कहानी के जोबन का उभार और बोल-चाल की दुलहिन का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुँवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक सोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यूँही सी उसकी मसें भीगती चली थीं। कसी को कुछ न समझता था। पर किसी बात की सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था।
एक दिन हरियाली देखने को अपने घोड़े पर चढ़ के अपने उसी अठखेलपने और अल्हड़पन के साथ देखता-भालता चला जाता था। इतने में एक हिरनी जो उसके सामने आई, तो उसका जी लोटपोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सबको छोड़-छाड़ कर घोड़ा फेंका। कोई घोड़ उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो यह कुँवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनीदा, जंभाइयाँ, अंगड़ाइयाँ लेता, हक्का-बक्का हो के लगा आसरा ढूँढ़ने। इतने में कुछ एक अमराइयाँ देख पड़ीं, उधर चल निकला तो क्या देखता है जो चालीस-पचास रंड़ियाँ, एक से एक जोबन में अगली, झूला डाले हुए पड़ी झूल रही हैं और सावन गातियाँ हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा, “तू कौन? तू कौन?” की चिंघाड़ सी पड़ गई। उन सभी में से एक के साथ उसकी आँख लड़ गई। दोहा अपनी बोली का—
कोई कहती थी : “यह उचक्का है”।
कोई कहती थी : “यह पक्का है”।
वही झूले वाली लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थे, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया पर कहने-सुनने को बहुत सी नाह-नूह की और कहा : “इस लग चलने को भला क्या कहते हैं? हक न धक जो तुम झट से टपक पड़े, यह न जाना जो यहाँ रंडियाँ अपनी झूल रही हैं। अजी तुम जो इस रूप के साथ इस ढब बेधड़क चले आए हो, ठंडी-ठंडी छाँह चले जाओ।”
तब कुँवर ने जी मसोस के, मलीला खाके कहा “इतनी रुखाइयाँ न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छाँह में ओस का बचाव करके पड़ रहूँगा। बड़े तड़के धुँधलके में उठकर जिधर को मुँह पड़ेगा चला जाऊँगा। कुछ किसी का लेता-देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड़-छाड़ कर घोड़ा फेंका था। जब तलक उजियाला रहा, उसी के ध्यान में था। जब अँधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूँढ़कर यहाँ चला आया हूँ। कुछ रोकटोक तो इतनी न थी, जो माथा ठनक जाता और रुका रहता। सिर उठाए हाँफता हुआ चला आया। क्या जानता था जो पदमिनियाँ यहाँ पड़ी झूलती पेंगें चढ़ा रही हैं। पर यों बदी थी। बरसों मैं भी झूला करूँगा।
यह बात सुनकर वह जो लाल जोड़े वाली सबकी सिरधरी थी, उसने कहा : “न जी बोलियाँ ठोलियाँ न मारो। इनको कह दो जहाँ जी चाहे अपने पड़ रहें और जो कुछ खाने को माँगें सो इन्हें पहुँचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुँह का डौल, गाल तमतमाए और होंठ पड़पड़ाए, और घोड़ का हाँफना, और जी का काँपना घबराहट और थरथराहट और ठंडी साँसें भरना और निढाल होकर गिरे पड़ना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती? पर हमारे इनके बीच कुछ ओट सी कपड़े-लत्ते की कर दो।”
इतना आसरा पाके सबसे परे कोने में जो पाँच-सात छोट-छोट पौधो से थे, उनकी छाँव में कुँवर उदैभान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धर के चाहता था कि सो रहे, पर नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी? पड़ा-पड़ा अपने जी से बातें कर रहा था। इतने में क्या होता है जो रात साँय-साँय बोलने लगी और साथ वालियाँ सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा—“अरी ओ तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है, अब जो होनी हो, सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाए, मैं उसके पास जाती हूँ। तू मेरे साथ चल। पर तेरे पाँव पड़ती हूँ, कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा जोड़ा मेरे और उसके बनाने वाले ने मिला दिया। मैं इसीलिए जैसे इन अमरियों में आई थी।”
रानी केतकी मदनबान का हाथ पकड़े हुए वहाँ आ पहुँचती है जहाँ कुँवर उदैभान लेटे हुए कुछ सोच में पड़े-पड़े बड़बड़ा रहे थे। मदनबान आगे बढ़ के कहने लगी—“तुम्हें अकेला जान के रानी जी आप आई हैं।”
कुँवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा—
“क्यों न हो? जी को जी से मिलाप है।” कुँवर और रानी तो दोनों चुपचाप बैठे थे पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी। होते-होते अपनी बीती सबने खोली, रानी का पता यह खुला, “राजा जगत परकास की बेटी है और उनकी माँ रानी कामलता कहलाती है। उनको उनके माँ-बाप ने कह दिया है, एक महीने पीछे अमरियों में जाके झूल आया करो। सो आज वहीं दिन था जो तुमसे मुठभेड़ हो गई। बहुत महाराजों के कुँवरों की बातें आर्इ, पर किसी पर इनका ध्यान न चढ़ा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लड़कपन की गोइयाँ हूँ, मुझे साथ अपने लेके आई है। अब तुम अपनी कहानी कहो कि तुम किस देश के कौन हो।
उन्होंने कहा : “मेरा बाप राजा सूरजभान और माँ रानी लक्ष्मीबास हैं। आपस में जो गठजोड़ हो जाए तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। यूँही आगे से होता चला आया है, जैसा मुँह वैसा थपेड़। जोड़-तोड़ टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड़ चाहिए।”
इसमें मदनबान बोल उठी : “सो तो हुआ। अपनी-अपनी अंगूठियाँ हेरफेर कर लो और आपस में लिखौटें अभी लिख दो। फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे।”
कुँवर उदैभान ने अपनी अँगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अँगूठी कुँवर की उँगली में डाल दी और एक धीमी-सी चुटकी भी ले ली। इसमें मदनबाल बोल उठी : “जो सच पूछो तो इतनी भी बहुत हुई, इतना बढ़ चलना अच्छा नहीं। मेरे सिर चोट है। अब उठ चलो और इनको सोने दो और रोएँ तो पड़े रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी।”
पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुँवर उदैभान अपने घोड़े की पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलकर अपने घर पहुँचे। कुँवर जी का अनूप रूप क्या कहूँ, कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस ध्यान में थे उसी में गुथे रहना और घड़ी-घड़ी कुछ सोच-सोच कर सिर धुनना।
