“ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे?” कहता हुआ एक पंचवर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा। बाबू साहब ने दोंनो बाँहें फैलाकर कहा—“हाँ बेटा, ला देंगे।” उनके इतना कहते-कहते बालक उनके निकट आ गया। उन्होंने बालक को गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमकर बोले—“क्या करेगा रेलगाड़ी?”
बालक बोला—“उसमें बैठकर बली दूल जाएँगे। हम बी जाएँगे, चुन्नी को बी ले जाएँगे। बाबूजी को नहीं ले जाएँगे। हमें लेलगाड़ी नहीं ला देते। ताऊजी तुम ला दोगे, तो तुम्हें ले जाएँगे।”
बाबू—“और किसे ले जाएगा?”
बालक दम भर सोचकर बोला—“बछ औल किछी को नहीं ले जाएँगे।”
पास ही बाबू रामजीदास की अर्द्धांगिनी बैठी थीं। बाबू साहब ने उनकी ओर इशारा करके कहा—“और अपनी ताई को नहीं ले जाएगा?”
बालक कुछ देर तक अपनी ताई की और देखता रहा। ताईजी उस समय कुछ चिढ़ी हुई सी बैठी थीं। बालक को उनके मुख का वह भाव अच्छा न लगा। अतएव वह बोला—“ताई को नहीं ले जाएँगे।”
ताईजी सुपारी काटती हुई बोलीं—“अपने ताऊजी ही को ले जा, मेरे ऊपर दया रख।”
ताई ने यह बात बड़ी रूखाई के साथ कही। बालक ताई के शुष्क व्यवहार को तुरंत ताड़ गया। बाबू साहब ने फिर पूछा—“ताई को क्यों नहीं ले जाएगा?”
बालक—“ताई हमें प्याल (प्यार), नहीं कलतीं।”
बाबू—“जो प्यार करें तो ले जाएगा?”
बालक को इसमें कुछ संदेह था। ताई के भाव देखकर उसे यह आशा नहीं थी कि वह प्यार करेंगी। इससे बालक मौन रहा।
बाबू साहब ने फिर पूछा—”क्यों रे बोलता नहीं? ताई प्यार करें तो रेल पर बिठाकर ले जाएगा?”
बालक ने ताऊजी को प्रसन्न करने के लिए केवल सिर हिलाकर स्वीकार कर लिया, परंतु मुख से कुछ नहीं कहा।
बाबू साहब उसे अपनी अर्द्धांगिनी के पास ले जाकर उनसे बोले—“लो, इसे प्यार कर लो तो तुम्हें ले जाएगा।” परंतु बच्चे की ताई श्रीमती रामेश्वरी को पति की यह चुग़लबाज़ी अच्छी न लगी। वह तुनककर बोलीं—“तुम्हीं रेल पर बैठकर जाओ, मुझे नहीं जाना है।”
बाबू साहब ने रामेश्वरी की बात पर ध्यान नहीं दिया। बच्चे को उनकी गोद में बैठाने की चेष्टा करते हुए बोले—“प्यार नहीं करोगी, तो फिर रेल में नहीं बिठावेगा।—क्यों रे मनोहर?”
मनोहर ने ताऊ की बात का उत्तर नहीं दिया। उधर ताई ने मनोहर को अपनी गोद से ढकेल दिया। मनोहर नीचे गिर पड़ा। शरीर में तो चोट नहीं लगी, पर हृदय में चोट लगी। बालक रो पड़ा।
बाबू साहब ने बालक को गोद में उठा लिया। चुमकार-पुचकारकर चुप किया और तत्पश्चात उसे कुछ पैसा तथा रेलगाड़ी ला देने का वचन देकर छोड़ दिया। बालक मनोहर भयपूर्ण दॄष्टि से अपनी ताई की ओर ताकता हुआ उस स्थान से चला गया।
मनोहर के चले जाने पर बाबू रामजीदास रामेश्वरी से बोले—“तुम्हारा यह कैसा व्यवहार है? बच्चे को ढकेल दिया। जो उसे चोट लग जाती तो?”
रामेश्वरी मुँह मटकाकर बोलीं—“लग जाती तो अच्छा होता। क्यों मेरी खोपड़ी पर लादे देते थे? आप ही मेरे ऊपर डालते थे और आप ही अब ऐसी बातें करते हैं।”
बाबू साहब कुढ़कर बोले—“इसी को खोपड़ी पर लादना कहते हैं?”
रामेश्वरी—“और किसे कहते हैं? तुम्हें तो अपने आगे और किसी का दु:ख-सुख सूझता ही नहीं। न जाने कब किसका जी कैसा होता है। तुम्हें उन बातों की कोई परवाह ही नहीं, अपनी चुहल से काम है।”
बाबू—”बच्चों की प्यारी-प्यारी बातें सुनकर तो चाहे जैसा जी हो, प्रसन्न हो जाता है। मगर तुम्हारा हृदय न जाने किस धातु का बना हुआ है?”
रामेश्वरी—“तुम्हारा हो जाता होगा। और होने को होता है, मगर वैसा बच्चा भी तो हो। पराए धन से भी कहीं घर भरता है?”
बाबू साहब कुछ देर चुप रहकर बोले—“यदि अपना सगा भतीजा भी पराया धन कहा जा सकता है, तो फिर मैं नहीं समझता कि अपना धन किसे कहेंगे?”
रामेश्वरी कुछ उत्तेजित होकर बोलीं—“बातें बनाना बहुत आसान है। तुम्हारा भतीजा है, तुम चाहे जो समझो, पर मुझे यह बातें अच्छी नहीं लगतीं। हमारे भाग ही फूटे हैं, नहीं तो यह दिन काहे को देखने पड़ते। तुम्हारा चलन तो दुनिया से निराला है। आदमी संतान के लिए न जाने क्या-क्या करते हैं—पूजा-पाठ करते हैं, व्रत रखते हैं, पर तुम्हें इन बातों से क्या काम? रात-दिन भाई-भतीजों में मगन रहते हो।”
बाबू साहब के मुख पर घृणा का भाव झलक आया। उन्होंने कहा—“पूजा-पाठ, व्रत सब ढकोसला है। जो वस्तु भाग्य में नहीं, वह पूजा-पाठ से कभी प्राप्त नहीं हो सकती। मेरा तो यह अटल विश्वास है।”
श्रीमतीजी कुछ-कुछ रुआँसे स्वर में बोलीं—“इसी विश्वास ने सब चौपट कर रखा है। ऐसे ही विश्वास पर सब बैठ जाएँ तो काम कैसे चले? सब विश्वास पर ही न बैठे रहें, आदमी काहे को किसी बात के लिए चेष्टा करे।”
बाबू साहब ने सोचा कि मूर्ख स्त्री के मुँह लगना ठीक नहीं। अतएव वह स्त्री की बात का कुछ उत्तर न देकर वहाँ से टल गए।
(दो)
बाबू रामजीदास धनी आदमी हैं। कपड़े की आढ़त का काम करते हैं। लेन-देन भी है। इनसे एक छोटा भाई है, उसका नाम है कृष्णदास। दोनों भाइयों का परिवार एक में ही है। बाबू रामदास जी की आयु 35 के लगभग है और छोटे भाई कृष्णदास की आयु 21 के लगभग। रामजीदास निस्संतान हैं। कृष्णदास के दो संतानें हैं। एक पुत्र-वही पुत्र, जिससे पाठक परिचित हो चुके हैं—और एक कन्या है। कन्या की वय दो वर्ष के लगभग है।
रामजीदास अपने छोटे भाई और उनकी संतान पर बड़ा स्नेह रखते हैं—ऐसा स्नेह कि उसके प्रभाव से उन्हें अपनी संतानहीनता कभी खटकती ही नहीं। छोटे भाई की संतान को अपनी संतान समझते हैं। दोनों बच्चे भी रामदास से इतने हिले हैं कि उन्हें अपने पिता से भी अधिक समझते हैं।
परंतु रामजीदास की पत्नी रामेश्वरी को अपनी संतानहीनता का बड़ा दु:ख है। वह दिन-रात संतान ही के सोच में घुली रहती हैं। छोटे भाई की संतान पर पति का प्रेम उनकी आँखो में काँटे की तरह खटकता है।
रात के भोजन इत्यादि से निवृत्त होकर रामजीदास शैया पर लेटे शीतल और मंद वायु का आनंद ले रहे हैं। पास ही दूसरी शैया पर रामेश्वरी, हथेली पर सिर रखे, किसी चिंता में डूबी हुई थीं। दोनों बच्चे अभी बाबू साहब के पास से उठकर अपनी माँ के पास गए थे। बाबू साहब ने अपनी स्त्री की ओर करवट लेकर कहा—“आज तुमने मनोहर को बुरी तरह ढकेला था कि मुझे अब तक उसका दु:ख है। कभी-कभी तो तुम्हारा व्यवहार अमानुषिक हो उठता है।”
रामेश्वरी बोलीं—“तुम्हीं ने मुझे ऐसा बना रक्खा है। उस दिन उस पंडित ने कहा कि हम दोनों के जन्म-पत्र में संतान का जोग है और उपाय करने से संतान हो सकती है। उसने उपाय भी बताए थे, पर तुमने उनमें से एक भी उपाय करके न देखा। बस, तुम तो इन्हीं दोनों में मगन हो। तुम्हारी इस बात से रात-दिन मेरा कलेजा सुलगता रहता है। आदमी उपाय तो करके देखता है। फिर होना न होना भगवान के अधीन है।”
बाबू साहब हँसकर बोले—“तुम्हारी जैसी सीधी स्त्री भी क्या कहूँ? तुम इन ज्योतिषियों की बातों पर विश्वास करती हो, जो दुनिया भर के झूठे और धूर्त हैं। झूठ बोलने ही की रोटियाँ खाते हैं।”
रामेश्वरी तुनककर बोलीं—“तुम्हें तो सारा संसार झूठा ही दिखाई पड़ता है। ये पोथी-पुराण भी सब झूठे हैं? पंडित कुछ अपनी तरफ़ से बनाकर तो कहते नहीं हैं। शास्त्र में जो लिखा है, वही वे भी कहते हैं, वह झूठा है तो वे भी झूठे हैं। अँग्रेज़ी क्या पढ़ी, अपने आगे किसी को गिनते ही नहीं। जो बातें बाप-दादे के ज़माने से चली आई हैं, उन्हें भी झूठा बताते हैं।”
बाबू साहब—“तुम बात तो समझती नहीं, अपनी ही ओटे जाती हो। मैं यह नहीं कह सकता कि ज्योतिषशास्त्र झूठा है। संभव है, वह सच्चा हो, परंतु ज्योतिषियों में अधिकांश झूठे होते हैं। उन्हें ज्योतिष का पूर्ण ज्ञान तो होता नहीं, दो-एक छोटी-मोटी पुस्तकें पढ़कर ज्योतिषी बन बैठते हैं और लोगों को ठगतें फिरते हैं। ऐसी दशा में उनकी बातों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है?”
