चिट्ठी-डाकिए ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो नन्हों सहुआइन ने दाल की बटली पर यों कलछी मारी जैसे सारा कसूर बटुली का ही है। हल्दी से रँगे हाथ में कलछी पकड़े वे रसोई से बाहर आई और ग़ुस्से के मारे जली-भुनी, दो का एक डग मारती ड्योढ़ी के पास पहुँची।
“कौन है रे!” सहुआइन ने एक हाथ में कलछी पकड़े दूसरे से साँकल उतार कर दरवाज़े से झाँका तो डाकिए को देखकर धक् से पीछे हटी और पल्लू से हल्दी का दाग़ बचाते, एक हाथ का घूँघट खींचकर दरवाज़े की आड़ में छिपकली की तरह सिमट गई।
“अपने की चिट्ठी कहाँ से आएगी मुंशीजी, पता-ठिकाना ठीक से उचार लो, भूल-चूक होय गई होयगी”, वे धीरे से फुसफुसाई। पहले तो केवल उनकी कनगुरिया दिख रही थी जो आशंका और घबराहट के कारण छिपकली की पूँछ की तरह ऐंठ रही थी।
“नहीं जी, कलकत्ते से किसी रामसुभग साहु ने भेजी है, पता-ठिकाना में कोई ग़लती नहीं...”
“रामसु...” अधकही बात को एक घूँट में पीकर सहुआइन यों देखने लगी जैसे पानी का धक्का लग गया हो। केनगुरिया का सिरा पल्ले में निश्चेष्ट कील की तरह अड़ गया था— “अपने की ही है मुंशीजी...”
मुंशीजी ने चिट्ठी आगे बढ़ाई, कनगुरिया फिर हिली, पतंगे की तरह फड़फड़ाती चिट्ठी को पंजे में दबोचकर नन्हों सहुआइन पीछे हटी और दरवाज़े को झटके से भेड़ लिया। आँगन के कोने में पानी रखने के चबूतरे के पास खड़ी होकर उन्होंने चिट्ठी को पढ़ा। रामसुभग आ रहा है, लिखा था चिट्ठी में। केवल तीन सत्र की इबारत थी पूरी। पर नन्हों के लिए उसके एक-एक अक्षर को उचारने मे पहाड़-सा समय लग गया जैसे। चबूतरे के पास कलसी के नीचे, पानी गिरने से ज़मीन नम हो गई थी, जौ के बीज गिरे थे जाने कब, इकट्ठे एक में सटे हुए उजले-हरे अँखुए फूटे थे। नन्हों सहुआइन एकटक उन्हें देखती रहीं बड़ी देर तक।
पाँच साल का समय कुछ कम तो नहीं होता। लंबे-लंबे पाँच साल! पूरे पाँच साल के बाद आज रामसुभग को भौजी की याद आई है। पाँच साल में उसने एक बार भी कुशल-मंगल का हाल नहीं दिया। एक बार भी नहीं पूछा कि भौजी जीती है या मर गई। जब अपना ही नहीं रहा हाल-चाल लेने वाला, तो दूसरा कौन पूछता है किसे? नन्हों सहुआइन ने चारपाई के पास से माची खीची और उस पर बैठ गई। हल्दी-सनी अंगुलियों के निशान ‘कार्ड’ पर उभर आए थे— जैसे वह किसी के शादी-ब्याह का न्यौता था। शादी-ब्याह का ख्य़ाल आते ही नन्हों सहुआइन की आँखें चलवे मछली-सी चिलक उठी। जाने कितनी बार सोचा है उन्होंने अपनी शादी के बारे में। कई बार सोचा, इस दु:ख दाई बात को फिर कभी न सोचूँगी। जो भाग में न था उस पर पछतावा क्या? पर वह औरत क्या जो अपनी शादी पर न सोचे और एक ऐसी औरत जिसकी शादी उसकी ज़िंदगी का दस्तावेज़ बनकर आई हो, ज़िंदगी सिर्फ़ उसकी गिरो ही नहीं बनी उसने तो नन्हों के समूचे जीवन को रेतभरी परती की तरह वीरान कर दिया।
गाँव की सभी औरतों की तरह नन्हों का भी ब्याह हुआ। उसकी भी शादी में वही हुआ जो सभी शादियों में होता है। बाजा-गाजा, हल्दी-सिंदूर, मौज-उत्सव, हँसी-रुला सब कुछ वही।
एक बात में ज़रूर अंतर था कि नन्हों की शादी उसके मायके में नहीं, ससुराल में हुई। इस तरह की शादियाँ भी कोई नई नहीं हैं। जो ज़िंदगी के इस महत्त्वपूर्ण मौक़े को भी उत्साह और इच्छा के बावजूद रंगीनियों से बाँधने के उपकरण नहीं जुटा पाते वे बारात चढ़ाकर नहीं, डोला उतारकर शादी करते है। इसलिए नन्हों की शादी भी डोला उतारकर ही हुई तो इसमें भी कोई ख़ास बात तो नहीं हो गई। नन्हों का पति मिसरीलाल एक पैर का लँगड़ा था, पैदाइशी लँगड़ा। उसका दायाँ पैर जवानी में भी बच्चों की बाँह की तरह ही मुलायम और पतला था। डंडा टेककर फुदकता हुआ चलता। नाक-नक्श से कोई बुरा नहीं था, वैसे काला चेहरा उभरी हुई हड्डियों की वजह से बहुत वीरान लगता। घर में किराने की दुकान होती, जिसमें खाने-पीने के ज़रूरी सामानों के अलावा तंबाकू, बीड़ी-माचिस और ज़रूरत की कुछ सब्ज़ियाँ भी बिकती। अक्सर सब्ज़ियाँ बासी पड़ी रहतीं, क्योंकि अनाज से बराबर के भाव ख़रीदने वाले अच्छे गृहस्थ भी मेहमान के आने पर ही इस तरह का सौदा किया करते।
मिसरीलाल की शादी पक्की हुई तो नन्हों का बाप बड़ा ख़ुश था, क्योंकि मिसरीलाल के नाम पर जो लड़का दिखाया गया वह शक्ल में अच्छा और चाल-चलन में काफ़ी शौक़ीन था। लंबे-लंबे उल्टे फेरे हुए बाल थे, रंग वैसे साँवला था, पर एक चिकनाई थी जो देखने में ख़ूबसूरत लगती थी। इसीलिए लड़के वालों ने जब ज़ोर दिया कि हमें बारात चढ़ाके शादी सहती नहीं; डोला उतारेंगे, तो थोड़ी मीन-मेख के बाद नन्हों का बाप भी तैयार हो गया, क्योंकि इसमें उसका भी कम फ़ायदा न था। ख़र्चे की काफ़ी बचत थी।
डोला आया, उसी दिन हल्दी-तेल की सारी रस्में बतौर टोटके के पूरी हो गईं और उसी रात को बाजे-गाजे के बीच नन्हों की शादी मिसरीलाल से हो गई। बाजों की आवाज़ें हमेशा जैसी ही ख़ुशी से भरी थी, मंडप की मंडियों और चँदोवे में हवा की ख़ुशीभरी हरकतें भी पूर्ववत् थी, भाटिनों के मंगल-गीत में राम और सीता के ब्याह की वही पवित्रता गूँज रही थी, पर नन्हों अपने हाथ भर के घूँघट के नीचे आँसुओं को सुखाने की कितनी कोशिश कर रही थी, इसे किसी ने न देखा। एक भारी बदसूरत पत्थर को गले में बाँधे वह वेदना और पीड़ा के अछोर समुद्र में उतार दी गई जहाँ से उसकी सिसकियों की आवाज़ भी शायद ही सुनाई पड़ती।
“कहो भौजी, बाबा ने देखा तो मुझको, पर शादी हुई मिसरी भैया की।” रामसुभग ने दूसरे दिन काने में बैठी नन्हों से मुसकराते हुए कहा, “अपना-अपना भाग है, ऐसी चाँद-सी बहू पाने की क़िस्मत मेरी कहाँ है?” भौजी मज़ाक के लिए बनी है, पर ऐसे मज़ाक का भी क्या जवाब? नन्हों की आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे जिन्हें वह पूरे चौबीस घंटे से लगातार रोके हुए थी। रामसुभग बिलकुल घबरा गया, उसने दुःखी करने के लिए ही चोट की थी, पर घायल सदा पंख समेटे शिकारी के चरणों में ही तो नहीं गिरता, कभी-कभी ख़ून की बूँदें भर गिरती हैं। और पंछी तीर को सीने में समाए ही उड़ता जाता है।
“ठीक कहा लाला तुमने, अपना-अपना भाग ही तो है...” नन्हों ने कहा और चुपचाप पलकों से आँसुओ की चट्टानों को ठेलती रही।
रामसुभग मिसरीलाल का ममेरा भाई है। अक्सर वह यही रहता, एक तो इसलिए कि उसे अपना घर पसंद न था। बाप सख्त़ी से काम कराता, और आना-कानी की तो बूढ़े बाप के साथ दूसरे भाइयों का मिला-जुला क्रोध उसके लिए बहुत भारी पड़ता। दूसरे, मिसरीलाल का भी इरादा था कि वह अक्सर यहाँ आता-जाता रहे ताकि उसे दुकान के लिए सामान वग़ैरह ख़रीदवाने में आसानी पड़े। रामसुभग के लिए मिसरीलाल का घर अपना जैसा ही था। उसने मिसरीलाल की शादी की बात सुनी तो बड़ा ख़ुश हुआ था कि घर में एक औरत आ जाएगी, थोड़ी चहल रहेगी और मुरव्वत में अक्सर जो उसे चूल्हा फेंकने का काम भी कर देना पड़ता, उससे फ़ुर्सत मिल जाएगी। पर नन्हों को देखकर रामसुभग को लगा कि कुछ ऐसा हो गया है जैसा कभी सोचा न था। नन्हों वह नहीं है जिसे मिसरीलाल की औरत के रूप में देखकर उसे कुछ अड़चन न मालूम हो। वह काफ़ी विश्वास के साथ आया था नन्हों से बात करने, उसे जता देने कि रामसुभग भी कुछ कम नहीं है, मिसरीलाल का बड़ा आदर मिलता है उसे, यह घर जैसे उसी के सहारे टिका है और भौजी के लिए रामसुभग-सा देवर भी कहाँ मिलेगा, और शादी के पहले तो नन्हों के बाप ने भी उसे ही देखा था ...पर जाने क्या है नन्हों की उस झुकी हुई आँखों में कि रामसुभग सब भूल गया। चारपाई के नीचे बिछी रंगीन सुहागी चटाई पर पैरों को हाथ में लपेटे नन्हों बैठी थी गुड़ीमुड़ी, उसकी लंबी बरौनियाँ बारिश में भीगी तितली के पैरों की तरह नम और बिखरी थीं और वह एकटक कहीं देख रही थी, शायद मन के भीतर किसी बालियों से लदी फ़सल से ढके लहराते हुए एक खेत को, जिसमें किसी ने अभी-अभी जलती हुई लुकाठी फेंक दी है।
रामसुभग बड़ी देर तक वैसे ही चुप बैठा रहा। वह कभी आँगन में देखता था कभी मुँडेरे पर। वह चाहता था कि इस चुप्पी को नन्हों ही तोड़े, वही कुछ कहे, अपने मन से ही जो कहना ठीक समझे, क्योंकि उसके कहने में शायद बात कुछ ठीक बने, न बने, पर नन्हों तो कुछ बोलती ही नहीं।
ब्याह के दूसरे दिन के रसम-रिवाज़ पूरे हो रहे थे, कमारी डाले मे अक्षत-सिंदूर लेकर गाँव की तमाम सत्तियों के चौरे पूज आई थी, और सबसे मिसरीलाल की मृत माँ की ओर से वर-वधु के लिए आशीर्वाद माँग आई थी। रात-भर गाने से थकी हुई भाटिनें अपने मोटे और भोंड़े स्वरों में अब भी राम और सीता की जोड़ी की असीसें गा रही थी। कुछ बचे-खुचे लोग एक तरफ़ बैठे खा रहे थे, पुरवे-पत्तल इधर-उधर बिखरे पड़े थे।
“अच्छा भौजी...” रामसुभग इस मौन को और न झेल सका। चुपचाप उठकर आँगन में चला आया।
“क्या बबुआ, भौजी पसंद आई?” एक मनचली भाटिन ने मोटी आवाज़ में पूछा।
“हाँ, हाँ, बहुत...” रामसुभग इस प्रश्न की चुभन को भाँप गया था। उसने मुस्कराने की कोशिश की, पर गर्दन ऊपर न उठ सकी। वह चुपचाप सिर झुकाए दालान में जाकर मिसरीलाल के पास चारपाई पर बैठ गया। उस समय मिसरीलाल दो-एक नाते-रिश्ते के लोगों से बातें कर रहा था। पीले रंग की धोती उसके काले शरीर पर काफ़ी फब रही थी, पर उसके चेहरे की वीरानी में कोई अंतर न था, ख़ुशी उसके चेहरे पर ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने ज़ंग लगी पिचकी डिबिया में कपूर रख दिया हो। उसके दाहिने हाथ का कंगन एक मरे हुए मकड़े की तरह झूल रहा था...जाने क्यों आज रामसुभग को मिसरीलाल बहुत बदसूरत लग रहा था, शादी के कपड़ों में कोई ऐसा भद्दा लगता है, यह रामसुभग ने पहली बार देखा।
“सुभग”, मिसरीलाल ने बातचीत से निपटकर दालान में एकांत देखकर पूछा, “क्यों रे भौजी कैसी लगी— सच कहना, अपनों से क्या दुराव—गया था न, कुछ कह रही थी?