होते-होते इस बात का चर्चा लोगों में फैल गई। किसी-किसी ने महाराज और महारानी से कहा : “दाल में कुछ काला है। वह कुँवर उदैभान जिससे तुम्हारे घर का उजाला है, इन दिनों कुछ उसके बुरे तेवर और बेडौल आँखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर तो पाँव नहीं धरता। घरवालियाँ जो किसी डौल से कभी बहलाती हैं तो और कुछ नहीं करता, एक ऊँची साँस लेता है और जो बहुत किसी ने छेड़ा तो छपरखट पर जाके अपना मुँह लपेट के आठ-आठ आँसू पड़ा रोता है। यह सुनते ही माँ-बाप दोनों कुँवर के पास दौड़े आए। गले लगाया, मुँह चूमा, पाँवों पर बेटे के गिर पड़े, हाथ जोड़े और कहा : “जो अपने जी की बात है, सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखड़ा है, जो पड़े-पड़े कहराते हो? राजपाट जिसको चाहो दे डालो। कहो तो क्या चाहते हो? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या, जो नहीं हो सकता? मुँह से बोलो, जी को खोलो और जो कहने में कुछ सोच करते हो, तो अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आवेगी। जो तुम कहो कुएँ में गिर पड़ो तो हम दोनों अभी कुएँ में गिर पड़ते हैं, जो कहो सिर काट डालो तो सिर अपने अभी काट डालते हैं।”
कुँवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, उन्होंने लिख भेजने का आसरा पाके इतना बोले : “अच्छा आप सिधारिए। मैं लिख भेजता हूँ। पर मेरे उस लिखने को मेरे मुँह पर किसी ढब से न लाना। नहीं तो मैं बहुत लजियाऊँगा। इसलिए तो मुख बात हो के मैंने कुछ न कहा।” और यह लिख भेजा : “अब जो मेरा जी नथों पर आ गया और किसी ढब से न रहा गया और आपने मुझे सौ-सौ रूप से खोला और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड़ के हाथ जोड़ के मुँह फाड़ के घिघिया के यह लिखता हूँ-
चाह के हाथों किसी को सुख नहीं,
है भला वह कौन जिसको दुख नहीं।
“उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, वहाँ जो मेरे सामने एक हिरनी कनौतियाँ उठाए हुए आ गई थी। उसके पीछे मैंने घोड़ा बग छुट फेंका था। जब तक उजियाली रही, उसी की धुन में भटका किया। जब अँधेरा हो गया और सूरज डूबा, तब जी मेरा बहुत ऊबा। सुहानी सी अमरियाँ ताक के मैं उनमें गया, तो उन अमरियों का पत्ता-पत्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहाँ का यह सौहला है, कुछ रंडियाँ झूला डाले झूल रही थीं। उन सबकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराजा जगत परकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अँगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अँगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अँगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुँचती है। आप पढ़ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह जाए, वह कीजिए।”
महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से यूँ लिखा : “हम दोनों ने इस अँगूठी और लिखौट को अपनी आँखों से मला। अब तुम जी में कुछ कुढ़ो-पचो मत, जो रानी केतकी के माँ-बाप तुम्हारी बात मानते हैं तो हमारे समधी और समधिन हैं, दोनों राज एक हो जाएँगे और कुछ नाह-नूह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल-तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, बोलो-चालो, आनंदें करो, हम अच्छी घड़ी शुभ महूरत सोच के तुम्हारे ससुराल में किसी ब्राह्मण को भेजते हैं, जो बात चीत-चाही ठीक कर लावे।” ब्राह्मन जो शुभ घड़ी देख क हड़बड़ी से गया था, उस पर बड़ी कड़ी पड़ी। सुनते ही रानी केतकी के बाप ने कहा : “उनके हमारे नाता नहीं होने का। उनके बाप-दादे हमारे बाप-दादों के आगे सदा हाथ जोड़कर बातें किया करते थे और दो टुक जो तेवरी चढ़ी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ़ गए, ऊँचे पर चढ़ गए, जिनके माथे हम बाएँ पाँव के अंगूठे से टीका लगावें, वह महाराजाओं का राजा हो जावे। किसका मुँह जो यह बात हमारे मुँह पर लाए।”
ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा : “अगले भी ऐसे ही कुछ बिचारे हुए हैं और भरी सभा में यही कहते थे, हममें उनमें कुछ गोत की तो मेल नहीं, पर कुँवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती, नहीं तो ऐसी ओछी बातें कब हमारे मुँह से निकलती?” यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की छड़ी फेंक मारी और कहा : “जो ब्राह्मण की हत्या का धड़का न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता। इसको ले जाओ और एक अँधेरी कोठरी में मूँद रक्खो।” जो इस ब्राह्मण पर बीती, सो सब कुँवर उदैभान के माँ-बाप ने सुनते ही लड़ने की ठान, अपना ठाठ बाँधकर, दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ़ आया। जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप से रोने लगी और दोनों के जी पर यह आ गई : “यह कैसी चाहत है, जिसमें लोहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।” कुँवर ने चुपके से यह कहला भेजा : “अब मेरा कलेजा टुकड़े-टुकड़े हुए जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लड़ने दो। किसी डौल से जो हो सके तो तुम मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम दोनों मिलके किसी और देश निकल चलें। जो होनी हो, सो हो। सिर रहता रहे, जाता जाए।” एक मालिन, जिसको “फूलकली” कहकर सब पुकारते थे, उसने उस कुँवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट-लपेट के रानी केतकी तक पहुँचा दी। रानी ने उस चिट्ठी से आँखें अपनी मलीं और मालिन को एक थाल भरके मोती दिए और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुँह की पीक से यह लिखा, “ऐ मेरे जी के गाहक, जो तू मुझे बोटी-बोटी कर चील-कौवों को दे डाले तो भी मेरी आँखों चैन, कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं। इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है और जब तक माँ-बाप जैसा कुछ होता चला आया है उसी डोल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड़ जी जाते रहें, कोई बात हमें तो रुचती नहीं।” यह चिट्ठी पीक-भरी जो कुँवर तक आ पहुँचती है, उस पर कई एक थाल सोने के थाल, हीरे-मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है, और जितनी उसकी बेकली थी, चौगुनी पचगुनी हो जाती है, और उसको अपने उस गोरे डंड पर बाँध लेता है।