रामेश्वरी—“हूँ, सब झूठे ही हैं, तुम्हीं एक बड़े सच्चे हो। अच्छा, एक बात पूछती हूँ। भला तुम्हारे जी में संतान का मुख देखने की इच्छा क्या कभी नहीं होती?”
इस बार रामेश्वरी ने बाबू साहब के हृदय का कोमल स्थान पकड़ा। वह कुछ देर चुप रहे। तत्पश्चात एक लंबी साँस लेकर बोले—“भला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जिसके हृदय में संतान का मुख देखने की इच्छा न हो? परंतु क्या किया जाए? जब नहीं है, और न होने की कोई आशा ही है, तब उसके लिए व्यर्थ चिंता करने से क्या लाभ? इसके सिवा जो बात अपनी संतान से होती, वही भाई की संतान से हो भी रही है। जितना स्नेह अपनी पर होता, उतना ही इन पर भी है जो आनंद उसकी बाल क्रीड़ा से आता, वही इनकी क्रीड़ा से भी आ रहा है। फिर नहीं समझता कि चिंता क्यों की जाए।”
रामेश्वरी कुढ़कर बोलीं—“तुम्हारी समझ को मैं क्या कहूँ? इसी से तो रात-दिन जला करती हूँ, भला तो यह बताओ कि तुम्हारे पीछे क्या इन्हीं से तुम्हारा नाम चलेगा?”'
बाबू साहब हँसकर बोले—“अरे, तुम भी कहाँ की क्षुद्र बातें लार्इ। नाम संतान से नहीं चलता। नाम अपनी सुकृति से चलता है। तुलसीदास को देश का बच्चा-बच्चा जानता है। सूरदास को मरे कितने दिन हो चुके। इसी प्रकार जितने महात्मा हो गए हैं, उन सबका नाम क्या उनकी संतान की बदौलत चल रहा है? सच पूछो, तो संतान से जितनी नाम चलने की आशा रहती है, उतनी ही नाम डूब जाने की संभावना रहती है। परंतु सुकृति एक ऐसी वस्तु है, जिसमें नाम बढ़ने के सिवा घटने की आशंका रहती ही नहीं। हमारे शहर में राय गिरधारीलाल कितने नामी थे। उनके संतान कहाँ है। पर उनकी धर्मशाला और अनाथालय से उनका नाम अब तक चला आ रहा है, अभी न जाने कितने दिनों तक चला जाएगा।
रामेश्वरी—“शास्त्र में लिखा है जिसके पुत्र नहीं होता, उनकी मुक्ति नहीं होती ?”
बाबू—“मुक्ति पर मुझे विश्वास नहीं। मुक्ति है किस चिड़िया का नाम? यदि मुक्ति होना भी मान लिया जाए, वो यह कैसे माना जा सकता है कि सब पुत्रवालों की मुक्ति हो ही जाती है! मुक्ति का भी क्या सहज उपाय है? ये जितने पुत्रवाले हैं, सभी को तो मुक्ति हो जाती होगी ?”
रामेश्वरी निरूत्तर होकर बोलीं—”अब तुमसे कौन बकवास करे! तुम तो अपने सामने किसी को मानते ही नहीं।”
(तीन)
मनुष्य का हृदय बड़ा ममत्व-प्रेमी है। कैसी ही उपयोगी और कितनी ही सुंदर वस्तु क्यों न हो, जब तक मनुष्य उसको पराई समझता है, तब तक उससे प्रेम नहीं करता। किंतु भद्दी से भद्दी और बिलकुल काम में न आने वाली वस्तु को यदि मनुष्य अपनी समझता है, तो उससे प्रेम करता है। पराई वस्तु कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो, कितनी ही उपयोगी क्यों न हो, कितनी ही सुंदर क्यों न हो, उसके नष्ट होने पर मनुष्य कुछ भी दु:ख का अनुभव नहीं करता, इसलिए कि वह वस्तु उसकी नहीं, पराई है। अपनी वस्तु कितनी ही भद्दी हो, काम में न आने वाली हो, नष्ट होने पर मनुष्य को दु:ख होता है, इसलिए कि वह अपनी चीज़ है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य पराई चीज़ से प्रेम करने लगता है। ऐसी दशा में भी जब तक मनुष्य उस वस्तु को अपना बनाकर नहीं छोड़ता, अथवा हृदय में यह विचार नहीं कर लेता कि वह वस्तु मेरी है, तब तक उसे संतोष नहीं होता। ममत्व से प्रेम उत्पन्न होता है, और प्रेम से ममत्व। इन दोनों का साथ चोली-दामन का सा है। ये कभी पृथक नहीं किए जा सकते।
यद्यपि रामेश्वरी को माता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था, तथापि उनका हृदय एक माता का हृदय बनने की पूरी योग्यता रखता था। उनके हृदय में वे गुण विद्यमान तथा अंतर्निहित थे, जो एक माता के हृदय में होते हैं, परंतु उसका विकास नहीं हुआ था। उनका हृदय उस भूमि की तरह था, जिसमें बीज तो पड़ा हुआ है, पर उसको सींचकर और इस प्रकार बीज को प्रस्फुटित करके भूमि के ऊपर लाने वाला कोई नहीं। इसीलिए उनका हृदय उन बच्चों की और खिंचता तो था, परंतु जब उन्हें ध्यान आता था कि ये बच्चे मेरे नहीं, दूसरे के है, तब उनके हृदय में उनके प्रति द्वेष उत्पन्न होता था, घृणा पैदा होती थी। विशेषकर उस समय उनके द्वेष की मात्रा और भी बढ़ जाती थी, जब वह यह देखती थीं कि उनके पतिदेव उन बच्चों पर प्राण देते हैं, जो उनके (रामेश्वरी के) नहीं हैं।
शाम का समय था। रामेश्वरी खुली छत पर बैठी हवा खा रही थीं। पास उनकी देवरानी भी बैठी थी। दोनों बच्चे छत पर दौड़-दौड़कर खेल रहे थे। रामेश्वरी उनके खेल को देख रही थीं। इस समय रामेश्वरी को उन बच्चों का खेलना-कूदना बड़ा भला मालूम हो रहा था। हवा में उड़ते हुए उनके बाल, कमल की तरह खिले उनके नन्हें-नन्हें मुख, उनकी प्यारी-प्यारी तोतली बातें, उनका चिल्लाना, भागना, लौट जाना इत्यादि क्रीड़ाएँ उसके हृदय को शीतल कर रहीं थीं। सहसा मनोहर अपनी बहन को मारने दौड़ा। वह खिलखिलाती हुई दौड़कर रामेश्वरी की गोद में जा गिरी। उसके पीछे-पीछे मनोहर भी दौड़ता हुआ आया और वह भी उन्हीं की गोद में जा गिरा। रामेश्वरी उस समय सारा द्वेष भूल गई। उन्होंने दोनों बच्चों को उसी प्रकार हृदय से लगा लिया, जिस प्रकार वह मनुष्य लगाता है, जो कि बच्चों के लिए तरस रहा हो। उन्होंने बड़ी सतृष्णता से दोनों को प्यार किया। उस समय यदि कोई अपरिचित मनुष्य उन्हें देखता, तो उसे यह विश्वास होता कि रामेश्वरी उन बच्चों की माता है।
दोनों बच्चे बड़ी देर तक उनकी गोद में खेलते रहे। सहसा उसी समय किसी के आने की आहट पाकर बच्चों की माता वहाँ से उठकर चली गई।
“मनोहर, ले रेलगाड़ी।” कहते हुए बाबू रामजीदास छत पर आए। उनका स्वर सुनते ही दोनों बच्चे रामेश्वरी की गोद से तड़पकर निकल भागे। रामजीदास ने पहले दोनों को ख़ूब प्यार किया, फिर बैठकर रेलगाड़ी दिखाने लगे।
इधर रामेश्वरी की नींद टूटी। पति को बच्चों में मगन होते देखकर उनकी भौहें तन गईं। बच्चों के प्रति हृदय में फिर वही घृणा और द्वेष भाव जाग उठा।
बच्चों को रेलगाड़ी देकर बाबू साहब रामेश्वरी के पास आए और मुस्कराकर बोले—“आज तो तुम बच्चों को बड़ा प्यार कर रही थीं। इससे मालूम होता है कि तुम्हारे हृदय में भी उनके प्रति कुछ प्रेम अवश्य है।”
रामेश्वरी को पति की यह बात बहुत बुरी लगी। उन्हें अपनी कमज़ोरी पर बड़ा दु:ख हुआ। केवल दु:ख ही नहीं, अपने उपर क्रोध भी आया। वह दु:ख और क्रोध पति के उक्त वाक्य से और भी बढ़ गया। उनकी कमज़ोरी पति पर प्रकट हो गई, यह बात उनके लिए असह्य हो उठी।
रामजीदास बोले—“इसीलिए मैं कहता हूँ कि अपनी संतान के लिए सोच करना वृथा है। यदि तुम इनसे प्रेम करने लगो, तो तुम्हें ये ही अपनी संतान प्रतीत होने लगेंगे। मुझे इस बात से प्रसन्नता है कि तुम इनसे स्नेह करना सीख रही हो।”
यह बात बाबू साहब ने नितांत हृदय से कही थी, परंतु रामेश्वरी को इसमें व्यंग की तीक्ष्ण गंध मालूम हुई। उन्होंने कुढ़कर मन में कहा—“इन्हें मौत भी नहीं आती। मर जाएँ, पाप कटे! आठों पहर आँखों के सामने रहने से प्यार को जी ललचा ही उठता है। इनके मारे कलेजा और भी जला करता है।”