“नहीं तो” रामसुभग ने कहा, “काफ़ी हँसमुख है, वैसे मायका छूटने पर तो सभी दुलहिने थोड़ी उदास रहती हैं। मिसरीलाल अजीब तरीके से हँसा, “अरे वाह रे सुम्भू, तू तो भई दुलहिने पहचानने में बेजोड़ निकला। उदास क्यों लगती है भला वह? किसी परिवार वाले घर में जाती, सास-जिठानियों की धौंस से कलेजा फट जाता, दिन-रात काँव-काँव, यहाँ तो बस दो परानी है, राज करना है, है कि नहीं?”
“हूँ”, रामसुभग गर्दन झुकाए चारपाई के नीचे देख रहा था, उसने वैसे ही हामी भर दी जैसे उसने पूरी बात सुनी ही न हो।
“मीसरी साह!” दरवाज़े से कमारी ने पुकारा, “बाबाजी बुला रहे हैं चौके पर कंगन छूटने की साइत बीत रही है।” मिसरीलाल धीरे-से उठे और फुदकते हुए चौके पर जा बैठे। लाल चुनर में लपेटे, गुड़िया की तरह उठाकर नन्हों को कमारी ले आई और उसने मिसरीलाल की बग़ल में बिठा दिया।
मिसरीलाल की शादी हुए एक सतवारा बीत चुका था। इस बीच जाने कितनी बार रामसुभग नन्हों के पास बैठा। नन्हों के पास बैठने में उसे बड़ी घुटन महसूस होती, उसे हर बार लगता कि वह ग़लती में आ गया, उसका मन हर बार एक अजीब क़िस्म की उदासी से भर जाता। वह सोचता कि अब उसके पास नहीं जाऊँगा, जो होना था सो हो गया, पर उसका जी नहीं मानता। नन्हों ने इस बीच मुश्किल से उससे दो-चार बातें की होंगी। कभी शायद ही उसकी ओर देखा होगा, पर पता नहीं उन झुकी हुई बरौनियों से घिरी आँखों में कैसा भाव है कि रामसुभग खिंचा चला आता है। वे आँखें उसे कभी नहीं देखतीं, कहीं और देखतीं हैं, पर उनका इस तरह देखना रामसुभग के मन में आँधी की तरह घुमड़ उठता है। वह बार-बार सोचता कि शायद नन्हों के बाप के सामने वह दूल्हा बनकर न खड़ा होता तो नन्हों आज यहाँ न होती। झुकी हुई पलकों से घिरी इन आँखों की पीड़ा उसी की पैदा की हुई है। वही दोषी है, वही अपराधी है! रामसुभग इसीलिए नन्हों के पास जाने को विकल हो उठता है पर पास पहुँचने पर यह विकलता कम नहीं होती। उसकी माँ ने बहू को “मुँह दिखाई” देने के लिए दो रुपए न्योता के साथ भेजे थे, पर नन्हों को देखकर उसकी हिम्मत न होती कि वे रुपए माँ की ओर से उसे दे दे। वह बाज़ार से सिल्क का एक रूमाल भी ख़रीद लाया। रुपए उसी में बाँध लिए। पर रूमाल हमेशा उसकी जेब में पड़ा रहा, वह उसे नन्हों को दे न सका।
“क्यों लाला, इतने उदास क्यों हो?” एक दिन पूछा था नन्हों ने, “यहाँ मन नहीं लगता, भाई-भौजाइयों की याद आती होगी.”
“नहीं तो, उदास कहाँ हूँ, तुम जो हो,” रामसुभग ने मुसकराते हुए कहा।
“मैं...हाँ, मैं तो हूँ ही, पर लाला, मैं तो दुःख की साझीदार हूँ, सुख कहाँ है अपने पास जो दूसरों को दूँ? उदासी में पली, उदासी में ही बढ़ी। जन्मी तो माँ मर गई, बड़ी हुई तो बाप का बोझ बनी। मैं भला दूसरे की उदासी क्या दूर कर सकूँगी...”
“देखो भौजी...” रामसुभग ने पूरी साझेदारी से कहा— “जो होना था वह हो गया...दिन-रात घुलते रहने से क्या फ़ायदा...कुछ ख़ुश रहा करो”...थोड़ा हँसा करो...”
नन्हों मुसस्कराने लगी— “अच्छा लाला, तुम कहते हो तो ख़ुश रहा करूँगी, हसूँगी, पर बुरा न मानना, बेबान के काम में थोड़ी देर लगती ही है।”
उस दिन रामसुभग बड़ा प्रसन्न था। सिर का भारी बोझ हट गया। जैसे किसी ने क़लक़ते हुए काँटे को खींचकर निकाल दिया। नन्हों का मुस्कराना भी ग़ज़ब है, वह सोच रहा था। उदास रहेगी तब भी, मुस्कराएगी तब भी, हर हालत में जाने क्या है उसके चेहरे में जो रामसुभग का मन उचाट देता है। गाँव में घूमता रहे, बाज़ार से सौदा लाता रहे, लोगों के बीच में बैठकर गप्पें हाँकता रहे...नन्हों के चेहरे की सुध आते ही एकरस सूत झटके से टूट जाता, सोई सतह में लहरें वृत्ताकार घूमने लगतीं। सन्नाटे में जैसे मंदिर के घंटे की अनुगूँज झनझना उठती...।
चैती हवा में गर्मी बढ़ गई थी। उसमें केवल नीम की सुवासित मंजरियों की गंध ही नहीं, एक नई हरकत भी आ गई थी। उसकी लपेट में सूखी पत्तियाँ, सूखे फूल, पकी फसलों की टूटी बालियाँ तक उड़कर आँगन में बिखर जातीं। दोपहर में खाना खाकर मिसरीलाल दालान में सो जाता, और रामसुभग बाज़ार गया होता या कहीं घूमने...। नन्हों घर में अकेली बैठी सूखे पत्तों का फड़फड़ाना देखती रहती। उसके आँगन के पास भी खंडहर में नीम का पेड़ था। ऐसे दिनों में जब नीम हरी निबौरियों से लद जाता, वह ढेर-सी निबौरियाँ तोड़कर घर ले आती और उन्हें तोड़-तोड़कर ताजे दूध-से गालों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनाती...शीशे में ठीक ऐपन की पुतरी मालूम होती। रामलीला में देखा था, राम और सीता बनने वाले लड़कों के गालों पर ऐसी ही तस्वीरें बनती थी।
हवा का एक तेज़ झोंका आया, किवाड़ झटके से खड़खड़ाया, देखा, सामने रामसुभग खड़ा था मुस्कराता हुआ।
“भौजी” वह पास की चारपाई पर बैठ गया— “एक गिलास पानी पिला दो। बड़ी प्यास लगी है।”
“कहाँ गए थे इतनी धूप में?” नन्हों उठी और आँगन के कोने में चबूतरे पर रखी गगरी में पानी ढालकर ले आई।
जाने क्या हो गया था उस दिन रामसुभग को कि उसने गिलास के साथ ही नन्हों की बाँह को दोनों हाथों से पकड़ लिया। एक झटके के साथ बाँह काँपी और साँप की तरह ऐंठकर सुभग के हाथों से छूट गई। गिलास धब्ब की आवाज़ के साथ ज़मीन पर गिर पड़ा।
“सरम नहीं आती तुम्हें...” नन्हों साँपिन की तरह फुफकारती हुई बोली— “बड़े मर्द थे तो सबके सामने बाँह पकड़ी होती। तब तो स्वाँग किया था, दूसरे के एवज़ तने थे, सूरत दिखाकर ठगहारी की थी! अब दूसरे की बहू का हाथ पकड़ते सरम नहीं आती।”
“मैं...तो भौजी तुम्हें यह देने आया था...।” रामसुभग ने रुमाल निकाला जिसकी खूँट में दो रुपए बँधे थे।
“क्या है यह?”– नन्हों ने ग़ुस्से में ही पूछा।
“मुँह दिखाई के रुपए हैं। कई बार सोचा देने को, पर दे न सका।”
उसने रूमाल वही चारपाई पर रख दिया और लड़खड़ाता हुआ बाहर चला गया। सारा आँगन झूले की तरह डोल रहा था। गाँव की गलियाँ, दरवाज़े जैसे उसकी ओर घूर रहे थे। उसी दिन वह अपने गाँव चला गया है।
दो महीने बीत गए, रामसुभग का कोई समाचार न मिला। मिसरीलाल कभी उसकी चर्चा भी करता, तो नन्हों को चुप देख, एक-दो बातें चलाकर मौन हो जाता। दुकान के लिए सारी चीज़ें रामसुभग ही ख़रीदकर लाता था। उसके न होने से मिसरीलाल को बहुत तकलीफ़ होती। किसी लद्दू, टट्टू या बैल वाले से सामान तो मँगवा लेता पर चीज़ें मन-माफ़िक नहीं मिलतीं और उनके साथ बाज़ार जाकर चीज़ें ख़रीदने में उसे काफ़ी दिक्क़त भी होती। दोपहर के वक़्त, जबकि सूरज सिर पर तपता होता, लू में डंडे के सहारे टेकता, पसीने से लथपथ किसी तरह वह घर पर पहुँचता। इस तरह की आवाजाही में एक दिन उसे लू लग गई और वह बिस्तर पर गिर पड़ा। नन्हों ने आम के पत्ते पिलाए। हाथों और पैरों में भुने आम की लुगदी भी लगाई, पर ताप कम न हुआ। पीड़ा के मारे वह छटपटाता रहा। नन्हों घर से निकलती न थी, किसी से मदद माँगना भी मुश्किल था। उसने कमारी को बुलाकर रामसुभग के गाँव भेजा। कहलाया कि कुछ सोचने-विचारने की ज़रूरत नहीं है, ख़बर मिलते ही जल्दी-से-जल्दी चले आवें। तीन-चार घड़ी रात गए रामसुभग मिसरीलाल के दरवाज़े पर पहुँचा तो वहाँ काफ़ी भीड़ थी। भीतर औरतो के रोने की चीत्कार गूंज रही थी। बाहर मिसरीलाल का शव रखा था। नन्हों विधवा हो चुकी थी।
रामसुभग मिसरीलाल के क्रिया-कर्म में लगा रहा, नन्हों से कुछ कहने की उसे फ़ुर्सत ही न मिली। कभी सामने नन्हों दिख भी गई तो उसमें इतना साहस न हुआ कि सांत्वना के दो शब्द भी कह सके। काँच की चूड़ियाँ भी क़िस्मत का अजीब खेल खेला करती हैं। नन्हों जब इन्हें पहनना नहीं चाहती थी तब तो ये ज़बर्दस्ती उसके हाथों में पहनाई गईं और अब जब वह इन्हें उतारना नहीं चाहती तो लोगों ने ज़बर्दस्ती हाथों से उतरवा दिया। कार-परोजन के घर में इतनी फ़ुर्सत ही कहाँ थी कि नन्हों बैठ जाती। परंतु कभ-कभी दोपहर में दो-एक घड़ी की फ़ुर्सत मिलती तो वह अपनी उसी सुहागी चटाई पर बैठी हुई चुपचाप आँगन में देखा करती। रामसुभग उसके इस देखने के ढंग से इतना परेशान हो जाता कि काम-काज के बीच में भी नन्हों की वे तिरती आँखें उसके हृदय को बेधने लगतीं। आँगन में इधर-उधर आने-जाने में वह घबराता। कहीं नन्हों पर नज़र न पड़ जाए, इसीलिए गाँव के दूसरे लोगों को काम सौंपकर वह बाहर के कामों में सुबह से शाम तक जुता रहता। किरिया-करम बीत जाने पर वह घर में कम ही बैठ पाता। अक्सर सौदा-सामान ख़रीदने बाज़ार निकल जाता था ख़ाली रहा तो गाँव में किसी के दरवाज़े पर बैठा दिन गुज़ार देता।
कई महीने बीत गए। बरसात आई और गई। पानी सूख गया। बादलों का घिरना बंद हो गया। बौछारों से टूटी-जर्जर दीवारों के घाव भर गए। नई मिट्टी से सज-सँवरकर वे पहले जैसी ही प्रसन्न मालूम होतीं। ऐसा लगता जैसे इन पर कभी बौछार की चोट पड़ी ही न हो, कभी इनके तन पर ठेस लगी ही न हो।
उस दिन चमटोली में गादी लगी थी। कातिक की पूनों को हमेशा यह गादी लगती। बीच चौकी पर सतगुरु की तस्वीर फूल-मालाओं मे सजाकर रखी हुई थी। अगरबत्तियों के धुँए से चमरौटी की गंदी हवा भी ख़ुशबूदार हो गई थी। कीर्तन-मंडली बैठी हुई थी। गाँव की औरतें, बूढ़े-बच्चे इकट्ठे होकर भजन सुन रहे थे:
जो तुम बाँधे मोह फाँस हम प्रेम बंधन तुम बाँधे;
अपने छूटन की जतन करहु हम छूटे तुम आराधे ।
जो तुम गिरिवर तउ हम मोरा;
जो तुम चन्दा हम भए हैं चकोरा।
माधव तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहि;
तुम सों तोर कवन सों ज़ोरहिं।
काफ़ी देर तक कीर्तन चलता रहा। नन्हों लौटी तो उसके मन में रैदास के गीत की पंक्तियाँ बार-बार गूँजती रहीं। “जो तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहिं...” वह धीरे-धीरे गुनगुना रही थी। दालान का दरवाज़ा रामसुभग ने बंद कर रखा था। साँकल खटखटाई तो उसने आकर दरवाज़ा खोला।
“इतनी रात को इस तरह तुम्हारा गली—गली घूमना ठीक नहीं है भौजी...” जाने कहाँ का साहस आ गया था उसे। रामसुभग दरवाज़ा बंद करते हुए बोला।
“हूँ” नन्हों ने और कुछ न कहा।
“मैं तुम्हीं से कह रहा हूँ...”
