दुलाईवाली
dulaiwali
(एक)
काशी जी के दशाश्वमेध घाट पर स्नान करके एक मनुष्य बड़ी व्यग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ़ आ रहा था। एक हाथ में मैली-सी तौलिया से लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियाँ और सुँघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्यारह बजे थे। गोदौलिया की बाईं तरफ़ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर, एक टूटे मकान से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खंड में बहुत अँधेरा था, पर ऊपर की जगह मनुष्य के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाँ एक कोठरी में हाथ की चीजें रख दीं और ‘सीता! सीता' कहकर पुकारने लगा।
“क्या है?” कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई। तब उस पुरुष ने कहा, “सीता! ज़रा अपनी बहन को बुला ला।”
“अच्छा,” कहकर सीता चली गई और कुछ देर में एक नवीना स्त्री आकर उपस्थित हुई। उसे देखते ही पुरुष ने कहा, “लो, हम लोगों को तो आज ही जाना होगा।”
इस बात को सुनकर स्त्री कुछ आश्चर्ययुक्त होकर और झुँझलाकर बोली, “आज ही जाना होगा! यह क्यों? भला आज कैसे जाना हो सकेगा? ऐसा ही था तो सबेरे भैया से कह देते। तुम तो जानते हो कि मुँह से कह दिया; बस छुट्टी हुई। लड़की कभी विदा की होती तो मालूम पड़ता। आज तो किसी सूरत में जाना नहीं हो सकता।”
“तुम आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है। बात यह है कि आज ही नवलकिशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आरे से अपनी नई बहू को भी साथ ला रहे हैं। सो उन्होंने हमें आज ही जाने के लिए इसरार किया है। हम सब लोग मुग़लसराय से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे। उनका तार मुझे घर से निकलते ही मिला। इसी से मैं झट नहा-धोकर लौट आया। बस अब करना ही क्या है? कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बाँध-बूँधकर, घंटे-भर में खा-पीकर, चली चलो। जब हम तुम्हें विदा कराने आए ही हैं, तब कल के बदले आज ही सही।”
“हाँ यह बात है! नवल जो चाहे करावें। क्या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्ती में बट्टा लग जाएगा? अब तो किसी तरह रुकोगे नहीं, ज़रूर ही उनके साथ जाओगे। पर मेरे तो नाकों दम आ जाएगी!”
“क्यों किस बात से?”
“उनकी हँसी से और किससे! हँसी-ठट्ठा राह में अच्छी लगती है? उनकी हँसी मुझे नहीं भाती। एक रोज़ मैं चौके में बैठी पूड़ियाँ काढ़ रही थी, कि इतने में न जाने कहाँ से आकर नवल चिल्लाने लगे— ए बुआ! ए बुआ! देखा तुम्हारी बहू पूड़ियाँ खा रही है— मैं तो मारे शरम के मर-सी गई। हाँ, भाभी जी ने बात उड़ा दी सही। वह बोलीं, खाने दो, खाने-पहनने के लिए तो आई ही है। पर मुझे उनकी हँसी बहुत बुरी लगी।”
“बस इसी से उनके साथ नहीं जाना चाहतीं? अच्छा चलो, मैं नवल से कह दूंगा कि बेचारी कभी रोटी तक तो खाती ही नहीं, पूड़ी क्यों खाने लगी।” इतना कहकर वंशीधर कोठरी के बाहर चले आए और बोले, “मैं तुम्हारे भैया के पास जाता हूँ। तुम रो-रुलाकर तैयार हो जाना।”
इतना सुनते ही जानकीदेई की आँखें भर आईं और असाढ़-सावन की ऐसी झड़ी लग गई।
(दो)