बाबू साहब ने पत्नी को मौन देखकर कहा—“अब झेंपने से क्या लाभ। अपने प्रेम को छिपाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। छिपाने की आवश्यकता भी नहीं।”
रामेश्वरी जल-भुनकर बोलीं—“मुझे क्या पड़ी है, जो मैं प्रेम करूँगी? तुम्हीं को मुबारक रहे। निगोड़े आप ही आ-आ के घुसते हैं। एक घर में रहने में कभी-कभी हँसना बोलना पड़ता ही है। अभी परसों ज़रा यूँ ही ढकेल दिया, उस पर तुमने सैकड़ों बातें सुनाईं। संकट में प्राण हैं, न यों चैन, न वों चैन।”
बाबू साहब को पत्नी के वाक्य सुनकर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कर्कश स्वर में कहा—“न जाने कैसे हृदय की स्त्री है! अभी अच्छी-ख़ासी बैठी बच्चों से प्यार कर रही थी। मेरे आते ही गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी। अपनी इच्छा से चाहे जो करे, पर मेरे कहने से बल्लियों उछलती है। न जाने मेरी बातों में कौन-सा विष घुला रहता है। यदि मेरा कहना ही बुरा मालूम होता है, तो न कहा करूँगा। पर इतना याद रखो कि अब कभी इनके विषय में निगोड़े-सिगोड़े इत्यादि अपशब्द निकाले, तो अच्छा न होगा। तुमसे मुझे ये बच्चे कहीं अधिक प्यारे हैं।”
रामेश्वरी ने इसका कोई उत्तर न दिया। अपने क्षोभ तथा क्रोध को वे आँखों द्वारा निकालने लगीं।
जैसे-ही-जैसे बाबू रामजीदास का स्नेह दोनों बच्चों पर बढ़ता जाता था, वैसे-ही-वैसे रामेश्वरी के द्वेष और घृणा की मात्रा भी बढ़ती जाती थी। प्राय: बच्चों के पीछे पति-पत्नी में कहा सुनी हो जाती थी, और रामेश्वरी को पति के कटु वचन सुनने पड़ते थे। जब रामेश्वरी ने यह देखा कि बच्चों के कारण ही वह पति की नज़र से गिरती जा रही हैं, तब उनके हृदय में बड़ा तूफ़ान उठा। उन्होंने यह सोचा-पराए बच्चों के पीछे यह मुझसे प्रेम कम करते जाते हैं, हर समय बुरा-भला कहा करते हैं, इनके लिए ये बच्चे ही सब कुछ हैं, मैं कुछ भी नहीं। दुनिया मरती जाती है, पर दोनों को मौत नहीं। ये पैदा होते ही क्यों न मर गए। न ये होते, न मुझे ये दिन देखने पड़ते। जिस दिन ये मरेंगे, उस दिन घी के दिये जलाउँगी। इन्होंने ही मेरे घर का सत्यानाश कर रक्खा है।
(चार)
इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए। एक दिन नियमानुसार रामेश्वरी छत पर अकेली बैठी हुई थीं उनके हृदय में अनेक प्रकार के विचार आ रहे थे। विचार और कुछ नहीं, अपनी निज की संतान का अभाव, पति का भाई की संतान के प्रति अनुराग इत्यादि। कुछ देर बाद जब उनके विचार स्वयं उन्हीं को कष्टदायक प्रतीत होने लगे, तब वह अपना ध्यान दूसरी और लगाने के लिए टहलने लगीं।
वह टहल ही रही थीं कि मनोहर दौड़ता हुआ आया। मनोहर को देखकर उनकी भृकुटी चढ़ गई। और वह छत की चहारदीवारी पर हाथ रखकर खड़ी हो गईं।
संध्या का समय था। आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ रही थीं। मनोहर कुछ देर तक खड़ा पतंगों को देखता और सोचता रहा कि कोई पतंग कटकर उसकी छत पर गिरे, क्या आनंद आवे! देर तक गिरने की आशा करने के बाद दौड़कर रामेश्वरी के पास आया, और उनकी टाँगों में लिपटकर बोला—“ताई, हमें पतंग मँगा दो।” रामेश्वरी ने झिड़ककर कहा—“चल हट, अपने ताऊ से माँग जाकर।”
मनोहर कुछ अप्रतिभ-सा होकर फिर आकाश की ओर ताकने लगा। थोड़ी देर बाद उससे फिर रहा न गया। इस बार उसने बड़े लाड़ में आकर अत्यंत करूण स्वर में कहा—“ताई मँगा दो, हम भी उड़ाएँगे।”
इस बार उसकी भोली प्रार्थना से रामेश्वरी का कलेजा कुछ पसीज गया। वह कुछ देर तक उसकी ओर स्थिर दृष्टि से देखती रही। फिर उन्होंने एक लंबी साँस लेकर मन ही मन कहा-यह मेरा पुत्र होता तो आज मुझसे बढ़कर भाग्यवान स्त्री संसार में दूसरी न होती। निगोड़ा-मरा कितना सुंदर है, और कैसी प्यारी-प्यारी बातें करता है। यही जी चाहता है कि उठाकर छाती से लगा लें।
यह सोचकर वह उसके सिर पर हाथ फेरने वाली थीं कि इतने में उन्हें मौन देखकर बोला—“तुम हमें पतंग नहीं मँगवा दोगी, तो ताऊजी से कहकर तुम्हें पिटवाएँगे।”
यद्यपि बच्चे की इस भोली बात में भी मधुरता थी, तथापि रामेश्वरी का मुँह क्रोध के मारे लाल हो गया। वह उसे झिड़ककर बोलीं—“जा कह दे अपने ताऊजी से। देखें, वह मेरा क्या कर लेंगे।”
मनोहर भयभीत होकर उनके पास से हट आया, और फिर सतृष्ण नेत्रों से आकाश में उड़ती हुई पतंगों को देखने लगा।
इधर रामेश्वरी ने सोचा—यह सब ताऊजी के दुलार का फल है कि बालिश्त भर का लड़का मुझे धमकाता है। ईश्वर करे, इस दुलार पर बिजली टूटे।
उसी समय आकाश से एक पतंग कटकर उसी छत की ओर आई और रामेश्वरी के ऊपर से होती हुई छज्जे की ओर गई। छत के चारों ओर चहार-दीवारी थी। जहाँ रामेश्वरी खड़ी हुई थीं, केवल वहाँ पर एक द्वार था, जिससे छज्जे पर आ-जा सकते थे। रामेश्वरी उस द्वार से सटी हुई खड़ी थीं। मनोहर ने पतंग को छज्जे पर जाते देखा। पतंग पकड़ने के लिए वह दौड़कर छज्जे की ओर चला। रामेश्वरी खड़ी देखती रहीं। मनोहर उसके पास से होकर छज्जे पर चला गया, और उससे दो फीट की दूरी पर खड़ा होकर पतंग को देखने लगा। पतंग छज्जे पर से होती हुई नीचे घर के आँगन में जा गिरी। एक पैर छज्जे की मुँड़ेर पर रखकर मनोहर ने नीचे आँगन में झाँका और पतंग को आँगन में गिरते देख, वह प्रसन्नता के मारे फूला न समाया। वह नीचे जाने के लिए शीघ्रता से घूमा, परंतु घूमते समय मुँड़ेर पर से उसका पैर फिसल गया। वह नीचे की ओर चला। नीचे जाते-जाते उसके दोनों हाथों में मुँड़ेर आ गई। वह उसे पकड़कर लटक गया और रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्लाया “ताई!”
रामेश्वरी ने धड़कते हुए हृदय से इस घटना को देखा। उनके मन में आया कि अच्छा है, मरने दो, सदा का पाप कट जाएगा। यही सोचकर वह एक क्षण रूकीं। इधर मनोहर के हाथ मुँड़ेर पर से फिसलने लगे। वह अत्यंत भय तथा करुण नेत्रों से रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्लाया—“अरी ताई!” रामेश्वरी की आँखें मनोहर की आँखों से जा मिलीं। मनोहर की वह करुण दृष्टि देखकर रामेश्वरी का कलेजा मुँह में आ गया। उन्होंने व्याकुल होकर मनोहर को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। उनका हाथ मनोहर के हाथ तक पहुँचा ही कि मनोहर के हाथ से मुँड़ेर छूट गई। वह नीचे आ गिरा। रामेश्वरी चीख़ मारकर छज्जे पर गिर पड़ीं।
रामेश्वरी एक सप्ताह तक बुख़ार से बेहोश पड़ी रहीं। कभी-कभी ज़ोर से चिल्ला उठतीं, और कहतीं—“देखो-देखो, वह गिरा जा रहा है—उसे बचाओ, दौड़ो—मेरे मनोहर को बचा लो।” कभी वह कहतीं—“बेटा मनोहर, मैंने तुझे नहीं बचाया। हाँ, हाँ, मैं चाहती तो बचा सकती थी—देर कर दी।” इसी प्रकार के प्रलाप वह किया करतीं।
मनोहर की टाँग उखड़ गई थी, टाँग बिठा दी गई। वह क्रमश: फिर अपनी असली हालत पर आने लगा।
एक सप्ताह बाद रामेश्वरी का ज्वर कम हुआ। अच्छी तरह होश आने पर उन्होंने पूछा—“मनोहर कैसा है?”
