तब मैं ऐसी नहीं थी। लोग समझते हैं मैं सदा की ऐसी ही हूँ—मोटी, चौड़ी, भारी-भरकम, क्षितिज की परिधि को चीरकर अनंत को शांत बनाती, संसार के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक लेटी हुई। वह पुराना इतिहास है। कोई क्या जाने!
तब मैं न तो इतनी लंबी थी, न इतनी चौड़ी। न चेहरे पर ईंटों की सुर्ख़ी की ललाई थी, न शरीर पर कंकड़ों के गहने। मेरे दाएँ-बाएँ वृक्षों की जो ये कतारें देख रहे हो, वे भी नहीं थी, न फुटपाथ था, न बिजली के खंभे। अप्सराओं की-सी सजी न ये दुकानें थीं, न अंगूठी के नगीने की तरह ये पार्क। तब मैं एक छोटी-सी पगडंडी थी—दुबली, पतली, सुकुमार, नटखट!
कब से मैं हूँ, इसकी तो याद नहीं आती; किंतु ऐसा जान पड़ता है कि अमराई के इस पार की कोई तरुणी नदी से जल लाने के लिए उस पार गई होगी; जैसे किसी छोटी-सी नगण्य घटना के बाद किसी प्रथा का जन्म हो जाता है और उसके बाद फिर एक धर्म भी निकल पड़ता है। उसी तरह एक तरुणी के जल भर लाने के बाद गाँव की सारी तरुणियाँ घड़े में जल लेकर भटकती, इठलाती एक ही पथ से आती रही होंगी और फिर वहीं से मेरे जीवन की कहानी बह निकली।
मेरे अतीत के आकाश के दो तारे अब भी मेरे जीवन के सूनेपन की अँधियारी में झलमला रहे हैं। यों तो सारी अमराई, सारा गाँव मेरे परिचितों से भरा था, किंतु घनिष्ठता थी केवल दो जनों से, एक बट दादा और दूसरा था रामी का कुँआ।
बट दादा अमराई के सभी वृक्षों में बूढ़े थे और सभी उन्हें श्रद्धा और आदर से बट दादा कहा करते थे। थे तो वे वृद्ध, लेकिन उनका हृदय बालकों से भी सरल और युवकों से भी सरस था। वे अमराई के कुलपति थे। उनमें तपस्वियों का तेज़ भी था और गृहस्थों की कोमलता भी। उनकी सघन छाया के नीचे लेटकर बीते हुए युगों की वेदना और आह्लाद से भरी कहानियाँ सुनना, रिमझिम-रिमझिम वर्षा में उनकी टहनियों में लुककर बैठ पक्षियों की सरस बरसाती का मज़ा लूटना आज भी याद करके मैं विह्वल हो उठती हूँ।
ठीक इन्हीं से सटा हुआ रामी का कुँआ था—पक्का, ठोस, सजल, स्वच्छ, गंभीर, उदार। साँझ-सबेरे गाँव की स्त्रियाँ झन-झन करती आती और अमराई को अपने कल-कंठ से मुखरित करके कुएँ से पानी भरकर मुझे भिगोती हुई, रौंदती हुई चली जाती।
मेरी चढ़ती हुई जवानी का आदि भी इन्हीं से होता है, मध्य भी इन्हीं से और अंत भी इन्हीं से। भूलने की चेष्टा करने पर भी क्या कभी मैं इन्हें भूल सकती हूँ?
मनुष्य के जीवन का इतिहास प्रायः अपने सगों से नहीं परायों से बनता है। ऐसा क्यों होता है समझ में नहीं आता, किंतु देखा जाता है कि अकस्मात कभी की सुनी हुई बोली, किंचित मात्र देखा हुआ स्वरूप, घड़ी-दो-घड़ी का परिचय, जीवन के इतिहास की अमर घटना, स्मृति की अमूल्य निधि बनकर रह जाते हैं और अपने सगों का समस्त समाज अपने जीवन का सारा वातावरण कमल के पत्ते के चारों ओर के पानी की तरह छल-छल करते रह जाते हैं, उछल-उछलकर आते हैं, बह जाते हैं। टिक नहीं पाते। मैं सोचती हूँ ऐसा क्यों होता है? पर समझ नहीं पाती।
जेठ के दिन थे। अलस दुपहरी। गर्म हवा अमराई के वृक्षों में लुढ़कती फिरती थी। बट दादा ऊँघ रहे थे। एक वृक्ष में लिपटी हुई दो लताओं में झगड़ा हो रहा था। मैं तन्मय हो उनका झगड़ा सुन रही थी, इतने में ही कुएँ ने पूछा- पगडंडी, सो गई क्या?
'नहीं तो'—मैंने कहा- इन लताओं का झगड़ा करना सुन रही हूँ।
कुएँ ने हँसकर पूछा- बात क्या है?
मैंने कहा- कुछ नहीं, नाहक़ का झगड़ा है—दोनों मूर्ख हैं।
कुएँ ने हँसकर कहा- संसार में मूर्ख कोई नहीं होता, परिस्थिति सबको मूर्ख बनाती है। इस अमराई में तुम अकेली हो, कल एक और पगडंडी बन जाए तो क्या यह संभव नहीं कि फिर तुम दोनों झगड़ने लग जाओ?
मैं तिनक गई। बोली- साधारण बात में भी मेरा ज़िक्र खींच लाने का तुम्हें क्या अधिकार है?
कुएँ ने पूछा- उन्हें मूर्ख कहने का तुम्हें क्या अधिकार है?
मैंने कहा- मैं सौ बार कहूँगी, हज़ार बार कहूँगी, वे दोनों मूर्ख हैं, तुम भी मूर्ख हो, सब मूर्ख हैं?
इतने में ही बट दादा भी जग पड़े, बोले- किसको मूर्ख बना रही है? बात रुक गई, कुआँ चुप हो गया। दो दिन तक बोल-चाल बंद रही। मैंने जान-बूझकर उससे झगड़ा क्यों किया, इसे वह समझ नहीं पाया। इसलिए मुझे संताप भी हुआ और ग्लानि भी। स्त्री प्रेम से विह्वल हो जाती है और अपने उच्छ्वासित हृदय के उद्गारों को जब निरुद्ध नहीं कर पाती, तब वह झगड़ा करती है। स्त्री का सबसे बड़ा बल है रोना, उसकी सबसे बड़ी कला है झगड़ा करना। झगड़ा करके तिनकना, रूठकर रोना, फिर दूसरे को रुलाकर मान जाना, नारी-हृदय का प्रियतम विषय है। पुरुष चाहे कितना भी पढ़ा-लिखा हो, साहित्यिक हो, दार्शनिक हो, तत्वज्ञानी हो, यदि वह इतनी सीधी-सीधी बात नहीं समझ पाता तो सचमुच मूर्ख है।
यह घटना कुछ नई नहीं थी, नित्य की थी। कोई छोटी-सी बात लेकर हम झगड़ पड़ते, आपस में कुछ कह-सुन देते, फिर हफ़्तों एक-दूसरे से नहीं बोलते। किंतु वह बात जिसके लिए मैं सब कुछ करती, सारा झगड़ा खड़ा करती, कभी नहीं होती। कुआँ मुझे कभी नहीं मनाता था। अंत में हारकर मुझे ही बोलना पड़ता, तब वह बोलने लगता मानो कुछ हुआ ही नहीं। मैं मन ही मन सोचती यह कैसा विचित्र जीव है कि न तो इसे रूठने से कोई वेदना होती है और न मनाने से कोई आह्लाद। स्वयं भी नहीं रूठता, केवल चुप हो रहता है। बोलती हूँ तो फिर बोलने लगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। हे ईश्वर! अपनी रचना की हृदयहीनता की सारी थैली क्या मेरे ही लिए खोल रखी है?
इस घटना पर मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, किंतु वह बात रह-रहकर मेरे कानों में गूँज उठती- ‘इस अमराई में तुम अकेली हो, कल एक पगडंडी और बन जाए तो क्या यह संभव नहीं कि फिर तुम दोनों भी झगड़ने लग जाओ?' इसका प्रतिवाद मैंने कैसे किया? उससे झगड़ा किया, उसे मूर्ख बनाया। कुआँ समझता है कि मैं स्त्री हूँ और स्त्री-जाति की कमज़ोरी मेरी भी कमज़ोरी है और इसका प्रतिवाद करने के बदले में स्वयं उसके तर्क का प्रतिपादन कर देती हूँ, फिर मूर्ख मैं हुई या वह?
मुझे रह-रहकर अपनी निर्बलता पर क्रोध आ जाता। यदि उसे मेरे लिए कोई सहानुभूति नहीं, मेरे रूठने की कोई चिंता नहीं, मुझे मनाने का आग्रह नहीं तो फिर मैं क्यों उसके लिए मरने लगी। यदि वह हृदयहीन है तो मैं भी हृदयहीन बन सकती हूँ। यदि वह आत्म-निग्रह कर सकता है तो मैं भी अपने-आप पर संयम रखना सीख सकती हूँ। मैंने क़सम खाई कि फिर उससे रूठूँगी ही नहीं और यदि रूठूँगी तो फिर बोलूँगी नहीं चाहे जो भी हो, प्रेम के लिए स्त्रीत्व को कलंकित नहीं करूँगी।
एक दिन की बात है। आश्विन का महीना था। बरसात अभी-अभी बीती थी। न कीचड़ था, न धूल। छोटी-हरी घासों और जंगली फूलों के बीच में होकर मैं अमराई के इस पार से उस पार तक लेटी थी। इस सघन हरियाली के बीच में मुझे देखकर जान पड़ता मानो किसी कुमारी कन्या का सीमंत हो। शरद मेरे अंग-अंग में प्रतिबिंबित हो रहा था। मैं कुछ सोच रही थी, सहसा कुएँ ने कहा- पगडंडी, सुनती हो?
मैंने अन्यमनस्क-सी होकर कहा- कहो।
उसने कहा- तुम दिनों-दिन मोटी होती जा रही हो।
मैं कुछ भी नहीं बोली।
कुछ ठहरकर वह फिर बोला- तुम पहले जब दुबली थी, अच्छी लगती थी।
मैंने कहा- अगर मैं मोटी हो गई हूँ, तो केवल तुम्हें अच्छी लगने के लिए मैं दुबली होने की नहीं।
कुएँ ने कहा- यह तो मैंने कहा नहीं कि दुबली होकर तुम मुझे अच्छी लगोगी।
मैंने पूछा- तब तुमने कहा क्या?
उसने कहा- कवियों का कहना है कि दुबलापन स्त्रियों के सौंदर्य को बढ़ा देता है। मोटी होने से तुम कवियों की सौंदर्य की परिभाषा से दूर हट जाओगी।
मैंने खीझकर पूछा- तुम तो अपने को कवि नहीं समझते न?
उसने कहा- बिलकुल नहीं।
मैंने पूछा- फिर मोटी हो जाने पर मैं कवियों को अच्छी लगूँगी या बुरी, उससे तुम्हें मतलब?
उसने शांत भाव से कहा कुछ भी नहीं, केवल यही कि मैं उस परिभाषा को जानता हूँ और उसे तुम्हें भी बतला देना अपना कर्तव्य समझता हूँ।
मैने गंभीर होकर कहा- धन्यवाद।
स्त्री यदि वह सचमुच स्त्री है तो सब कुछ सह सकती है पर अपने रूप का तिरस्कार नहीं सह सकती। स्त्री चाहे घोर कुरूपा हो फिर भी पुरुष को उसे कुरूपा कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं। स्त्री का स्त्रीत्व ही संसार का सबसे महान सौंदर्य है। उसके प्रति असुंदरता का संकेत करना भी उसके स्त्रीत्व को अपमानित करना है। स्त्री के स्वरूप का उपहास करना वैसा ही है जैसा पुरुष को कायर कहना। मैं समझ गई कि कुआँ मुझ पर मार्मिक आघात कर रहा है, नहीं उपहास करना चाहता है। मैंने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की कि चाहे अंत जो भी हो, मैं भी नाज़ से युद्ध प्रारंभ करूँगी।
उसी दिन रात को चाँदनी खिली थी। रजनीगंधा के सौरभ से अमराई मस्त होकर झूम रही थी। बट दादा पक्षियों को सुलाकर अपने भी सोने का उपक्रम कर रहे थे। बोले- सो गई बेटी?
मैंने कहा- नहीं दादा, ऐसी चाँदनी क्या सदा रहती है? मेरे तो जी में आता है कि जीवन-भर ऐसे ही लेटे-लेटे चाँद को देखती रहूँ।
इतने ही में कुआँ बोला- दादा, अमराई में ब्याह के गीत अभी से गाने शुरू करवा दो।
दादा ने पूछा- कैसा ब्याह?
उसने कहा- देखते नहीं, प्रेम का पहला चरण प्रारंभ हो गया है, दूसरे चरण में कविताएँ बनेंगी, तीसरे चरण में पागलपन का अभिनय होगा, चौथे चरण में सगाई हो जाएगी।
मुझे मन-ही-मन गुदगुदी-सी जान पड़ने लगी। सोचा, आज इसे खिझाऊँगी।
मैंने हँसकर कहा- दादा, देखो, अपने-अपने भाग्य की बात है। ईश्वर ने तुम्हें इतना ऊँचा बनाया है। तुम अपनी असंख्य अंजलियों से सूर्य और चंद्रमा की किरणों का अजस्र पान करते हो और किसी एकांत से आती हुई वायु मे अनंत स्नान करके विस्तृताकाश में सिर उठाकर प्रकृति की अनंत विभूतियों का अनुशीलन करते हो। नक्षत्रों से भरी हुई रात में शत-शत पक्षियों को गोद में लिए हुए तुम चंद्रलोक की कहानी सुना करते हो, उषा और गोधूलि नित्य तुम्हें स्नेह से चूम लिया करते हैं, प्रकृति का अनंत भंडार तुम्हारे लिए उन्मुक्त हैं। मैं तुम्हारे जैसी ऊँची तो नहीं हूँ फिर भी दूर तक फैली हूँ। वसुंधरा अपनी सुषमा मेरे सामने बिखेर देती है, आकाश सूर्य और चंद्रमा की किरणों का जाल मेरे ऊपर फैला देता है। बसंत की मादकता, सावन की सजल हरियाली और शरद की स्वच्छ सुषमा मेरे जीवन में स्फूर्ति प्रदान करती हैं। मैं केवल जीती ही नहीं जीवन का उपभोग भी करती हूँ। किंतु मुझे दु:ख उन लोगों को देखकर होता है जिन्हें न तो सूर्य का प्रकाश मिलता है, न चंद्रमा की किरणें, अंधकार ही जिनके जीवन की भित्ति है और सूनापन ही जिनकी एक कहानी। वे आकाश को उतना ही बड़ा समझते हैं जितना उनके भीतर समाता है, वसुंधरा को उतनी ही दूर तक समझते हैं, जितना वे देख सकते हैं। दादा उनका अस्तित्व कैसा दयनीय है, तुमने कभी सोचा है?
