों में।’
‘माँ’
‘फिर पुकारो!’
‘माँ-माँ!’
वह कान लगाकर सुनने लगी माँ-माँ! एक स्वप्न-सा आँखों में छा गया—जैसे कि उसने अपने हृदय के ख़ून—उस प्यारे बच्चे को देश के काम में सौंप दिया हो। सहाना देखने लगी—उसके उस देश सेवा के श्रेष्ठ दान से, उस दृष्टांत से प्रत्येक माता ने अपनी गोदी ख़ाली कर दी। वह विस्मय के साथ देखने लगी—जल, वायु, आकाश शिशुओं से छा रहा है, तिल बराबर भी कहीं स्थान नहीं है। ‘यह कैसा विराट रूप है!’ वह कह उठी।
‘सहाना!’—पति की पुकार से वह स्वप्न-लोक से लौटी।
उसने उत्तर दिया—हाँ।
उस दृष्टि को केशव सह न सका। वह किस उद्देश्य से किसके पास आया है?—उसकी चिंता विकल हो पड़ी—माँ से आज वह प्रेयसी को माँग रहा है? गृहिणी के नयनों में वह तरुणी की प्यास को देखना चाहता है? सेविका से वह सोहाग माँगता है? हाँ इतने दिनों के बाद। केशव समझ ही न सका कि उसी के अनादर, अवहेलना से उसकी प्रेयसी मर चुकी थी—बहुत दिन पहले। और उसी नारी के भीतर अब जो कुछ था—यह था केवल माँ का गंभीर स्नेह और समुंदर-सा प्यार।
कुछ विचारता हुआ केशव शीला के निकट आकर खड़ा हो गया।
‘आइए। भूख लगी है क्या?’—नदी के-से तरल स्वर से उसने पूछा।
केशव मुग्ध विस्मय से उसे निहारने लगा। और दृष्टि के आगे शीला खिलखिला पड़ी।
‘मैं तुम्हीं को ढूँढ़ रहा था शीला।’ केशव का स्वर मृदु था।
नर्मदा ने पुकारा—भैया, ज़रा सुन जाना!
रात में सहाना ने केशव के काग़ज़ों को हटाकर किसी प्रकार की भूमिका के बिना ही कहा—शादी के लिए और तैयारियाँ तो मैंने कर ली हैं, केवल गहने तुम बनवा देना।
‘किसकी शादी?’
शीला की।
‘वर कहाँ मिला?’ उसका कंठ काँप रहा था ।
कुछ देर तक पति के मुँह की ओर देखकर सहाना ने उत्तर दिया—वह घर ही में है।
‘और मैंने उसे नहीं देखा?’
‘मैंने जब देखा है, तब तुम भी देख चुके हो!’
‘यानी?’
‘तुम हो!’
‘मैं, मैं!’ वह पीछे हटा।
‘हाँ, तुम!’
‘यह दिल्लगी अच्छी नहीं लगती, सहाना।’
‘दिल्लगी नहीं, सच ही कहती हूँ। इसी पंद्रह तारीख़ को शादी होगी।’
‘असंभव है।’
‘ऐसा मत कहो—सभी तैयारियाँ हो चुकी हैं।’
‘ऐसा तुमने क्यों किया सहाना?’
‘क्योंकि इसकी ज़रूरत थी।’
‘फिर भी यह नहीं हो सकता है। इससे न तो मेरी ही भलाई है और न तुम्हारी। किसी के लिए कभी भी मैं तुम्हें दुःख नहीं दे सकता।’
‘तुम भूल रहे हो, तुम्हारे सुख के लिए मैं सब कुछ सह सकती हूँ, विशेषतः मेरे उस गत आनंद की स्मृति को दुःख की शिखा जला नहीं सकती है, तुम विश्वास रखो।’
‘किंतु मैं तुम्हीं से पूछता हूँ कि तुम जैसी स्त्री रहते हुए भी मैं विवाह करूँ ही क्यों?’
‘अपने मन से पूछो।’ वह हँसती थी।
‘मैं न तो कुछ सुनना चाहता हूँ और न कुछ पूछना, किंतु यह विवाह हो नहीं सकता। सच कह रहा हूँ। वर के लिए सोचने की आवश्यकता नहीं है, उसी दिन वर तुम्हें मिल जाएगा।
शीला ने पुकारा—भौजी, चाय तैयार है। केशव ने सिर नीचा कर लिया, आज वह उस ओर देख तक नहीं सकता था।
(सात)
उस धनी परिवार के नौकरों से लेकर मालिक तक उस दिन व्यस्त थे। बाहर से शहनाई मधुर स्वर से मिलन-गीत अलाप रही थी। गलियों में चादर बिछ रही थी। पानी के मटकों में गुलाब जल मिलाया जा रहा था। बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में शाक-भाजी बन रही थी। हलवाई मिठाई बना-बनाकर बूढ़े-पुरानों को चखा रहे थे। सहाना और केशव घूम-घूमकर सब व्यवस्था कर रहे थे। शीला की शादी थी, एक धनी वर के साथ। बच्चे आँगन में धूम मचा रहे थे।
चहुँ ओर के उस आनंद के भीतर लहराती हुई नदी की भाँति शीला हँस-हँस अपनी सखी-सहेलियों से मिल रही थी—स्त्रियों के बीच में उसकी समालोचना हो रही थी। ‘कैसी बेहया है! बहन, आजकल की लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं। बूढ़ी हो जाती हैं तब कहीं दुल्हा मिलता है, इसलिए वे अपने आनंद को छिपा नहीं सकतीं।’
शीला ने एक स्त्री को चिहूँटी ले ली।
‘दुल्हा को चिहूँटी ले जाकर, मुझे नहीं।’ स्त्री ने कहा।
‘उन्हें तो रात में लूँगी।’
‘कैसी बेहया है तू शीला! तुझे लज्जा-हया कुछ भी नहीं।’
स्त्री की भौहें चढ़ गईं जिसे देखकर शीला खिलखिलाकर हँसने लगी। चलते-चलते केशव लौटा। पल-भर के लिए उस ख़ुशी की दीवाली की ओर उसने देखा, फिर काम में डूब-सा गया। केवल सहाना उस हँसी को सुनकर सिहर उठी।
संध्या समय बनाव-शृंगार शेष कर शीला दबे पाँवों उस द्वार के बाहर जाकर खड़ी हो गई जहाँ कि केशव द्वार की ओर पीठ किए चुपचाप खड़ा कुछ विचार रहा था। वह कुछ देर तक खड़ी उसे देखती रही, इसके बाद उसने वहीं से केशव को प्रणाम किया। केशव लौटा, उसने देखा एक छाया सामने से हट रही है।
व्यथा के साथ केशव ने पुकारा—शीला! परंतु उत्तर न मिला!