रामजीदास ने उत्तर दिया—”अच्छा है।”
रामेश्वरी—“उसे पास लाओ।”
मनोहर रामेश्वरी के पास लाया गया। रामेश्वरी ने उसे बड़े प्यार से हृदय से लगाया। आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई, हिचकियों से गला रुँध गया। रामेश्वरी कुछ दिनों बाद पूर्ण स्वस्थ हो गईं। अब वह मनोहर और उसकी बहन चुन्नी से द्वेष नहीं करतीं। और मनोहर तो अब उसका प्राणाधार हो गया। उसके बिना उन्हें एक क्षण भी कल नहीं पड़ती।
tauji, hamein lelgaDi (relgaDi) la doge? kahta hua ek panchwarshiy balak babu ramjidas ki or dauDa babu sahab ne donno banhen phailakar kaha—han beta,la denge unke itna kahte kahte balak unke nikat aa gaya unhonne balak ko god mein utha liya aur uska mukh chumkar bole—kya karega relgaDi?
balak bola—usmen baithkar bali dool jayenge hum b jayenge, chunni ko b le jayenge babuji ko nahin le jayenge hamein lelgaDi nahin la dete tauji tum la doge, to tumhein le jayenge
babu—aur kise le jayega?
balak dam bhar sochkar bola—bachh aul kichhi ko nahin le jayenge
pas hi babu ramjidas ki arddhangini baithi theen babu sahab ne unki or ishara karke kaha—aur apni tai ko nahin le jayega?
balak kuch der tak apni tai ki aur dekhta raha taiji us samay kuch chiDhi hui si baithi theen balak ko unke mukh ka wo bhaw achchha na laga atew wo bola—tai ko nahin le jayenge
taiji supari katti hui bolin—apne tauji hi ko le ja, mere upar daya rakh
tai ne ye baat baDi rukhai ke sath kahi balak tai ke shushk wywahar ko turant taD gaya babu sahab ne phir puchha—tai ko kyon nahin le jayega?
balak—tai hamein pyal (pyar), nahin kaltin
babu—jo pyar karen to le jayega?
balak ko ismen kuch sandeh tha tai ke bhaw dekhkar use ye aasha nahin thi ki wo pyar karengi isse balak maun raha
babu sahab ne phir puchha—kyon re bolta nahin? tai pyar karen to rail par bithakar le jayega?
balak ne tauji ko prasann karne ke liye kewal sir hilakar swikar kar liya, parantu mukh se kuch nahin kaha
babu sahab use apni arddhangini ke pas le jakar unse bole—lo, ise pyar kar lo to tumhein le jayega parantu bachche ki tai shirimati rameshwri ko pati ki ye chughalbazi achchhi na lagi wo tunakkar bolin—tumhin rail par baithkar jao, mujhe nahin jana hai
babu sahab ne rameshwri ki baat par dhyan nahin diya bachche ko unki god mein baithane ki cheshta karte hue bole—pyar nahin karogi, to phir rail mein nahin bithawega —kyon re manohar?
manohar ne tau ki baat ka uttar nahin diya udhar tai ne manohar ko apni god se Dhakel diya manohar niche gir paDa sharir mein to chot nahin lagi, par hirdai mein chot lagi balak ro paDa
babu sahab ne balak ko god mein utha liya chumkar puchkarkar chup kiya aur tatpashchat use kuch paisa tatha relgaDi la dene ka wachan dekar chhoD diya balak manohar bhaypurn dॄshti se apni tai ki or takta hua us sthan se chala gaya
manohar ke chale jane par babu ramjidas rameshwri se bole—tumhara ye kaisa wywahar hai? bachche ko Dhakel diya jo use chot lag jati to?
rameshwri munh matkakar bolin—lag jati to achchha hota kyon meri khopaDi par lade dete the? aap hi mere upar Dalte the aur aap hi ab aisi baten karte hain
babu sahab kuDhkar bole—isi ko khopaDi par ladna kahte hain?
rameshwri—aur kise kahte hain? tumhein to apne aage aur kisi ka duhakh sukh sujhta hi nahin na jane kab kiska ji kaisa hota hai tumhein un baton ki koi parwah hi nahin, apni chuhal se kaam hai
babu—bachchon ki pyari pyari baten sunkar to chahe jaisa ji ho, prasann ho jata hai magar tumhara hirdai na jane kis dhatu ka bana hua hai?
rameshwri—tumhara ho jata hoga aur hone ko hota hai, magar waisa bachcha bhi to ho paraye dhan se bhi kahin ghar bharta hai?
babu sahab kuch der chup rahkar bole—yadi apna saga bhatija bhi paraya dhan kaha ja sakta hai, to phir main nahin samajhta ki apna dhan kise kahenge?
rameshwri kuch uttejit hokar bolin—baten banana bahut asan hai tumhara bhatija hai, tum chahe jo samjho, par mujhe ye baten achchhi nahin lagtin hamare bhag hi phute hain, nahin to ye din kahe ko dekhne paDte tumhara chalan to duniya se nirala hai adami santan ke liye na jane kya kya karte hain—puja path karte hain, wart rakhte hain, par tumhein in baton se kya kaam? raat din bhai bhatijon mein magan rahte ho
babu sahab ke mukh par ghrina ka bhaw jhalak aaya unhonne kaha—puja path, wart sab Dhakosala hai jo wastu bhagya mein nahin, wo puja path se kabhi prapt nahin ho sakti mera to ye atal wishwas hai
shrimtiji kuch kuch runase swar mein bolin—isi wishwas ne sab chaupat kar rakha hai aise hi wishwas par sab baith jayen to kaam kaise chale? sab wishwas par hi na baithe rahen, adami kahe ko kisi baat ke liye cheshta kare
babu sahab ne socha ki moorkh istri ke munh lagna theek nahin atew wo istri ki baat ka kuch uttar na dekar wahan se tal gaye
2
babu ramjidas dhani adami hain kapDe ki aDhat ka kaam karte hain len den bhi hai inse ek chhota bhai hai, uska nam hai krishndas donon bhaiyon ka pariwar ek mein hi hai babu ramdas ji ki aayu 35 ke lagbhag hai aur chhote bhai krishndas ki aayu 21 ke lagbhag ramdasji nissantan hain krishndas ke do santanen hain ek putr wahi putr, jisse pathak parichit ho chuke hain—aur ek kanya hai kanya ki way do warsh ke lagbhag hai
ramdasji aapne chhote bhai aur unki santan par baDa sneh rakhte hain—aisa sneh ki uske prabhaw se unhen apni santanhinta kabhi khatakti hi nahin chhote bhai ki santan ko apni santan samajhte hain donon bachche bhi ramdas se itne hile hain ki unhen apne pita se bhi adhik samajhte hain
parantu ramdas ki patni rameshwri ko apni santanhinta ka baDa duhakh hai wo din raat santan hi ke soch mein ghuli rahti hain chhote bhai ki santan par pati ka prem unki ankho mein kante ki tarah khatakta hai
raat ke bhojan ityadi se niwrtt hokar ramjidas shaiya par lete shital aur mand wayu ka anand le rahe hain pas hi dusri shaiya par rameshwri, hatheli par sir rakhe, kisi chinta mein Dubi hui theen donon bachche abhi babu sahab ke pas se uthkar apni man ke pas gaye the babu sahab ne apni istri ki or karwat lekar kaha—aj tumne manohar ko buri tarah Dhakela tha ki mujhe ab tak uska duhakh hai kabhi kabhi to tumhara wywahar amanushaik ho uthta hai
rameshwri bolin—tumhin ne mujhe aisa bana rakkha hai us din us panDit ne kaha ki hum donon ke janm patr mein santan ka jog hai aur upay karne se santan ho sakti hai usne upay bhi bataye the, par tumne unmen se ek bhi upay karke na dekha bus, tum to inhin donon mein magan ho tumhari is baat se raat din mera kaleja sulagta rahta hai adami upay to karke dekhta hai phir hona na hona bhagwan ke adhin hai
babu sahab hansakar bole—tumhari jaisi sidhi istri bhi kya kahun? tum in jyotishiyon ki baton par wishwas karti ho, jo duniya bhar ke jhuthe aur dhoort hain jhooth bolne hi ki rotiyan khate hain
rameshwri tunakkar bolin—tumhen to sara sansar jhutha hi dikhai paDta hai ye pothi puran bhi sab jhuthe hain? panDit kuch apni taraf se banakar to kahte nahin hain shastr mein jo likha hai, wahi we bhi kahte hain, wo jhutha hai to we bhi jhuthe hain angrezi kya paDhi, apne aage kisi ko ginte hi nahin jo baten bap dade ke zamane se chali i hain, unhen bhi jhutha batate hain
babu sahab—tum baat to samajhti nahin, apni hi ote jati ho main ye nahin kah sakta ki jyotish shastr jhutha hai sambhaw hai, wo sachcha ho, parantu jyotishiyon mein adhikansh jhuthe hote hain unhen jyotish ka poorn gyan to hota nahin, do ek chhoti moti pustken paDhkar jyotishi ban baithte hain aur logon ko thagten phirte hain aisi dasha mein unki baton par kaise wishwas kiya ja sakta hai?
rameshwri—hun, sab jhuthe hi hain, tumhin ek baDe sachche ho achchha, ek baat puchhti hoon bhala tumhare ji mein santan ka mukh dekhne ki ichha kya kabhi nahin hoti?
