शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फ़ुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्ख़ी और पाउडर को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूँकते हुए चीज़ों की फ़ेहरिस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे।
आख़िर पाँच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुर्सियाँ, मेज़, तिपाइयाँ, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुँच गए। ड्रिंक का इंतिज़ाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या होगा?
इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था। मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूम कर अँग्रेज़ी में बोले—'माँ का क्या होगा?'
श्रीमती काम करते-करते ठहर गईं, और थोड़ी देर तक सोचने के बाद बोलीं—'इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो, रात-भर बेशक वहीं रहें। कल आ जाएँ।'
शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, सिकुड़ी आँखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिला कर बोले—'नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया था। माँ से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ। मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।'
सुझाव ठीक था। दोनों को पसंद आया। मगर फिर सहसा श्रीमती बोल उठीं—'जो वह सो गईं और नींद में ख़र्राटे लेने लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहाँ लोग खाना खाएँगे।'
'तो इन्हें कह देंगे कि अंदर से दरवाज़ा बंद कर लें। मैं बाहर से ताला लगा दूँगा। या माँ को कह देता हूँ कि अंदर जा कर सोएँ नहीं, बैठी रहें, और क्या?'
'और जो सो गई, तो? डिनर का क्या मालूम कब तक चले। ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो।'
शामनाथ कुछ खीज उठे, हाथ झटकते हुए बोले—'अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं। तुमने यूँ ही ख़ुद अच्छा बनने के लिए बीच में टाँग अड़ा दी!'
'वाह! तुम माँ और बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूँ? तुम जानो और वह जानें।'
मिस्टर शामनाथ चुप रहे। यह मौक़ा बहस का न था, समस्या का हल ढूँढ़ने का था। उन्होंने घूम कर माँ की कोठरी की ओर देखा। कोठरी का दरवाज़ा बरामदे में खुलता था। बरामदे की ओर देखते हुए झट से बोले—मैंने सोच लिया है,—और उन्हीं क़दमों माँ की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए। माँ दीवार के साथ एक चौकी पर बैठी, दुपट्टे में मुँह-सिर लपेटे, माला जप रही थीं। सुबह से तैयारी होती देखते हुए माँ का भी दिल धड़क रहा था। बेटे के दफ़्तर का बड़ा साहब घर पर आ रहा है, सारा काम सुभीते से चल जाए।
माँ, आज तुम खाना जल्दी खा लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएँगे।
माँ ने धीरे से मुँह पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते हुए कहा, आज मुझे खाना नहीं खाना है, बेटा, तुम जो जानते हो, माँस-मछली बने, तो मैं कुछ नहीं खाती।
जैसे भी हो, अपने काम से जल्दी निबट लेना।
अच्छा, बेटा।
और माँ, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहाँ आ जाएँ, तो तुम ग़ुसलख़ाने के रास्ते बैठक में चली जाना।
माँ अवाक बेटे का चेहरा देखने लगीं। फिर धीरे से बोलीं—अच्छा बेटा।
और माँ आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे ख़र्राटों की आवाज़ दूर तक जाती है।
माँ लज्जित-सी आवाज़ में बोली—क्या करूँ, बेटा, मेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूँ, नाक से साँस नहीं ले सकती।
मिस्टर शामनाथ ने इंतिज़ाम तो कर दिया, फिर भी उनकी उधेड़-बुन ख़त्म नहीं हुई। जो चीफ़ अचानक उधर आ निकला, तो? आठ-दस मेहमान होंगे, देसी अफ़सर, उनकी स्त्रियाँ होंगी, कोई भी ग़ुसलख़ाने की तरफ़ जा सकता है। क्षोभ और क्रोध में वह झुँझलाने लगे। एक कुर्सी को उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले—आओ माँ, इस पर ज़रा बैठो तो।
माँ माला सँभालतीं, पल्ला ठीक करती उठीं, और धीरे से कुर्सी पर आ कर बैठ गई।
यूँ नहीं, माँ, टाँगें ऊपर चढ़ा कर नहीं बैठते। यह खाट नहीं हैं।
माँ ने टाँगें नीचे उतार लीं।
और ख़ुदा के वास्ते नंगे पाँव नहीं घूमना। न ही वह खड़ाऊँ पहन कर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह खड़ाऊँ उठा कर मैं बाहर फेंक दूँगा।
माँ चुप रहीं।
कपड़े कौन से पहनोगी, माँ?
जो है, वही पहनूँगी, बेटा! जो कहो, पहन लूँ।
मिस्टर शामनाथ सिगरेट मुँह में रखे, फिर अधखुली आँखों से माँ की ओर देखने लगे, और माँ के कपड़ों की सोचने लगे। शामनाथ हर बात में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था। खूँटियाँ कमरों में कहाँ लगाई जाएँ, बिस्तर कहाँ पर बिछे, किस रंग के पर्दे लगाएँ जाएँ, श्रीमती कौन-सी साड़ी पहनें, मेज़ किस साइज़ की हो... शामनाथ को चिंता थी कि अगर चीफ़ का साक्षात माँ से हो गया, तो कहीं लज्जित नहीं होना पड़े। माँ को सिर से पाँव तक देखते हुए बोले—तुम सफ़ेद क़मीज़ और सफ़ेद सलवार पहन लो, माँ। पहन के आओ तो, ज़रा देखूँ।
माँ धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गईं।
यह माँ का झमेला ही रहेगा, उन्होंने फिर अँग्रेज़ी में अपनी स्त्री से कहा—कोई ढंग की बात हो, तो भी कोई कहे। अगर कहीं कोई उल्टी-सीधी बात हो गई, चीफ़ को बुरा लगा, तो सारा मज़ा जाता रहेगा।
माँ सफ़ेद क़मीज़ और सफ़ेद सलवार पहन कर बाहर निकलीं। छोटा-सा क़द, सफ़ेद कपड़ों में लिपटा, छोटा-सा सूखा हुआ शरीर, धुँधली आँखें, केवल सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप पाए थे। पहले से कुछ ही कम कुरूप नज़र आ रही थीं।
चलो, ठीक है। कोई चूड़ियाँ-वूड़ियाँ हों, तो वह भी पहन लो। कोई हर्ज नहीं।
चूड़ियाँ कहाँ से लाऊँ, बेटा? तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।
यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा। तिनक कर बोले—यह कौन-सा राग छेड़ दिया, माँ! सीधा कह दो, नहीं हैं ज़ेवर, बस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअल्लुक़ है! जो ज़ेवर बिका, तो कुछ बन कर ही आया हूँ, निरा लँडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना।
मेरी जीभ जल जाय, बेटा, तुमसे ज़ेवर लूँगी? मेरे मुँह से यूँ ही निकल गया। जो होते, तो लाख बार पहनती!