‘भ्रम था!’ दीर्घ श्वास के साथ ये शब्द उसके कंठ से निकले।
बड़ी धूम से बारात आई। कन्यादान के समय शीला को लोग ढूँढ़ने लगे। किंतु उसका पता कहीं भी न था। घर, द्वार, हर एक संदूक़ देखी गई, शीला न मिली।
दो बूँद आँसू पोंछकर सहाना ने अख़बार में विज्ञापन दिया—शीला, तुम लौट आओ, इस घर में तुम्हारा निरादर न होगा।
koi barah baj chuke the duniya ke parde se swapn ki rani jhank rahi thi—wijeta ki bhanti, uske nupur ke milan geet se prithwi murchhit si hoti jati thi
wakil keshaw ke us baDe makan ke sabhi kamron ki battiyan bujh chuki theen, kewal sahana ka kamra tab bhi bijli shikha se ujjwal ho raha tha makhmal ke coach par kutte ke bachche ko liye wo baithi thi palang ke safed resham ke bistar ko kisi ne chhua tak nahin tha, guldaston ke phulon ki mithi sugandh se kamre ki hawa wyakul ho rahi thi, gulab jal se base pan ke biDe anadar se rakabi par hi sookh rahe the, diwal par ke oil penting chitron ke niche ki deep shikhayen us gahri raat mein kuch mlan si ho rahi thi, shayad neend se unki ankhen bhi alsa rahi hon, kintu uski palkon mein neend ki ek halki si chhaya bhi na thi wo us bachche ko sula rahi thi, param aadar ke sath kabhi use aadar, pyar, sohag se bechain kar deti to kabhi use hirdai se lagati, munh chumne lagti wo bhool baithi thi pati ke astitw ko jo ki kuch hi door aram kursi par adhlete hue nari hirdai ki mamta ki pyas ko, matritw ki wubhuksha ko aplak netron se dekh raha tha uski drishti jiwant wismay se wimuDh ho rahi thi muqadme ke kaghaz waise hi idhar udhar paDe the, us or dhyan dene yogya us samay uske man ki sthiti nahin thi
aj achanak nahin, parantu kai dinon se keshaw shayad apni bhool kuch kuch samajh raha tha ek anjan dard, ek aprichit prabhaw se ye kabhi bechain ho jata, cheshta karne par uski samajh mein baat nahin aati ki wo wyatha, wo abhaw kis liye aur kyon hai? wo anjan sa bana rahta
patni ka deergh shwas, kutte ke prati uski wo lalayit drishti keshaw ke antar ke kisi gopaniy ansh mein aghat kar baithi, juhi ki jhaDi ankhon ke samne se hat gai, moti jaise phool bikhar gaye gat diwas ke we rangile drishya chal chitr ke saman samne aD gaye, jahan ki ek nari roop, roop gandh poorn apne sugthit yauwan ki madira bhare kalash ko lekar usi ke pair tale baithi warshon winidr rajni bita diya karti thi, nari roop upasak ke pairon mein apne shreshth matritw tak ko nyochhawar karne mein jisne wichar tak nahin kiya tha, pati ki tushti ke liye jiske nayan, pratyek rom sada khushi ki warsha kiya karte the, nutanatw wihin sampurn luti hui nari wo yahi hai bahari jagat ke teewr akarshan, karoDon kamon mein piskar jise ki aaj basi mala ki tarah door phenk dena paDa hai, wo dusri nahin—yahi hai—yahi, yahi jise ki aaj is wilasita ke andar tapaswini gauri ki tarah jagte hi raat bitani paD rahi hai, kutton aur billi ke bachchon ko lekar man ki pyas—keshaw jabran hi hans paDa apne aapko Dantane laga—yah sab wo kya soch raha tha? wo ashchary mein tha ki aise wichar uske man mein uthe hi kyon?
us hansi se sahana chauki—abhi sooge? batti bujha doon?
nahin, abhi kaghaz dekhana hai
kya raat bhar kaam hi karte rahoge? do baj rahe hain
kintu abhi tak to tumhare khel ko dekh raha tha buDhape mein kutton ke pillon se khelte tumhein sharm nahin aati, log kahenge kya?
sahana ne sahmi hui ankhen uthai—uski man mar gai hai, bachcha din raat roya karta hai ansu chhipane ke liye sahana ne dusri or munh pher liya
ek din marna to sabko hai; phir kutte billi ke liye yadi sabhi ansu baha dogi to mere liye bachega kya?
tum phir wahi baten karte ho usne abhiman se munh pher liya bahut dinon ke baad pati ke munh se usi bhule se parihas ko sunkar wo wismit ho rahi thi gat prem ke dinon ka jiwan hi kitna tha? boond bhar os, jugunu ki diwat, phool ki pankhuDi ki tarah chhote, bahut hi chhote din, kintu un chhote dinon ki wo prem smriti sahana ke nikat amar aur awinashi thi
bahut dinon ke baad usne dhire se kaha
main un baton ko bhula nahin hoon sahana kintu main kabhi ashchary karta hoon, sochta rahta hoon ki jis antar mein kabhi din raat prem pyar ki pukar utha karti thi, aaj cheshta karne par bhi kyon nahin uthti? shayad mera yauwan mar chuka ho keshaw ka swar dard se bhara hua tha sahana hansi, us hansi ki jati hi nirali thi
(do)
puja ke kamre mein aaj se tum mat jana dulhin sahana ki sas narmada ne kaha
phool chunte chunte wo ruki—kyon ammaji?
sabere halku ko doodh nahin pila rahi thee?
wo ro raha tha
sais ka laDka roe ya mare, apne ko kya? baDe ghar mein i ho, zat pat ka bhi to kuch wichar kiya karo kahan wo jaiswara aur kahan hum brahman! kutte billi din bhar liye rahti ho, mere hazar sar pitne par bhi manti nahin din par din tum hathi hoti jati ho aisa anachar main sah nahin sakti hoon
uttar dene ke liye sahana ke kanth mein shabdon ki bheeD si lag gai kintu phir bhi uska uttar sankshipt hi hua—wah chhah mahine ka abodh shishu hai ammaji! marte waqt dukhiya bachcha mujhe saump gai thi
aj jaiswara to kal mehtar ke bachche ko utha lana mere rahte is ghar mein tera adhikar hi kaun sa hai? mere mat wiruddh yahan koi kaam nahin ho sakta hai use abhi door kar de grihinai jhunjhla paDi
nahin
kya nahin?
nahin
narmada ke chillane se keshaw bhitar aa gaya—kya hai?
bhaiya, mujhe tu kashi pahuncha de
kyon man?
kyonki main naukarani bankar nahin rah sakti hoon tumhin se puchhti hun—ghar ki malkin bahu hai ya main?
keshaw ko chup rahte dekhkar mata jal uthi—kaho, main tumse sunna chahti hoon —mata ne apna parashn duhraya
tumhare rahte hue to dusri koi malkin ban nahin sakti parantu use bhi tumhin lai ho aur adhikar bhi diya hai
keshaw ki puri baten sunne ka dhiraj us samay grihinai mein tha nahin narmada ne kaha—to tumhare raj mein aaj kya chamar bhangi ke sath baithkar khana paDega?
aisa karne ko tumse kisne kaha?
tumhari patni ne sawere se dukhiya ke laDke ko utha lai hai—kahti hai use rakhungi
kya ye sach hai?
han! uski man mujhe saump gai hai
kintu wo jaiswara ka laDka hai is ghar mein uski jagah kaise ho sakti hai sahana?
jaiswar ke ghar mein janm lena kya uska apradh hai?
uttar diya narmada ne upar se lagi jawab sawal karne! teri himmat dekh dekhkar main awak hoti hoon dusri sas hoti to tujh jaisi banjh ka munh bhi na dekhti
wyatha se uska chehra pila paD gaya apne ko sanbhalakar sahana ne kaha—main aap se nahin, unse puchhti hoon ki yadi aatma amar hai, ishwar ka ansh hai aur sabhi mein usi ek pawan aatma ka parkash hai to ye chhuachhut ka parashn utha hi kyon aur kaise?
lokachar hai samaj ka niyam hai jab ki usi samaj mein hamein rahna hai, tab uske niymon ko manna bhi jaruri baat hai
main kab kahti hoon ki tum nirale samaj mein chale jao kintu purane ki mahima mein mugdh hokar uske kichaD ko sanduq mein bharkar rakhne mein koi paurush, koi shlagha nahin hai prakrti ke niyam se nit nai wastu banti aur mitti hai purane mein jo mili wastu hai uska samman aur rakhsha hum awashy hi karenge parantu bure ko sada tyagne ke sahas ki kami hammen kabhi na ho, ye pararthna main ishwar se kiya karti hoon
to tum is niyam ko kharab kahti ho?
hazar bar adami adami ko ghrina karega, ye niri paheli hi nahin apradh bhi hai
main ghrina ki baat nahin kahta, kewal man ke samman ke liye tum bachche ko hata do sahana! wo Dar raha tha kyonki swadhin swbhaw ki patni ko wo bhali bhanti pahchanta tha nahin kuch der sochne ke baad usne kaha—nahin, ye asambhaw hai, tumhare aur man ke santosh samman ke liye apne paran nyochhawar kar sakti hoon par dusre ke nahin aur na us wachan ko toD hi sakti hoon jo ki uski maran sej par main de chuki hoon
sahana, aaj is jiwan ke ant mein tum mujhse kya sunna, kya kahna chahti ho?
kuch bhi nahin usne balak ko chhati se laga liya jate samay kahti gai—bachcha bhukha hai ise doodh pilakar phir tumhari baten sunungi
mata putr stambhit se khaDe rah gaye
(teen)
sahana, almari ki chabhi dena, kaghaz nikalna hai mandir ke dwar par keshaw ne pukara
katore mein chandan ponchhkar shila lauti ek dusre ki or dekhne lage un drishtiyon mein parashn tha—tum kaun ho, kahan se aaye?
usi din se sahana ka mandir mein jana tatha rasoi aadi mein jana—narmada dewi ne band kar diya tha ye baten keshaw janta nahin tha, aisa nahin kadachit abhyasawash phir bhi wo us din mandir dwar par khaDa ho gaya use smarn ho paya ki raat mein isi shila ki baat sahana kah rahi thi wo narmada ki anath gyati kanya thi, awiwahita thi narmada ne use bula liya tha!