is bar rameshwri ne babu sahab ke hirdai ka komal sthan pakDa wo kuch der chup rahe tatpashchat ek lambi sans lekar bole—bhala aisa kaun manushya hoga, jiske hirdai mein santan ka mukh dekhne ki ichha na ho? parantu kya kiya jaye? jab nahin hai, aur na hone ki koi aasha hi hai, tab uske liye byarth chinta karne se kya labh? iske siwa jo baat apni santan se hoti, wahi bhai ki santan se ho bhi rahi hai jitna sneh apni par hota, utna hi in par bhi hai jo anand uski baal kriDa se aata, wahi inki kriDa se bhi aa raha hai phir nahin samajhta ki chinta kyon ki jaye
rameshwri kuDhkar bolin—tumhari samajh ko main kya kahun? isi se to raat din jala karti hoon, bhala to ye batao ki tumhare pichhe kya inhin se tumhara nam chalega?
babu sahab hansakar bole—are, tum bhi kahan ki kshaudr baten lari nam santan se nahin chalta nam apni sukrti se chalta hai tulsidas ko desh ka bachcha bachcha janta hai surdas ko mare kitne din ho chuke isi prakar jitne mahatma ho gaye hain, un sabka nam kya unki santan ki badaulat chal raha hai? sach puchho, to santan se jitni nam chalne ki aasha rahti hai, utni hi nam Doob jane ki sambhawna rahti hai parantu sukrti ek aisi wastu hai, jismen nam baDhne ke siwa ghatne ki ashanka rahti hi nahin hamare shahr mein ray girdharilal kitne nami the unke santan kahan hai par unki dharmshala aur anathalaya se unka nam ab tak chala aa raha hai, abhi na jane kitne dinon tak chala jayega
babu—mukti par mujhe wishwas nahin mukti hai kis chiDiya ka nam? yadi mukti hona bhi man liya jaye, wo ye kaise mana ja sakta hai ki sab putrwalon ki mukti ho hi jati hai! mukti ka bhi kya sahj upay hai? ye jitne putrwale hain, sabhi ko to mukti ho jati hogi ?
rameshwri niruttar hokar bolin—ab tumse kaun bakwas kare! tum to apne samne kisi ko mante hi nahin
3
manushya ka hirdai baDa mamatw premi hai kaisi hi upyogi aur kitni hi sundar wastu kyon na ho, jab tak manushya usko parai samajhta hai, tab tak usse prem nahin karta kintu bhaddi se bhaddi aur bilkul kaam mein na aane wali wastu ko yadi manushya apni samajhta hai, to usse prem karta hai parai wastu kitni hi mulyawan kyon na ho, kitni hi upyogi kyon na ho, kitni hi sundar kyon na ho, uske nasht hone par manushya kuch bhi duhakh ka anubhaw nahin karta, isliye ki wo wastu, uski nahin, parai hai apni wastu kitni hi bhaddi ho, kaam mein na aane wali ho, nasht hone par manushya ko duhakh hota hai, isliye ki wo apni cheez hai kabhi kabhi aisa bhi hota hai ki manushya parai cheez se prem karne lagta hai aisi dasha mein bhi jab tak manushya us wastu ko apna banakar nahin chhoDta, athwa hirdai mein ye wichar nahin kar leta ki wo wastu meri hai, tab tak use santosh nahin hota mamatw se prem utpann hota hai, aur prem se mamatw in donon ka sath choli daman ka sa hai ye kabhi prithak nahin kiye ja sakte
yadyapi rameshwri ko mata banne ka saubhagya prapt nahin hua tha, tathapi unka hirdai ek mata ka hirdai banne ki puri yogyata rakhta tha unke hirdai mein we gun widyaman tatha antarnihit the, jo ek mata ke hirdai mein hote hain, parantu uska wikas nahin hua tha unka hirdai us bhumi ki tarah tha, jismen beej to paDa hua hai, par usko sinchkar aur is prakar beej ko prasphutit karke bhumi ke upar lane wala koi nahin isiliye unka hirdai un bachchon ki aur khinchta to tha, parantu jab unhen dhyan aata tha ki ye bachche mere nahin, dusre ke hai, tab unke hirdai mein unke prati dwesh utpann hota tha, ghrina paida hoti thi wisheshkar us samay unke dwesh ki matra aur bhi baDh jati thi, jab wo ye dekhti theen ki unke patidew un bachchon par paran dete hain, jo unke (rameshwri ke) nahin hain
sham ka samay tha rameshwri khuli chhat par baithi hawa kha rahi theen pas unki dewrani bhi baithi thi donon bachche chhat par dauD dauDkar khel rahe the rameshwri unke khel ko dekh rahi theen is samay rameshwri ko un bachchon ka khelna kudna baDa bhala malum ho raha tha hawa mein uDte hue unke baal, kamal ki tarah khile unke nanhen nanhen mukh, unki pyari pyari totli baten, unka chillana, bhagna, laut jana ityadi kriDayen uske hirdai ko shital kar rahin theen sahsa manohar apni bahan ko marne dauDa wo khilkhilati hui dauDkar rameshwri ki god mein ja giri uske pichhe pichhe manohar bhi dauDta hua aaya aur wo bhi unhin ki god mein ja gira rameshwri us samay sara dwesh bhool gain unhonne donon bachchon ko usi prakar hirdai se laga liya, jis prakar wo manushya lagata hai, jo ki bachchon ke liye taras raha ho unhonne baDi satrishnta se donon ko pyar kiya us samay yadi koi aprichit manushya unhen dekhta, to use ye wishwas hota ki rameshwri un bachchon ki mata hai
donon bachche baDi der tak unki god mein khelte rahe sahsa usi samay kisi ke aane ki aahat pakar bachchon ki mata wahan se uthkar chali gai
manohar, le relgaDi kahte hue babu ramjidas chhat par aaye unka swar sunte hi donon bachche rameshwri ki god se taDapkar nikal bhage ramjidas ne pahle donon ko khoob pyar kiya, phir baithkar relgaDi dikhane lage
idhar rameshwri ki neend tuti pati ko bachchon mein magan hote dekhkar unki bhauhen tan gain bachchon ke prati hirdai mein phir wahi ghrina aur dwesh bhaw jag utha
bachchon ko relgaDi dekar babu sahab rameshwri ke pas aaye aur muskrakar bole—aj to tum bachchon ko baDa pyar kar rahi theen isse malum hota hai ki tumhare hirdai mein bhi unke prati kuch prem awashy hai
rameshwri ko pati ki ye baat bahut buri lagi unhen apni kamzori par baDa duhakh hua kewal duhakh hi nahin, apne upar krodh bhi aaya wo duhakh aur krodh pati ke ukt waky se aur bhi baDh gaya unki kamzori pati par prakat ho gai, ye baat unke liye asahy ho uthi
ramjidas bole—isiliye main kahta hoon ki apni santan ke liye soch karna writha hai yadi tum inse prem karne lago, to tumhein ye hi apni santan pratit hone lagenge mujhe is baat se prasannata hai ki tum inse sneh karna seekh rahi ho
ye baat babu sahab ne nitant hirdai se kahi thi, parantu rameshwri ko ismen wyang ki teekshn gandh malum hui unhonne kuDhkar man mein kaha—inhen maut bhi nahin aati mar jayen, pap kate! athon pahar ankhon ke samne rahne se pyar ko ji lalcha hi uthta hai inke mare kaleja aur bhi jala karta hai
babu sahab ne patni ko maun dekhkar kaha—ab jhempne se kya labh apne prem ko chhipane ki cheshta karna byarth hai chhipane ki awashyakta bhi nahin
rameshwri jal bhunkar bolin—mujhe kya paDi hai, jo main prem karungi? tumhin ko mubarak rahe nigoDe aap hi aa aa ke ghuste hain ek ghar mein rahne mein kabhi kabhi hansna bolna paDta hi hai abhi parson zara yoon hi Dhakel diya, us par tumne saikDon baten sunain sankat mein paran hain, na yoon chain, na woon chain
babu sahab ko patni ke waky sunkar baDa krodh aaya unhonne karkash swar mein kaha—n jane kaise hirdai ki istri hai! abhi achchhi khasi baithi bachchon se pyar kar rahi thi mere aate hi girgit ki tarah rang badalne lagi apni ichha se chahe jo kare, par mere kahne se balliyon uchhalti hai na jane meri baton mein kaun sa wish ghula rahta hai yadi mera kahna hi bura malum hota hai, to na kaha karunga par itna yaad rakho ki ab kabhi inke wishay mein nigoDe sigoDe ityadi apshabd nikale, to achchha na hoga tumse mujhe ye bachche kahin adhik pyare hain
rameshwri ne iska koi uttar na diya apne kshaobh tatha krodh ko we ankhon dwara nikalne lagin
jaise hi jaise babu ramjidas ka sneh donon bachchon par baDhta jata tha, waise hi waise rameshwri ke dwesh aur ghrina ki matra bhi baDhti jati thi prayah bachchon ke pichhe pati patni mein kaha suni ho jati thi, aur rameshwri ko pati ke katu wachan sunne paDte the jab rameshwri ne ye dekha ki bachchon ke karan hi wo pati ki nazar se girti ja rahi hain, tab unke hirdai mein baDa tufan utha unhonne ye socha paraye bachchon ke pichhe ye mujhse prem kam karte jate hain, har samay bura bhala kaha karte hain, inke liye ye bachche hi sab kuch hain, main kuch bhi nahin duniya marti jati hai, par donon ko maut nahin ye paida hote hi kyon na mar gaye na ye hote, na mujhe ye din dekhne paDte jis din ye marenge, us din ghi ke diye jalaungi inhonne hi mere ghar ka satyanash kar rakkha hai
