बनारस विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष आचार्य चूड़ामणि प्राचीन परंपरा के संरचनावादी समीक्षक थे। मनु महाराज के वर्ण विभाजन और स्त्री संबंधी आग्रह आदि में उनकी अटूट आस्था थी। अनेक विश्वविद्यालयों की, पाठ्यक्रम समिति के प्रभावी सदस्य, थीसिसों के परीक्षक, हिंदी के प्रसार और विकास के लिए स्थापित अनेक संस्थाओं के संरक्षक और ख़ुद अपने विश्वविद्यालय में 'डीन ऑफ़ स्टूडेन्ट्स' जैसे महत्वपूर्ण पदों की ज़िम्मेवारियाँ संभाले हुए व्यस्त रहा करते थे। एक कैबिनेट मंत्री की थीसिस उन्होंने ख़ुद लिखाई थी। शहर के मेयर और शराब के ठेकेदार मनोहर जायसवाल की पुत्रवधु उन्हीं के निर्देशन में शोध कर रही थीं। उनका व्यक्तित्व एक ऐसे वटवृक्ष की तरह था जिसने अपनी मूल ज़मीन की सारी उर्वराशक्ति को सोखकर उसे बंध्या कर दिया था। जिसके कोटरों में साँप, चमगादड़, नेवले और गिरगिट सुख चैन से रह रहे थे। जिसकी उन्नत शाख़ाओं पर बैठे गिद्ध हर क्षण मृत्यु की टोह में दूर टकटकी लगाए रहते। विश्वविद्यालय में नियम था कि कोई प्रोफ़ेसर दो साल से ज़ियादा विभागाध्यक्ष के पद पर नहीं रहेगा। लेकिन आचार्य चूड़ामणि के दरबार में सारे नियम-क़ानून पायदान की तरह बिछे रहते। कीचड़ और गंदगी पोंछने के काम आते थे सारे नियम और क़ानून।
सुबह-ए-बनारस! पंचगंगाघाट की सीढ़ियों पर हो या ठठेरी बाज़ार की सँकरी गलियों में चाहे जहाँ हो। उसके अस्त का उत्सव आचार्य चूड़ामणि के दरबार में ही धूमधाम से संपन्न होता। आर.एस.एस. और विद्यार्थी परिषद के नेता जमा होते। विश्वविद्यालय के एक-एक विभाग और एक-एक व्यक्ति के बारे में वे सारी सूचनाएँ सौंपकर मंत्रणादान पाया करते थे। आचार्य उतने बड़े संगठन के गॉडफ़ादर थे। कहा जाता है कि विश्वविद्यालय के उस सिंहपीठ पर रहते हुए चूड़ामणि जी ने कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से गुजरात तक के हिंदी विभागों को अपने प्रभामंडल से आच्छादित कर रखा था। विभागाध्यक्षों और प्रोफ़ेसरों के अलावा नए लेक्चरर और चपरासियों तक की नियुक्ति उन्हीं की मरज़ी से होती थी। “तेरी सत्ता के बिना हे प्रभु मंगल मूल, पत्ता तक हिलता नहीं...
वे अस्सी के दशक के प्रारंभिक वर्ष थे। तब ‘ग्लासनोस्त' और 'पेरोस्त्रोइका' जैसी घटनाएँ सोवियत रूस में नहीं हुई थीं। 'पार्टी हेडक्वार्टर' को ध्वस्त करने की सांस्कृतिक क्रांति की अपील का उत्साह था। पद, प्रतिष्ठा, उम्र और अनुभव आदि की दुहाई देकर कौन इतिहास का रास्ता रोक रहा है? उसकी खोज करो!
विश्वविद्यालयों में मार्क्सवादी विचारधारा और वामपंथी अश्वमेध का घोड़ा कालिदास, भवभूति, तुलसी और बिहारी के बाद मैथिलीशरण गुप्त तक को रौंदता, किसी कालातीत सौंदर्यशास्त्र के लिए भागता चला जा रहा था। अस्सी के दशक के उन शुरुआती वर्षों में आचार्य चूड़ामणि जितना क्षुब्ध, दुःखी, उदास और आहत रहा करते थे उतना पहले कभी नहीं। रूखे चेहरे, बढ़ी दाढ़ी, धँसी आँखों पर चश्मा लगाए बड़े-छोटे का सारा लिहाज़ छोड़कर बहस करते, सिगरेट पीते इस नई वामपंथी प्रजाति को देखकर वे वाक़ई बहुत खिन्न रहा करते थे। साम और दाम! एक दिन जब उन्होंने जलेश्वर से कहा कि तुम बहुत योग्य और होनहार लड़के हो तो वह बेशर्मों की तरह हँसने लगा—“लेकिन मुझे नौकरी नहीं करनी है... और आप मुझे बेवजह दाना डाल रहे हैं। मैं यहाँ पार्टी का काम करने आया हूँ।”
वह महेश्वर की पार्टी का सक्रिय और उसी का छोटा भाई था। महेश्वर के बारे में किंवदंती थी कि एक बार नेपाल के एक पहाड़ी ढाबे पर जाड़े की सुबह गरम-गरम जलेबी और दही खाते हुए वह एक बूढ़े आदमी से बे-तरह उलझ गया। बूढ़ा आदमी बार-बार कुछ कहना चाहता था, लेकिन उसे इसका अवसर नहीं मिल रहा था। महेश्वर ने उसे बताया कि थोड़ा गाँवों में लोगों के बीच जाकर आप उनके अनुभवों से भी सीखें। बूढ़ा थक-हार कर उठा और चला गया। बाद में ढाबे के नौकर ने बताया कि ये चीन के चेयरमैन माओ त्से-तुंग थे। आगे महेश्वर ने जो कुछ कहा और किया वह किवदन्ती में नहीं है। जलेश्वर उसी महेश्वर का छोटा भाई था। दिन में नुक्कड़ नाटक करता। कविताएँ रचता और रात भर जागकर शहर की दीवारों पर नारे लिखा करता था। विश्वविद्यालय में उसकी अपनी मण्डली थी, जो हमेशा चुनौती देती थी। साहित्य, कला, संस्कृति और इतिहास पर बहस करती थी। और अंत में वही करती और कहती थी जो महेश्वर उसे चिट्ठी में लिखकर बताता था।
आचार्य चूड़ामणि जी के योग्य शिष्य सुबोध मिसिर यूँ तो शांत स्वभाव के गंभीर व्यक्ति थे। लेकिन अपने गुरुदेव के अपमान और क्षोभ को देखकर उन्होंने चुपचाप कमर कसी। फिर तो मार्क्सवादी अश्वमेध का जो घोड़ा सबको रौंदता चला जा रहा था, एक दिन उसकी लगाम पकड़ ली गई। शास्त्रार्थ की कई परंपराएँ शुरू हुईं। मशीनी नतीजे और जड़ आस्थाएँ एक-दूसरे से टकराने लगीं। एक तरफ़ कबीर, प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध थे तो दूसरी ओर तुलसीदास, आचार्य शुक्ल और हज़ारीप्रसाद द्विवेदी। जाहिलों और जातिवादियों का संगठन आर.एस.एस. सुबोध मिसिर जैसे ज़हीन, पढ़ाकू और संयमित व्यक्ति का संसर्ग पाकर नई जीवनी शक्ति से भर गया। अपनी वेशभूषा और रहन-सहन में वे शुद्ध रूप से देहाती थे। कुर्ता, पाजामा और चप्पल के अलावा कभी-कभार उनके कंधे पर सफेद गमछा पड़ा होता था। अकसर सामने वाला उन्हें देखकर धोखा खा जाता। सुर्ती खाने के अलावा और कोई व्यसन उन्हें छू न सका था। स्त्रियों के बारे में उनके वही विचार थे जो कवियों के बारे में प्लेटों के। कल्पनाओं के फितूर और वाहियात के सपनों में उनकी कोई रुचि न थी। उनका ज़ियादातर समय पुस्तकालय में बीतता था। और शाम को नियमित गुरुदेव आचार्य चूड़ामणि के दरबार में जाकर चरण-स्पर्श करते। उन दिनों गुरुदेव का इकलौता श्रवणकुमार एम.ए. अंतिम वर्ष हिंदी से कर रहा था। कभी फ़ुर्सत में सुबोध मिसिर उसे घंटों पढ़ाया करते। उन्हें इस बात का मन ही मन अफ़सोस था कि गुरुदेव का पुत्र होनहार नहीं है। बल्कि एकदम मूर्ख और बोदा।
वह बनारस विश्वविद्यालय का नवजागरण काल था। नए-नए लेक्चरर, वृद्ध रीडर और प्रोफ़ेसर से लेकर क्लर्क शर्माजी और चपरासी रामदीन तक, साले-साली, बेटे, बहू, दामाद और जीजा-जीजी तक हिंदी से एम.ए., पी.एच.डी. कर रहे थे। परीक्षाओं से एक रात पहले पान की दुकानों पर पर्चे वितरित होने लगते। जिन्हें क्रमवार स्वर और व्यंजन का बोध नहीं था वे पिछले सारे रिकार्ड तोड़कर धड़ाधड़ प्रथम श्रेणी पास होते चले जा रहे थे। ‘ग्लोब्लाइज़ेशन' से बहुत पहले ही एशिया का यह सबसे बड़ा विश्वविद्यालय गाँव की शक्ल ले रहा था। पड़ोसी देशों से बड़ा बजट लेकर मानव संसाधन मंत्रालय, यू.जी.सी. और सी.एस.आई.आर. का संचित खज़ाना यहाँ की गंदी नालियों में औंधे मुँह गिरा पड़ा था। रामनाम की लूट है, लूट सके तो लूट...
अध्यापक संघ का चुनाव होने वाला था। ब्राह्मण, भूमिहार राजपूत और कुर्मी अपनी-अपनी दुकानें सजा रहे थे। उछल-कूद, मारपीट और हाथापाई। इस युद्धभूमि में सब कुछ जायज़ था। आचार्य चूड़ामणि राजपूत लॉबी के महत्वपूर्ण स्तंभ थे। गुंडावाहिनियाँ उनका चरण-रज लेकर धन्य हुआ करती थीं। भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद की भावना जगाने वाली एक संस्था के ब्राह्मण वर्चस्व को ख़त्म करके उन्होंने उसे अपने मातहत कर लिया था।
कुर्ता-पाजामा पहनने वाले सुबोध मिसिर एक ग़रीब किसान के होनहार बेटे थे। बचपन में ही उन्होंने शतात्माओं के निर्वाणोपरांत जिस स्वर्गलोक की कल्पना कर रखी थी, और जो उन्हें धवल रूई के बादलों पर सुनहले द्वीप की तरह तैरता हुआ दिखाई देता था, वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि सारे देवतागण अनवरत आत्मरति के शिकार अपनी ही वासनाओं में हस्तमैथुन किए जा रहे हैं। चुनाव पूर्व अध्यापक संघ की मीटिंग चल रही थी। झाँव-झाँव, काँव-काँव। लोग क्या बोल रहे हैं? गोबर और गू में लिथड़े-पड़े शब्दों की शक्ल खो गई है। अचानक कॉमर्स के एक मोटे मुस्टंड भूमिहार प्रोफ़ेसर ने भौतिक विज्ञान के दूसरे कर्मी प्रोफ़ेसर को उठाकर मंच पर ही दे पटका। लातों और घूसों के अनवरत प्रवाह में नीचे वाले ने ऊपर वाले का कान दाँत से काट लिया। ख़ून की धारा और चीख़ के बीच एक दारोग़ा ने डंडा फटकारा—“आप लोग लड़कों को क्या पढ़ाओगे?” उसने दोनों को धकियाकर एक-दूसरे से अलग किया। बनारस विश्वविद्यालय का यह चलता फिरता यथार्थ पौराणिक आख्यान और मिथक कथाओं से भी ज़ियादा अविश्वसनीय और लोमहर्षक था।
निरक्षरता और अज्ञानता के अँधेरे में डूबे गाँवों के जो लोग शताब्दियों से एक ही अन्न खाते चले आ रहे हैं, और जो लोग धारासार बरसात की काली अँधेरी रात में साँपों, बिच्छुओं और गोहों से पटी पड़ी मेड़ पर भुकभुकाती लालटेनों के सहारे बचते-बचाते फावड़ा लेकर नाली बाँधने चले जा रहे हैं। जो लोग क्वार की ज़ेहरीली धूप में बैलों के साथ सिर झुकाए खेत जोत रहे हैं। जाड़े की ओस और ठंड में काँपते-ठिठुरते जो लोग सिवान के निर्जन सन्नाटे में महीनों से सारी रात बैठकर सिर्फ़ बिजली की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन सारे लोगों के जीवन में जातिसूचक शब्द सत्ती मैया के चौरे की तरह निर्जीव कोने-अँतड़े में पड़ा हुआ है। शादी, समारोह, तीज, त्योहार पर वे वहाँ चढ़ावा चढ़ाते और फिर भूल जाते। वही जातिसूचक शब्द सभ्यता और आधुनिकता का समारोह मनाने वाले विद्वानों की इस बस्ती का मूल मंत्र बना हुआ है। चारों और ब्राह्मण राजपूतों को, राजपूत कायस्थों और भूमिहारों को, भूमिहार कुर्मियों को गालियाँ दे रहे हैं। इस बार अध्यापक संघ के चुनाव में कुर्मी अपना पक्ष तय नहीं कर पाए। इधर मंदिर का महंथ, जो विज्ञान संकाय का डीन भी है, उसने पूर्वांचल के सबसे बड़े माफ़िया डॉन, विधायक, नर हत्याओं के कुख्यात अपराधी और ब्राह्मण सभा के अध्यक्ष की मदद से भूमिहारों से तालमेल कर लिया। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और महामंत्री तीनों सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशियों की जीत से राजपूत लॉबी को लकवा मार गया। मंदिर के महंथ के यहाँ मिठाइयों का दौर शाम से चल रहा था। भूमिहार विशेष रूप में आमन्त्रित थे। विजयोल्लास के क़हक़हे गूँज रहे थे।
उधर आचार्य चूड़ामणि के दरबार में एक लाश रखी हुई थी। इतिहास की लाश। सारे क्षत्रप शोकमग्न सिर झुकाए बैठे थे। पराजय और अपमान से आहत। किंकर्तव्यविमूढ़ संघ के नगर संचालक महातिम सिंह ने आर्य पराभव के मूल पर टिप्पणी की और फुसफुसाए—“मुसलमानों से भी ख़तरनाक होते हैं ये सँपोले! कुछ न कुछ ज़रूर करना पड़ेगा इस बार।” वे लंबी साँस खींच कर उठे और शाम के धुंधलके में कहीं खो गए।
ठीक रात के बारह बजे जब लोग महंथ जी के यहाँ से लौटकर पान की दुकान पर खड़े हुए ही थे कि राजपूतों की गुंडावाहिनी ने हॉकी और लोहे की राडों से उन पर हमला कर दिया। इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि ब्राह्मणों के साथ कहीं कोई भूमिहार न पिट जाय। वरना, यह समीकरण स्थाई होकर दूर तक नुक़सान करेगा।
थोड़ी देर बाद गुंडों की तलाश में पुलिस और पी.ए.सी. का भारी जत्था हॉस्टल में घुसा। उस समय सारी घटना से बेख़बर लड़कों की समझ में कुछ नहीं आया। पी.ए.सी. जब छात्रवासों में जाती है तो उसका ध्यान घड़ी, पर्स और रुपये, पैसों पर ज़ियादा होता है। लड़कों ने ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद करना शुरू किया। लाठी चार्ज होने लगा। शहर कोतवाल ब्राह्मण था। जिले का सी.जे.एम. भी ब्राह्मण था। और वह भी, जो होना चाहता था किसी गली का शोहदा, किसी नुक्कड़ का गुंडा या किसी थाने का दारोग़ा, लेकिन दुर्भाग्य से प्रोफ़ेसर बना, चीफ़ प्राक्टर भी ब्राह्मण था। वह ग़ुस्से से थरथर काँपते हुए पी.ए.सी. वालों को ललकार रहा था। एक जवान के सिर पर पत्थर लगा। उसने दौड़ाकर लड़के को पकड़ा और तिमंज़िले पर ले जाकर सीधे उठाया और नीचे फेंक दिया।
महीने भर बाद होने वाले छात्र संघ के चुनाव में सारा समीकरण बदलने लगा। वामपंथी प्रत्याशी विजयानंद शाही मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा का सशक्त दावेदार बनकर उभर रहा था। पिता भ्रष्टाचार के मामले में सस्पेंड, सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर थे। शहर में मकान था। पैसे की चिंता नहीं थी। आचार्य चूड़ामणि ने सोचा कि 'विचारधाराएँ तो परिवर्तनशील होती हैं। उम्र और परिस्थिति से निर्धारित। मूल सत्य तो जाति है।' आर.एस.एस. की राजपूत और भूमिहार लॉबी ने विद्यार्थी परिषद के शिवानन्द ओझा के ख़िलाफ़ अध्यक्ष पद पर शाही का समर्थन कर दिया। वामपंथ की शानदार विजय दर्ज हुई। उसी पैनल का दूसरा हरिजन प्रत्याशी मात्र पचासी वोट पाकर वीरान और बेजान पसरी सड़क पर अकेले क्रांतिवाद ज़िंदाबाद चिल्लाता चला जा रहा था। जब थक गया और मुँह से झाग आने लगा तो जगजीवनराम छात्रावास के अपने कमरे में जाकर भूखे पेट सो गया।
उस समय आचार्य चूड़ामणि के रिटायर होने मे दो वर्ष और बाक़ी थे। इसलिए जब उनको ‘माइल्ड हार्ट अटैक' हुआ तो लोगों ने उसकी तरह-तरह की व्याख्या की। किसी ने बताया कि दरअसल, यह हार्ट अटैक महज एक नाटक है। अध्यापक संघ के चुनाव के बाद जिन ब्राह्मण प्रोफ़ेसरों को मारा गया है उसके लिए कुलपति ने हाईकोर्ट के एक रिटायर जज से जाँच शुरू करा दी है। वह उसी जाँच समिति से बचने का बहाना है।
यह बात सच है या नहीं। लेकिन यह ज़रूर है कि हफ़्ते भर पहले जब इस जाँच समिति की घोषणा की गई थी तो आचार्य चूड़ामणि की प्रतिक्रिया यही थी कि—कुलपति ब्राह्मण। हाईकोर्ट का रिटायर जज ब्राह्मण! इसमें जाँच कराने से क्या? एक तरफ़ फैसला होगा...