नन्हों एक झटके के साथ घूमी। रामसुभग के चेहरे पर उसकी आँखें इस तरह टिकी थी मानो बेधकर भीतर घुस जाएँगी, “इतनी क़लक़ होती है तो पहले ही ब्याह कर लिया होता। इस तरह डाँट रहे हो लाला, जैसे मैं तुम्हारी जोरू हूँ। ख़बरदार, फिर कभी आँख दिखाई तो...!” रामसुभग माथा पकड़कर बैठ गया। ग़ुस्से और ग्लानि के मारे उसका सारा बदन जल रहा था, पर मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसने चादर खींचकर मुँह ढक लिया और भीतर-ही-भीतर उफनता-उबलता रहा।
और तब से पाँच बरस बीत गए। आज पहली बार रामसुभग की चिट्ठी आई है कि वह कलकत्ते से गाँव आ रहा हैं। ये पाँच बरस जाने नन्हों ने कैसे बिताए हैं। रामसुभग उसी रात को लापता हो गया। रोते-रोते नन्हों की आँखें सूज गईं। मेरा कोई न होगा, मैं अकेली रहने के लिए ही जन्मी हूँ। वह अपने को धिक्कारती, कलपती। कभी मन पूछता— पर इसमें मेरी क्या ग़लती थी, मैं तो गादी देखने-भर चली गई थी, कौन नहीं गई थी वहाँ, मैंने क्या कर दिया था ऐसा। हाँ, ग़लती ज़रूर थी। मैं विधवा हूँ, उत्सव-तमाशा मेरे लिए नहीं है।
“बबुआ नहीं हैं क्या?” दूसरे दिन शाम को कमारी ने पूछा था, “देखो दुलहिन, मेरी बात मानो, सुभग से ब्याह कर लो, तुम्हारी जात मे यह मना भी नहीं है, कब तक ऐसे रहोगी...”
“चुप रह...” नन्हों ने उसे बरज दिया था। दूसरे ही क्षण वह शरम से गड़ गई थी। जाने क्यों लोग मन के छुपे राज़ को भाँप लेते हैं। जिसे जितना छिपाओ, उसे उतनी ही जल्दी लोग खींचकर सामने कर देते हैं।
“चुप तो रहूँगी दुलहिन, पर पछताओगी, ऐसा दूल्हा हाथ न आएगा। वह ज़िंदगी-भर तुम्हारे लिए कुँवारा नहीं बैठा रहेगा, ऐसा मौक़ा हमेशा नहीं आता...तुम्हारे बाबूजी ने तो उसी को देखा था, मिसरीलाल से तो ब्याह धोखे से हुआ...।”
“मैं कहती हूँ चुप कर...” नन्हों की आँखें डबडबा आई— “मेरी जिनगानी में धोखा ही लिखा है, तो उसे कौन मेट सकता है।”
कमारी सकपकाकर चुप हो गई। आँसूओं की धार सँभालना उसके वश के बाहर था। वह चुपचाप दरवाज़ा भेड़कर चली गई।
“नन्हों चाची, नन्हों चाची...” दुकान से कोई लड़का चीख़ रहा था, नन्हों माची पर से उठी और दुकान की ओर लपककर चली।
“क्या है रे— क्यों चीख़ रहा है ऐसे।”
“यह देखो, किसना बेर लेकर भाग रहा है...” जन्नू ने हकलाते हुए कहा। वह ललचाई आँखों से लाल-लाल बेरों से भरी टोकरी को देख रहा था।
“अच्छा, भाग रहा है तो भागने दे, तू भी ले और भाग यहाँ से, हल्ला मत मचाओ यहाँ...” लड़के जेबों में बेर भर खिलखिलाते हुए बाहर चले गए। नन्हों ने दरवाज़ा बंद कर लिया और रसोई में चली गई।
कलकत्ते की गाड़ी शाम सात बजे के क़रीब आती थी। नन्हों आँगन में चारपाई डाले लेटी थी। झिलँगी चारपाई थी, मूँज की। पैरों में रेशों की चुभन अजीब लगती। हवा पहले जैसी सर्द न थी। हल्की गर्मी गुलाबी रंग की तरह हर झकोरे में समाई हुई थी। नन्हों के खुले हुए काले बाल सिरहाने की पाटी से ज़मीन तक लटके हुए थे। वह चुपचाप नीले आसमान के तारों को देख रही थी। आँगन की पूर्वी दीवार की आड़ से शायद चाँद निकल रहा होगा, क्योंकि उजला-उजला ढेर-सा प्रकाश मुंडेरे की छाजन पर मिट्टी की पटरियों से टकराकर चमक रहा था।
साँकल खड़की।
“भौजी!”
सुभग पाँच साल के बाद लौटा था।
नन्हों ने दरवाज़ा खोला। सुभग था सामने। अँधेरे में वह उसे देखती रही।
“आ जाओ” पंखुड़ियों के चिटकने जैसी आवाज़ सन्नाटे मे उभरकर खो गई। दोनों बिलकुल ख़ामोश थे। रामसुभग आँगन की चारपाई पर आकर बैठ गया। एक अजीब सन्नाटा दोनों को घेरकर बैठ गया था।
खा-पीकर रामसुभग जब सोने के लिए अपनी चारपाई पर गया, तो माची खींचकर नन्हों उसके पास ही बैठ गई।
“क्यों बाबू, बहुत दिनों के बाद सुध ली...” नन्हों ने ही बात शुरू की—“बहुत दुबले हो गए हो, बीमार तो नहीं थे?”
“नहीं तो,” रामसुभग बोला— “पाँच साल तक तो भुलाने की कोशिश करता रहा भौजी, पर भूलता नहीं। मैंने कई बार सोचा कि चलकर तुमसे माफ़ी माँग लें, पर हिम्मत न हुई। अब की मैंने तय किया कि जो कहना है कह ही जाऊँ। मैंने अनजाने में गलती कर दी भौजी। मैं नहीं जानता था कि मेरी तनिक-सी ग़लती इतना फल देगी। मैंने जो कुछ किया मिसरी भैया की ख़ुशी के लिए ही, पर क़सूर तो है ही, चाहे वह जैसे भी मन से हो...” रामसुभग ने ज़मीन पर देखते हुए कहा— “मेरे क़सूर को तुम ही माफ़ कर सकती हो...।”
“क़सूर कैसा लाला, तुम जिसे क़सूर कहते हो वह मेरे भाग्य का फल था। तुम समझते हो कि बाबूजी को कुछ नहीं मालूम था। मालूम तो उन्हें तभी हो गया जब डोला भेजने की बात हुई। बिगड़ने वाली बात को सभी पहले से जान लेते हैं बाबू, जिनके पास बल है उसे नहीं होने देते; जो कमज़ोर हैं उसे धोखा कहकर छिपाते हैं...बाबू को सब मालूम हो गया था, पर अच्छे घर के लिए जो चाहिए वह बाबू कहाँ से लाते! इसमें तुम तो एक बहाना बन गए, तुम्हारा क्या क़सूर है इसमें...” नन्हों ने आँचल से आँखें पोंछ ली। रामसुभग बेवकूफ़ की तरह आँखें फाड़कर अँधेरे में नन्हों को देखता रहा।
“अच्छा बाबू, थके हो, सबेरे फिर बातें कर लूँगी...” नन्हों उठकर अपने घर में चली गई।
रामसुभग तीन दिन तक रहा। तीन दिनों में शायद ही वह दो-एक बार गाँव में घूमने गया। दिन-रात नन्हों से बातें करना ही उसका काम था— दुनिया भर की बातें, कलकत्ते की, बाप की, माँ की, भाइयों और भौजाइयों की। नन्हों रामसुभग को एक़दम बदली हुई लगती। उसकी आँखो में अब पहले जैसी तीखी चमक नहीं थी, उसके स्थान पर ममता और स्नेह का जल भरा था। अब वह एकटक सुनसान कोने को नहीं देखती थी, पर बरौनियों में नमी अब भी पहले जैसी ही थी। नन्हों को इस नए रूप में देखकर सुभग का मन नई आशा से भरने लगा। तो क्या यह सब हो जाएगा— क्या भाग्य की गणना फिर सही हो जाएगी? पर नन्हों से कुछ कह पाना उसके लिए सदा ही कठिन रहा है। वह आज भी पिछली दो घटनाओं को भूला नहीं था, पर नन्हों भी तो ऐसी पहले न थी।
आज नन्हों को फिर पुरानी बातें याद आ रही हैं। रैदास के गीत की वह पंक्ति न जाने फिर क्यों बार-बार याद आने लगी है!
“जो तुम तोरहु तो हम नाहिं तोरहिं, तुम सों तोर कवन सो ज़ोरहि?”
वह ख़ुश है, प्रसन्न है। पर रामसुभग को चैन नहीं। शायद चलने की बात करूँ तो वह कुछ खुल के कहेगी। इसी आशा से उस दिन सुबह ही सुभग ने कहा— “भौजी, अब मैं गाँव जाऊँगा, आज रात वाली गाड़ी से।”
“क्यों बाबू, मन नहीं लग रहा है?”
“मन तो लग रहा है...पर...”
“अच्छा, ठीक है।”
रामसुभग इस उत्तर से कुछ समझ न सका। वह मन-मारे अपने कमरे में बैठा रहा। शायद चलते वक़्त कुछ कहे, शायद फिर लौट आने के लिए आग्रह करे।
शाम को अपना सामान बाँधकर जब सुभग तैयार हुआ, तो नन्हों अपने घर में से निकलकर आई।
“तैयारी हो गई लाला?”
“हाँ।”
नन्हों ने आँचल से हाथ निकाला और रामसुभग की ओर हाथ बढ़ाकर
कहा—“यह तुम्हारा रूमाल है लाला।”
रामसुभग काठ की तरह निश्चेष्ट हो गया—“पर इसे तो मैंने ‘मुँहदेखाई’ में दे दिया था भाभी!”