दादा कुछ नहीं बोले, शायद सो गए थे। लेकिन कुआँ बोला- सुन रहे हो, दादा! पगडंडी कितना सच कह रही है। ऐसे लोगों से अधिक दयनीय जीवन किसका होगा? कुछ दिन पहले मैं भी यही सोचा करता था, किंतु मुझे जान पड़ा कि संसार में और भी अधिक दयनीय जीवन हो सकता है। ईश्वर ने जिसे सूर्य और चंद्रमा के आलोक से वंचित रखा, आकाश का विस्तार और वसुंधरा का वैभव जिसे देखने नहीं दिया, उस पर दया करके कम-से-कम उसे एक ऐसी चीज़ दे दी जिससे यह संसार का उपकार कर सकता है, जिसे वह अपना कह सकता है, जिसके द्वारा वह संसार का किसी-न-किसी रूप में लक्ष्य बन सकता है। किंतु उससे अधिक दयनीय तो वे हैं जिनके सामने सृष्टि का सारा वैभव बिखरा पड़ा है, किंतु जिनके पास अपना कहने को कुछ भी नहीं, रेखागणित की रेखा की तरह उनका अस्तित्व तो है, किंतु उनकी मुटाई, लम्बाई, चौड़ाई सब कुछ काल्पनिक है। उनका अस्तित्व किसी दूसरे के अस्तित्व में अंतर्निहित है! वे सभी के साधन हैं, किंतु लक्ष्य किसी के भी नहीं। ऐसे लोग भी दुनिया में हैं। दादा, क्या उन पर तुम्हें दया नहीं आती?
दादा विलकुल सो गए थे। मैंने तैश में आकर कहा- रामी के कुआँ, यदि तुम समझते हो कि तुम संसार के लक्ष्य हो और मैं केवल साधन-मात्र तो यह तुम्हारी भूल है। संसार में जो कुछ है साधन ही है, लक्ष्य कुछ भी नहीं। लक्ष्य शब्द मनुष्य की उलझी हुई कल्पना का फल है। लक्ष्य एक भावना-मात्र है, स्थूल और प्रत्यक्ष रूप में जिस किसी का अस्तित्व है, वह साधन ही है, चाहे जिस रूप में हो।
कुएँ ने गंभीर स्वर में कहा- तुमने मेरा पूरा नाम लेकर पुकारा इसके लिए धन्यवाद! मैं उत्तर में केवल दो बातें कहूँगा। पहली तो यह कि हमारा और तुम्हारा कोई अपना झगड़ा नहीं है, मैं समझता हूँ व्यक्तिगत रूप से न तुमने मुझे कुछ कहा है, न मैं तुम्हें कुछ कह रहा हूँ। दूसरी बात यह है कि जैसा तुम कह रही हो लक्ष्य और साधन में प्राकारिक अंतर न होते हुए भी पारिमाणिक अंतर है। संसार में लक्ष्य नाम की कोई चीज़ नहीं। ठीक है यहाँ जो कुछ है किसी-न-किसी रूप में साधन ही है, यह भी ठीक है। फिर भी मानना पड़ेगा कि साधनों में कुछ साधन ऐसी अवस्था में हैं जिन्हें साधन के अतिरिक्त दूसरा कुछ कहा ही नहीं जा सकता और कुछ साधन ऐसी अवस्था में पहुँच गए हैं जिन्हें संसार अपनी सुविधा के लिए लक्ष्य ही कहना अधिक उपयुक्त समझता है। इसका प्रत्यक्ष स्थूल प्रमाण यह है कि कुछ लोगों के यहाँ संसार आता है, हाथ फैलाकर कुछ माँगता है और फिर चला जाता है। संसार की स्थूल व्यावहारिक भाषा में वे तो हुए लक्ष्य और कुछ लोग ऐसे हैं जिनके यहाँ संसार आता है, किंतु इसलिए नहीं कि वह उनसे कुछ लेना चाहता है बल्कि इसलिए कि उनके द्वारा वह अपने लक्ष्य के पास पहुँच सकता है। तुम्हारी सूक्ष्म दार्शनिक भाषा में ऐसे लोग हुए साधन। समझी?
मैं कुछ कहना ही चाहती थी कि उसने रोक दिया, कहा- देखो, तुम्हारी चाँदनी डूब गई, अब तो सो सकती हो या नहीं?
कुछ दिन और बीते। मेरे प्रेम की आग पर आत्माभिमान की राख पड़ने लगी। कुआँ संसार का लक्ष्य है, मैं केवल एक साधन हूँ। फिर मेरा उसका प्रेम कैसे हो सकता है। मैं कभी-कभी सोचती प्रेम में प्रतियोगिता कैसी? मान लो, वह संसार में सब कुछ है और मैं कुछ भी नहीं, फिर भी क्या यह यथेष्ट कारण है कि यदि मैं उससे प्रेम करूँ तो वह उसका प्रतिदान न दे? कुआँ अपने सांसारिक महत्त्व के गर्व में चूर है। वह समझता है कि उसके सामने मैं इतनी तुच्छ हूँ कि मुझसे प्रेम करना तो दूर रहा, भर-मुँह बोलना भी पाप है। वह मुझसे घृणा करता है, मेरा उपहास करता है, बात-बात में मुझे नीचा दिखाना चाहता है। बर्बर पुरुष जाति!
मैं दिनों-दिन उससे दूर हटने की चेष्टा करने लगी। उसके सामीप्य में मेरा दम घुटने लगा। वह महत्त्वशाली है, संसार उसके सामने भिखारी बनकर आता है और मैं? मेरा तो कोई अस्तित्व ही नहीं, किसी लक्ष्य तक पहुँचने का एक साधन-मात्र हूँ। मेरी उसकी क्या तुलना?
साँझ-सबेरे गाँव की स्त्रियाँ आती और पानी भर ले जाती। अलस दुपहरी में पथिक अमराई में विश्राम करने के लिए आते और कुएँ के पानी में सत्तू सानकर खाते फिर थोड़ी देर वृक्षों के नीचे लेटकर अपनी राह चले जाते। गाँव के छोटे-छोटे लड़के अमराई में आकर फल तोड़ते, कुएँ से पानी खींचते और फिर फल खाकर मुँह-हाथ धोकर चले जाते। जहाँ देखो, उसी की चर्चा, उसी की बात। मैं अपनी नगण्यता पर मन-ही-मन कुढ़कर जली-सी जाती। मुझे जान पड़ता मानो संसार मेरा उपहास कर रहा है, आकाश मेरा तिरस्कार कर रहा है, पृथ्वी मेरी अवहेलना कर रही है। मेरा अस्तित्व रेखागणित की रेखाओं और बिंदुओं का अस्तित्व है। मैं सबकी हूँ पर मेरा कोई नहीं, मैं भी अपनी नहीं, केवल संसार को किसी लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए साधन-सी बनकर जी रही हूँ। मुझे यहाँ से हटना ही पड़ेगा। चाहे जहाँ भी जाऊँ, जाऊँगी ज़रूर। हृदय की शांति की खोज में वन-वन भटकूँगी, वसुंधरा के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक के अनंत विस्तार को छान डालूँगी, यदि कहीं शांति नहीं मिली तो किसी मरुभूमि की विशाल सैकत राशि में जाकर विलीन हो जाऊँगी, या किसी विजन पर्वत-माला की अँधेरी गुफ़ा में जाकर सो रहूँगी, फिर भी यहाँ न रहूँगी। वहाँ से मैं हटने का उपक्रम करने लगी।
आधी रात थी। चाँदनी और अंधकार अमराई के वृक्षों के नीचे गाढ़ालिंगन में बंधे सो रहे थे। मुझे उस रात की सारी बातें अब भी याद हैं, मानो अभी कल ही की हो। मैं अपने अतीत जीवन की कितनी ही छोटी-छोटी स्मृतियाँ सहेज रही थी। इतने में कुएँ ने पुकारा- पगडंडी!
निशीथ के सूनेपन में उसकी आवाज़ गूँज उठी? मैं चौंक पड़ी। इतने दिनों के बाद आज कुआँ मुझे पुकार रहा है, मेरा कौतूहल उमड़ने लगा।
मैंने कहा- क्या है?
कुआँ थोड़ी देर चुप रहा, फिर पुकारा- पगडंडी!
शायद उसने मेरा बोलना सुना ही नहीं। मुझे आश्चर्य होने लगा, क्या आज कोई अभिनय होगा? मैंने संयत स्वर में कहा- क्या है?
कुआँ बोला- पगडंडी, मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ।
मैंने कहा- पूछो।
वह बोला- शायद तुम यहाँ से कहीं जा रही हो?
उस समय बिजली भी गिर पड़ती तो मुझे उतना आश्चर्य न होता। इसे कैसे मालूम हुआ? यदि मान लूँ कि किसी तरह मालूम भी हो गया तो फिर इसे क्या मतलब? मैं क्षण-भर में ही न जाने क्या-क्या सोच गई, कितने ही भावों से मेरा हृदय उथल-पुथल हो उठा, किंतु मैंने सारा आवेग रोककर उदासीन स्वर में कहा- हाँ!
कुआँ थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला- तुम इस अमराई से जा रही हो, अच्छा है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।
मैं कुछ उत्तर देने जा रही थी, तब तक उसने रोक दिया- ठहरो, मेरी बात सुन लो। जब तुम पहले-पहल यहाँ आई थी तब जितना प्रसन्न मैं हुआ, उतना और कोई नहीं। आज जब तुम यहाँ से जा रही हो, तब भी जितनी ख़ुशी मुझे हो रही है, उतनी और किसी को नहीं। तुम इसका कारण जानती हो?
मैं कुछ नहीं बोली।
वह कहने लगा- मैं तुम्हें किसी दिन कहने वाला ही था! तुमने स्वयं जाने का निश्चय कर लिया। यह और भी अच्छा हुआ।
मैंने अन्यमनस्क-सी कहा- संसार में जो कुछ होता है, अच्छा होता है।
कुआँ बोला- पगडंडी, तुम यहाँ से जा रही हो, संभावना यही है कि फिर तुम कभी लौटकर नहीं आओगी। तुम्हारे जाने के पहले मैं तुमसे अपने हृदय की एक बात, एक चिरसचित बात कहूँगा, सुनोगी तो?
मेरे हृदय में उस समय दो धाराएँ बह रही थीं—एक संशय की, दूसरी विस्मय की। फिर भी इतना है कि संशय से अधिक मुझे विस्मय ही हुआ। मैंने सारा कौतूहल दबाकर कहा- कहते जाओ।
कुआँ कहने लगा- मुझे अधिक कुछ नहीं कहना है। केवल दो बातें हैं। मैंने तुमसे कभी नहीं कहा था। इसका कारण यह है कि अब तक कहने का समय नहीं आया था। तुम अब जा रही हो, जान पड़ता है वह समय आ गया, इसलिए कह रहा हूँ।
थोड़ा रुककर, फिर अपने स्वाभाविक दार्शनिक ढंग से उसने कहना शुरू किया-
पहली बात यह है कि तुम्हारे प्रति अगाध प्रेम होते हुए भी आज तक मैंने ज़ाहिर क्यों नहीं होने दिया। मुझे याद है जिस दिन आकाश के ज्योतिष्पथ की तरह तुम पहले-पहल इस अमराई में आकर बिछ गईं, उस दिन मैंने दादा से पूछा- दादा, यह कौन है? दादा ने विनोद से कहा- तुम्हारी बहू! मैं झेंप गया। तब से लेकर आज तक एक युग बीत गया! कितने बसंत आए, कितनी बरसातें आईं, इस अमराई की सघन छाया में हम दोनों ने कितनी कहानियाँ सुनी, कितने गीत सुनकर फिर भूल गए और कितनी बार हम आपस में लड़े-झगड़े हैं। इस अतीत जीवन की छोटी-से-छोटी घटना भी मेरे स्मृति-पट पर अमर-रेखा बनकर खिंच गई है और उन टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं को जोड़कर जो अक्षर बनते हैं उसका एक मात्र अर्थ यही निकलता है कि इस अमराई में छोटी, पतली-सी जो एक पगडंडी है, उस पगडंडी के सूने उपेक्षित जीवन का जो निष्कर्ष है वह किसी एक युग या एक देश का नहीं, विश्व-भर के अनंतकाल के लिए आलोक-स्तंभ बन सकता है। वह न रहे, किंतु उसकी कृपा युग-युग तक कल्पना-लोक के विस्तृताकाश में स्त्रीत्व का आदर्श बन आकाश-दीप-सी झिलमिलाती रहेगी।
किंतु इतना होते हुए भी आज तक मैंने तुमसे कभी कुछ कहा क्यों नहीं?