“इसमें होगा क्या गुरुदेव ? —पास बैठे एक लड़के ने, जो विश्वविद्यालय में ठेके लेता है, पूछा।
आचार्य चूड़ामणि मुस्कुराए—“एक रजिस्टर गंदा होगा। जज साहब रिटायर हो चुके हैं। दस-बीस बार ए.सी. का किराया और भोजन-पानी का कुछ पैसा मिल जायेगा। मसनद पर थोड़ा उठगकर उन्होंने दीवान के नीचे से पीकदान खींचा और कंठ तक भर आयी घृणा को पिच्च से थूक दिया।
कुछ लोग इस हार्ट अटैक की व्याख्या बिलकुल दूसरे ढंग से कर रहे थे। उन लोगों का कहना था कि हृदयहीन लोगों को हार्ट अटैक कैसे हो सकता है? हो न हो, यह भदैनी की उस हवेली को हारने का दुःख है जिसमें पच्चीस रुपया किराया देकर आचार्य पिछले पैंतीस सालों से रह रहे हैं। उनका अपना मकान, पी.डब्लू.डी. विभाग के बतौर ऑफिस, अठारह हजार रुपये किराया पर उठा है। अब अगर उन्हें अपने मकान में जाना पड़ा तो हर महीने अठारह हजार रुपये का घाटा ।
हालाँकि इस बात में भी कुछ दम नहीं है। क्योंकि आचार्य के खिलाफ फैसला सिर्फ निचली अदालत से हुआ है। ऊपर की अदालत ने 'स्टे' दे दिया हैं इसके बाद तो हाईकोर्ट है। फिर सुप्रीम कोर्ट। तब तक आचार्य तीन पीढ़ियाँ इसमें गुजर जायेंगी।
इन सब बातों के अलावा, कुछ लोग जो ज्यादा ही कृतघ्न बुद्धि के होते हैं। और बेवजह हर समय हर किसी की दीवाल में छेद करके वहीं चौबीस घंटे आँख गड़ाये रहते हैं, हर छोटी-बड़ी घटना में जो लोग पुत्रों, बहुओं और बेटियों को खींच लाते हैं, उन सबका कहना था कि 'रिटायरमेंट' नजदीक है। बेटा एम.ए. में है। कुलपति पिछले दस सालों से विश्वविद्यालय के रुके इंटरव्यू को रात-दिन कराने के लिए आमादा है। अगर इस समय इंटरव्यू हो गया तो मेरे श्रवणकुमार का क्या होगा? फिर तो अगले दस साल तक इंटरव्यू नहीं होगा। दरअसल, यह हार्टअटैक श्रवणकुमार की चिंता से है।
ले-देकर यही बात सत्य के ज़ियादा क़रीब हो सकती थी। क्योंकि अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भर्ती आचार्य को जैसे ही यह बात पता लगी कि विभाग में इंटरव्यू की तारीख़ तय हो गई है, उन्होंने डॉक्टर के मना करने के बावजूद अपने को पूर्णतया स्वस्थ घोषित किया और रिक्शा पकड़कर सीधे विभाग के लिए चल पड़े।
उस दिन विभाग में अफ़रा-तफ़री मची थी। लोग अनुमान लगा रहे थे कि अभी तो आचार्य चूड़ामणि हार्ट अटैक के मरीज़ होकर अस्पताल में भर्ती हैं, इसलिए नंबर दो के रीडर आचार्य भवेश पांडे जी अध्यक्ष की हैसियत से इंटरव्यू बोर्ड में बैठेंगे।—लेकिन वे कैसे बैठ सकते हैं—किसी ने शंका ज़ाहिर की—वे तो ख़ुद ही प्रोफ़ेसर पद के प्रत्याशी हैं, और दूसरे उनकी पुत्रवधू लेक्चररशिप के लिए अप्लिकैंट है। दूसरे ने प्रतिवाद किया—हो सकता है वे रीडर वाले इंटरव्यू बोर्ड में बैठें।
विभाग में ज़ियादातर नए लेक्चरर जो दिन में दो बजे आते और विभाग से दूसरे की डाक उठाकर चुपचाप चले जाते, वे सारे लोग आज सुबह दस बजे से ही आने शुरू हो गए थे। भवेश पांडेय के आसपास जमा ये लोग उनके मुफ़लर और टोपी और सुंदर स्वास्थ्य के बारे में बातें कर रहे थे। भवेश पांडे उस समय आचार्य चूड़ामणि के हार्ट अटैक, इंटरव्यू का घोषित होना आदि कई ईश्वरीय चमत्कारों पर अभिभूत गुरुगंभीर मुद्रा बना कर खड़े थे। रीडर के प्रत्याशी एक लेक्चरर ने कहा—गुरुदेव! आपने एम.ए. में जो कामायनी की व्याख्या पढ़ाई थी वह तो आज तक नहीं भूलती।
पांडेय जी मुस्कुराए—अरे भाई! मैं तो बीस सालों से उद्धव शतक ही पढ़ा रहा हूँ।
लोग हँस पड़े।
पंद्रह दिन से सूरज नहीं निकला—पांडेय जी ने मौसम पर टिप्पणी की डीन सिन्हा जी के घर जाना है—अपने भविष्य से आशंकित वह सड़क की ओर देख रहे थे आजकल ठंड के मारे रिक्शे भी नहीं निकलते।
कामर्स विभाग के सामने दो लड़कियाँ रिक्शे से उतर रही थीं—हम अभी रिक्शा ला रहे हैं सर! चपरासी रामदीन हाथ बाँधे देख रहा है, तीन लेक्चरर रिक्शे वाले को बुलाने के लिए दौड़ पड़े।
ठीक उसी समय क्लर्क शर्मा जी ने चहककर इशारा किया—उधर सामने रिक्शा आ रहा है।
सब लोगों ने देखा, धोती और कुर्ता। कुर्ते पर बंद गले की कोट। सिर पर फर की टोपी और कंधे पर कश्मीरी शाल। आचार्य चूड़ामणि रिक्शे पर चले आ रहे थे। अब तक जो लोग पांडेय जी को घेरकर खड़े थे उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। किसी को बहुत ज़ोर की पेशाब लगी तो किसी को ऊपर विभाग में काम पड़ गया। जो तीन लेक्चरर कामर्स विभाग की ओर गए थे, वे रिक्शे वाले को वहीं छोड़कर कैफ़ेटेरिया में घुस गए। मैदान में अकेले खड़े रह गए भवेश पांडे। बाघ के सामने सहमी नीलगाय। वह रिक्शे पर बैठे आचार्य को देख रहे थे। जैसे कोई कालपुरुष चला आ रहा हो।
—क्या बात है पांडे जी! चूड़ामणि ने रिक्शे से उतरते हुए पूछा, ”आप लोग क्लास छोड़कर यहाँ खड़े हैं?
आपका स्वास्थ्य कैसा है सर? पांडे जी ने पूछा और सफ़ाई दी, डीन सिनहा जी ने सारे विभागाध्यक्षों की मीटिंग बुला रखी है। वहीं जा रहा था। आप नहीं थे सर, मुझे बहुत चिंता थी।
सिनहा को और कोई काम नहीं रह गया है। बैठे-बैठे राजनीति छाँटता है। आपको वहाँ जाना है। जाइए, अपना क्लास लीजिए! चूड़ामणि जी ने हिकारत से कहा—क्या मवेशीख़ाना बना रखा है विभाग को। उन्होंने शर्मा जी को बुलाकर कहा, वहाँ से लड़कों को हटाइए और कहिए, अपने-अपने क्लास में जाएँ।
और सुनिए, आप डीन ऑफिस चले जाइए। मीटिंग का एजेंडा ले आइए। और बता दीजिएगा कि यहाँ सबकी व्यस्तताएँ हैं। समय पूछकर मीटिंग रखा करें।
सर, सुना है कि इंटरव्यू होने वाला है—शर्मा ने बताया। जैसे सुस्वादु भोजन के बीच दाँतों में काई कंकड़ फँस जाए। सारा ज़ायक़ा ख़राब। बुरा सा मुँह बनाकर चूड़ामणि जी ने शर्मा को देखा—कैसा इंटरव्यू!
सर! यहाँ सारे अध्यापक सुबह से ही पांडे जी को घेर रखे हैं। हफ़्ते भर से कोई क्लास नहीं। सुना है डीन ने पांडे जी को प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष बनाने का आश्वासन दे रखा है। शर्मा विभाग में आचार्य चुड़ामणि जी का ख़ास आदमी है।
तब तक एक लड़का आया। उसके साथ विश्वविद्यालय छात्र संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष और अब आर.एस.एस. के प्रान्तीय संयोजक समर सिंह भी थे। दोनों ने आचार्य का चरण स्पर्श किया। “कहिए, संगठन का काम कैसा चल रहा है? आचार्य ने पूछा।
वहाँ तो ठीक है सर! लेकिन आप लोगों ने कम्युनिस्ट, वह भी नक्सलाइट प्रत्याशी को जीत जाने दिया?” समर सिंह ने चिंता ज़ाहिर की।
तो क्या करते! यहाँ बाभन जिता देते? हम बचे रहेंगे तभी विचारधाराएँ रहेंगी।—चूड़ामणि जी ने उनकी बात को कोई तवज्जो न देते हुए पूछा—कहिए, कोई काम है?
“सर! इनका पी.एच.डी. में रजिस्ट्रेशन कराना है।” समर सिंह ने साथ वाले लड़के की ओर इशारा किया।
आपने और किसी से बात नहीं की? आचार्य रजिस्ट्रेशन फ़ार्म को पढ़ रहे थे—विषय, हिंदी कवियों का औषधि ज्ञान।
इस विषय का क्या मतलब?—उन्होंने लड़के से पूछा।
“सर, आयुर्वेद विभाग में शोध के लिए ‘स्कालरशिप' है। आप चाहेंगे तो मिल जाएगी।” लड़का मुस्कुरा रहा था।
होशियार लग रहे हो, क्या नाम है।
प्रताप सिंह सर!
सिंह! आचार्य ने देखा—छह फुट का शरीर। स्वास्थ्य अच्छा है। मुस्कुराए—कुर्मी तो नहीं हो?
नहीं सर! खाँटी बलिया का हूँ।
आचार्य ने फ़ार्म पर हस्ताक्षर कर दिए।
ऊपर विभागाध्यक्ष का कमरा झाड़-पोंछकर साफ़ कर दिया गया। आचार्य चूड़ामणि ने उन लोगों को विदा किया और ऊपर जाकर कुर्सी पर बैठे। “सिंहपीठ पर सिंह ही शोभा देता है क्लर्क शर्मा जी डाक लेकर आ गए थे और बता रहे थे—“पांडे तो इस पर बैठकर चारों ओर नाचता और लिबिर-लिबिर करता है।
शर्मा जी, आपको कुछ पता है इंटरव्यू की तारीख़ क्या है?... और सुनिए, पहले दरवाज़ा बंद कीजिए।—आचार्य ने आज्ञा दी।
भीतर ही भीतर मंत्रणा हुई। उन्होंने किसी को फ़ोन किया। इंटरव्यू से दो दिन पहले ‘स्टे आर्डर' के लिए आश्वस्त हो गए। शर्मा जी उन्हें मुग्ध नायिका की तरह देखकर मुस्कुराए। आचार्य का ठहाका गूँज उठा। बाहर कुछ अध्यापक कान रोपे रेंग रहे थे। कमरे से निकल रहे शर्मा जी को उन्होंने दण्डवत किया।
आचार्य की तबीअत कैसी है शर्मा जी?
कोढ़ में खाजा जाड़े में बारिश। माहौल गरम है। कान और मुँह मुफ़लर से बाँधे प्रेत अपनी-अपनी कअब्रों से बाहर निकल आए हैं। सुबोध मिसिर ने महसूस किया कि जिन वामपंथियों से उनका हुक्का पानी बंद था, उनसे भी नमस्कार-बंदगी होने लगी हैं। फ़िज़ाएँ रंग बदल रही हैं। हवाओं में हिंदी विभाग का इंटरव्यू गूँज रहा हैं सहअस्तित्व और समागम के इस दौर में वे आचार्य तक पहुँचने की मज़बूत सीढ़ी बन सकते हैं। वामपंथी विचारों वाले रायसाहब के साढू की मौसी के बड़े वाले दामाद की छोटी वाली बिटिया उसी गाँव में ब्याही गई है जहाँ डीन सिनहा जी की ननिहाल है। वे उधर से आश्वस्त हैं। लेकिन इस चूड़ामणि का कोई भरोसा नहीं। जाति पहली शर्त है लेकिन सुबोध मिसिर को तो दत्तक पुत्र की तरह मानता है। अब अपना काम तो प्रयास करना है। वे सुबोध मिसिर को बता रहे थे—“आप ध्यान दें तो पायेंगे कि हमारी भारतीय संस्कृति में वाद-विवाद की लंबी परंपरा रही है, आचार्यों का अपने शिष्यों तक से वाद-विवाद होता रहा है। गार्गी और याज्ञवल्क्य की परंपरा वाले इस देश ने विरोधी विचारों को व्यक्तिगत हित-अहित, लाभ-हानि, जीवन-मरण से ऊपर उठकर सम्मान दिया है। अब देखिए तो एक तरह से यह पूरा विभाग आचार्य जी का ही पाला-पोसा हुआ है। उनके सोचने का अपना ढंग है। और मैं तो कहता हूँ कि उसकी एक बहुत लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। जहाँ तक उनके निजी व्यक्तित्व का प्रश्न है तो मैं तो हमेशा से कहता रहा हूँ...—इस इंटरव्यू में राय साहब का भतीजा लेक्चरर और वे ख़ुद रीडर पद के प्रत्याशी हैं।—“अच्छा तो मैं चल रहा हूँ” उन्होंने सुबोध मिसिर से कहा—आप उनके ख़ास और योग्य विद्यार्थी हैं। अरे भाई, अब तक आपको अपनी थीसिस पूरी कर लेनी चाहिए थी। ख़ैर, अभी तो जो लोग रीडर हो जाएँगे, उनकी और कई जगहें ख़ाली होंगी आप गुरुदेव को मेरा प्रणाम कह दीजिएगा।
नीचीबाग़ के चौधरी प्रकाशन से चले आ रहे उपाध्याय जी ने अपनी खटारा सायकिल पर पैंडिल मारते हुए सोचा कि यह तो रिक्शे से भी भारी चल रही है। विभाग तक पहुँचने में पसीने-पसीने हो रहे थे। साँस दमा के मरीज़ की तरह चल रही है। जाते हुए राय साहब को देखकर उन्होंने भद्दी सी गाली दी और सुबोध मिसिर के पास रुककर बोले—“एक तो भुइंहार, दूसरे जनवादी। का कह रहा था हो सुबोध? अभी कल तक तो चूड़ामणि जी को गाली देता था। क्लास में लड़कों से कहता था कि उपन्यास के विकास में प्रेमचंद और यशपाल के साथ गुलशन नंदा और राणू का नाम लिख रखा है भुइंहारी छाँटता है। ससुर कुछ तुम भी तो लिखो! कि बस मुक्तिबोध का गू चाटते रहोगे।” उन्होंने घुणा से थूका और मतलब की बात करने लगे—'संत साहित्य का सामाजिक योगदान' मेरी पुस्तक परसों तक छपकर आ जाएगी और कातर हँसी हँसते हुए बताने लगे—“सारा पैसा मकान बनवाने में लग गया था। बहू का मंगलसूत्र पाँच हज़ार में बेचकर यह किताब छपवा रहा हूँ। चिंता के मारे नींद नहीं आती। तीन रात जागकर सोचता रहा। आज जाकर फ़ाइनल किया। मैंने यह पुस्तक आचार्य जी की पत्नी को समर्पित कर दिया है। आगे भगवान की मर्ज़ी। प्रकाशक साले तो लूट रहे हैं। काग़ज़ और छपाई का सारा पैसा देना पड़ा है।
शांतिकाल के बीस वर्षों में इस विभाग से सिर्फ़ तीन पुस्तकों का प्रकाशन हुआ था। इंटरव्यू घोषित होने के बाद से यह पैंतालीसवीं पुस्तक की सूचना थी। जनार्दन प्रसाद ने अपने कई शेयर जल्दी-जल्दी बेचे। एन.एस.सी. की रक़म भुनाई। वे प्रोफ़ेसर पद के प्रत्याशी हैं। ऐसा सुना जाता है कि उनके मकान के भीतर एक बहुत बड़ा हाल है। जहाँ अकसर उनके स्टूडेंट्स दूसरे विश्वविद्यालयों से आई कापियाँ जाँचते रहते हैं, वहीं बैठकर आजकल पाँच विद्यार्थी रात-दिन पुस्तकें तैयार कर रहे हैं। पुस्तकालय की किताबों के पन्ने नोच-नोच कर भारतीय काव्यशास्त्र, समकालीन साहित्य की भूमिका, रीतिकाल का कलात्मक योगदान, आदि-आदि ग्रंथ तैयार किए जा रहे हैं।
कबीरपंथी गुह्यसाधना और उलटबाँसी के मर्मज्ञ रीडर आचार्य महादेव मुनि ने देखा कि पशुचिकित्सालय के गर्भाधान केंद्र पर भीड़ लगी है। बनियान और तहमत लपेटे एक हट्टा-कट्टा आदमी गाय के नवजात बछड़े का कान पकड़े, पुचकारता चला जा रहा है। उन्होंने आँखों पर ज़ोर लगाकर देखा—लग रहा है रमकरना है। दोनों में ननद और भौजाई का रिश्ता। उन्होंने पुकार लगायी—“पड़वे के साथ कहाँ जा रहे हो?
सुबह-सुबह बहिर बकलोल ने टोका। कैसे बीतेगा पूरा दिन? उन्होंने जवाब दिया—“कान तो पहले ही ग़ायब था। अंधे भी हो गए क्या? ससुर बछड़े को पड़वा बोल रहे हो?