“बाबू ने तुम्हारा मुँह देखकर मुझे अनदेखा सुहाग सौंपा था, तुम्हारी माँ ने उसी के अमर रहने के लिए रुपए दिए थे आशीर्वाद में। बड़ों ने जो दिया उसे मैंने माथे पर ले लिया। मैं कमज़ोर थी बाबू, भाग्य से हार गई। पर आज तो मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ, आज मुझे तुम हारने मत दो। तुम्हारा रूमाल मेरे पाँव बाँध देता है लाला, इसी से लौटा रही हूँ, बुरा न मानना...
रामसुभग ने धीरे से रूमाल ले लिया। नन्हों उसका जाना भी देख न सकी। आँखें जल में तैर रही थी। दीए की लौ जटामासी के फूल की तरह कई फाँकों में बँट गई। नन्हों ने किवाड़ तो बंद कर लिया, पर साँकल न चढ़ा सकी।
chitthi Dakiye ne darwaze par dastak di to nanhon sahuain ne dal ki batli par yon kalchhi mari jaise sara kasur batuli ka hi hai haldi se range hath mein kalchhi pakDe we rasoi se bahar i aur ghusse ke mare jali bhuni, do ka ek Dag marti DyoDhi ke pas pahunchi
“kaun hai re!” sahuain ne ek hath mein kalchhi pakDe dusre se sankal utar kar darwaze mae jhanka to Dakiye ko dekhkar dhak se pichhe hati aur pallu se haldi ka dagh bachate, ek hath ka ghunghat khinchkar darwaze ki aaD mein chhipkali ki tarah simat gai
“apne ki chitthi kahan se ayegi munshiji, pata thikana theek se uchaar lo, bhool chook hoy gai hoygi”, we dhire se phusaphusai pahle to kewal unki kanguriya dikh rahi thi jo ashanka aur ghabrahat ke karan chhipkali ki poonchh ki tarah ainth rahi thi
“nahin ji, kalkatte se kisi ramasubhag sahu ne bheji hai, pata thikana mein koi ghalati nahin ”
“ramasu ” adhakhi baat ko ek ghoont mein pikar sahuain yon dekhne lagi jaise pani ka dhakka lag gaya ho kenaguriya ka sira palle mein nishchesht keel ki tarah aD gaya tha— “apne ki hi hai munshiji ”
munshiji ne chitthi aage baDhai, kanguriya phir hili, patange ki tarah faDfaDati chitthi ko panje mein dabochkar nanhon sahuain pichhe hati aur darwaze ko jhatke se bheD liya angan ke kone mein pani rakhne ke chabutre ke pas khaDi hokar unhonne chitthi ko paDha ramasubhag aa raha hai, likha tha chitthi mein kewal teen satr ki ibarat thi puri par nanhon ke liye uske ek ek akshar ko ucharne mae pahaD sa samay lag gaya jaise chabutre ke pas kalasi ke niche, pani girne se zamin nam ho gai thi, jau ke beej gire the jane kab, ikatthe ek mein sate hue ujle hare ankhue phute the nanhon sahuain ektak unhen dekhti rahin baDi der tak
panch sal ka samay kuch kam to nahin hota lambe lambe panch sal! pure panch sal ke baad aaj ramasubhag ko bhauji ki yaad i hai panch sal mein usne ek bar bhi kushal mangal ka haal nahin diya ek bar bhi nahin puchha ki bhauji jiti hai ya mar gai jab apna hi nahin raha haal chaal lenewala, to dusra kaun puchhta hai kise? nanhon sahuain ne charpai ke pas se machi khichi aur us par baith gai haldi sani anguliyon ke nishan ‘card’ par ubhar aaye the— jaise wo kisi ke shadi byah ka nyauta tha shadi byah ka khyal aate hi nanhon sahuain ki ankhen chalwe machhli si chilak uthi jane kitni bar socha hai unhonne apni shadi ke bare mein kai bar socha, is duhakh dai baat ko phir kabhi na sochunngi jo bhag mein na tha us par pachhtawa kya? par wo aurat kya jo apni shadi par na soche aur ek aisi aurat jiski shadi uski zindagi ka dastawez bankar i ho, zindagi sirf uski giro hi nahin bani usne to nanhon ke samuche jiwan ko retabhri parti ki tarah wiran kar diya
ganw ki sabhi aurton ki tarah nanhon ka bhi byah hua uski bhi shadi mein wahi hua jo sabhi shadiyon mein hota hai baja gaja, haldi sindur, mauj utsaw, hansi rula sab kuch wahi
ek baat mein zarur antar tha ki nanhon ki shadi uske mayke mein nahin, sasural mein hui is tarah ki shadiyan bhi koi nai nahin hain jo zindagi ke is mahattwapurn mauqe ko bhi utsah aur ichha ke bawjud ranginiyon se bandhne ke upkarn nahin juta pate we barat chaDhakar nahin, Dola utarkar shadi karte hai isliye nanhon ki shadi bhi Dola utarkar hi hui to ismen bhi koi khas baat to nahin ho gai nanhon ka pati misrilal ek pair ka langDa tha, paidaishi langDa uska dayan pair jawani mein bhi bachchon ki banh ki tarah hi mulayam aur patla tha DanDa tekkar phudakta hua chalta nak naksh se koi bura nahin tha, waise kala chehra ubhri hui haDDiyon ki wajah se bahut wiran lagta ghar mein kirane ki dukan hoti, jismen khane pine ke zaruri samanon ke alawa tambaku, biDi machis aur zarurat ki kuch sabziyan bhi bikti aksar sabziyan basi paDi rahtin, kyonki anaj se barabar ke bhaw kharidne wale achchhe grihasth bhi mehman ke aane par hi is tarah ka sauda kiya karte
misrilal ki shadi pakki hui to nanhon ka bap baDa khush tha, kyonki misrilal ke nam par jo laDka dikhaya gaya wo shakl mein achchha aur chaal chalan mein kafi shauqin tha lambe lambe ulte phere hue baal the, rang waise sanwla tha, par ek chiknai thi jo dekhne mein khubsurat lagti thi isiliye laDke walon ne jab zor diya ki hamein barat chaDhake shadi sahti nahin; Dola utarenge, to thoDi meen mekh ke baad nanhon ka bap bhi taiyar ho gaya, kyoki ismen uska bhi kam fayda na tha kharche ki kafi bachat thi
Dola aaya, usi din haldi tel ki sari rasmen bataur totke ke puri ho gain aur usi raat ko baje gaje ke beech nanhon ki shadi misrilal se ho gai bajon ki awazen hamesha jaisi hi khushi se bhari thi, manDap ki manDiyon aur chandowe mein hawa ki khushibhri harkaten bhi purwawat thi, bhatinon ke mangal geet mein ram aur sita ke byah ki wahi pawitarta goonj rahi thi, par nanhon apne hath bhar ke ghunghat ke niche ansuon ko sukhane ki kitni koshish kar rahi thi, ise kisi ne na dekha ek bhari badsurat patthar ko gale mein bandhe wo wedna aur piDa ke achhor samudr mein utar di gai jahan se uski siskiyon ki awaz bhi shayad hi sunai paDti
“kaho bhauji, baba ne dekha to mujhko, er shadi hui misri bhaiya ki ”
ramasubhag ne dusre din kane mein baithi nanhon se musakrate hue kaha, “apna apna bhag hai, aisi chand si bahu pane ki qimat meri kahan hai?” bhauji mazak ke liye bani hai, par aise mazak ka bhi kya jawab? nanhon ki ankhon se jhar jhar ansu girne lage jinhen wo pure chaubis ghante se lagatar roke hue thi ramasubhag bilkul ghabra gaya, usne duःkhi karne ke liye hi chot ki thi, par ghayal sada pankh samete shikari ke charnon mein hi to nahin girta, kabhi kabhi khoon ki bunden bhar girti hain aur panchhi teer ko sine mein samaye hi uDta jata hai
“theek kaha lala tumne, apna apna bhag hi to hai ” nanhon ne kaha aur chupchap palkon se ansuo ki chattanon ko thelti rahi
ramasubhag misrilal ka mamera bhai hai aksar wo yahi rahta, ek to isliye ki use apna ghar pasand na tha bap sakhti se kaam karata, aur aana kani ki to buDhe bap ke sath dusre bhaiyon ka mila jula krodh uske liye bahut bhari paDta dusre, misrilal ka bhi irada tha ki wo aksar yahan aata jata rahe taki use dukan ke liye saman waghairah kharidwane mein asani paDe ramasubhag ke liye misrilal ka ghar apna jaisa hi tha usne misrilal ki shadi ki baat suni to baDa khush hua tha ki ghar mein ek aurat aa jayegi, thoDi chahl rahegi aur murawwat mein aksar jo use chulha phenkne ka kaam bhi kar dena paDta, usse phursat mil jayegi par nanhon ko dekhkar ramasubhag ko laga ki kuch aisa ho gaya hai jaisa kabhi socha na tha nanhon wo nahin hai jise misrilal ki aurat ke roop mein dekhkar use kuch aDchan na malum ho wo kafi wishwas ke sath aaya tha nanhon se baat karne, use jata dene ki ramasubhag bhi kuch kam nahin hai, misrilal ka baDa aadar milta hai use, ye ghar jaise usi ke sahare tika hai aur bhauji ke liye ramasubhag sa dewar bhi kahan milega, aur shadi ke pahle to nanhon ke bap ne bhi use hi dekha tha par jane kya hai nanhon ki us jhuki hui ankhon mein ki ramasubhag sab bhool gaya charpai ke niche bichhi rangin suhagi chatai par pairon ko hath mein lapete nanhon baithi thi guDimuDi, uski lambi barauniyan barish mein bhigi titli ke pairon ki tarah nam aur bikhri theen aur wo ektak kahin dekh rahi thi, shayad man ke bhitar kisi baliyon se ladi fasal se Dhake lahrate hue ek khet ko, jismen kisi ne abhi abhi jalti hui lukathi phenk di hai
ramasubhag baDi der tak waise hi chup baitha raha wo kabhi angan mein dekhta tha kabhi munDere par wo chahta tha ki is chuppi ko nanhon hi toDe, wahi kuch kahe, apne man se hi jo kahna theek samjhe, kyonki uske kahne mein shayad baat kuch theek bane, na bane, par nanhon to kuch bolti hi nahin
byah ke dusre din ke rasam riwaz pure ho rahe the, kamari Dale mae akshat sindur lekar ganw ki tamam sattiyon ke chaure pooj i thi, aur sabse misrilal ki mrit man ki or se war wadhu ke liye ashirwad mang i thi raat bhar gane se thaki hui bhatinen apne mote aur bhonDe swron mein ab bhi ram aur sita ki joDi ki asisen ga rahi thi kuch bache khuche log ek taraf baithe kha rahe the, purwe pattal idhar udhar bikhre paDe the
“achchha bhauji ” ramasubhag is maun ko aur na jhel saka chupchap uthkar angan mein chala aaya
“kya babua, bhauji pasand i?” ek manchali bhatin ne moti awaz mein puchha
“han, han, bahut ” ramasubhag is parashn ki chubhan ko bhanp gaya tha usne muskrane ki koshish ki, par gardan upar na uth saki wo chupchap sir jhukaye dalan mein jakar misrilal ke pas charpai par baith gaya us samay misrilal do ek nate rishte ke logon se baten kar raha tha pile rang ki dhoti uske kale sharir par kafi phab rahi thi, par uske chehre ki wirani mein koi antar na tha, khushi uske chehre par aisi lag rahi thi jaise kisi ne jang lagi pichki Dibiya mein kapur rakh diya ho uske dahine hath ka kangan ek mare hue makDe ki tarah jhool raha tha jane kyon aaj ramasubhag ko misrilal bahut badsurat lag raha tha, shadi ke kapDon mein koi aisa bhadda lagta hai, ye ramasubhag ne pahli bar dekha
“subhag”, misrilal ne batachit se nipatkar dalan mein ekant dekhkar puchha, “kyon re bhauji kaisi lagi— sach kahna, apnon se kya duraw—gaya tha na, kuch kah rahi thee?
“nahin to” ramasubhag ne kaha, “kafi hansmukh hai, waise mayaka chhutne par to sabhi dulahine thoDi udas rahti hain misrilal ajib tarike se hansa, “are wah re sumbhu, tu to bhai dulahine pahchanne mein bejoD nikla udas kyon lagti hai bhala wah? kisi pariwar wale ghar mein jati, sas jithaniyon ki dhauns se kaleja phat jata, din raat kanw kanw, yahan to bus do parani hai, raj karna hai, hai ki nahin?”