साढ़े पाँच बज चुके थे। अभी मिस्टर शामनाथ को ख़ुद भी नहा-धो कर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने कमरे में जा चुकी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार फिर माँ को हिदायत करते गए—माँ, रोज़ की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना। अगर साहब इधर आ निकलें और कोई बात पूछें, तो ठीक तरह से बात का जवाब देना।
मैं न पढ़ी, न लिखी, बेटा, मैं क्या बात करूँगी। तुम कह देना, माँ अनपढ़ है, कुछ जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।
सात बजते-बजते माँ का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ़ सामने आ गया और उसने कुछ पूछा, तो वह क्या जवाब देंगी। अँग्रेज़ को तो दूर से ही देख कर घबरा उठती थीं, यह तो अमरीकी है। न मालूम क्या पूछे। मैं क्या कहूँगी। माँ का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएँ। मगर बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्सी पर से टाँगें लटकाए वहीं बैठी रही।
एक कामयाब पार्टी वह है, जिसमें ड्रिंक कामयाबी से चल जाएँ। शामनाथ की पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी। वार्तालाप उसी रौ में बह रहा था, जिस रौ में गिलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावट न थी, कोई अड़चन न थी। साहब को व्हिस्की पसंद आई थी। मेमसाहब को पर्दे पसंद आए थे, सोफ़ा-कवर का डिज़ाइन पसंद आया था, कमरे की सजावट पसंद आई थी। इससे बढ़ कर क्या चाहिए। साहब तो ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और कहानियाँ कहने लग गए थे। दफ़्तर में जितना रोब रखते थे, यहाँ पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्री, काला गाउन पहने, गले में सफ़ेद मोतियों का हार, सेंट और पाउड़र की महक से ओत-प्रोत, कमरे में बैठी सभी देसी स्त्रियों की आराधना का केंद्र बनी हुई थीं। बात-बात पर हँसतीं, बात-बात पर सिर हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें कर रही थीं, जैसे उनकी पुरानी सहेली हों।
और इसी रो में पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए। वक़्त गुज़रते पता ही न चला।
आख़िर सब लोग अपने-अपने गिलासों में से आख़िरी घूँट पी कर खाना खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर निकले। आगे-आगे शामनाथ रास्ता दिखाते हुए, पीछे चीफ़ और दूसरे मेहमान।
बरामदे में पहुँचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गए। जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे उनकी टाँगें लड़खड़ा गई, और क्षण-भर में सारा नशा हिरन होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पाँव कुर्सी की सीट पर रखे हुए, और सिर दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ झूल रहा था और मुँह में से लगातार गहरे ख़र्राटों की आवाज़ें आ रही थीं। जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा हो कर एक तरफ़ को थम जाता, तो ख़र्राटें और भी गहरे हो उठते। और फिर जब झटके-से नींद टूटती, तो सिर फिर दाएँ से बाएँ झूलने लगता। पल्ला सिर पर से खिसक आया था, और माँ के झरे हुए बाल, आधे गंजे सिर पर अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे।
देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे। जी चाहा कि माँ को धक्का दे कर उठा दें, और उन्हें कोठरी में धकेल दें, मगर ऐसा करना संभव न था, चीफ़ और बाक़ी मेहमान पास खड़े थे।
माँ को देखते ही देसी अफ़सरों की कुछ स्त्रियाँ हँस दीं कि इतने में चीफ़ ने धीरे से कहा—पुअर डियर!
माँ हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और ज़मीन को देखने लगीं। उनके पाँव लड़खड़ाने लगे और हाथों की उँगलियाँ थर-थर काँपने लगीं।
माँ, तुम जाके सो जाओ, तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं?—और खिसियाई हुई नज़रों से शामनाथ चीफ़ के मुँह की ओर देखने लगे।
चीफ़ के चेहरे पर मुस्कुराहट थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोले, नमस्ते!
माँ ने झिझकते हुए, अपने में सिमटते हुए दोनों हाथ जोड़े, मगर एक हाथ दुपट्टे के अंदर माला को पकड़े हुए था, दूसरा बाहर, ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाई। शामनाथ इस पर भी खिन्न हो उठे।
इतने में चीफ़ ने अपना दायाँ हाथ, हाथ मिलाने के लिए माँ के आगे किया। माँ और भी घबरा उठीं।
माँ, हाथ मिलाओ।
पर हाथ कैसे मिलातीं? दाएँ हाथ में तो माला थी। घबराहट में माँ ने बायाँ हाथ ही साहब के दाएँ हाथ में रख दिया। शामनाथ दिल ही दिल में जल उठे। देसी अफ़सरों की स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पड़ीं।
यूँ नहीं, माँ! तुम तो जानती हो, दायाँ हाथ मिलाया जाता है। दायाँ हाथ मिलाओ।
मगर तब तक चीफ़ माँ का बायाँ हाथ ही बार-बार हिला कर कह रहे थे—हाउ डू यू डू?
कहो माँ, मैं ठीक हूँ, ख़ैरियत से हूँ।
माँ कुछ बड़बड़ाई।
माँ कहती हैं, मैं ठीक हूँ। कहो माँ, हाउ डू यू डू।
माँ धीरे से सकुचाते हुए बोलीं—हौ डू डू ..
एक बार फिर क़हक़हा उठा।
वातावरण हल्का होने लगा। साहब ने स्थिति सँभाल ली थी। लोग हँसने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ भी कुछ-कुछ कम होने लगा था।
साहब अपने हाथ में माँ का हाथ अब भी पकड़े हुए थे, और माँ सिकुड़ी जा रही थीं। साहब के मुँह से शराब की बू आ रही थी।
शामनाथ अँग्रेज़ी में बोले—मेरी माँ गाँव की रहने वाली हैं। उमर भर गाँव में रही हैं। इसलिए आपसे लजाती है।
साहब इस पर ख़ुश नज़र आए। बोले—सच? मुझे गाँव के लोग बहुत पसंद हैं, तब तो तुम्हारी माँ गाँव के गीत और नाच भी जानती होंगी? चीफ़ खुशी से सिर हिलाते हुए माँ को टकटकी बाँधे देखने लगे।
माँ, साहब कहते हैं, कोई गाना सुनाओ। कोई पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।
साहब ने इतना रीझ से कहा है, नहीं गाओगी, तो साहब बुरा मानेंगे।
मैं क्या गाऊँ, बेटा। मुझे क्या आता है?
वाह! कोई बढ़िया टप्पे सुना दो। दो पत्तर अनाराँ दे...
देसी अफ़सर और उनकी स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियाँ पीटी। माँ कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को देखतीं, कभी पास खड़ी बहू के चेहरे को।
इतने में बेटे ने गंभीर आदेश-भरे लिहाज में कहा—माँ!
इसके बाद हाँ या ना सवाल ही न उठता था। माँ बैठ गईं और क्षीण, दुर्बल, लरज़ती आवाज़ में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं –
हरिया नी माए, हरिया नी भैणे
हरिया ते भागी भरिया है!
देसी स्त्रियाँ खिलखिला के हँस उठीं। तीन पंक्तियाँ गा के माँ चुप हो गईं।
बरामदा तालियों से गूँज उठा। साहब तालियाँ पीटना बंद ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी। माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।
तालियाँ थमने पर साहब बोले—पंजाब के गाँवों की दस्तकारी क्या है?
शामनाथ ख़ुशी में झूम रहे थे। बोले—ओ, बहुत कुछ—साहब! मैं आपको एक सेट उन चीज़ों का भेंट करूँगा। आप उन्हें देख कर ख़ुश होंगे।
मगर साहब ने सिर हिला कर अँग्रेज़ी में फिर पूछा—नहीं, मैं दुकानों की चीज़ नहीं माँगता। पंजाबियों के घरों में क्या बनता है, औरतें ख़ुद क्या बनाती हैं?
शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले—लड़कियाँ गुड़ियाँ बनाती हैं, और फुलकारियाँ बनाती हैं।
फुलकारी क्या?
शामनाथ फुलकारी का मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद माँ को बोले—क्यों, माँ, कोई पुरानी फुलकारी घर में हैं?
माँ चुपचाप अंदर गईं और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लाईं।
साहब बड़ी रुचि से फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था। साहब की रुचि को देख कर शामनाथ बोले—यह फटी हुई है, साहब, मैं आपको नई बनवा दूँगा। माँ बना देंगी। क्यों, माँ साहब को फुलकारी बहुत पसंद हैं, इन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?
माँ चुप रहीं। फिर डरते-डरते धीरे से बोलीं—अब मेरी नज़र कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी?
मगर माँ का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले—वह ज़रूर बना देंगी। आप उसे देख कर ख़ुश होंगे।
साहब ने सिर हिलाया, धन्यवाद किया और हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज़ की ओर बढ़ गए। बाक़ी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे हो लिए।
जब मेहमान बैठ गए और माँ पर से सबकी आँखें हट गईं, तो माँ धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नज़रें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गईं।
मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों में छल-छल आँसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतीं, पर वह बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बाँध तोड़ कर उमड़ आए हों। माँ ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बार-बार आँखें बंद कीं, मगर आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे।
आधी रात का वक़्त होगा। मेहमान खाना खा कर एक-एक करके जा चुके थे। माँ दीवार से सट कर बैठी आँखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था। मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थी, केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज़ आ रही थी। तभी सहसा माँ की कोठरी का दरवाज़ा ज़ोर से खटकने लगा।
माँ, दरवाज़ा खोलो।
माँ का दिल बैठ गया। हड़बड़ा कर उठ बैठीं। क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गई? माँ कितनी देर से अपने आपको कोस रही थीं कि क्यों उन्हें नींद आ गई, क्यों वह ऊँघने लगीं। क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं किया? माँ उठीं और काँपते हाथों से दरवाज़ा खोल दिया।
दरवाज़े खुलते ही शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आए और माँ को आलिंगन में भर लिया।
ओ अम्मी! तुमने तो आज रंग ला दिया! ...साहब तुमसे इतना ख़ुश हुआ कि क्या कहूँ। ओ अम्मी! अम्मी!
माँ की छोटी-सी काया सिमट कर बेटे के आलिंगन में छिप गई। माँ की आँखों में फिर आँसू आ गए। उन्हें पोंछती हुई धीरे से बोली—बेटा, तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूँ।
शामनाथ का झूमना सहसा बंद हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बाँहें माँ के शरीर पर से हट आईं।
क्या कहा, माँ? यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया?
शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, बोलते गए—तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख सकता।
नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन ज़िंदगानी के बाक़ी हैं, भगवान का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!
तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इक़रार किया है।
मेरी आँखें अब नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।
माँ चुप हो गईं। फिर बेटे के मुँह की ओर देखती हुई बोली—क्या तेरी तरक़्क़ी होगी? क्या साहब तेरी तरक़्क़ी कर देगा? क्या उसने कुछ कहा है?
कहा नहीं, मगर देखती नहीं, कितना ख़ुश गया है। कहता था, जब तेरी माँ फुलकारी बनाना शुरू करेंगी, तो मैं देखने आऊँगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब ख़ुश हो गया, तो मुझे इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती है, मैं बड़ा अफ़सर बन सकता हूँ।
माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।
तो तेरी तरक़्क़ी होगी बेटा?
तरक़्क़ी यूँ ही हो जाएगी? साहब को ख़ुश रखूँगा, तो कुछ करेगा, वरना उसकी ख़िदमत करने वाले और थोड़े हैं?
तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूँगी।
और माँ दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करने लगीं और मिस्टर शामनाथ, अब सो जाओ, माँ, कहते हुए, तनिक लड़खड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घूम गए।
aaj mistar shamnath ke ghar chief ki dawat thi
shamnath aur unki dharmpatni ko pasina ponchhne ki fursat na thi patni dressing gown pahne, uljhe hue balon ka juDa banaye munh par phaili hui surkhi aur pauDar ko male aur mistar shamnath cigarette par cigarette phunkte hue chizon ki fehrist hath mein thame, ek kamre se dusre kamre mein aa ja rahe the
akhir panch bajte bajte taiyari mukammal hone lagi kursiyan, mez, tipaiyan, naipkin, phool, sab baramde mein pahunch gaye drink ka intizam baithak mein kar diya gaya ab ghar ka phaltu saman almariyon ke pichhe aur palangon ke niche chhipaya jane laga tabhi shamnath ke samne sahsa ek aDchan khaDi ho gai, man ka kya hoga?
is baat ki or na unka aur na unki kushal grihinai ka dhyan gaya tha mistar shamnath, shirimati ki or ghoom kar angrezi mein bole—man ka kya hoga?
shirimati kaam karte karte thahar gain, aur thoDi der tak sochne ke baad bolin—inhen pichhwaDe inki saheli ke ghar bhej do, raat bhar beshak wahin rahen kal aa jayen
shamnath cigarette munh mein rakhe, sikuDi ankhon se shirimati ke chehre ki or dekhte hue pal bhar sochte rahe, phir sir hila kar bole—nahin, main nahin chahta ki us buDhiya ka aana jana yahan phir se shuru ho pahle hi baDi mushkil se band kiya tha man se kahen ki jaldi hi khana kha ke sham ko hi apni kothari mein chali jayen mehman kahin aath baje ayenge isse pahle hi apne kaam se nibat len
sujhaw theek tha donon ko pasand aaya magar phir sahsa shirimati bol uthin—jo wo so gain aur neend mein kharrate lene lagin, to? sath hi to baramada hai, jahan log khana khayenge
to inhen kah denge ki andar se darwaza band kar len main bahar se tala laga dunga ya man ko kah deta hoon ki andar ja kar soen nahin, baithi rahen, aur kya?
aur jo so gai, to? dinner ka kya malum kab tak chale gyarah gyarah baje tak to tum drink hi karte rahte ho
shamnath kuch kheej uthe, hath jhatakte hue bole—achchhi bhali ye bhai ke pas ja rahi theen tumne yoon hi khu achchha banne ke liye beech mein tang aDa dee!