मैं तुमसे नहीं, बछड़े से पूछ रहा हूँ”—कबीरपंथी आचार्य ने रामकरन से कहा।
दोनों एक-दूसरे के क़रीब आए। अविश्वास और घृणा एक-दूसरे के कान में मुँह सटाकर फुसफुसाती रही, “अरे भाई, डीन तुम्हारी बिरादरी का है। कहना, एक्सपर्ट को साधे रहे। वरना यह चूड़ामणि टिकने न देगा।
दोनों ने एक-दूसरे को भरपूर तोला। अंदाज़ा, सुना और सूंघा। फिर अलग-अलग दिशाओं में थोड़ी दूर आगे जाकर गुम हो गए। चारों ओर प्रेम और घृणा, संशय और अविश्वास की मनोरम छटा फैल रही थी।
लेक्चरर जैन साहब! रिटायर होने में सिर्फ़ छह महीने बाक़ी हैं। इस बार भी कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है। चेहरे पर माँछी भिनक रही है। निरीह आँखों से हिंदी विभाग को देखते हुए उन्होंने आह भरी—“कैसा ज़माना आ गया। विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रह ही नहीं गए। सब जगह सिर्फ़ ठाकुर, भूमिहार, ब्राह्मण और लाला हैं।
“कैसा ठाकुर, ब्राह्मण, गुरुदेव!—सुबोध मिसिर ने कहा—“मैं तो पाँच साल से यहाँ लोगों को देख रहा हूँ और मैं जब भी देखता हूँ, हर बार मुझे अपने गाँव का देसराज नाई याद आने लगता है।
सुबोध मिसिर पान की दुकान पर खड़े होकर खैनी मल रहे थे तभी उन्हें कुछ शोर और पकड़ो-पकड़ो की आवाज़ सुनाई पड़ी। हिंदी विभाग के सामने प्राध्यापकों और छात्रों की भीड़ थी। लग रहा है कोई साइकिल चोर पकड़ा गया है, और ठीक उसी समय उन्होंने देखा कि भीड़ के बीच से गुरुदेव शिवपाल मिश्र भागे जा रहे हैं। पीछे एक हट्टा-कट्टा दारोग़ा उन्हें दौड़ा रहा है—“पकड़ो! पकड़ो!!” गुरुदेव के पैर में जूता भी नहीं है। कोट के सारे बटन नुच गए हैं। बाँह फटकर झूल रही है। वे सरपट भागे जा रहे हैं। विश्वविद्यालय का विशाल फाटक उन्होंने एक लंबी छलाँग से पार किया और शहर की भीड़ में, जहाँ सिनेमा के टिकट ब्लैक हो रहे थे, और जहाँ पायल और घुँघरू के उदास अफ़साने लाटरी के टिकट बेच रहे थे, जाकर खो गए।
“भाग गया हरामी का पिल्ला”—दारोग़ा हाथ में डंडा लिए पान की दुकान की ओर आ रहा था।
“क्या इन्होंने किसी लड़की के साथ कुछ किया है?” एक जिज्ञासु भीड़ दारोग़ा के आसपास घिरने लगी थी।
प्राध्यापक लोग तो यह सब करते ही रहते हैं। मुझे इन सब बातों के लिए फ़ुर्सत नहीं।” दारोग़ा हाँफ रहा था।
“फिर क्या हुआ?” किसी ने पूछा।
“कानपुर स्टेशन पर गिरहकटी करता था। किसी की मार्कसीटें और डिग्रियाँ हाथ लग गईं। सत्रह साल से उन्हीं के भरोसे यहाँ नौकरी कर रहा है। हद है भाई! विश्वविद्यालय है कि चंडूखाना! रंडियाँ भी ग्राहक का मुँह सूँघकर सौदा करती है।”—दारोग़ा छात्रों और प्राध्यापकों को हिकारत से देख रहा था, “कैसे यहाँ पढ़ने वाले हैं। और 'कुलिग्स' लोग क्या भूसा खाते हैं?
“उसके अंडर में शोध कर चुके पचासों छात्रों का क्या होगा? वे तो दूसरे विश्वविद्यालयों में नौकरी कर रहे हैं”—किसी ने उत्सुकता प्रकट की।
“अब इस बात में कोई मज़ा नहीं।” भीड़ दारोग़ा के आसपास से छँटने लगी।
“लीजिए, अब इसी बात पर पान खाइए!” दुकानदार ने पान का गोल बीड़ा थमाते हुए शर्मा जी को बधाई दी। “मिश्रा मैदान से बाहर हो गया। अब आपका रीडर बनना कोई नहीं रोक सकता।
शर्मा का साढू 'विजिलेंस' में नौकरी करता है। लग रहा है मामले को उभारने में इसी का हाथ है। लोगों ने कानाफूसी शुरू की—“अपने स्वार्थ के लिए लोग किस हद तक जा सकते हैं! यहाँ किसी पर भरोसा नहीं।” त्रिपाठी जी ने टिप्पणी की, “अभी कल तक ये दोनों गलबहियाँ डाले पूरे विभाग को गाली देते थे।
तेरह दिन हो गए। सूरज नहीं निकला। शाम होते ही सारा शहर घने कोहरे की सफ़ेद चादर ओढ़कर उकहूँ पड़ा सो जाता। लंबी और सुनसान रात। कौन रो रहा है? शायद कोई किशोर विधवा है! लेकिन इतनी मर्मान्तक वेदना! ज़रूर कोई वृद्ध विधुर होगा। स्ट्रीट लाइटों के मद्धिम प्रकाश में कंबल ओढ़े कोई छायाकृति चली जा रही है। किसी स्कूटर की सरसराह पास आती और फिर दूसरे छोर के अँधेरे में जाकर विलीन हो जाती। अपने रिटायरमेंट से ऊबे वृद्ध और जर्जर प्रोफ़ेसरों की भी पूछ बढ़ गई है। रात दो-दो बजे तक सन्धियों, समझौतों और षड्यंत्रों का दौर जारी है। मिठाइयों का भाव बढ़ गया हैं ऐसे प्रचंड सन्नाटे में भी दुकानें खुली हैं। जिन्होंने अपने बच्चों को टॉफी की जगह भेली और गुड़ खिलाकर पाला-पोसा था, वे भी इकट्ठे तीन-तीन, चार-चार किलो के अलग-अलग पैकेट बँधवा रहे हैं। “जल्दी करना भाई, सड़क पर स्कूटर स्टार्ट खड़ा है।—मुनिंदर राय ने दुकानदार से कहा।
उनके चले जाने के बाद एक आदमी ने दुकानदार से पूछा, “बहुत बड़े आदमी हैं क्या?
दुकानदार मुस्कुराया, “आजकल विश्वविद्यालय में इंटरव्यू चल रहा है। बिक्री बढ़ गई है।
सृष्टि में सत्य इतना मनोहारी, रंग-बिरंगा और मौज़ूँ कभी नहीं रहा होगा। सुबोध मिसिर आजकल पुस्तकालय नहीं जाते। सुबह से उठकर दिन भर सत्य की तलाश में घूमा करते हैं। वह उन्हें चौराहों, नुक्कड़ों, चाय और पान की दुकानों पर, हिंदी विभाग में जगह-जगह दिखाई देता रहता।
ये प्रोफ़ेसर लोग खाते क्या हैं? आज यही जानने के लिए वे मचल पड़े। वह जानना चाहते थे कि आख़िर कौन सा अन्न है जिसने इनकी वासनाओं को प्रचंड और जननेन्द्रियों को निष्क्रिय कर दिया है? वह पूरे दिन भूखे-प्यासे टहलते रहे। शायद इस रहस्य को पार पाना मेरे लिए दुर्लभ है। यह सोचते हुए थककर वह नुक्कड़ वाली दुकान पर चाय पीने चले गए। तभी अचानक उन्होंने देखा कि मुख्य सड़क की नज़र से दूर जो चोरगलियाँ हैं उनमें कुछ लोग सिर पर बोझा लादे दबे-पिचके क़तारबद्ध चुपचाप चले जा रहे हैं। वे चौंक पड़े। बहुत पहले ‘टाम काका की कुटिया' में इनकी शक्लें दिखाई दी थी। लेकिन इनके चेहरे तो परिचित हैं। ये अपने ही विश्वविद्यालय के शोधछात्र हैं। विज्ञान और मानविकी की विभिन्न शाख़ाओं-प्रशाख़ाओं के शोधका हॉस्टलों में रहते हैं। अपने गाँव-जवार के होनहार। घर के दुलरुवा। जब ये यहाँ पढ़ने आते हैं तो इनके बाप अटैची और आचार सिर पर लादकर इन्हें स्टेशन तक छोड़ने आते हैं। खेत गिरवी रखकर इनके सुख-सुविधाओं को पाला-पोसा जाता है। आख़िर इस तरह ये लोग कहाँ जा रहे हैं?—सुबोध मिसिर ने सोचा। लड़खड़ाकर गिर पड़े एक लड़के को उन्होंने दौड़कर पकड़ा। सहारा देकर उठाया और पूछा, “इस बोरे में क्या है भाई? कहीं तुम तस्करी तो नहीं करने लगे?
लड़के ने कहा, “गुरुदेव की भैंस ब्याई है। उसी के लिए पुराना, गुड़ और चोकर ले जा रहा हूँ।”
“और तुम?”—उन्होंने दूसरे से पूछा।
“पहाड़िया सट्टी से कुम्हड़ा और लौकी ख़रीदकर ले जा रहा हूँ। गुरुजी ने कहा है कि वहाँ सस्ती और ताज़ी सब्ज़ियाँ मिलती हैं
तीसरे ने बिना रुके बताया कि, “गुरुजी का मकान बन रहा है। उसी के लिए सीमेंट है।” बोझ से पिचके सिर का सारा रक्त चेहरे पर उतर आया था। आँखे बाहर लटक आई थीं। वे उसी तरह सिर झुकाए चुपचाप आगे बढ़ गए। सुबोध मिसिर की आँखें डबडबा गईं। वह ख़ूब ज़ोर से हँस पड़े।
इंटरव्यू में दो दिन रह गया है, जब साँस रोके प्रतीक्षा कर रहे हैं। उधर कोने में झाड़ी की आड़ लेकर गेस्टहाउस का चपरासी वामपंथी रायसाहब से फुसफसा रहा है, “तीन कमरे बुक हैं। कोई गुजरात के मिसिर जी हैं और राजस्थान के उपाध्याय जी। एक पंजाब के, पता नहीं कैसी ‘टाइटिल’ है। जाति पता नहीं चल रही है।
राय साहब ने अनुमान लगाया और सिर हिलाते हुए एकालाप की मुद्रा में बुदबुदाने लगे—“वाम, वाम, वाम दिशा, समय साम्यवादी।
“तब तो आपके लिए शुभ है”—चपरासी ने दिलासा दिया।
“ख़ाक शुभ है! मूल सत्य तो दूसरा है”—वे चिंता में आरपार हो रहे थे—वह एक और मन रहा राम का जो न थका। कुछ बुदबुदाहट उभरी—“कहती थी माता मुझे सदा राजीव नयन।” चाहे जो भी हो, यू.पी. कॉलेज वाले मास्टर साहब मुझे वामपंथी मानते हैं। जाति भेद से परे। आज के युग में ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है। बहुत दिनों से एकांतवास कर रहे हैं। हालचाल लेना चाहिए—“अच्छा तो भाई, बहुत-बहुत धन्यवाद”—उन्होंने चपरासी से कहा और स्कूटर की किक मारी—फुर्रऽऽ।
इधर आचार्य चूड़ामणि धोती, कुर्ता और बंद गले की कोट पर शाल डाले चले आ रहे हैं। पान की दुकान, सड़क पर यहाँ वहाँ धूप के छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटे समस्त प्राध्यापकगण हिंदी विभाग के सामने आकर दंडवत मुद्रा में विनत भाव से झुक गए। भय और आशंका से भरे स्वयंवर के समस्त राजगण। आचार्य चूड़ामणि के कृपाकांक्षी। कौन कहा है कि चर्च और पोप का युग ख़त्म हो गया है।
सब वामपंथियों का फ़ितूर है। कम्यूनिस्टों के देश में तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता होती ही नहीं। आख़िर में दासवृत्ति का पालन भी तो हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है।
आचार्य ने देखा, भविष्य की पौध लहलहा रही है। श्री विकास पांडे, उपाध्याय, डॉ. त्रिपाठी, जनार्दन प्रसाद, रीडर महादेवमुनि और रामकरन राय। सबके सब उपस्थित हैं। कुछ पारभृता सुनयना सुकुमारियाँ भी। श्रद्धा और समर्पण का महोत्सव। उनके होंठों पर रहस्यमई मुस्कान तैर रही थी, “कितने पैसे हुआ जी?” उतरते हुए उन्होंने रिक्शे वाले से पूछा।
“साहब, जो मर्ज़ी हो दे दीजिए”—ठंड से काँप रहे उस बूढ़े ने चिथड़े कंबल को लपेटते हुए कहा।
“सर, मेरे पास चेंज है”—वर्षों से लइया और भुने चने का स्वल्पाहार करने वाले मुनिंदर राय रिक्शे की ओर बढ़े।
नहीं, नहीं! यह ग़लत बात है”—आचार्य ने उन्हें सख़्ती से रोका और पचास पैसे का एक सिक्का रिक्शे वाले को दे दिया।
“साहब, पाँच रुपया होता है”—रिक्शा वाला गिड़गिड़ाया, “किसी से पूछ लीजिए।
आश्चर्य में डूबा समवेत स्वर, “पाँच रुपया!! लूटते हैं साले! भाग भोसड़ी के, दिखाई न देना!!” भोंऽऽ भोंऽ हुवांऽ हुवांऽऽ
रिक्शा वाला गिरते-पड़ते भागा।
आचार्य सामने पत्थर के बेंच पर खड़े हो गए। “मैं आप लोगों से कुछ कहना चाहता हूँ”—उन्होंने सामने झुके सिरों को संबोधित किया, “लेकिन, अगर आप लोगों को मुझ पर भरोसा हो तो...”
दो दिन बाद इंटरव्यू है। किसमें इतनी जुर्रत। फिर वही समवेत स्वर, ”हमें आपके न्यायबोध पर पूरा भरोसा है आचार्य।”
दो मिनट तक सन्नाटा रहा। विभाग के हेड क्लर्क शर्मा जी ने बैग से काग़ज़ का एक टुकड़ा निकालकर उन्हें थमाया। चपरासी रामदीन अध्यापकों के पीछे खड़ा हो गया।
वहाँ ‘जनगण मन' हो रहा है क्या भाई! सड़क पर घूम रहे लड़के भी आकर खड़े हो गए।
“आप तो साक्षात न्यायमूर्ति हैं सर!” फिर वही समवेत स्वर गूँजा।
तो आप लोग सुनें! मुझे इस बात की बहुत शिकायत है कि यहाँ कोई क्लास नहीं लेता। दूसरी बात यह कि आप लोग पेट्रोल और मिठाइयों पर बहुत ज़ियादा पैसा फूँकते हैं। थोड़ा मितव्ययिता से काम लें। लेकिन, साथ ही मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है कि इधर मेरे विभाग ने समूचे हिंदी जगत से ज़ियादा पुस्तकें लिखी हैं। लोगों में पढ़ने-लिखने की रुचि बढ़ रही है। यह अच्छी बात है। बस यही कामना है कि आप लोग बनारस और इलाहाबाद के प्रकाशकों से थोड़ा ऊपर उठे। स्तर बढ़ाएँ। और हाँ! इलाहाबाद के ही संदर्भ में एक ज़रूरी बात याद आ गई। यह देखिए...” उनके हाथ में काग़ज़ का एक टुकड़ा लहरा रहा था, “यह इलाहाबाद हाईकोर्ट का ‘स्टे आर्डर' है। इंटरव्यू स्थगित किया जा रहा है।”—और वे जल्दी से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे में चले गए।
“अरे यह क्या हो रहा है! उपाध्याय जी के मुँह से झाग क्यों निकल रहा है? आँखें उलट गईं। मिर्गी का दौरा है! जूता सुँघावो!!” चारों ओर खलबली मच गई। जनार्दन प्रसाद ने मंदी के दिनों में शेयर बेचकर किताबें छपाई थीं। सत्यानाश! गुड़ गोबर!! “पकड़ो साले को! भागने न पाए!”—ललकारते हुए रामकरन राय आचार्य चूड़ामणि के पीछे-पीछे लपके।
जम्मू, चंडीगढ़, दिल्ली और लखनऊ। चार-चार विश्वविद्यालयों से आई थीसिसों का मौखिकी लेना है। हवाई यात्रा का टिकट पहले से बुक है। चूड़ामणि जी ने पंद्रह दिन की ड्यूटी लीव ली। टैक्सी पकड़कर सीधे बाबतपुर पहुँच गए।
इसी बीच आचार्य के इकलौते श्रवणकुमार के एम.एम. अंतिम वर्ष का रिज़ल्ट आया। पिछले सारे आचार्य पुत्रों का रिकार्ड ध्वस्त करता हुआ वह अस्सी प्रतिशत अंक पाया। अध्यापक संघ की आपात बैठक में जनार्दन प्रसाद राँड़ औरतों की तरह विलाप कर रहे थे—“यह आदमी शुरू से ही अध्यापक विरोधी रहा है। अब उसके लड़के का अस्सी प्रतिशत अंक!” अध्यापक संघ के तीनों प्रत्याशी ब्राह्मण हैं—“अगर फिर भी आप लोग कुछ नहीं करेंगे तो मैं आमरण अनशन पर बैठूँगा।”
“हम करना तो बहुत कुछ चाहते हैं अध्यक्ष महोदय चिंतित और असमंजस में हैं—“लेकिन इसमें क्या किया जा सकता है? मामला कोर्ट का है।
क्यों नहीं कर सकते! हिंदी में कहीं अस्सी प्रतिशत” अंक आते हैं? रामकरन राय चीख़ रहे थे—“इसी अपने पुत्र के लिए इस आदमी ने बारह साल से ये जगहें रोक रखी है। लड़का तीन साल इंटर में फेल हुआ।
अध्यापक संघ के अध्यक्ष मिश्रा जी की बहु इसी साल इतिहास में पचासी प्रतिशत अंक पा चुकी हैं। उन्होंने सभा के सामने हाथ जोड़कर अनुरोध किया—“हम लोगों को शोभा नहीं देता कि आपस के झगड़े में बहू—बेटियों या पुत्रों को घसीटें।
कुलपति ने डीन सिनहा जी को बुलाकर पूछा कि अचानक यह सब कैसे हो गया?
मैं कुछ नहीं कर सकता सर!” डीन ने असमर्थता प्रकट की, “यह आदमी बहुत जालिया है।
अच्छा आप ऐसा करें कि उनके आते ही मेरे साथ मीटिंग रखें। मैं नोटिस टाइप करा दे रहा हूँ। लड़कों का प्रतिनिधिमंडल रोज़-रोज़ ज्ञापन दे रहा है। ज़िंदाबाद, मुर्दाबाद हो रहा हैं कोर्ट के मामले में तो कुछ नहीं हो सकता, लेकिन यह अस्सी प्रतिशत वाली बात पूछकर आप कार्रवाई करें।”—वी.सी. न्यायप्रिय छवि वाले सख़्त व्यक्ति हैं।
हवाई यात्रा की थकान थी। फिर भी कुलपति का पत्र पाते ही आचार्य उनसे मिलने गए। डीन सिनहा जी वहाँ पहले से मौजूद थे। थोड़ी देर तक फ़ाइलों को पलटते रहने के बाद वी.सी. ने औपचारिक शुरूआत की, “आपकी यात्रा कैसी रही आचार्य जी?
“ठीक थी सर!”—आचार्य चूड़ामणि दाँत खोद रहे थे—“दिल्ली गया था। सोचा यू.जी.सी. भी हो लूँ, आपके ‘एक्सटेंशन' की बात चल रही थी सर!
“हाँ भाई, दिल्ली के मारे तो मैं भी बहुत परेशान हूँ। यहाँ के एम.पी. त्रिपाठी जी ने संसद में क्या तो प्रश्न पूछा है कि आपके लड़के को हिंदी में अस्सी प्रतिशत अंक मिले हैं। सब लोग जाँच कराने की बात कर रहे हैं। यहाँ लड़के भी रोज़ जुलूस लेकर आते रहते हैं। वाइस चांसलर ने सीधे-सीधे बात शुरू की।
चूड़ामणि जी मुस्कुराए, “धरना-प्रदर्शन ही तो हमारा जनतंत्र है सर!
अस्सी प्रतिशत अंक हिंदी में!”—डीन सिनहा जी ने सख़्त एतिराज़ जताया—“सुना है, वह प्रीवियस में सेकेंड डिवीज़न पास था।” उन्होंने वी.सी. से मुख़ातब होकर कहा—“सर! एम.पी. त्रिपाठी जी ने लोकसभा में कहा है कि रामचंद्र शुक्ल को भी इतने नंबर नहीं मिले थे। पूरे देश में विश्वविद्यालय की छीछालेदर हो रही है सर!