“hoon”, ramasubhag gardan jhukaye charpai ke niche dekh raha tha, usne waise hi hami bhar di jaise usne puri baat suni hi na ho
“misri sah!” darwaze se kamari ne pukara, “babaji bula rahe hain chauke par kangan chhutne ki sait beet rahi hai ” misrilal dhire se uthe aur phudakte hue chauke par ja baithe lal chunar mein lapete, guDiya ki tarah uthakar nanhon ko kamari le i aur usne misrilal ki baghal mein bitha diya
misrilal ki shadi hue ek satwara beet chuka tha is beech jane kitni bar ramasubhag nanhon ke pas baitha nanhon ke pas baithne mein use baDi ghutan mahsus hoti, use har bar lagta ki wo ghalati mein aa gaya, uska man har bar ek ajib qim ki udasi se bhar jata wo sochta ki ab uske pas nahin jaunga, jo hona tha so ho gaya, par uska ji nahin manata nanhon ne is beech mushkil se usse do chaar baten ki hogi kabhi shayad hi uski or dekha hoga, par pata nahin un jhuki hui barauniyon se ghiri ankhon mein kaisa bhaw hai ki ramasubhag khincha chala aata hai we ankhen use kabhi nahin dekhtin, kahin aur dekhtin hain, par unka is tarah dekhana ramasubhag ke man mein andhi ki tarah ghumaD uthta hai wo bar bar sochta ki shayad nanhon ke bap ke samne wo dulha bankar na khaDa hota to nanhon aaj yahan na hoti jhuki hui palkon se ghiri in ankhon ki piDa usi ki paida ki hui hai wahi doshi hai, wahi apradhi hai! ramasubhag isiliye nanhon ke pas jane ko wikal ho uthta hai par pas pahunchne par ye wikalta kam nahin hoti uski man ne bahu ko “munh dikhai” dene ke liye do rupae nyota ke sath bheje the, par nanhon ko dekhkar uski himmat na hoti ki we rupae man ki or se use de de wo bazar se silk ka ek rumal bhi kharid laya rupae usi mein bandh liye par rumal hamesha uski jeb mein paDa raha, wo use nanhon ko de na saka
“kyon lala, itne udas kyon ho?” ek din puchha tha nanhon ne, “yahan man nahin lagta, bhai bhaujaiyon ki yaad aati hogi ”
“nahin to, udas kahan hoon, tum jo ho,” ramasubhag ne musakrate hue kaha
“main han, main to hoon hi, par lala, main to duःkh ki sajhidar hoon, sukh kahan hai apne pas jo dusron ko doon? udasi mein pali, udasi mein hi baDhi janmi to man mar gai, baDi hui to bap ka bojh bani main bhala dusre ki udasi kya door kar sakungi ”
“dekho bhauji ” ramasubhag ne puri sajhedari se kaha— “jo hona tha wo ho gaya din raat ghulte rahne se kya fayda kuch khush raha karo” thoDa hansa karo ”
nanhon musaskrane lagi— “achchha lala, tum kahte ho to khush raha karungi, hasungi, par bura na manna, beban ke kaam mein thoDi der lagti hi hai ”
us din ramasubhag baDa prasann tha sir ka bhari bojh hat gaya jaise kisi ne kalkatte hue kante ko khinchkar nikal diya nanhon ka muskrana bhi ghazab hai, wo soch raha tha udas rahegi tab bhi, muskrayegi tab bhi, har haalat mein jane kya hai uske chehre mein jo ramasubhag ka man uchat deta hai ganw mein ghumta rahe, bazar se sauda lata rahe, logon ke beech mein baithkar gappen hankata rah nanhon ke chehre ki sudh aate hi ekras soot jhatke se toot jata, soi satah mein lahren writtakar ghumne lagtin sannate mein jaise mandir ke ghante ki anugunj jhanjhana uthti
chaiti hawa mein garmi baDh gai thi usmen kewal neem ki suwasit manjariyon ki gandh hi nahin, ek nai harkat bhi aa gai thi uski lapet mein sukhi pattiyan, sukhe phool, paki phaslon ki tuti baliyan tak uDkar angan mein bikhar jatin dopahar mein khana khakar misrilal dalan mein so jata, aur ramasubhag bazar gaya hota ya kahin ghumne nanhon ghar mein akeli baithi sukhe patton ka phaDphaDana dekhti rahti uske angan ke pas bhi khanDhar mein neem ka peD tha aise dinon mein jab neem hari nibauriyon se lad jata, wo Dher si nibauriyan toDkar ghar le aati aur unhen toD toDkar taje doodh se galon par tarah tarah ki taswiren banati shishe mein theek aipan ki putri malum hoti ramlila mein dekha tha, ram aur sita bannewale laDkon ke galon par aisi hi taswiren banti thi
hawa ka ek tez jhonka aaya, kiwaD jhatke se khaDakhDaya, dekha, samne ramasubhag khaDa tha muskrata hua
“bhauji” wo pas ki charpai par baith gaya— “ek gilas pani pila do baDi pyas lagi hai ”
“kahan gaye the itni dhoop mein?” nanhon uthi aur angan ke kone mein chabutre par rakhi gagri mein pani Dhalkar le i
jane kya ho gaya tha us din ramasubhag ko ki usne gilas ke sath hi nanhon ki banh ko donon hathon se pakaD liya ek jhatke ke sath banh kanpi aur sanp ki tarah ainthkar subhag ke hathon se chhoot gai gilas dhabb ki awaz ke sath zamin par gir paDa
“saram nahin aati tumhein ” nanhon sanpin ki tarah phuphkarti hui boli— “baDe mard the to sabke samne banh pakDi hoti tab to swang kiya tha, dusre ke ewaz tane the, surat dikhakar thaghari ki thee! ab dusre ki bahu ka hath pakaDte saram nahin aati ”
“main to bhauji tumhein ye dene aaya tha ” ramasubhag ne rumal nikala jiski khoont mein do rupae bandhe the
“kya hai yah?”– nanhon ne ghusse mein hi puchha
“munh dikhai ke rupae hain kai bar socha dene ko, par de na saka ”
usne rumal wahi charpai par rakh diya aur laDkhaData hua bahar chala gaya sara angan jhule ki tarah Dol raha tha ganw ki galiyan, darwaze jaise uski or ghoor rahe the usi din wo apne ganw chala gaya hai
do mahine beet gaye, ramasubhag ka koi samachar na mila misrilal kabhi uski charcha bhi karta, to nanhon ko chup dekh, ek do baten chalakar maun ho jata dukan ke liye sari chijen ramasubhag hi kharidkar lata tha uske na hone se misrilal ko bahut taklif hoti kisi laddu, tattu ya bail wale se saman to mangwa leta par chizen man mafi nahin miltin aur unke sath bazar jakar chizen kharidne mein use kafi dikqat bhi hoti dopahar ke waqt, jabki suraj sir par tapta hota, lu mein DanDe ke sahare tekta, pasine se lathpath kisi tarah wo ghar par pahunchta is tarah ki awajahi mein ek din use lu lag gai aur wo bistar par gir paDa nanhon ne aam ke patte pilaye hathon aur pairon mein bhune aam ki lugdi bhi lagai, par tap kam na hua piDa ke mare wo chhatpatata raha nanhon ghar se nikalti na thi, kisi se madad mangna bhi mushkil tha usne kamari ko bulakar ramasubhag ke ganw bheja kahlaya ki kuch sochne wicharne ki zarurat nahin hai, khabar milte hi jaldi se jaldi chale awen teen chaar ghaDi raat gaye ramasubhag misrilal ke darwaze par pahuncha to wahan kafi bheeD thi bhitar aurto ke rone ki chitkar goonj rahi thi bahar misrilal ka shau rakha tha nanhon widhwa ho chuki thi
ramasubhag misrilal ke kriya karm mein laga raha, nanhon se kuch kahne ki use fursat hi na mili kabhi samne nanhon dikh bhi gai to usmen itna sahas na hua ki santwana ke do shabd bhi kah sake kanch ki chuDiyan bhi kismat ka ajib khel khela karti hain nanhon jab inhen pahanna nahin chahti thi tab to ye zabardasti uske hathon mein pahnai gain aur ab jab wo inhen utarna nahin chahti to logon ne zabardasti hathon se utarwa diya kar parozan ke ghar mein itni fursat hi kahan thi ki nanhon baith jati parantu kabh kabhi dopahar mein do ek ghaDi ki fursat milti to wo apni usi suhagi chatai par baithi hui chupchap angan mein dekha karti ramasubhag uske is dekhne ke Dhang se itna pareshan ho jata ki kaam kaz ke beech mein bhi nanhon ki we tirti ankhen uske hirdai ko bedhne lagtin angan mein idhar udhar aane jane mein wo ghabrata kahin nanhon par nazar na paD jaye, isiliye ganw ke dusre logon ko kaam saumpkar wo bahar ke kamon mein subah se sham tak juta rahta kiriya karam beet jane par wo ghar mein kam hi baith pata aksar sauda saman kharidne bazar nikal jati thi khali raha to ganw mein kisi ke darwaze par baitha din guzar deta
kai mahine beet gaye barsat i aur gai pani sookh gaya badalon ka ghirna band ho gaya bauchharon se tuti jarjar diwaron ke ghaw bhar gaye nai mitti se saj sanwarakar we pahle jaisi hi prasann malum hotin aisa lagta jaise in par kabhi bauchhar ki chot paDi hi na ho, kabhi inke tan par thes lagi hi na ho
us din chamtoli mein gadi lagi thi katik ki punon ko hamesha ye gadi lagti beech chauki par satguru ki taswir phool malaon mae sajakar rakhi hui thi agarbattiyon ke dhune se chamrauti ki gandi hawa bhi khushabuda ho gai thi kirtan manDli baithi hui thi ganw ki aurten, buDhe bachche ikatthe hokar bhajan sun rahe theh
jo tum bandhe moh phans hum prem bandhan tum bandhe;
apne chhutan ki jatan karahu hum chhute tum aradhe
jo tum giriwar tau hum mora;
jo tum chanda hum bhae hain chakora
madhaw tum torahu to hum nahin torahi;
tum son tor kawan son zorahin
kafi der tak kirtan chalta raha nanhon lauti to uske man mein raidas ke geet ki panktiyan bar bar gunjti rahin “jo tum torahu to hum nahin torahin ” wo dhire dhire gunguna rahi thi dalan ka darwaza ramasubhag ne band kar rakha tha sankal khatakhtai to usne aakar darwaza khola
“itni raat ko is tarah tumhara gali—gali ghumna theek nahin hai bhauji ” jane kahan ka sahas aa gaya tha use ramasubhag darwaza band karte hue bola
“hoon” nanhon ne aur kuch na kaha
“main tumhin se kah raha hoon ”
nanhon ek jhatke ke sath ghumi ramasubhag ke chehre par uski ankhen is tarah tiki thi mano bedhkar bhitar ghus jayengi, “itni kalak hoti hai to pahle hi byah kar liya hota is tarah Dant rahe ho lala, jaise main tumhari joru hoon khabardar, phir kabhi ankh dikhai to !” ramasubhag matha pakaDkar baith gaya ghusse aur glani ke mare uska sara badan jal raha tha, par munh se ek shabd bhi na nikla usne chadar khinchkar munh Dhak liya aur bhitar hi bhitar uphanta ubalta raha
aur tab se panch baras beet gaye aaj pahli bar ramasubhag ki chitthi i hai ki wo kalkatte se ganw aa raha hain ye panch baras jane nanhon ne kaise bitaye hain ramasubhag usi raat ko lapata ho gaya rote rote nanhon ki ankhen sooj gain mera koi na hoga, main akeli rahne ke liye hi janmi hoon wo apne ko dhikkarti, kalapti kabhi man puchhta— par ismen meri kya ghalati thi, main to gadi dekhne bhar chali gai thi, kaun nahin gai thi wahan, mainne kya kar diya tha aisa han, ghalati zarur thi main widhwa hoon, utsaw tamasha mere liye nahin hai
“babua nahin hain kya?” dusre din sham ko kamari ne puchha tha, “dekho dulhin, meri baat mano, subhag se byah kar lo, tumhari jat mae ye mana bhi nahin hai, kab tak aise rahogi ”
“chup rah ” nanhon ne use baraj diya tha dusre hi kshan wo sharam se gaD gai thi jane kyon log man ke chhupe raaz ko bhanp lete hain jise jitna chhipao, use utni hi jaldi log khinchkar samne kar dete hain
“chup to rahungi dulhin, par pachhtaogi, aisa dulha hath na ayega wo zindagi bhar tumhare liye kunwara nahin baitha rahega, aisa mauqa hamesha nahin aata tumhare babuji ne to usi ko dekha tha, misrilal se to byah dhokhe se hua ”
“main kahti hoon chup kar ” nanhon ki ankhen DabDaba i— “meri jingani mein dhokha hi likha hai, to use kaun met sakta hai ”
kamari sakapkakar chup ho gai ansuon ki dhaar sambhalna uske wash ke bahar tha wo chupchap darwaza bheDkar chali gai
“nanhon chachi, nanhon chach ” dukan se koi laDka cheekh raha tha, nanhon machi par se uthi aur dukan ki or lapakkar chali
kya hai re— kyon cheekh raha hai aise ”
“yah dekho, kisna ber lekar bhag raha hai ” jannu ne haklate hue kaha wo lalchai ankhon se lal lal beron se bhari tokari ko dekh raha tha
“achchha, bhag raha hai to bhagne de, tu bhi le aur bhag yahan se, halla mat machao yahan ” laDke jebon mein ber bhar khilkhilate hue bahar chale gaye nanhon ne darwaza band kar liya aur rasoi mein chali gai
kalkatte ki gaDi sham sat baje ke qarib aati thi nanhon angan mein charpai Dale leti thi jhilngi charpai thi, moonj ki pairon mein reshon ki chubhan ajib lagti hawa pahle jaisi sard na thi halki garmi gulabi rang ki tarah har jhakore mein samai hui thi nanhon ke khule hue kale baal sirhane ki pati se zamin tak latke hue the wo chupchap nile asman ke taron ko dekh rahi thi angan ki purwi diwar ki aaD se shayad chand nikal raha hoga, kyonki ujla ujla Dher sa parkash munDere ki chhajan par mitti ki ptriyon se takrakar chamak raha tha
sankal khaDki
“bhauji!”