chabhi to mere pas nahin hai main shila hoon kal yahan i hoon
is tarunai ki sankochhin baton se keshaw kam wismit na hua wo un aayat naynon ke samne sankuchit ho raha tha bola—achchha to main jata hoon kisi tarah itna kahkar wo bhaga
bhojan ke aasan par baithkar keshaw wirakti se yahan wahan niharne laga shila thali aur katoron ko rakhkar pankhe se makkhi bhagane lagi rasoi brahman banata tha kintu bhojan ke samay sahana samne baithti thi do chaar tarkariyan bhi pati ke liye apne hath se banaya karti thi, parantu halku ke aane ke baad se grihinai use door rakhkar swayan un kamon ko kar liya karti thi aur aaj unhonne shila ko apna sthan saump diya tha
keshaw, karele kaise bane hain? mata samne aakar khaDi ho gai
achchhe
shila ne banaye hain baDi kaam ki laDki hai aur waisi hi namr shant bhi hai main jis kaam ko kah deti hoon use ji kholkar karti hai aalu ke baDe bhi usi ne banaye hain, achchhe bane hain n?
han
kyon jhooth bolte hain! aapne unhen chhua tak nahin —shila hans paDi
aprastut hone ke sath hi sath shila ke saral wywahar se keshaw santusht bhi hua
shila sach kah rahi hai bhaiya! tumne to aaj kuch nahin khaya
kharab bana hoga
nahin nahin, sab chizen achchhi bani hain bhookh nahin hai
phir bhi aap jhooth kahte hain main kahti hoon mausi, bhauji ko bula lo, abhi ye bharpet bhojan kar lenge
is tarunai ki munh par sach kahne ki shakti ko dekhkar keshaw man mein uski prshansa karne laga
aisa to nahin ho sakta shila ki mere jite ji ghar mein bhangi basoron ka niwas ho jaye bahu ghar ki lakshmi kahlati hai, wahi yadi anachar karne lage to us ghar ki bhalai kab tak ho sakti hai! ek to is wansh ka hi nash hone baitha hai ek bachcha tak nahin hua wansh rakhsha karna ek zaruri baat hai kintu koi sunta hi nahin mujhe to aisa lagta hai ki apne hathon apna sar peet loon
ek anjan ke samne in baton ki awtarna se keshaw chiDh raha tha, phir bhi usne hansakar kaha—to apna sar pitkar hi dekh lo
kya dant nikalte ho bhaiya, mera to ji jala jata hai usi ki baat sab kuch ho gai aur meri baat ko koi puchhta tak nahin
aisa to nahin hai man!
phir tu byah kyon nahin karta?
wiwahit hoon
isse kya hua wansh rakhsha ke liye log jane kitne wiwah karte hain kintu idhar to usne saugandh rakha di hai; man ki saugandh ko kaun manata hai
usne mujhse kabhi kuch nahin kaha, ye wichar tumhara ghalat hai uska mat chhota nahin hai, man! wo tumhare wiruddh kabhi kuch kahti nahin
are, main sab kuch janti hoon! aaj wahi to teri sab kuch hai ek din wo tha jab ki is buDhiya ke bina tera din katna mushkil tha teri ankhon ke samne wo teri hi man ka apman kare? ek jaisware ke laDke ko ghar mein rakhe, din bhar god mein liye rahe aur tu aurton jaisa dekhta rahe dhikkar hai aisi zindagi par!
keshaw aasan par se uth paDa
tumne aisa kyon kaha mausi, unhonne khaya tak nahin
kya main chupchap ye sab sah loon?
kintu tumne mere samne kyon kaha? yahi baat unhen buri lagi
tumse sach kahti hoon shila, keshaw aisa nahin tha bahu ne us par jadu kiya hai
is bar ‘shila apni hansi na rok saki wo hanste hanste lotne lagi
tu hansti kyon hai? ismen hansne ki kaun si baat hai?
tum andher karti ho mausi, bhala jadu bhi koi cheez hai? phir bhauji ke liye to aise wichar bhi nahin uth sakte unki batachit ki riti, unki shiksha hi nirale Dhang ki hai we hazaron mein ek istri hain
tu bhi aisa kahti hai, shila! main tujhe apna samjhe hue thi mera bhagya hi aisa hai
shila narmada ke gale se lipat gai—naraz ho gai mausi?
(chaar)
mallar ragini ka alap liye warsha tab prithwi ke sirhane utar i thi ghar dwar, taru pallwon mein uske pairon ki hariyali chhap paDne lag gai thi us hariyali ne buDhe bat ke niras hirdai tak ko sajiwata ke sath hi sath raspurn bhi kar diya tha warsha ki is alsai hui sandhya ne keshaw ke nidralu chitt mein nawinata ka mohak mantr phoonk diya wo dhire dhire sahana ke kamre ki or baDha bahut dinon ke baad dwar ko aur peeth kiye wo aine ke samne khaDi balon ko sanwar rahi thi balon ke guchchhe kamar par lahra rahe the saDi ka anchal zamin par lot raha tha uske othon par halki si muskan thirak rahi thi—wahi roop yauwan ki muskan
sahana! uski peeth par hath rakhkar pyar se keshaw ne pukara
ap? chanchal harini ki tarah wo lautkar khaDi ho gai
tum to shila ho! sahana—meri sahana ko tum logon ne kahan bhaga diya?
mainne! kintu dusre pal shila sahamkar bolin—we to ghar hi hain, niche kuch kar rahi hain
phir tum uske kamre mein usi ki tarah is aine ke samne kyon khaDi thee?
shila ke liye ye ek adbhut parashn to tha hi aur jo kuch tha wo tha apman aur tiraskar phir bhi uski shiksha ne use aape se bahar hone se roka kaun si bhayanak sthiti ne keshaw jaise gambhir prakrti ke manushya ko is tarah wichlit kar diya hai?—is baat ko sochkar shila sihar uthi wo hat gai
keshaw patni ke samne jakar khaDa ho gaya—ek deergh shwas ki tarah—kahan thi tum?
sahana jaldi se halku ke un nannhe pyare hathon ko chhoDkar zara hat i wo janti thi ki usi dukhi, asahaye shishu ko lekar uski grihasthi mein kaisa tufan utha hua hai
tum mere sath sath raha karo sahana
pati ki un wyakul banhon mein apne ko saumpkar wo uska munh niharne lagi samudr sa athah wismay uske samne tha bachcha rone laga itni der ke baad keshaw ki drishti halku par paDi—isi ke liye aaj tum mujhe bhool rahi ho? meri ye dasha ho rahi hai sare anisht ki jaD yahi hai achchha thahro! keshaw ne balak ko utha liya shayad use phenkna chahta ho
unmadini ki bhanti sahana ne balak ko chheen liya apni chhati se use lagakar hanphane lagi
use de do sahana, warna aaj mujhe kathor bartaw karna paDega
nahin, nahin, mere bachche ka khoon mat karo pahle mujhe mar Dalo wo bachche ko god mein lekar zamin par baith gai
keshaw ko zid si ho gai—main use lekar hi chhoDunga wo use chhinna chahne laga sahsa uski ankhen sahana ki ankhon se mil gai! sahana ki us drishti ko wo sah na saka—yah kaisi rikt, sarwshat drishti hai? keshaw sihar utha uske hath apne aap ruk gaye hirdai mein prashnon ki jhaDi si lag gai—wah jo gatyauwna, rupawti nari mard ke roop ki pyas bujhane ke liye aaj sab kuch kho baithi hai, uske jiwan ke lambe din kya yoon hi deergh shwas ki nain chhote se pal mein uD jayenge? anau parmanau mata hone ke liye srije gaye the, use byarth karne ka adhikar duniya mein kisi ko bhi tha? shayad jiwan ke arambh mein wo pawan deep jalaye santan ki pratiksha mein baithi thi uski us pratiksha ko nishphal kisne kiya? pati ke abhiman se andha bankar uske shuddh sundar matritw ko chheen lene wala wo rakshas kaun tha? kathor tapasya shesh kar jiwan ki sandhya wela mein jo ramni bhikharin ki tarah santan ki bheekh mang rahi hai, uski bhiksha ki jholi aaj wo kis cheez se bharega?