इतना ही नहीं, मैंने अब तक तुम्हारे प्रति केवल उदासीनता और कठोरता के भाव ही प्रकाशित किए। नीरस उपेक्षा, आलोचनात्मक विनोद, इसके अतिरिक्त मुझे याद नहीं मैं और भी तुम्हें कुछ दे सका हूँ या नहीं। किंतु क्यों? केवल एक ही कारण था।
पगडंडी, मैं तुम्हें जानता था, तुम्हारे हृदय को अच्छी तरह पहचानता था। मैं तुम्हारे जीवन का दार्शनिक अध्ययन कर रहा था। मैं जानता था संसार के कल्याण के किस अभिप्राय को लेकर तुम्हारे जीवन का निर्माण हुआ है। मैं जानता था किस लक्ष्य को लेकर विश्व की रचनात्मक शक्ति ने तुम्हें स्वर्ग से लाकर इस अमराई की घासों और पत्ती की सेज पर सुला दिया है। मैं यह भी जानता था कि तुम्हारे अवतरण का जो अंतर्निहित अभिप्राय है, वह किस पथ पर चलकर तुम अधिक-से-अधिक प्राप्त कर सकती हो।
जिस महान उद्देश्य को लेकर तुम जन्मी हो, उसे मैं जानता हूँ, इच्छा रहते हुए भी मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता। किंतु हाँ, एक बात कर सकता हूँ। गायक अपनी तान को आरोह-अवरोह के बीच में नचाता हुआ ले जाकर सम पर बिठा देता है। सुनने वाले उसे सहायता नहीं दे सकते फिर भी अंत में सम पर एक बार सिर हिला देते हैं। तान लौटकर घर आ गई, सबका सिर हिल गया। पगडंडी, अपने जीवन के उच्चादर्श को तुम्हें अकेले ही निभाना पड़ेगा, मैं केवल इतना ही कर सकूँगा कि जिस दिन तुम्हारे जीवन की तान लौटकर घर आ जाएगी, उस दिन उस संगीत में अपने को बहाकर सिर हिला दूँगा! तुम्हारे जीवन-संगीत के सम पर अपने को निछावर कर दूँगा, बस।
प्रेम से स्वर्ग मिलता है, किंतु उससे भी ऊँचा, उससे भी पवित्र एक स्थान है। उसका वही पथ है जिस पर तुम जा रही हो, सेवा। प्रेम सभी कर सकते हैं, किंतु सेवा सभी नहीं कर सकते। प्रेम करना संसार का स्वभाव है, किंतु सेवा एक साधना है। प्रेम हृदय की सारी कोमल भावनाओं का आकुंचन है, सेवा उनका प्रसार। प्रेम में स्वयं लक्ष्य बनकर अपना एक कोई लक्ष्य बनाना पड़ता है, सेवा में अपने को संसार का साधन बनाकर संसार को अपनी साधनाओं की तपोभूमि बना देना पड़ता है। प्रेम यज्ञ है और सेवा तपस्या। प्रेम से प्रेमिक मिलता है और सेवा से ईश्वर।
जन्म से लेकर आज तक तुम सेवा के पथ पर ही रही हो और अब भी उत्तरोत्तर उसी पर आगे बढ़ती जा रही हो। तुम्हारे मार्ग में जो सबसे वड़ा विघ्न बनकर खड़ा हो सकता है वह है प्रेम। प्रेम मनुष्यत्व है और सेवा देवत्व। तुम्हारी आत्मा स्वर्गिक होते हुए भी तुम्हारा शरीर भौतिक है। आत्मा और शरीर का द्वंद्व संसार की अमर कहानी है। बसंत जब अपना मधु-कलश पृथ्वी पर उड़ेल देता है, वर्षा जब वन-वन में हरियाली बिखरा देती है, शरद् के शुभ्राभ्र-खंड जब आकाश में तैरने लगते हैं, तब आत्मा की साधनाओं में शरीर छोटे-छोटे सपने छींट देता है, सामवेद की मधुर गंभीर ध्वनि में मेघ-मल्लार की मस्तानी ताने भीन जाती हैं, सोमरस में कादंब की बूँदें चू पड़ती हैं, कैलाश में बसंत आ जाता है। यह बहुत पुरानी कथा है। युग-युगांतर से यही होता आया है और यही होता रहेगा। फिर भी सभी इसे भूल जाते हैं। आँखे झप जाती हैं, तपस्या के शुभ्र प्रत्यूष में अनुराग की अरुण उषा छिटक पड़ती है, साधना की बर्फ़ गलने लगती है, लगन की आग मँझाने लगती है, हृदय की एकांतता में किसी की छाया घुस पड़ती है, जागृति में अंगड़ाई भर जाती है, स्वप्नों में मादकता भीन जाती है, और...और जब आँखें खुलती हैं तब कहीं कुछ नहीं रहता। फिर से नई कहानी शुरू होती है—नई यात्रा होती है, नया प्रस्थान होता है, इसी तरह यह संसार चलता है।
आत्मा के ऊपर शरीर का सबसे बड़ा प्रभाव है संशय। जब संसार में सभी किसी-न-किसी से प्रेम करते हैं, सभी का कोई-न-कोई एक अपना है, जब किसी से प्रेम करना, किसी के प्रेम का पात्र बनना प्राणिमात्र का अधिकार है, तब फिर मैं—केवल मैं ही—क्यों इससे वंचित रहूँ? यह जीव की अमर समस्या है, शाश्वत प्रश्न है।
किंतु सत्य क्या है, लोग यह समझने की बहुत कम चेष्टा करते हैं। जिनके पैर हैं वे ज़मीन पर चलते है, किंतु जिन्हे पंख मिले हैं यदि वे भी ज़मीन पर ही चले तो यह अपनी शक्तियों का दुरुपयोग है। जिन्हें ईश्वर ने आकाश में उड़ने के लिए बनाया है, उनके लिए पृथ्वी पर चलना अपने महत्व की उपेक्षा करना है, अपने आपको भूलना है।
प्रेम करने की योग्यता सबमें है, किंतु सेवा करने की शक्ति किसी-किसी को ही मिलती है। सेवा करने की योग्यता रखना दंड नहीं, ईश्वर का आशीर्वाद है जिसे ईश्वर ने संसार में अकेला बनाया है, धन-वैभव नहीं दिया है, सुख में प्रसन्न होने वाला और दुःख में गले लगाकर रोने वाला साथी नहीं दिया है, संसार के शब्दों में जिसे उसने दुखिया बनाया है, उसके जीवन में उसने एक महान अभिप्राय भर दिया है, शक्ति का एक अमर, स्रोत, बेचैनी की तड़फड़ाती हुई आँधी, उसके अंतर में संजोकर रख दी है। हो सकता है वह इसे न समझे, शायद संसार भी इसे न समझे; फिर भी वह नहीं है, ऐसी बात नहीं; वह है, आवश्यकता है केवल उसे समझने की।
पगडंडी, तुम ईश्वर की उन्हीं रचनाओं में से एक हो। तुम्हारा निर्माण इसलिए नहीं हुआ है कि तुम एक की होकर रहो, एक के लिए जियो और एक के लिए मरो। नहीं, तुम पृथ्वी पर एक बहुत बड़ा उद्देश्य लेकर आई हो। जेठ की धधकती हुई लू में, भादों की अजस्त्र वर्षा में और शिशिर के तुषार-पात में इसी तरह लेटी रहकर तुम्हें असंख्य मनुष्यों को घर से बाहर और बाहर से घर पहुँचाना पड़ेगा। सभ्यता के विस्तार के लिए, जीवन के सौख्य के लिए, संसार के कल्याण के लिए, तुम्हें बड़ा-से-बड़ा त्याग करना पड़ेगा। तुम्हारा कोई नहीं है, इसलिए कि सभी तुम्हारे हैं, तुम किसी की नहीं हो, इसलिए कि तुम सभी की हो। तुम अपने जीवन का उपभोग नहीं करती हो, तुम विश्व की अक्षय विभूति हो।
आज के पहले मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं कहा था, कारण यह था—पगडंडी, मेरी स्पष्टवादिता को क्षमा करना कि तुम्हारी आत्मा सोई हुई थी,केवल शरीर जगा था। तुम नहीं समझती थी कि तुम कौन हो, किसलिए यहाँ आई हो, तुम संसार के पुराने पथ पर चलना चाहती थी। आज, चाहे जिस कारण से हो तुम्हें अपने वर्तमान जीवन से असंतोष हो गया है, तुम्हें अपने से घृणा हो आई है। आज तुम अनंत में कूदने जा रही हो, संसार में कुछ करने जा रही हो, तुम्हारी आत्मा जग उठी है। इन बातों को कहने का मुझे आज ही अवसर मिला है।
पगडंडी, तुम ऐसा न समझना कि मैं तुमसे स्नेह नहीं करता, उससे भी अधिक मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ। फिर भी अपने व्यक्तित्व को तुम्हारे पथ में खड़ा करके मैं तुम्हारी आत्मा की प्रगति को रोकना नहीं चाहता। मैं तुम्हारी चेतना में अपनी छाया डालकर उसे मलिन नहीं करना चाहता। तुम्हारी संगीत-लहरी में अपवादी स्वर बनकर उसे बेसुरा बनाना नहीं चाहता। मैं बड़े उल्लास से तुम्हें यहाँ से विदा करता हूँ। जाओ—संसार में जहाँ तुम्हारा अधिक उपयोग हो सके, वहाँ जाओ और अपने जीवन को सार्थक बनाओ यही मेरी कामना है, यही मेरा संदेश है, यही मेरा...क्षमा करना...आशीर्वाद है।
केवल एक बात और कहनी है। मेरी हृदयहीनता को भूल जाना—हो सके तो क्षमा कर देना। मेरे भी हृदय है, उसमें भी थोड़ा रस है, पर मैंने जान-बूझकर उसे सुखा दिया, उसे आँखों में नहीं आने दिया, ओठों पर से पोंछ डाला। तुम्हारे कर्तव्य-पथ को मैं अपने आँसुओं से गीला नहीं बनाना चाहता—पगडंडी, मेरी कथा समझने की कोशिश करना, यदि न समझ पाओ तो... तो फिर सब कुछ भूल जाना।
संसार तुम्हारी राह देख रहा है, अनंत तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। जाओ, अपना कर्तव्य पालन करो। संसार तुम्हें कुचले तो तड़पना नहीं, भूल जाए तो सिसकना नहीं? भूले हुए पथिकों को घर पहुँचा देना जो घर छोड़कर विदेश जाना चाहते हों उनकी सहायता करना। जब तक जीना, ख़ुश रहना, कभी किसी के लिए रोना नहीं और—एक बात और—यदि तुम्हारे हृदय में कभी प्रेम की भावना आ जाए तो कोशिश करके अपने अस्तित्व का सारा बल लगाकर उसे निकाल डालना। यदि न निकाल सको तो फिर वहाँ से कहीं दूर—बहुत दूर—चली जाना।
पगडंडी! विदा! तुम अपने ज्योतिर्मय भविष्य में अपने धुंधले अतीत को डुबो देना। सब कुछ भूल जाना—बट दादा और रामी के कुआँ को भी भूल जाना! केवल यही याद रखना कि तुम कौन हो और तुम्हारा कर्तव्य क्या है—बस जाओ, विदा!—ईश्वर तुम्हें बल दे।
कुआँ चुप हो गया। आधी रात की स्वप्निल नीरवता में जान पड़ता था, उसका स्वर अब भी गूंज रहा हो, शब्द अंतरिक्ष में अब भी घुमड़ते फिरते हो। मैं कुछ बोल नहीं सकी, सोच भी नहीं सकी। तन्द्रा-सी छा गई, काठ-सा मार गया। उसके अंतिम शब्द अर्द्धरात्रि के शून्य अंधकार में बिजली के अक्षरों में मानो चारों ओर लिखे हुए से उग रहे थे—बस जाओ, विदा, ईश्वर तुम्हें बल दे।
ठीक-ठीक याद नहीं आता, कितने दिन हुए, फिर भी एक युग-सा बीत गया। मेरी आँखों के सामने वह स्वरूप आज भी रह-रहकर नाच उठता है, कानों में वे शब्द अब भी रह-रहकर गूंज उठते हैं।
अब मैं राजधानी का राजमार्ग हूँ। दोनों ओर सहेलियों की तरह दो फुट-पाथ हैं, धूप और वर्षा से बचाने के लिए दोनों ओर वृक्षों की क़तारें हैं, रौशनी के लिए बिजली के खंभे हैं, और न-जाने विभव-विलास की कितनी चीज़ें हैं। नित्य मेरा शृंगार होता है, मेरी देख-रेख में हज़ारों रुपये ख़र्च किए जाते हैं, राजमहिषी की तरह मेरा सत्कार होता है, जहाँ तक दृष्टि जाती है—बस, मैं ही मैं हूँ।
उत्तरदायित्व भी कम नहीं है। मैं शहर की धमनी हूँ, इसका रक्त-प्रवाह मुझी से होकर चारों ओर दौड़ता है। मैं सभ्यता का स्तंभ हूँ, राज-सत्ता का प्राण हूँ। इतनी भीड़ रहती है कि सोचने की फ़ुर्सत भी नहीं मिलती। जनसमुद्र की अनंत लहरें मुझे कुचलती हुई एक ओर से दूसरी ओर निकल जाती हैं, मैं उफ़ तक नहीं करती। इतनी भीड़ में मुझे अपना कहने वाला एक भी नहीं, एक क्षण के लिए भी मेरा होने वाला कोई नहीं। मेरे जलते हुए निर्विश्राम जीवन पर सहानुभूति की दो बूँद छिड़क दे, ऐसा कोई नहीं। फिर भी मैं व्यथित नहीं होती, ख़ुश रहने की कोशिश करती हूँ। वेदना के शोलों पर मुस्कुराहट की राख बिखेरती रहती हूँ, ओठों में हृदय को छिपाए रखती हूँ। जहाँ तक होता है, उसने जो कुछ कहा था, सब करती हूँ। केवल एक ही बात नहीं होती, उसे भूल नहीं पाती!