wah! tum man aur bete ki baton mein main kyon buri banun? tum jano aur wo janen
mistar shamnath chup rahe ye mauqa bahs ka na tha, samasya ka hal DhunDhane ka tha unhonne ghoom kar man ki kothari ki or dekha kothari ka darwaza baramde mein khulta tha baramde ki or dekhte hue jhat se bole—mainne soch liya hai,—aur unhin qadmon man ki kothari ke bahar ja khaDe hue man diwar ke sath ek chauki par baithi, dupatte mein munh sir lapete, mala jap rahi theen subah se taiyari hoti dekhte hue man ka bhi dil dhaDak raha tha bete ke daftar ka baDa sahab ghar par aa raha hai, sara kaam subhite se chal jaye
man, aaj tum khana jaldi kha lena mehman log saDhe sat baje aa jayenge
man ne dhire se munh par se dupatta hataya aur bete ko dekhte hue kaha, aaj mujhe khana nahin khana hai, beta, tum jo jante ho, mans machhli bane, to main kuch nahin khati
jaise bhi ho, apne kaam se jaldi nibat lena
achchha, beta
aur man, hum log pahle baithak mein baithenge utni der tum yahan baramde mein baithna phir jab hum yahan aa jayen, to tum ghusalkhane ke raste baithak mein chali jana
man awak bete ka chehra dekhne lagin phir dhire se bolin—achchha beta
aur man aaj jaldi so nahin jana tumhare kharraton ki awaz door tak jati hai
man lajjit si awaz mein boli—kya karun, beta, mere bus ki baat nahin hai jab se bimari se uthi hoon, nak se sans nahin le sakti
mistar shamnath ne intizam to kar diya, phir bhi unki udheD bun khatm nahin hui jo chief achanak udhar aa nikla, to? aath das mehman honge, desi afsar, unki striyan hongi, koi bhi ghusalkhane ki taraf ja sakta hai kshaobh aur krodh mein wo jhunjhlane lage ek kursi ko utha kar baramde mein kothari ke bahar rakhte hue bole—ao man, is par zara baitho to
man mala sanbhalatin, palla theek karti uthin, aur dhire se kursi par aa kar baith gai
yoon nahin, man, tangen upar chaDha kar nahin baithte ye khat nahin hain
man ne tangen niche utar leen
aur khuda ke waste nange panw nahin ghumna na hi wo khaDaun pahan kar samne aana kisi din tumhari ye khaDaun utha kar main bahar phenk dunga
man chup rahin
kapDe kaun se pahnogi, man?
jo hai, wahi pahnungi, beta! jo kaho, pahan loon
mistar shamnath cigarette munh mein rakhe, phir adhakhuli ankhon se man ki or dekhne lage, aur man ke kapDon ki sochne lage shamnath har baat mein tartib chahte the ghar ka sab sanchalan unke apne hath mein tha khuntiyan kamron mein kahan lagai jayen, bistar kahan par bichhe, kis rang ke parde lagayen jayen, shirimati kaun si saDi pahnen, mez kis saiz ki ho shamnath ko chinta thi ki agar chief ka sakshat man se ho gaya, to kahin lajjit nahin hona paDe man ko sir se panw tak dekhte hue bole—tum safed qamiz aur safed salwar pahan lo, man pahan ke aao to, zara dekhun
man dhire se uthin aur apni kothari mein kapDe pahanne chali gain
ye man ka jhamela hi rahega, unhonne phir angrezi mein apni istri se kaha—koi Dhang ki baat ho, to bhi koi kahe agar kahin koi ulti sidhi baat ho gai, chief ko bura laga, to sara maza jata rahega
man safed qamiz aur safed salwar pahan kar bahar niklin chhota sa qad, safed kapDon mein lipta, chhota sa sukha hua sharir, dhundhli ankhen, kewal sir ke aadhe jhaDe hue baal palle ki ot mein chhip pae the pahle se kuch hi kam kurup nazar aa rahi theen
chalo, theek hai koi chuDiyan wuDiyan hon, to wo bhi pahan lo koi harj nahin
chuDiyan kahan se laun, beta? tum to jante ho, sab jewar tumhari paDhai mein bik gaye
ye waky shamnath ko teer ki tarah laga tinak kar bole—yah kaun sa rag chheD diya, man! sidha kah do, nahin hain zewar, bus! isse paDhai waDhai ka kya talluq hai! jo zewar bika, to kuch ban kar hi aaya hoon, nira lanDura to nahin laut aaya jitna diya tha, usse dugna le lena
meri jeebh jal jay, beta, tumse zewar lungi? mere munh se yoon hi nikal gaya jo hote, to lakh bar pahanti!
saDhe panch baj chuke the abhi mistar shamnath ko khu bhi nha dho kar taiyar hona tha shirimati kab ki apne kamre mein ja chuki theen shamnath jate hue ek bar phir man ko hidayat karte gaye—man, roz ki tarah gumsum ban ke nahin baithi rahna agar sahab idhar aa niklen aur koi baat puchhen, to theek tarah se baat ka jawab dena
main na paDhi, na likhi, beta, main kya baat karungi tum kah dena, man anpaDh hai, kuch janti samajhti nahin wo nahin puchhega
sat bajte bajte man ka dil dhak dhak karne laga agar chief samne aa gaya aur usne kuch puchha, to wo kya jawab dengi angrez ko to door se hi dekh kar ghabra uthti theen, ye to americi hai na malum kya puchhe main kya kahungi man ka ji chaha ki chupchap pichhwaDe widhwa saheli ke ghar chali jayen magar bete ke hukm ko kaise tal sakti theen chupchap kursi par se tangen latkaye wahin baithi rahi
ek kamyab party wo hai, jismen drink kamyabi se chal jayen shamnath ki party saphalta ke sikhar chumne lagi wartalap usi rau mein bah raha tha, jis rau mein gilas bhare ja rahe the kahin koi rukawat na thi, koi aDchan na thi sahab ko whisky pasand i thi memasahab ko parde pasand aaye the, sofa kawar ka design pasand aaya tha, kamre ki sajawat pasand i thi isse baDh kar kya chahiye sahab to drink ke dusre daur mein hi chutkule aur kahaniyan kahne lag gaye the daftar mein jitna rob rakhte the, yahan par utne hi dost parwar ho rahe the aur unki istri, kala gown pahne, gale mein safed motiyon ka haar, sent aur pauDar ki mahak se ot prot, kamre mein baithi sabhi desi istriyon ki aradhana ka kendr bani hui theen baat baat par hanstin, baat baat par sir hilatin aur shamnath ki istri se to aise baten kar rahi theen, jaise unki purani saheli hon
aur isi ro mein pite pilate saDhe das baj gaye waqt guzarte pata hi na chala
akhir sab log apne apne gilason mein se akhiri ghoont pi kar khana khane ke liye uthe aur baithak se bahar nikle aage aage shamnath rasta dikhate hue, pichhe chief aur dusre mehman
baramde mein pahunchte hi shamnath sahsa thithak gaye jo drishya unhonne dekha, usse unki tangen laDkhaDa gai, aur kshan bhar mein sara nasha hiran hone laga baramde mein ain kothari ke bahar man apni kursi par jyon ki tyon baithi theen magar donon panw kursi ki seat par rakhe hue, aur sir dayen se bayen aur bayen se dayen jhool raha tha aur munh mein se lagatar gahre kharraton ki awazen aa rahi theen jab sir kuch der ke liye teDha ho kar ek taraf ko tham jata, to kharraten aur bhi gahre ho uthte aur phir jab jhatke se neend tutti, to sir phir dayen se bayen jhulne lagta palla sir par se khisak aaya tha, aur man ke jhare hue baal, aadhe ganje sir par ast wyast bikhar rahe the
dekhte hi shamnath kruddh ho uthe ji chaha ki man ko dhakka de kar utha den, aur unhen kothari mein dhakel den, magar aisa karna sambhaw na tha, chief aur baqi mehman pas khaDe the
man ko dekhte hi desi afsaron ki kuch striyan hans deen ki itne mein chief ne dhire se kaha—puar Dear!
