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नन्हों

nanhon

शिवप्रसाद सिंह

और अधिकशिवप्रसाद सिंह

    चिट्ठी-डाकिए ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो नन्हों सहुआइन ने दाल की बटली पर यों कलछी मारी जैसे सारा कसूर बटुली का ही है। हल्दी से रँगे हाथ में कलछी पकड़े वे रसोई से बाहर आई और ग़ुस्से के मारे जली-भुनी, दो का एक डग मारती ड्योढ़ी के पास पहुँची।

    “कौन है रे!” सहुआइन ने एक हाथ में कलछी पकड़े दूसरे से साँकल उतार कर दरवाज़े से झाँका तो डाकिए को देखकर धक् से पीछे हटी और पल्लू से हल्दी का दाग़ बचाते, एक हाथ का घूँघट खींचकर दरवाज़े की आड़ में छिपकली की तरह सिमट गई।

    “अपने की चिट्ठी कहाँ से आएगी मुंशीजी, पता-ठिकाना ठीक से उचार लो, भूल-चूक होय गई होयगी”, वे धीरे से फुसफुसाई। पहले तो केवल उनकी कनगुरिया दिख रही थी जो आशंका और घबराहट के कारण छिपकली की पूँछ की तरह ऐंठ रही थी।

    “नहीं जी, कलकत्ते से किसी रामसुभग साहु ने भेजी है, पता-ठिकाना में कोई ग़लती नहीं...”

    “रामसु...” अधकही बात को एक घूँट में पीकर सहुआइन यों देखने लगी जैसे पानी का धक्का लग गया हो। केनगुरिया का सिरा पल्ले में निश्चेष्ट कील की तरह अड़ गया था— “अपने की ही है मुंशीजी...”

    मुंशीजी ने चिट्ठी आगे बढ़ाई, कनगुरिया फिर हिली, पतंगे की तरह फड़फड़ाती चिट्ठी को पंजे में दबोचकर नन्हों सहुआइन पीछे हटी और दरवाज़े को झटके से भेड़ लिया। आँगन के कोने में पानी रखने के चबूतरे के पास खड़ी होकर उन्होंने चिट्ठी को पढ़ा। रामसुभग रहा है, लिखा था चिट्ठी में। केवल तीन सत्र की इबारत थी पूरी। पर नन्हों के लिए उसके एक-एक अक्षर को उचारने मे पहाड़-सा समय लग गया जैसे। चबूतरे के पास कलसी के नीचे, पानी गिरने से ज़मीन नम हो गई थी, जौ के बीज गिरे थे जाने कब, इकट्ठे एक में सटे हुए उजले-हरे अँखुए फूटे थे। नन्हों सहुआइन एकटक उन्हें देखती रहीं बड़ी देर तक।

    पाँच साल का समय कुछ कम तो नहीं होता। लंबे-लंबे पाँच साल! पूरे पाँच साल के बाद आज रामसुभग को भौजी की याद आई है। पाँच साल में उसने एक बार भी कुशल-मंगल का हाल नहीं दिया। एक बार भी नहीं पूछा कि भौजी जीती है या मर गई। जब अपना ही नहीं रहा हाल-चाल लेने वाला, तो दूसरा कौन पूछता है किसे? नन्हों सहुआइन ने चारपाई के पास से माची खीची और उस पर बैठ गई। हल्दी-सनी अंगुलियों के निशान ‘कार्ड’ पर उभर आए थे— जैसे वह किसी के शादी-ब्याह का न्यौता था। शादी-ब्याह का ख्य़ाल आते ही नन्हों सहुआइन की आँखें चलवे मछली-सी चिलक उठी। जाने कितनी बार सोचा है उन्होंने अपनी शादी के बारे में। कई बार सोचा, इस दु:ख दाई बात को फिर कभी सोचूँगी। जो भाग में था उस पर पछतावा क्या? पर वह औरत क्या जो अपनी शादी पर सोचे और एक ऐसी औरत जिसकी शादी उसकी ज़िंदगी का दस्तावेज़ बनकर आई हो, ज़िंदगी सिर्फ़ उसकी गिरो ही नहीं बनी उसने तो नन्हों के समूचे जीवन को रेतभरी परती की तरह वीरान कर दिया।

    गाँव की सभी औरतों की तरह नन्हों का भी ब्याह हुआ। उसकी भी शादी में वही हुआ जो सभी शादियों में होता है। बाजा-गाजा, हल्दी-सिंदूर, मौज-उत्सव, हँसी-रुला सब कुछ वही।