वी.सी. तक तो सही है! यह डीन बहुत गटर-पटर बोल रहा है—आचार्य ने सोचा और मुस्कुराए, “देखिये सिनहा जी, आप भूमिहार हैं...
उनका वाक्य पूरा होने से पहले ही डीन उछल पड़ा, “आप यहाँ जाति-बिरादरी की बात क्यों उठा रहे हैं।
“आप पहले शांत होकर मेरी पूरी बात सुनें! और चीख़ना-चिल्लाना मुझे भी आता है”—ग़ुस्से में चूड़ामणि जी के दोनों नथने मरकहे बैल की तरह फड़कने लगते -हुःहुः—“क्योंकि यह मूल सत्य है कि आप भूमिहार हैं। इस धरने प्रदर्शन में आधे लड़के भूमिहार, आधे ब्राह्मण और दो-चार कम्युनिस्ट हैं। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि ये लड़के धरने से पहले और उसके बाद आपके घर क्या करने जाते हैं! रही बात त्रिपाठी एम.पी. की, तो वह निरा बेवक़ूफ़ है। हिंदी की इतनी पवित्र संस्था का नाश उन्हीं दोनों भाइयों ने किया है। उस गधे को यह भी नहीं मालूम कि आचार्य शुक्ल इंटर फेल थे। उनका एम.ए. में अस्सी प्रतिशत अंक कैसे आएगा?
यह आदमी तो एकदम बेलगाम है, वी.सी. ने सोचा—इस पर कार्रवाई करनी ज़रूरी है—और बोला—“आप विश्वविद्यालय में जातिवाद की राजनीति करते हैं। सुना है, अध्यापकों पर हुए हमले में भी आपका हाथ है”—वी.सी. का लहजा बेहद तल्ख़ और सख़्त था।
आचार्य के सामने आज तक किसी ने इस अंदाज़ में बात करने की जुर्रत नहीं की थी। वह कुछ क्षण तक शांत होकर कुलपति के चेहरे की और देखते रहे और फिर मुस्कुराते हुए ठंडे स्वर में बोले, “आपने और क्या-क्या सुना है मेरे बारे में? लोग तो बहुत कुछ कहते हैं। आपके पहले भी एक कुलपति थे। जूते की माला पहनकर गए थे यहाँ से। लोग चुग़लखोर हैं। कहते हैं, कि वह सब मैंने ही किया-किराया था। जबकि बात बस इतनी थी कि प्राचीन वाङ्मय, वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति के बारे में मेरी आस्थाएँ उनसे मेल नहीं खाती थीं।
कुलपति ने देखा, अनेक किंवदंतियों और क्षेपक कथाओं से मिथक बन चुके महानायक आचार्य चूड़ामणि मुस्कुरा रहे थे, भय से उसका चेहरा पीला पड़ गया। आचार्य को दया आ गई, बोले, “वी.सी. साहब, मैं आपका बहुत आदर करता हूँ। बावजूद इसके कि मैं हिंदी विभाग का अध्यक्ष हूँ। ‘डीन ऑफ़ स्टूडेंट्स' भी हूँ। और आपने बिना मुझे विश्वास में लिए हिंदी विभाग का इंटरव्यू ‘फिक्स' कर दिया था। मैं जानता हूँ कि आप अत्यंत शालीन, मितभाषी और न्यायप्रिय व्यक्ति हैं और यह भी जानता हूँ कि मानव संसाधन मंत्रालय का मुख्य सचिव आपका साढू है। लेकिन क्या बात है कि यहाँ इस बनारस विश्वविद्यालय में आज तक कोई राजपूत वी.सी. नहीं हो सका है। मैं जातिवाद को देश के लिए कैंसर से कम घातक नहीं मानता। आप चाहें तो जाँच आयोग बैठा दें। लेकिन किसी परीक्षक की जाँची कापी को कोई न्यायाधीश कैसे जाँच सकता है? जनतंत्र में अलग-अलग संस्थाओं की अपनी स्वायत्तता, हैसियत और गरिमा होती है। आपको कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए कि यह पवित्रता नष्ट हो। किसी को यह कहने का अवसर मिले कि आप बाह्मण और भूमिहार लॉबी के दबाव में हैं। आगे आपकी जैसी मर्ज़ी।”—कहकर आचार्य चूड़ामणि अचानक उठे और वी.सी. लॉज से बाहर निकल गए।
बाहर चारों ओर रेलमपेल था। धरना, प्रदर्शन और अनशन करने की धमकी। उस दिन दोपहर को जब सुबोध मिसिर कैफ़ेटेरिया से चावल और कुम्हड़े की तरकारी खाकर चले जा रहे थे, उन्होंने देखा कि कृषि विज्ञान संकाय वाले चौराहे पर एक लड़का फटा कुर्ता, पाजामा और हवाई चप्पल पहने उजबक की तरह चारों तरफ़ देख रहा है। विशालकाय इमारतों और एक-दूसरे को काटती आगे चली जा रही चिकनी, चौड़ी सड़कें। सड़कों के ऊपर झुक आए आम, अमलताश, शीशम और सागौन के पेड़ों की घनी छाँव में शायद वह रास्ता भूल गया है। सामने से अध्यापक संघ का विशाल जुलूस चला आ रहा था। वे लोग पता नहीं किस बात पर बेहद उग्र और उत्तेजित थे। लड़का दोनों हाथ उठाकर उन्हें रोकना चाहता है। जब वे लोग नहीं रुकते तो वह दोनों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगता है, “गुरुजनों, बस इतना ही याद है कि मैं बारह साल पहले यहाँ आया था। मैं कहाँ का रहने वाला हूँ? मुझे अपने गाँव का नाम और बाप की शक्ल भूल चुकी है। मैं भूखा हूँ। कई दिनों से मुझे अन्न का एक दाना भी नहीं मिला है। यह देखिए... उसने कुर्ता उठाया और अपना पेट दिखाने लगा। वहाँ काग़ज़ के कुछ मैले-कुचैले टुकड़े बँधे थे—ये मेरी मार्कसीटें हैं। चरित्र प्रमाण पत्र है। मैं भूखा हूँ और अपने गाँव जाना चाहता हूँ गुरुजनों, मुझे मेरे गाँव का रास्ता बता दीजिए, वहाँ मेरी माँ खाना बनाकर खोज रही है।” वह चीख़ रहा था। भीड़ उसे कुचलते हुए आगे बढ़ गई। किसी ने उसका कुर्ता नोच लिया यह घर में पोंछा लगाने के काम आएगा।
चौराहे के दूसरी और से छात्र संघ का जुलूस चला आ रहा था। वह लड़का सड़क के बग़ल की नाली में गिर पड़ा था। अचानक उसे फिर कुछ आवाज़ सुनाई पड़ी तो दौड़कर आया और सड़क पर दुबारा खड़ा हो गया। कुर्ता ग़ायब था। चप्पल का फीता टूटकर दूर कहीं छिटक गया था। लेकिन वह दोनों हाथों से अपने पेट पर बँधे काग़ज़ों को कसकर पकड़े था। “भाइयों रुकिए।—वह फिर चीख़ने लगा—“मुझे मेरे घर का पता बता दीजिए। वहाँ जाड़े की गुनगुनी धूप में दीवार के सहारे बैठी मेरी पत्नी नए धान का चावल पछोरती थी। मेरे बाप ने बचपन में ही मेरी शादी कर दी अब मेरा बेटा बड़ा हो गया है और मुझे बुला रहा है। मैं उसे देखना चाहता हूँ।” जुलूस में लड़के अपनी ही धुन में नारे लगाते, बहुत ग़ुस्से में न जाने किसे, शायद ख़ुद को ही गालियाँ देते उसे लँगड़ी मारकर आगे बढ़ गए।
सुबोध मिसिर ने लड़के को देखा। उन्हें लगा कि यह कोई स्वप्न है। जैसे स्वप्न में कोई अपने को अपने से थोड़ा दूर खड़ा होकर देखता है ठीक उसी तरह। उन्हें दया आई। वे उसे पकड़कर कुछ पूछना और बातें करना चाहते थे। उन्हें अपनी ओर आता देखकर वह लड़का बहुत तेज़ भागा और जाकर विश्वविद्यालय के सबसे ऊँचे गुंबद पर चढ़ गया।
सुबोध मिसिर ने देखा, गुंबद के ऊपर जो त्रिशूल चमक रहा है उसी पर मज़े से बैठा वह लड़का बानर की तरह उछल-कूद कर रहा है। सूरज तप रहा था। सुबोध मिसिर ने ज़ोर से पूछा, “तुम क्या चाहते हो भाई? मैं तुम्हें तुम्हारे गाँव पहुँचा दूँगा। मुझे तुम्हारे घर का पता मालूम है।
लड़के ने कहा, “लेकिन अब वहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता। क्योंकि मैं भी किसी को नहीं पहचान पाता। वहाँ जाकर मैं क्या करूँगा?
तो फिर तुम क्या चाहते हो?” सुबोध ने पूछा।
“बताऊँ?” लड़का बहुत ज़ोर से हँसा। “मैं ताजमहल में अपनी प्रेमिका के साथ एक पूरी रात हनीमून मनाना चाहता हूँ। पता नहीं कहाँ चली गई मेरी प्रेमिका? क्या तुम मुझे मेरी प्रेमिका से मिला दोगे? क्या तुमने अभी तक ताजमहल भी नहीं देखा है? ...अच्छा तो सुनो! मैं अपने बेटे के साथ नादिरशाह के सामने ख़ूब ज़ोर से हँसना चाहता हूँ। मेरे बेटे का कैरमबोर्ड नादिरशाह चुरा ले गया। अच्छा तुम गाँधी जी को बुला दो। वे उसे अपने खड़ाऊँ से मारेंगे।
सुबोध मिसिर किंकर्तव्यविमूढ़ उसे देख रहे थे।
“ख़ैर तुम जाओ!” उसने वहीं से चिल्लाकर कहा, “मैं अब यहीं रहूँगा। इसी त्रिशूल पर। मुझे यह ऊँचाई अच्छी लग रही है।
एक दिन लोगों ने देखा कि एक बहुत बड़े देश के राजा ने उसी आदमख़ोर मिसाइल के गले में विजयहार पहना दिया, जिसे वहाँ के बाशिंदों ने बर्फ़ीली हवाओं में भूखे प्यासे सारी-सारी रात जागकर आधी शताब्दी से रोक रखा था। पूरी दुनिया तमाशबीन की तरह यह दृश्य देखकर भौंचक रह गई। एक डरावनी और काफ़ी गुफ़ी की तरह मुँह बाए वह आदमख़ोर मिसाइल एक नगर से दूसरे नगर, एक देश से दूसरे देश तक घूमने लगी। उसने लोगों के सपने, जीने का अंदाज़ और ज़रूरतों की फेहरिस्त बदल दी। दिन, महीने और वर्ष बीतते रहे। समय गुज़रता रहा। युग बदला। इस तरह बदला कि जो लोग निरंतर रात-दिन उसे बदलने के लिए बेचैन रहते थे वे भी दुःख और शोक से भर गए। इसी बीच सुबोध मिसिर की थीसिस पूरी हुई। वे डॉक्टर सुबोध मिसिर हो गए।
एक दिन सुबह-सुबह वे कैंटीन के सामने चाय पी रहे थे। उन्होंने देखा कि आसपास बैठे लड़के रात टी.वी. पर रोमांचक मैच के बारे में उत्तेजक बहसें कर रहे हैं। सामने सड़क पर एक जवान और सुंदर लड़की नशे की सी हालत में लंगड़ाती और सहमी हुई सी भागी चली जा रही थी। पता लगा कि वह गुजरात से अपने प्रेमी के साथ बनारस घूमने आई थी। तीन दिन से भूखे-प्यासे छात्रावास के एक कमरे में बंद करके पाँच लड़कों ने उसके साथ निरंतर 'रेप' किया था। निष्प्राण घटनाओं और सनसनीखेज सूचनाओं का यह रीतिकाल था। थोड़ी दूर आगे मात्र दस क़दम की दूरी पर एक छोटा का कम्प्यूटर रखा हुआ था। किसी दूर उपग्रह से संचालित। कम्प्यूटर का शेष पिछला हिस्सा अँधेरे में डूबा हुआ था। तेज़ लाइट में चमकते स्क्रीन पर उस समय एक लड़की मुस्कुरा रही थी—किसी सुदूर अतीत या पौराणिक आख्यानों में चमकती लड़की की हँसी—एक तिलस्मी करामात की तरह उसके चारों और लहरा रही थीं चमकीली पैकिंगे। उनमें भरा था मिस यूनीवर्स का गोपन रहस्य, मादक पेय, क्रीम और बच्चों की चाकलेटें, औरतों के सिंदूर, मित्रों की शुभकामनाएँ, नए साल का संदेश और भूसा और गोबर। अपनी ज़रूरतों से ऊबे लोगों की भीड़ एक जादुई कुतूहल से बेक़ाबू उस लड़की के उन्नत उरोजों और चिकनी जाँघों में धँसी चली जा रही थी। उस समय नशे की सी हालत में लंगड़ाती भागती लड़की के होंठ भय से काले पड़ गए थे। वह कम्प्यूटर के पिछले हिस्से में, जहाँ गाढ़ा अँधेरा फैला हुआ था, जाकर विलीन हो गई। उसकी आख़िरी चीख़ एक सुरीली और लयात्मक पीऽऽ-पीऽऽ के साथ स्क्रीन पर दो सेकेंड तक उभरकर बंद हो गई। वहाँ रात के मैच का शेष भाग फिर शुरू हो गया।
आचार्य चूड़ामणि जी विभाग से रिटायर होने के दो महीने बाद दूसरे विश्वविद्यालय में कुलपति बना दिए गए। उनका इकलौता श्रवणकुमार, बक़ौल सारे शहर जिसे एक वाक्य शुद्ध हिंदी लिखनी नहीं आती थी वह, मरुधर विश्वविद्यालय के फाटक से होता हुआ पाँच साल बाद उसी हिंदी विभाग में रीडर बना दिया गया। उत्तराधिकार के इस महोत्सव में विश्वविद्यालय की राजपूत लॉबी ने उसका अभिनंदन किया। इस नियुक्ति के समय भी सिनहा जी डीन थे। भूमिहार लॉबी ने बहुत कोशिश की लेकिन उन्होंने आचार्य चूड़ामणि से अपने संबंधों को जातिगत रागद्वेष से ऊपर उठकर देखा। उन्होंने गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार किया कि इकलौते पुत्र का वृद्ध पिता के पास रहना ही ज़रूरी है। इस नियुक्ति के ठीक एक महीने बाद आचार्य चूड़ामणि ने यह सोचकर कि किसी का क़र्ज़ लेकर मरना राजपूती आनबान के ख़िलाफ़ है, उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में डीन सिनहा जी की पुत्रवधू को अंग्रेज़ी में लेक्चरर बना दिया।
अपने गुरु के योग्य शिष्य सुबोध मिसिर नगर में दर-दर भटकते रहे। वे रात के अंधेरे में बैठकर नीतिवाक्य लिखा करते। उनके साथ के सारे छात्र, जिनसे उनकी नोक-झोंक चला करती थी, जो उन्हें यथास्थितिवादी कहकर क्रांति और परिवर्तन की बात किया करते थे, वे सबके सब एक-एक कर विश्वविद्यालयों, डिग्री कॉलेजों और अख़बार के दफ़्तरों में जाकर चूड़ामणि जी का जूठन बटोर रहे थे। इधर सुबोध मिसिर विश्वविद्यालय के नए लड़कों के बीच अजूबे बनते जा रहे थे। वह सबसे कहा करते कि विरोध में उठा एक हाथ, पक्ष में उठे करोड़ों हाथ से महत्वपूर्ण होता हैं वे इस विरोध की व्याख्या नहीं करते थे और अकसर चुप लगा जाते। आचार्य जी हर पंद्रहवें दिन बाद किसी न किसी नियुक्ति में एक्सपर्ट होते। हर बार वे दृढ़ प्रतिज्ञ होकर जाते कि इस बार अपने प्रिय शिष्य सुबोध मिसिर की नियुक्ति ज़रूर कर देंगे। लेकिन उनके मानवीय दायित्व बोध और न्यायोचित चेतना को किसी मंत्री, विधायक, किसी भूतपूर्व विभागाध्यक्ष या समकालीन प्रोफ़ेसर का सिफ़ारिशी पत्र हर बार पथ-भ्रष्ट कर देता। वे रोज़-रोज़ पथ-भ्रष्ट होते रहे। एक दिन अपनी पुत्रवधू की नियुक्ति के लिए दिल्ली की एक महिला प्रोफ़ेसर के पैरों पर गिर पड़े। नियुक्ति नहीं हुई। लोगों को उनके इस अपमान की उम्मीद नहीं थी। सबको लगा कि कहीं अबकी बार गंभीर हार्ट अटैक न हो जाए। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उनके दरबार में लोगों की आमद ख़त्म हो गई। वे बिना बुलाए शहर और विश्वविद्यालय की हर सभाओं, समारोहों में पहुँचकर अपने को मंच पर बुलाए जाने की प्रतीक्षा किया करते और ऊँघने लगते। गोष्ठी, समारोह ख़त्म हो जाते। वे चुपचाप अकेले टहलते हुए अपने घर चले आते।
इधर गाँव में सुबोध मिसिर की बेटियाँ बड़ी हो रही थीं। पत्नी के दाँत हिलने लगे थे। हर फ़सल कटने के बाद खेती पर पानी, बिजली और लगान के कुछ कर्ज़े बढ़ जाते। उन्होंने एक पर एक तीन एकड़ खेत बेच डाले। अंत में गाँव के एक बुज़ुर्ग ने समझाया कि “भाई सुबोध, कब तक नौकरी खोजते रहोगे? यह खेत तुम्हारी कमाई नहीं हैं जो बेचे जा रहे हो। कल लड़कियों की शादी करनी पड़ेगी।
तीन दिन से भूखे-प्यासे सुबोध मिसिर ने एक दिन अंतिम रूप से गुरुदेव के चौखट पर मत्था टेका। “बेटे सुबोध, मुझसे तुम्हारी दशा देखी नहीं जाती”—गुरुदेव ने कहा और रोने लगे।