4
isi prakar kuch din wyatit hue ek din niymanusar rameshwri chhat par akeli baithi hui theen unke hirdai mein anek prakar ke wichar aa rahe the wichar aur kuch nahin, apni nij ki santan ka abhaw, pati ka bhai ki santan ke prati anurag ityadi kuch der baad jab unke wichar swayan unhin ko kashtdayak pratit hone lage, tab wo apna dhyan dusri aur lagane ke liye tahalne lagin
wo tahal hi rahi theen ki manohar dauDta hua aaya manohar ko dekhkar unki bhrikuti chaDh gai aur wo chhat ki chaharadiwari par hath rakhkar khaDi ho gain
sandhya ka samay tha akash mein rang birangi patangen uD rahi theen manohar kuch der tak khaDa patangon ko dekhta aur sochta raha ki koi patang katkar uski chhat par gire, kya anand aawe! der tak girne ki aasha karne ke baad dauDkar rameshwri ke pas aaya, aur unki tangon mein lipatkar bola—tai, hamein patang manga do rameshwri ne jhiDakkar kaha—chal hat, apne tau se mang jakar
manohar kuch apratibh sa hokar phir akash ki or takne laga thoDi der baad usse phir raha na gaya is bar usne baDe laD mein aakar atyant karun swar mein kaha—tai manga do, hum bhi uDayenge
in bar uski bholi pararthna se rameshwri ka kaleja kuch pasij gaya wo kuch der tak uski or sthir drishti se dekhti rahi phir unhonne ek lambi sans lekar man hi man kaha ye mera putr hota to aaj mujhse baDhkar bhagyawan istri sansar mein dusri na hoti nigoDa mara kitna sundar hai, aur kaisi pyari pyari baten karta hai yahi ji chahta hai ki uthakar chhati se laga len
ye sochkar wo uske sir par hath pherne wali theen ki itne mein unhen maun dekhkar bola—tum hamein patang nahin mangwa dogi, to tauji se kahkar tumhein pitwayenge
yadyapi bachche ki is bholi baat mein bhi madhurta thi, tathapi rameshwri ka munh krodh ke mare lal ho gaya wo use jhiDakkar bolin—ja kah de apne tauji se dekhen, wo mera kya kar lenge
manohar bhaybhit hokar unke pas se hat aaya, aur phir satrshn netron se akash mein uDti hui patangon ko dekhne laga
idhar rameshwri ne socha—yah sab tauji ke dular ka phal hai ki balisht bhar ka laDka mujhe dhamkata hai ishwar kare, is dular par bijli tute
usi samay akash se ek patang katkar usi chhat ki or i aur rameshwri ke upar se hoti hui chhajje ki or gai chhat ke charon or chahar diwari thi jahan rameshwri khaDi hui theen, kewal wahan par ek dwar tha, jisse chhajje par aa ja sakte the rameshwri us dwar se sati hui khaDi theen manohar ne patang ko chhajje par jate dekha patang pakaDne ke liye wo dauDkar chhajje ki or chala rameshwri khaDi dekhti rahin manohar uske pas se hokar chhajje par chala gaya, aur usse do pheet ki duri par khaDa hokar patang ko dekhne laga patang chhajje par se hoti hui niche ghar ke angan mein ja giri ek pair chhajje ki munDer par rakhkar manohar ne niche angan mein jhanka aur patang ko angan mein girte dekh, wo prasannata ke mare phula na samaya wo niche jane ke liye shighrata se ghuma, parantu ghumte samay munDer par se uska pair phisal gaya wo niche ki or chala niche jate jate uske donon hathon mein munDer aa gai wo use pakaDkar latak gaya aur rameshwri ki or dekhkar chillaya tai!
rameshwri ne dhaDakte hue hirdai se is ghatna ko dekha unke man mein aaya ki achchha hai, marne do, sada ka pap kat jayega yahi sochkar wo ek kshan rukin idhar manohar ke hath munDer par se phisalne lage wo atyant bhay tatha karun netron se rameshwri ki or dekhkar chillaya—ari tai! rameshwri ki ankhen manohar ki ankhon se ja milin manohar ki wo karun drishti dekhkar rameshwri ka kaleja munh mein aa gaya unhonne wyakul hokar manohar ko pakaDne ke liye apna hath baDhaya unka hath manohar ke hath tak pahuncha hi ki manohar ke hath se munDer chhoot gai wo niche aa gira rameshwri cheekh markar chhajje par gir paDin
rameshwri ek saptah tak bukhar se behosh paDi rahin kabhi kabhi zar se chilla uthtin, aur kahtin—dekho dekho, wo gira ja raha hai—use bachao, dauDo—mere manohar ko bacha lo kabhi wo kahtin—beta manohar, mainne tujhe nahin bachaya han, han, main chahti to bacha sakti thi—der kar di isi prakar ke pralap wo kiya kartin
manohar ki tang ukhaD gai thi, tang bitha di gai wo kramshah phir apni asli haalat par aane laga
ek saptah baad rameshwri ka jwar kam hua achchhi tarah hosh aane par unhonne puchha—manohar kaisa hai?
ramjidas ne uttar diya—achchha hai
rameshwri—use pas lao
manohar rameshwri ke pas laya gaya rameshwri ne use baDe pyar se hirdai se lagaya ankhon se ansuon ki jhaDi lag gai, hichakiyon se gala rundh gaya rameshwri kuch dinon baad poorn swasth ho gain ab wo manohar aur uski bahan chunni se dwesh nahin kartin aur manohar to ab uska pranadhar ho gaya uske bina unhen ek kshan bhi kal nahin paDti
tauji, hamein lelgaDi (relgaDi) la doge? kahta hua ek panchwarshiy balak babu ramjidas ki or dauDa babu sahab ne donno banhen phailakar kaha—han beta,la denge unke itna kahte kahte balak unke nikat aa gaya unhonne balak ko god mein utha liya aur uska mukh chumkar bole—kya karega relgaDi?
balak bola—usmen baithkar bali dool jayenge hum b jayenge, chunni ko b le jayenge babuji ko nahin le jayenge hamein lelgaDi nahin la dete tauji tum la doge, to tumhein le jayenge
babu—aur kise le jayega?
balak dam bhar sochkar bola—bachh aul kichhi ko nahin le jayenge
pas hi babu ramjidas ki arddhangini baithi theen babu sahab ne unki or ishara karke kaha—aur apni tai ko nahin le jayega?
balak kuch der tak apni tai ki aur dekhta raha taiji us samay kuch chiDhi hui si baithi theen balak ko unke mukh ka wo bhaw achchha na laga atew wo bola—tai ko nahin le jayenge
taiji supari katti hui bolin—apne tauji hi ko le ja, mere upar daya rakh
tai ne ye baat baDi rukhai ke sath kahi balak tai ke shushk wywahar ko turant taD gaya babu sahab ne phir puchha—tai ko kyon nahin le jayega?
balak—tai hamein pyal (pyar), nahin kaltin
babu—jo pyar karen to le jayega?
balak ko ismen kuch sandeh tha tai ke bhaw dekhkar use ye aasha nahin thi ki wo pyar karengi isse balak maun raha
babu sahab ne phir puchha—kyon re bolta nahin? tai pyar karen to rail par bithakar le jayega?
balak ne tauji ko prasann karne ke liye kewal sir hilakar swikar kar liya, parantu mukh se kuch nahin kaha
babu sahab use apni arddhangini ke pas le jakar unse bole—lo, ise pyar kar lo to tumhein le jayega parantu bachche ki tai shirimati rameshwri ko pati ki ye chughalbazi achchhi na lagi wo tunakkar bolin—tumhin rail par baithkar jao, mujhe nahin jana hai
babu sahab ne rameshwri ki baat par dhyan nahin diya bachche ko unki god mein baithane ki cheshta karte hue bole—pyar nahin karogi, to phir rail mein nahin bithawega —kyon re manohar?
manohar ne tau ki baat ka uttar nahin diya udhar tai ne manohar ko apni god se Dhakel diya manohar niche gir paDa sharir mein to chot nahin lagi, par hirdai mein chot lagi balak ro paDa
babu sahab ne balak ko god mein utha liya chumkar puchkarkar chup kiya aur tatpashchat use kuch paisa tatha relgaDi la dene ka wachan dekar chhoD diya balak manohar bhaypurn dॄshti se apni tai ki or takta hua us sthan se chala gaya
manohar ke chale jane par babu ramjidas rameshwri se bole—tumhara ye kaisa wywahar hai? bachche ko Dhakel diya jo use chot lag jati to?
rameshwri munh matkakar bolin—lag jati to achchha hota kyon meri khopaDi par lade dete the? aap hi mere upar Dalte the aur aap hi ab aisi baten karte hain
babu sahab kuDhkar bole—isi ko khopaDi par ladna kahte hain?
rameshwri—aur kise kahte hain? tumhein to apne aage aur kisi ka duhakh sukh sujhta hi nahin na jane kab kiska ji kaisa hota hai tumhein un baton ki koi parwah hi nahin, apni chuhal se kaam hai
babu—bachchon ki pyari pyari baten sunkar to chahe jaisa ji ho, prasann ho jata hai magar tumhara hirdai na jane kis dhatu ka bana hua hai?
rameshwri—tumhara ho jata hoga aur hone ko hota hai, magar waisa bachcha bhi to ho paraye dhan se bhi kahin ghar bharta hai?
babu sahab kuch der chup rahkar bole—yadi apna saga bhatija bhi paraya dhan kaha ja sakta hai, to phir main nahin samajhta ki apna dhan kise kahenge?