    एक बात में ज़रूर अंतर था कि नन्हों की शादी उसके मायके में नहीं, ससुराल में हुई। इस तरह की शादियाँ भी कोई नई नहीं हैं। जो ज़िंदगी के इस महत्त्वपूर्ण मौक़े को भी उत्साह और इच्छा के बावजूद रंगीनियों से बाँधने के उपकरण नहीं जुटा पाते वे बारात चढ़ाकर नहीं, डोला उतारकर शादी करते है। इसलिए नन्हों की शादी भी डोला उतारकर ही हुई तो इसमें भी कोई ख़ास बात तो नहीं हो गई। नन्हों का पति मिसरीलाल एक पैर का लँगड़ा था, पैदाइशी लँगड़ा। उसका दायाँ पैर जवानी में भी बच्चों की बाँह की तरह ही मुलायम और पतला था। डंडा टेककर फुदकता हुआ चलता। नाक-नक्श से कोई बुरा नहीं था, वैसे काला चेहरा उभरी हुई हड्डियों की वजह से बहुत वीरान लगता। घर में किराने की दुकान होती, जिसमें खाने-पीने के ज़रूरी सामानों के अलावा तंबाकू, बीड़ी-माचिस और ज़रूरत की कुछ सब्ज़ियाँ भी बिकती। अक्सर सब्ज़ियाँ बासी पड़ी रहतीं, क्योंकि अनाज से बराबर के भाव ख़रीदने वाले अच्छे गृहस्थ भी मेहमान के आने पर ही इस तरह का सौदा किया करते।

    मिसरीलाल की शादी पक्की हुई तो नन्हों का बाप बड़ा ख़ुश था, क्योंकि मिसरीलाल के नाम पर जो लड़का दिखाया गया वह शक्ल में अच्छा और चाल-चलन में काफ़ी शौक़ीन था। लंबे-लंबे उल्टे फेरे हुए बाल थे, रंग वैसे साँवला था, पर एक चिकनाई थी जो देखने में ख़ूबसूरत लगती थी। इसीलिए लड़के वालों ने जब ज़ोर दिया कि हमें बारात चढ़ाके शादी सहती नहीं; डोला उतारेंगे, तो थोड़ी मीन-मेख के बाद नन्हों का बाप भी तैयार हो गया, क्योंकि इसमें उसका भी कम फ़ायदा था। ख़र्चे की काफ़ी बचत थी।

    डोला आया, उसी दिन हल्दी-तेल की सारी रस्में बतौर टोटके के पूरी हो गईं और उसी रात को बाजे-गाजे के बीच नन्हों की शादी मिसरीलाल से हो गई। बाजों की आवाज़ें हमेशा जैसी ही ख़ुशी से भरी थी, मंडप की मंडियों और चँदोवे में हवा की ख़ुशीभरी हरकतें भी पूर्ववत् थी, भाटिनों के मंगल-गीत में राम और सीता के ब्याह की वही पवित्रता गूँज रही थी, पर नन्हों अपने हाथ भर के घूँघट के नीचे आँसुओं को सुखाने की कितनी कोशिश कर रही थी, इसे किसी ने देखा। एक भारी बदसूरत पत्थर को गले में बाँधे वह वेदना और पीड़ा के अछोर समुद्र में उतार दी गई जहाँ से उसकी सिसकियों की आवाज़ भी शायद ही सुनाई पड़ती।

    “कहो भौजी, बाबा ने देखा तो मुझको, पर शादी हुई मिसरी भैया की।” रामसुभग ने दूसरे दिन काने में बैठी नन्हों से मुसकराते हुए कहा, “अपना-अपना भाग है, ऐसी चाँद-सी बहू पाने की क़िस्मत मेरी कहाँ है?” भौजी मज़ाक के लिए बनी है, पर ऐसे मज़ाक का भी क्या जवाब? नन्हों की आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे जिन्हें वह पूरे चौबीस घंटे से लगातार रोके हुए थी। रामसुभग बिलकुल घबरा गया, उसने दुःखी करने के लिए ही चोट की थी, पर घायल सदा पंख समेटे शिकारी के चरणों में ही तो नहीं गिरता, कभी-कभी ख़ून की बूँदें भर गिरती हैं। और पंछी तीर को सीने में समाए ही उड़ता जाता है।

    “ठीक कहा लाला तुमने, अपना-अपना भाग ही तो है...” नन्हों ने कहा और चुपचाप पलकों से आँसुओ की चट्टानों को ठेलती रही।