अमराई की छाया में घासों और पत्तों पर वह जीवन, पक्षियों के गाने, लताओं का झगड़ा, बट दादा की कहानियाँ, और...और क्या कहूँ? कितनी बातें हैं जो भुलाई नहीं जा सकती? मेरे जीवन-संगीत की तान लौटकर सम पर आती है, आकर फिर लौट जाती है, पर किसी का सिर नहीं हिलता?
यह पुराना इतिहास है। कोई क्या जाने? एक समय था जब मैं ऐसी नहीं थी।
tab main aisi nahin thi. log samajhte hain main sada ki aisi hi hun—moti, chauDi, bhari bharkam, kshitij ki paridhi ko chirkar anant ko shaant banati, sansar ke ek sire se lekar dusre sire tak leti hui. wo purana itihas hai. koi kya jane!
tab main na to itni lambi thi, na itni chauDi. na chehre par iinton ki surkhi ki lalai thi, na sharir par kankDon ke gahne. mere dayen bayen vrikshon ki jo ye kataren dekh rahe ho, ve bhi nahin thi, na phutpath tha, na bijli ke khambhe. apsraon ki si saji na ye dukanen theen, na anguthi ke nagine ki tarah ye park. tab main ek chhoti si pagDanDi thi—dubli, patli, sukumar, natkhat!
kab se main hoon, iski to yaad nahin ati; kintu aisa jaan paDta hai ki amrai ke is paar ki koi taruni nadi se jal lane ke liye us paar gai hogi; jaise kisi chhoti si naganya ghatna ke baad kisi pratha ka janm ho jata hai aur uske baad phir ek dharm bhi nikal paDta hai. usi tarah ek taruni ke jal bhar lane ke baad gaanv ki sari taruniyan ghaDe mein jal lekar bhatakti, ithlati ek hi path se aati rahi hongi aur phir vahin se mere jivan ki kahani bah nikli.
mere atit ke akash ke do tare ab bhi mere jivan ke sunepan ki andhiyari mein jhalamla rahe hain. yon to sari amrai, sara gaanv mere parichiton se bhara tha, kintu ghanishthata thi keval do janon se, ek bat dada aur dusra tha rami ka kuna.
bat dada amrai ke sabhi vrikshon mein buDhe the aur sabhi unhen shraddha aur aadar se bat dada kaha karte the. the to ve vriddh, lekin unka hriday balkon se bhi saral aur yuvkon se bhi saras tha. ve amrai ke kulapti the. unmen tapasviyon ka tez bhi tha aur grihasthon ki komalta bhi. unki saghan chhaya ke niche letkar bite hue yugon ki vedna aur ahlad se bhari kahaniyan sunna, rimjhim rimjhim varsha mein unki tahaniyon mein lukkar baith pakshiyon ki saras barsati ka maza lutna aaj bhi yaad karke main vihval ho uthti hoon.
theek inhin se sata hua rami ka kuna tha—pakka, thos, sajal, svachchh, gambhir, udaar. saanjh sabere gaanv ki striyan jhan jhan karti aati aur amrai ko apne kal kanth se mukhrit karke kuen se pani bharkar mujhe bhigoti hui, raundti hui chali jati.
meri chaDhti hui javani ka aadi bhi inhin se hota hai, madhya bhi inhin se aur ant bhi inhin se. bhulne ki cheshta karne par bhi kya kabhi main inhen bhool sakti hoon?
manushya ke jivan ka itihas praayः apne sagon se nahin parayon se banta hai. aisa kyon hota hai samajh mein nahin aata, kintu dekha jata hai ki akasmat kabhi ki suni hui boli, kinchit maatr dekha hua svarup, ghaDi do ghaDi ka parichay, jivan ke itihas ki amar ghatna, smriti ki amulya nidhi bankar rah jate hain aur apne sagon ka samast samaj apne jivan ka sara vatavran kamal ke patte ke charon or ke pani ki tarah chhal chhal karte rah jate hain, uchhal uchhalkar aate hain, bah jate hain. tik nahin pate. main sochti hoon aisa kyon hota hai? par samajh nahin pati.
jeth ke din the. alas dupahri. garm hava amrai ke vrikshon mein luDhakti phirti thi. bat dada uungh rahe the. ek vriksh mein lipti hui do lataon mein jhagDa ho raha tha. main tanmay ho unka jhagDa sun rahi thi, itne mein hi kuen ne puchha pagDanDi, so gai kyaa?
nahin to—mainne kaha in lataon ka jhagDa karna sun rahi hoon.
kuen ne hansakar puchha baat kya hai?
mainne kaha kuch nahin, nahaq ka jhagDa hai—donon moorkh hain.
kuen ne hansakar kaha sansar mein moorkh koi nahin hota, paristhiti sabko moorkh banati hai. is amrai mein tum akeli ho, kal ek aur pagDanDi ban jaye to kya ye sambhav nahin ki phir tum donon jhagaDne lag jao?
main tinak gai. boli sadharan baat mein bhi mera zikr kheench lane ka tumhein kya adhikar hai?
kuen ne puchha unhen moorkh kahne ka tumhein kya adhikar hai?
mainne kaha main sau baar kahungi, hazar baar kahungi, ve donon moorkh hain, tum bhi moorkh ho, sab moorkh hain?
itne mein hi bat dada bhi jag paDe, bole kisko moorkh bana rahi hai? baat ruk gai, kuan chup ho gaya. do din tak bol chaal band rahi. mainne jaan bujhkar usse jhagDa kyon kiya, ise wo samajh nahin paya. isliye mujhe santap bhi hua aur glani bhi. stri prem se vihval ho jati hai aur apne uchchhvasit hriday ke udgaron ko jab niruddh nahin kar pati, tab wo jhagDa karti hai. stri ka sabse baDa bal hai rona, uski sabse baDi kala hai jhagDa karna. jhagDa karke tinakna, ruthkar rona, phir dusre ko rulakar maan jana, nari hriday ka priytam vishay hai. purush chahe kitna bhi paDha likha ho, sahityik ho, darshanik ho, tatvagyani ho, yadi wo itni sidhi sidhi baat nahin samajh pata to sachmuch moorkh hai.
ye ghatna kuch nai nahin thi, nitya ki thi. koi chhoti si baat lekar hum jhagaD paDte, aapas mein kuch kah sun dete, phir hafton ek dusre se nahin bolte. kintu wo baat jiske liye main sab kuch karti, sara jhagDa khaDa karti, kabhi nahin hoti. kuan mujhe kabhi nahin manata tha. ant mein harkar mujhe hi bolna paDta, tab wo bolne lagta mano kuch hua hi nahin. main man hi man sochti ye kaisa vichitr jeev hai ki na to ise ruthne se koi vedna hoti hai aur na manane se koi ahlad. svayan bhi nahin ruthta, keval chup ho rahta hai. bolti hoon to phir bolne lagta hai jaise kuch hua hi nahin. he iishvar! apni rachna ki hridayhinta ki sari thaili kya mere hi liye khol rakhi hai?
is ghatna par mainne vishesh dhyaan nahin diya, kintu wo baat rah rahkar mere kanon mein goonj uthti ‘is amrai mein tum akeli ho, kal ek pagDanDi aur ban jaye to kya ye sambhav nahin ki phir tum donon bhi jhagaDne lag jao? iska prativad mainne kaise kiya? usse jhagDa kiya, use moorkh banaya. kuan samajhta hai ki main stri hoon aur stri jati ki kamzori meri bhi kamzori hai aur iska prativad karne ke badle mein svayan uske tark ka pratipadan kar deti hoon, phir moorkh main hui ya vah?
mujhe rah rahkar apni nirbalta par krodh aa jata. yadi use mere liye koi sahanubhuti nahin, mere ruthne ki koi chinta nahin, mujhe manane ka agrah nahin to phir main kyon uske liye marne lagi. yadi wo hridayhin hai to main bhi hridayhin ban sakti hoon. yadi wo aatm nigrah kar sakta hai to main bhi apne aap par sanyam rakhna seekh sakti hoon. mainne qasam khai ki phir usse ruthungi hi nahin aur yadi ruthungi to phir bolungi nahin chahe jo bhi ho, prem ke liye streetv ko kalankit nahin karungi.
ek din ki baat hai. ashvin ka mahina tha. barsat abhi abhi biti thi. na kichaD tha, na dhool. chhoti hari ghason aur jangli phulon ke beech mein hokar main amrai ke is paar se us paar tak leti thi. is saghan hariyali ke beech mein mujhe dekhkar jaan paDta mano kisi kumari kanya ka simant ho. sharad mere ang ang mein pratibimbit ho raha tha. main kuch soch rahi thi, sahsa kuen ne kaha pagDanDi, sunti ho?
mainne anyamnask si hokar kaha kaho.
usne kaha tum dinon din moti hoti ja rahi ho.
main kuch bhi nahin boli.
kuch thaharkar wo phir bola tum pahle jab dubli thi, achchhi lagti thi.
mainne kaha agar main moti ho gai hoon, to keval tumhein achchhi lagne ke liye main dubli hone ki nahin.
kuen ne kaha ye to mainne kaha nahin ki dubli hokar tum mujhe achchhi lagogi.
mainne puchha tab tumne kaha kyaa?
usne kaha kaviyon ka kahna hai ki dublapan striyon ke saundarya ko baDha deta hai. moti hone se tum kaviyon ki saundarya ki paribhasha se door hat jaogi.
mainne khijhkar puchha tum to apne ko kavi nahin samajhte na?
usne kaha bilkul nahin.
mainne puchha phir moti ho jane par main kaviyon ko achchhi lagungi ya buri, usse tumhein matlab?
usne shaant bhaav se kaha kuch bhi nahin, keval yahi ki main us paribhasha ko janta hoon aur use tumhein bhi batala dena apna kartavya samajhta hoon.
maine gambhir hokar kaha dhanyavad.
stri yadi wo sachmuch stri hai to sab kuch sah sakti hai par apne roop ka tiraskar nahin sah sakti. stri chahe ghor kurupa ho phir bhi purush ko use kurupa kahne ka koi naitik adhikar nahin. stri ka streetv hi sansar ka sabse mahan saundarya hai. uske prati asundarta ka sanket karna bhi uske streetv ko apmanit karna hai. stri ke svarup ka uphaas karna vaisa hi hai jaisa purush ko kayar kahna. main samajh gai ki kuan mujh par marmik aghat kar raha hai, nahin uphaas karna chahta hai. mainne man hi man prtigya ki ki chahe ant jo bhi ho, main bhi naaz se yuddh prarambh karungi.
usi din raat ko chandni khili thi. rajnigandha ke saurabh se amrai mast hokar jhoom rahi thi. bat dada pakshiyon ko sulakar apne bhi sone ka upakram kar rahe the. bole so gai beti?
mainne kaha nahin dada, aisi chandni kya sada rahti hai? mere to ji mein aata hai ki jivan bhar aise hi lete lete chaand ko dekhti rahun.
itne hi mein kuan bola dada, amrai mein byaah ke geet abhi se gane shuru karva do.
dada ne puchha kaisa byaah?
usne kaha dekhte nahin, prem ka pahla charan prarambh ho gaya hai, dusre charan mein kavitayen banengi, tisre charan mein pagalpan ka abhinay hoga, chauthe charan mein sagai ho jayegi.
mujhe man hi man gudgudi si jaan paDne lagi. socha, aaj ise khijhaungi.
mainne hansakar kaha dada, dekho, apne apne bhagya ki baat hai. iishvar ne tumhein itna uncha banaya hai. tum apni asankhya anjaliyon se surya aur chandrma ki kirnon ka ajasr paan karte ho aur kisi ekaant se aati hui vayu mae anant snaan karke vistritakash mein sir uthakar prkriti ki anant vibhutiyon ka anushilan karte ho. nakshatron se bhari hui raat mein shat shat pakshiyon ko god mein liye hue tum chandrlok ki kahani suna karte ho, usha aur godhuli nitya tumhein sneh se choom liya karte hain, prkriti ka anant bhanDar tumhare liye unmukt hain. main tumhare jaisi uunchi to nahin hoon phir bhi door tak phaili hoon. vasundhra apni sushama mere samne bikher deti hai, akash surya aur chandrma ki kirnon ka jaal mere uupar phaila deta hai. basant ki madakta, savan ki sajal hariyali aur sharad ki svachchh sushama mere jivan mein sphurti pradan karti hain. main keval jiti hi nahin jivan ka upbhog bhi karti hoon. kintu mujhe duhakh un logon ko dekhkar hota hai jinhen na to surya ka parkash milta hai, na chandrma ki kirnen, andhkar hi jinke jivan ki bhitti hai aur sunapan hi jinki ek kahani. ve akash ko utna hi baDa samajhte hain jitna unke bhitar samata hai, vasundhra ko utni hi door tak samajhte hain, jitna ve dekh sakte hain. dada unka astitv kaisa dayniy hai, tumne kabhi socha hai?
dada kuch nahin bole, shayad so ge the. lekin kuan bola sun rahe ho, dada! pagDanDi kitna sach kah rahi hai. aise logon se adhik dayniy jivan kiska hoga? kuch din pahle main bhi yahi socha karta tha, kintu mujhe jaan paDa ki sansar mein aur bhi adhik dayniy jivan ho sakta hai. iishvar ne jise surya aur chandrma ke aalok se vanchit rakha, akash ka vistar aur vasundhra ka vaibhav jise dekhne nahin diya, us par daya karke kam se kam use ek aisi cheez de di jisse ye sansar ka upkaar kar sakta hai, jise wo apna kah sakta hai, jiske dvara wo sansar ka kisi na kisi roop mein lakshya ban sakta hai. kintu usse adhik dayniy to ve hain jinke samne srishti ka sara vaibhav bikhra paDa hai, kintu jinke paas apna kahne ko kuch bhi nahin, rekhagnit ki rekha ki tarah unka astitv to hai, kintu unki mutai, lambai, chauDai sab kuch kalpanik hai. unka astitv kisi dusre ke astitv mein antarnihit hai! ve sabhi ke sadhan hain, kintu lakshya kisi ke bhi nahin. aise log bhi duniya mein hain. dada, kya un par tumhein daya nahin ati?