“कोई बात नहीं गुरुदेव! मैं कुछ माँगने नहीं, आज्ञा लेने आया था। घर जा रहा हूँ”—उन्होंने शहर के बीचोंबीच थूका और गाँव चले गए।
पाँच साल से गाँव में रहते हुए सुबोध मिसिर को सिर्फ़ यूरिया का दाम, बिजली के बिल, गेहूँ, धान और ईख का भाव याद रह गया था। अलंकार, छंदशास्त्र, रस यहाँ तक कि तुक और विचार आदि की मर्यादा तोड़ता हिंदी कविता का प्रवाह आधुनिकता, मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद आदि को अप्रासंगिक क़रार देता हुआ इन दिनों उत्तर-आधुनिकता और विखंडनवाद के समीक्षा सिद्धान्तों से अपनी संगति बिठाने का जोड़तोड़ कर रहा था। सुबोध मिसिर ने सुना कि आज पूरा विश्व एक गाँव बनकर रह गया हैं संचार माध्यमों की अचूक पकड़ से कोई व्यक्ति बाहर नहीं है। वे यह सब सुना करते और देखते कि सैकड़ों सुरक्षा गार्डों के बीच प्रधानमंत्री माँस के निर्जीव लोथड़ों में बिखर जाता है। हज़ारों जासूसी कुत्ते पाँच साल से हत्यारे की छाया सूँघते घूम रहे हैं। अजीब-ओ-ग़रीब विरोधाभासों और विडम्बना का दौर जारी है। पुरातत्व विभाग के संग्रहालय और अजायबघर की दीवारों पर कालिदास, भवभूति, सूर, तुलसी और कबीर की पाण्डुलिपियाँ मरे शेरों की खाल की तरह टँगी हैं। शब्द अप्रासंगिक हो गए हैं। कविता और इतिहास का अंत हो गया हैं यह सब सुबोध मिसिर अख़बारों में पढ़ रहे थे और देख रहे थे कि यहाँ गाँव में अब भी औरतें शादी, समारोह में, छठ और मुंडन के अवसर पर उसी तरह फटी साड़ियाँ और लुगदी पेटीकोट लपेटे गीत गाए जा रहे हैं। ठंड में काँपते-ठिठुरते धरने और प्रदर्शन पर जाते हुए लोग कबीर के निर्गुण और तुलसी की चौपाइयाँ सुन-सुना रहे हैं। नारे लगा रहे हैं। वह अकसर सोचा करते कि संचार माध्यमों ने जिस दुनिया को एक गाँव में बदल दिया है उस गाँव के नक्शे में यहाँ की औरतें और लोगों की कोई सूरत और ज़रूरत क्यों नहीं दिखाई देती? कुएँ में गिरे बैल को निकालने वे लोग क्यों नहीं आते जो मुँह में भोपा बाँधकर हमें अपने गाँव का बाशिंदा बताते हुए रोज़-रोज़ चीख़ रहे हैं एक दिन उन्होंने देखा कि एक मज़दूर नेता की, जो लोककथाओं की तरह प्यारा और ख़ूबसूरत था, एक उद्योगपति और शराब के ठेकेदार ने मिलकर हत्या कर दी। आज उसी उद्योगपति ने हिंदी का सबसे बड़ा पुरस्कार सबसे बड़े जनवादी और मानवतावादी साहित्यकार को दिया है। फ़्लैश चमक रहे हैं। फ़ोटो खींचे जा रहे हैं। विचार, आदर्श और नैतिकता बेमानी। यहीं है उत्तर आधुनिकता का ख़ूबसूरत मॉडल। एक युवा मज़दूर की विधवा ने जिस सहायता राशि पर थूक दिया उसी के सूद से हिंदी का सबसे बड़ा पुरस्कार सबसे बड़ा जनवादी साहित्यकार ले रहा है। बेशर्मी की हद है।
ठीक इन्हीं दिनों उन्हें पंजाब के एक विश्वविद्यालय से लेक्चररशिप का इंटरव्यू देने के लिए एक रजिस्ट्री पत्र आया था। तीन दिन पहले। आज जब वे खेत से आकर बैलों को भूसा-दाना कर रहे थे तभी उनकी बड़ी वाली बेटी ने उन्हें एक दूसरा पोस्टकार्ड दिया।
यह आचार्य चूड़ामणि का पोस्टकार्ड था। गुरुदेव मुझे अब भी भूले नहीं हैं—यह सोचकर ही सुबोध मिसिर की आँखे छलछला गईं। कुशलता की कामना के साथ गुरुदेव ने लिखा है कि “अगर तुम्हें फ़ुर्सत हो तो यहाँ चले आओ। पंजाब की यात्रा करनी है। बूढ़ा हो गया हूँ। अकेले यात्रा संभव नहीं है। और अब यहाँ कोई इतना विश्वसनीय नहीं जिसके भरोसे इतनी दूर जाया जा सके।
वही तारीख़! वही जगह! लग रहा है इस इंटरव्यू में गुरुदेव ही एक्सपर्ट हैं—सुबोध मिसिर ख़ुशी से क़रीब-क़रीब काँपने लगे—शायद अब मेरे दुःखों का अंत होने वाला है। ठीक पंद्रह दिन बाद उन्होंने रामधारी साहु से हज़ार रुपये उधार लिए और गुरुदेव के चौखट पर हाज़िर हो गए।
सुबोध ने देखा, अपने घर के बाहरी हिस्से में, जहाँ कभी गाड़ी खड़ी रहती थी वहीं एक टूटी और धँसी चारपाई पर गुरुदेव मैली-कुचैली सी चीकट रज़ाई ओढ़कर बैठे हैं। जगह-जगह से फटी बेडशीट नीचे तक झूल रही है। सर्दी का मौसम था। गुरुमाता चारपाई पर पाताने सिकुड़कर बैठी थीं। एक गठरी हो चुकी गुरुमाता। जब सुबोध वहाँ पहुँचे तो गुरुदेव के चेहरे पर हल्की और थकी मुस्कुराहट फैल गई। उन्होंने कोने में रखे पुराने स्टूल की ओर इशारा करके बैठने के लिए कहा। “गुरुदेव आप यहाँ?”—सुबोध ने जगह-जगह से फटी दीवारों वाले गैरजे में लावारिस की तरह पड़े गुरुदेव को देखकर आश्चर्य और करुणा से भरकर पूछा। दीवारों और छत पर वर्षों पुराने मकड़ी के जाले लटक रहे थे। चारों और गंदगी थी।
“हाँ, अब मेरे लिए यही जगह उपयुक्त है। उत्तराधिकार सौंप देने के बाद राजा के लिए जंगलवास ही उचित रहा है।”—बोलते हुए चूड़ामणि जी के शब्द, जो कभी नाभि की ओंऽम ध्वनि की तरह थरथराते हुए निकलते थे, आज जैसे आँखों से भीगकर रेंग रहे थे। पंख फड़फड़ाने की कोशिश में गौरय्या के बच्चों की तरह मुँह के बल गिर-गिर जा रहे गुरुदेव के शब्द—“इधर अब थोड़ा एकांत रहता है”—उन्होंने कहा।
घुटनों में मुँह ढाँपे गुरुआइन अचानक फफक पड़ी, “बहू उधर जाने नहीं देती। बेटा मउगा है। बात-बेबात झिड़कता रहता है। अब तुम्हारे बाबूजी गठिया के मारे चल नहीं पाते। दो मील पैदल जाकर होमियोपैथ की दवा लाती हूँ। दिन भर के लिए आधा किलो दूध! बेटा, तुमने तो देखा ही है! पाँच-पाँच किलो दूध का चाय बनाती रही हूँ। आज बूढ़ापे में अपनी थाली अपने हाथ धोओ! गिनी हुई रोटियाँ और मुट्ठी भर चावल!
“चुप रहो भागमान।”—आचार्य ने पत्नी को संतोष दिलाया और पूछा, “बेटे सुबोध! तुम कैसे हो? घर में बाल-बच्चे? और बहू कैसी है?
“सब ठीक है गुरुदेव। लेकिन आप यहाँ! और इस तरह?
“नहीं, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है। पत्नी अपनी आदत से लाचार है। बहू से नहीं पटती। ख़ैर छोड़ो! मुझे यहाँ बहुत सुख है।
सुबोध ने देखा था वह दिन कालीन के चारों तरफ़ बिछी कुर्सियाँ। स्वयं तख़्त के मोटे गद्दे पर मसनद के सहारे अधलेटे आचार्य चूड़ामणि का व्यक्तित्व। हिंदी जगत का यह प्रचंड सूरमा शत्रु शिविर में ऐरावत की तरह, अपने सामने डीन, वाइस चांसलर या अंत्री मंत्री किसी को कुछ नहीं समझता था। सूर पंचशती समारोह का विराट समागम! देश के कोने-कोने से आए मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र से लेकर संरचनावादी समीक्षा सिद्धान्तों के पचासों विद्वान, सबके बीच दिप-दिप करता आचार्य का अपना प्रभामंडल! सभी उनके सामने दंडवत थे। किसी को थीसियों का परीक्षक बनना था तो किसी को अपनी किताब पाठ्यक्रम समिति से पास करानी थी। किसी को बहू की नियुक्ति चाहिए, तो किसी को यू.जी.सी. की ग्रान्ट। आज वही गुरुदेव लावारिस की तरह अपने ही घर के एक कोने में खो गए—सुबोध मिसिर भौंचक थे।
“अच्छा तुम ऐसा करो कि मुमुक्ष भवन में जाकर ठहर जाओ”—आचार्य ने कहा—“कल सुबह पंजाब मेल से अंबाला तक का रिज़र्वेशन है। वहाँ से बस की यात्रा करनी पड़ेगी।
“गुरुदेव! मैंने भी उस जगह के लिए आवेदन किया था।” सुबोध ने बताया, “मेरा भी इंटरव्यू लेटर आया है। क्या आपको मालूम है कि दूसरे कौन-कौन एक्सपर्ट हैं?
अब तक आचार्य जी के मुखमंडल पर शिष्यत्व की जो ममता झलक रही थी अचानक यह सुनते ही कर्तव्यपराणता के बोझ से दबकर कठोर रुख़ बदलने लगी। स्वर मद्धिम हो गया। बोले, “चलो, यह तो बहुत ही अच्छा है। लेकिन तुम यह बात यहाँ किसी से बताना मत। मुझे तुम्हारी बहुत चिंता है।
गुरुआइन ने कहा, “अब इन्हें कौन पूछता है बेटा! पहले सब लोग यहीं माथा रगड़ते थे। अब इसी शहर में आकर चुप-चुप चले जाते हैं। अगर गोहत्या का भय न हो तो लोग बुढ़े बैल को गोली मार दें।
लखनऊ से अंबाला तक की यात्रा आचार्य ने सोकर पूरी की। दूसरे सारे मुसाफ़िर उनकी नाक की घर-घर और खाँसी के मारे ऊब-ऊब कर करवट बदलते रहे। आँखों के अलावा गुरुदेव के सारे अंगछिद्र मिनट-मिनट पर विस्फ़ोट कर रहे थे। श्रद्धा अतीन्द्रिय नहीं होती। ख़ुद सुबोध को भी दिक़्क़त हो रही थी।
अम्बाला से बस का सफ़र करते हुए गुरुदेव सुबोध से हिसाब-किताब लेते रहे। खेती में कितना फ़ायदा हो जाता है। हम लोग बचपन में चने का होला खाकर ईख चूस लेते थे। पेट भर जाता था। शहरों में तो बहुत प्रदूषण और मिलावट बढ़ गई है। एक तो बिजली नहीं आती दूसरे बिल बहुत देना पड़ता है ‘महिशंच शरद् चंद्र चंद्रिका धवलं दधिः'। कालिदास ने लिखा है—शरद कालीन चन्द्रमा की चाँदनी की तरह भैंस की सुंदर सजाव दही! पढ़कर लार टपकने लगती। यह सब गाँव में ही संभव है। शुद्ध हवा और बे-मिलावट भोजन।”
“लेकिन गुरुदेव, गाँव तो नरक हो चुके हैं। खेती की हर फ़सल किसानों को क़र्ज़ में डुबोकर चली जाती है। दो जून के भोजन के अलावा अब वहाँ कुछ भी नहीं है।
“यह तुम्हारा भ्रम है सुबोध! शहरों के लिए तुम्हारा आकर्षण ठीक है, लेकिन गाँवों के प्रति तुम्हारे विचार अच्छे नहीं है।
सुबोध ने सोचा—क्यों नहीं आप गाँवों में चले जाते। कौन आपको रोके है। लेकिन गुरुदेव की बात। वे चुप लगाए रहे।
उतरने वाले स्टेशन के थोड़ा पहले ही चूड़ामणि जी ने सुबोध को हिदायत दी, “तुम पीछे से उतरकर दूसरी ओर चले जाना। वरना, कोई तुम्हें मेरे साथ देख लेगा तो पक्षपात का आरोप लगेगा। लोगे कहेंगे कि 'कैंडिडेट' लेकर आए हैं।
सुबोध ने कहा, “जैसी इच्छा गुरुदेव!”
इंटरव्यू बोर्ड में दिल्ली के एक प्रचंड वामपंथी थे और दूसरे राजस्थान के वाममार्गी। तीसरे स्वयं आचार्य चूड़ामणि, जिनके पुत्र को अभी बनारस विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनना था। सुबोध मिसिर ने इंटरव्यू बोर्ड में बैठे आचार्य को देखा। निर्वीय पौरुष की समस्त वासना निरीह आँखें में दीन याचना बनकर चुपचाप बैठी थी। वामपंथी आचार्य ने उनसे अलंकार और रीति की सामाजिक और साहित्यिक महत्व पूछा। राजस्थान के वामामार्गी नाथ संप्र्दाई आचार्य ने भाषा विज्ञान का 'ग्रिम नियम'।
सुबोध मिसिर सवालों का जवाब ठीक से नहीं दे पाए। इंटरव्यू ख़राब हो गया। इसलिए नहीं कि पिछले कई सालों से उनकी पढ़ाई-लिखाई नहीं हो सकी थी, बल्कि इसलिए कि इंटरव्यू का अच्छा या बुरा होना अंततः और एकमात्र एक्सपर्ट पर ही निर्भर करता है। अब उन्हें अपने गुरुदेव आचार्य चूड़ामणि से ही अंतिम उम्मीद थी।
तुमने तो मेरी सारी उम्मीद पर ही पानी फेर दिया।”—बाहर निकलकर आचार्य चूड़ामणि ने बताया।
“नियुक्ति किसकी हुई गुरुदेव?” बस अड्डे की ओर लौटते हुए सुबोध मिसिर ने बहुत धीमे और रुआँसे स्वर में पूछा।
रात हो रही है। चौड़ी और चिकनी सड़कों के दोनों ओर नियान लाइटों और हाइलोजन के पीले प्रकाश में जलपरी की तरह तैरती-भागती कारें। खिलखिलाती लड़कियाँ। समूचा शहर एक नशीले संगीत की लय पर थिरक रहा था। उनका प्रश्न डूब गया था। किसी अदृश्य लोक की स्वप्न सुंदरी ने अपने वैभव का पारदर्शी नीला आँचल बाज़ारों के ऊपर फैला दिया था। पैदल चलते हुए आगे-आगे गुरुदेव और पीछे सुबोध मिसिर। वह अपने गाँव के रामधारी साहु से उधार लिए एक हज़ार रुपए, अपनी पत्नी और जवान होती बेटियों के बारे में सोच रहे थे। कहाँ से चुकाएँगे यह एक हज़ार रुपया। उनका दिल डूब रहा था। गुरुदेव ने बताया, “रजिस्ट्रार की पुत्रवधू की नियुक्ति हुई है। सब कुछ पहले से तय था। कहने को लोग वामपंथी बनते है, लेकिन प्रोफ़ेसरों की एक ही जाति होती है और एक ही विचारधारा। कौन उन्हें परीक्षक बनाकर हवाई जहाज़ का किराया दे सकता है! बस। मैंने बहुत दुनिया देखी है। बनारस विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर की नियुक्ति होने वाली है। शायद यही एक्सपर्ट होकर आएँ। इसलिए मैं चुप लगा गया। किसी तरह श्रवण कुमार प्रोफ़ेसर हो जाता।
अंबाला कैंट तक पहुँचने में रात के नौ बज गए थे। गाड़ी अभी चार घंटे लेट थी। “ए.सी. और फर्स्ट क्लास में मैंने बहुत यात्राएँ की हैं। ऊब और एकांत अब सहा नहीं जाता। देखों, सेकेंड क्लास में रिज़र्वेशन मिल पाता है या नहीं? आचार्य ने सुबोध से कहा, “तुम टी.टी. को बता देना कि बनारस विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं।
कुर्ते के नीचे मारकीन की बनियान। बनियान के भीतर चोरथैली। रामधारी साहु की बनियान की तरह आचार्य की बनियान में भी चोरथैली। ए.सी. का किराया मिला है। लेकिन गुरुदेव ने चोरथैली से निकालकर सौ-सौ के दो नोट सुबोध को थमाए, “सेकेंड क्लास का टिकट ले लेना।
“अभी गाड़ी आने में बहुत देर है चूड़ामणि जी ने सुबोध से “यहाँ से तीन किलोमीटर दूर तक देवी का मंदिर है, एकदम निर्जन स्थान में। कहा जाता है कि सच्चे मन से वहाँ माँगी गई हर मन्नत पूरी हो जाती है। मुझे तुम्हारी भी बहुत चिंता रहती है सुबोध!”
शायद गुरुदेव मेरे लिए सोच रहे हैं। अगर कोई गुरु देवी के सामने जाकर सच्चे मन से अपने शिष्य के लिए मन्नत माँगे तो समूचे ब्रह्मांड में इससे पवित्र प्रार्थना और क्या हो सकती है?—सुबोध ने सोचा।
अँधेरी रात है। निर्जन स्थान। रिक्शा तो मिलेगा नहीं। “लेकिन कोई बात नहीं गुरुदेव! गाँव का रहने वाला हूँ। बोझा ढोने की आदत है। ईंख और ज्वार के बड़े-बड़े बोझ खेत से लेकर आता हूँ। तीन किलोमीटर कोई दूरी नहीं है!”—सुबोध ने कहा और गुरुदेव का भारी होल्डाल और अटैची सिर पर लादकर चल पड़े। अपना झोला उन्होंने गले में लटका लिया।—“आप बस रास्ता बताते जाइए गुरुदेव!”