    रामसुभग मिसरीलाल का ममेरा भाई है। अक्सर वह यही रहता, एक तो इसलिए कि उसे अपना घर पसंद था। बाप सख्त़ी से काम कराता, और आना-कानी की तो बूढ़े बाप के साथ दूसरे भाइयों का मिला-जुला क्रोध उसके लिए बहुत भारी पड़ता। दूसरे, मिसरीलाल का भी इरादा था कि वह अक्सर यहाँ आता-जाता रहे ताकि उसे दुकान के लिए सामान वग़ैरह ख़रीदवाने में आसानी पड़े। रामसुभग के लिए मिसरीलाल का घर अपना जैसा ही था। उसने मिसरीलाल की शादी की बात सुनी तो बड़ा ख़ुश हुआ था कि घर में एक औरत जाएगी, थोड़ी चहल रहेगी और मुरव्वत में अक्सर जो उसे चूल्हा फेंकने का काम भी कर देना पड़ता, उससे फ़ुर्सत मिल जाएगी। पर नन्हों को देखकर रामसुभग को लगा कि कुछ ऐसा हो गया है जैसा कभी सोचा था। नन्हों वह नहीं है जिसे मिसरीलाल की औरत के रूप में देखकर उसे कुछ अड़चन मालूम हो। वह काफ़ी विश्वास के साथ आया था नन्हों से बात करने, उसे जता देने कि रामसुभग भी कुछ कम नहीं है, मिसरीलाल का बड़ा आदर मिलता है उसे, यह घर जैसे उसी के सहारे टिका है और भौजी के लिए रामसुभग-सा देवर भी कहाँ मिलेगा, और शादी के पहले तो नन्हों के बाप ने भी उसे ही देखा था ...पर जाने क्या है नन्हों की उस झुकी हुई आँखों में कि रामसुभग सब भूल गया। चारपाई के नीचे बिछी रंगीन सुहागी चटाई पर पैरों को हाथ में लपेटे नन्हों बैठी थी गुड़ीमुड़ी, उसकी लंबी बरौनियाँ बारिश में भीगी तितली के पैरों की तरह नम और बिखरी थीं और वह एकटक कहीं देख रही थी, शायद मन के भीतर किसी बालियों से लदी फ़सल से ढके लहराते हुए एक खेत को, जिसमें किसी ने अभी-अभी जलती हुई लुकाठी फेंक दी है।

    रामसुभग बड़ी देर तक वैसे ही चुप बैठा रहा। वह कभी आँगन में देखता था कभी मुँडेरे पर। वह चाहता था कि इस चुप्पी को नन्हों ही तोड़े, वही कुछ कहे, अपने मन से ही जो कहना ठीक समझे, क्योंकि उसके कहने में शायद बात कुछ ठीक बने, बने, पर नन्हों तो कुछ बोलती ही नहीं।

    ब्याह के दूसरे दिन के रसम-रिवाज़ पूरे हो रहे थे, कमारी डाले मे अक्षत-सिंदूर लेकर गाँव की तमाम सत्तियों के चौरे पूज आई थी, और सबसे मिसरीलाल की मृत माँ की ओर से वर-वधु के लिए आशीर्वाद माँग आई थी। रात-भर गाने से थकी हुई भाटिनें अपने मोटे और भोंड़े स्वरों में अब भी राम और सीता की जोड़ी की असीसें गा रही थी। कुछ बचे-खुचे लोग एक तरफ़ बैठे खा रहे थे, पुरवे-पत्तल इधर-उधर बिखरे पड़े थे।

    “अच्छा भौजी...” रामसुभग इस मौन को और झेल सका। चुपचाप उठकर आँगन में चला आया।

    “क्या बबुआ, भौजी पसंद आई?” एक मनचली भाटिन ने मोटी आवाज़ में पूछा।

    “हाँ, हाँ, बहुत...” रामसुभग इस प्रश्न की चुभन को भाँप गया था। उसने मुस्कराने की कोशिश की, पर गर्दन ऊपर उठ सकी। वह चुपचाप सिर झुकाए दालान में जाकर मिसरीलाल के पास चारपाई पर बैठ गया। उस समय मिसरीलाल दो-एक नाते-रिश्ते के लोगों से बातें कर रहा था। पीले रंग की धोती उसके काले शरीर पर काफ़ी फब रही थी, पर उसके चेहरे की वीरानी में कोई अंतर था, ख़ुशी उसके चेहरे पर ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने ज़ंग लगी पिचकी डिबिया में कपूर रख दिया हो। उसके दाहिने हाथ का कंगन एक मरे हुए मकड़े की तरह झूल रहा था...जाने क्यों आज रामसुभग को मिसरीलाल बहुत बदसूरत लग रहा था, शादी के कपड़ों में कोई ऐसा भद्दा लगता है, यह रामसुभग ने पहली बार देखा।

    “सुभग”, मिसरीलाल ने बातचीत से निपटकर दालान में एकांत देखकर पूछा, “क्यों रे भौजी कैसी लगी— सच कहना, अपनों से क्या दुराव—गया था न, कुछ कह रही थी?

    “नहीं तो” रामसुभग ने कहा, “काफ़ी हँसमुख है, वैसे मायका छूटने पर तो सभी दुलहिने थोड़ी उदास रहती हैं। मिसरीलाल अजीब तरीके से हँसा, “अरे वाह रे सुम्भू, तू तो भई दुलहिने पहचानने में बेजोड़ निकला। उदास क्यों लगती है भला वह? किसी परिवार वाले घर में जाती, सास-जिठानियों की धौंस से कलेजा फट जाता, दिन-रात काँव-काँव, यहाँ तो बस दो परानी है, राज करना है, है कि नहीं?”