आना जोगी महेंदरगिर का कैलास पहाड़ पर से और हिरनी हिरन कर डालना कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का जगत परकास अपने गुरू को जो कैलास पहाड़ पर रहता था, यूँ लिख भेजता है : “कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन हम बिपता-मारों पर आ पड़ी है। राजा सूरजभान को अब यहाँ तक बाव-बहक ने लिया है, जो उन्होंने हमसे महाराजों से नाते का डौल किया है।” कैलास पहाड़ जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगत परकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर इंदरलोक के सब लोग कहते थे, ध्यान-ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन-रात रहा करता था। सोना, रूपा, ताँबे, राँगे का बनाना तो क्या और गुटका मुँह में लेके उड़ना परे रहे, उसको और बातें इस ढब की ध्यान में थीं जो कुछ कहने-सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने-रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था और गाने में और बीन बजाने में महादेव छूट, सब उसके आगे कान पकड़ते थे। सरस्वती जिसको हिंदू कहते हैं (आधा शक्ति) उनने भी इसी से कुछ गुनगुनाना सीखा था। उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियाँ, आठ पहर रूप बँधों का सा धरे हुए उसकी सेवा में हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं। वह अतीतों को यह कहकर पुकारते थे : भैरोंगिर, भिभास गिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, किदारनाथ, दीपक दास, जोती सरूप, सारंग रूप और अतीतनियाँ इस ढब से कहलाती थीं : गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उड़ाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके-अपने मुँह में लिए हुए गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घड़ी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगूला ने पहुँचता है, तो महेंदरगिर एक चिंघाड़ मार के दल बादलों को थलका देता है, बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुँह से मल कुछ-कुछ पढ़ंत करता हुआ बाव के घोड़े की पीठ लगा और सब अतीत मृग छालों पर बैठे हुए गुटके मुँह में लिए हुए बोल उठे : ‘गोरख जागा’। एक आँख की झपक में वहाँ आ पहुँचता है जहाँ दोनों महाराजों में लड़ाई हो रही थी। पहले तो एक काली आँधी आई फिर ओले बरसे, फिर टिड्डी आई, किसी को अपनी सुध न रही। हाथी, घोड़े और जितने लोग और भीड़-भाड़ राजा सूरजभान की थी, कुछ न समझा गया किधर गई उन्हें कौन उठा ले गया और राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर केवड़े की बूँदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पड़ने लगी। यह सब कुछ हो चुका, तो गुरुजी ने अतीतों से कह दिया : “उदैभान, सूरजभान, लक्ष्मीबास, इन तीनों को हिरन-हिरनी बना के किसी बन में छोड़ दो, और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड़-फोड़ दो।” जैसा कुछ गुरुजी ने कहा, झटपट वो ही किया। विपत का मारा कुँवर उदैभान और उसका बाप वह महाराजा सूरजभान और उसकी माँ लक्ष्मीबास, हिरन-हिरनी बन, बन की हरी-हरी घास कई बरस तक चरते रहे, और उस भीड़-भाड़क्के का तो कुछ थल-बेड़ा न मिला, जो किधर गर्इ और कहाँ थी। यहाँ की यहीं रहने दो, फिर सुनियो। अब रानी केतकी की बात और महाराजा जगत परकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरुजी के पाँव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा : “महाराज, यह आपने बड़ा काम किया। हम सबको रख दिया। जो आज आप न आ पहुँचते तो क्या रहा था? सबने मर-मिटने की ठान ली थी, हम पापियों से कुछ न चलेगी, यह जान ली थी। राज-पाट सब हमारा आप निछावर करके जिसको चाहिए दे डालिए। हम सबको अतीत बना के अपने साथ लीजिए, राज हमसे नहीं थम सकता। सूरजभान के हाथ से आपने बचाया। कोई उनका चचा चंद्रभान चढ़ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं, फिर ऐसे राज का फिटे मुँह, कहाँ तक आपको सताया करेंगे।” यह सुनकर जोगी महेंदरगिर ने कहा : “तुम हमारे बेटा-बेटी हो, आनंदें करो, दन्दनाओ, सुख-चैन से रहो। ऐसा वह कौन है जो तुम्हें आँख भरकर और ढब से देख सके? यह बघम्मर और यह भभूत हमने तुम्हें दिया। आगे जो कुछ ऐसी गाढ़ पड़े तो बघम्मर में से एक रोंगटा तोड़कर आग पर धर के फूँक दीजियो वह रोंगटा फूँकने न पावेगा जो हम आन पहुँचेंगे। रहा भभूत, सो इसीलिए है जो कोई चाहे अंजन करे, वह सब कुछ देखे और उसे कोई न देखे, जो चाहे करे।” गुरु महेंदरगिर जिन पाँव पूजिए और धन महाराज कहिए उनसे तो कुछ छिपाव न था। महाराज जगत परकास उनको मोरछल करते हुए रानियों के पास ले गए। सोने-रूपे के फूल (हीरे-मोती) गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगड़े। उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी। रानी केतकी ने भी दंडवत की, पर जी ही जी में बहुत सी गुरुजी को गालियाँ दी। गुरुजी सात दिन सात रातें यहाँ रह के जगत परकास को सिंगासन पर बिठाकर के अपने उस बघम्मर पर बैठ उसी डौल से कैलास पर आ धमके। राजा जगत परकास अपने अगले ढब से राज करने लगा।
रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान करके जी से हाथ धोना अपनी बोली की दोहों में:
रानी को बहुत सी बेकली थी,
कग सूझती कुछ बुरी-भली थी।
चुपके-चुपके कराहती थी,
जीना अपना न चाहती थी।
कहती थी कभी : “अरी मदनबान,
है आठ पर मुझे वही ध्यान।
याँ प्यास किसे भला किसे भूख।
देखूँ वही फिर हरे-हरे रुख।
टपके का डर है अब यह कहिए,
चाहत का घर है अब यह कहिए।
अमराइयों में उनका वह उतरना
और रात का साँय-साँय करना,
और चुपके से उठ के मेरा जाना
और तेरी वह चाह का जताना।
उनकी वह उतार अँगूठी लेनी,
और अपनी अँगूठी उनको देनी।
आँखों में मेरी वह फिर रही है
जी का जो रूप था वही है।
क्योंकर उन्हें भूलूँ, क्या करूँ मैं?
माँ बाप से कब तक डरूँ मैं?