dada vilkul so ge the. mainne taish mein aakar kaha rami ke kuan, yadi tum samajhte ho ki tum sansar ke lakshya ho aur main keval sadhan maatr to ye tumhari bhool hai. sansar mein jo kuch hai sadhan hi hai, lakshya kuch bhi nahin. lakshya shabd manushya ki uljhi hui kalpana ka phal hai. lakshya ek bhavna maatr hai, sthool aur pratyaksh roop mein jis kisi ka astitv hai, wo sadhan hi hai, chahe jis roop mein ho.
kuen ne gambhir svar mein kaha tumne mera pura naam lekar pukara iske liye dhanyavad! main uttar mein keval do baten kahunga. pahli to ye ki hamara aur tumhara koi apna jhagDa nahin hai, main samajhta hoon vyaktigat roop se na tumne mujhe kuch kaha hai, na main tumhein kuch kah raha hoon. dusri baat ye hai ki jaisa tum kah rahi ho lakshya aur sadhan mein prakarik antar na hote hue bhi parimanik antar hai. sansar mein lakshya naam ki koi cheez nahin. theek hai yahan jo kuch hai kisi na kisi roop mein sadhan hi hai, ye bhi theek hai. phir bhi manna paDega ki sadhnon mein kuch sadhan aisi avastha mein hain jinhen sadhan ke atirikt dusra kuch kaha hi nahin ja sakta aur kuch sadhan aisi avastha mein pahunch ge hain jinhen sansar apni suvidha ke liye lakshya hi kahna adhik upyukt samajhta hai. iska pratyaksh sthool prmaan ye hai ki kuch logon ke yahan sansar aata hai, haath phailakar kuch mangta hai aur phir chala jata hai. sansar ki sthool vyavaharik bhasha mein ve to hue lakshya aur kuch log aise hain jinke yahan sansar aata hai, kintu isliye nahin ki wo unse kuch lena chahta hai balki isliye ki unke dvara wo apne lakshya ke paas pahunch sakta hai. tumhari sookshm darshanik bhasha mein aise log hue sadhan. samjhi?
main kuch kahna hi chahti thi ki usne rok diya, kaha dekho, tumhari chandni Doob gai, ab to so sakti ho ya nahin?
kuch din aur bite. mere prem ki aag par atmabhiman ki raakh paDne lagi. kuan sansar ka lakshya hai, main keval ek sadhan hoon. phir mera uska prem kaise ho sakta hai. main kabhi kabhi sochti prem mein pratiyogita kaisi? maan lo, wo sansar mein sab kuch hai aur main kuch bhi nahin, phir bhi kya ye yathesht karan hai ki yadi main usse prem karun to wo uska pratidan na de? kuan apne sansarik mahattv ke garv mein choor hai. wo samajhta hai ki uske samne main itni tuchchh hoon ki mujhse prem karna to door raha, bhar munh bolna bhi paap hai. wo mujhse ghrina karta hai, mera uphaas karta hai, baat baat mein mujhe nicha dikhana chahta hai. barbar purush jati!
main dinon din usse door hatne ki cheshta karne lagi. uske samipya mein mera dam ghutne laga. wo mahattvshali hai, sansar uske samne bhikhari bankar aata hai aur main? mera to koi astitv hi nahin, kisi lakshya tak pahunchne ka ek sadhan maatr hoon. meri uski kya tulna?
saanjh sabere gaanv ki striyan aati aur pani bhar le jati. alas dupahri mein pathik amrai mein vishram karne ke liye aate aur kuen ke pani mein sattu sankar khate phir thoDi der vrikshon ke niche letkar apni raah chale jate. gaanv ke chhote chhote laDke amrai mein aakar phal toDte, kuen se pani khinchte aur phir phal khakar munh haath dhokar chale jate. jahan dekho, usi ki charcha, usi ki baat. main apni naganyta par man hi man kuDhkar jali si jati. mujhe jaan paDta mano sansar mera uphaas kar raha hai, akash mera tiraskar kar raha hai, prithvi meri avhelana kar rahi hai. mera astitv rekhagnit ki rekhaon aur binduon ka astitv hai. main sabki hoon par mera koi nahin, main bhi apni nahin, keval sansar ko kisi lakshya tak pahunchane ke liye sadhan si bankar ji rahi hoon. mujhe yahan se hatna hi paDega. chahe jahan bhi jaun, jaungi zarur. hriday ki shanti ki khoj mein van van bhatkungi, vasundhra ke ek chhor se lekar dusre chhor tak ke anant vistar ko chhaan Dalungi, yadi kahin shanti nahin mili to kisi marubhumi ki vishal saikat rashi mein jakar vilin ho jaungi, ya kisi vijan parvat mala ki andheri gufa mein jakar so rahungi, phir bhi yahan na rahungi. vahan se main hatne ka upakram karne lagi.
aadhi raat thi. chandni aur andhkar amrai ke vrikshon ke niche gaDhalingan mein bandhe so rahe the. mujhe us raat ki sari baten ab bhi yaad hain, mano abhi kal hi ki ho. main apne atit jivan ki kitni hi chhoti chhoti smritiyan sahej rahi thi. itne mein kuen ne pukara pagDanDi!
nishith ke sunepan mein uski avaz goonj uthi? main chaunk paDi. itne dinon ke baad aaj kuan mujhe pukar raha hai, mera kautuhal umaDne laga.
kuan bola pagDanDi, main tumse ek baat puchhna chahta hoon.
mainne kaha puchho.
wo bola shayad tum yahan se kahin ja rahi ho?
us samay bijli bhi gir paDti to mujhe utna ashcharya na hota. ise kaise malum hua? yadi maan loon ki kisi tarah malum bhi ho gaya to phir ise kya matlab? main kshan bhar mein hi na jane kya kya soch gai, kitne hi bhavon se mera hriday uthal puthal ho utha, kintu mainne sara aaveg rokkar udasin svar mein kaha haan!
kuan thoDi der chup raha, phir bola tum is amrai se ja rahi ho, achchha hai. main bahut prasann hoon.
main kuch uttar dene ja rahi thi, tab tak usne rok diya thahro, meri baat sun lo. jab tum pahle pahal yahan aai thi tab jitna prasann main hua, utna aur koi nahin. aaj jab tum yahan se ja rahi ho, tab bhi jitni khushi mujhe ho rahi hai, utni aur kisi ko nahin. tum iska karan janti ho?
main kuch nahin boli.
wo kahne laga main tumhein kisi din kahne vala hi tha! tumne svayan jane ka nishchay kar liya. ye aur bhi achchha hua.
mainne anyamnask si kaha sansar mein jo kuch hota hai, achchha hota hai.
kuan bola pagDanDi, tum yahan se ja rahi ho, sambhavna yahi hai ki phir tum kabhi lautkar nahin aogi. tumhare jane ke pahle main tumse apne hriday ki ek baat, ek chiraschit baat kahunga, sunogi to?
mere hriday mein us samay do dharayen bah rahi thin—ek sanshay ki, dusri vismay ki. phir bhi itna hai ki sanshay se adhik mujhe vismay hi hua. mainne sara kautuhal dabakar kaha kahte jao.
kuan kahne laga mujhe adhik kuch nahin kahna hai. keval do baten hain. mainne tumse kabhi nahin kaha tha. iska karan ye hai ki ab tak kahne ka samay nahin aaya tha. tum ab ja rahi ho, jaan paDta hai wo samay aa gaya, isliye kah raha hoon.
pahli baat ye hai ki tumhare prati agadh prem hote hue bhi aaj tak mainne zahir kyon nahin hone diya. mujhe yaad hai jis din akash ke jyotishpath ki tarah tum pahle pahal is amrai mein aakar bichh gain, us din mainne dada se puchha dada, ye kaun hai? dada ne vinod se kaha tumhari bahu! main jhemp gaya. tab se lekar aaj tak ek yug beet gaya! kitne basant aaye, kitni barsaten ain, is amrai ki saghan chhaya mein hum donon ne kitni kahaniyan suni, kitne geet sunkar phir bhool ge aur kitni baar hum aapas mein laDe jhagDe hain. is atit jivan ki chhoti se chhoti ghatna bhi mere smriti pat par amar rekha bankar khinch gai hai aur un teDhi meDhi rekhaon ko joDkar jo akshar bante hain uska ek maatr arth yahi nikalta hai ki is amrai mein chhoti, patli si jo ek pagDanDi hai, us pagDanDi ke sune upekshit jivan ka jo nishkarsh hai wo kisi ek yug ya ek desh ka nahin, vishv bhar ke anantkal ke liye aalok stambh ban sakta hai. wo na rahe, kintu uski kripa yug yug tak kalpana lok ke vistritakash mein streetv ka adarsh ban akash deep si jhilmilati rahegi.
kintu itna hote hue bhi aaj tak mainne tumse kabhi kuch kaha kyon nahin?
itna hi nahin, mainne ab tak tumhare prati keval udasinata aur kathorta ke bhaav hi prakashit kiye. niras upeksha, alochanatmak vinod, iske atirikt mujhe yaad nahin main aur bhi tumhein kuch de saka hoon ya nahin. kintu kyon? keval ek hi karan tha.
pagDanDi, main tumhein janta tha, tumhare hriday ko achchhi tarah pahchanta tha. main tumhare jivan ka darshanik adhyayan kar raha tha. main janta tha sansar ke kalyan ke kis abhipray ko lekar tumhare jivan ka nirman hua hai. main janta tha kis lakshya ko lekar vishv ki rachnatmak shakti ne tumhein svarg se lakar is amrai ki ghason aur patti ki sej par sula diya hai. main ye bhi janta tha ki tumhare avatran ka jo antarnihit abhipray hai, wo kis path par chalkar tum adhik se adhik praapt kar sakti ho.
jis mahan uddeshya ko lekar tum janmi ho, use main janta hoon, ichchha rahte hue bhi main tumhari koi sahayata nahin kar sakta. kintu haan, ek baat kar sakta hoon. gayak apni taan ko aaroh avroh ke beech mein nachata hua le jakar sam par bitha deta hai. sunne vale use sahayata nahin de sakte phir bhi ant mein sam par ek baar sir hila dete hain. taan lautkar ghar aa gai, sabka sir hil gaya. pagDanDi, apne jivan ke uchchadarsh ko tumhein akele hi nibhana paDega, main keval itna hi kar sakunga ki jis din tumhare jivan ki taan lautkar ghar aa jayegi, us din us sangit mein apne ko bahakar sir hila dunga! tumhare jivan sangit ke sam par apne ko nichhavar kar dunga, bas.
prem se svarg milta hai, kintu usse bhi uncha, usse bhi pavitra ek sthaan hai. uska vahi path hai jis par tum ja rahi ho, seva. prem sabhi kar sakte hain, kintu seva sabhi nahin kar sakte. prem karna sansar ka svbhaav hai, kintu seva ek sadhana hai. prem hriday ki sari komal bhavnaon ka akunchan hai, seva unka prasar. prem mein svayan lakshya bankar apna ek koi lakshya banana paDta hai, seva mein apne ko sansar ka sadhan banakar sansar ko apni sadhnaon ki tapobhumi bana dena paDta hai. prem yagya hai aur seva tapasya. prem se premik milta hai aur seva se iishvar.
janm se lekar aaj tak tum seva ke path par hi rahi ho aur ab bhi uttarottar usi par aage baDhti ja rahi ho. tumhare maarg mein jo sabse vaDa vighn bankar khaDa ho sakta hai wo hai prem. prem manushyatv hai aur seva devatv. tumhari aatma svargik hote hue bhi tumhara sharir bhautik hai. aatma aur sharir ka dvandv sansar ki amar kahani hai. basant jab apna madhu kalash prithvi par uDel deta hai, varsha jab van van mein hariyali bikhra deti hai, sharad ke shubhrabhr khanD jab akash mein tairne lagte hain, tab aatma ki sadhnaon mein sharir chhote chhote sapne chheent deta hai, samved ki madhur gambhir dhvani mein megh mallar ki mastani tane bheen jati hain, somras mein kadamb ki bunden chu paDti hain, kailash mein basant aa jata hai. ye bahut purani katha hai. yug yugantar se yahi hota aaya hai aur yahi hota rahega. phir bhi sabhi ise bhool jate hain. ankhe jhap jati hain, tapasya ke shubhr pratyush mein anurag ki arun usha chhitak paDti hai, sadhana ki barf galne lagti hai, lagan ki aag manjhane lagti hai, hriday ki ekantta mein kisi ki chhaya ghus paDti hai, jagriti mein angDai bhar jati hai, svapnon mein madakta bheen jati hai, aur. . . aur jab ankhen khulti hain tab kahin kuch nahin rahta. phir se nai kahani shuru hoti hai—nai yatra hoti hai, naya prasthan hota hai, isi tarah ye sansar chalta hai.
aatma ke uupar sharir ka sabse baDa prabhav hai sanshay. jab sansar mein sabhi kisi na kisi se prem karte hain, sabhi ka koi na koi ek apna hai, jab kisi se prem karna, kisi ke prem ka paatr banna pranimatr ka adhikar hai, tab phir main—keval main hi—kyon isse vanchit rahun? ye jeev ki amar samasya hai, shashvat parashn hai.
kintu satya kya hai, log ye samajhne ki bahut kam cheshta karte hain. jinke pair hain ve zamin par chalte hai, kintu jinhe pankh mile hain yadi ve bhi zamin par hi chale to ye apni shaktiyon ka durupyog hai. jinhen iishvar ne akash mein uDne ke liye banaya hai, unke liye prithvi par chalna apne mahatv ki upeksha karna hai, apne aapko bhulna hai.