    “हूँ”, रामसुभग गर्दन झुकाए चारपाई के नीचे देख रहा था, उसने वैसे ही हामी भर दी जैसे उसने पूरी बात सुनी ही हो।

    “मीसरी साह!” दरवाज़े से कमारी ने पुकारा, “बाबाजी बुला रहे हैं चौके पर कंगन छूटने की साइत बीत रही है।” मिसरीलाल धीरे-से उठे और फुदकते हुए चौके पर जा बैठे। लाल चुनर में लपेटे, गुड़िया की तरह उठाकर नन्हों को कमारी ले आई और उसने मिसरीलाल की बग़ल में बिठा दिया।

    मिसरीलाल की शादी हुए एक सतवारा बीत चुका था। इस बीच जाने कितनी बार रामसुभग नन्हों के पास बैठा। नन्हों के पास बैठने में उसे बड़ी घुटन महसूस होती, उसे हर बार लगता कि वह ग़लती में गया, उसका मन हर बार एक अजीब क़िस्म की उदासी से भर जाता। वह सोचता कि अब उसके पास नहीं जाऊँगा, जो होना था सो हो गया, पर उसका जी नहीं मानता। नन्हों ने इस बीच मुश्किल से उससे दो-चार बातें की होंगी। कभी शायद ही उसकी ओर देखा होगा, पर पता नहीं उन झुकी हुई बरौनियों से घिरी आँखों में कैसा भाव है कि रामसुभग खिंचा चला आता है। वे आँखें उसे कभी नहीं देखतीं, कहीं और देखतीं हैं, पर उनका इस तरह देखना रामसुभग के मन में आँधी की तरह घुमड़ उठता है। वह बार-बार सोचता कि शायद नन्हों के बाप के सामने वह दूल्हा बनकर खड़ा होता तो नन्हों आज यहाँ होती। झुकी हुई पलकों से घिरी इन आँखों की पीड़ा उसी की पैदा की हुई है। वही दोषी है, वही अपराधी है! रामसुभग इसीलिए नन्हों के पास जाने को विकल हो उठता है पर पास पहुँचने पर यह विकलता कम नहीं होती। उसकी माँ ने बहू को “मुँह दिखाई” देने के लिए दो रुपए न्योता के साथ भेजे थे, पर नन्हों को देखकर उसकी हिम्मत होती कि वे रुपए माँ की ओर से उसे दे दे। वह बाज़ार से सिल्क का एक रूमाल भी ख़रीद लाया। रुपए उसी में बाँध लिए। पर रूमाल हमेशा उसकी जेब में पड़ा रहा, वह उसे नन्हों को दे सका।

    “क्यों लाला, इतने उदास क्यों हो?” एक दिन पूछा था नन्हों ने, “यहाँ मन नहीं लगता, भाई-भौजाइयों की याद आती होगी.”

    “नहीं तो, उदास कहाँ हूँ, तुम जो हो,” रामसुभग ने मुसकराते हुए कहा।

    “मैं...हाँ, मैं तो हूँ ही, पर लाला, मैं तो दुःख की साझीदार हूँ, सुख कहाँ है अपने पास जो दूसरों को दूँ? उदासी में पली, उदासी में ही बढ़ी। जन्मी तो माँ मर गई, बड़ी हुई तो बाप का बोझ बनी। मैं भला दूसरे की उदासी क्या दूर कर सकूँगी...”

    “देखो भौजी...” रामसुभग ने पूरी साझेदारी से कहा— “जो होना था वह हो गया...दिन-रात घुलते रहने से क्या फ़ायदा...कुछ ख़ुश रहा करो”...थोड़ा हँसा करो...”

    नन्हों मुसस्कराने लगी— “अच्छा लाला, तुम कहते हो तो ख़ुश रहा करूँगी, हसूँगी, पर बुरा मानना, बेबान के काम में थोड़ी देर लगती ही है।”

    उस दिन रामसुभग बड़ा प्रसन्न था। सिर का भारी बोझ हट गया। जैसे किसी ने क़लक़ते हुए काँटे को खींचकर निकाल दिया। नन्हों का मुस्कराना भी ग़ज़ब है, वह सोच रहा था। उदास रहेगी तब भी, मुस्कराएगी तब भी, हर हालत में जाने क्या है उसके चेहरे में जो रामसुभग का मन उचाट देता है। गाँव में घूमता रहे, बाज़ार से सौदा लाता रहे, लोगों के बीच में बैठकर गप्पें हाँकता रहे...नन्हों के चेहरे की सुध आते ही एकरस सूत झटके से टूट जाता, सोई सतह में लहरें वृत्ताकार घूमने लगतीं। सन्नाटे में जैसे मंदिर के घंटे की अनुगूँज झनझना उठती...।