अब मैंने सुना है, ऐ मदनबान,
बन-बन के हिरन हुए उदैभान।
चरते होंगे हरी-हरी दूब,
कुछ तू भी पसीज, सोच में डूब।
मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल,
मत मुझको सुंघा यह डहडहे फूल।
फूलों को उठा के यहाँ से ले जा,
सौ टुकडे मेरा हुआ कलेजा।
बिखरे जी को न कर इकट्ठा,
एक घास का ला के रख दे गट्ठा।
हरियाली उसी की देख लूँ मैं,
कुछ और तो तुझको क्या क्या कहूँ मैं।
इन आँखों में है भड़क हिरन की,
पलकें हुईं जैसी घास बन की।
जब देखिए डबडबा रही हैं,
ओसें आँसू की छा रही हैं।
यह बात जो जी में गड़ गई है,
एक ओस सी मुझ पे पड़ गई है।”
इसी डौल जब अकेली होती थी, तब मदनवान के साथ ऐसे ही कुछ मोती पिरोती।
भभूत माँगना रानी केतकी का अपनी माँ रानी कामलता से आँख मिचौली खेलने के लिए और रूइ रहना, और राजा जगत परकास का बुलाना और प्यार से कुछ-कुछ कहना और वह भभूत देना।
एक रात रानी केतकी ने अपनी माँ रानी कामलता को भुलावे में डाल के यह पूछा : “गुरुजी गुसाईं महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया था, वह कहाँ रखा हुआ है और उससे क्या होता है?” उसकी माँ ने कहा : “मैं तेरी वारी! तू क्यों पूछती है?” रानी केतकी कहने लगी : “आँख मिचौवल खेलने के लिए चाहती हूँ, जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूँ और चोर बनूँ तो मुझको पकड़ न सके।” रानी कामलता ने कहा : “वह खेलने के लिए नहीं है, ऐसे लटके किसी बुरे दिन के संभालने को डाल रखते हैं। क्या जाने, कोई घड़ी कैसी है, कैसी नहीं।” रानी केतकी अपनी माँ की इस बात से अपना मुँह थुथा कर उठ गई और दिन-भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं। तब रानी कामलता बोल उठी—“अजी तुमने सुना भी या नहीं? बेटी तुम्हारी आँख मिचौवल खेलने के लिए वह भभूत गुरुजी का दिया हुआ माँगती थी। मैंने न दिया और कहा : “लड़की यह लड़कपन की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिए गुरुजी दे गए हैं। बहुतेरा बहलाती-फुसलाती हूँ मानती नहीं।” महाराज ने कहा : “भभूत क्या, मुझे तो अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। उसके एक घड़ी-भर के बहल जाने पर एक जी तो क्या जो लाख जी हों तो दे डालिए।” रानी केतकी को डिबिया में से थोड़ सा भभूत दिया। कई दिन तलक भी आँख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती, सबको हँसाती रही, जो सौ-सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोड़ों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके।
रानी केतकी का चाहत से बेकल हो फिरना और मदनबान का साथ देने से नहीं करना
एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से कह उठी : “अब मैं निगोड़ी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे।” मदनबान ने कहा : “क्यों-कर?” रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे जताया और यह सुनाया : “यह सब आँख मिचौवल की चुहल मैंने इसी दिन के लिए कर रक्खीं थीं।” मदनबान बोली : “मेरा कलेजा थरथराने लगा, ऐ यह माना जो तुम अपनी आँखों में इस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें-तुम्हें कोई न देखेगा और हम-तुम सबको देखेंगे, पर ऐसी हम कहाँ जी-चले हैं। जो जोबन साथ लिए बन-बन भटका करें और हिरनों के सींगों में दोनों हाथ डाल के लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होवे तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोड़ी नोची-खसोटी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड़ में जाए यह चाहत जिसके लिए माँ-बाप, राज-पाट, सुख-नींद, लाज छोड़ कर नदियों के कछारों में फिरना पड़े, सो भी बेडौल! जो वह अपने रूप में होते, तो भला कुछ थोड़ा बहुत आसरा था। ना जी, यह तो हमसे न हो सकेगा जो महाराज जगत परकास और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाड़ें और बहका के इनकी बेटी, जो इकलौती लाडली है, उसको ले जावे और जहाँ-वहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और अपने चौंडे को हिलावें। उस दिन तुम्हें यह बूझ न आर्इ जब तुम्हारे और उसके माँ-बाप में लडाई हो रही थी, उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था ‘भाग चले’। तब तो अपने मुँह की पीक से उस चिट्ठी की पीठ पर जो लिखा था सो क्या भूल गर्इ हो। तब तो वह ताव-भाव दिखाया था। अब जो वह कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप तीनों जने बन-बन के हिरन-हिरनी बने हुए क्या जाने किधर होंगे कि उनके ध्यान पर वह कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने भर में नहीं की। इस बात पर माटी डाल दो, नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे तो कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी कुछ अच्छी बात होती तो जीते जी मेरे मुँह से न न निकलती। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड़ हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो इसी बात पर सचमुच ढला देखूँगी, तो तुम्हारे माँ-बाप से कहकर यह भभूत जो वह मुवा निगोड़ा भूत। मुछन्दर का पूत, अवधूत दे गया है, हाथ मुडोड़वा के छिनवा लूँगी।” रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुन कर, हँसकर टाल दिया और कहा : “जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है पर कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो मैं माँ-बाप को छोड़ हिरनों के पीछे पड़ी दौड़ती और कमछाल मारती फिरूँ। पर अरी, तू बड़ी बावली चिड़िया है, जो तूने यह बात ठीक-ठीक कर जान ली और मुझसे लड़ने लगी।”
रानी केतकी का भभूत आँखों में लगाकर घर से बाहर निकल जाना और सब छोटे-बड़ों का तिलमिलाना
दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगाकर घर से बाहर निकल गई। कुछ कहने में नहीं आता जो माँ-बाप पर हुई। सबने यह बात ठहरा दी : “गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा।” महाराजा जगत परकास और महारानी कामलता राजपाट सब कुछ इस वियोग में छोड़-छाड़ के पहाड़ की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने लोगों में से राज थामने के लिए छोड़ गए। तब बदनबान ने वह सब बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ-बाप ले सह कहा : “अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो कुछ हमारा जी ठहरता। अब जो वह तुझे ले जाए तो तू कुछ हचर-मचर न कीजो, उनके साथ ही लीजो। जितना भभूत है तू अपने पास रख। हम कहाँ इस राख को चूल्हें में डालेंगे। गुरूजी ने तो दोनों राजों का खोज खोया, कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप कुठौर रहे और जगत परकास और कामलता को यूँ तलपट किया। भभूत न होता, तो ये बातें काहे को सामने आतीं।”