mata ki us marubhumi ki si tirishna ko wo kis tarah tript karega? uski us zara si shanti, santosh us abhage bachche ko chhinkar kya patipuja ka puraskar wo isi tarah dega? keshaw ki chinta mein badha paDi sahana ne bachche ko uske pair tale Dal diya—lo, lete jao, aaj main ise tumhin ki saumpti hoon donon hathon se sahana ne apna munh Dhanp liya keshaw ne ek bar patni ki or aur dusri bar bachche ko dekha, phir halku ko dhire se uthakar sahana ki god mein Dal diya
(panch)
jis din us balak ka ant ho gaya us din sahana ki ankhon mein pani ki ek chhoti si boond tak nahin thi din ek sa bahne laga, sahana ka antar ka pariwartan bahari jagat se chhipa hi rah gaya, shayad jiwan bhar ke liye ye sab kamon mein yog deti aur pati se hansakar baten bhi karti, kewal din mein ek bar wo us nannhe bachche ke chitr ko ankhon se laga deti
jis din uski wo chori pakDi gai, us din keshaw ne wirakt hokar kaha—buDhape mein kya tum pagal ho jaogi? dhumaketu yadi mara bhi to nishani chhoD gaya
chhih! mare hue ka zara sa samman karna sikho uski bhi aatma thi sahana ke kanth mein tiraskar tha
aisa! to us kamine ke liye ansu bhi bahana paDega?
phir isse tum chhote na ho jaoge
aur kutte billi ke liye kis din ansu bahana hoga so bhi kah do
sahana ne uttar nahin diya in baton ka wo jawab hi kya deti?
ab jawab kyon nahin deti?
kya in baton ka uttar bhi dena hai? aur mujhi ko
un shabdon mein kaun si sammohani bhari thi so to keshaw hi jane, kintu iske baad mare lajja ke uski ankhen jhuk gain pichhli baton ke smarn se shayad uske man mein anutap ki chhaya si paDi, kintu dusre kshan wo balat hi aswikar karne laga—wah to honhar tha
jhooth se samjhauta karte karte log apne jiwan ki na jane kitni anmol wastuon ko kho baithte hain aur shayad isi se keshaw phir mithya se samjhauta karne lag gaya
tum baithi photo dekhti raho aur main bhukha pyasa baitha tumhara munh niharta rahun yahi kahna chahti ho n?
main tumse kuch bhi kahna nahin chahti bhojan kar lo
dhanyawad! itni der ke baad yaad to aaya
wo kah sakti thi ki ajkal bhojan chhune ka adhikar use nahin hai kah sakti thi ab uske badle shila un kamon ko kiya karti hai parantu nahin, usne kaha kuch nahin chupke se bahar nikal gai
aiye—shila ne pukara
keshaw ke kanon mein amrit ki warsha ho gai—kaisi dard bhari pukar hai—man mein kaha keshaw ne
asan ke aage mithai ki rakabi rakhe baithi thi shila—usi ki pratiksha mein keshaw ka antar bahar anand, santosh se bhar utha sare din parishram ke baad ghar mein bhi shanti nahin milti thi us tarunai ki sewa, sahanubhuti se keshaw bichhuDe hue dinon ki usi khushi ke samundar mein lahrane lagta tha thoDi der ke liye
garam garam kachauDi rakabi mein Dalkar shila ne kaha—inmen se ek bhi na bache warna danD bhugatna paDega
keshaw ne shila ki or dekha—us tarunai ke sare angon se khushi ka jharna sa jharta paya
kaun si saza milegi shila? kautuk se keshaw ne puchha
phir itni hi kachauDiyan aur khani paDengi
yadi na kha sakun?
to isi tarah raat bhar baithe rahna paDega
tum mere samne rahogi na shila?
jaiye! ye mithe shabd bahut hi mithe Dhang se kahe gaye
keshaw chaunk paDa aur uske baad wo ekdam uthkar bhaga chor ki tarah
akul wismay se shila use niharti hi rah gai
****
sahana ne dhire se pati ke sir par hath phera, puchha—is samay tum soe kyon? ji kharab to nahin hai?
sahana, tumhin meri sahdharminai ho aur tum hi rahogi donon hathon se sahana ka hath pakaDkar wo bar bar kahne laga
sahana dhire dhire uske sir par hath pherne lagi
kya we purane din nahin laut sakte, sahana?
sahana ka hirdai wyatha se wikal ho paDa
kaho sahana, jawab do
tumhare dard ko main aur baDhana nahin chahti
samjha nahin—keshaw ne kaha
tum zara chupchap so jao, ji theek ho jayega
nahin, nahin, mujhe kahne do, sahana—sahana—
main janti hoon
tum! tum janti ho! kya janti ho? wirat wismay se keshaw ki ankhen wispharit ho rahi thi
sab baton ko kintu tumhare munh se sunna nahin chahti wo hansi
keshaw ka sir apne aap jhuk gaya
kab se janti ho?—der ke baad keshaw ne puchha
bahut dinon se
tumne mujhe sawdhan kyon na kiya? mujhe apni baton se kheench kyon na liya?
jabran bhee? kintu nahin; main aisa nahin kar sakti thi waisi bheekh ki jholi se main ghrina karti hun—antrik ghrina prem pyar aadar ki wastu zarur hai, parantu mangne ki nahin uske liye dusre se jhagaDna, chhi chhi!
sahana ghrina se sihar uthi
tum patthar ki bani ho sahana
hoga bhi —udar swar se usne kaha!
apna adhikar main is awhelana se nahin chhoD sakta tha
awhelana? nahin, ghrina kah sakte ho main kahti theen, ye sab baten tabhi hath sakti hain jab ki adhikar ko koi chhoD deta!
phir ye kya hai?
jo prem ek bar kisi ke dwar par lut chuka tha, wahi prem aaj prtarak ki tarah dusre ke dwar par jhankne lage to uske liye sir ki zarurat nahin hai adhikar man ki cheez hai prem ke usko chheen lene ki shakti widhata ko bhi nahin hai, phir hum to adami hi thahre sahana uthi—ab main jati hoon, kaam paDa hai
(chhः)
kaam karte karte shishu kanth ke mithe geet se anamni si sahana dwar par aakar khaDi ho gai
geet ga gakar nannhe nannhe bachche desh ke liye bheekh mang rahe the sahana palakhin netron se unhen dekhne lagi
mataji! ek ne pukara
in jholiyon mein kuch Dal do mataji! dusra bola
sahana ne ek sundar shishu ko gale se laga liya, boli—kya kaha bhaiya, phir kahna
in jholiyon mein kuch Dal dijiye
nahin nahin, usi tarah phir pukaro
mataji!
aur chhote shabdon mein
man
phir pukaro!
man man!
wo kan lagakar sunne lagi man man! ek swapn sa ankhon mein chha gaya—jaise ki usne apne hirdai ke khun—us pyare bachche ko desh ke kaam mein saump diya ho sahana dekhne lagi—uske us desh sewa ke shreshth dan se, us drishtant se pratyek mata ne apni godi khali kar di wo wismay ke sath dekhne lagi—jal, wayu, akash shishuon se chha raha hai, til barabar bhi kahin sthan nahin hai ye kaisa wirat roop hai! wo kah uthi
sahana!—pati ki pukar se wo swapn lok se lauti
usne uttar diya—han
us drishti ko keshaw sah na saka wo kis uddeshy se kiske pas aaya hai?—uski chinta wikal ho paDi—man se aaj wo preyasi ko mang raha hai? grihinai ke naynon mein wo tarunai ki pyas ko dekhana chahta hai? sewika se wo sohag mangta hai? han itne dinon ke baad keshaw samajh hi na saka ki usi ke anadar, awhelana se uski preyasi mar chuki thi—bahut din pahle aur usi nari ke bhitar ab jo kuch tha—yah tha kewal man ka gambhir sneh aur samundar sa pyar
kuch wicharta hua keshaw shila ke nikat aakar khaDa ho gaya
aiye bhookh lagi hai kya?—nadi ke se taral swar se usne puchha
keshaw mugdh wismay se use niharne laga aur drishti ke aage shila khilkhila paDi
main tumhin ko DhoonDh raha tha shila keshaw ka swar mridu tha
narmada ne pukara—bhaiya, zara sun jana!
raat mein sahana ne keshaw ke kaghzon ko hatakar kisi prakar ki bhumika ke bina hi kaha—shadi ke liye aur taiyariyan to mainne kar li hain, kewal gahne tum banwa dena
kiski shadi?
shila ki
war kahan mila? uska kanth kanp raha tha
kuch der tak pati ke munh ki or dekhkar sahana ne uttar diya—wah ghar hi mein hai
aur mainne use nahin dekha?
mainne jab dekha hai, tab tum bhi dekh chuke ho!