prem karne ki yogyata sabmen hai, kintu seva karne ki shakti kisi kisi ko hi milti hai. seva karne ki yogyata rakhna danD nahin, iishvar ka ashirvad hai jise iishvar ne sansar mein akela banaya hai, dhan vaibhav nahin diya hai, sukh mein prasann hone vala aur duःkha mein gale lagakar rone vala sathi nahin diya hai, sansar ke shabdon mein jise usne dukhiya banaya hai, uske jivan mein usne ek mahan abhipray bhar diya hai, shakti ka ek amar, srot, bechaini ki taDphaDati hui andhi, uske antar mein sanjokar rakh di hai. ho sakta hai wo ise na samjhe, shayad sansar bhi ise na samjhe; phir bhi wo nahin hai, aisi baat nahin; wo hai, avashyakta hai keval use samajhne ki.
pagDanDi, tum iishvar ki unhin rachnaon mein se ek ho. tumhara nirman isliye nahin hua hai ki tum ek ki hokar raho, ek ke liye jiyo aur ek ke liye maro. nahin, tum prithvi par ek bahut baDa uddeshya lekar aai ho. jeth ki dhadhakti hui lu mein, bhadon ki ajastr varsha mein aur shishir ke tushar paat mein isi tarah leti rahkar tumhein asankhya manushyon ko ghar se bahar aur bahar se ghar pahunchana paDega. sabhyata ke vistar ke liye, jivan ke saukhya ke liye, sansar ke kalyan ke liye, tumhein baDa se baDa tyaag karna paDega. tumhara koi nahin hai, isliye ki sabhi tumhare hain, tum kisi ki nahin ho, isliye ki tum sabhi ki ho. tum apne jivan ka upbhog nahin karti ho, tum vishv ki akshay vibhuti ho.
aaj ke pahle mainne tumse kabhi kuch nahin kaha tha, karan ye tha—pagDanDi, meri spashtavadita ko kshama karna ki tumhari aatma soi hui thi,keval sharir jaga tha. tum nahin samajhti thi ki tum kaun ho, kisaliye yahan aai ho, tum sansar ke purane path par chalna chahti thi. aaj, chahe jis karan se ho tumhein apne vartaman jivan se asantosh ho gaya hai, tumhein apne se ghrina ho aai hai. aaj tum anant mein kudne ja rahi ho, sansar mein kuch karne ja rahi ho, tumhari aatma jag uthi hai. in baton ko kahne ka mujhe aaj hi avsar mila hai.
pagDanDi, tum aisa na samajhna ki main tumse sneh nahin karta, usse bhi adhik main tumhari puja karta hoon. phir bhi apne vyaktitv ko tumhare path mein khaDa karke main tumhari aatma ki pragti ko rokna nahin chahta. main tumhari chetna mein apni chhaya Dalkar use malin nahin karna chahta. tumhari sangit lahri mein apvadi svar bankar use besura banana nahin chahta. main baDe ullaas se tumhein yahan se vida karta hoon. jao—sansar mein jahan tumhara adhik upyog ho sake, vahan jao aur apne jivan ko sarthak banao yahi meri kamna hai, yahi mera sandesh hai, yahi mera. . . kshama karna. . . ashirvad hai.
keval ek baat aur kahni hai. meri hridayhinta ko bhool jana—ho sake to kshama kar dena. mere bhi hriday hai, usmen bhi thoDa ras hai, par mainne jaan bujhkar use sukha diya, use ankhon mein nahin aane diya, othon par se ponchh Dala. tumhare kartavya path ko main apne ansuon se gila nahin banana chahta—pagDanDi, meri katha samajhne ki koshish karna, yadi na samajh pao to. . . to phir sab kuch bhool jana.
sansar tumhari raah dekh raha hai, anant tumhari prtiksha kar raha hai. jao, apna kartavya palan karo. sansar tumhein kuchle to taDapna nahin, bhool jaye to sisakna nahin? bhule hue pathikon ko ghar pahuncha dena jo ghar chhoDkar videsh jana chahte hon unki sahayata karna. jab tak jina, khush rahna, kabhi kisi ke liye rona nahin aur—ek baat aur—yadi tumhare hriday mein kabhi prem ki bhavna aa jaye to koshish karke apne astitv ka sara bal lagakar use nikal Dalna. yadi na nikal sako to phir vahan se kahin dur—bahut dur—chali jana.
pagDanDi! vida! tum apne jyotirmay bhavishya mein apne dhundhle atit ko Dubo dena. sab kuch bhool jana—bat dada aur rami ke kuan ko bhi bhool jana! keval yahi yaad rakhna ki tum kaun ho aur tumhara kartavya kya hai—bas jao, vida!—iishvar tumhein bal de.
kuan chup ho gaya. aadhi raat ki svapnil niravta mein jaan paDta tha, uska svar ab bhi goonj raha ho, shabd antriksh mein ab bhi ghumaDte phirte ho. main kuch bol nahin saki, soch bhi nahin saki. tandra si chha gai, kaath sa maar gaya. uske antim shabd arddhratri ke shunya andhkar mein bijli ke akshron mein mano charon or likhe hue se ug rahe the—bas jao, vida, iishvar tumhein bal de.
theek theek yaad nahin aata, kitne din hue, phir bhi ek yug sa beet gaya. meri ankhon ke samne wo svarup aaj bhi rah rahkar naach uthta hai, kanon mein ve shabd ab bhi rah rahkar goonj uthte hain.
ab main rajdhani ka rajamarg hoon. donon or saheliyon ki tarah do phut paath hain, dhoop aur varsha se bachane ke liye donon or vrikshon ki qataren hain, raushani ke liye bijli ke khambhe hain, aur na jane vibhav vilas ki kitni chizen hain. nitya mera shringar hota hai, meri dekh rekh mein hazaron rupye kharch kiye jate hain, rajamahishi ki tarah mera satkar hota hai, jahan tak drishti jati hai—bas, main hi main hoon.
uttardayitv bhi kam nahin hai. main shahr ki dhamni hoon, iska rakt pravah mujhi se hokar charon or dauDta hai. main sabhyata ka stambh hoon, raaj satta ka praan hoon. itni bheeD rahti hai ki sochne ki fursat bhi nahin milti. janasmudr ki anant lahren mujhe kuchalti hui ek or se dusri or nikal jati hain, main uf tak nahin karti. itni bheeD mein mujhe apna kahne vala ek bhi nahin, ek kshan ke liye bhi mera hone vala koi nahin. mere jalte hue nirvishram jivan par sahanubhuti ki do boond chhiDak de, aisa koi nahin. phir bhi main vyathit nahin hoti, khush rahne ki koshish karti hoon. vedna ke sholon par muskurahat ki raakh bikherti rahti hoon, othon mein hriday ko chhipaye rakhti hoon. jahan tak hota hai, usne jo kuch kaha tha, sab karti hoon. keval ek hi baat nahin hoti, use bhool nahin pati!
amrai ki chhaya mein ghason aur patton par wo jivan, pakshiyon ke gane, lataon ka jhagDa, bat dada ki kahaniyan, aur. . . aur kya kahun? kitni baten hain jo bhulai nahin ja sakti? mere jivan sangit ki taan lautkar sam par aati hai, aakar phir laut jati hai, par kisi ka sir nahin hilta?
ye purana itihas hai. koi kya jane? ek samay tha jab main aisi nahin thi.
tab main aisi nahin thi. log samajhte hain main sada ki aisi hi hun—moti, chauDi, bhari bharkam, kshitij ki paridhi ko chirkar anant ko shaant banati, sansar ke ek sire se lekar dusre sire tak leti hui. wo purana itihas hai. koi kya jane!
tab main na to itni lambi thi, na itni chauDi. na chehre par iinton ki surkhi ki lalai thi, na sharir par kankDon ke gahne. mere dayen bayen vrikshon ki jo ye kataren dekh rahe ho, ve bhi nahin thi, na phutpath tha, na bijli ke khambhe. apsraon ki si saji na ye dukanen theen, na anguthi ke nagine ki tarah ye park. tab main ek chhoti si pagDanDi thi—dubli, patli, sukumar, natkhat!
kab se main hoon, iski to yaad nahin ati; kintu aisa jaan paDta hai ki amrai ke is paar ki koi taruni nadi se jal lane ke liye us paar gai hogi; jaise kisi chhoti si naganya ghatna ke baad kisi pratha ka janm ho jata hai aur uske baad phir ek dharm bhi nikal paDta hai. usi tarah ek taruni ke jal bhar lane ke baad gaanv ki sari taruniyan ghaDe mein jal lekar bhatakti, ithlati ek hi path se aati rahi hongi aur phir vahin se mere jivan ki kahani bah nikli.
mere atit ke akash ke do tare ab bhi mere jivan ke sunepan ki andhiyari mein jhalamla rahe hain. yon to sari amrai, sara gaanv mere parichiton se bhara tha, kintu ghanishthata thi keval do janon se, ek bat dada aur dusra tha rami ka kuna.
bat dada amrai ke sabhi vrikshon mein buDhe the aur sabhi unhen shraddha aur aadar se bat dada kaha karte the. the to ve vriddh, lekin unka hriday balkon se bhi saral aur yuvkon se bhi saras tha. ve amrai ke kulapti the. unmen tapasviyon ka tez bhi tha aur grihasthon ki komalta bhi. unki saghan chhaya ke niche letkar bite hue yugon ki vedna aur ahlad se bhari kahaniyan sunna, rimjhim rimjhim varsha mein unki tahaniyon mein lukkar baith pakshiyon ki saras barsati ka maza lutna aaj bhi yaad karke main vihval ho uthti hoon.
theek inhin se sata hua rami ka kuna tha—pakka, thos, sajal, svachchh, gambhir, udaar. saanjh sabere gaanv ki striyan jhan jhan karti aati aur amrai ko apne kal kanth se mukhrit karke kuen se pani bharkar mujhe bhigoti hui, raundti hui chali jati.
meri chaDhti hui javani ka aadi bhi inhin se hota hai, madhya bhi inhin se aur ant bhi inhin se. bhulne ki cheshta karne par bhi kya kabhi main inhen bhool sakti hoon?
manushya ke jivan ka itihas praayः apne sagon se nahin parayon se banta hai. aisa kyon hota hai samajh mein nahin aata, kintu dekha jata hai ki akasmat kabhi ki suni hui boli, kinchit maatr dekha hua svarup, ghaDi do ghaDi ka parichay, jivan ke itihas ki amar ghatna, smriti ki amulya nidhi bankar rah jate hain aur apne sagon ka samast samaj apne jivan ka sara vatavran kamal ke patte ke charon or ke pani ki tarah chhal chhal karte rah jate hain, uchhal uchhalkar aate hain, bah jate hain. tik nahin pate. main sochti hoon aisa kyon hota hai? par samajh nahin pati.
jeth ke din the. alas dupahri. garm hava amrai ke vrikshon mein luDhakti phirti thi. bat dada uungh rahe the. ek vriksh mein lipti hui do lataon mein jhagDa ho raha tha. main tanmay ho unka jhagDa sun rahi thi, itne mein hi kuen ne puchha pagDanDi, so gai kyaa?
nahin to—mainne kaha in lataon ka jhagDa karna sun rahi hoon.
kuen ne hansakar puchha baat kya hai?
mainne kaha kuch nahin, nahaq ka jhagDa hai—donon moorkh hain.
kuen ne hansakar kaha sansar mein moorkh koi nahin hota, paristhiti sabko moorkh banati hai. is amrai mein tum akeli ho, kal ek aur pagDanDi ban jaye to kya ye sambhav nahin ki phir tum donon jhagaDne lag jao?
main tinak gai. boli sadharan baat mein bhi mera zikr kheench lane ka tumhein kya adhikar hai?
kuen ne puchha unhen moorkh kahne ka tumhein kya adhikar hai?
mainne kaha main sau baar kahungi, hazar baar kahungi, ve donon moorkh hain, tum bhi moorkh ho, sab moorkh hain?
itne mein hi bat dada bhi jag paDe, bole kisko moorkh bana rahi hai? baat ruk gai, kuan chup ho gaya. do din tak bol chaal band rahi. mainne jaan bujhkar usse jhagDa kyon kiya, ise wo samajh nahin paya. isliye mujhe santap bhi hua aur glani bhi. stri prem se vihval ho jati hai aur apne uchchhvasit hriday ke udgaron ko jab niruddh nahin kar pati, tab wo jhagDa karti hai. stri ka sabse baDa bal hai rona, uski sabse baDi kala hai jhagDa karna. jhagDa karke tinakna, ruthkar rona, phir dusre ko rulakar maan jana, nari hriday ka priytam vishay hai. purush chahe kitna bhi paDha likha ho, sahityik ho, darshanik ho, tatvagyani ho, yadi wo itni sidhi sidhi baat nahin samajh pata to sachmuch moorkh hai.
ye ghatna kuch nai nahin thi, nitya ki thi. koi chhoti si baat lekar hum jhagaD paDte, aapas mein kuch kah sun dete, phir hafton ek dusre se nahin bolte. kintu wo baat jiske liye main sab kuch karti, sara jhagDa khaDa karti, kabhi nahin hoti. kuan mujhe kabhi nahin manata tha. ant mein harkar mujhe hi bolna paDta, tab wo bolne lagta mano kuch hua hi nahin. main man hi man sochti ye kaisa vichitr jeev hai ki na to ise ruthne se koi vedna hoti hai aur na manane se koi ahlad. svayan bhi nahin ruthta, keval chup ho rahta hai. bolti hoon to phir bolne lagta hai jaise kuch hua hi nahin. he iishvar! apni rachna ki hridayhinta ki sari thaili kya mere hi liye khol rakhi hai?