    चैती हवा में गर्मी बढ़ गई थी। उसमें केवल नीम की सुवासित मंजरियों की गंध ही नहीं, एक नई हरकत भी गई थी। उसकी लपेट में सूखी पत्तियाँ, सूखे फूल, पकी फसलों की टूटी बालियाँ तक उड़कर आँगन में बिखर जातीं। दोपहर में खाना खाकर मिसरीलाल दालान में सो जाता, और रामसुभग बाज़ार गया होता या कहीं घूमने...। नन्हों घर में अकेली बैठी सूखे पत्तों का फड़फड़ाना देखती रहती। उसके आँगन के पास भी खंडहर में नीम का पेड़ था। ऐसे दिनों में जब नीम हरी निबौरियों से लद जाता, वह ढेर-सी निबौरियाँ तोड़कर घर ले आती और उन्हें तोड़-तोड़कर ताजे दूध-से गालों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनाती...शीशे में ठीक ऐपन की पुतरी मालूम होती। रामलीला में देखा था, राम और सीता बनने वाले लड़कों के गालों पर ऐसी ही तस्वीरें बनती थी।

    हवा का एक तेज़ झोंका आया, किवाड़ झटके से खड़खड़ाया, देखा, सामने रामसुभग खड़ा था मुस्कराता हुआ।

    “भौजी” वह पास की चारपाई पर बैठ गया— “एक गिलास पानी पिला दो। बड़ी प्यास लगी है।”

    “कहाँ गए थे इतनी धूप में?” नन्हों उठी और आँगन के कोने में चबूतरे पर रखी गगरी में पानी ढालकर ले आई।

    जाने क्या हो गया था उस दिन रामसुभग को कि उसने गिलास के साथ ही नन्हों की बाँह को दोनों हाथों से पकड़ लिया। एक झटके के साथ बाँह काँपी और साँप की तरह ऐंठकर सुभग के हाथों से छूट गई। गिलास धब्ब की आवाज़ के साथ ज़मीन पर गिर पड़ा।

    “सरम नहीं आती तुम्हें...” नन्हों साँपिन की तरह फुफकारती हुई बोली— “बड़े मर्द थे तो सबके सामने बाँह पकड़ी होती। तब तो स्वाँग किया था, दूसरे के एवज़ तने थे, सूरत दिखाकर ठगहारी की थी! अब दूसरे की बहू का हाथ पकड़ते सरम नहीं आती।”

    “मैं...तो भौजी तुम्हें यह देने आया था...।” रामसुभग ने रुमाल निकाला जिसकी खूँट में दो रुपए बँधे थे।

    “क्या है यह?”– नन्हों ने ग़ुस्से में ही पूछा।

    “मुँह दिखाई के रुपए हैं। कई बार सोचा देने को, पर दे सका।”

    उसने रूमाल वही चारपाई पर रख दिया और लड़खड़ाता हुआ बाहर चला गया। सारा आँगन झूले की तरह डोल रहा था। गाँव की गलियाँ, दरवाज़े जैसे उसकी ओर घूर रहे थे। उसी दिन वह अपने गाँव चला गया है।

    दो महीने बीत गए, रामसुभग का कोई समाचार मिला। मिसरीलाल कभी उसकी चर्चा भी करता, तो नन्हों को चुप देख, एक-दो बातें चलाकर मौन हो जाता। दुकान के लिए सारी चीज़ें रामसुभग ही ख़रीदकर लाता था। उसके होने से मिसरीलाल को बहुत तकलीफ़ होती। किसी लद्दू, टट्टू या बैल वाले से सामान तो मँगवा लेता पर चीज़ें मन-माफ़िक नहीं मिलतीं और उनके साथ बाज़ार जाकर चीज़ें ख़रीदने में उसे काफ़ी दिक्क़त भी होती। दोपहर के वक़्त, जबकि सूरज सिर पर तपता होता, लू में डंडे के सहारे टेकता, पसीने से लथपथ किसी तरह वह घर पर पहुँचता। इस तरह की आवाजाही में एक दिन उसे लू लग गई और वह बिस्तर पर गिर पड़ा। नन्हों ने आम के पत्ते पिलाए। हाथों और पैरों में भुने आम की लुगदी भी लगाई, पर ताप कम हुआ। पीड़ा के मारे वह छटपटाता रहा। नन्हों घर से निकलती थी, किसी से मदद माँगना भी मुश्किल था। उसने कमारी को बुलाकर रामसुभग के गाँव भेजा। कहलाया कि कुछ सोचने-विचारने की ज़रूरत नहीं है, ख़बर मिलते ही जल्दी-से-जल्दी चले आवें। तीन-चार घड़ी रात गए रामसुभग मिसरीलाल के दरवाज़े पर पहुँचा तो वहाँ काफ़ी भीड़ थी। भीतर औरतो के रोने की चीत्कार गूंज रही थी। बाहर मिसरीलाल का शव रखा था। नन्हों विधवा हो चुकी थी।