yani?
tum ho!
main, main! wo pichhe hata
han, tum!
ye dillgi achchhi nahin lagti, sahana
dillgi nahin, sach hi kahti hoon isi pandrah tarikh ko shadi hogi
asambhaw hai
aisa mat kaho—sabhi taiyariyan ho chuki hain
aisa tumne kyon kiya sahana?
kyonki iski zarurat thi
phir bhi ye nahin ho sakta hai isse na to meri hi bhalai hai aur na tumhari kisi ke liye kabhi bhi main tumhein duःkh nahin de sakta
tum bhool rahe ho, tumhare sukh ke liye main sab kuch sah sakti hoon, wisheshatः mere us gat anand ki smriti ko duःkh ki shikha jala nahin sakti hai, tum wishwas rakho
kintu main tumhin se puchhta hoon ki tum jaisi istri rahte hue bhi main wiwah karun hi kyon?
apne man se puchho wo hansti thi
main na to kuch sunna chahta hoon aur na kuch puchhna, kintu ye wiwah ho nahin sakta sach kah raha hoon war ke liye sochne ki awashyakta nahin hai, usi din war tumhein mil jayega
shila ne pukara—bhauji, chay taiyar hai keshaw ne sir nicha kar liya, aaj wo us or dekh tak nahin sakta tha
(sat)
us dhani pariwar ke naukron se lekar malik tak us din wyast the bahar se shahnai madhur swar se milan geet alap rahi thi galiyon mein chadar bichh rahi thi pani ke matkon mein gulab jal milaya ja raha tha baDi baDi kaDhaiyon mein shak bhaji ban rahi thi halwai mithai bana banakar buDhe puranon ko chakha rahe the sahana aur keshaw ghoom ghumkar sab wyawastha kar rahe the shila ki shadi thi, ek dhani war ke sath bachche angan mein dhoom macha rahe the
chahun or ke us anand ke bhitar lahrati hui nadi ki bhanti shila hans hans apni sakhi saheliyon se mil rahi thi—striyon ke beech mein uski samalochana ho rahi thi kaisi behaya hai! bahan, ajkal ki laDkiyan aisi hi hoti hain buDhi ho jati hain tab kahin dulha milta hai, isliye we apne anand ko chhipa nahin saktin
shila ne ek istri ko chihunti le li
dulha ko chihunti le jakar, mujhe nahin istri ne kaha
unhen to raat mein lungi
kaisi behaya hai tu shila! tujhe lajja haya kuch bhi nahin
istri ki bhauhen chaDh gain jise dekhkar shila khilakhilakar hansne lagi chalte chalte keshaw lauta pal bhar ke liye us khushi ki diwali ki or usne dekha, phir kaam mein Doob sa gaya kewal sahana us hansi ko sunkar sihar uthi
sandhya samay banaw shringar shesh kar shila dabe panwon us dwar ke bahar jakar khaDi ho gai jahan ki keshaw dwar ki or peeth kiye chupchap khaDa kuch wichar raha tha wo kuch der tak khaDi use dekhti rahi, iske baad usne wahin se keshaw ko parnam kiya keshaw lauta, usne dekha ek chhaya samne se hat rahi hai
wyatha ke sath keshaw ne pukara—shila! parantu uttar na mila!
bhram tha! deergh shwas ke sath ye shabd uske kanth se nikle
baDi dhoom se barat i kanyadan ke samay shila ko log DhunDhane lage kintu uska pata kahin bhi na tha ghar, dwar, har ek sanduq dekhi gai, shila na mili
do boond ansu ponchhkar sahana ne akhbar mein wigyapan diya—shila, tum laut aao, is ghar mein tumhara niradar na hoga
koi barah baj chuke the duniya ke parde se swapn ki rani jhank rahi thi—wijeta ki bhanti, uske nupur ke milan geet se prithwi murchhit si hoti jati thi
wakil keshaw ke us baDe makan ke sabhi kamron ki battiyan bujh chuki theen, kewal sahana ka kamra tab bhi bijli shikha se ujjwal ho raha tha makhmal ke coach par kutte ke bachche ko liye wo baithi thi palang ke safed resham ke bistar ko kisi ne chhua tak nahin tha, guldaston ke phulon ki mithi sugandh se kamre ki hawa wyakul ho rahi thi, gulab jal se base pan ke biDe anadar se rakabi par hi sookh rahe the, diwal par ke oil penting chitron ke niche ki deep shikhayen us gahri raat mein kuch mlan si ho rahi thi, shayad neend se unki ankhen bhi alsa rahi hon, kintu uski palkon mein neend ki ek halki si chhaya bhi na thi wo us bachche ko sula rahi thi, param aadar ke sath kabhi use aadar, pyar, sohag se bechain kar deti to kabhi use hirdai se lagati, munh chumne lagti wo bhool baithi thi pati ke astitw ko jo ki kuch hi door aram kursi par adhlete hue nari hirdai ki mamta ki pyas ko, matritw ki wubhuksha ko aplak netron se dekh raha tha uski drishti jiwant wismay se wimuDh ho rahi thi muqadme ke kaghaz waise hi idhar udhar paDe the, us or dhyan dene yogya us samay uske man ki sthiti nahin thi
aj achanak nahin, parantu kai dinon se keshaw shayad apni bhool kuch kuch samajh raha tha ek anjan dard, ek aprichit prabhaw se ye kabhi bechain ho jata, cheshta karne par uski samajh mein baat nahin aati ki wo wyatha, wo abhaw kis liye aur kyon hai? wo anjan sa bana rahta
patni ka deergh shwas, kutte ke prati uski wo lalayit drishti keshaw ke antar ke kisi gopaniy ansh mein aghat kar baithi, juhi ki jhaDi ankhon ke samne se hat gai, moti jaise phool bikhar gaye gat diwas ke we rangile drishya chal chitr ke saman samne aD gaye, jahan ki ek nari roop, roop gandh poorn apne sugthit yauwan ki madira bhare kalash ko lekar usi ke pair tale baithi warshon winidr rajni bita diya karti thi, nari roop upasak ke pairon mein apne shreshth matritw tak ko nyochhawar karne mein jisne wichar tak nahin kiya tha, pati ki tushti ke liye jiske nayan, pratyek rom sada khushi ki warsha kiya karte the, nutanatw wihin sampurn luti hui nari wo yahi hai bahari jagat ke teewr akarshan, karoDon kamon mein piskar jise ki aaj basi mala ki tarah door phenk dena paDa hai, wo dusri nahin—yahi hai—yahi, yahi jise ki aaj is wilasita ke andar tapaswini gauri ki tarah jagte hi raat bitani paD rahi hai, kutton aur billi ke bachchon ko lekar man ki pyas—keshaw jabran hi hans paDa apne aapko Dantane laga—yah sab wo kya soch raha tha? wo ashchary mein tha ki aise wichar uske man mein uthe hi kyon?
us hansi se sahana chauki—abhi sooge? batti bujha doon?
nahin, abhi kaghaz dekhana hai
kya raat bhar kaam hi karte rahoge? do baj rahe hain
kintu abhi tak to tumhare khel ko dekh raha tha buDhape mein kutton ke pillon se khelte tumhein sharm nahin aati, log kahenge kya?
sahana ne sahmi hui ankhen uthai—uski man mar gai hai, bachcha din raat roya karta hai ansu chhipane ke liye sahana ne dusri or munh pher liya
ek din marna to sabko hai; phir kutte billi ke liye yadi sabhi ansu baha dogi to mere liye bachega kya?
tum phir wahi baten karte ho usne abhiman se munh pher liya bahut dinon ke baad pati ke munh se usi bhule se parihas ko sunkar wo wismit ho rahi thi gat prem ke dinon ka jiwan hi kitna tha? boond bhar os, jugunu ki diwat, phool ki pankhuDi ki tarah chhote, bahut hi chhote din, kintu un chhote dinon ki wo prem smriti sahana ke nikat amar aur awinashi thi
bahut dinon ke baad usne dhire se kaha
main un baton ko bhula nahin hoon sahana kintu main kabhi ashchary karta hoon, sochta rahta hoon ki jis antar mein kabhi din raat prem pyar ki pukar utha karti thi, aaj cheshta karne par bhi kyon nahin uthti? shayad mera yauwan mar chuka ho keshaw ka swar dard se bhara hua tha sahana hansi, us hansi ki jati hi nirali thi
(do)
puja ke kamre mein aaj se tum mat jana dulhin sahana ki sas narmada ne kaha
phool chunte chunte wo ruki—kyon ammaji?