एक किलोमीटर बाद शहर ख़त्म हो गया। मुख्य सड़क से हटकर खेतों के बीच एक पगडंडी। दो किलोमीटर और चलना है—गुरुदेव ने कहा, “पता नहीं क्यों मुझे आज बहुत डर लग रहा है।
गहरी अँधेरी रात थी। सिर पर भारी होल्डाल, अटैची और गले में झोला लटकाए आगे-आगे सुबोध मिसिर और पीछे-पीछे अब भूतपूर्व हो चुके बनारस विश्वविद्यालय के अभूतपूर्व आचार्य चूड़ामणि। उनके पैर बार-बार धोती में फँसकर उलझ जा रहे थे। जाड़े का मौसम था। तेज़ बर्फ़ीली हवा चल रही थी। “लग रहा है शिमला में बर्फ़ गिरी है। इस साल ठंड बहुत पड़ेगी।—कंबल को कसकर शरीर पर लपेटते हुए आचार्य ने कहा।
“मुझे तो पसीना हो रहा है गुरुदेव!”—सुबोध मिसिर की काँपती आवाज़ होल्डाल के भारी वज़न से दबी जा रही थी।
“गाँव का आदमी श्रम करता रहता है। कर्मवीर और सच्चा प्रकृति पुत्र। इसीलिए निरोग रहता है। पता नहीं क्यों आजकल लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। मुझे तो गाँव बहुत अच्छे लगते हैं। रिश्तों की आदिम गंध में डूबे गाँव। शहर में तो कोई किसी को पहचानता ही नहीं। चारों ओर मतलब और स्वार्थ!”—गुरुदेव ने कहा।
बस, बस यही सामने। चारों ओर ईख और धान के कटे खेत। सन्नाटे में डूबा छोटा सा मंदिर। तेलियों के बटखरे की तरह काली और बेढब सी गुप्तकलीन पत्थर की मुर्ति। न कोई तराश ना भव्यता। आचार्य ने आँखे बंद की और श्रद्धा से हाथ जोड़ा। “विदेशों में यह करोड़ों की बिकेगी। सरकार को सुरक्षा का इंतिज़ाम करना चाहिए”—गुरुदेव ने चिंता जताई और बताया, “हल जोतते समय खेत के भीतर मिली थी यह मूर्ति।
गाँव में तो कोई इसका पाँच रुपया भी ना देगा—सुबोध ने आश्चर्य से गुरुदेव को देखा।
“पहले तुम अपने लिए कुछ माँग लो!” आचार्य ने कहा—“लेकिन पूरे मन से तंमय होकर। स्पष्ट उच्चारण के साथा
सुबोध हाथ जोड़कर खड़े हो गए, “माँ, मुझे नौकरी चाहिए! हाई स्कूल, इंटरमीडिएट से लेकर बी.ए., एम.ए. किसी भी कक्षा में पढ़ा सकता हूँ। मुझे पढ़ाने की नौकरी चाहिए माँ! मैं गुरु ऋण से उऋण होना चाहता हूँ। सरस्वती का कलंक सिर पर लादे, मैं अपनी समूची आस्था के साथ तुमसे पापमुक्ति की प्रार्थना कर रहा हूँ। मुझे गाँव के अँधेरे नर्क से निकालकर चाहे जहाँ कहीं भेज दो। मैं वहाँ नहीं रहना चाहता। सारा गाँव मेरी पढ़ाई-लिखाई पर हँसता है।
काली अँधेरी रात। निस्तब्ध सन्नाटा। सुबोध प्रार्थना कर रहे थे। उनके एक-एक शब्द, जैसे चिता में आत्मदाह करती किसी विधवा की चीख़ आग की लपटों में छटपटा रही हो। उनकी आँखों से आँसू छलछला आए थे। उसके बाद आचार्य चूड़ामणि जी मूर्ति के सामने उपस्थित हुए। सुबोध ने सोचा, जो कुछ कसर रह गई होगी मेरे माँगने के ढंग में, उसे गुरुदेव ज़रूर पूरा कर देंगे। वे चूड़ामणि जी के ठीक पीछे निश्चल भाव से खड़े हो गए। भावमग्न।
आचार्य ने पहले हाथ जोड़ा और फिर आँखें मूंद लीं। तीन-चार लंबी-लंबी साँसें खींची। प्रणायाम की दीर्घ साधना में उन्होंने शब्द को नाभि तक खींचकर थरथराते मन्द्र स्वर में पहले ओऽम का उच्चारण किया। फिर हाथ को माँ के पैरों पर टेक कर ज़मीन पर लेट गए। थोड़ी देर तक एकदम शांत। अचानक उनके गले से रोने की आवाज़ फूटी। सुबोध ने देखा, दुनिया का सबसे दुःखी आदमी माँ के पैरों पर गिरा पड़ा है। करुण हिचकियों में गुरुदेव के शब्द डूब-उतरा रहे थे, “माँ, मेरे बेटे को प्रोफ़ेसर बना देना। हाँ माँ प्रोफ़ेसर! समूचा हिंदी जगह मेरे उपकार के बोझ से दबा है। लेकिन मुझे अब किसी पर भरोसा नहीं रह गया। मेरा दुर्दिन जानकर मेरे ऊपर दया करो माँ!
यह क्या कह रहे हैं गुरुदेव!—सुबोध मिसिर थरथर काँप रहे थे। कृतघ्नता का यह चरम रूप देखकर वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।
“अच्छा तो गुरुदेव, प्रणाम!—मैं जा रहा हूँ।
आचार्य ने सुना और लेटे-लेटे पीठ के बल उलट गए, “मुझे इस तरह यहाँ अकेले छोड़कर सुबोध?” उन्होंने याचना के से स्वर में पूछा।
“हाँ! इसी तरह। इसी अँधेरे में। यहीं पड़-पड़े रोते रहें। ”सुबोध के हाथ में एक हल्का सा झोला था। वे उसे उँगलियों में नचाते, ग़ुब्बारे की तरह हवा में लहराते चले जा रहे थे।
अचानक उन्हें अपने पीछे किसी की हिचकियाँ और रोने की आवाज़ सुनाई दी। उन्होंने मुड़कर देखा। उन्होंने देखा कि सिर पर भारी होल्डाल और अटैची लादे आचार्य चूड़ामणि भागते-भागते गिरते-पड़ते चले आ रहे हैं।
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—kya baat hai panDe jee!” chuDamanai ne rikshe se utarte hue puchha, ”ap log class chhoDkar yahan khaDe hain?
“apka swasthy kaisa hai sar?” panDe ji ne puchha aur safai di, “Dean sinha ji ne sare wibhagadhyakshon ki meeting bula rakhi hai wahin ja raha tha aap nahin the sar, mujhe bahut chinta thi
sinha ko aur koi kaam nahin rah gaya hai baithe baithe rajaniti chhantata hai aapko wahan jana hai jaiye, apna class lijiye!” chuDamanai ji ne hikarat se kaha—kya maweshikhana bana rakha hai wibhag ko unhonne sharma ji ko bulakar kaha, “wahan se laDkon ko hataiye aur kahiye, apne apne class mein jayen ”
“aur suniye, aap Dean auphis chale jaiye meeting ka agneda le aiye aur bata dijiyega ki yahan sabki wyasttayen hain samay puchhkar meeting rakha karen
“sar, suna hai ki interwiew hone wala hai”—sharma ne bataya jaise suswadu bhojan ke beech danton mein kai kankaD phans jaye sara zayqa kharab bura sa munh banakar chuDamanai ji ne sharma ko dekha—“kaisa intrawyu!”
“sar! yahan sare adhyapak subah se hi panDe ji ko gher rakhe hain hafte bhar se koi class nahin suna hai Dean ne panDe ji ko professor aur wibhagadhyaksh banane ka ashwasan de rakha hai sharma wibhag mein acharya chuDamani ji ka khas adami hai
tab tak ek laDka aaya uske sath wishwawidyalay chhatr sangh ke bhutapurw adhyaksh aur ab aar s s ke prantiy sanyojak samar singh bhi the donon ne acharya ka charn sparsh kiya “kahiye, sangathan ka kaam kaisa chal raha hai? acharya ne puchha
wahan to theek hai sar! lekin aap logon ne communist, wo bhi nakslait pratyashi ko jeet jane diya?” samar singh ne chinta zahir ki
to kya karte! yahan babhan jita dete? hum bache rahenge tabhi wichardharayen rahengi ”—chuDamanai ji ne unki baat ko koi tawajjo na dete hue puchha—“kahiye, koi kaam hai?
“sar! inka pi ech d mein registration karana hai ” samar singh ne sath wale laDke ki or ishara kiya
apne aur kisi se baat nahin kee? acharya registration farm ko paDh rahe the—wishay, “hindi kawiyon ka aushadhi gyan
“is wishay ka kya matlab?—unhonne laDke se puchha
“sar, ayurwed wibhag mein shodh ke liye ‘skalarship hai aap chahenge to mil jayegi ” laDka muskura raha tha
hoshiyar lag rahe ho, kya nam hai
“pratap singh sar!
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nahin sar! khanti baliya ka hoon
acharya ne farm par hastakshar kar diye
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“sharma ji, aapko kuch pata hai interwiew ki tarikh kya hai? aur suniye, pahle darwaza band kijiye —acharya ne aagya di
bhitar hi bhitar mantrana hui unhonne kisi ko phone kiya interwiew se do din pahle ‘ste arDar ke liye ashwast ho gaye sharma ji unhen mugdh nayika ki tarah dekhkar muskuraye acharya ka thahaka goonj utha bahar kuch adhyapak kan rope reng rahe the kamre se nikal rahe sharma ji ko unhonne danDwat kiya
“acharya ki tabiat kaisi hai sharma jee?
koDh mein khaja jaDe mein barish mahaul garam hai kan aur munh muflar se bandhe pret apni apni kabron se bahar nikal aaye hain subodh misir ne mahsus kiya ki jin wampanthiyon se unka hukka pani band tha, unse bhi namaskar bandagi hone lagi hain fizayen rang badal rahi hain hawaon mein hindi wibhag ka interwiew goonj raha hain sahastitw aur samagam ke is daur mein we acharya tak pahunchne ki mazbut siDhi ban sakte hain wamapanthi wicharon wale rayasahab ke saDhu ki mausi ke baDe wale damad ki chhoti wali bitiya usi ganw mein byahi gai hai jahan Dean sinha ji ki nanihal hai we udhar se ashwast hain lekin is chuDamanai ka koi bharosa nahin jati pahli shart hai lekin subodh misir ko to dattak putr ki tarah manata hai ab apna kaam to prayas karna hai we subodh misir ko bata rahe the—“ap dhyan den to payenge ki hamari bharatiy sanskriti mein wad wiwad ki lambi paranpra rahi hai, acharyon ka apne shishyon tak se wad wiwad hota raha hai gargi aur yaj~nawalky ki paranpra wale is desh ne wirodhi wicharon ko wyaktigat hit ahit, labh hani, jiwan marn se upar uthkar samman diya hai ab dekhiye to ek tarah se ye pura wibhag acharya ji ka hi pala posa hua hai unke sochne ka apna Dhang hai aur main to kahta hoon ki uski ek bahut lambi aur samrddh paranpra rahi hai jahan tak unke niji wyaktitw ka parashn hai to main to hamesha se kahta raha hoon —is interwiew mein ray sahab ka bhatija lecturer aur we khu reader pad ke pratyashi hain —“achchha to main chal raha hoon” unhonne subodh misir se kaha—“ap unke khas aur yogya widyarthi hain are bhai, ab tak aapko apni thisis puri kar leni chahiye thi khair, abhi to jo log reader ho jayenge, unki aur kai jaghen khali hongi aap gurudew ko mera parnam kah dijiyega
nichibagh ke chaudhari prakashan se chale aa rahe upadhyay ji ne apni khatara saykil par painDil marte hue socha ki ye to rikshe se bhi bhari chal rahi hai wibhag tak pahunchne mein pasine pasine ho rahe the sans dama ke mariz ki tarah chal rahi hai jate hue ray sahab ko dekhkar unhonne bhaddi si gali di aur subodh misir ke pas rukkar bole—“ek to bhuinhar, dusre janwadi ka kah raha tha ho subodh? abhi kal tak to chuDamanai ji ko gali deta tha class mein laDkon se kahta tha ki upanyas ke wikas mein premchand aur yashpal ke sath gulshan nanda aur ranu ka nam likh rakha hai bhuinhari chhantata hai sasur kuch tum bhi to likho! ki bus muktibodh ka gu chatte rahoge ” unhonne ghuna se thuka aur matlab ki baat karne lage—sant sahity ka samajik yogadan meri pustak parson tak chhapkar aa jayegi aur katar hansi hanste hue batane lage—“sara paisa makan banwane mein lag gaya tha bahu ka mangalsutr panch hazar mein bechkar ye kitab chhapwa raha hoon chinta ke mare neend nahin aati teen raat jagkar sochta raha aaj jakar final kiya mainne ye pustak acharya ji ki patni ko samarpit kar diya hai aage bhagwan ki marzi prakashak sale to loot rahe hain kaghaz aur chhapai ka sara paisa dena paDa hai
shantikal ke bees warshon mein is wibhag se sirf teen pustakon ka prakashan hua tha interwiew ghoshait hone ke baad se ye paintaliswin pustak ki suchana thi janardan parsad ne apne kai sheyar jaldi jaldi beche en s si ki raqam bhunai we professor pad ke pratyashi hain aisa suna jata hai ki unke makan ke bhitar ek bahut baDa haal hai jahan aksar unke stuDents dusre wishwwidyalyon se i copiyan janchate rahte hain, wahin baithkar ajkal panch widyarthi raat din pustken taiyar kar rahe hain pustakalaya ki kitabon ke panne noch noch kar bharatiy kawyashastr, samkalin sahity ki bhumika, ritikal ka kalatmak yogadan, aadi aadi granth taiyar kiye ja rahe hain
kabirapanthi guhysadhna aur ulatbansi ke marmaj~n reader acharya mahadew muni ne dekha ki pashuchikitsalay ke garbhadhan kendr par bheeD lagi hai baniyan aur tahmat lapete ek hatta katta adami gay ke nawjat bachhDe ka kan pakDe, puchkarta chala ja raha hai unhonne ankhon par zor lagakar dekha—lag raha hai ramakarna hai donon mein nanad aur bhaujai ka rishta unhonne pukar lagayi—“paDwe ke sath kahan ja rahe ho?
subah subah bahir baklol ne toka kaise bitega pura din? unhonne jawab diya—“kan to pahle hi ghayab tha andhe bhi ho gaye kya? sasur bachhDe ko paDwa bol rahe ho?
main tumse nahin, bachhDe se poochh raha hun”—kabirpanthi acharya ne ramakran se kaha
donon ek dusre ke qarib aaye awishwas aur ghrina ek dusre ke kan mein munh satakar phusaphusati rahi, “are bhai, Dean tumhari biradri ka hai kahna, eksapart ko sadhe rahe warna ye chuDamanai tikne na dega
donon ne ek dusre ko bharpur tola andaza, suna aur sungha phir alag alag dishaon mein thoDi door aage jakar gum ho gaye charon or prem aur ghrina, sanshay aur awishwas ki manoram chhata phail rahi thi
lecturer jain sahab! retire hone mein sirf chhah mahine baqi hain is bar bhi koi ummid dikhai nahin de rahi hai chehre par manchhi bhinak rahi hai nirih ankhon se hindi wibhag ko dekhte hue unhonne aah bhari—“kaisa zamana aa gaya wishwawidyalay mein professor rah hi nahin gaye sab jagah sirf thakur, bhumihar, brahman aur lala hain
“kaisa thakur, brahman, gurudew!—subodh misir ne kaha—“main to panch sal se yahan logon ko dekh raha hoon aur main jab bhi dekhta hoon, har bar mujhe apne ganw ka desraj nai yaad aane lagta hai
subodh misir pan ki dukan par khaDe hokar khaini mal rahe the tabhi unhen kuch shor aur pakDo pakDo ki awaz sunai paDi hindi wibhag ke samne pradhyapkon aur chhatron ki bheeD thi lag raha hai koi cycle chor pakDa gaya hai, aur theek usi samay unhonne dekha ki bheeD ke beech se gurudew shiwpal mishr bhage ja rahe hain pichhe ek hatta katta darogha unhen dauDa raha hai—“pakDo! pakDo!!” gurudew ke pair mein juta bhi nahin hai coat ke sare button nuch gaye hain banh phatkar jhool rahi hai we sarpat bhage ja rahe hain wishwawidyalay ka wishal phatak unhonne ek lambi chhalang se par kiya aur shahr ki bheeD mein, jahan cinema ke ticket black ho rahe the, aur jahan payel aur ghunghru ke udas afsane latri ke ticket bech rahe the, jakar kho gaye
“bhag gaya harami ka pilla”—darogha hath mein DanDa liye pan ki dukan ki or aa raha tha
“kya inhonne kisi laDki ke sath kuch kiya hai?” ek jij~nasu bheeD darogha ke asapas ghirne lagi thi
pradhyapak log to ye sab karte hi rahte hain mujhe in sab baton ke liye fursat nahin ” darogha hanph raha tha
“phir kya hua?” kisi ne puchha
“kanpur station par girahakti karta tha kisi ki marksiten aur degreeyan hath lag gain satrah sal se unhin ke bharose yahan naukari kar raha hai had hai bhai! wishwawidyalay hai ki chanDukhana! ranDiyan bhi gerahak ka munh sunghakar sauda karti hai ”—darogha chhatron aur pradhyapkon ko hikarat se dekh raha tha, “kaise yahan paDhne wale hain aur kuligs log kya bhusa khate hain?