subhag panch sal ke baad lauta tha
nanhon ne darwaza khola subhag tha samne andhere mein wo use dekhti rahi
“a jao” pankhuDiyon ke chitakne jaisi awaz sannate mae ubharkar kho gai donon bilkul khamosh the ramasubhag angan ki charpai par aakar baith gaya ek ajib sannata donon ko gherkar baith gaya tha
kha pikar ramasubhag jab sone ke liye apni charpai par gaya, to machi khinchkar nanhon uske pas hi baith gai
“kyon babu, bahut dinon ke baad sudh li ” nanhon ne hi baat shuru ki—“bahut duble ho gaye ho, bimar to nahin the?”
“nahin to,” ramasubhag bola— “panch sal tak to bhulane ki koshish karta raha bhauji, par bhulta nahin mainne kai bar socha ki chalkar tumse mafi mang len, par himmat na hui ab ki mainne tay kiya ki jo kahna hai kah hi jaun mainne anjane mein galti kar di bhauji main nahin janta tha ki meri tanik si ghalati itna phal degi mainne jo kuch kiya misri bhaiya ki khushi ke liye hi, par kasur to hai hi, chahe wo jaise bhi man se ho ” ramasubhag ne zamin par dekhte hue kaha— “mere kasur ko tum hi maf kar sakti ho ”
“kasur kaisa lala, tum jise kasur kahte ho wo mere bhagya ka phal tha tum samajhte ho ki babuji ko kuch nahin malum tha malum to unhen tabhi ho gaya jab Dola bhejne ki baat hui bigaDne wali baat ko sabhi pahle se jaan lete hain babu, jinke pas bal hai use nahin hone dete; jo kamzor hain use dhokha kahkar chhipate hain babu ko sab malum ho gaya tha, par achchhe ghar ke liye jo chahiye wo babu kahan se late! ismen tum to ek bahana ban gaye, tumhara kya kasur hai ismen ” nanhon ne anchal se ankhen ponchh li ramasubhag bewakuf ki tarah ankhen phaDkar andhere mein nanhon ko dekhta raha
“achchha babu, thake ho, sabere phir baten kar lungi ” nanhon uthkar apne ghar mein chali gai
ramasubhag teen din tak raha teen dinon mein shayad hi wo do ek bar ganw mein ghumne gaya din raat nanhon se baten karna hi uska kaam tha— duniya bhar ki baten, kalkatte ki, bap ki, man ki, bhaiyon aur bhaujaiyon ki nanhon ramasubhag ko eqdam badli hui lagti uski ankho mein ab pahle jaisi tikhi chamak nahin thi, uske sthan par mamta aur sneh ka jal bhara tha ab wo ektak sunsan kone ko nahin dekhti thi, par barauniyon mein nami ab bhi pahle jaisi hi thi nanhon ko is nae roop mein dekhkar subhag ka man nai aasha se bharne laga to kya ye sab ho jayega— kya bhagya ki ganana phir sahi ho jayegi? par nanhon se kuch kah pana uske liye sada hi kathin raha hai wo aaj bhi pichhli do ghatnaon ko bhula nahin tha, par nanhon bhi to aisi pahle na thi
aj nanhon ko phir purani baten yaad aa rahi hain raidas ke geet ki wo pankti na jane phir kyon bar bar yaad aane lagi hai!
“jo tum torahu to hum nahin torahin, tum son tor kawan so zorahi?”
wo khush hai, prasann hai par ramasubhag ko chain nahin shayad chalne ki baat karun to wo kuch khul ke kahegi isi aasha se us din subah hi subhag ne kaha— “bhauji, ab main ganw jaunga, aaj raat wali gaDi se ”
“kyon babu, man nahin lag raha hai?”
“man to lag raha hai par ”
“achchha, theek hai ”
ramasubhag is uttar se kuch samajh na saka wo man mare apne kamre mein baitha raha shayad chalte waqt kuch kahe, shayad phir laut aane ke liye agrah kare
sham ko apna saman bandhakar jab subhag taiyar hua, to nanhon apne ghar mein se nikalkar i
“taiyari ho gai lala?”
“han ”
nanhon ne anchal se hath nikala aur ramasubhag ki or hath baDhakar
kaha—“yah tumhara rumal hai lala ”
ramasubhag kath ki tarah nishchesht ho gaya—“par ise to mainne ‘munhdekhai’ mein de diya tha bhabhi!”
“babu ne tumhara munh dekhkar mujhe andekhi suhag saunpa tha, tumhari man ne usi ke amar rahne ke liye rupae diye the ashirwad mein baDon ne jo diya use mainne mathe par le liya main kamzor thi babu, bhagya se haar gai par aaj to main apne pairon par khaDi hoon, aaj mujhe tum harne mat do tumhara rumal mere panw bandh deta hai lala, isi se lauta rahi hoon, bura na manna
ramasubhag ne dhire se rumal le liya nanhon uska jana bhi dekh na saki ankhen jal mein tair rahi thi diye ki lau jatamasi ke phool ki tarah kai phankon mein bant gai nanhon ne kiwaD to band kar liya, par sankal na chaDha saki
chitthi Dakiye ne darwaze par dastak di to nanhon sahuain ne dal ki batli par yon kalchhi mari jaise sara kasur batuli ka hi hai haldi se range hath mein kalchhi pakDe we rasoi se bahar i aur ghusse ke mare jali bhuni, do ka ek Dag marti DyoDhi ke pas pahunchi
“kaun hai re!” sahuain ne ek hath mein kalchhi pakDe dusre se sankal utar kar darwaze mae jhanka to Dakiye ko dekhkar dhak se pichhe hati aur pallu se haldi ka dagh bachate, ek hath ka ghunghat khinchkar darwaze ki aaD mein chhipkali ki tarah simat gai
“apne ki chitthi kahan se ayegi munshiji, pata thikana theek se uchaar lo, bhool chook hoy gai hoygi”, we dhire se phusaphusai pahle to kewal unki kanguriya dikh rahi thi jo ashanka aur ghabrahat ke karan chhipkali ki poonchh ki tarah ainth rahi thi
“nahin ji, kalkatte se kisi ramasubhag sahu ne bheji hai, pata thikana mein koi ghalati nahin ”
“ramasu ” adhakhi baat ko ek ghoont mein pikar sahuain yon dekhne lagi jaise pani ka dhakka lag gaya ho kenaguriya ka sira palle mein nishchesht keel ki tarah aD gaya tha— “apne ki hi hai munshiji ”
munshiji ne chitthi aage baDhai, kanguriya phir hili, patange ki tarah faDfaDati chitthi ko panje mein dabochkar nanhon sahuain pichhe hati aur darwaze ko jhatke se bheD liya angan ke kone mein pani rakhne ke chabutre ke pas khaDi hokar unhonne chitthi ko paDha ramasubhag aa raha hai, likha tha chitthi mein kewal teen satr ki ibarat thi puri par nanhon ke liye uske ek ek akshar ko ucharne mae pahaD sa samay lag gaya jaise chabutre ke pas kalasi ke niche, pani girne se zamin nam ho gai thi, jau ke beej gire the jane kab, ikatthe ek mein sate hue ujle hare ankhue phute the nanhon sahuain ektak unhen dekhti rahin baDi der tak
panch sal ka samay kuch kam to nahin hota lambe lambe panch sal! pure panch sal ke baad aaj ramasubhag ko bhauji ki yaad i hai panch sal mein usne ek bar bhi kushal mangal ka haal nahin diya ek bar bhi nahin puchha ki bhauji jiti hai ya mar gai jab apna hi nahin raha haal chaal lenewala, to dusra kaun puchhta hai kise? nanhon sahuain ne charpai ke pas se machi khichi aur us par baith gai haldi sani anguliyon ke nishan ‘card’ par ubhar aaye the— jaise wo kisi ke shadi byah ka nyauta tha shadi byah ka khyal aate hi nanhon sahuain ki ankhen chalwe machhli si chilak uthi jane kitni bar socha hai unhonne apni shadi ke bare mein kai bar socha, is duhakh dai baat ko phir kabhi na sochunngi jo bhag mein na tha us par pachhtawa kya? par wo aurat kya jo apni shadi par na soche aur ek aisi aurat jiski shadi uski zindagi ka dastawez bankar i ho, zindagi sirf uski giro hi nahin bani usne to nanhon ke samuche jiwan ko retabhri parti ki tarah wiran kar diya
ganw ki sabhi aurton ki tarah nanhon ka bhi byah hua uski bhi shadi mein wahi hua jo sabhi shadiyon mein hota hai baja gaja, haldi sindur, mauj utsaw, hansi rula sab kuch wahi
ek baat mein zarur antar tha ki nanhon ki shadi uske mayke mein nahin, sasural mein hui is tarah ki shadiyan bhi koi nai nahin hain jo zindagi ke is mahattwapurn mauqe ko bhi utsah aur ichha ke bawjud ranginiyon se bandhne ke upkarn nahin juta pate we barat chaDhakar nahin, Dola utarkar shadi karte hai isliye nanhon ki shadi bhi Dola utarkar hi hui to ismen bhi koi khas baat to nahin ho gai nanhon ka pati misrilal ek pair ka langDa tha, paidaishi langDa uska dayan pair jawani mein bhi bachchon ki banh ki tarah hi mulayam aur patla tha DanDa tekkar phudakta hua chalta nak naksh se koi bura nahin tha, waise kala chehra ubhri hui haDDiyon ki wajah se bahut wiran lagta ghar mein kirane ki dukan hoti, jismen khane pine ke zaruri samanon ke alawa tambaku, biDi machis aur zarurat ki kuch sabziyan bhi bikti aksar sabziyan basi paDi rahtin, kyonki anaj se barabar ke bhaw kharidne wale achchhe grihasth bhi mehman ke aane par hi is tarah ka sauda kiya karte
misrilal ki shadi pakki hui to nanhon ka bap baDa khush tha, kyonki misrilal ke nam par jo laDka dikhaya gaya wo shakl mein achchha aur chaal chalan mein kafi shauqin tha lambe lambe ulte phere hue baal the, rang waise sanwla tha, par ek chiknai thi jo dekhne mein khubsurat lagti thi isiliye laDke walon ne jab zor diya ki hamein barat chaDhake shadi sahti nahin; Dola utarenge, to thoDi meen mekh ke baad nanhon ka bap bhi taiyar ho gaya, kyoki ismen uska bhi kam fayda na tha kharche ki kafi bachat thi
Dola aaya, usi din haldi tel ki sari rasmen bataur totke ke puri ho gain aur usi raat ko baje gaje ke beech nanhon ki shadi misrilal se ho gai bajon ki awazen hamesha jaisi hi khushi se bhari thi, manDap ki manDiyon aur chandowe mein hawa ki khushibhri harkaten bhi purwawat thi, bhatinon ke mangal geet mein ram aur sita ke byah ki wahi pawitarta goonj rahi thi, par nanhon apne hath bhar ke ghunghat ke niche ansuon ko sukhane ki kitni koshish kar rahi thi, ise kisi ne na dekha ek bhari badsurat patthar ko gale mein bandhe wo wedna aur piDa ke achhor samudr mein utar di gai jahan se uski siskiyon ki awaz bhi shayad hi sunai paDti
“kaho bhauji, baba ne dekha to mujhko, er shadi hui misri bhaiya ki ”
ramasubhag ne dusre din kane mein baithi nanhon se musakrate hue kaha, “apna apna bhag hai, aisi chand si bahu pane ki qimat meri kahan hai?” bhauji mazak ke liye bani hai, par aise mazak ka bhi kya jawab? nanhon ki ankhon se jhar jhar ansu girne lage jinhen wo pure chaubis ghante se lagatar roke hue thi ramasubhag bilkul ghabra gaya, usne duःkhi karne ke liye hi chot ki thi, par ghayal sada pankh samete shikari ke charnon mein hi to nahin girta, kabhi kabhi khoon ki bunden bhar girti hain aur panchhi teer ko sine mein samaye hi uDta jata hai
“theek kaha lala tumne, apna apna bhag hi to hai ” nanhon ne kaha aur chupchap palkon se ansuo ki chattanon ko thelti rahi