sabere halku ko doodh nahin pila rahi thee?
wo ro raha tha
sais ka laDka roe ya mare, apne ko kya? baDe ghar mein i ho, zat pat ka bhi to kuch wichar kiya karo kahan wo jaiswara aur kahan hum brahman! kutte billi din bhar liye rahti ho, mere hazar sar pitne par bhi manti nahin din par din tum hathi hoti jati ho aisa anachar main sah nahin sakti hoon
uttar dene ke liye sahana ke kanth mein shabdon ki bheeD si lag gai kintu phir bhi uska uttar sankshipt hi hua—wah chhah mahine ka abodh shishu hai ammaji! marte waqt dukhiya bachcha mujhe saump gai thi
aj jaiswara to kal mehtar ke bachche ko utha lana mere rahte is ghar mein tera adhikar hi kaun sa hai? mere mat wiruddh yahan koi kaam nahin ho sakta hai use abhi door kar de grihinai jhunjhla paDi
nahin
kya nahin?
nahin
narmada ke chillane se keshaw bhitar aa gaya—kya hai?
bhaiya, mujhe tu kashi pahuncha de
kyon man?
kyonki main naukarani bankar nahin rah sakti hoon tumhin se puchhti hun—ghar ki malkin bahu hai ya main?
keshaw ko chup rahte dekhkar mata jal uthi—kaho, main tumse sunna chahti hoon —mata ne apna parashn duhraya
tumhare rahte hue to dusri koi malkin ban nahin sakti parantu use bhi tumhin lai ho aur adhikar bhi diya hai
keshaw ki puri baten sunne ka dhiraj us samay grihinai mein tha nahin narmada ne kaha—to tumhare raj mein aaj kya chamar bhangi ke sath baithkar khana paDega?
aisa karne ko tumse kisne kaha?
tumhari patni ne sawere se dukhiya ke laDke ko utha lai hai—kahti hai use rakhungi
kya ye sach hai?
han! uski man mujhe saump gai hai
kintu wo jaiswara ka laDka hai is ghar mein uski jagah kaise ho sakti hai sahana?
jaiswar ke ghar mein janm lena kya uska apradh hai?
uttar diya narmada ne upar se lagi jawab sawal karne! teri himmat dekh dekhkar main awak hoti hoon dusri sas hoti to tujh jaisi banjh ka munh bhi na dekhti
wyatha se uska chehra pila paD gaya apne ko sanbhalakar sahana ne kaha—main aap se nahin, unse puchhti hoon ki yadi aatma amar hai, ishwar ka ansh hai aur sabhi mein usi ek pawan aatma ka parkash hai to ye chhuachhut ka parashn utha hi kyon aur kaise?
lokachar hai samaj ka niyam hai jab ki usi samaj mein hamein rahna hai, tab uske niymon ko manna bhi jaruri baat hai
main kab kahti hoon ki tum nirale samaj mein chale jao kintu purane ki mahima mein mugdh hokar uske kichaD ko sanduq mein bharkar rakhne mein koi paurush, koi shlagha nahin hai prakrti ke niyam se nit nai wastu banti aur mitti hai purane mein jo mili wastu hai uska samman aur rakhsha hum awashy hi karenge parantu bure ko sada tyagne ke sahas ki kami hammen kabhi na ho, ye pararthna main ishwar se kiya karti hoon
to tum is niyam ko kharab kahti ho?
hazar bar adami adami ko ghrina karega, ye niri paheli hi nahin apradh bhi hai
main ghrina ki baat nahin kahta, kewal man ke samman ke liye tum bachche ko hata do sahana! wo Dar raha tha kyonki swadhin swbhaw ki patni ko wo bhali bhanti pahchanta tha nahin kuch der sochne ke baad usne kaha—nahin, ye asambhaw hai, tumhare aur man ke santosh samman ke liye apne paran nyochhawar kar sakti hoon par dusre ke nahin aur na us wachan ko toD hi sakti hoon jo ki uski maran sej par main de chuki hoon
sahana, aaj is jiwan ke ant mein tum mujhse kya sunna, kya kahna chahti ho?
kuch bhi nahin usne balak ko chhati se laga liya jate samay kahti gai—bachcha bhukha hai ise doodh pilakar phir tumhari baten sunungi
mata putr stambhit se khaDe rah gaye
(teen)
sahana, almari ki chabhi dena, kaghaz nikalna hai mandir ke dwar par keshaw ne pukara
katore mein chandan ponchhkar shila lauti ek dusre ki or dekhne lage un drishtiyon mein parashn tha—tum kaun ho, kahan se aaye?
usi din se sahana ka mandir mein jana tatha rasoi aadi mein jana—narmada dewi ne band kar diya tha ye baten keshaw janta nahin tha, aisa nahin kadachit abhyasawash phir bhi wo us din mandir dwar par khaDa ho gaya use smarn ho paya ki raat mein isi shila ki baat sahana kah rahi thi wo narmada ki anath gyati kanya thi, awiwahita thi narmada ne use bula liya tha!
chabhi to mere pas nahin hai main shila hoon kal yahan i hoon
is tarunai ki sankochhin baton se keshaw kam wismit na hua wo un aayat naynon ke samne sankuchit ho raha tha bola—achchha to main jata hoon kisi tarah itna kahkar wo bhaga
bhojan ke aasan par baithkar keshaw wirakti se yahan wahan niharne laga shila thali aur katoron ko rakhkar pankhe se makkhi bhagane lagi rasoi brahman banata tha kintu bhojan ke samay sahana samne baithti thi do chaar tarkariyan bhi pati ke liye apne hath se banaya karti thi, parantu halku ke aane ke baad se grihinai use door rakhkar swayan un kamon ko kar liya karti thi aur aaj unhonne shila ko apna sthan saump diya tha
keshaw, karele kaise bane hain? mata samne aakar khaDi ho gai
achchhe
shila ne banaye hain baDi kaam ki laDki hai aur waisi hi namr shant bhi hai main jis kaam ko kah deti hoon use ji kholkar karti hai aalu ke baDe bhi usi ne banaye hain, achchhe bane hain n?
han
kyon jhooth bolte hain! aapne unhen chhua tak nahin —shila hans paDi
aprastut hone ke sath hi sath shila ke saral wywahar se keshaw santusht bhi hua
shila sach kah rahi hai bhaiya! tumne to aaj kuch nahin khaya
kharab bana hoga
nahin nahin, sab chizen achchhi bani hain bhookh nahin hai
phir bhi aap jhooth kahte hain main kahti hoon mausi, bhauji ko bula lo, abhi ye bharpet bhojan kar lenge
is tarunai ki munh par sach kahne ki shakti ko dekhkar keshaw man mein uski prshansa karne laga
aisa to nahin ho sakta shila ki mere jite ji ghar mein bhangi basoron ka niwas ho jaye bahu ghar ki lakshmi kahlati hai, wahi yadi anachar karne lage to us ghar ki bhalai kab tak ho sakti hai! ek to is wansh ka hi nash hone baitha hai ek bachcha tak nahin hua wansh rakhsha karna ek zaruri baat hai kintu koi sunta hi nahin mujhe to aisa lagta hai ki apne hathon apna sar peet loon
ek anjan ke samne in baton ki awtarna se keshaw chiDh raha tha, phir bhi usne hansakar kaha—to apna sar pitkar hi dekh lo
kya dant nikalte ho bhaiya, mera to ji jala jata hai usi ki baat sab kuch ho gai aur meri baat ko koi puchhta tak nahin
aisa to nahin hai man!
phir tu byah kyon nahin karta?
wiwahit hoon
isse kya hua wansh rakhsha ke liye log jane kitne wiwah karte hain kintu idhar to usne saugandh rakha di hai; man ki saugandh ko kaun manata hai
usne mujhse kabhi kuch nahin kaha, ye wichar tumhara ghalat hai uska mat chhota nahin hai, man! wo tumhare wiruddh kabhi kuch kahti nahin
are, main sab kuch janti hoon! aaj wahi to teri sab kuch hai ek din wo tha jab ki is buDhiya ke bina tera din katna mushkil tha teri ankhon ke samne wo teri hi man ka apman kare? ek jaisware ke laDke ko ghar mein rakhe, din bhar god mein liye rahe aur tu aurton jaisa dekhta rahe dhikkar hai aisi zindagi par!
keshaw aasan par se uth paDa
tumne aisa kyon kaha mausi, unhonne khaya tak nahin
kya main chupchap ye sab sah loon?
kintu tumne mere samne kyon kaha? yahi baat unhen buri lagi
tumse sach kahti hoon shila, keshaw aisa nahin tha bahu ne us par jadu kiya hai
is bar ‘shila apni hansi na rok saki wo hanste hanste lotne lagi
tu hansti kyon hai? ismen hansne ki kaun si baat hai?
tum andher karti ho mausi, bhala jadu bhi koi cheez hai? phir bhauji ke liye to aise wichar bhi nahin uth sakte unki batachit ki riti, unki shiksha hi nirale Dhang ki hai we hazaron mein ek istri hain
tu bhi aisa kahti hai, shila! main tujhe apna samjhe hue thi mera bhagya hi aisa hai
shila narmada ke gale se lipat gai—naraz ho gai mausi?