वंशीधर इलाहाबाद के रहने वाले हैं। बनारस में ससुराल है। स्त्री को विदा कराने आए हैं। ससुराल में एक साले, साली और सास के सिवाय और कोई नहीं है। नवलकिशोर इनके दूर के नाते में ममेरे भाई हैं। पर दोनों में नाते से मित्रता का ख़याल अधिक है। दोनों में गहरी मित्रता है। दोनों एक जान, दो क़ालिब हैं।
उसी दिन वंशीधर का जाना स्थिर हो गया। सीता, बहन के संग जाने के लिए रोने लगी। माँ रोती-धोती लड़की को विदा की सामग्री इकट्ठी करने लगी। जानकीदेई भी रोती-ही-रोती तैयार होने लगी। कोई चीज़ भूलने पर धीमी आवाज़ से माँ को याद भी दिलाती गई। एक बजने पर स्टेशन जाने का समय आया। अब गाड़ी या इक्का लाने कौन जाए? ससुराल वालों की अवस्था अब आगे की-सी नहीं थी कि दो-दो, चार-चार नौकर-चाकर हर समय बने रहें। सीता के बाप के न रहने से काम बिगड़ गया है। पैसे वाले के यहाँ नौकर-चाकरों के सिवा और भी दो-चार ख़ुशामदी घेरे रहते हैं। छूछे को कौन पूछे? एक कहारिन है; सो भी इस समय कहीं गई है। सालेराम की तबीयत अच्छी नहीं। वह हर घड़ी बिछौने से बातें करते हैं। तिस पर भी आप कहने लगे, “मैं ही धीरे-धीरे जाकर कोई सवारी ले आता हूँ। नज़दीक तो है।”
वंशीधर बोले, “नहीं, नहीं, तुम क्यों तकलीफ़ करोगे? मैं ही जाता हूँ।”
जाते-जाते वंशीधर विचारने लगे कि इक्के की सवारी तो भले घर की स्त्रियों के बैठने लायक़ नहीं होती, क्योंकि एक तो उतने ऊँचे पर चढ़ना पड़ता है। दूसरे, पराए पुरुष के संग एक साथ बैठना पड़ता है। मैं एक पालकी गाड़ी ही कर लूँ। उसमें सब तरह का आराम रहता है। पर जब गाड़ीवालों ने डेढ़ रुपया किराया माँगा, तब वंशीधर ने मन में कहा— चलो इक्का ही सही। पहुँचने से काम। कुछ नवलकिशोर तो यहाँ साथ हैं नहीं। इलाहाबाद में देखा जाएगा।
वंशीधर इक्का ले आए और जो कुछ असबाब था, इक्के पर रखकर आप भी बैठ गए। जानकीदेई बड़ी विकलता से रोती हुई इक्के पर जा बैठी। पर इस अस्थिर संसार में स्थिरता कहाँ? यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं। इक्का जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, वैसे-ही-वैसे जानकी की रुलाई भी कम होती गई। सिकरौल के स्टेशन के पास पहुँचते-पहुँचते जानकी अपनी आँखें अच्छी तरह पोंछ चुकी थी।
दोनों चुपचाप चले जा रहे थे कि अचानक वंशीधर की नज़र अपनी धोती पर पड़ी; और “अरे एक बात तो हम भूल ही गए” कहकर पछता-सा उठे। इक्केवाले के कान बचाकर जानकी ने पूछा, “क्या हुआ? क्या कोई ज़रूरी चीज़ भूल आए?”
“नहीं, एक देशी धोती पहनकर आना था, सो भूलकर विलायती ही पहिन आए। नवल कट्टर स्वदेशी हुए हैं न? वह बंगालियों से भी बढ़ गए हैं। देखेंगे दो-चार सुनाए बिना न रहेंगे। और, बात भी ठीक है। नाहक विलायती चीज़ें मोल लेकर क्यों रुपए की बरबादी की जाए? देशी लेने से भी दाम लगेगा सही; रहेगा तो देश ही में।”
जानकी ज़रा भौहें टेढ़ी करके बोली, “ऊँह, धोती तो धोती, पहिनने से काम। क्या यह बुरी है?”
इतने में स्टेशन के कुलियों ने आ घेरा। वंशीधर एक कुली करके चले। इतने में इक्केवाले ने कहा, “इधर से टिकट लेते जाइए। पुल के उस पार तो ड्योढ़े दरजे का टिकट मिलता है।”
वंशीधर फिरकर बोले, “अगर ड्योढ़े दरजे ही का टिकट लूँ तो?”