man haDbaDa ke uth baithin samne khaDe itne logon ko dekh kar aisi ghabrai ki kuch kahte na bana jhat se palla sir par rakhti hui khaDi ho gain aur zamin ko dekhne lagin unke panw laDkhaDane lage aur hathon ki ungliyan thar thar kanpne lagin
man, tum jake so jao, tum kyon itni der tak jag rahi thin?—aur khisiyai hui nazron se shamnath chief ke munh ki or dekhne lage
chief ke chehre par muskurahat thi wo wahin khaDe khaDe bole, namaste!
man ne jhijhakte hue, apne mein simatte hue donon hath joDe, magar ek hath dupatte ke andar mala ko pakDe hue tha, dusra bahar, theek tarah se namaste bhi na kar pai shamnath is par bhi khinn ho uthe
itne mein chief ne apna dayan hath, hath milane ke liye man ke aage kiya man aur bhi ghabra uthin
man, hath milao
par hath kaise milatin? dayen hath mein to mala thi ghabrahat mein man ne bayan hath hi sahab ke dayen hath mein rakh diya shamnath dil hi dil mein jal uthe desi afsaron ki striyan khilkhila kar hans paDin
yoon nahin, man! tum to janti ho, dayan hath milaya jata hai dayan hath milao
magar tab tak chief man ka bayan hath hi bar bar hila kar kah rahe the—hau Du yu Doo?
kaho man, main theek hoon, khairiyat se hoon
man kuch baDabDai
man kahti hain, main theek hoon kaho man, hau Du yu Du
man dhire se sakuchate hue bolin—hau Du Du
ek bar phir qahqaha utha
watawarn halka hone laga sahab ne sthiti sanbhal li thi log hansne chahakne lage the shamnath ke man ka kshaobh bhi kuch kuch kam hone laga tha
sahab apne hath mein man ka hath ab bhi pakDe hue the, aur man sikuDi ja rahi theen sahab ke munh se sharab ki bu aa rahi thi
shamnath angrezi mein bole—meri man ganw ki rahne wali hain umar bhar ganw mein rahi hain isliye aapse lajati hai
sahab is par khush nazar aaye bole—sach? mujhe ganw ke log bahut pasand hain, tab to tumhari man ganw ke geet aur nach bhi janti hongi? chief khushi se sir hilate hue man ko takatki bandhe dekhne lage
man, sahab kahte hain, koi gana sunao koi purana geet tumhein to kitne hi yaad honge
man dhire se boli—main kya gaungi beta mainne kab gaya hai?
wah, man! mehman ka kaha bhi koi talta hai?
sahab ne itna reejh se kaha hai, nahin gaogi, to sahab bura manenge
main kya gaun, beta mujhe kya aata hai?
wah! koi baDhiya tappe suna do do pattar anaran de
desi afsar aur unki istriyon ne is sujhaw par taliyan piti man kabhi deen drishti se bete ke chehre ko dekhtin, kabhi pas khaDi bahu ke chehre ko
itne mein bete ne gambhir adesh bhare lihaj mein kaha—man!
iske baad han ya na sawal hi na uthta tha man baith gain aur kshain, durbal, larazti awaz mein ek purana wiwah ka geet gane lagin –
hariya ni maye, hariya ni bhaine
hariya te bhagi bhariya hai!
desi striyan khilkhila ke hans uthin teen panktiyan ga ke man chup ho gain
baramada taliyon se goonj utha sahab taliyan pitna band hi na karte the shamnath ki kheej prasannata aur garw mein badal uthi thi man ne party mein naya rang bhar diya tha
taliyan thamne par sahab bole—panjab ke ganwon ki dastakari kya hai?
shamnath khushi mein jhoom rahe the bole—o, bahut kuchh—sahab! main aapko ek set un chizon ka bhent karunga aap unhen dekh kar khush honge
magar sahab ne sir hila kar angrezi mein phir puchha—nahin, main dukanon ki cheez nahin mangta punjabiyon ke gharon mein kya banta hai, aurten khu kya banati hain?
shamnath kuch sochte hue bole—laDkiyan guDiyan banati hain, aur phulkariyan banati hain
phulkari kya?
shamnath phulkari ka matlab samjhane ki asaphal cheshta karne ke baad man ko bole—kyon, man, koi purani phulkari ghar mein hain?
man chupchap andar gain aur apni purani phulkari utha lain
sahab baDi ruchi se phulkari dekhne lage purani phulkari thi, jagah jagah se uske tage toot rahe the aur kapDa phatne laga tha sahab ki ruchi ko dekh kar shamnath bole—yah phati hui hai, sahab, main aapko nai banwa dunga man bana dengi kyon, man sahab ko phulkari bahut pasand hain, inhen aisi hi ek phulkari bana dogi n?
man chup rahin phir Darte Darte dhire se bolin—ab meri nazar kahan hai, beta! buDhi ankhen kya dekhengi?
magar man ka waky beech mein hi toDte hue shamnath sahab ko bole—wah zarur bana dengi aap use dekh kar khush honge
sahab ne sir hilaya, dhanyawad kiya aur halke halke jhumte hue khane ki mez ki or baDh gaye baqi mehman bhi unke pichhe pichhe ho liye
jab mehman baith gaye aur man par se sabki ankhen hat gain, to man dhire se kursi par se uthin, aur sabse nazren bachati hui apni kothari mein chali gain
magar kothari mein baithne ki der thi ki ankhon mein chhal chhal ansu bahne lage wo dupatte se bar bar unhen ponchhtin, par wo bar bar umaD aate, jaise barson ka bandh toD kar umaD aaye hon man ne bahutera dil ko samjhaya, hath joDe, bhagwan ka nam liya, bete ke chirayu hone ki pararthna ki, bar bar ankhen band keen, magar ansu barsat ke pani ki tarah jaise thamne mein hi na aate the
adhi raat ka waqt hoga mehman khana kha kar ek ek karke ja chuke the man diwar se sat kar baithi ankhen phaDe diwar ko dekhe ja rahi theen ghar ke watawarn mein tanaw Dhila paD chuka tha muhalle ki nistabdhata shamnath ke ghar bhi chha chuki thi, kewal rasoi mein pleton ke khanakne ki awaz aa rahi thi tabhi sahsa man ki kothari ka darwaza zor se khatakne laga
man, darwaza kholo
man ka dil baith gaya haDbaDa kar uth baithin kya mujhse phir koi bhool ho gai? man kitni der se apne aapko kos rahi theen ki kyon unhen neend aa gai, kyon wo unghne lagin kya bete ne abhi tak kshama nahin kiya? man uthin aur kanpte hathon se darwaza khol diya
darwaze khulte hi shamnath jhumte hue aage baDh aaye aur man ko alingan mein bhar liya
o ammi! tumne to aaj rang la diya! sahab tumse itna khush hua ki kya kahun o ammi! ammi!
man ki chhoti si kaya simat kar bete ke alingan mein chhip gai man ki ankhon mein phir ansu aa gaye unhen ponchhti hui dhire se boli—beta, tum mujhe haridwar bhej do main kab se kah rahi hoon
shamnath ka jhumna sahsa band ho gaya aur unki peshani par phir tanaw ke bal paDne lage unki banhen man ke sharir par se hat ain
kya kaha, man? ye kaun sa rag tumne phir chheD diya?