मदनबान भी उनके ढूँढ़ने को निकली, अंजन लगाए हुए ‘रानी केतकी रानी केतकी’ कहती चली जाती। बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की डारों में ‘उदैभान उदैभान’ चिंघाड़ती हुई आ निकली। जो एक ने एक को ताड़कर यूँ पुकारा : “अपनी-अपनी आँखें धो डालो।” एक डेरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड़ हुई। गले मिल के ऐसी रोइयाँ जो पहाड़ों में कूक-सी पड़ गई।
दोहा अपनी बोली का :
छा गई ठंडी साँस झाडों में,
पड़ गई कूक सी पहाड़ों में।
दोनों जनियाँ एक टीले पर अच्छी-सी छान ताड़ के आ बैठियाँ और अपनी-अपनी बातें दोहराने लगीं।
बातचीत मदनबान की रानी केतकी के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झींका की, और उनके माँ-बाप ने उनके लिए जोग साधा और जो वियोग लिया था, सब कहा। जब मदनबान यह सब कुछ कह चुकी, तो फिर हँसने लगी। रानी केतकी यह लगी पढ़ने दोहे अपनी बोली के
हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे,
है वही अपनी कहावत : आ फँसे जी आ फँसे।
अब तो सारा अपने पीछे झगड़ा झाँटा लग गया,
पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गया।
मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पुँछते से चले। उनने यह बात ठहराई “जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजड़े हुए माँ-बाप को चुपचाप यहीं ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गुसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी उन्हीं दोनों उजड़े हुओं की मुट्ठी में हैं। अब भी मेरा कहाँ जो तुम्हारे ध्यान चढे, तो गए हुए दिन फिर फिर सकते हैं, पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पड़े बकती हैं। मैं इस पर बीड़ा उठाती हूँ।” बहुत दिनों रानी केतकी ने उस पर ‘अच्छा’ कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी, जो आपसे कुछ हो सके, तो उस जोगी से ठहरा के आवें।
महाराजा और महारानी के पास मदनबान का फिर आना और चित-चाही बात सुनना
मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड़कर राजा जगत परकास और रानी कामलता जिस पहाड़ पर बैठे हुए थे, वहाँ झट से आदेश करके आ खड़ी होती है और कहती है “लीजिए! आपका घर नए सिरे से बसा और अच्छे दिन आए। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ, उन्हीं के हाथ की यह चिट्ठी लाई हूँ। आप पढ़ लीजिए। आगे जो चाहिए सो कीजिए।” महाराज ने उसी बधम्बर में एक रोंगटा तोड़ कर आग पर दिया। बात की बात में गुसाई महेंदर गिर आ पहुँचे और जो कुछ यह नया सांग जोगी और जोगिन का हो आया था, आँखों देखा। सबको छाती से लगाया और कहा : “बघम्बर तो इसीलिए मैं सौंप गया था, जो तुम पर कुछ होए तो इसका एक रोंगटा फूँक दीजो। तुम्हारे घर की यह गत हो गई! अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो? यह खिलाड़ी जो-जो रूप चाहे सो दिखावे, जो-जो नाच चाहे सो नचावे। भभूत लड़की को क्या देना था? हिरन-हिरनी तो उदैभान और सूरजभान, उसके बाप को और लक्ष्मीबास। उनकी माँ को मैंने किया था, मेरे आगे फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कुछ बड़ी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई अब चलो उठो, अपने राज पर विराजो और ब्याह के ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया। उसको लेके मैं ब्याहने चढ़ूँगा।” महाराज यह बात सुनते ही अपनी राज की गद्दी पर आ बैठे और उसी घड़ी कह दिया, “सारी छतों और कोठों को गोटे से मढ़ दो और सोने-रूपे के रूपहले-सुनहरे सेहरे सब झाड़ और पहाड़ों पर बाँध दो, और पेड़ों में मोती की लड़ियाँ गूँथो, और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घरबार वाले से मैं रूठ रहूँगा और जानूँगा, यह मेरे दुख-सुख का साथी नहीं।” छ: महिने जब कोई चलने वाला कहीं नहीं ठहरे और रात-दिन चला जाए। इस फेर में वह राज था, सब कहीं यही डौल हो गया।
जाना महाराज और महारानी और गुसाईं महेंदर गिर का रानी केतकी के लेने के लिए फिर गुरूजी और महाराज और महारानी, मदनबान के साथ वहाँ आ पहुँचे जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी। गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढ़ावा दिया और कहा, “लो तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो। अब मैं अपने बेटे कुँवर उदैभान को लिए हुए आता हूँ।”
गुरूजी गुसाईं जिनको डंडवत है, सो तो वो सिधारते हैं। आगे जो होगी सो कहने में आवेंगी। यहाँ की यह धूम-धाम और फैलावा पे ध्यान कीजिए।
महाराज जगत परकास ने अपने सारे देश में यह पुकार के कहा, “जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होगी। गाँव-गाँव में अपने-सामने तिरपोलिए बना-बना के सूहे कपड़े उन पर लगा दो, और गोट धनुक की और गोख़रू रूपहली-सुनहररी और किरनें और डाँक टाँक रखो, और जितने बड़, पीपल के पुराने-पुराने पेड़ जहाँ-जहाँ हों उन पर गोटे के फूलों के सेहरे बड़े-बड़े ऐसे जिसमें सिर से लगा जड़ तक उनकी थलक और झलक पहुँचे बाँध दो।” चूँकि
पौधों ने रंगा के सूहे जोड़े पहने
सब पाँव में डालियों ने तोड़े पहने,
बूटी बूटी ने फूल फल के गहने
जो बहुत न थे तो थोड़े-थोड़े पहने।
जितने डहडहे और हरियावल में लहलहे पात थे, सब ने अपने-अपने हाथ में चहचही मेंहदी की रचावट सजावट के साथ जितनी समावट में समा सकी, कर और जहाँ तलक नवल ब्याही दुल्हीनें नन्हीं-नन्हीं फलियों की और सुहागिनें नई-नई कलियों की जोड़े पंखुरियों के पहने हुई थीं, सबने अपनी-अपनी गोद सुहाग प्यार के फूल और फलों से भर ली। और तीन बरस का पैसा, जो लोग दिया करते थे उस राजा के राज भर में जिस-जिस ढब से हुआ, खेती-बाड़ी करके, हल जोत के और कपड़ा-लत्ता बेच-खोंच के सो सब उनको छोड़ दिया जो अपने घरों में बनाव के ठाठ करें और जितने राजभर में कुवें थे खंडसालों की खंडसाले (ले जा) उनमें उँडेली गर्इ और सारे बनों में और पहाड़ तलियों में लालटेनों की झमझमाहट रातों को दिखार्इ देने लगी। और जितनी झीलें थीं उन सब में कुसुम और टेसू और हार सिंगार पड़ गया, और केसर भी थोड़ी-थोड़ी घोले में आ गई।