इक्केवाला चुप हो गया। “इक्के की सवारी देखकर इसने ऐसा कहा”—यह कहते हुए वंशीधर आगे बढ़े। यथासमय रेल पर बैठकर वंशीधर राजघाट पार करके मुग़लसराय पहुँचे। वहाँ पर पुल लाँघकर दूसरे प्लेटफ़ॉर्म पर जा बैठे। आप नवल से मिलने की ख़ुशी में प्लेटफ़ॉर्म की इस छोर से उस छोर तक टहलते रहे। देखते-देखते गाड़ी का धुआँ दिखलाई पड़ा।
मुसाफ़िर अपनी गठरी सँभालने लगे। रेल-देवी भी अपनी चाल धीमी करती हुई गंभीरता से आ खड़ी हुई। वंशीधर एक बार चलती गाड़ी ही में शुरू से आख़िर तक देख गए, पर नवल का कहीं पता नहीं। वंशीधर फिर सब गाड़ियों को दोहरा गए, तेहरा गए; भीतर घुस-घुसकर एक-एक डिब्बे को देखा, किंतु नवल न मिले। अंत को आप खिजला उठे और सोचने लगे कि मुझे तो वैसी चिट्ठी लिखी और आप न आया। मुझे अच्छा उल्लू बनाया, अच्छा जाएँगे कहाँ? भेंट होने पर समझ लूँगा। सबसे अधिक सोच तो इस बात का था कि जानकी सुनेगी तो ताने पर ताना मारेगी। पर अब सोचने का समय नहीं। रेल की बात ठहरी। वंशीधर झट गए और जानकी को लाकर जनानी गाड़ी में बिठाया। वह पूछने लगी, “नवल की बहू कहाँ है?”
“वह नहीं आए, कोई अटकाव हो गया।” कहकर आप बग़ल वाले कमरे में जा बैठे। टिकट तो ड्योढ़े का था, पर ड्योढ़े दरजे का कमरा कलकत्ते से आने वाले मुसाफ़िरों से भरा था। इसलिए तीसरे ही दरजे में बैठना पड़ा। जिस गाड़ी में वंशीधर बैठे थे, उसके सब कमरों में मिलाकर कुल दस ही बारह स्त्री-पुरुष थे। समय पर गाड़ी छूटी। नवल की बातें और न जाने क्या अगड़-बगड़ सोचते-सोचते गाड़ी कई स्टेशन पार करके मिर्ज़ापुर पहुँची।
(तीन)
मिर्ज़ापुर में पेटराम की शिकायत शुरू हुई। उसने सुझाया कि इलाहाबाद पहुँचने में अभी देरी है। चलने के झंझट में अच्छी तरह उसकी पूजा किए बिना ही वंशीधर ने बनारस छोड़ा था। इसलिए आप झट प्लेटफ़ॉर्म पर उतरे; और पानी के बंबे से हाथ-मुँह धोकर, एक खोमचेवाले से थोड़ी-सी ताज़ी पूड़ियाँ और मिठाई लेकर, निराले में बैठ आपने उन्हें ठिकाने पहुँचाया। पीछे से जानकी की सुध आई। सोचा कि पहले पूछ लें, तब कुछ मोल लेंगे, क्योंकि स्त्रियाँ नटखट होती हैं। वह रेल पर खाना नहीं पसंद करतीं। पूछने पर वही बात हुई। तब वंशीधर लौटकर अपने कमरे में आ बैठे। यदि वह चाहते तो वे इस समय ड्योढ़े में बैठ जाते, क्योंकि अब भीड़ कम हो गई थी। पर उन्होंने कहा, थोड़ी देर के लिए कौन बखेड़ा करे।