shamnath ka krodh baDhne laga tha, bolte gaye—tum mujhe badnam karna chahti ho, taki duniya kahe ki beta man ko apne pas nahin rakh sakta
nahin beta, ab tum apni bahu ke sath jaisa man chahe raho mainne apna kha pahan liya ab yahan kya karungi jo thoDe din zindagani ke baqi hain, bhagwan ka nam lungi tum mujhe haridwar bhej do!
tum chali jaogi, to phulkari kaun banayega? sahab se tumhare samne hi phulkari dene ka iqrar kiya hai
meri ankhen ab nahin hain, beta, jo phulkari bana sakun tum kahin aur se banwa lo bani banai le lo
man, tum mujhe dhokha deke yoon chali jaogi? mera banta kaam bigaDogi? janti nahin, sahab khush hoga, to mujhe taraqqi milegi!
man chup ho gain phir bete ke munh ki or dekhti hui boli—kya teri taraqqi hogi? kya sahab teri taraqqi kar dega? kya usne kuch kaha hai?
kaha nahin, magar dekhti nahin, kitna khush gaya hai kahta tha, jab teri man phulkari banana shuru karengi, to main dekhne aunga ki kaise banati hain jo sahab khush ho gaya, to mujhe isse baDi naukari bhi mil sakti hai, main baDa afsar ban sakta hoon
man ke chehre ka rang badalne laga, dhire dhire unka jhurriyon bhara munh khilne laga, ankhon mein halki halki chamak aane lagi
to teri taraqqi hogi beta?
taraqqi yoon hi ho jayegi? sahab ko khush rakhunga, to kuch karega, warna uski khidmat karnewale aur thoDe hain?
to main bana dungi, beta, jaise ban paDega, bana dungi
aur man dil hi dil mein phir bete ke ujjwal bhawishya ki kamnayen karne lagin aur mistar shamnath, ab so jao, man, kahte hue, tanik laDkhaDate hue apne kamre ki or ghoom gaye
aaj mistar shamnath ke ghar chief ki dawat thi
shamnath aur unki dharmpatni ko pasina ponchhne ki fursat na thi patni dressing gown pahne, uljhe hue balon ka juDa banaye munh par phaili hui surkhi aur pauDar ko male aur mistar shamnath cigarette par cigarette phunkte hue chizon ki fehrist hath mein thame, ek kamre se dusre kamre mein aa ja rahe the
akhir panch bajte bajte taiyari mukammal hone lagi kursiyan, mez, tipaiyan, naipkin, phool, sab baramde mein pahunch gaye drink ka intizam baithak mein kar diya gaya ab ghar ka phaltu saman almariyon ke pichhe aur palangon ke niche chhipaya jane laga tabhi shamnath ke samne sahsa ek aDchan khaDi ho gai, man ka kya hoga?
is baat ki or na unka aur na unki kushal grihinai ka dhyan gaya tha mistar shamnath, shirimati ki or ghoom kar angrezi mein bole—man ka kya hoga?
shirimati kaam karte karte thahar gain, aur thoDi der tak sochne ke baad bolin—inhen pichhwaDe inki saheli ke ghar bhej do, raat bhar beshak wahin rahen kal aa jayen
shamnath cigarette munh mein rakhe, sikuDi ankhon se shirimati ke chehre ki or dekhte hue pal bhar sochte rahe, phir sir hila kar bole—nahin, main nahin chahta ki us buDhiya ka aana jana yahan phir se shuru ho pahle hi baDi mushkil se band kiya tha man se kahen ki jaldi hi khana kha ke sham ko hi apni kothari mein chali jayen mehman kahin aath baje ayenge isse pahle hi apne kaam se nibat len
sujhaw theek tha donon ko pasand aaya magar phir sahsa shirimati bol uthin—jo wo so gain aur neend mein kharrate lene lagin, to? sath hi to baramada hai, jahan log khana khayenge
to inhen kah denge ki andar se darwaza band kar len main bahar se tala laga dunga ya man ko kah deta hoon ki andar ja kar soen nahin, baithi rahen, aur kya?
aur jo so gai, to? dinner ka kya malum kab tak chale gyarah gyarah baje tak to tum drink hi karte rahte ho
shamnath kuch kheej uthe, hath jhatakte hue bole—achchhi bhali ye bhai ke pas ja rahi theen tumne yoon hi khu achchha banne ke liye beech mein tang aDa dee!
wah! tum man aur bete ki baton mein main kyon buri banun? tum jano aur wo janen
mistar shamnath chup rahe ye mauqa bahs ka na tha, samasya ka hal DhunDhane ka tha unhonne ghoom kar man ki kothari ki or dekha kothari ka darwaza baramde mein khulta tha baramde ki or dekhte hue jhat se bole—mainne soch liya hai,—aur unhin qadmon man ki kothari ke bahar ja khaDe hue man diwar ke sath ek chauki par baithi, dupatte mein munh sir lapete, mala jap rahi theen subah se taiyari hoti dekhte hue man ka bhi dil dhaDak raha tha bete ke daftar ka baDa sahab ghar par aa raha hai, sara kaam subhite se chal jaye
man, aaj tum khana jaldi kha lena mehman log saDhe sat baje aa jayenge
man ne dhire se munh par se dupatta hataya aur bete ko dekhte hue kaha, aaj mujhe khana nahin khana hai, beta, tum jo jante ho, mans machhli bane, to main kuch nahin khati
jaise bhi ho, apne kaam se jaldi nibat lena
achchha, beta
aur man, hum log pahle baithak mein baithenge utni der tum yahan baramde mein baithna phir jab hum yahan aa jayen, to tum ghusalkhane ke raste baithak mein chali jana
man awak bete ka chehra dekhne lagin phir dhire se bolin—achchha beta
aur man aaj jaldi so nahin jana tumhare kharraton ki awaz door tak jati hai
man lajjit si awaz mein boli—kya karun, beta, mere bus ki baat nahin hai jab se bimari se uthi hoon, nak se sans nahin le sakti
mistar shamnath ne intizam to kar diya, phir bhi unki udheD bun khatm nahin hui jo chief achanak udhar aa nikla, to? aath das mehman honge, desi afsar, unki striyan hongi, koi bhi ghusalkhane ki taraf ja sakta hai kshaobh aur krodh mein wo jhunjhlane lage ek kursi ko utha kar baramde mein kothari ke bahar rakhte hue bole—ao man, is par zara baitho to
man mala sanbhalatin, palla theek karti uthin, aur dhire se kursi par aa kar baith gai
yoon nahin, man, tangen upar chaDha kar nahin baithte ye khat nahin hain
man ne tangen niche utar leen
aur khuda ke waste nange panw nahin ghumna na hi wo khaDaun pahan kar samne aana kisi din tumhari ye khaDaun utha kar main bahar phenk dunga
man chup rahin
kapDe kaun se pahnogi, man?