“uske anDar mein shodh kar chuke pachason chhatron ka kya hoga? we to dusre wishwwidyalyon mein naukari kar rahe hain”—kisi ne utsukta prakat ki
“ab is baat mein koi maza nahin ” bheeD darogha ke asapas se chhantne lagi
“lijiye, ab isi baat par pan khaiye!” dukandar ne pan ka gol biDa thamate hue sharma ji ko badhai di “mishra maidan se bahar ho gaya ab aapka reader banna koi nahin rok sakta
sharma ka saDhu wijilens mein naukari karta hai lag raha hai mamle ko ubharne mein isi ka hath hai logon ne kanaphusi shuru ki—“apne swarth ke liye log kis had tak ja sakte hain! yahan kisi par bharosa nahin ” tripathi ji ne tippanai ki, “abhi kal tak ye donon galabhiyan Dale pure wibhag ko gali dete the
terah din ho gaye suraj nahin nikla sham hote hi sara shahr ghane kohre ki safed chadar oDhkar ukhun paDa so jata lambi aur sunsan raat kaun ro raha hai? shayad koi kishor widhwa hai! lekin itni marmantak wedna! zarur koi wriddh widhur hoga street laiton ke maddhim parkash mein kanbal oDhe koi chhayakriti chali ja rahi hai kisi skutar ki sarasrah pas aati aur phir dusre chhor ke andhere mein jakar wilin ho jati apne retirement se ube wriddh aur jarjar profesron ki bhi poochh baDh gai hai raat do do baje tak sandhiyon, samjhauton aur shaDyantron ka daur jari hai mithaiyon ka bhaw baDh gaya hain aise prchanD sannate mein bhi dukanen khuli hain jinhonne apne bachchon ko tauphi ki jagah bheli aur guD khilakar pala posa tha, we bhi ikatthe teen teen, chaar chaar kilo ke alag alag packet bandhawa rahe hain “jaldi karna bhai, saDak par skutar start khaDa hai —munindar ray ne dukandar se kaha
unke chale jane ke baad ek adami ne dukandar se puchha, “bahut baDe adami hain kya?
dukandar muskuraya, “ajkal wishwawidyalay mein interwiew chal raha hai bikri baDh gai hai
sirishti mein saty itna manohari, rang biranga aur mauzun kabhi nahin raha hoga subodh misir ajkal pustakalaya nahin jate subah se uthkar din bhar saty ki talash mein ghuma karte hain wo unhen chaurahon, nukkDon, chay aur pan ki dukanon par, hindi wibhag mein jagah jagah dikhai deta rahta
ye professor log khate kya hain? aaj yahi janne ke liye we machal paDe wo janna chahte the ki akhir kaun sa ann hai jisne inki wasnaon ko prchanD aur jannendriyon ko nishkriy kar diya hai? wo pure din bhukhe pyase tahalte rahe shayad is rahasy ko par pana mere liye durlabh hai ye sochte hue thakkar wo nukkaD wali dukan par chay pine chale gaye tabhi achanak unhonne dekha ki mukhy saDak ki nazar se door jo choragaliyan hain unmen kuch log sir par bojha lade dabe pichke qatarbaddh chupchap chale ja rahe hain we chaunk paDe bahut pahle ‘tam kaka ki kutiya mein inki shaklen dikhai di thi lekin inke chehre to parichit hain ye apne hi wishwawidyalay ke shodhchhatr hain wigyan aur manawiki ki wibhinn shakhaon prshakhaon ke shodhka haustlon mein rahte hain apne ganw jawar ke honhar ghar ke dularuwa jab ye yahan paDhne aate hain to inke bap attachi aur achar sir par ladkar inhen station tak chhoDne aate hain khet girwi rakhkar inke sukh suwidhaon ko pala posa jata hai akhir is tarah ye log kahan ja rahe hain?—subodh misir ne socha laDakhDakar gir paDe ek laDke ko unhonne dauDkar pakDa sahara dekar uthaya aur puchha, “is bore mein kya hai bhai? kahin tum taskari to nahin karne lage?
laDke ne kaha, “gurudew ki bhains byai hai usi ke liye purana, guD aur chokar le ja raha hoon ”
“aur tum?”—unhonne dusre se puchha
“pahaDiya satti se kumhDa aur lauki kharidkar le ja raha hoon guruji ne kaha hai ki wahan sasti aur tazi sabziyan milti hain
tisre ne bina ruke bataya ki, “guruji ka makan ban raha hai usi ke liye cement hai ” bojh se pichke sir ka sara rakt chehre par utar aaya tha ankhe bahar latak i theen we usi tarah sir jhukaye chupchap aage baDh gaye subodh misir ki ankhen DabDaba gain wo khoob zor se hans paDe
interwiew mein do din rah gaya hai, jab sans roke pratiksha kar rahe hain udhar kone mein jhaDi ki aaD lekar gesthaus ka chaprasi wamapanthi rayasahab se phusaphsa raha hai, “teen kamre buk hain koi gujrat ke misir ji hain aur rajasthan ke upadhyay ji ek punjab ke, pata nahin kaisi ‘title’ hai jati pata nahin chal rahi hai
ray sahab ne anuman lagaya aur sir hilate hue ekalap ki mudra mein budbudane lage—“wam, wam, wam disha, samay samyawadi
“tab to aapke liye shubh hai”—chaprasi ne dilasa diya
“khak shubh hai! mool saty to dusra hai”—we chinta mein arpar ho rahe the—wah ek aur man raha ram ka jo na thaka kuch budbudahat ubhri—“kahti thi mata mujhe sada rajiw nayan ” chahe jo bhi ho, yu pi college wale master sahab mujhe wamapanthi mante hain jati bhed se pare aaj ke yug mein aisa adami milna mushkil hai bahut dinon se ekantwas kar rahe hain halachal lena chahiye—“achchha to bhai, bahut bahut dhanyawad”—unhonne chaprasi se kaha aur skutar ki cick mari—phurrऽऽ
idhar acharya chuDamanai dhoti, kurta aur band gale ki coat par shaal Dale chale aa rahe hain pan ki dukan, saDak par yahan wahan dhoop ke chhote chhote tukDon mein bante samast pradhyapakgan hindi wibhag ke samne aakar danDwat mudra mein winat bhaw se jhuk gaye bhay aur ashanka se bhare swayamwar ke samast rajgan acharya chuDamanai ke kripakankshi kaun kaha hai ki church aur pop ka yug khatm ho gaya hai
sab wampanthiyon ka fitur hai kamyuniston ke desh mein to wyaktigat swatantrata hoti hi nahin akhir mein daswritti ka palan bhi to hamari wyaktigat swatantrata hai
acharya ne dekha, bhawishya ki paudh lahlaha rahi hai shri wikas panDe, upadhyay, Dau tripathi, janardan parsad, reader mahadewamuni aur ramakran ray sabke sab upasthit hain kuch parabhrita sunayna sukumariyan bhi shardha aur samarpan ka mahotsaw unke honthon par rahasyami muskan tair rahi thi, “kitne paise hua jee?” utarte hue unhonne rikshe wale se puchha
“sahab, jo marzi ho de dijiye”—thanD se kanp rahe us buDhe ne chithDe kanbal ko lapette hue kaha
“sar, mere pas change hai”—warshon se laiya aur bhune chane ka swalpahar karne wale munindar ray rikshe ki or baDhe
nahin, nahin! ye ghalat baat hai”—acharya ne unhen sakhti se roka aur pachas paise ka ek sikka rikshe wale ko de diya
ashchary mein Duba samwet swar, “panch rupaya!! lutte hain sale! bhag bhosDi ke, dikhai na dena!!” bhonऽऽ bhonऽ huwanऽ huwanऽऽ
rickshaw wala girte paDte bhaga
acharya samne patthar ke bench par khaDe ho gaye “main aap logon se kuch kahna chahta hun”—unhonne samne jhuke siron ko sambodhit kiya, “lekin, agar aap logon ko mujh par bharosa ho to ”
do din baad interwiew hai kismen itni jurrat phir wahi samwet swar, ”hamen aapke nyaybodh par pura bharosa hai acharya ”
do minat tak sannata raha wibhag ke head clerk sharma ji ne bag se kaghaz ka ek tukDa nikalkar unhen thamaya chaprasi ramdin adhyapkon ke pichhe khaDa ho gaya
wahan ‘jangan man ho raha hai kya bhai! saDak par ghoom rahe laDke bhi aakar khaDe ho gaye
“ap to sakshat nyayamurti hain sar!” phir wahi samwet swar gunja
to aap log sunen! mujhe is baat ki bahut shikayat hai ki yahan koi class nahin leta dusri baat ye ki aap log petrol aur mithaiyon par bahut ziyada paisa phunkte hain thoDa mitawyayita se kaam len lekin, sath hi mujhe is baat ki bahut khushi hai ki idhar mere wibhag ne samuche hindi jagat se ziyada pustken likhi hain logon mein paDhne likhne ki ruchi baDh rahi hai ye achchhi baat hai bus yahi kamna hai ki aap log banaras aur allahabad ke prkashkon se thoDa upar uthe star baDhayen aur han! allahabad ke hi sandarbh mein ek zaruri baat yaad aa gai ye dekhiye ” unke hath mein kaghaz ka ek tukDa lahra raha tha, “yah allahabad haikort ka ‘ste arDar hai interwiew sthagit kiya ja raha hai ”—aur we jaldi se siDhiyan chaDhte hue upar apne kamre mein chale gaye
“are ye kya ho raha hai! upadhyay ji ke munh se jhag kyon nikal raha hai? ankhen ulat gain mirgi ka daura hai! juta sunghawo!!” charon or khalbali mach gai janardan parsad ne mandi ke dinon mein sheyar bechkar kitaben chhapai theen satyanash! guD gobar!! “pakDo sale ko! bhagne na pae!”—lalkarte hue ramakran ray acharya chuDamanai ke pichhe pichhe lapke
jammu, chanDigaDh, dilli aur lucknow chaar chaar wishwwidyalyon se i thisison ka maukhiki lena hai hawai yatra ka ticket pahle se buk hai chuDamanai ji ne pandrah din ki duty leew li taxi pakaDkar sidhe babatpur pahunch gaye
isi beech acharya ke iklaute shrawanakumar ke em em antim warsh ka result aaya pichhle sare acharya putron ka rikarD dhwast karta hua wo assi pratishat ank paya adhyapak sangh ki apat baithak mein janardan parsad ranD aurton ki tarah wilap kar rahe the—“yah adami shuru se hi adhyapak wirodhi raha hai ab uske laDke ka assi pratishat ank!” adhyapak sangh ke tinon pratyashi brahman hain—“agar phir bhi aap log kuch nahin karenge to main amarn anshan par baithunga ”
“ham karna to bahut kuch chahte hain adhyaksh mahoday chintit aur asmanjas mein hain—“lekin ismen kya kiya ja sakta hai? mamla court ka hai
kyon nahin kar sakte! hindi mein kahin assi pratishat” ank aate hain? ramakran ray cheekh rahe the—“isi apne putr ke liye is adami ne barah sal se ye jaghen rok rakhi hai laDka teen sal inter mein phel hua
adhyapak sangh ke adhyaksh mishra ji ki bahu isi sal itihas mein pachasi pratishat ank pa chuki hain unhonne sabha ke samne hath joDkar anurodh kiya—“ham logon ko shobha nahin deta ki aapas ke jhagDe mein bahu—betiyon ya putron ko ghasiten
kulapti ne Dean sinha ji ko bulakar puchha ki achanak ye sab kaise ho gaya?
main kuch nahin kar sakta sar!” Dean ne asmarthata prakat ki, “yah adami bahut jaliya hai
achchha aap aisa karen ki unke aate hi mere sath meeting rakhen main notis type kara de raha hoon laDkon ka pratinidhimanDal roz roz j~napan de raha hai zindabad, murdabad ho raha hain court ke mamle mein to kuch nahin ho sakta, lekin ye assi pratishat wali baat puchhkar aap karrwai karen ”—wi si nyayapriy chhawi wale sakht wekti hain
hawai yatra ki thakan thi phir bhi kulapti ka patr pate hi acharya unse milne gaye Dean sinha ji wahan pahle se maujud the thoDi der tak filon ko palatte rahne ke baad wi si ne aupacharik shuruat ki, “apaki yatra kaisi rahi acharya jee?
“theek thi sar!”—acharya chuDamanai dant khod rahe the—“dilli gaya tha socha yu ji si bhi ho loon, aapke ‘ekstenshan ki baat chal rahi thi sar!
“han bhai, dilli ke mare to main bhi bahut pareshan hoon yahan ke em pi tripathi ji ne sansad mein kya to parashn puchha hai ki aapke laDke ko hindi mein assi pratishat ank mile hain sab log jaanch karane ki baat kar rahe hain yahan laDke bhi roz julus lekar aate rahte hain wais chancellor ne sidhe sidhe baat shuru ki
chuDamanai ji muskuraye, “dharna pradarshan hi to hamara jantantr hai sar!
assi pratishat ank hindi mein!”—Dean sinha ji ne sakht etiraz jataya—“suna hai, wo priwiyas mein second diwision pas tha ” unhonne wi si se mukhatab hokar kaha—“sar! em pi tripathi ji ne lokasbha mein kaha hai ki ramachandr shukl ko bhi itne number nahin mile the pure desh mein wishwawidyalay ki chhichhaledar ho rahi hai sar!
wi si tak to sahi hai! ye Dean bahut gutter patar bol raha hai—acharya ne socha aur muskuraye, “dekhiye sinha ji, aap bhumihar hain
unka waky pura hone se pahle hi Dean uchhal paDa, “ap yahan jati biradri ki baat kyon utha rahe hain
“ap pahle shant hokar meri puri baat sunen! aur chikhna chillana mujhe bhi aata hai”—ghusse mein chuDamanai ji ke donon nathne marakhe bail ki tarah phaDakne lagte huःhuः—“kyonki ye mool saty hai ki aap bhumihar hain is dharne pradarshan mein aadhe laDke bhumihar, aadhe brahman aur do chaar communist hain mujhe achchhi tarah malum hai ki ye laDke dharne se pahle aur uske baad aapke ghar kya karne jate hain! rahi baat tripathi em pi ki, to wo nira bewaquf hai hindi ki itni pawitra sanstha ka nash unhin donon bhaiyon ne kiya hai us gadhe ko ye bhi nahin malum ki acharya shukl inter phel the unka em e mein assi pratishat ank kaise ayega?
ye adami to ekdam belagam hai, wi si ne socha—is par karrwai karni zaruri hai—aur bola—“ap wishwawidyalay mein jatiwad ki rajaniti karte hain suna hai, adhyapkon par hue hamle mein bhi aapka hath hai”—wi si ka lahja behad talkh aur sakht tha
acharya ke samne aaj tak kisi ne is andaz mein baat karne ki jurrat nahin ki thi wo kuch kshan tak shant hokar kulapti ke chehre ki aur dekhte rahe aur phir muskurate hue thanDe swar mein bole, “apne aur kya kya suna hai mere bare mein? log to bahut kuch kahte hain aapke pahle bhi ek kulapti the jute ki mala pahankar gaye the yahan se log chughalkhor hain kahte hain, ki wo sab mainne hi kiya kiraya tha jabki baat bus itni thi ki prachin wanmay, waidik sahity aur bharatiy sanskriti ke bare mein meri asthayen unse mel nahin khati theen
kulapti ne dekha, anek kinwdantiyon aur kshaepak kathaon se mithak ban chuke mahanayak acharya chuDamanai muskura rahe the, bhay se uska chehra pila paD gaya acharya ko daya aa gai, bole, “wi si sahab, main aapka bahut aadar karta hoon bawjud iske ki main hindi wibhag ka adhyaksh hoon ‘Dean off stuDents bhi hoon aur aapne bina mujhe wishwas mein liye hindi wibhag ka interwiew ‘phiks kar diya tha main janta hoon ki aap atyant shalin, mitbhashai aur nyayapriy wekti hain aur ye bhi janta hoon ki manaw sansadhan mantralay ka mukhy sachiw aapka saDhu hai lekin kya baat hai ki yahan is banaras wishwawidyalay mein aaj tak koi rajput wi si nahin ho saka hai main jatiwad ko desh ke liye cancer se kam ghatak nahin manata aap chahen to jaanch aayog baitha den lekin kisi parikshak ki janchi kapi ko koi nyayadhish kaise jaanch sakta hai? jantantr mein alag alag sansthaon ki apni swayattata, haisiyat aur garima hoti hai aapko koi aisa kaam nahin karna chahiye ki ye pawitarta nasht ho kisi ko ye kahne ka awsar mile ki aap bahman aur bhumihar laॉbi ke dabaw mein hain aage apaki jaisi marzi ”—kahkar acharya chuDamanai achanak uthe aur wi si lauj se bahar nikal gaye
bahar charon or relampel tha dharna, pradarshan aur anshan karne ki dhamki us din dopahar ko jab subodh misir kaifeteriya se chawal aur kumhDe ki tarkari khakar chale ja rahe the, unhonne dekha ki krishai wigyan sankay wale chaurahe par ek laDka phata kurta, pajama aur hawai chappal pahne ujbak ki tarah charon taraf dekh raha hai wishalakay imaraton aur ek dusre ko katti aage chali ja rahi chikni, chauDi saDken saDkon ke upar jhuk aaye aam, amaltash, shisham aur sagaun ke peDon ki ghani chhanw mein shayad wo rasta bhool gaya hai samne se adhyapak sangh ka wishal julus chala aa raha tha we log pata nahin kis baat par behad ugr aur uttejit the laDka donon hath uthakar unhen rokna chahta hai jab we log nahin rukte to wo donon hath joDkar giDgiDane lagta hai, “gurujnon, bus itna hi yaad hai ki main barah sal pahle yahan aaya tha main kahan ka rahne wala hoon? mujhe apne ganw ka nam aur bap ki shakl bhool chuki hai main bhukha hoon kai dinon se mujhe ann ka ek dana bhi nahin mila hai ye dekhiye usne kurta uthaya aur apna pet dikhane laga wahan kaghaz ke kuch maile kuchaile tukDe bandhe the—ye meri marksiten hain charitr praman patr hai main bhukha hoon aur apne ganw jana chahta hoon gurujnon, mujhe mere ganw ka rasta bata dijiye, wahan meri man khana banakar khoj rahi hai ” wo cheekh raha tha bheeD use kuchalte hue aage baDh gai kisi ne uska kurta noch liya ye ghar mein ponchha lagane ke kaam ayega
chaurahe ke dusri aur se chhatr sangh ka julus chala aa raha tha wo laDka saDak ke baghal ki nali mein gir paDa tha achanak use phir kuch awaz sunai paDi to dauDkar aaya aur saDak par dubara khaDa ho gaya kurta ghayab tha chappal ka phita tutkar door kahin chhitak gaya tha lekin wo donon hathon se apne pet par bandhe kaghazon ko kaskar pakDe tha “bhaiyon rukiye —wah phir chikhne laga—“mujhe mere ghar ka pata bata dijiye wahan jaDe ki gunguni dhoop mein diwar ke sahare baithi meri patni nae dhan ka chawal pachhorti thi mere bap ne bachpan mein hi meri shadi kar di ab mera beta baDa ho gaya hai aur mujhe bula raha hai main use dekhana chahta hoon ” julus mein laDke apni hi dhun mein nare lagate, bahut ghusse mein na jane kise, shayad khu ko hi galiyan dete use langDi markar aage baDh gaye
subodh misir ne laDke ko dekha unhen laga ki ye koi swapn hai jaise swapn mein koi apne ko apne se thoDa door khaDa hokar dekhta hai theek usi tarah unhen daya i we use pakaDkar kuch puchhna aur baten karna chahte the unhen apni or aata dekhkar wo laDka bahut tez bhaga aur jakar wishwawidyalay ke sabse unche gumbad par chaDh gaya
subodh misir ne dekha, gumbad ke upar jo tirshul chamak raha hai usi par maze se baitha wo laDka banar ki tarah uchhal kood kar raha hai suraj tap raha tha subodh misir ne zor se puchha, “tum kya chahte ho bhai? main tumhein tumhare ganw pahuncha dunga mujhe tumhare ghar ka pata malum hai
laDke ne kaha, “lekin ab wahan mujhe koi nahin pahchanta kyonki main bhi kisi ko nahin pahchan pata wahan jakar main kya karunga?