वंशीधर अपने कमरे में बैठा तो दो-एक मुसाफ़िर अधिक दीख पड़े। आगे वाले में से एक उतर भी गया था। जो लोग थे सब तीसरे ही दरजे के योग्य ही जान पड़ते थे, अधिक सभ्य कोई थे तो वंशीधर ही थे। उनके कमरे में पास वाली जगह में एक भले घर की स्त्री बैठी थी। वह बेचारी सिर से पैर तक ओढ़े, सिर झुकाए, एक हाथ लंबा घूँघट काढ़े, कपड़े की गठरी-सी बनी बैठी थी। वंशीधर ने सोचा इनके संग वाले भद्र पुरुष के आने पर उनके साथ बातचीत करके समय बिताएँगे। एक-दो करके तीसरी घंटी बजी। तब वह स्त्री कुछ अचकचाकर, थोड़ा-सा मुँह खोल जंगले के बाहर देखने लगी। ज्यों ही गाड़ी छूटी, वह मानो काँप-सी उठी। रेल का देना-लेना तो हो ही गया था। अब उसको किसी की क्या परवाह, अपनी स्वाभाविक गति से चलने लगी। प्लेटफ़ॉर्म पर भीड़ भी न थी। केवल दो-चार आदमी रेल की अंतिम विदाई तक खड़े थे। जब तक स्टेशन दिखलाई दिया तब तक वह बाहर ही देखती रही। फिर अस्पष्ट स्वर से रोने लगी। उस कमरे में तीन-चार प्रौढ़ा ग्रामीण स्त्रियाँ भी थीं। एक, जो उनके पास ही थी, कहने लगी, “अरे इनकर मनई तो नाहीं आईलेन। हो देख हो रोवल करथईन।”
दूसरी, “अरे दुसर गाड़ी में बैठा होंइहैं।”
पहली, “दुर वौरही! ई जनानी गाड़ी थोड़े है।”
दूसरी, “तऊ हो भलू तो कहू।” कहकर दूसरी भद्र महिला से पूछने लगी, कौने गाँव उतरबू बेटा! मीरजैपूरा चढ़ी हऊ न?” इसके जवाब में उसने जो कहा, वह सुन न सकी। तब पहली बोली, “हट हम पुंछिला न, हम कहा काहाँ उतरबू हो? आँय ईलाहाबास?”
दूसरी, “ईलाहाबास कौन गाँव ही गोइंयाँ?”
पहली, “अरे नाही जनलँ? पैयाग जी, जाहाँ मनइ मकर नाहाए जाला।”
दूसरी, “भला पैयाग जी काहे न जानीथ; ले, कहैके नाहीं, तोहरे पंच के धरम से चार दाँई नहाए चुकी हंइ। ऐसों हो सोमवारी, अउर गहन, दका, दका, लाग रहा तउन तोहरे काशी जी नाहाय गई रहे।”
पहली, “आवै जाए के तो सब अऊते जात बटले बाटेन। फुन यह साइत तो विचारो विपत में न पड़ल बाटिन। हे हम पंचा हइ, राजघाट टिकस कटऊली, मोंगल के सरायं उतरलीह, होदे पुनः चढ़लीह।”
दूसरी, “ऐसे एक दाँइ हम आवत रहे। एक मिली औरो मोरे संघे रहीं। द कौने टिसनीया पर उकर मलिकवा उतरे से कि जुरतंइहै गड़िया खुली। अब भईया उः गरा फाड़-फाड़ नरियाय-ए साहब गड़िया खड़ी कर। ए साहेब गड़िया तंनी खड़ी कर। भला गड़िया दहिनाती काहै के खड़ी होय?”
पहली, “उ मेहररुवा बड़ी उजबक रहल। भला केहू के चिल्लाए से रेलीऔ कहूँ खड़ी होला?”
इसकी इस बात पर कुल कमरे वाले हँस पड़े। अब जितने पुरुष-स्त्रियाँ थीं, एक-से-एक अनोखी बातें कहकर अपने-अपने तजुर्बा बयान करने लगीं। बीच-बीच में उस अकेली अबला की स्थिति पर भी दुःख प्रकट करती जाती थीं।
तीसरी स्त्री बोली, “टीक्कसिया पल्ले बाय द नाही। हे सहेबवा सुनि तो कलकत्ते ताँइ ले मसुलिया लेइ। अरे इंहो तो नाही कि दूर से आवत रहलेन, फरागत के बदे उतरलेन।”
चौथी, “हम तो इनके संगे के आदमी के देखबो ना किहा गोइयाँ।”
तीसरी, “हम देखे रहली हो, मजेक टोपी दिहले रहलेन को!”