jo hai, wahi pahnungi, beta! jo kaho, pahan loon
mistar shamnath cigarette munh mein rakhe, phir adhakhuli ankhon se man ki or dekhne lage, aur man ke kapDon ki sochne lage shamnath har baat mein tartib chahte the ghar ka sab sanchalan unke apne hath mein tha khuntiyan kamron mein kahan lagai jayen, bistar kahan par bichhe, kis rang ke parde lagayen jayen, shirimati kaun si saDi pahnen, mez kis saiz ki ho shamnath ko chinta thi ki agar chief ka sakshat man se ho gaya, to kahin lajjit nahin hona paDe man ko sir se panw tak dekhte hue bole—tum safed qamiz aur safed salwar pahan lo, man pahan ke aao to, zara dekhun
man dhire se uthin aur apni kothari mein kapDe pahanne chali gain
ye man ka jhamela hi rahega, unhonne phir angrezi mein apni istri se kaha—koi Dhang ki baat ho, to bhi koi kahe agar kahin koi ulti sidhi baat ho gai, chief ko bura laga, to sara maza jata rahega
man safed qamiz aur safed salwar pahan kar bahar niklin chhota sa qad, safed kapDon mein lipta, chhota sa sukha hua sharir, dhundhli ankhen, kewal sir ke aadhe jhaDe hue baal palle ki ot mein chhip pae the pahle se kuch hi kam kurup nazar aa rahi theen
chalo, theek hai koi chuDiyan wuDiyan hon, to wo bhi pahan lo koi harj nahin
chuDiyan kahan se laun, beta? tum to jante ho, sab jewar tumhari paDhai mein bik gaye
ye waky shamnath ko teer ki tarah laga tinak kar bole—yah kaun sa rag chheD diya, man! sidha kah do, nahin hain zewar, bus! isse paDhai waDhai ka kya talluq hai! jo zewar bika, to kuch ban kar hi aaya hoon, nira lanDura to nahin laut aaya jitna diya tha, usse dugna le lena
meri jeebh jal jay, beta, tumse zewar lungi? mere munh se yoon hi nikal gaya jo hote, to lakh bar pahanti!
saDhe panch baj chuke the abhi mistar shamnath ko khu bhi nha dho kar taiyar hona tha shirimati kab ki apne kamre mein ja chuki theen shamnath jate hue ek bar phir man ko hidayat karte gaye—man, roz ki tarah gumsum ban ke nahin baithi rahna agar sahab idhar aa niklen aur koi baat puchhen, to theek tarah se baat ka jawab dena
main na paDhi, na likhi, beta, main kya baat karungi tum kah dena, man anpaDh hai, kuch janti samajhti nahin wo nahin puchhega
sat bajte bajte man ka dil dhak dhak karne laga agar chief samne aa gaya aur usne kuch puchha, to wo kya jawab dengi angrez ko to door se hi dekh kar ghabra uthti theen, ye to americi hai na malum kya puchhe main kya kahungi man ka ji chaha ki chupchap pichhwaDe widhwa saheli ke ghar chali jayen magar bete ke hukm ko kaise tal sakti theen chupchap kursi par se tangen latkaye wahin baithi rahi
ek kamyab party wo hai, jismen drink kamyabi se chal jayen shamnath ki party saphalta ke sikhar chumne lagi wartalap usi rau mein bah raha tha, jis rau mein gilas bhare ja rahe the kahin koi rukawat na thi, koi aDchan na thi sahab ko whisky pasand i thi memasahab ko parde pasand aaye the, sofa kawar ka design pasand aaya tha, kamre ki sajawat pasand i thi isse baDh kar kya chahiye sahab to drink ke dusre daur mein hi chutkule aur kahaniyan kahne lag gaye the daftar mein jitna rob rakhte the, yahan par utne hi dost parwar ho rahe the aur unki istri, kala gown pahne, gale mein safed motiyon ka haar, sent aur pauDar ki mahak se ot prot, kamre mein baithi sabhi desi istriyon ki aradhana ka kendr bani hui theen baat baat par hanstin, baat baat par sir hilatin aur shamnath ki istri se to aise baten kar rahi theen, jaise unki purani saheli hon
aur isi ro mein pite pilate saDhe das baj gaye waqt guzarte pata hi na chala
akhir sab log apne apne gilason mein se akhiri ghoont pi kar khana khane ke liye uthe aur baithak se bahar nikle aage aage shamnath rasta dikhate hue, pichhe chief aur dusre mehman
baramde mein pahunchte hi shamnath sahsa thithak gaye jo drishya unhonne dekha, usse unki tangen laDkhaDa gai, aur kshan bhar mein sara nasha hiran hone laga baramde mein ain kothari ke bahar man apni kursi par jyon ki tyon baithi theen magar donon panw kursi ki seat par rakhe hue, aur sir dayen se bayen aur bayen se dayen jhool raha tha aur munh mein se lagatar gahre kharraton ki awazen aa rahi theen jab sir kuch der ke liye teDha ho kar ek taraf ko tham jata, to kharraten aur bhi gahre ho uthte aur phir jab jhatke se neend tutti, to sir phir dayen se bayen jhulne lagta palla sir par se khisak aaya tha, aur man ke jhare hue baal, aadhe ganje sir par ast wyast bikhar rahe the
dekhte hi shamnath kruddh ho uthe ji chaha ki man ko dhakka de kar utha den, aur unhen kothari mein dhakel den, magar aisa karna sambhaw na tha, chief aur baqi mehman pas khaDe the
man ko dekhte hi desi afsaron ki kuch striyan hans deen ki itne mein chief ne dhire se kaha—puar Dear!
man haDbaDa ke uth baithin samne khaDe itne logon ko dekh kar aisi ghabrai ki kuch kahte na bana jhat se palla sir par rakhti hui khaDi ho gain aur zamin ko dekhne lagin unke panw laDkhaDane lage aur hathon ki ungliyan thar thar kanpne lagin
man, tum jake so jao, tum kyon itni der tak jag rahi thin?—aur khisiyai hui nazron se shamnath chief ke munh ki or dekhne lage
chief ke chehre par muskurahat thi wo wahin khaDe khaDe bole, namaste!
man ne jhijhakte hue, apne mein simatte hue donon hath joDe, magar ek hath dupatte ke andar mala ko pakDe hue tha, dusra bahar, theek tarah se namaste bhi na kar pai shamnath is par bhi khinn ho uthe
itne mein chief ne apna dayan hath, hath milane ke liye man ke aage kiya man aur bhi ghabra uthin
man, hath milao
par hath kaise milatin? dayen hath mein to mala thi ghabrahat mein man ne bayan hath hi sahab ke dayen hath mein rakh diya shamnath dil hi dil mein jal uthe desi afsaron ki striyan khilkhila kar hans paDin
yoon nahin, man! tum to janti ho, dayan hath milaya jata hai dayan hath milao
magar tab tak chief man ka bayan hath hi bar bar hila kar kah rahe the—hau Du yu Doo?
kaho man, main theek hoon, khairiyat se hoon
man kuch baDabDai
man kahti hain, main theek hoon kaho man, hau Du yu Du
man dhire se sakuchate hue bolin—hau Du Du
ek bar phir qahqaha utha
watawarn halka hone laga sahab ne sthiti sanbhal li thi log hansne chahakne lage the shamnath ke man ka kshaobh bhi kuch kuch kam hone laga tha
sahab apne hath mein man ka hath ab bhi pakDe hue the, aur man sikuDi ja rahi theen sahab ke munh se sharab ki bu aa rahi thi
shamnath angrezi mein bole—meri man ganw ki rahne wali hain umar bhar ganw mein rahi hain isliye aapse lajati hai
sahab is par khush nazar aaye bole—sach? mujhe ganw ke log bahut pasand hain, tab to tumhari man ganw ke geet aur nach bhi janti hongi? chief khushi se sir hilate hue man ko takatki bandhe dekhne lage
man, sahab kahte hain, koi gana sunao koi purana geet tumhein to kitne hi yaad honge
man dhire se boli—main kya gaungi beta mainne kab gaya hai?