फुनगे से लगा जड़ तलक जितने झाड़ झंखाड़ों में पत्ते और पत्ती बंधी थी, उन पर रूपहले सुनहरे डॉक गोंद लगा के चिपका दिए और सभों को कह दिया गया जो सूही पगड़ी और सूहे बागेबिन कोई किसी डौल किसी रूप से न फिरे-चले और जितने गवैये-नचवैये, भाँड-भगतिए, रहस-धारी और संगीत पर नाचने वाले हों सबको कह दिया, जिस-जिस गाँव में जहाँ-जहाँ हों, अपने-अपने ठिकानों से निकल कर अच्छे-अच्छे बिछौने बिछा-बिछा कर गाते-बजाते, धूमें मचाते, नाचते-कूदते रहा करें।
ढूँढना गुसाईं महेन्दर गिरु का कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप को और न पाना और बहुत सा तिलमिलाना और राजा इन्दर का उसकी चिट्ठी पढ़के आना यहाँ की बात और चुहलें जो कुछ हैं सो यहीं रहने दो, अब आगे यह सुनो, जोगी महेन्दर गिर और उसके नब्बे लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा, तब उन ने राजा इन्दर के चिट्ठी लिख भेजी। उस चिट्ठी में यह लिखा हुआ था, उन तीनों जनों को मैंने हिरन और हिरनी कर डाला या। अब उनको ढूँढ़ता फिरता हूँ, कहीं नहीं मिलते, और मेरी जितनी सकत थी, अपने से कर चुका हूँ, और अब मेरे मुँह से निकला, कुँवर उदैभान मेरा बेटा और मैं उसका बाप। उसकी ससुराल में सब व्याह के ठाठ हो रहे हैं। अब मुझ पर निपट गाढ़ है। जो तुमसे हो सके सो करो।
राजा इन्दर गुरु महेन्दर गिर के देखने को सब इन्दरासन समेट आप आन पहुँचता है और कहता है, जैसा आपका बेटा तैसा मेरा बेटा। आपके साथ मैं सारे इन्दर लोक को समेट के कुँवर उदैभान को व्याहने चढूँगा। गुसाईं महेन्दर गिर ने इन्दर से कहा, हमारी-आपकी एक ही बात है। पर कुछ ऐसी सुझाइए, जिसमें वह कुँवर उदैभान हाथ आवें। यहाँ जितने गवैये और गायनें हैं, उन सबको साथ ले के हम और आप सारे बनों में फिरें, कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा।
हिरन और हिरनी के खेल का बिगड़ना और कुँवर उदैभान और उनके बाप-माँ का नए सिर से रूप पकड़ना एक रात राजा इन्दर और गुसाई महेन्दर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन रहे थे। करोड़ों हिरन आस-पास आन के राग के ध्यान में चौकड़ी भूले सिर झुकाए खड़े थे। इसी में राजा इन्दर ने कह दिया, इन सब हिरनों पर मेरी सकत गुरु की भगत फुरे मंत्र, ईश्वरो वाचा पढ़ के एक एक छींटा पानी का दो। क्या जाने वह कैसा पानी था। पानी के छींट के साथ ही कुँवर उदैभान और उनके माँ-बाप तीनों जने हिरनों का रूप छोड़ कर जैसे थे वैसे हो जाते हैं। महेन्दर गिर और राजा इन्दर इन तीनों को गले लगाते हैं और पास अपने बड़ी आवभगत से बिठाते और वही पानी का घड़ा अपने लोगों को देकर वहाँ भिजवा देते हैं जहाँ सिर मुंडाते ही ओले पड़े थे। राजा इन्दर के लोग जो पानी के छींटे यहीं ईश्वरोवाचा पढ़ के देते हैं, जो-जो मर मिटे थे, सब उठ खड़े होते हैं।
और जो अधमुए हो के भाग बचे थे, सब सिमट आते हैं। राजा इंदर और महेन्दर गिर कुँवर उदैभान और राजा सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड़नखटोले पर बैठ कर बड़ी धूम-धाम से उनकी अपने राज पर बैठा के ब्याह के ठाठ करते हैं। पंसेरियों हीरे-मोती उन पर सब निछावर होते हैं। राजा सूरजभान और उदैभान और उनकी माँ रानी लक्ष्मीबास चितचाही आस पाकर फूले अपने आप में नहीं समाते, और सारे अपने राज को यही कहते जाते हैं : जौरे भौरे के मुँह खोल दो और जिस-जिस को जो-जो उक्त सूझे, बोल दो। आज के दिन का-सा और कौन सा दिन होगा? हमारी आँखों की पुतलियों का जिससे चैन है, उस लाडले इकलौते का व्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकल कर फिर राज पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन-जिनकी बेटियाँ बिन ब्याहियाँ कुवारियों बालियाँ हों उन सबको इतता कर दो जो अपनी जिस-जिस चाव-चोच से चाहें अपनी-अपनी गुड़ियाँ सँवार के उठावें, और जब लतक जीती रहें हमारे यहाँ से खाया-पिया-पकाया-रींधा करें, और सब राज-भर की बेटियाँ सदा सुहागिनें बनी रहें और सूहे राते छुट कभी कोई कुछ न पहना करे और सोने-रूपे के किवाड़ गंगा-जमुनी सब घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथों पर केसर और चंदन के टीके लगे हों। और जितने पहाड़ हमारे देस में हों उतने ही रूपे-सोने के पहाड़ आमने-सामने खड़े हो जाएँ, और सब डाँगों की चौटियाँ मोतियों की माँग से बिन माँगे-ताँगे भर जाएँ और फूलों के गहने और बन्दनवारों से सब झाड़-पहाड़ लदे रहें, और इस राज से लगा उस राज तलक अधर में छत सी बाँध दो। चप्पा-चप्पा ऐसा कहीं न रहे जहाँ भीड़-भड़क्का, धूम-धड़कका न हो जाए फूल इतने बहुत सारे खुंड जाएँ, जो नदियाँ जैसी सचमुच फूलों की बहतियाँ हैं यह समझा जाए, और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढ़े सद लालड़ी और हीरे और पुखराज की इधर-उधर... की छुट्टियाँ बन जाएँ और क्यारियाँ सी हो जाएँ, जिनके बीचों-बीच हो निकलें। और कोई डाँग और पहाड़ तली का उतार-बढ़ाव ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पाखरोटों और फूल और फलों से भरी भतीली न हो राजा इन्दर का कुँवर उदैमान के ब्याह का ठाट करना राजा इन्दर ने कह दिया, वह रंडियाँ चुलबुलिया जो अपने जोबन के मद में उड़चलिया है, उनसे कह दो, सोलह सिंगार बाल-बाल गज मोर पिरोओ, और अपने-अपने अचरज और अचंभे के उड़नखटोलों के इस राज से ले के उस राज तलक उधर में छत-सी बाँध दो, पर कुछ ऐसा रूप से उड़ चलो जो उड़नखटोलों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सी सैकड़ों कोस तक हो जाएँ और ऊपर ही ऊपर मृदंग, बीन, जलतरंग, भुँहचंग, घुंघरू, तबले, कठताल और सैकड़ों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनबिंधे मोतियों के झाड़ और लालटेनों की भीड़-भाड़ की झमझमाहट दिखाई दे और उन्हीं लालटेनों में से हथफूल फुलझड़ियाँ, जाही, जूहियाँ, कदम, गेंदा, चंवेली इस ढब से छुटें जो देखतों की छातियों के किवाड़ खुल जाएँ और पटाखो जो उछल-उछल के फूटें, उनमें से हंसते सितारे और बोलते पखरुटे दुल-ढुल पड़ें, और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लड़ियाँ झड़ें जो सबके सब उनको चुन-चुन के राज के राजे हो जावें। डोमिनियों के रूप में सारंगियाँ छेड़-छेड़ सीहलें गाओ, दोनों हाथ हिलाओ, उंगलियाँ नचाओ, जो किसी ने न सुने हों वह ताव-भाव, आव-जाव, राव-चाव दिखाओ, ठुड्डियाँ कपकपाओं और नाक-भवें तान-तान भाव बताओ, कोई फूट कर रह न जाओ। ऐसा जमाव लाखों बरस में होता है। जो-जो राजा इन्दर ने अपने मुँह से निकाला था आँख की झपक के साथ वोही होने लगा और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने इधर-उधर कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक-ठाक हो गया। जिस ब्याहने की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, उसका और कुछ फैलावा कैसा कुछ होगा, यह ध्यान कर लो।