(chaar)
mallar ragini ka alap liye warsha tab prithwi ke sirhane utar i thi ghar dwar, taru pallwon mein uske pairon ki hariyali chhap paDne lag gai thi us hariyali ne buDhe bat ke niras hirdai tak ko sajiwata ke sath hi sath raspurn bhi kar diya tha warsha ki is alsai hui sandhya ne keshaw ke nidralu chitt mein nawinata ka mohak mantr phoonk diya wo dhire dhire sahana ke kamre ki or baDha bahut dinon ke baad dwar ko aur peeth kiye wo aine ke samne khaDi balon ko sanwar rahi thi balon ke guchchhe kamar par lahra rahe the saDi ka anchal zamin par lot raha tha uske othon par halki si muskan thirak rahi thi—wahi roop yauwan ki muskan
sahana! uski peeth par hath rakhkar pyar se keshaw ne pukara
ap? chanchal harini ki tarah wo lautkar khaDi ho gai
tum to shila ho! sahana—meri sahana ko tum logon ne kahan bhaga diya?
mainne! kintu dusre pal shila sahamkar bolin—we to ghar hi hain, niche kuch kar rahi hain
phir tum uske kamre mein usi ki tarah is aine ke samne kyon khaDi thee?
shila ke liye ye ek adbhut parashn to tha hi aur jo kuch tha wo tha apman aur tiraskar phir bhi uski shiksha ne use aape se bahar hone se roka kaun si bhayanak sthiti ne keshaw jaise gambhir prakrti ke manushya ko is tarah wichlit kar diya hai?—is baat ko sochkar shila sihar uthi wo hat gai
keshaw patni ke samne jakar khaDa ho gaya—ek deergh shwas ki tarah—kahan thi tum?
sahana jaldi se halku ke un nannhe pyare hathon ko chhoDkar zara hat i wo janti thi ki usi dukhi, asahaye shishu ko lekar uski grihasthi mein kaisa tufan utha hua hai
tum mere sath sath raha karo sahana
pati ki un wyakul banhon mein apne ko saumpkar wo uska munh niharne lagi samudr sa athah wismay uske samne tha bachcha rone laga itni der ke baad keshaw ki drishti halku par paDi—isi ke liye aaj tum mujhe bhool rahi ho? meri ye dasha ho rahi hai sare anisht ki jaD yahi hai achchha thahro! keshaw ne balak ko utha liya shayad use phenkna chahta ho
unmadini ki bhanti sahana ne balak ko chheen liya apni chhati se use lagakar hanphane lagi
use de do sahana, warna aaj mujhe kathor bartaw karna paDega
nahin, nahin, mere bachche ka khoon mat karo pahle mujhe mar Dalo wo bachche ko god mein lekar zamin par baith gai
keshaw ko zid si ho gai—main use lekar hi chhoDunga wo use chhinna chahne laga sahsa uski ankhen sahana ki ankhon se mil gai! sahana ki us drishti ko wo sah na saka—yah kaisi rikt, sarwshat drishti hai? keshaw sihar utha uske hath apne aap ruk gaye hirdai mein prashnon ki jhaDi si lag gai—wah jo gatyauwna, rupawti nari mard ke roop ki pyas bujhane ke liye aaj sab kuch kho baithi hai, uske jiwan ke lambe din kya yoon hi deergh shwas ki nain chhote se pal mein uD jayenge? anau parmanau mata hone ke liye srije gaye the, use byarth karne ka adhikar duniya mein kisi ko bhi tha? shayad jiwan ke arambh mein wo pawan deep jalaye santan ki pratiksha mein baithi thi uski us pratiksha ko nishphal kisne kiya? pati ke abhiman se andha bankar uske shuddh sundar matritw ko chheen lene wala wo rakshas kaun tha? kathor tapasya shesh kar jiwan ki sandhya wela mein jo ramni bhikharin ki tarah santan ki bheekh mang rahi hai, uski bhiksha ki jholi aaj wo kis cheez se bharega?
mata ki us marubhumi ki si tirishna ko wo kis tarah tript karega? uski us zara si shanti, santosh us abhage bachche ko chhinkar kya patipuja ka puraskar wo isi tarah dega? keshaw ki chinta mein badha paDi sahana ne bachche ko uske pair tale Dal diya—lo, lete jao, aaj main ise tumhin ki saumpti hoon donon hathon se sahana ne apna munh Dhanp liya keshaw ne ek bar patni ki or aur dusri bar bachche ko dekha, phir halku ko dhire se uthakar sahana ki god mein Dal diya
(panch)
jis din us balak ka ant ho gaya us din sahana ki ankhon mein pani ki ek chhoti si boond tak nahin thi din ek sa bahne laga, sahana ka antar ka pariwartan bahari jagat se chhipa hi rah gaya, shayad jiwan bhar ke liye ye sab kamon mein yog deti aur pati se hansakar baten bhi karti, kewal din mein ek bar wo us nannhe bachche ke chitr ko ankhon se laga deti
jis din uski wo chori pakDi gai, us din keshaw ne wirakt hokar kaha—buDhape mein kya tum pagal ho jaogi? dhumaketu yadi mara bhi to nishani chhoD gaya
chhih! mare hue ka zara sa samman karna sikho uski bhi aatma thi sahana ke kanth mein tiraskar tha
aisa! to us kamine ke liye ansu bhi bahana paDega?
phir isse tum chhote na ho jaoge
aur kutte billi ke liye kis din ansu bahana hoga so bhi kah do
sahana ne uttar nahin diya in baton ka wo jawab hi kya deti?
ab jawab kyon nahin deti?
kya in baton ka uttar bhi dena hai? aur mujhi ko
un shabdon mein kaun si sammohani bhari thi so to keshaw hi jane, kintu iske baad mare lajja ke uski ankhen jhuk gain pichhli baton ke smarn se shayad uske man mein anutap ki chhaya si paDi, kintu dusre kshan wo balat hi aswikar karne laga—wah to honhar tha
jhooth se samjhauta karte karte log apne jiwan ki na jane kitni anmol wastuon ko kho baithte hain aur shayad isi se keshaw phir mithya se samjhauta karne lag gaya
tum baithi photo dekhti raho aur main bhukha pyasa baitha tumhara munh niharta rahun yahi kahna chahti ho n?
main tumse kuch bhi kahna nahin chahti bhojan kar lo
dhanyawad! itni der ke baad yaad to aaya
wo kah sakti thi ki ajkal bhojan chhune ka adhikar use nahin hai kah sakti thi ab uske badle shila un kamon ko kiya karti hai parantu nahin, usne kaha kuch nahin chupke se bahar nikal gai
aiye—shila ne pukara
keshaw ke kanon mein amrit ki warsha ho gai—kaisi dard bhari pukar hai—man mein kaha keshaw ne
asan ke aage mithai ki rakabi rakhe baithi thi shila—usi ki pratiksha mein keshaw ka antar bahar anand, santosh se bhar utha sare din parishram ke baad ghar mein bhi shanti nahin milti thi us tarunai ki sewa, sahanubhuti se keshaw bichhuDe hue dinon ki usi khushi ke samundar mein lahrane lagta tha thoDi der ke liye
garam garam kachauDi rakabi mein Dalkar shila ne kaha—inmen se ek bhi na bache warna danD bhugatna paDega
keshaw ne shila ki or dekha—us tarunai ke sare angon se khushi ka jharna sa jharta paya
kaun si saza milegi shila? kautuk se keshaw ne puchha
phir itni hi kachauDiyan aur khani paDengi
yadi na kha sakun?
to isi tarah raat bhar baithe rahna paDega
tum mere samne rahogi na shila?