is ghatna par mainne vishesh dhyaan nahin diya, kintu wo baat rah rahkar mere kanon mein goonj uthti ‘is amrai mein tum akeli ho, kal ek pagDanDi aur ban jaye to kya ye sambhav nahin ki phir tum donon bhi jhagaDne lag jao? iska prativad mainne kaise kiya? usse jhagDa kiya, use moorkh banaya. kuan samajhta hai ki main stri hoon aur stri jati ki kamzori meri bhi kamzori hai aur iska prativad karne ke badle mein svayan uske tark ka pratipadan kar deti hoon, phir moorkh main hui ya vah?
mujhe rah rahkar apni nirbalta par krodh aa jata. yadi use mere liye koi sahanubhuti nahin, mere ruthne ki koi chinta nahin, mujhe manane ka agrah nahin to phir main kyon uske liye marne lagi. yadi wo hridayhin hai to main bhi hridayhin ban sakti hoon. yadi wo aatm nigrah kar sakta hai to main bhi apne aap par sanyam rakhna seekh sakti hoon. mainne qasam khai ki phir usse ruthungi hi nahin aur yadi ruthungi to phir bolungi nahin chahe jo bhi ho, prem ke liye streetv ko kalankit nahin karungi.
ek din ki baat hai. ashvin ka mahina tha. barsat abhi abhi biti thi. na kichaD tha, na dhool. chhoti hari ghason aur jangli phulon ke beech mein hokar main amrai ke is paar se us paar tak leti thi. is saghan hariyali ke beech mein mujhe dekhkar jaan paDta mano kisi kumari kanya ka simant ho. sharad mere ang ang mein pratibimbit ho raha tha. main kuch soch rahi thi, sahsa kuen ne kaha pagDanDi, sunti ho?
mainne anyamnask si hokar kaha kaho.
usne kaha tum dinon din moti hoti ja rahi ho.
main kuch bhi nahin boli.
kuch thaharkar wo phir bola tum pahle jab dubli thi, achchhi lagti thi.
mainne kaha agar main moti ho gai hoon, to keval tumhein achchhi lagne ke liye main dubli hone ki nahin.
kuen ne kaha ye to mainne kaha nahin ki dubli hokar tum mujhe achchhi lagogi.
mainne puchha tab tumne kaha kyaa?
usne kaha kaviyon ka kahna hai ki dublapan striyon ke saundarya ko baDha deta hai. moti hone se tum kaviyon ki saundarya ki paribhasha se door hat jaogi.
mainne khijhkar puchha tum to apne ko kavi nahin samajhte na?
usne kaha bilkul nahin.
mainne puchha phir moti ho jane par main kaviyon ko achchhi lagungi ya buri, usse tumhein matlab?
usne shaant bhaav se kaha kuch bhi nahin, keval yahi ki main us paribhasha ko janta hoon aur use tumhein bhi batala dena apna kartavya samajhta hoon.
maine gambhir hokar kaha dhanyavad.
stri yadi wo sachmuch stri hai to sab kuch sah sakti hai par apne roop ka tiraskar nahin sah sakti. stri chahe ghor kurupa ho phir bhi purush ko use kurupa kahne ka koi naitik adhikar nahin. stri ka streetv hi sansar ka sabse mahan saundarya hai. uske prati asundarta ka sanket karna bhi uske streetv ko apmanit karna hai. stri ke svarup ka uphaas karna vaisa hi hai jaisa purush ko kayar kahna. main samajh gai ki kuan mujh par marmik aghat kar raha hai, nahin uphaas karna chahta hai. mainne man hi man prtigya ki ki chahe ant jo bhi ho, main bhi naaz se yuddh prarambh karungi.
usi din raat ko chandni khili thi. rajnigandha ke saurabh se amrai mast hokar jhoom rahi thi. bat dada pakshiyon ko sulakar apne bhi sone ka upakram kar rahe the. bole so gai beti?
mainne kaha nahin dada, aisi chandni kya sada rahti hai? mere to ji mein aata hai ki jivan bhar aise hi lete lete chaand ko dekhti rahun.
itne hi mein kuan bola dada, amrai mein byaah ke geet abhi se gane shuru karva do.
dada ne puchha kaisa byaah?
usne kaha dekhte nahin, prem ka pahla charan prarambh ho gaya hai, dusre charan mein kavitayen banengi, tisre charan mein pagalpan ka abhinay hoga, chauthe charan mein sagai ho jayegi.
mujhe man hi man gudgudi si jaan paDne lagi. socha, aaj ise khijhaungi.
mainne hansakar kaha dada, dekho, apne apne bhagya ki baat hai. iishvar ne tumhein itna uncha banaya hai. tum apni asankhya anjaliyon se surya aur chandrma ki kirnon ka ajasr paan karte ho aur kisi ekaant se aati hui vayu mae anant snaan karke vistritakash mein sir uthakar prkriti ki anant vibhutiyon ka anushilan karte ho. nakshatron se bhari hui raat mein shat shat pakshiyon ko god mein liye hue tum chandrlok ki kahani suna karte ho, usha aur godhuli nitya tumhein sneh se choom liya karte hain, prkriti ka anant bhanDar tumhare liye unmukt hain. main tumhare jaisi uunchi to nahin hoon phir bhi door tak phaili hoon. vasundhra apni sushama mere samne bikher deti hai, akash surya aur chandrma ki kirnon ka jaal mere uupar phaila deta hai. basant ki madakta, savan ki sajal hariyali aur sharad ki svachchh sushama mere jivan mein sphurti pradan karti hain. main keval jiti hi nahin jivan ka upbhog bhi karti hoon. kintu mujhe duhakh un logon ko dekhkar hota hai jinhen na to surya ka parkash milta hai, na chandrma ki kirnen, andhkar hi jinke jivan ki bhitti hai aur sunapan hi jinki ek kahani. ve akash ko utna hi baDa samajhte hain jitna unke bhitar samata hai, vasundhra ko utni hi door tak samajhte hain, jitna ve dekh sakte hain. dada unka astitv kaisa dayniy hai, tumne kabhi socha hai?
dada kuch nahin bole, shayad so ge the. lekin kuan bola sun rahe ho, dada! pagDanDi kitna sach kah rahi hai. aise logon se adhik dayniy jivan kiska hoga? kuch din pahle main bhi yahi socha karta tha, kintu mujhe jaan paDa ki sansar mein aur bhi adhik dayniy jivan ho sakta hai. iishvar ne jise surya aur chandrma ke aalok se vanchit rakha, akash ka vistar aur vasundhra ka vaibhav jise dekhne nahin diya, us par daya karke kam se kam use ek aisi cheez de di jisse ye sansar ka upkaar kar sakta hai, jise wo apna kah sakta hai, jiske dvara wo sansar ka kisi na kisi roop mein lakshya ban sakta hai. kintu usse adhik dayniy to ve hain jinke samne srishti ka sara vaibhav bikhra paDa hai, kintu jinke paas apna kahne ko kuch bhi nahin, rekhagnit ki rekha ki tarah unka astitv to hai, kintu unki mutai, lambai, chauDai sab kuch kalpanik hai. unka astitv kisi dusre ke astitv mein antarnihit hai! ve sabhi ke sadhan hain, kintu lakshya kisi ke bhi nahin. aise log bhi duniya mein hain. dada, kya un par tumhein daya nahin ati?
dada vilkul so ge the. mainne taish mein aakar kaha rami ke kuan, yadi tum samajhte ho ki tum sansar ke lakshya ho aur main keval sadhan maatr to ye tumhari bhool hai. sansar mein jo kuch hai sadhan hi hai, lakshya kuch bhi nahin. lakshya shabd manushya ki uljhi hui kalpana ka phal hai. lakshya ek bhavna maatr hai, sthool aur pratyaksh roop mein jis kisi ka astitv hai, wo sadhan hi hai, chahe jis roop mein ho.
kuen ne gambhir svar mein kaha tumne mera pura naam lekar pukara iske liye dhanyavad! main uttar mein keval do baten kahunga. pahli to ye ki hamara aur tumhara koi apna jhagDa nahin hai, main samajhta hoon vyaktigat roop se na tumne mujhe kuch kaha hai, na main tumhein kuch kah raha hoon. dusri baat ye hai ki jaisa tum kah rahi ho lakshya aur sadhan mein prakarik antar na hote hue bhi parimanik antar hai. sansar mein lakshya naam ki koi cheez nahin. theek hai yahan jo kuch hai kisi na kisi roop mein sadhan hi hai, ye bhi theek hai. phir bhi manna paDega ki sadhnon mein kuch sadhan aisi avastha mein hain jinhen sadhan ke atirikt dusra kuch kaha hi nahin ja sakta aur kuch sadhan aisi avastha mein pahunch ge hain jinhen sansar apni suvidha ke liye lakshya hi kahna adhik upyukt samajhta hai. iska pratyaksh sthool prmaan ye hai ki kuch logon ke yahan sansar aata hai, haath phailakar kuch mangta hai aur phir chala jata hai. sansar ki sthool vyavaharik bhasha mein ve to hue lakshya aur kuch log aise hain jinke yahan sansar aata hai, kintu isliye nahin ki wo unse kuch lena chahta hai balki isliye ki unke dvara wo apne lakshya ke paas pahunch sakta hai. tumhari sookshm darshanik bhasha mein aise log hue sadhan. samjhi?
main kuch kahna hi chahti thi ki usne rok diya, kaha dekho, tumhari chandni Doob gai, ab to so sakti ho ya nahin?
kuch din aur bite. mere prem ki aag par atmabhiman ki raakh paDne lagi. kuan sansar ka lakshya hai, main keval ek sadhan hoon. phir mera uska prem kaise ho sakta hai. main kabhi kabhi sochti prem mein pratiyogita kaisi? maan lo, wo sansar mein sab kuch hai aur main kuch bhi nahin, phir bhi kya ye yathesht karan hai ki yadi main usse prem karun to wo uska pratidan na de? kuan apne sansarik mahattv ke garv mein choor hai. wo samajhta hai ki uske samne main itni tuchchh hoon ki mujhse prem karna to door raha, bhar munh bolna bhi paap hai. wo mujhse ghrina karta hai, mera uphaas karta hai, baat baat mein mujhe nicha dikhana chahta hai. barbar purush jati!
main dinon din usse door hatne ki cheshta karne lagi. uske samipya mein mera dam ghutne laga. wo mahattvshali hai, sansar uske samne bhikhari bankar aata hai aur main? mera to koi astitv hi nahin, kisi lakshya tak pahunchne ka ek sadhan maatr hoon. meri uski kya tulna?
saanjh sabere gaanv ki striyan aati aur pani bhar le jati. alas dupahri mein pathik amrai mein vishram karne ke liye aate aur kuen ke pani mein sattu sankar khate phir thoDi der vrikshon ke niche letkar apni raah chale jate. gaanv ke chhote chhote laDke amrai mein aakar phal toDte, kuen se pani khinchte aur phir phal khakar munh haath dhokar chale jate. jahan dekho, usi ki charcha, usi ki baat. main apni naganyta par man hi man kuDhkar jali si jati. mujhe jaan paDta mano sansar mera uphaas kar raha hai, akash mera tiraskar kar raha hai, prithvi meri avhelana kar rahi hai. mera astitv rekhagnit ki rekhaon aur binduon ka astitv hai. main sabki hoon par mera koi nahin, main bhi apni nahin, keval sansar ko kisi lakshya tak pahunchane ke liye sadhan si bankar ji rahi hoon. mujhe yahan se hatna hi paDega. chahe jahan bhi jaun, jaungi zarur. hriday ki shanti ki khoj mein van van bhatkungi, vasundhra ke ek chhor se lekar dusre chhor tak ke anant vistar ko chhaan Dalungi, yadi kahin shanti nahin mili to kisi marubhumi ki vishal saikat rashi mein jakar vilin ho jaungi, ya kisi vijan parvat mala ki andheri gufa mein jakar so rahungi, phir bhi yahan na rahungi. vahan se main hatne ka upakram karne lagi.
aadhi raat thi. chandni aur andhkar amrai ke vrikshon ke niche gaDhalingan mein bandhe so rahe the. mujhe us raat ki sari baten ab bhi yaad hain, mano abhi kal hi ki ho. main apne atit jivan ki kitni hi chhoti chhoti smritiyan sahej rahi thi. itne mein kuen ne pukara pagDanDi!
nishith ke sunepan mein uski avaz goonj uthi? main chaunk paDi. itne dinon ke baad aaj kuan mujhe pukar raha hai, mera kautuhal umaDne laga.
kuan bola pagDanDi, main tumse ek baat puchhna chahta hoon.
mainne kaha puchho.
wo bola shayad tum yahan se kahin ja rahi ho?
us samay bijli bhi gir paDti to mujhe utna ashcharya na hota. ise kaise malum hua? yadi maan loon ki kisi tarah malum bhi ho gaya to phir ise kya matlab? main kshan bhar mein hi na jane kya kya soch gai, kitne hi bhavon se mera hriday uthal puthal ho utha, kintu mainne sara aaveg rokkar udasin svar mein kaha haan!
kuan thoDi der chup raha, phir bola tum is amrai se ja rahi ho, achchha hai. main bahut prasann hoon.
main kuch uttar dene ja rahi thi, tab tak usne rok diya thahro, meri baat sun lo. jab tum pahle pahal yahan aai thi tab jitna prasann main hua, utna aur koi nahin. aaj jab tum yahan se ja rahi ho, tab bhi jitni khushi mujhe ho rahi hai, utni aur kisi ko nahin. tum iska karan janti ho?
main kuch nahin boli.
wo kahne laga main tumhein kisi din kahne vala hi tha! tumne svayan jane ka nishchay kar liya. ye aur bhi achchha hua.
mainne anyamnask si kaha sansar mein jo kuch hota hai, achchha hota hai.
kuan bola pagDanDi, tum yahan se ja rahi ho, sambhavna yahi hai ki phir tum kabhi lautkar nahin aogi. tumhare jane ke pahle main tumse apne hriday ki ek baat, ek chiraschit baat kahunga, sunogi to?
mere hriday mein us samay do dharayen bah rahi thin—ek sanshay ki, dusri vismay ki. phir bhi itna hai ki sanshay se adhik mujhe vismay hi hua. mainne sara kautuhal dabakar kaha kahte jao.