इस तरह उनकी बेसिर-पैर की बातें सुनते-सुनते वंशीधर ऊब उठे। तब वह उन स्त्रियों से कहने लगे, “तुम तो नाहक उन्हें और भी डरा रही हो। ज़रूर इलाहाबाद तार गया होगा और दूसरी गाड़ी से वे भी वहाँ पहुँच जाएँगे। मैं भी इलाहाबाद ही जा रहा हूँ। मेरे संग भी स्त्रियाँ हैं। जो ऐसा ही है तो दूसरी गाड़ी के आने तक मैं स्टेशन ही पर ठहरा रहूँगा। तुम लोगों में से कोई प्रयाग उतरे तो थोड़ी देर के लिए स्टेशन पर ठहर जाना। इनको अकेले छोड़ देना उचित नहीं। यदि पता मालूम हो जाएगा तो मैं इन्हें इनके ठहरने के स्थान पर भी पहुँचा दूँगा।”
वंशीधर की इन बातों से उन स्त्रियों की वाक्यधारा दूसरी ओर बह चली, “हाँ यह बात तो आप भली कही। नाही भइया! हम पंचे काहिके केहुसे कुछ कही। अरे एक के एक करत न बाय तो दुनिया चलत कैसे बाय?” इत्यादि ज्ञान-गाथा होने लगी। कोई-कोई उस बेचारी को सहारा मिलते देख ख़ुश हुए और कोई-कोई नाराज़ भी हुए। क्यों, सो मैं आपसे नहीं बतला सकती। उस गाड़ी में जितने मनुष्य थे सभी ने इस विषय में कुछ-न-कुछ कह डाला था। पिछली सीट में केवल एक स्त्री, जो फरासीसी छींट की दुलाई ओढ़े अकेली बैठी थी, कुछ नहीं बोली। कभी-कभी घूँघट के भीतर से एक आँख निकालकर वंशीधर की ओर ताक देती थी और सामना हो जाने पर फिर मुँह फेर लेती थी। वंशीधर सोचने लगे कि यह क्या बात है? देखने में तो यह भले घर की मालूम होती है, पर आचरण इसका अच्छा नहीं।
गाड़ी इलाहाबाद के पास पहुँचने को हुई। वंशीधर उस स्त्री को धीरज दिलाकर आकाश-पाताल सोचने लगे। यदि तार से कोई खबर न आई होगी तो दूसरी गाड़ी तक स्टेशन पर ही ठहरना पड़ेगा और जो उससे भी कोई न आया तो क्या करूँगा? जो हो गाड़ी नैनी से छूट गई। अब उन अशिक्षिता स्त्रियों ने फिर मुँह खोला, “क भईया, जो केहु बिन टिक्कस के आवत होय तो ओकर का सजाय होला? अरे ओंका ई नाहीं चाहत रहा कि मेहरारू के तो बैठा दिहलेन, अउर अपुआ तऊन टिक्कस लेइ के चल दिहलेन।”
किसी-किसी आदमी ने यहाँ तक दौड़ मारी कि रात को वंशीधर इसके जेवर छीनकर रफ़ूचक्कर हो जाएँगे। उस गाड़ी में एक लाठीवाला भी था। उसने खुल्लम-खुल्ला कहा, “का बाबू जी! कुछ हमरो साझा?”