ठाठ करना गुसाईं महेन्दर गिर का
जब कुंवर उदैभान को इस रूप से ब्याहने चढ़े और वह बाम्हन जो अँधेरी कोठरी में मूंदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ जोड़े और कहा, बाम्हन देवता, हमारे कहने-सुनने पर न जाओ, तुम्हारी जो रीत होती चली आर्इ है, बताते चलो। एक उड़नखटोले पर वह भी रीत बताने को साथ हुआ। राजा इन्दर और गुसाईं महेन्दर गिर ऐरावत हाथी पर झूमते-झामते देखते-भालते सारा अखाड़ा लिए चले जाते थे। राजा सूरजभान दूल्हा के घोड़े के साथ माला जपता हुआ पैदल था। इतने में एक सन्नाटा हुआ, सब घबरा गए इस सन्नाटे में से वह जो जोगी के नब्बे लाख अतीत थे, सबके सब जोगी बने हुए सैली तागी मोतियों की लड़ियों की गलों में डाले, गातियाँ उसी ढब की बाँधे, मिरिगछालों और बघम्भरों पर आ थिरके। लोगों के जीयों में जितनी उमंगें छा रही थीं, वह चौगुनी पंचगुनी हो गईयाँ सुखपाल और चंडोलों और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महरानी लक्ष्मीबास के पीछे चली आतियाँ थीं सबको गुदगदियॉ सी होने लगीं। इसी में कही भरतरी का सांग आया, कहीं जोगी जतियाँ आ खाड़े हुए, कहीं महादेव और पारवती दिखाई पड़े, कहीं गोरख जागे, कहीं मुछन्दर नाथ भागे, कहीं मच्छ, कच्छ, बाराह सम्मुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामनरूप, कहीं हरिनाक्स और नरसिंघ, कहीं राम, लछमन और सीता सामने आए, कहीं रावन और लंका का बखेड़ा सारे का सारा दिखाई देने लगा, कहीं कन्हैया जी का जन्माष्टमी में होना और वासदेव का गोकुल को ले जाना, उनका उस रूप से बढ़ चलना, और गाए चानी और मुरती बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका का रहस और कुबजा का बस कर लेना, वही करील की कुंजें, बंसी बट, चीरघाट, बिन्दरावन, सेवाकुँज, बरसाने में रहना, और कन्हैया से जो-जो कुछ हुआ था सबका सब ज्यों का त्युँ आँखों में आना और दवारका जाना और वो सोने के घर बनाना और फिर बिरिज को न आना और सोलह सौ गोपियों का तिलमिलाना साम्हने आ गया। उन गोपियों में से ऊधो का हाथ पकड़ के एक गोपी के इस कहने ने सबको रुला दिया, जो इस ढब से बोल के उनके रुँधे हुए जी को खोले थी।
गीत
जब छांड करील की कुँजन कों हरि दवारका जी माँ जाय छिए।
कलधूत के घान बनाए घने, महाराजन के महाराज भए॥
तज मोर मुकुट अरु कामरिया कछू और ही नाते जोर लिए।
धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए॥
अच्छापना घाटों का कोई क्या कह सके
जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे पक्के चाँदी के वक्के से होकर लोगों को हक्का-बक्का कर रहे थे। निवाड़ी, मौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, सोनामुखी, स्यामसुंदर, राम सुंदर और जितनी ढब की नावें थीं, सुथरे रूप में सजी सजार्इ कसी-कसार्इ सौ-सौ लचके खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, लहरातियाँ, पड़ी फिरतियों थीं। उन सब पर यही गवैय्ये, कनचनियाँ, रामजनियाँ और डोमनियों खचाखच भरी अपने-अपने करतब में, नाचती, गाती-बजाती, कूदती-फाँदती, घूमें मचातियाँ, अंगड़ातियाँ, जम्हातियाँ, उँगलियाँ नचातियाँ उछली पड़तिया थीं और कोई नांव ऐसी न थी जो सोने-रूपे के पत्तरों से मंडी हुई और असावरी से ढपी हुई न हो और बहुत-सी नावों पर हिंडोले भी उसी दब के थे, उन पर गायनें बैठी झूलती हुई सोहले केदारे और बागेसरी कान्हड़ा में गा रही थीं। दल बादल से निवाड़ों के सब झीलों में भी छा रहे थे।
आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाठ के साथ दुल्हन की ड्योढ़ी पर इस घूम-धाम के साथ कुँवर उदैमान सेहरा बाँधे जब दुल्हन के घर तलक आन पहुँचा और जो रीतें उनके घराने में होती चली आतियाँ थीं, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठिठोली करके बोली, लीजिए अब सुख समेटिए पर-पर झोली! सिर नेहड़ाए क्या बैठी हो? आओ न टुक हम-तुम मिलके झरोखों से उन्हें झाँकें। रानी केतकी ने कहा, न री ऐसी निलजी बातें हम से न कर। ऐसी क्या पड़ी, जो इस घड़ी ऐसी कड़ी झेल कर, रेल-पेल कर, ऊपटन और तेल-फुलेल भरे हुए उन के झाँकने को जा खड़ी हों? मदनबान इस रुखाई को उड़नझाई की अंटियों में कर बोली। दोहे अपनी बोली के -
यों तो देखो वा छड़े जी वा छड़े जीवा छड़े,
हमसे अब आने लगी हैं आप यों मुहरे कड़े।
न मारे बन के बन में आपने जिनके लिए,
वह हिरन जोबन के मद में हैं बने दूल्हा खड़े।
तुम न जाओ देखने को जो उन्हें, कुछ बात है,
ले चलेंगे आपको हम हैं इसी धुन पर अड़े।
है कहावत ‘जी को भावे और मुंडिया हिले,
झाँकने के ध्यान में हैं उनके सब छोटे बड़े।
सांस ठंडी पर के रानी केतकी बोली, यह सच,
सब तो अच्छा कुछ हुआ, पर अब बखेड़े में पड़े।
वारी फेरी होना मदनमान का रामी केतकी पर और
उसी की वास सूँघना और उनीदेपन से ऊँघना
उस घड़ी कुछ मदनबान को रानी केतकी के झाँझे का जोड़ा और भीना-भीना पन बास सूँघने और अंखड़ियों का लजियाना और बिखरा-बिखरा जाना पता लग गया, तो रानी केतकी की बारा सूँघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे कोई ऊँधने लगता है। सिर से लगा पाँव तक जो वारी फेरी होके तलवे सहलाने लगी तब रानी केतकी झट से धीमी-सी सिसकी लचके के साथ उठी। मदनवान बोली, मेरे हाय के टहोक में वह ही पावों का छाता दुख गया होगा, जो हिरनों की ढूँढ-ढाँढ में पड़ गया था।” ऐसी दुखती चुटकी की चोट से मसोस कर रोनी केतकी ने कहा, काटा खड़ा तो अड़ा और छाला सो पड़ा पर निगोड़ी तू क्यों मेरी पनछाला हुर्इ।”
सराहना रानी केतकी के जोबन का