    रामसुभग मिसरीलाल के क्रिया-कर्म में लगा रहा, नन्हों से कुछ कहने की उसे फ़ुर्सत ही मिली। कभी सामने नन्हों दिख भी गई तो उसमें इतना साहस हुआ कि सांत्वना के दो शब्द भी कह सके। काँच की चूड़ियाँ भी क़िस्मत का अजीब खेल खेला करती हैं। नन्हों जब इन्हें पहनना नहीं चाहती थी तब तो ये ज़बर्दस्ती उसके हाथों में पहनाई गईं और अब जब वह इन्हें उतारना नहीं चाहती तो लोगों ने ज़बर्दस्ती हाथों से उतरवा दिया। कार-परोजन के घर में इतनी फ़ुर्सत ही कहाँ थी कि नन्हों बैठ जाती। परंतु कभ-कभी दोपहर में दो-एक घड़ी की फ़ुर्सत मिलती तो वह अपनी उसी सुहागी चटाई पर बैठी हुई चुपचाप आँगन में देखा करती। रामसुभग उसके इस देखने के ढंग से इतना परेशान हो जाता कि काम-काज के बीच में भी नन्हों की वे तिरती आँखें उसके हृदय को बेधने लगतीं। आँगन में इधर-उधर आने-जाने में वह घबराता। कहीं नन्हों पर नज़र पड़ जाए, इसीलिए गाँव के दूसरे लोगों को काम सौंपकर वह बाहर के कामों में सुबह से शाम तक जुता रहता। किरिया-करम बीत जाने पर वह घर में कम ही बैठ पाता। अक्सर सौदा-सामान ख़रीदने बाज़ार निकल जाता था ख़ाली रहा तो गाँव में किसी के दरवाज़े पर बैठा दिन गुज़ार देता।

    कई महीने बीत गए। बरसात आई और गई। पानी सूख गया। बादलों का घिरना बंद हो गया। बौछारों से टूटी-जर्जर दीवारों के घाव भर गए। नई मिट्टी से सज-सँवरकर वे पहले जैसी ही प्रसन्न मालूम होतीं। ऐसा लगता जैसे इन पर कभी बौछार की चोट पड़ी ही हो, कभी इनके तन पर ठेस लगी ही हो।

    उस दिन चमटोली में गादी लगी थी। कातिक की पूनों को हमेशा यह गादी लगती। बीच चौकी पर सतगुरु की तस्वीर फूल-मालाओं मे सजाकर रखी हुई थी। अगरबत्तियों के धुँए से चमरौटी की गंदी हवा भी ख़ुशबूदार हो गई थी। कीर्तन-मंडली बैठी हुई थी। गाँव की औरतें, बूढ़े-बच्चे इकट्ठे होकर भजन सुन रहे थे:

    जो तुम बाँधे मोह फाँस हम प्रेम बंधन तुम बाँधे;

    अपने छूटन की जतन करहु हम छूटे तुम आराधे

    जो तुम गिरिवर तउ हम मोरा;

    जो तुम चन्दा हम भए हैं चकोरा।

    माधव तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहि;

    तुम सों तोर कवन सों ज़ोरहिं।

    काफ़ी देर तक कीर्तन चलता रहा। नन्हों लौटी तो उसके मन में रैदास के गीत की पंक्तियाँ बार-बार गूँजती रहीं। “जो तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहिं...” वह धीरे-धीरे गुनगुना रही थी। दालान का दरवाज़ा रामसुभग ने बंद कर रखा था। साँकल खटखटाई तो उसने आकर दरवाज़ा खोला।

    “इतनी रात को इस तरह तुम्हारा गली—गली घूमना ठीक नहीं है भौजी...” जाने कहाँ का साहस गया था उसे। रामसुभग दरवाज़ा बंद करते हुए बोला।

    “हूँ” नन्हों ने और कुछ कहा।

    “मैं तुम्हीं से कह रहा हूँ...”

    नन्हों एक झटके के साथ घूमी। रामसुभग के चेहरे पर उसकी आँखें इस तरह टिकी थी मानो बेधकर भीतर घुस जाएँगी, “इतनी क़लक़ होती है तो पहले ही ब्याह कर लिया होता। इस तरह डाँट रहे हो लाला, जैसे मैं तुम्हारी जोरू हूँ। ख़बरदार, फिर कभी आँख दिखाई तो...!” रामसुभग माथा पकड़कर बैठ गया। ग़ुस्से और ग्लानि के मारे उसका सारा बदन जल रहा था, पर मुँह से एक शब्द भी निकला। उसने चादर खींचकर मुँह ढक लिया और भीतर-ही-भीतर उफनता-उबलता रहा।

    और तब से पाँच बरस बीत गए। आज पहली बार रामसुभग की चिट्ठी आई है कि वह कलकत्ते से गाँव रहा हैं। ये पाँच बरस जाने नन्हों ने कैसे बिताए हैं। रामसुभग उसी रात को लापता हो गया। रोते-रोते नन्हों की आँखें सूज गईं। मेरा कोई होगा, मैं अकेली रहने के लिए ही जन्मी हूँ। वह अपने को धिक्कारती, कलपती। कभी मन पूछता— पर इसमें मेरी क्या ग़लती थी, मैं तो गादी देखने-भर चली गई थी, कौन नहीं गई थी वहाँ, मैंने क्या कर दिया था ऐसा। हाँ, ग़लती ज़रूर थी। मैं विधवा हूँ, उत्सव-तमाशा मेरे लिए नहीं है।

    “बबुआ नहीं हैं क्या?” दूसरे दिन शाम को कमारी ने पूछा था, “देखो दुलहिन, मेरी बात मानो, सुभग से ब्याह कर लो, तुम्हारी जात मे यह मना भी नहीं है, कब तक ऐसे रहोगी...”