उसकी बात पर वंशीधर क्रोध से लाल हो गए। उन्होंने उसे खूब धमकाया। उस समय तो वह चुप हो गया, पर यदि इलाहाबाद उतरता तो वंशीधर से बदला लिए बिना न रहता।
(चार)
वंशीधर इलाहाबाद में उतरे। एक बुढ़िया को भी वहीं उतरना था। उससे उन्होंने कहा, “उनको भी अपने संग उतार लो।” फिर इस बुढ़िया को उस स्त्री के पास बिठाकर आप जानकी को उतारने गए। जानकी से सब हाल कहने पर वह बोली, “अरे, जाने भी दो, किस बखेड़े में पड़े हो।” पर वंशीधर ने न माना। जानकी को और उस भद्र महिला को एक ठिकाने बिठाकर आप स्टेशन मास्टर के पास गए। वंशीधर के जाते ही बुढ़िया, जिसे उन्होंने रखवाली के लिए छोड़ा था, किसी बहाने से भाग गई। स्टेशन मास्टर से पूछने पर मालूम हुआ कि कोई तार नहीं आया। अब तो वंशीधर बड़े असमंजस में पड़े। टिकट के लिए बखेड़ा होगा, क्योंकि वह स्त्री बे-टिकट है। लौटकर आए तो किसी को न पाया, “अरे यह सब कहाँ गईं?” यह कहकर चारों तरफ़ देखने लगे। कहीं पता नहीं। इस पर वंशीधर घबराए। आज कैसी बुरी साइत में घर से निकले कि एक के बाद दूसरी आफ़त में फँसते चले आ रहे हैं। इतने में अपने सामने उस दुलाईवाली को आते देखा।
“तू ही उन स्त्रियों को कहीं ले गई है।” इतना कहना था कि दुलाई से मुँह खोलकर नवलकिशोर खिलखिला उठे।
“अरे यह क्या? सब तुम्हारी ही करतूत है! अब मैं समझ गया। कैसा गज़ब तुमने किया है? ऐसी हँसी मुझे नहीं अच्छी लगती। मालूम होता है कि वह तुम्हारी ही बहू थी। अच्छा तो वे लोग गई कहाँ?”
“वे लोग तो पालकी गाड़ी में बैठी हैं। तुम भी चलो।”
“नहीं मैं सब हाल सुन लूँगा तब चलूँगा। हाँ, ये तो कहो, तुम मिरजापुर में कहाँ से आ निकले?”
“मिरजापुर नहीं मैं तो कलकत्ते से, बल्कि मुग़लसराय से, तुम्हारे साथ चला आ रहा हूँ। तुम जब मुग़लसराय में मेरे लिए चक्कर लगाते थे, तब मैं ड्यौढ़े दरजे में ऊपरवाले बेंच पर लेटे तुम्हारा तमाशा देख रहा था। फिर मिरजापुर में तुम पेट के धंधे में लगे थे, मैं तुम्हारे पास से निकल गया पर तुमने न देखा। मैं तुम्हारी गाड़ी में जा बैठा। सोचा कि तुम्हारे आने पर प्रकट होऊँगा। फिर थोड़ा और देख लें, करते-करते यहाँ तक नौबत पहुँची। अच्छा अब चलो, जो हुआ उसे माफ़ करो।”
यह सुन वंशीधर प्रसन्न हो गए। दोनों मित्रों में बड़े प्रेम से बातचीत होने लगी। वंशीधर बोले, “मेरे ऊपर जो कुछ बीती सो बीती पर वह बेचारी, जो तुम्हारे गुणवान के संग पहली ही बार रेल से आ रही थी, बहुत ही तंग हुई। उसे तो तुमने नाहक रुलाया। वह बहुत ही डर गई।”
“नहीं जी! डर किस बात का था? हम, तुम दोनों गाड़ी में न थे?”
“हाँ, पर, यदि मैं स्टेशन मास्टर से इत्तला कर देता तो बखेड़ा खड़ा हो जाता न?”
“अरे तो क्या, मैं मर थोड़े ही गया था! चार हाथ की दुलाई की बिसात ही कितनी?”.
इसी तरह बातचीत करते-करते दोनों गाड़ी के पास आए। देखा तो दोनों मित्र-वधुओं में खूब हँसी हो रही थी। जानकी कह रही थी, “अरे, तुम जानो क्या! इन लोगों की हँसी ऐसी ही होती है। हँसी में किसी के प्राण भी निकल जाएँ तो इन्हें दया न आवे।”
ख़ैर, दोनों मित्र अपनी-अपनी घरवाली को ले राज़ी-ख़ुशी घर पहुँचे और मुझे भी उनकी ये राम-कहानी लिखने से छुट्टी मिली।
- पुस्तक : बीसवीं सदी का हिंदी महीला लेखन (पार्ट-3) (पृष्ठ 23)
- रचनाकार : ममता कालिया
- प्रकाशन : साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
- संस्करण : 2015
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