ramasubhag misrilal ka mamera bhai hai aksar wo yahi rahta, ek to isliye ki use apna ghar pasand na tha bap sakhti se kaam karata, aur aana kani ki to buDhe bap ke sath dusre bhaiyon ka mila jula krodh uske liye bahut bhari paDta dusre, misrilal ka bhi irada tha ki wo aksar yahan aata jata rahe taki use dukan ke liye saman waghairah kharidwane mein asani paDe ramasubhag ke liye misrilal ka ghar apna jaisa hi tha usne misrilal ki shadi ki baat suni to baDa khush hua tha ki ghar mein ek aurat aa jayegi, thoDi chahl rahegi aur murawwat mein aksar jo use chulha phenkne ka kaam bhi kar dena paDta, usse phursat mil jayegi par nanhon ko dekhkar ramasubhag ko laga ki kuch aisa ho gaya hai jaisa kabhi socha na tha nanhon wo nahin hai jise misrilal ki aurat ke roop mein dekhkar use kuch aDchan na malum ho wo kafi wishwas ke sath aaya tha nanhon se baat karne, use jata dene ki ramasubhag bhi kuch kam nahin hai, misrilal ka baDa aadar milta hai use, ye ghar jaise usi ke sahare tika hai aur bhauji ke liye ramasubhag sa dewar bhi kahan milega, aur shadi ke pahle to nanhon ke bap ne bhi use hi dekha tha par jane kya hai nanhon ki us jhuki hui ankhon mein ki ramasubhag sab bhool gaya charpai ke niche bichhi rangin suhagi chatai par pairon ko hath mein lapete nanhon baithi thi guDimuDi, uski lambi barauniyan barish mein bhigi titli ke pairon ki tarah nam aur bikhri theen aur wo ektak kahin dekh rahi thi, shayad man ke bhitar kisi baliyon se ladi fasal se Dhake lahrate hue ek khet ko, jismen kisi ne abhi abhi jalti hui lukathi phenk di hai
ramasubhag baDi der tak waise hi chup baitha raha wo kabhi angan mein dekhta tha kabhi munDere par wo chahta tha ki is chuppi ko nanhon hi toDe, wahi kuch kahe, apne man se hi jo kahna theek samjhe, kyonki uske kahne mein shayad baat kuch theek bane, na bane, par nanhon to kuch bolti hi nahin
byah ke dusre din ke rasam riwaz pure ho rahe the, kamari Dale mae akshat sindur lekar ganw ki tamam sattiyon ke chaure pooj i thi, aur sabse misrilal ki mrit man ki or se war wadhu ke liye ashirwad mang i thi raat bhar gane se thaki hui bhatinen apne mote aur bhonDe swron mein ab bhi ram aur sita ki joDi ki asisen ga rahi thi kuch bache khuche log ek taraf baithe kha rahe the, purwe pattal idhar udhar bikhre paDe the
“achchha bhauji ” ramasubhag is maun ko aur na jhel saka chupchap uthkar angan mein chala aaya
“kya babua, bhauji pasand i?” ek manchali bhatin ne moti awaz mein puchha
“han, han, bahut ” ramasubhag is parashn ki chubhan ko bhanp gaya tha usne muskrane ki koshish ki, par gardan upar na uth saki wo chupchap sir jhukaye dalan mein jakar misrilal ke pas charpai par baith gaya us samay misrilal do ek nate rishte ke logon se baten kar raha tha pile rang ki dhoti uske kale sharir par kafi phab rahi thi, par uske chehre ki wirani mein koi antar na tha, khushi uske chehre par aisi lag rahi thi jaise kisi ne jang lagi pichki Dibiya mein kapur rakh diya ho uske dahine hath ka kangan ek mare hue makDe ki tarah jhool raha tha jane kyon aaj ramasubhag ko misrilal bahut badsurat lag raha tha, shadi ke kapDon mein koi aisa bhadda lagta hai, ye ramasubhag ne pahli bar dekha
“subhag”, misrilal ne batachit se nipatkar dalan mein ekant dekhkar puchha, “kyon re bhauji kaisi lagi— sach kahna, apnon se kya duraw—gaya tha na, kuch kah rahi thee?
“nahin to” ramasubhag ne kaha, “kafi hansmukh hai, waise mayaka chhutne par to sabhi dulahine thoDi udas rahti hain misrilal ajib tarike se hansa, “are wah re sumbhu, tu to bhai dulahine pahchanne mein bejoD nikla udas kyon lagti hai bhala wah? kisi pariwar wale ghar mein jati, sas jithaniyon ki dhauns se kaleja phat jata, din raat kanw kanw, yahan to bus do parani hai, raj karna hai, hai ki nahin?”
“hoon”, ramasubhag gardan jhukaye charpai ke niche dekh raha tha, usne waise hi hami bhar di jaise usne puri baat suni hi na ho
“misri sah!” darwaze se kamari ne pukara, “babaji bula rahe hain chauke par kangan chhutne ki sait beet rahi hai ” misrilal dhire se uthe aur phudakte hue chauke par ja baithe lal chunar mein lapete, guDiya ki tarah uthakar nanhon ko kamari le i aur usne misrilal ki baghal mein bitha diya
misrilal ki shadi hue ek satwara beet chuka tha is beech jane kitni bar ramasubhag nanhon ke pas baitha nanhon ke pas baithne mein use baDi ghutan mahsus hoti, use har bar lagta ki wo ghalati mein aa gaya, uska man har bar ek ajib qim ki udasi se bhar jata wo sochta ki ab uske pas nahin jaunga, jo hona tha so ho gaya, par uska ji nahin manata nanhon ne is beech mushkil se usse do chaar baten ki hogi kabhi shayad hi uski or dekha hoga, par pata nahin un jhuki hui barauniyon se ghiri ankhon mein kaisa bhaw hai ki ramasubhag khincha chala aata hai we ankhen use kabhi nahin dekhtin, kahin aur dekhtin hain, par unka is tarah dekhana ramasubhag ke man mein andhi ki tarah ghumaD uthta hai wo bar bar sochta ki shayad nanhon ke bap ke samne wo dulha bankar na khaDa hota to nanhon aaj yahan na hoti jhuki hui palkon se ghiri in ankhon ki piDa usi ki paida ki hui hai wahi doshi hai, wahi apradhi hai! ramasubhag isiliye nanhon ke pas jane ko wikal ho uthta hai par pas pahunchne par ye wikalta kam nahin hoti uski man ne bahu ko “munh dikhai” dene ke liye do rupae nyota ke sath bheje the, par nanhon ko dekhkar uski himmat na hoti ki we rupae man ki or se use de de wo bazar se silk ka ek rumal bhi kharid laya rupae usi mein bandh liye par rumal hamesha uski jeb mein paDa raha, wo use nanhon ko de na saka
“kyon lala, itne udas kyon ho?” ek din puchha tha nanhon ne, “yahan man nahin lagta, bhai bhaujaiyon ki yaad aati hogi ”
“nahin to, udas kahan hoon, tum jo ho,” ramasubhag ne musakrate hue kaha
“main han, main to hoon hi, par lala, main to duःkh ki sajhidar hoon, sukh kahan hai apne pas jo dusron ko doon? udasi mein pali, udasi mein hi baDhi janmi to man mar gai, baDi hui to bap ka bojh bani main bhala dusre ki udasi kya door kar sakungi ”
“dekho bhauji ” ramasubhag ne puri sajhedari se kaha— “jo hona tha wo ho gaya din raat ghulte rahne se kya fayda kuch khush raha karo” thoDa hansa karo ”
nanhon musaskrane lagi— “achchha lala, tum kahte ho to khush raha karungi, hasungi, par bura na manna, beban ke kaam mein thoDi der lagti hi hai ”
us din ramasubhag baDa prasann tha sir ka bhari bojh hat gaya jaise kisi ne kalkatte hue kante ko khinchkar nikal diya nanhon ka muskrana bhi ghazab hai, wo soch raha tha udas rahegi tab bhi, muskrayegi tab bhi, har haalat mein jane kya hai uske chehre mein jo ramasubhag ka man uchat deta hai ganw mein ghumta rahe, bazar se sauda lata rahe, logon ke beech mein baithkar gappen hankata rah nanhon ke chehre ki sudh aate hi ekras soot jhatke se toot jata, soi satah mein lahren writtakar ghumne lagtin sannate mein jaise mandir ke ghante ki anugunj jhanjhana uthti
chaiti hawa mein garmi baDh gai thi usmen kewal neem ki suwasit manjariyon ki gandh hi nahin, ek nai harkat bhi aa gai thi uski lapet mein sukhi pattiyan, sukhe phool, paki phaslon ki tuti baliyan tak uDkar angan mein bikhar jatin dopahar mein khana khakar misrilal dalan mein so jata, aur ramasubhag bazar gaya hota ya kahin ghumne nanhon ghar mein akeli baithi sukhe patton ka phaDphaDana dekhti rahti uske angan ke pas bhi khanDhar mein neem ka peD tha aise dinon mein jab neem hari nibauriyon se lad jata, wo Dher si nibauriyan toDkar ghar le aati aur unhen toD toDkar taje doodh se galon par tarah tarah ki taswiren banati shishe mein theek aipan ki putri malum hoti ramlila mein dekha tha, ram aur sita bannewale laDkon ke galon par aisi hi taswiren banti thi
hawa ka ek tez jhonka aaya, kiwaD jhatke se khaDakhDaya, dekha, samne ramasubhag khaDa tha muskrata hua
“bhauji” wo pas ki charpai par baith gaya— “ek gilas pani pila do baDi pyas lagi hai ”
“kahan gaye the itni dhoop mein?” nanhon uthi aur angan ke kone mein chabutre par rakhi gagri mein pani Dhalkar le i
jane kya ho gaya tha us din ramasubhag ko ki usne gilas ke sath hi nanhon ki banh ko donon hathon se pakaD liya ek jhatke ke sath banh kanpi aur sanp ki tarah ainthkar subhag ke hathon se chhoot gai gilas dhabb ki awaz ke sath zamin par gir paDa
“saram nahin aati tumhein ” nanhon sanpin ki tarah phuphkarti hui boli— “baDe mard the to sabke samne banh pakDi hoti tab to swang kiya tha, dusre ke ewaz tane the, surat dikhakar thaghari ki thee! ab dusre ki bahu ka hath pakaDte saram nahin aati ”
“main to bhauji tumhein ye dene aaya tha ” ramasubhag ne rumal nikala jiski khoont mein do rupae bandhe the
“kya hai yah?”– nanhon ne ghusse mein hi puchha
“munh dikhai ke rupae hain kai bar socha dene ko, par de na saka ”
usne rumal wahi charpai par rakh diya aur laDkhaData hua bahar chala gaya sara angan jhule ki tarah Dol raha tha ganw ki galiyan, darwaze jaise uski or ghoor rahe the usi din wo apne ganw chala gaya hai
do mahine beet gaye, ramasubhag ka koi samachar na mila misrilal kabhi uski charcha bhi karta, to nanhon ko chup dekh, ek do baten chalakar maun ho jata dukan ke liye sari chijen ramasubhag hi kharidkar lata tha uske na hone se misrilal ko bahut taklif hoti kisi laddu, tattu ya bail wale se saman to mangwa leta par chizen man mafi nahin miltin aur unke sath bazar jakar chizen kharidne mein use kafi dikqat bhi hoti dopahar ke waqt, jabki suraj sir par tapta hota, lu mein DanDe ke sahare tekta, pasine se lathpath kisi tarah wo ghar par pahunchta is tarah ki awajahi mein ek din use lu lag gai aur wo bistar par gir paDa nanhon ne aam ke patte pilaye hathon aur pairon mein bhune aam ki lugdi bhi lagai, par tap kam na hua piDa ke mare wo chhatpatata raha nanhon ghar se nikalti na thi, kisi se madad mangna bhi mushkil tha usne kamari ko bulakar ramasubhag ke ganw bheja kahlaya ki kuch sochne wicharne ki zarurat nahin hai, khabar milte hi jaldi se jaldi chale awen teen chaar ghaDi raat gaye ramasubhag misrilal ke darwaze par pahuncha to wahan kafi bheeD thi bhitar aurto ke rone ki chitkar goonj rahi thi bahar misrilal ka shau rakha tha nanhon widhwa ho chuki thi