    “चुप रह...” नन्हों ने उसे बरज दिया था। दूसरे ही क्षण वह शरम से गड़ गई थी। जाने क्यों लोग मन के छुपे राज़ को भाँप लेते हैं। जिसे जितना छिपाओ, उसे उतनी ही जल्दी लोग खींचकर सामने कर देते हैं।

    “चुप तो रहूँगी दुलहिन, पर पछताओगी, ऐसा दूल्हा हाथ आएगा। वह ज़िंदगी-भर तुम्हारे लिए कुँवारा नहीं बैठा रहेगा, ऐसा मौक़ा हमेशा नहीं आता...तुम्हारे बाबूजी ने तो उसी को देखा था, मिसरीलाल से तो ब्याह धोखे से हुआ...।”

    “मैं कहती हूँ चुप कर...” नन्हों की आँखें डबडबा आई— “मेरी जिनगानी में धोखा ही लिखा है, तो उसे कौन मेट सकता है।”

    कमारी सकपकाकर चुप हो गई। आँसूओं की धार सँभालना उसके वश के बाहर था। वह चुपचाप दरवाज़ा भेड़कर चली गई।

    “नन्हों चाची, नन्हों चाची...” दुकान से कोई लड़का चीख़ रहा था, नन्हों माची पर से उठी और दुकान की ओर लपककर चली।

    “क्या है रे— क्यों चीख़ रहा है ऐसे।”

    “यह देखो, किसना बेर लेकर भाग रहा है...” जन्नू ने हकलाते हुए कहा। वह ललचाई आँखों से लाल-लाल बेरों से भरी टोकरी को देख रहा था।

    “अच्छा, भाग रहा है तो भागने दे, तू भी ले और भाग यहाँ से, हल्ला मत मचाओ यहाँ...” लड़के जेबों में बेर भर खिलखिलाते हुए बाहर चले गए। नन्हों ने दरवाज़ा बंद कर लिया और रसोई में चली गई।

    कलकत्ते की गाड़ी शाम सात बजे के क़रीब आती थी। नन्हों आँगन में चारपाई डाले लेटी थी। झिलँगी चारपाई थी, मूँज की। पैरों में रेशों की चुभन अजीब लगती। हवा पहले जैसी सर्द थी। हल्की गर्मी गुलाबी रंग की तरह हर झकोरे में समाई हुई थी। नन्हों के खुले हुए काले बाल सिरहाने की पाटी से ज़मीन तक लटके हुए थे। वह चुपचाप नीले आसमान के तारों को देख रही थी। आँगन की पूर्वी दीवार की आड़ से शायद चाँद निकल रहा होगा, क्योंकि उजला-उजला ढेर-सा प्रकाश मुंडेरे की छाजन पर मिट्टी की पटरियों से टकराकर चमक रहा था।

    साँकल खड़की।

    “भौजी!”

    सुभग पाँच साल के बाद लौटा था।

    नन्हों ने दरवाज़ा खोला। सुभग था सामने। अँधेरे में वह उसे देखती रही।

    “आ जाओ” पंखुड़ियों के चिटकने जैसी आवाज़ सन्नाटे मे उभरकर खो गई। दोनों बिलकुल ख़ामोश थे। रामसुभग आँगन की चारपाई पर आकर बैठ गया। एक अजीब सन्नाटा दोनों को घेरकर बैठ गया था।

    खा-पीकर रामसुभग जब सोने के लिए अपनी चारपाई पर गया, तो माची खींचकर नन्हों उसके पास ही बैठ गई।

    “क्यों बाबू, बहुत दिनों के बाद सुध ली...” नन्हों ने ही बात शुरू की—“बहुत दुबले हो गए हो, बीमार तो नहीं थे?”