jaiye! ye mithe shabd bahut hi mithe Dhang se kahe gaye
keshaw chaunk paDa aur uske baad wo ekdam uthkar bhaga chor ki tarah
akul wismay se shila use niharti hi rah gai
****
sahana ne dhire se pati ke sir par hath phera, puchha—is samay tum soe kyon? ji kharab to nahin hai?
sahana, tumhin meri sahdharminai ho aur tum hi rahogi donon hathon se sahana ka hath pakaDkar wo bar bar kahne laga
sahana dhire dhire uske sir par hath pherne lagi
kya we purane din nahin laut sakte, sahana?
sahana ka hirdai wyatha se wikal ho paDa
kaho sahana, jawab do
tumhare dard ko main aur baDhana nahin chahti
samjha nahin—keshaw ne kaha
tum zara chupchap so jao, ji theek ho jayega
nahin, nahin, mujhe kahne do, sahana—sahana—
main janti hoon
tum! tum janti ho! kya janti ho? wirat wismay se keshaw ki ankhen wispharit ho rahi thi
sab baton ko kintu tumhare munh se sunna nahin chahti wo hansi
keshaw ka sir apne aap jhuk gaya
kab se janti ho?—der ke baad keshaw ne puchha
bahut dinon se
tumne mujhe sawdhan kyon na kiya? mujhe apni baton se kheench kyon na liya?
jabran bhee? kintu nahin; main aisa nahin kar sakti thi waisi bheekh ki jholi se main ghrina karti hun—antrik ghrina prem pyar aadar ki wastu zarur hai, parantu mangne ki nahin uske liye dusre se jhagaDna, chhi chhi!
sahana ghrina se sihar uthi
tum patthar ki bani ho sahana
hoga bhi —udar swar se usne kaha!
apna adhikar main is awhelana se nahin chhoD sakta tha
awhelana? nahin, ghrina kah sakte ho main kahti theen, ye sab baten tabhi hath sakti hain jab ki adhikar ko koi chhoD deta!
phir ye kya hai?
jo prem ek bar kisi ke dwar par lut chuka tha, wahi prem aaj prtarak ki tarah dusre ke dwar par jhankne lage to uske liye sir ki zarurat nahin hai adhikar man ki cheez hai prem ke usko chheen lene ki shakti widhata ko bhi nahin hai, phir hum to adami hi thahre sahana uthi—ab main jati hoon, kaam paDa hai
(chhः)
kaam karte karte shishu kanth ke mithe geet se anamni si sahana dwar par aakar khaDi ho gai
geet ga gakar nannhe nannhe bachche desh ke liye bheekh mang rahe the sahana palakhin netron se unhen dekhne lagi
mataji! ek ne pukara
in jholiyon mein kuch Dal do mataji! dusra bola
sahana ne ek sundar shishu ko gale se laga liya, boli—kya kaha bhaiya, phir kahna
in jholiyon mein kuch Dal dijiye
nahin nahin, usi tarah phir pukaro
mataji!
aur chhote shabdon mein
man
phir pukaro!
man man!
wo kan lagakar sunne lagi man man! ek swapn sa ankhon mein chha gaya—jaise ki usne apne hirdai ke khun—us pyare bachche ko desh ke kaam mein saump diya ho sahana dekhne lagi—uske us desh sewa ke shreshth dan se, us drishtant se pratyek mata ne apni godi khali kar di wo wismay ke sath dekhne lagi—jal, wayu, akash shishuon se chha raha hai, til barabar bhi kahin sthan nahin hai ye kaisa wirat roop hai! wo kah uthi
sahana!—pati ki pukar se wo swapn lok se lauti
usne uttar diya—han
us drishti ko keshaw sah na saka wo kis uddeshy se kiske pas aaya hai?—uski chinta wikal ho paDi—man se aaj wo preyasi ko mang raha hai? grihinai ke naynon mein wo tarunai ki pyas ko dekhana chahta hai? sewika se wo sohag mangta hai? han itne dinon ke baad keshaw samajh hi na saka ki usi ke anadar, awhelana se uski preyasi mar chuki thi—bahut din pahle aur usi nari ke bhitar ab jo kuch tha—yah tha kewal man ka gambhir sneh aur samundar sa pyar
kuch wicharta hua keshaw shila ke nikat aakar khaDa ho gaya
aiye bhookh lagi hai kya?—nadi ke se taral swar se usne puchha
keshaw mugdh wismay se use niharne laga aur drishti ke aage shila khilkhila paDi
main tumhin ko DhoonDh raha tha shila keshaw ka swar mridu tha
narmada ne pukara—bhaiya, zara sun jana!
raat mein sahana ne keshaw ke kaghzon ko hatakar kisi prakar ki bhumika ke bina hi kaha—shadi ke liye aur taiyariyan to mainne kar li hain, kewal gahne tum banwa dena
kiski shadi?
shila ki
war kahan mila? uska kanth kanp raha tha
kuch der tak pati ke munh ki or dekhkar sahana ne uttar diya—wah ghar hi mein hai
aur mainne use nahin dekha?
mainne jab dekha hai, tab tum bhi dekh chuke ho!
yani?
tum ho!
main, main! wo pichhe hata
han, tum!
ye dillgi achchhi nahin lagti, sahana
dillgi nahin, sach hi kahti hoon isi pandrah tarikh ko shadi hogi
asambhaw hai
aisa mat kaho—sabhi taiyariyan ho chuki hain
aisa tumne kyon kiya sahana?
kyonki iski zarurat thi
phir bhi ye nahin ho sakta hai isse na to meri hi bhalai hai aur na tumhari kisi ke liye kabhi bhi main tumhein duःkh nahin de sakta
tum bhool rahe ho, tumhare sukh ke liye main sab kuch sah sakti hoon, wisheshatः mere us gat anand ki smriti ko duःkh ki shikha jala nahin sakti hai, tum wishwas rakho
kintu main tumhin se puchhta hoon ki tum jaisi istri rahte hue bhi main wiwah karun hi kyon?
apne man se puchho wo hansti thi
main na to kuch sunna chahta hoon aur na kuch puchhna, kintu ye wiwah ho nahin sakta sach kah raha hoon war ke liye sochne ki awashyakta nahin hai, usi din war tumhein mil jayega
shila ne pukara—bhauji, chay taiyar hai keshaw ne sir nicha kar liya, aaj wo us or dekh tak nahin sakta tha
(sat)
us dhani pariwar ke naukron se lekar malik tak us din wyast the bahar se shahnai madhur swar se milan geet alap rahi thi galiyon mein chadar bichh rahi thi pani ke matkon mein gulab jal milaya ja raha tha baDi baDi kaDhaiyon mein shak bhaji ban rahi thi halwai mithai bana banakar buDhe puranon ko chakha rahe the sahana aur keshaw ghoom ghumkar sab wyawastha kar rahe the shila ki shadi thi, ek dhani war ke sath bachche angan mein dhoom macha rahe the
chahun or ke us anand ke bhitar lahrati hui nadi ki bhanti shila hans hans apni sakhi saheliyon se mil rahi thi—striyon ke beech mein uski samalochana ho rahi thi kaisi behaya hai! bahan, ajkal ki laDkiyan aisi hi hoti hain buDhi ho jati hain tab kahin dulha milta hai, isliye we apne anand ko chhipa nahin saktin
shila ne ek istri ko chihunti le li
dulha ko chihunti le jakar, mujhe nahin istri ne kaha
unhen to raat mein lungi
kaisi behaya hai tu shila! tujhe lajja haya kuch bhi nahin
istri ki bhauhen chaDh gain jise dekhkar shila khilakhilakar hansne lagi chalte chalte keshaw lauta pal bhar ke liye us khushi ki diwali ki or usne dekha, phir kaam mein Doob sa gaya kewal sahana us hansi ko sunkar sihar uthi
sandhya samay banaw shringar shesh kar shila dabe panwon us dwar ke bahar jakar khaDi ho gai jahan ki keshaw dwar ki or peeth kiye chupchap khaDa kuch wichar raha tha wo kuch der tak khaDi use dekhti rahi, iske baad usne wahin se keshaw ko parnam kiya keshaw lauta, usne dekha ek chhaya samne se hat rahi hai
wyatha ke sath keshaw ne pukara—shila! parantu uttar na mila!
bhram tha! deergh shwas ke sath ye shabd uske kanth se nikle
baDi dhoom se barat i kanyadan ke samay shila ko log DhunDhane lage kintu uska pata kahin bhi na tha ghar, dwar, har ek sanduq dekhi gai, shila na mili
do boond ansu ponchhkar sahana ne akhbar mein wigyapan diya—shila, tum laut aao, is ghar mein tumhara niradar na hoga
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।