ramasubhag misrilal ke kriya karm mein laga raha, nanhon se kuch kahne ki use fursat hi na mili kabhi samne nanhon dikh bhi gai to usmen itna sahas na hua ki santwana ke do shabd bhi kah sake kanch ki chuDiyan bhi kismat ka ajib khel khela karti hain nanhon jab inhen pahanna nahin chahti thi tab to ye zabardasti uske hathon mein pahnai gain aur ab jab wo inhen utarna nahin chahti to logon ne zabardasti hathon se utarwa diya kar parozan ke ghar mein itni fursat hi kahan thi ki nanhon baith jati parantu kabh kabhi dopahar mein do ek ghaDi ki fursat milti to wo apni usi suhagi chatai par baithi hui chupchap angan mein dekha karti ramasubhag uske is dekhne ke Dhang se itna pareshan ho jata ki kaam kaz ke beech mein bhi nanhon ki we tirti ankhen uske hirdai ko bedhne lagtin angan mein idhar udhar aane jane mein wo ghabrata kahin nanhon par nazar na paD jaye, isiliye ganw ke dusre logon ko kaam saumpkar wo bahar ke kamon mein subah se sham tak juta rahta kiriya karam beet jane par wo ghar mein kam hi baith pata aksar sauda saman kharidne bazar nikal jati thi khali raha to ganw mein kisi ke darwaze par baitha din guzar deta
kai mahine beet gaye barsat i aur gai pani sookh gaya badalon ka ghirna band ho gaya bauchharon se tuti jarjar diwaron ke ghaw bhar gaye nai mitti se saj sanwarakar we pahle jaisi hi prasann malum hotin aisa lagta jaise in par kabhi bauchhar ki chot paDi hi na ho, kabhi inke tan par thes lagi hi na ho
us din chamtoli mein gadi lagi thi katik ki punon ko hamesha ye gadi lagti beech chauki par satguru ki taswir phool malaon mae sajakar rakhi hui thi agarbattiyon ke dhune se chamrauti ki gandi hawa bhi khushabuda ho gai thi kirtan manDli baithi hui thi ganw ki aurten, buDhe bachche ikatthe hokar bhajan sun rahe theh
jo tum bandhe moh phans hum prem bandhan tum bandhe;
apne chhutan ki jatan karahu hum chhute tum aradhe
jo tum giriwar tau hum mora;
jo tum chanda hum bhae hain chakora
madhaw tum torahu to hum nahin torahi;
tum son tor kawan son zorahin
kafi der tak kirtan chalta raha nanhon lauti to uske man mein raidas ke geet ki panktiyan bar bar gunjti rahin “jo tum torahu to hum nahin torahin ” wo dhire dhire gunguna rahi thi dalan ka darwaza ramasubhag ne band kar rakha tha sankal khatakhtai to usne aakar darwaza khola
“itni raat ko is tarah tumhara gali—gali ghumna theek nahin hai bhauji ” jane kahan ka sahas aa gaya tha use ramasubhag darwaza band karte hue bola
“hoon” nanhon ne aur kuch na kaha
“main tumhin se kah raha hoon ”
nanhon ek jhatke ke sath ghumi ramasubhag ke chehre par uski ankhen is tarah tiki thi mano bedhkar bhitar ghus jayengi, “itni kalak hoti hai to pahle hi byah kar liya hota is tarah Dant rahe ho lala, jaise main tumhari joru hoon khabardar, phir kabhi ankh dikhai to !” ramasubhag matha pakaDkar baith gaya ghusse aur glani ke mare uska sara badan jal raha tha, par munh se ek shabd bhi na nikla usne chadar khinchkar munh Dhak liya aur bhitar hi bhitar uphanta ubalta raha
aur tab se panch baras beet gaye aaj pahli bar ramasubhag ki chitthi i hai ki wo kalkatte se ganw aa raha hain ye panch baras jane nanhon ne kaise bitaye hain ramasubhag usi raat ko lapata ho gaya rote rote nanhon ki ankhen sooj gain mera koi na hoga, main akeli rahne ke liye hi janmi hoon wo apne ko dhikkarti, kalapti kabhi man puchhta— par ismen meri kya ghalati thi, main to gadi dekhne bhar chali gai thi, kaun nahin gai thi wahan, mainne kya kar diya tha aisa han, ghalati zarur thi main widhwa hoon, utsaw tamasha mere liye nahin hai
“babua nahin hain kya?” dusre din sham ko kamari ne puchha tha, “dekho dulhin, meri baat mano, subhag se byah kar lo, tumhari jat mae ye mana bhi nahin hai, kab tak aise rahogi ”
“chup rah ” nanhon ne use baraj diya tha dusre hi kshan wo sharam se gaD gai thi jane kyon log man ke chhupe raaz ko bhanp lete hain jise jitna chhipao, use utni hi jaldi log khinchkar samne kar dete hain
“chup to rahungi dulhin, par pachhtaogi, aisa dulha hath na ayega wo zindagi bhar tumhare liye kunwara nahin baitha rahega, aisa mauqa hamesha nahin aata tumhare babuji ne to usi ko dekha tha, misrilal se to byah dhokhe se hua ”
“main kahti hoon chup kar ” nanhon ki ankhen DabDaba i— “meri jingani mein dhokha hi likha hai, to use kaun met sakta hai ”
kamari sakapkakar chup ho gai ansuon ki dhaar sambhalna uske wash ke bahar tha wo chupchap darwaza bheDkar chali gai
“nanhon chachi, nanhon chach ” dukan se koi laDka cheekh raha tha, nanhon machi par se uthi aur dukan ki or lapakkar chali
kya hai re— kyon cheekh raha hai aise ”
“yah dekho, kisna ber lekar bhag raha hai ” jannu ne haklate hue kaha wo lalchai ankhon se lal lal beron se bhari tokari ko dekh raha tha
“achchha, bhag raha hai to bhagne de, tu bhi le aur bhag yahan se, halla mat machao yahan ” laDke jebon mein ber bhar khilkhilate hue bahar chale gaye nanhon ne darwaza band kar liya aur rasoi mein chali gai
kalkatte ki gaDi sham sat baje ke qarib aati thi nanhon angan mein charpai Dale leti thi jhilngi charpai thi, moonj ki pairon mein reshon ki chubhan ajib lagti hawa pahle jaisi sard na thi halki garmi gulabi rang ki tarah har jhakore mein samai hui thi nanhon ke khule hue kale baal sirhane ki pati se zamin tak latke hue the wo chupchap nile asman ke taron ko dekh rahi thi angan ki purwi diwar ki aaD se shayad chand nikal raha hoga, kyonki ujla ujla Dher sa parkash munDere ki chhajan par mitti ki ptriyon se takrakar chamak raha tha
sankal khaDki
“bhauji!”
subhag panch sal ke baad lauta tha
nanhon ne darwaza khola subhag tha samne andhere mein wo use dekhti rahi
“a jao” pankhuDiyon ke chitakne jaisi awaz sannate mae ubharkar kho gai donon bilkul khamosh the ramasubhag angan ki charpai par aakar baith gaya ek ajib sannata donon ko gherkar baith gaya tha
kha pikar ramasubhag jab sone ke liye apni charpai par gaya, to machi khinchkar nanhon uske pas hi baith gai
“kyon babu, bahut dinon ke baad sudh li ” nanhon ne hi baat shuru ki—“bahut duble ho gaye ho, bimar to nahin the?”
“nahin to,” ramasubhag bola— “panch sal tak to bhulane ki koshish karta raha bhauji, par bhulta nahin mainne kai bar socha ki chalkar tumse mafi mang len, par himmat na hui ab ki mainne tay kiya ki jo kahna hai kah hi jaun mainne anjane mein galti kar di bhauji main nahin janta tha ki meri tanik si ghalati itna phal degi mainne jo kuch kiya misri bhaiya ki khushi ke liye hi, par kasur to hai hi, chahe wo jaise bhi man se ho ” ramasubhag ne zamin par dekhte hue kaha— “mere kasur ko tum hi maf kar sakti ho ”
“kasur kaisa lala, tum jise kasur kahte ho wo mere bhagya ka phal tha tum samajhte ho ki babuji ko kuch nahin malum tha malum to unhen tabhi ho gaya jab Dola bhejne ki baat hui bigaDne wali baat ko sabhi pahle se jaan lete hain babu, jinke pas bal hai use nahin hone dete; jo kamzor hain use dhokha kahkar chhipate hain babu ko sab malum ho gaya tha, par achchhe ghar ke liye jo chahiye wo babu kahan se late! ismen tum to ek bahana ban gaye, tumhara kya kasur hai ismen ” nanhon ne anchal se ankhen ponchh li ramasubhag bewakuf ki tarah ankhen phaDkar andhere mein nanhon ko dekhta raha
“achchha babu, thake ho, sabere phir baten kar lungi ” nanhon uthkar apne ghar mein chali gai
ramasubhag teen din tak raha teen dinon mein shayad hi wo do ek bar ganw mein ghumne gaya din raat nanhon se baten karna hi uska kaam tha— duniya bhar ki baten, kalkatte ki, bap ki, man ki, bhaiyon aur bhaujaiyon ki nanhon ramasubhag ko eqdam badli hui lagti uski ankho mein ab pahle jaisi tikhi chamak nahin thi, uske sthan par mamta aur sneh ka jal bhara tha ab wo ektak sunsan kone ko nahin dekhti thi, par barauniyon mein nami ab bhi pahle jaisi hi thi nanhon ko is nae roop mein dekhkar subhag ka man nai aasha se bharne laga to kya ye sab ho jayega— kya bhagya ki ganana phir sahi ho jayegi? par nanhon se kuch kah pana uske liye sada hi kathin raha hai wo aaj bhi pichhli do ghatnaon ko bhula nahin tha, par nanhon bhi to aisi pahle na thi
aj nanhon ko phir purani baten yaad aa rahi hain raidas ke geet ki wo pankti na jane phir kyon bar bar yaad aane lagi hai!
“jo tum torahu to hum nahin torahin, tum son tor kawan so zorahi?”
wo khush hai, prasann hai par ramasubhag ko chain nahin shayad chalne ki baat karun to wo kuch khul ke kahegi isi aasha se us din subah hi subhag ne kaha— “bhauji, ab main ganw jaunga, aaj raat wali gaDi se ”
“kyon babu, man nahin lag raha hai?”
“man to lag raha hai par ”
“achchha, theek hai ”
ramasubhag is uttar se kuch samajh na saka wo man mare apne kamre mein baitha raha shayad chalte waqt kuch kahe, shayad phir laut aane ke liye agrah kare
sham ko apna saman bandhakar jab subhag taiyar hua, to nanhon apne ghar mein se nikalkar i
“taiyari ho gai lala?”
“han ”
nanhon ne anchal se hath nikala aur ramasubhag ki or hath baDhakar
kaha—“yah tumhara rumal hai lala ”
ramasubhag kath ki tarah nishchesht ho gaya—“par ise to mainne ‘munhdekhai’ mein de diya tha bhabhi!”
“babu ne tumhara munh dekhkar mujhe andekhi suhag saunpa tha, tumhari man ne usi ke amar rahne ke liye rupae diye the ashirwad mein baDon ne jo diya use mainne mathe par le liya main kamzor thi babu, bhagya se haar gai par aaj to main apne pairon par khaDi hoon, aaj mujhe tum harne mat do tumhara rumal mere panw bandh deta hai lala, isi se lauta rahi hoon, bura na manna
ramasubhag ne dhire se rumal le liya nanhon uska jana bhi dekh na saki ankhen jal mein tair rahi thi diye ki lau jatamasi ke phool ki tarah kai phankon mein bant gai nanhon ne kiwaD to band kar liya, par sankal na chaDha saki
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।