    “नहीं तो,” रामसुभग बोला— “पाँच साल तक तो भुलाने की कोशिश करता रहा भौजी, पर भूलता नहीं। मैंने कई बार सोचा कि चलकर तुमसे माफ़ी माँग लें, पर हिम्मत हुई। अब की मैंने तय किया कि जो कहना है कह ही जाऊँ। मैंने अनजाने में गलती कर दी भौजी। मैं नहीं जानता था कि मेरी तनिक-सी ग़लती इतना फल देगी। मैंने जो कुछ किया मिसरी भैया की ख़ुशी के लिए ही, पर क़सूर तो है ही, चाहे वह जैसे भी मन से हो...” रामसुभग ने ज़मीन पर देखते हुए कहा— “मेरे क़सूर को तुम ही माफ़ कर सकती हो...।”

    “क़सूर कैसा लाला, तुम जिसे क़सूर कहते हो वह मेरे भाग्य का फल था। तुम समझते हो कि बाबूजी को कुछ नहीं मालूम था। मालूम तो उन्हें तभी हो गया जब डोला भेजने की बात हुई। बिगड़ने वाली बात को सभी पहले से जान लेते हैं बाबू, जिनके पास बल है उसे नहीं होने देते; जो कमज़ोर हैं उसे धोखा कहकर छिपाते हैं...बाबू को सब मालूम हो गया था, पर अच्छे घर के लिए जो चाहिए वह बाबू कहाँ से लाते! इसमें तुम तो एक बहाना बन गए, तुम्हारा क्या क़सूर है इसमें...” नन्हों ने आँचल से आँखें पोंछ ली। रामसुभग बेवकूफ़ की तरह आँखें फाड़कर अँधेरे में नन्हों को देखता रहा।

    “अच्छा बाबू, थके हो, सबेरे फिर बातें कर लूँगी...” नन्हों उठकर अपने घर में चली गई।

    रामसुभग तीन दिन तक रहा। तीन दिनों में शायद ही वह दो-एक बार गाँव में घूमने गया। दिन-रात नन्हों से बातें करना ही उसका काम था— दुनिया भर की बातें, कलकत्ते की, बाप की, माँ की, भाइयों और भौजाइयों की। नन्हों रामसुभग को एक़दम बदली हुई लगती। उसकी आँखो में अब पहले जैसी तीखी चमक नहीं थी, उसके स्थान पर ममता और स्नेह का जल भरा था। अब वह एकटक सुनसान कोने को नहीं देखती थी, पर बरौनियों में नमी अब भी पहले जैसी ही थी। नन्हों को इस नए रूप में देखकर सुभग का मन नई आशा से भरने लगा। तो क्या यह सब हो जाएगा— क्या भाग्य की गणना फिर सही हो जाएगी? पर नन्हों से कुछ कह पाना उसके लिए सदा ही कठिन रहा है। वह आज भी पिछली दो घटनाओं को भूला नहीं था, पर नन्हों भी तो ऐसी पहले थी।

    आज नन्हों को फिर पुरानी बातें याद रही हैं। रैदास के गीत की वह पंक्ति जाने फिर क्यों बार-बार याद आने लगी है!

    “जो तुम तोरहु तो हम नाहिं तोरहिं, तुम सों तोर कवन सो ज़ोरहि?”

    वह ख़ुश है, प्रसन्न है। पर रामसुभग को चैन नहीं। शायद चलने की बात करूँ तो वह कुछ खुल के कहेगी। इसी आशा से उस दिन सुबह ही सुभग ने कहा— “भौजी, अब मैं गाँव जाऊँगा, आज रात वाली गाड़ी से।”

    “क्यों बाबू, मन नहीं लग रहा है?”

    “मन तो लग रहा है...पर...”

    “अच्छा, ठीक है।”

    रामसुभग इस उत्तर से कुछ समझ सका। वह मन-मारे अपने कमरे में बैठा रहा। शायद चलते वक़्त कुछ कहे, शायद फिर लौट आने के लिए आग्रह करे।

    शाम को अपना सामान बाँधकर जब सुभग तैयार हुआ, तो नन्हों अपने घर में से निकलकर आई।

    “तैयारी हो गई लाला?”

    “हाँ।”

    नन्हों ने आँचल से हाथ निकाला और रामसुभग की ओर हाथ बढ़ाकर

    कहा—“यह तुम्हारा रूमाल है लाला।”

    रामसुभग काठ की तरह निश्चेष्ट हो गया—“पर इसे तो मैंने ‘मुँहदेखाई’ में दे दिया था भाभी!”

    “बाबू ने तुम्हारा मुँह देखकर मुझे अनदेखा सुहाग सौंपा था, तुम्हारी माँ ने उसी के अमर रहने के लिए रुपए दिए थे आशीर्वाद में। बड़ों ने जो दिया उसे मैंने माथे पर ले लिया। मैं कमज़ोर थी बाबू, भाग्य से हार गई। पर आज तो मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ, आज मुझे तुम हारने मत दो। तुम्हारा रूमाल मेरे पाँव बाँध देता है लाला, इसी से लौटा रही हूँ, बुरा मानना...

    रामसुभग ने धीरे से रूमाल ले लिया। नन्हों उसका जाना भी देख सकी। आँखें जल में तैर रही थी। दीए की लौ जटामासी के फूल की तरह कई फाँकों में बँट गई। नन्हों ने किवाड़ तो बंद कर लिया, पर साँकल चढ़ा सकी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानी संग्रह (पृष्ठ 197)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : शिवप्रसाद सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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