wah, man! mehman ka kaha bhi koi talta hai?
sahab ne itna reejh se kaha hai, nahin gaogi, to sahab bura manenge
main kya gaun, beta mujhe kya aata hai?
wah! koi baDhiya tappe suna do do pattar anaran de
desi afsar aur unki istriyon ne is sujhaw par taliyan piti man kabhi deen drishti se bete ke chehre ko dekhtin, kabhi pas khaDi bahu ke chehre ko
itne mein bete ne gambhir adesh bhare lihaj mein kaha—man!
iske baad han ya na sawal hi na uthta tha man baith gain aur kshain, durbal, larazti awaz mein ek purana wiwah ka geet gane lagin –
hariya ni maye, hariya ni bhaine
hariya te bhagi bhariya hai!
desi striyan khilkhila ke hans uthin teen panktiyan ga ke man chup ho gain
baramada taliyon se goonj utha sahab taliyan pitna band hi na karte the shamnath ki kheej prasannata aur garw mein badal uthi thi man ne party mein naya rang bhar diya tha
taliyan thamne par sahab bole—panjab ke ganwon ki dastakari kya hai?
shamnath khushi mein jhoom rahe the bole—o, bahut kuchh—sahab! main aapko ek set un chizon ka bhent karunga aap unhen dekh kar khush honge
magar sahab ne sir hila kar angrezi mein phir puchha—nahin, main dukanon ki cheez nahin mangta punjabiyon ke gharon mein kya banta hai, aurten khu kya banati hain?
shamnath kuch sochte hue bole—laDkiyan guDiyan banati hain, aur phulkariyan banati hain
phulkari kya?
shamnath phulkari ka matlab samjhane ki asaphal cheshta karne ke baad man ko bole—kyon, man, koi purani phulkari ghar mein hain?
man chupchap andar gain aur apni purani phulkari utha lain
sahab baDi ruchi se phulkari dekhne lage purani phulkari thi, jagah jagah se uske tage toot rahe the aur kapDa phatne laga tha sahab ki ruchi ko dekh kar shamnath bole—yah phati hui hai, sahab, main aapko nai banwa dunga man bana dengi kyon, man sahab ko phulkari bahut pasand hain, inhen aisi hi ek phulkari bana dogi n?
man chup rahin phir Darte Darte dhire se bolin—ab meri nazar kahan hai, beta! buDhi ankhen kya dekhengi?
magar man ka waky beech mein hi toDte hue shamnath sahab ko bole—wah zarur bana dengi aap use dekh kar khush honge
sahab ne sir hilaya, dhanyawad kiya aur halke halke jhumte hue khane ki mez ki or baDh gaye baqi mehman bhi unke pichhe pichhe ho liye
jab mehman baith gaye aur man par se sabki ankhen hat gain, to man dhire se kursi par se uthin, aur sabse nazren bachati hui apni kothari mein chali gain
magar kothari mein baithne ki der thi ki ankhon mein chhal chhal ansu bahne lage wo dupatte se bar bar unhen ponchhtin, par wo bar bar umaD aate, jaise barson ka bandh toD kar umaD aaye hon man ne bahutera dil ko samjhaya, hath joDe, bhagwan ka nam liya, bete ke chirayu hone ki pararthna ki, bar bar ankhen band keen, magar ansu barsat ke pani ki tarah jaise thamne mein hi na aate the
adhi raat ka waqt hoga mehman khana kha kar ek ek karke ja chuke the man diwar se sat kar baithi ankhen phaDe diwar ko dekhe ja rahi theen ghar ke watawarn mein tanaw Dhila paD chuka tha muhalle ki nistabdhata shamnath ke ghar bhi chha chuki thi, kewal rasoi mein pleton ke khanakne ki awaz aa rahi thi tabhi sahsa man ki kothari ka darwaza zor se khatakne laga
man, darwaza kholo
man ka dil baith gaya haDbaDa kar uth baithin kya mujhse phir koi bhool ho gai? man kitni der se apne aapko kos rahi theen ki kyon unhen neend aa gai, kyon wo unghne lagin kya bete ne abhi tak kshama nahin kiya? man uthin aur kanpte hathon se darwaza khol diya
darwaze khulte hi shamnath jhumte hue aage baDh aaye aur man ko alingan mein bhar liya
o ammi! tumne to aaj rang la diya! sahab tumse itna khush hua ki kya kahun o ammi! ammi!
man ki chhoti si kaya simat kar bete ke alingan mein chhip gai man ki ankhon mein phir ansu aa gaye unhen ponchhti hui dhire se boli—beta, tum mujhe haridwar bhej do main kab se kah rahi hoon
shamnath ka jhumna sahsa band ho gaya aur unki peshani par phir tanaw ke bal paDne lage unki banhen man ke sharir par se hat ain
kya kaha, man? ye kaun sa rag tumne phir chheD diya?
shamnath ka krodh baDhne laga tha, bolte gaye—tum mujhe badnam karna chahti ho, taki duniya kahe ki beta man ko apne pas nahin rakh sakta
nahin beta, ab tum apni bahu ke sath jaisa man chahe raho mainne apna kha pahan liya ab yahan kya karungi jo thoDe din zindagani ke baqi hain, bhagwan ka nam lungi tum mujhe haridwar bhej do!
tum chali jaogi, to phulkari kaun banayega? sahab se tumhare samne hi phulkari dene ka iqrar kiya hai
meri ankhen ab nahin hain, beta, jo phulkari bana sakun tum kahin aur se banwa lo bani banai le lo
man, tum mujhe dhokha deke yoon chali jaogi? mera banta kaam bigaDogi? janti nahin, sahab khush hoga, to mujhe taraqqi milegi!
man chup ho gain phir bete ke munh ki or dekhti hui boli—kya teri taraqqi hogi? kya sahab teri taraqqi kar dega? kya usne kuch kaha hai?
kaha nahin, magar dekhti nahin, kitna khush gaya hai kahta tha, jab teri man phulkari banana shuru karengi, to main dekhne aunga ki kaise banati hain jo sahab khush ho gaya, to mujhe isse baDi naukari bhi mil sakti hai, main baDa afsar ban sakta hoon
man ke chehre ka rang badalne laga, dhire dhire unka jhurriyon bhara munh khilne laga, ankhon mein halki halki chamak aane lagi
to teri taraqqi hogi beta?
taraqqi yoon hi ho jayegi? sahab ko khush rakhunga, to kuch karega, warna uski khidmat karnewale aur thoDe hain?
to main bana dungi, beta, jaise ban paDega, bana dungi
aur man dil hi dil mein phir bete ke ujjwal bhawishya ki kamnayen karne lagin aur mistar shamnath, ab so jao, man, kahte hue, tanik laDkhaDate hue apne kamre ki or ghoom gaye
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।