kuan kahne laga mujhe adhik kuch nahin kahna hai. keval do baten hain. mainne tumse kabhi nahin kaha tha. iska karan ye hai ki ab tak kahne ka samay nahin aaya tha. tum ab ja rahi ho, jaan paDta hai wo samay aa gaya, isliye kah raha hoon.
pahli baat ye hai ki tumhare prati agadh prem hote hue bhi aaj tak mainne zahir kyon nahin hone diya. mujhe yaad hai jis din akash ke jyotishpath ki tarah tum pahle pahal is amrai mein aakar bichh gain, us din mainne dada se puchha dada, ye kaun hai? dada ne vinod se kaha tumhari bahu! main jhemp gaya. tab se lekar aaj tak ek yug beet gaya! kitne basant aaye, kitni barsaten ain, is amrai ki saghan chhaya mein hum donon ne kitni kahaniyan suni, kitne geet sunkar phir bhool ge aur kitni baar hum aapas mein laDe jhagDe hain. is atit jivan ki chhoti se chhoti ghatna bhi mere smriti pat par amar rekha bankar khinch gai hai aur un teDhi meDhi rekhaon ko joDkar jo akshar bante hain uska ek maatr arth yahi nikalta hai ki is amrai mein chhoti, patli si jo ek pagDanDi hai, us pagDanDi ke sune upekshit jivan ka jo nishkarsh hai wo kisi ek yug ya ek desh ka nahin, vishv bhar ke anantkal ke liye aalok stambh ban sakta hai. wo na rahe, kintu uski kripa yug yug tak kalpana lok ke vistritakash mein streetv ka adarsh ban akash deep si jhilmilati rahegi.
kintu itna hote hue bhi aaj tak mainne tumse kabhi kuch kaha kyon nahin?
itna hi nahin, mainne ab tak tumhare prati keval udasinata aur kathorta ke bhaav hi prakashit kiye. niras upeksha, alochanatmak vinod, iske atirikt mujhe yaad nahin main aur bhi tumhein kuch de saka hoon ya nahin. kintu kyon? keval ek hi karan tha.
pagDanDi, main tumhein janta tha, tumhare hriday ko achchhi tarah pahchanta tha. main tumhare jivan ka darshanik adhyayan kar raha tha. main janta tha sansar ke kalyan ke kis abhipray ko lekar tumhare jivan ka nirman hua hai. main janta tha kis lakshya ko lekar vishv ki rachnatmak shakti ne tumhein svarg se lakar is amrai ki ghason aur patti ki sej par sula diya hai. main ye bhi janta tha ki tumhare avatran ka jo antarnihit abhipray hai, wo kis path par chalkar tum adhik se adhik praapt kar sakti ho.
jis mahan uddeshya ko lekar tum janmi ho, use main janta hoon, ichchha rahte hue bhi main tumhari koi sahayata nahin kar sakta. kintu haan, ek baat kar sakta hoon. gayak apni taan ko aaroh avroh ke beech mein nachata hua le jakar sam par bitha deta hai. sunne vale use sahayata nahin de sakte phir bhi ant mein sam par ek baar sir hila dete hain. taan lautkar ghar aa gai, sabka sir hil gaya. pagDanDi, apne jivan ke uchchadarsh ko tumhein akele hi nibhana paDega, main keval itna hi kar sakunga ki jis din tumhare jivan ki taan lautkar ghar aa jayegi, us din us sangit mein apne ko bahakar sir hila dunga! tumhare jivan sangit ke sam par apne ko nichhavar kar dunga, bas.
prem se svarg milta hai, kintu usse bhi uncha, usse bhi pavitra ek sthaan hai. uska vahi path hai jis par tum ja rahi ho, seva. prem sabhi kar sakte hain, kintu seva sabhi nahin kar sakte. prem karna sansar ka svbhaav hai, kintu seva ek sadhana hai. prem hriday ki sari komal bhavnaon ka akunchan hai, seva unka prasar. prem mein svayan lakshya bankar apna ek koi lakshya banana paDta hai, seva mein apne ko sansar ka sadhan banakar sansar ko apni sadhnaon ki tapobhumi bana dena paDta hai. prem yagya hai aur seva tapasya. prem se premik milta hai aur seva se iishvar.
janm se lekar aaj tak tum seva ke path par hi rahi ho aur ab bhi uttarottar usi par aage baDhti ja rahi ho. tumhare maarg mein jo sabse vaDa vighn bankar khaDa ho sakta hai wo hai prem. prem manushyatv hai aur seva devatv. tumhari aatma svargik hote hue bhi tumhara sharir bhautik hai. aatma aur sharir ka dvandv sansar ki amar kahani hai. basant jab apna madhu kalash prithvi par uDel deta hai, varsha jab van van mein hariyali bikhra deti hai, sharad ke shubhrabhr khanD jab akash mein tairne lagte hain, tab aatma ki sadhnaon mein sharir chhote chhote sapne chheent deta hai, samved ki madhur gambhir dhvani mein megh mallar ki mastani tane bheen jati hain, somras mein kadamb ki bunden chu paDti hain, kailash mein basant aa jata hai. ye bahut purani katha hai. yug yugantar se yahi hota aaya hai aur yahi hota rahega. phir bhi sabhi ise bhool jate hain. ankhe jhap jati hain, tapasya ke shubhr pratyush mein anurag ki arun usha chhitak paDti hai, sadhana ki barf galne lagti hai, lagan ki aag manjhane lagti hai, hriday ki ekantta mein kisi ki chhaya ghus paDti hai, jagriti mein angDai bhar jati hai, svapnon mein madakta bheen jati hai, aur. . . aur jab ankhen khulti hain tab kahin kuch nahin rahta. phir se nai kahani shuru hoti hai—nai yatra hoti hai, naya prasthan hota hai, isi tarah ye sansar chalta hai.
aatma ke uupar sharir ka sabse baDa prabhav hai sanshay. jab sansar mein sabhi kisi na kisi se prem karte hain, sabhi ka koi na koi ek apna hai, jab kisi se prem karna, kisi ke prem ka paatr banna pranimatr ka adhikar hai, tab phir main—keval main hi—kyon isse vanchit rahun? ye jeev ki amar samasya hai, shashvat parashn hai.
kintu satya kya hai, log ye samajhne ki bahut kam cheshta karte hain. jinke pair hain ve zamin par chalte hai, kintu jinhe pankh mile hain yadi ve bhi zamin par hi chale to ye apni shaktiyon ka durupyog hai. jinhen iishvar ne akash mein uDne ke liye banaya hai, unke liye prithvi par chalna apne mahatv ki upeksha karna hai, apne aapko bhulna hai.
prem karne ki yogyata sabmen hai, kintu seva karne ki shakti kisi kisi ko hi milti hai. seva karne ki yogyata rakhna danD nahin, iishvar ka ashirvad hai jise iishvar ne sansar mein akela banaya hai, dhan vaibhav nahin diya hai, sukh mein prasann hone vala aur duःkha mein gale lagakar rone vala sathi nahin diya hai, sansar ke shabdon mein jise usne dukhiya banaya hai, uske jivan mein usne ek mahan abhipray bhar diya hai, shakti ka ek amar, srot, bechaini ki taDphaDati hui andhi, uske antar mein sanjokar rakh di hai. ho sakta hai wo ise na samjhe, shayad sansar bhi ise na samjhe; phir bhi wo nahin hai, aisi baat nahin; wo hai, avashyakta hai keval use samajhne ki.
pagDanDi, tum iishvar ki unhin rachnaon mein se ek ho. tumhara nirman isliye nahin hua hai ki tum ek ki hokar raho, ek ke liye jiyo aur ek ke liye maro. nahin, tum prithvi par ek bahut baDa uddeshya lekar aai ho. jeth ki dhadhakti hui lu mein, bhadon ki ajastr varsha mein aur shishir ke tushar paat mein isi tarah leti rahkar tumhein asankhya manushyon ko ghar se bahar aur bahar se ghar pahunchana paDega. sabhyata ke vistar ke liye, jivan ke saukhya ke liye, sansar ke kalyan ke liye, tumhein baDa se baDa tyaag karna paDega. tumhara koi nahin hai, isliye ki sabhi tumhare hain, tum kisi ki nahin ho, isliye ki tum sabhi ki ho. tum apne jivan ka upbhog nahin karti ho, tum vishv ki akshay vibhuti ho.
aaj ke pahle mainne tumse kabhi kuch nahin kaha tha, karan ye tha—pagDanDi, meri spashtavadita ko kshama karna ki tumhari aatma soi hui thi,keval sharir jaga tha. tum nahin samajhti thi ki tum kaun ho, kisaliye yahan aai ho, tum sansar ke purane path par chalna chahti thi. aaj, chahe jis karan se ho tumhein apne vartaman jivan se asantosh ho gaya hai, tumhein apne se ghrina ho aai hai. aaj tum anant mein kudne ja rahi ho, sansar mein kuch karne ja rahi ho, tumhari aatma jag uthi hai. in baton ko kahne ka mujhe aaj hi avsar mila hai.
pagDanDi, tum aisa na samajhna ki main tumse sneh nahin karta, usse bhi adhik main tumhari puja karta hoon. phir bhi apne vyaktitv ko tumhare path mein khaDa karke main tumhari aatma ki pragti ko rokna nahin chahta. main tumhari chetna mein apni chhaya Dalkar use malin nahin karna chahta. tumhari sangit lahri mein apvadi svar bankar use besura banana nahin chahta. main baDe ullaas se tumhein yahan se vida karta hoon. jao—sansar mein jahan tumhara adhik upyog ho sake, vahan jao aur apne jivan ko sarthak banao yahi meri kamna hai, yahi mera sandesh hai, yahi mera. . . kshama karna. . . ashirvad hai.
keval ek baat aur kahni hai. meri hridayhinta ko bhool jana—ho sake to kshama kar dena. mere bhi hriday hai, usmen bhi thoDa ras hai, par mainne jaan bujhkar use sukha diya, use ankhon mein nahin aane diya, othon par se ponchh Dala. tumhare kartavya path ko main apne ansuon se gila nahin banana chahta—pagDanDi, meri katha samajhne ki koshish karna, yadi na samajh pao to. . . to phir sab kuch bhool jana.
sansar tumhari raah dekh raha hai, anant tumhari prtiksha kar raha hai. jao, apna kartavya palan karo. sansar tumhein kuchle to taDapna nahin, bhool jaye to sisakna nahin? bhule hue pathikon ko ghar pahuncha dena jo ghar chhoDkar videsh jana chahte hon unki sahayata karna. jab tak jina, khush rahna, kabhi kisi ke liye rona nahin aur—ek baat aur—yadi tumhare hriday mein kabhi prem ki bhavna aa jaye to koshish karke apne astitv ka sara bal lagakar use nikal Dalna. yadi na nikal sako to phir vahan se kahin dur—bahut dur—chali jana.
pagDanDi! vida! tum apne jyotirmay bhavishya mein apne dhundhle atit ko Dubo dena. sab kuch bhool jana—bat dada aur rami ke kuan ko bhi bhool jana! keval yahi yaad rakhna ki tum kaun ho aur tumhara kartavya kya hai—bas jao, vida!—iishvar tumhein bal de.
kuan chup ho gaya. aadhi raat ki svapnil niravta mein jaan paDta tha, uska svar ab bhi goonj raha ho, shabd antriksh mein ab bhi ghumaDte phirte ho. main kuch bol nahin saki, soch bhi nahin saki. tandra si chha gai, kaath sa maar gaya. uske antim shabd arddhratri ke shunya andhkar mein bijli ke akshron mein mano charon or likhe hue se ug rahe the—bas jao, vida, iishvar tumhein bal de.
theek theek yaad nahin aata, kitne din hue, phir bhi ek yug sa beet gaya. meri ankhon ke samne wo svarup aaj bhi rah rahkar naach uthta hai, kanon mein ve shabd ab bhi rah rahkar goonj uthte hain.
ab main rajdhani ka rajamarg hoon. donon or saheliyon ki tarah do phut paath hain, dhoop aur varsha se bachane ke liye donon or vrikshon ki qataren hain, raushani ke liye bijli ke khambhe hain, aur na jane vibhav vilas ki kitni chizen hain. nitya mera shringar hota hai, meri dekh rekh mein hazaron rupye kharch kiye jate hain, rajamahishi ki tarah mera satkar hota hai, jahan tak drishti jati hai—bas, main hi main hoon.
uttardayitv bhi kam nahin hai. main shahr ki dhamni hoon, iska rakt pravah mujhi se hokar charon or dauDta hai. main sabhyata ka stambh hoon, raaj satta ka praan hoon. itni bheeD rahti hai ki sochne ki fursat bhi nahin milti. janasmudr ki anant lahren mujhe kuchalti hui ek or se dusri or nikal jati hain, main uf tak nahin karti. itni bheeD mein mujhe apna kahne vala ek bhi nahin, ek kshan ke liye bhi mera hone vala koi nahin. mere jalte hue nirvishram jivan par sahanubhuti ki do boond chhiDak de, aisa koi nahin. phir bhi main vyathit nahin hoti, khush rahne ki koshish karti hoon. vedna ke sholon par muskurahat ki raakh bikherti rahti hoon, othon mein hriday ko chhipaye rakhti hoon. jahan tak hota hai, usne jo kuch kaha tha, sab karti hoon. keval ek hi baat nahin hoti, use bhool nahin pati!
amrai ki chhaya mein ghason aur patton par wo jivan, pakshiyon ke gane, lataon ka jhagDa, bat dada ki kahaniyan, aur. . . aur kya kahun? kitni baten hain jo bhulai nahin ja sakti? mere jivan sangit ki taan lautkar sam par aati hai, aakar phir laut jati hai, par kisi ka sir nahin hilta?
ye purana itihas hai. koi kya jane? ek samay tha jab main aisi nahin thi.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।