rameshwri kuch uttejit hokar bolin—baten banana bahut asan hai tumhara bhatija hai, tum chahe jo samjho, par mujhe ye baten achchhi nahin lagtin hamare bhag hi phute hain, nahin to ye din kahe ko dekhne paDte tumhara chalan to duniya se nirala hai adami santan ke liye na jane kya kya karte hain—puja path karte hain, wart rakhte hain, par tumhein in baton se kya kaam? raat din bhai bhatijon mein magan rahte ho
babu sahab ke mukh par ghrina ka bhaw jhalak aaya unhonne kaha—puja path, wart sab Dhakosala hai jo wastu bhagya mein nahin, wo puja path se kabhi prapt nahin ho sakti mera to ye atal wishwas hai
shrimtiji kuch kuch runase swar mein bolin—isi wishwas ne sab chaupat kar rakha hai aise hi wishwas par sab baith jayen to kaam kaise chale? sab wishwas par hi na baithe rahen, adami kahe ko kisi baat ke liye cheshta kare
babu sahab ne socha ki moorkh istri ke munh lagna theek nahin atew wo istri ki baat ka kuch uttar na dekar wahan se tal gaye
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babu ramjidas dhani adami hain kapDe ki aDhat ka kaam karte hain len den bhi hai inse ek chhota bhai hai, uska nam hai krishndas donon bhaiyon ka pariwar ek mein hi hai babu ramdas ji ki aayu 35 ke lagbhag hai aur chhote bhai krishndas ki aayu 21 ke lagbhag ramdasji nissantan hain krishndas ke do santanen hain ek putr wahi putr, jisse pathak parichit ho chuke hain—aur ek kanya hai kanya ki way do warsh ke lagbhag hai
ramdasji aapne chhote bhai aur unki santan par baDa sneh rakhte hain—aisa sneh ki uske prabhaw se unhen apni santanhinta kabhi khatakti hi nahin chhote bhai ki santan ko apni santan samajhte hain donon bachche bhi ramdas se itne hile hain ki unhen apne pita se bhi adhik samajhte hain
parantu ramdas ki patni rameshwri ko apni santanhinta ka baDa duhakh hai wo din raat santan hi ke soch mein ghuli rahti hain chhote bhai ki santan par pati ka prem unki ankho mein kante ki tarah khatakta hai
raat ke bhojan ityadi se niwrtt hokar ramjidas shaiya par lete shital aur mand wayu ka anand le rahe hain pas hi dusri shaiya par rameshwri, hatheli par sir rakhe, kisi chinta mein Dubi hui theen donon bachche abhi babu sahab ke pas se uthkar apni man ke pas gaye the babu sahab ne apni istri ki or karwat lekar kaha—aj tumne manohar ko buri tarah Dhakela tha ki mujhe ab tak uska duhakh hai kabhi kabhi to tumhara wywahar amanushaik ho uthta hai
rameshwri bolin—tumhin ne mujhe aisa bana rakkha hai us din us panDit ne kaha ki hum donon ke janm patr mein santan ka jog hai aur upay karne se santan ho sakti hai usne upay bhi bataye the, par tumne unmen se ek bhi upay karke na dekha bus, tum to inhin donon mein magan ho tumhari is baat se raat din mera kaleja sulagta rahta hai adami upay to karke dekhta hai phir hona na hona bhagwan ke adhin hai
babu sahab hansakar bole—tumhari jaisi sidhi istri bhi kya kahun? tum in jyotishiyon ki baton par wishwas karti ho, jo duniya bhar ke jhuthe aur dhoort hain jhooth bolne hi ki rotiyan khate hain
rameshwri tunakkar bolin—tumhen to sara sansar jhutha hi dikhai paDta hai ye pothi puran bhi sab jhuthe hain? panDit kuch apni taraf se banakar to kahte nahin hain shastr mein jo likha hai, wahi we bhi kahte hain, wo jhutha hai to we bhi jhuthe hain angrezi kya paDhi, apne aage kisi ko ginte hi nahin jo baten bap dade ke zamane se chali i hain, unhen bhi jhutha batate hain
babu sahab—tum baat to samajhti nahin, apni hi ote jati ho main ye nahin kah sakta ki jyotish shastr jhutha hai sambhaw hai, wo sachcha ho, parantu jyotishiyon mein adhikansh jhuthe hote hain unhen jyotish ka poorn gyan to hota nahin, do ek chhoti moti pustken paDhkar jyotishi ban baithte hain aur logon ko thagten phirte hain aisi dasha mein unki baton par kaise wishwas kiya ja sakta hai?
rameshwri—hun, sab jhuthe hi hain, tumhin ek baDe sachche ho achchha, ek baat puchhti hoon bhala tumhare ji mein santan ka mukh dekhne ki ichha kya kabhi nahin hoti?
is bar rameshwri ne babu sahab ke hirdai ka komal sthan pakDa wo kuch der chup rahe tatpashchat ek lambi sans lekar bole—bhala aisa kaun manushya hoga, jiske hirdai mein santan ka mukh dekhne ki ichha na ho? parantu kya kiya jaye? jab nahin hai, aur na hone ki koi aasha hi hai, tab uske liye byarth chinta karne se kya labh? iske siwa jo baat apni santan se hoti, wahi bhai ki santan se ho bhi rahi hai jitna sneh apni par hota, utna hi in par bhi hai jo anand uski baal kriDa se aata, wahi inki kriDa se bhi aa raha hai phir nahin samajhta ki chinta kyon ki jaye
rameshwri kuDhkar bolin—tumhari samajh ko main kya kahun? isi se to raat din jala karti hoon, bhala to ye batao ki tumhare pichhe kya inhin se tumhara nam chalega?
babu sahab hansakar bole—are, tum bhi kahan ki kshaudr baten lari nam santan se nahin chalta nam apni sukrti se chalta hai tulsidas ko desh ka bachcha bachcha janta hai surdas ko mare kitne din ho chuke isi prakar jitne mahatma ho gaye hain, un sabka nam kya unki santan ki badaulat chal raha hai? sach puchho, to santan se jitni nam chalne ki aasha rahti hai, utni hi nam Doob jane ki sambhawna rahti hai parantu sukrti ek aisi wastu hai, jismen nam baDhne ke siwa ghatne ki ashanka rahti hi nahin hamare shahr mein ray girdharilal kitne nami the unke santan kahan hai par unki dharmshala aur anathalaya se unka nam ab tak chala aa raha hai, abhi na jane kitne dinon tak chala jayega
babu—mukti par mujhe wishwas nahin mukti hai kis chiDiya ka nam? yadi mukti hona bhi man liya jaye, wo ye kaise mana ja sakta hai ki sab putrwalon ki mukti ho hi jati hai! mukti ka bhi kya sahj upay hai? ye jitne putrwale hain, sabhi ko to mukti ho jati hogi ?
rameshwri niruttar hokar bolin—ab tumse kaun bakwas kare! tum to apne samne kisi ko mante hi nahin
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manushya ka hirdai baDa mamatw premi hai kaisi hi upyogi aur kitni hi sundar wastu kyon na ho, jab tak manushya usko parai samajhta hai, tab tak usse prem nahin karta kintu bhaddi se bhaddi aur bilkul kaam mein na aane wali wastu ko yadi manushya apni samajhta hai, to usse prem karta hai parai wastu kitni hi mulyawan kyon na ho, kitni hi upyogi kyon na ho, kitni hi sundar kyon na ho, uske nasht hone par manushya kuch bhi duhakh ka anubhaw nahin karta, isliye ki wo wastu, uski nahin, parai hai apni wastu kitni hi bhaddi ho, kaam mein na aane wali ho, nasht hone par manushya ko duhakh hota hai, isliye ki wo apni cheez hai kabhi kabhi aisa bhi hota hai ki manushya parai cheez se prem karne lagta hai aisi dasha mein bhi jab tak manushya us wastu ko apna banakar nahin chhoDta, athwa hirdai mein ye wichar nahin kar leta ki wo wastu meri hai, tab tak use santosh nahin hota mamatw se prem utpann hota hai, aur prem se mamatw in donon ka sath choli daman ka sa hai ye kabhi prithak nahin kiye ja sakte
yadyapi rameshwri ko mata banne ka saubhagya prapt nahin hua tha, tathapi unka hirdai ek mata ka hirdai banne ki puri yogyata rakhta tha unke hirdai mein we gun widyaman tatha antarnihit the, jo ek mata ke hirdai mein hote hain, parantu uska wikas nahin hua tha unka hirdai us bhumi ki tarah tha, jismen beej to paDa hua hai, par usko sinchkar aur is prakar beej ko prasphutit karke bhumi ke upar lane wala koi nahin isiliye unka hirdai un bachchon ki aur khinchta to tha, parantu jab unhen dhyan aata tha ki ye bachche mere nahin, dusre ke hai, tab unke hirdai mein unke prati dwesh utpann hota tha, ghrina paida hoti thi wisheshkar us samay unke dwesh ki matra aur bhi baDh jati thi, jab wo ye dekhti theen ki unke patidew un bachchon par paran dete hain, jo unke (rameshwri ke) nahin hain
sham ka samay tha rameshwri khuli chhat par baithi hawa kha rahi theen pas unki dewrani bhi baithi thi donon bachche chhat par dauD dauDkar khel rahe the rameshwri unke khel ko dekh rahi theen is samay rameshwri ko un bachchon ka khelna kudna baDa bhala malum ho raha tha hawa mein uDte hue unke baal, kamal ki tarah khile unke nanhen nanhen mukh, unki pyari pyari totli baten, unka chillana, bhagna, laut jana ityadi kriDayen uske hirdai ko shital kar rahin theen sahsa manohar apni bahan ko marne dauDa wo khilkhilati hui dauDkar rameshwri ki god mein ja giri uske pichhe pichhe manohar bhi dauDta hua aaya aur wo bhi unhin ki god mein ja gira rameshwri us samay sara dwesh bhool gain unhonne donon bachchon ko usi prakar hirdai se laga liya, jis prakar wo manushya lagata hai, jo ki bachchon ke liye taras raha ho unhonne baDi satrishnta se donon ko pyar kiya us samay yadi koi aprichit manushya unhen dekhta, to use ye wishwas hota ki rameshwri un bachchon ki mata hai