रानी केतकी का भला लगना लिखने-पढ़ने से बाहर है। वह दोनों भवों की खिंचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नोकीली पलकों की रुँदाहट और हँसी की लगावट, दंतड़ियो में मिस्सी की उदाहट और इतनी सी बात पर रुकावट से नाक और त्योरी चढ़ा लेना और सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनियों के सूप से करछाले मार कर परे उछलना, कुछ करने में नहीं आता।
सराहना कुँवर जी के जोबन का
कुँवर उदैभान के अच्छेपने का कुछ हाल निलखना किससे हो सके-हाय रे! उनके उभार के दिनों का मुहानापन और चाल-ढाल का अच्छन-बच्चन, उठती हुई कोंपल की फबन, और मुखड़े का गदराया हुआ जोबन, जैसे बड़े तड़के हरे-भरे पहाड़ों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती हैं। यही रूप था। उनकी भीगती मसों से रस का टपका पड़ना और अपनी परछार्इं देखकर अकड़ना। जहाँ-जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक-ठीक, उके पाँवों चले जैसे धूप थी।
दूल्हा उदैमान सिंगासन पे बैठा, और इधर-उधर राजा इन्दर और जोगा महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिए कुछ-कुछ गुनगुनाने लगा और नाच लगा होने और इधर में जो उड़नखटोले इन्दर के अखाड़े के थे, सबके सब उसी रूप से छत बाँधे हुए थिरका किए। महारानियाँ दोनों समधिनें इन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चन्दन के किवाड़ों के आड़तलों में आ बैठियाँ। साँग, संगीत, भंडताल, रहेप होने लगा। जितने राग और रागनियाँ थीं यमन कल्यान, सुध कल्यान, लाजवंती, कान्हड़ा, खंडाच, सोहनी, परज, विहाग, सोहरट, कालिंगड़ा, भैरवी, खटललित, भैरों रूप पकड़े हुए सचमुच के जैसे गाने वाले होते हैं उसी रूप से अपने-अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो भाव-ताव रचावट के साथ हुआ, किसका मुँह, जो कह सके? जितने महाराजा जगत परकास के सुखचैन के घर थे : माधो विलास, रसधाम, किसन निवास, मच्छीभवन, सबके सब लप्पे से लपेटे और सच्चे मोतियों के झालर अपनी-अपनी गाँठ में समेटे हुए एक फबन के साथ मतवालों के रूप से सूम-झूम बैठने वालों के मुँह चूम रहे थे। बीचों बीच उन सब घरों के आरसी घाम बनाया था, जिसकी छत और किवाड़ और आँगन में आरसी छुट कहीं लकड़ी, र्इंट-पत्थर की पुट, एक उँगली के पौरे भर न थी। चाँदनी का जोड़ा पहने हुए चौदहवीं रात जब घड़ी एक रह गर्इ, तब रानी केतकी-सी दुल्हन को उसी आरसी भवन में बिठाकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँवर उदैपान कन्हैया बना हुआ, सिर पर मुकुट धरे, सेहरा बाँधे उसी तड़ावे और जमघट के साथ चाँद-सा मुखड़ा लिए जा पहुँचा। जिस-जिस ढब से बाम्हन और पण्डित कहते गए और जो-जो महाराजों में रीतें होती चली आतियों थी, उसी डौल से उसी रूप से सावरी गठजोड़ा सब कुछ हो लिया। दोहे अपनी बोली के—
जब उदैमान और रानी केतकी दोनों मिले।
आस के जो फुल कुम्हलाए हुए थे, फिर खिले॥
चैन होता हीन न था जिस एक को उस एक बिन
रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन॥
ऐ खिलाड़ी यह बहुत सा कुछ नहीं थोड़ा हुआ।
आन कर आपस में जो दोनों का गठ जोड़ा हुआ।
चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें।
दिन फिरे जैसे उन्ही के वैसे सबके दिन फिरें॥
वह उड़नखटोले वालियाँ जो अधर में छत बाँधे हुए थिरक रही थी, भर-भर झोलियाँ और मुठ्ठियाँ हीरे और गोतियों से निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उड़नखटोले ज्यों के त्यों अधर में छत बांधे खड़े रहे। दूला-दुल्हन पर से सात-सातवारी फेरे होने में पिस-पिस गईयाँ और उन सभों को एक चक्की-सी लग गर्इ। राजा इन्दर ने दूलन की मुँह दिखार्इ में एक हीरे का इकडाल छपरखट और एक पेड़ी पुखराज की दी और एक पारजात का पौधा जिससे जो फल माँगिए सो ही मिले, दूल्हन के साम्हने लगा दिया, और एक कामधेनु गाय की पठिया बछिया भी उसके नीचे बाँध दी, और इक्कीस लौड़ियाँ उन्ही उड़नखटोले वालियों में से चुन के अच्छी से अच्छी, सुथरी से सुथरी गाती-बजातियाँ, सीती-पिरोतियाँ, सुघड़ से सुघड़ सौंपी और उन्हें कह दिया, “रानी केतकी छुट उनके दूल्हा से कुछ बातचीत रखियो तम्हारे कान पहले ही मरोड़े देता हूँ, नहीं तो सबको सब पत्थर की मूरतें बन जाओगी और अपना किया जाप पावोगी।”
और गुसाईं महेंदर गिर जी ने बावन तोले पाव रत्ती जिसे कहते हैं और सुनते हें उसके इक्कीस मटके आगे रखे और कहा, “यह भी एक खेल है, जब चाहिए तो बहुत-सा ताँबा गला के एक इतनी-सी चुटकी छोड़ दीजे, कंचन हो जाएगा।” और जोगी जी ने यह सभों से कह दिया, जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन-रात और सोने की टिड्डियों के रूप में हुन बरसें और जब तक जिएँ किसी बात को फिर न तरसें।”
नौ लाख निन्यानवे गायें सोनेरूपे की सिंगोरियों की जड़ाऊ गहना पहने हुए घुँघरू झंझनातियाँ, बाम्हनों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड़ दिया गया। बाईस सै हाथी और छत्तीस सै ऊँट रुपयों के तोड़े लदे हुए लुटा दिए। कोई उस भीड़-भाड़ में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको घोड़ा-जोड़ा, रुपयों का तोड़ा, सोने के जड़ाऊ कड़ों की जोड़ी न मिली हो।
और मदनवान छुट दूल्हा-दूल्हन के पास किसी का हवाव न था जो बिन बुलाए चली जाए, बिन बुलाए दौड़ी आए तो वही आए और हँसाए। रानी केतकी के छेड़ने को उनके कुँवर उदैभान को केवड़ा कहके पुकारती थी और उसी बात को सौ-सौ रूप से संवारती थी। दोहे अपनी बोली के—
घर बसा जिस रात उन्हों का तब मदनबान उस पड़ी।
कह गर्इ दूल्हा दूल्हन को ऐसी सौ बातें कड़ी॥
बास पाकर केवड़े की केतकी का भी जी खिला।
सच है, इन दोनों जनों की अब किसी की क्या पड़ी॥
क्या न आर्इ लाज कुछ अपने पराए की? अजी!
थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हवाड़ी॥
मुस्कुरा कर तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा।
मोंगरा सा हो कोई, खोले जो तेरी गुलझड़ी॥
जी में आता है तेरे होठों को मल डालूँ अभी।
बिलबे, ऐ रंडी, तेरे दाँतों की मिस्सी की धड़ी॥
- पुस्तक : इंदुमती व हिंदी की अन्य पहली-पहली कहानियाँ (पृष्ठ 9)
- संपादक : विजयदेव झारी
- रचनाकार : इंशा अल्ला ख़ाँ
- प्रकाशन : इतिहास शोध संस्थान, नई दिल्ली
- संस्करण : 1994
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