donon bachche baDi der tak unki god mein khelte rahe sahsa usi samay kisi ke aane ki aahat pakar bachchon ki mata wahan se uthkar chali gai
manohar, le relgaDi kahte hue babu ramjidas chhat par aaye unka swar sunte hi donon bachche rameshwri ki god se taDapkar nikal bhage ramjidas ne pahle donon ko khoob pyar kiya, phir baithkar relgaDi dikhane lage
idhar rameshwri ki neend tuti pati ko bachchon mein magan hote dekhkar unki bhauhen tan gain bachchon ke prati hirdai mein phir wahi ghrina aur dwesh bhaw jag utha
bachchon ko relgaDi dekar babu sahab rameshwri ke pas aaye aur muskrakar bole—aj to tum bachchon ko baDa pyar kar rahi theen isse malum hota hai ki tumhare hirdai mein bhi unke prati kuch prem awashy hai
rameshwri ko pati ki ye baat bahut buri lagi unhen apni kamzori par baDa duhakh hua kewal duhakh hi nahin, apne upar krodh bhi aaya wo duhakh aur krodh pati ke ukt waky se aur bhi baDh gaya unki kamzori pati par prakat ho gai, ye baat unke liye asahy ho uthi
ramjidas bole—isiliye main kahta hoon ki apni santan ke liye soch karna writha hai yadi tum inse prem karne lago, to tumhein ye hi apni santan pratit hone lagenge mujhe is baat se prasannata hai ki tum inse sneh karna seekh rahi ho
ye baat babu sahab ne nitant hirdai se kahi thi, parantu rameshwri ko ismen wyang ki teekshn gandh malum hui unhonne kuDhkar man mein kaha—inhen maut bhi nahin aati mar jayen, pap kate! athon pahar ankhon ke samne rahne se pyar ko ji lalcha hi uthta hai inke mare kaleja aur bhi jala karta hai
babu sahab ne patni ko maun dekhkar kaha—ab jhempne se kya labh apne prem ko chhipane ki cheshta karna byarth hai chhipane ki awashyakta bhi nahin
rameshwri jal bhunkar bolin—mujhe kya paDi hai, jo main prem karungi? tumhin ko mubarak rahe nigoDe aap hi aa aa ke ghuste hain ek ghar mein rahne mein kabhi kabhi hansna bolna paDta hi hai abhi parson zara yoon hi Dhakel diya, us par tumne saikDon baten sunain sankat mein paran hain, na yoon chain, na woon chain
babu sahab ko patni ke waky sunkar baDa krodh aaya unhonne karkash swar mein kaha—n jane kaise hirdai ki istri hai! abhi achchhi khasi baithi bachchon se pyar kar rahi thi mere aate hi girgit ki tarah rang badalne lagi apni ichha se chahe jo kare, par mere kahne se balliyon uchhalti hai na jane meri baton mein kaun sa wish ghula rahta hai yadi mera kahna hi bura malum hota hai, to na kaha karunga par itna yaad rakho ki ab kabhi inke wishay mein nigoDe sigoDe ityadi apshabd nikale, to achchha na hoga tumse mujhe ye bachche kahin adhik pyare hain
rameshwri ne iska koi uttar na diya apne kshaobh tatha krodh ko we ankhon dwara nikalne lagin
jaise hi jaise babu ramjidas ka sneh donon bachchon par baDhta jata tha, waise hi waise rameshwri ke dwesh aur ghrina ki matra bhi baDhti jati thi prayah bachchon ke pichhe pati patni mein kaha suni ho jati thi, aur rameshwri ko pati ke katu wachan sunne paDte the jab rameshwri ne ye dekha ki bachchon ke karan hi wo pati ki nazar se girti ja rahi hain, tab unke hirdai mein baDa tufan utha unhonne ye socha paraye bachchon ke pichhe ye mujhse prem kam karte jate hain, har samay bura bhala kaha karte hain, inke liye ye bachche hi sab kuch hain, main kuch bhi nahin duniya marti jati hai, par donon ko maut nahin ye paida hote hi kyon na mar gaye na ye hote, na mujhe ye din dekhne paDte jis din ye marenge, us din ghi ke diye jalaungi inhonne hi mere ghar ka satyanash kar rakkha hai
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isi prakar kuch din wyatit hue ek din niymanusar rameshwri chhat par akeli baithi hui theen unke hirdai mein anek prakar ke wichar aa rahe the wichar aur kuch nahin, apni nij ki santan ka abhaw, pati ka bhai ki santan ke prati anurag ityadi kuch der baad jab unke wichar swayan unhin ko kashtdayak pratit hone lage, tab wo apna dhyan dusri aur lagane ke liye tahalne lagin
wo tahal hi rahi theen ki manohar dauDta hua aaya manohar ko dekhkar unki bhrikuti chaDh gai aur wo chhat ki chaharadiwari par hath rakhkar khaDi ho gain
sandhya ka samay tha akash mein rang birangi patangen uD rahi theen manohar kuch der tak khaDa patangon ko dekhta aur sochta raha ki koi patang katkar uski chhat par gire, kya anand aawe! der tak girne ki aasha karne ke baad dauDkar rameshwri ke pas aaya, aur unki tangon mein lipatkar bola—tai, hamein patang manga do rameshwri ne jhiDakkar kaha—chal hat, apne tau se mang jakar
manohar kuch apratibh sa hokar phir akash ki or takne laga thoDi der baad usse phir raha na gaya is bar usne baDe laD mein aakar atyant karun swar mein kaha—tai manga do, hum bhi uDayenge
in bar uski bholi pararthna se rameshwri ka kaleja kuch pasij gaya wo kuch der tak uski or sthir drishti se dekhti rahi phir unhonne ek lambi sans lekar man hi man kaha ye mera putr hota to aaj mujhse baDhkar bhagyawan istri sansar mein dusri na hoti nigoDa mara kitna sundar hai, aur kaisi pyari pyari baten karta hai yahi ji chahta hai ki uthakar chhati se laga len
ye sochkar wo uske sir par hath pherne wali theen ki itne mein unhen maun dekhkar bola—tum hamein patang nahin mangwa dogi, to tauji se kahkar tumhein pitwayenge
yadyapi bachche ki is bholi baat mein bhi madhurta thi, tathapi rameshwri ka munh krodh ke mare lal ho gaya wo use jhiDakkar bolin—ja kah de apne tauji se dekhen, wo mera kya kar lenge
manohar bhaybhit hokar unke pas se hat aaya, aur phir satrshn netron se akash mein uDti hui patangon ko dekhne laga
idhar rameshwri ne socha—yah sab tauji ke dular ka phal hai ki balisht bhar ka laDka mujhe dhamkata hai ishwar kare, is dular par bijli tute
usi samay akash se ek patang katkar usi chhat ki or i aur rameshwri ke upar se hoti hui chhajje ki or gai chhat ke charon or chahar diwari thi jahan rameshwri khaDi hui theen, kewal wahan par ek dwar tha, jisse chhajje par aa ja sakte the rameshwri us dwar se sati hui khaDi theen manohar ne patang ko chhajje par jate dekha patang pakaDne ke liye wo dauDkar chhajje ki or chala rameshwri khaDi dekhti rahin manohar uske pas se hokar chhajje par chala gaya, aur usse do pheet ki duri par khaDa hokar patang ko dekhne laga patang chhajje par se hoti hui niche ghar ke angan mein ja giri ek pair chhajje ki munDer par rakhkar manohar ne niche angan mein jhanka aur patang ko angan mein girte dekh, wo prasannata ke mare phula na samaya wo niche jane ke liye shighrata se ghuma, parantu ghumte samay munDer par se uska pair phisal gaya wo niche ki or chala niche jate jate uske donon hathon mein munDer aa gai wo use pakaDkar latak gaya aur rameshwri ki or dekhkar chillaya tai!
rameshwri ne dhaDakte hue hirdai se is ghatna ko dekha unke man mein aaya ki achchha hai, marne do, sada ka pap kat jayega yahi sochkar wo ek kshan rukin idhar manohar ke hath munDer par se phisalne lage wo atyant bhay tatha karun netron se rameshwri ki or dekhkar chillaya—ari tai! rameshwri ki ankhen manohar ki ankhon se ja milin manohar ki wo karun drishti dekhkar rameshwri ka kaleja munh mein aa gaya unhonne wyakul hokar manohar ko pakaDne ke liye apna hath baDhaya unka hath manohar ke hath tak pahuncha hi ki manohar ke hath se munDer chhoot gai wo niche aa gira rameshwri cheekh markar chhajje par gir paDin
rameshwri ek saptah tak bukhar se behosh paDi rahin kabhi kabhi zar se chilla uthtin, aur kahtin—dekho dekho, wo gira ja raha hai—use bachao, dauDo—mere manohar ko bacha lo kabhi wo kahtin—beta manohar, mainne tujhe nahin bachaya han, han, main chahti to bacha sakti thi—der kar di isi prakar ke pralap wo kiya kartin
manohar ki tang ukhaD gai thi, tang bitha di gai wo kramshah phir apni asli haalat par aane laga
ek saptah baad rameshwri ka jwar kam hua achchhi tarah hosh aane par unhonne puchha—manohar kaisa hai?
ramjidas ne uttar diya—achchha hai
rameshwri—use pas lao
manohar rameshwri ke pas laya gaya rameshwri ne use baDe pyar se hirdai se lagaya ankhon se ansuon ki jhaDi lag gai, hichakiyon se gala rundh gaya rameshwri kuch dinon baad poorn swasth ho gain ab wo manohar aur uski bahan chunni se dwesh nahin kartin aur manohar to ab uska pranadhar ho gaya uske bina unhen ek kshan bhi kal nahin paDti
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।