to phir tum kya chahte ho?” subodh ne puchha
“bataun?” laDka bahut zor se hansa “main tajamhal mein apni premika ke sath ek puri raat honeymoon manana chahta hoon pata nahin kahan chali gai meri premika? kya tum mujhe meri premika se mila doge? kya tumne abhi tak tajamhal bhi nahin dekha hai? achchha to suno! main apne bete ke sath nadirshah ke samne khoob zor se hansna chahta hoon mere bete ka kairamborD nadirshah chura le gaya achchha tum gandhi ji ko bula do we use apne khaDaun se marenge
subodh misir kinkartawyawimuDh use dekh rahe the
“khair tum jao!” usne wahin se chillakar kaha, “main ab yahin rahunga isi tirshul par mujhe ye unchai achchhi lag rahi hai
ek din logon ne dekha ki ek bahut baDe desh ke raja ne usi adamakhor misail ke gale mein wijayhar pahna diya, jise wahan ke bashindon ne barfili hawaon mein bhukhe pyase sari sari raat jagkar aadhi shatabdi se rok rakha tha puri duniya tamashabin ki tarah ye drishya dekhkar bhaunchak rah gai ek Darawni aur kafi gufi ki tarah munh baye wo adamakhor misail ek nagar se dusre nagar, ek desh se dusre desh tak ghumne lagi usne logon ke sapne, jine ka andaz aur zaruraton ki pheharist badal di din, mahine aur warsh bitte rahe samay guzarta raha yug badla is tarah badla ki jo log nirantar raat din use badalne ke liye bechain rahte the we bhi duःkh aur shok se bhar gaye isi beech subodh misir ki thisis puri hui we doctor subodh misir ho gaye
ek din subah subah we canteen ke samne chay pi rahe the unhonne dekha ki asapas baithe laDke raat t wi par romanchak match ke bare mein uttejak bahsen kar rahe hain samne saDak par ek jawan aur sundar laDki nashe ki si haalat mein langDati aur sahmi hui si bhagi chali ja rahi thi pata laga ki wo gujrat se apne premi ke sath banaras ghumne i thi teen din se bhukhe pyase chhatrawas ke ek kamre mein band karke panch laDkon ne uske sath nirantar rape kiya tha nishpran ghatnaon aur sanasnikhej suchnaon ka ye ritikal tha thoDi door aage matr das qadam ki duri par ek chhota ka kampyutar rakha hua tha kisi door upgrah se sanchalit kampyutar ka shesh pichhla hissa andhere mein Duba hua tha tez lait mein chamakte screen par us samay ek laDki muskura rahi thi—kisi sudur atit ya pauranaik akhyanon mein chamakti laDki ki hansi—ek tilasmi karamat ki tarah uske charon aur lahra rahi theen chamkili paikinge unmen bhara tha miss yuniwars ka gopan rahasy, madak pey, kreem aur bachchon ki chakleten, aurton ke sindur, mitron ki shubhkamnayen, nae sal ka sandesh aur bhusa aur gobar apni zaruraton se ube logon ki bheeD ek jadui kutuhal se beqabu us laDki ke unnat urojon aur chikni janghon mein dhansi chali ja rahi thi us samay nashe ki si haalat mein langDati bhagti laDki ke honth bhay se kale paD gaye the wo kampyutar ke pichhle hisse mein, jahan gaDha andhera phaila hua tha, jakar wilin ho gai uski akhiri cheekh ek surili aur layatmak peeऽऽ peeऽऽ ke sath screen par do second tak ubharkar band ho gai wahan raat ke match ka shesh bhag phir shuru ho gaya
acharya chuDamanai ji wibhag se retire hone ke do mahine baad dusre wishwawidyalay mein kulapti bana diye gaye unka iklauta shrawanakumar, baqaul sare shahr jise ek waky shuddh hindi likhni nahin aati thi wo, marudhar wishwawidyalay ke phatak se hota hua panch sal baad usi hindi wibhag mein reader bana diya gaya uttaradhikar ke is mahotsaw mein wishwawidyalay ki rajput laॉbi ne uska abhinandan kiya is niyukti ke samay bhi sinha ji Dean the bhumihar laॉbi ne bahut koshish ki lekin unhonne acharya chuDamanai se apne sambandhon ko jatigat ragadwesh se upar uthkar dekha unhonne gambhiratapurwak is baat par wichar kiya ki iklaute putr ka wriddh pita ke pas rahna hi zaruri hai is niyukti ke theek ek mahine baad acharya chuDamanai ne ye sochkar ki kisi ka qarz lekar marna rajaputi anban ke khilaf hai, unhonne apne wishwawidyalay mein Dean sinha ji ki putrawdhu ko angrezi mein lecturer bana diya
apne guru ke yogya shishya subodh misir nagar mein dar dar bhatakte rahe we raat ke andhere mein baithkar nitiwakya likha karte unke sath ke sare chhatr, jinse unki nok jhonk chala karti thi, jo unhen yathasthitiwadi kahkar kranti aur pariwartan ki baat kiya karte the, we sabke sab ek ek kar wishwwidyalyon, degre kaulejon aur akhbar ke daftaron mein jakar chuDamanai ji ka juthan bator rahe the idhar subodh misir wishwawidyalay ke nae laDkon ke beech ajube bante ja rahe the wo sabse kaha karte ki wirodh mein utha ek hath, paksh mein uthe karoDon hath se mahatwapurn hota hain we is wirodh ki wyakhya nahin karte the aur aksar chup laga jate acharya ji har pandrahwen din baad kisi na kisi niyukti mein eksapart hote har bar we driDh pratij~n hokar jate ki is bar apne priy shishya subodh misir ki niyukti zarur kar denge lekin unke manawiy dayitw bodh aur nyayochit chetna ko kisi mantari, widhayak, kisi bhutapurw wibhagadhyaksh ya samkalin professor ka sifarishi patr har bar path bhrasht kar deta we roz roz path bhrasht hote rahe ek din apni putrawdhu ki niyukti ke liye dilli ki ek mahila professor ke pairon par gir paDe niyukti nahin hui logon ko unke is apman ki ummid nahin thi sabko laga ki kahin abki bar gambhir heart ataik na ho jaye lekin aisa kuch bhi nahin hua unke darbar mein logon ki aamad khatm ho gai we bina bulaye shahr aur wishwawidyalay ki har sabhaon, samarohon mein pahunchakar apne ko manch par bulaye jane ki pratiksha kiya karte aur unghne lagte goshthi, samaroh khatm ho jate we chupchap akele tahalte hue apne ghar chale aate
idhar ganw mein subodh misir ki betiyan baDi ho rahi theen patni ke dant hilne lage the har fasal katne ke baad kheti par pani, bijli aur lagan ke kuch karze baDh jate unhonne ek par ek teen acre khet bech Dale ant mein ganw ke ek buzurg ne samjhaya ki “bhai subodh, kab tak naukari khojte rahoge? ye khet tumhari kamai nahin hain jo beche ja rahe ho kal laDkiyon ki shadi karni paDegi
teen din se bhukhe pyase subodh misir ne ek din antim roop se gurudew ke chaukhat par mattha teka “bete subodh, mujhse tumhari dasha dekhi nahin jati”—gurudew ne kaha aur rone lage
“koi baat nahin gurudew! main kuch mangne nahin, aagya lene aaya tha ghar ja raha hun”—unhonne shahr ke bichombich thuka aur ganw chale gaye
panch sal se ganw mein rahte hue subodh misir ko sirf yuriya ka dam, bijli ke bil, gehun, dhan aur ikh ka bhaw yaad rah gaya tha alankar, chhandshastr, ras yahan tak ki tuk aur wichar aadi ki maryada toDta hindi kawita ka prawah adhunikta, marksawad aur astitwawad aadi ko aprasangik qarar deta hua in dinon uttar adhunikta aur wikhanDanwad ke samiksha siddhanton se apni sangti bithane ka joDtoD kar raha tha subodh misir ne suna ki aaj pura wishw ek ganw bankar rah gaya hain sanchar madhymon ki achuk pakaD se koi wekti bahar nahin hai we ye sab suna karte aur dekhte ki saikDon suraksha garDon ke beech pradhanamantri mans ke nirjiw lothDon mein bikhar jata hai hazaron jasusi kutte panch sal se hatyare ki chhaya sunghte ghoom rahe hain ajib o gharib wirodhabhason aur wiDambna ka daur jari hai puratatw wibhag ke sangrahalay aur ajayabghar ki diwaron par kalidas, bhawbhuti, soor, tulsi aur kabir ki panDulipiyan mare sheron ki khaal ki tarah tangi hain shabd aprasangik ho gaye hain kawita aur itihas ka ant ho gaya hain ye sab subodh misir akhbaron mein paDh rahe the aur dekh rahe the ki yahan ganw mein ab bhi aurten shadi, samaroh mein, chhath aur munDan ke awsar par usi tarah phati saDiyan aur lugdi petikot lapete geet gaye ja rahe hain thanD mein kanpte thithurte dharne aur pradarshan par jate hue log kabir ke nirgun aur tulsi ki chaupaiyan sun suna rahe hain nare laga rahe hain wo aksar socha karte ki sanchar madhymon ne jis duniya ko ek ganw mein badal diya hai us ganw ke nakshe mein yahan ki aurten aur logon ki koi surat aur zarurat kyon nahin dikhai deti? kuen mein gire bail ko nikalne we log kyon nahin aate jo munh mein bhopa bandhakar hamein apne ganw ka bashinda batate hue roz roz cheekh rahe hain ek din unhonne dekha ki ek mazdur neta ki, jo lokakthaon ki tarah pyara aur khubsurat tha, ek udyogapti aur sharab ke thekedar ne milkar hattya kar di aaj usi udyogapti ne hindi ka sabse baDa puraskar sabse baDe janwadi aur manawtawadi sahityakar ko diya hai flaish chamak rahe hain photo khinche ja rahe hain wichar, adarsh aur naitikta bemani yahin hai uttar adhunikta ka khubsurat model ek yuwa mazdur ki widhwa ne jis sahayata rashi par thook diya usi ke sood se hindi ka sabse baDa puraskar sabse baDa janwadi sahityakar le raha hai besharmi ki had hai
theek inhin dinon unhen punjab ke ek wishwawidyalay se lekchararship ka interwiew dene ke liye ek registry patr aaya tha teen din pahle aaj jab we khet se aakar bailon ko bhusa dana kar rahe the tabhi unki baDi wali beti ne unhen ek dusra postakarD diya
ye acharya chuDamanai ka postakarD tha gurudew mujhe ab bhi bhule nahin hain—yah sochkar hi subodh misir ki ankhe chhalachhla gain kushalta ki kamna ke sath gurudew ne likha hai ki “agar tumhein fursat ho to yahan chale aao punjab ki yatra karni hai buDha ho gaya hoon akele yatra sambhaw nahin hai aur ab yahan koi itna wishwasniy nahin jiske bharose itni door jaya ja sake
wahi tarikh! wahi jagah! lag raha hai is interwiew mein gurudew hi eksapart hain—subodh misir khushi se qarib qarib kanpne lage—shayad ab mere duःkhon ka ant hone wala hai theek pandrah din baad unhonne ramdhari sahu se hazar rupye udhaar liye aur gurudew ke chaukhat par hazir ho gaye
subodh ne dekha, apne ghar ke bahari hisse mein, jahan kabhi gaDi khaDi rahti thi wahin ek tuti aur dhansi charpai par gurudew maili kuchaili si chikat razai oDhkar baithe hain jagah jagah se phati beDshit niche tak jhool rahi hai sardi ka mausam tha gurumata charpai par patane sikuDkar baithi theen ek gathri ho chuki gurumata jab subodh wahan pahunche to gurudew ke chehre par halki aur thaki muskurahat phail gai unhonne kone mein rakhe purane stool ki or ishara karke baithne ke liye kaha “gurudew aap yahan?”—subodh ne jagah jagah se phati diwaron wale gairje mein lawaris ki tarah paDe gurudew ko dekhkar ashchary aur karuna se bharkar puchha diwaron aur chhat par warshon purane makDi ke jale latak rahe the charon aur gandgi thi
“han, ab mere liye yahi jagah upyukt hai uttaradhikar saunp dene ke baad raja ke liye jangalwas hi uchit raha hai ”—bolte hue chuDamanai ji ke shabd, jo kabhi nabhi ki onऽmadh dhwani ki tarah thartharate hue nikalte the, aaj jaise ankhon se bhigkar reng rahe the pankh phaDphaDane ki koshish mein gaurayya ke bachchon ki tarah munh ke bal gir gir ja rahe gurudew ke shabd—“idhar ab thoDa ekant rahta hai”—unhonne kaha
ghutnon mein munh Dhanpe guruain achanak phaphak paDi, “bahu udhar jane nahin deti beta mauga hai baat bebat jhiDakta rahta hai ab tumhare babuji gathiya ke mare chal nahin pate do meel paidal jakar homiyopaith ki dawa lati hoon din bhar ke liye aadha kilo doodh! beta, tumne to dekha hi hai! panch panch kilo doodh ka chay banati rahi hoon aaj buDhape mein apni thali apne hath dhoo! gini hui rotiyan aur mutthi bhar chawal!
“chup raho bhagman ”—acharya ne patni ko santosh dilaya aur puchha, “bete subodh! tum kaise ho? ghar mein baal bachche? aur bahu kaisi hai?
“sab theek hai gurudew lekin aap yahan! aur is tarah?
“nahin, mujhe koi taklif nahin hai patni apni aadat se lachar hai bahu se nahin patti khair chhoDo! mujhe yahan bahut sukh hai
subodh ne dekha tha wo din kalin ke charon taraf bichhi kursiyan swayan takht ke mote gadde par masnad ke sahare adhlete acharya chuDamanai ka wyaktitw hindi jagat ka ye prchanD surma shatru shiwir mein airawat ki tarah, apne samne Dean, wais chancellor ya antri mantari kisi ko kuch nahin samajhta tha soor panchashti samaroh ka wirat samagam! desh ke kone kone se aaye marksawadi saundaryashastr se lekar sanrachnawadi samiksha siddhanton ke pachason widwan, sabke beech dip dip karta acharya ka apna prbhamanDal! sabhi unke samne danDwat the kisi ko thisiyon ka parikshak banna tha to kisi ko apni kitab pathyakram samiti se pas karani thi kisi ko bahu ki niyukti chahiye, to kisi ko yu ji si ki grant aaj wahi gurudew lawaris ki tarah apne hi ghar ke ek kone mein kho gaye—subodh misir bhaunchak the
“achchha tum aisa karo ki mumuksh bhawan mein jakar thahar jao”—acharya ne kaha—“kal subah punjab mel se ambala tak ka reserwation hai wahan se bus ki yatra karni paDegi
“gurudew! mainne bhi us jagah ke liye awedan kiya tha ” subodh ne bataya, “mera bhi interwiew letter aaya hai kya aapko malum hai ki dusre kaun kaun eksapart hain?
ab tak acharya ji ke mukhmanDal par shishyatw ki jo mamta jhalak rahi thi achanak ye sunte hi kartawyapranta ke bojh se dabkar kathor rukh badalne lagi swar maddhim ho gaya bole, “chalo, ye to bahut hi achchha hai lekin tum ye baat yahan kisi se batana mat mujhe tumhari bahut chinta hai
guruain ne kaha, “ab inhen kaun puchhta hai beta! pahle sab log yahin matha ragaDte the ab isi shahr mein aakar chup chup chale jate hain agar gohatya ka bhay na ho to log buDhe bail ko goli mar den
lucknow se ambala tak ki yatra acharya ne sokar puri ki dusre sare musafi unki nak ki ghar ghar aur khansi ke mare ub ub kar karwat badalte rahe ankhon ke alawa gurudew ke sare angchhidr minat minat par wisfot kar rahe the shardha atindriy nahin hoti khu subodh ko bhi diqqat ho rahi thi
ambala se bus ka safar karte hue gurudew subodh se hisab kitab lete rahe kheti mein kitna fayda ho jata hai ham log bachpan mein chane ka hola khakar ikh choos lete the pet bhar jata tha shahron mein to bahut pradushan aur milawat baDh gai hai ek to bijli nahin aati dusre bil bahut dena paDta hai ‘mahishanch sharad chandr chandrika dhawalan dadhiः kalidas ne likha hai—sharad kalin chandrma ki chandni ki tarah bhains ki sundar sajaw dahi! paDhkar lar tapakne lagti ye sab ganw mein hi sambhaw hai shuddh hawa aur be milawat bhojan ”
“lekin gurudew, ganw to narak ho chuke hain kheti ki har fasal kisanon ko qarz mein Dubokar chali jati hai do june ke bhojan ke alawa ab wahan kuch bhi nahin hai
“yah tumhara bhram hai subodh! shahron ke liye tumhara akarshan theek hai, lekin ganwon ke prati tumhare wichar achchhe nahin hai
subodh ne socha—kyon nahin aap ganwon mein chale jate kaun aapko roke hai lekin gurudew ki baat we chup lagaye rahe
utarne wale station ke thoDa pahle hi chuDamanai ji ne subodh ko hidayat di, “tum pichhe se utarkar dusri or chale jana warna, koi tumhein mere sath dekh lega to pakshapat ka aarop lagega loge kahenge ki kainDiDet lekar aaye hain
subodh ne kaha, “jaisi ichha gurudew!”
interwiew board mein dilli ke ek prchanD wamapanthi the aur dusre rajasthan ke wamamargi tisre swayan acharya chuDamanai, jinke putr ko abhi banaras wishwawidyalay mein professor banna tha subodh misir ne interwiew board mein baithe acharya ko dekha nirwiy paurush ki samast wasana nirih ankhen mein deen yachana bankar chupchap baithi thi wamapanthi acharya ne unse alankar aur riti ki samajik aur sahityik mahatw puchha rajasthan ke wamamargi nath samprdai acharya ne bhasha wigyan ka grim niyam
subodh misir sawalon ka jawab theek se nahin de pae interwiew kharab ho gaya isliye nahin ki pichhle kai salon se unki paDhai likhai nahin ho saki thi, balki isliye ki interwiew ka achchha ya bura hona antat aur ekmatr eksapart par hi nirbhar karta hai ab unhen apne gurudew acharya chuDamanai se hi antim ummid thi
tumne to meri sari ummid par hi pani pher diya ”—bahar nikalkar acharya chuDamanai ne bataya
“niyukti kiski hui gurudew?” bus aDDe ki or lautte hue subodh misir ne bahut dhime aur ruanse swar mein puchha
raat ho rahi hai chauDi aur chikni saDkon ke donon or niyan laiton aur hailojan ke pile parkash mein jalapri ki tarah tairti bhagti caren khilkhilati laDkiyan samucha shahr ek nashile sangit ki lai par thirak raha tha unka parashn Doob gaya tha kisi adrshy lok ki swapn sundari ne apne waibhaw ka paradarshi nila anchal bazaron ke upar phaila diya tha paidal chalte hue aage aage gurudew aur pichhe subodh misir wo apne ganw ke ramdhari sahu se udhaar liye ek hazar rupae, apni patni aur jawan hoti betiyon ke bare mein soch rahe the kahan se chukayenge ye ek hazar rupaya unka dil Doob raha tha gurudew ne bataya, “registrar ki putrawdhu ki niyukti hui hai sab kuch pahle se tay tha kahne ko log wamapanthi bante hai, lekin profesron ki ek hi jati hoti hai aur ek hi wicharadhara kaun unhen parikshak banakar hawai jahaz ka kiraya de sakta hai! bus mainne bahut duniya dekhi hai banaras wishwawidyalay mein professor ki niyukti hone wali hai shayad yahi eksapart hokar ayen isliye main chup laga gaya kisi tarah shrawn kumar professor ho jata
ambala cantt tak pahunchne mein raat ke nau baj gaye the gaDi abhi chaar ghante let thi “e si aur pharst class mein mainne bahut yatrayen ki hain ub aur ekant ab saha nahin jata dekhon, second class mein reserwation mil pata hai ya nahin? acharya ne subodh se kaha, “tum t t ko bata dena ki banaras wishwawidyalay mein professor hain
kurte ke niche marakin ki baniyan baniyan ke bhitar chorathaili ramdhari sahu ki baniyan ki tarah acharya ki baniyan mein bhi chorathaili e si ka kiraya mila hai lekin gurudew ne chorathaili se nikalkar sau sau ke do not subodh ko thamaye, “sekenD class ka ticket le lena
“abhi gaDi aane mein bahut der hai chuDamanai ji ne subodh se “yahan se teen kilomitar door tak dewi ka mandir hai, ekdam nirjan sthan mein kaha jata hai ki sachche man se wahan mangi gai har mannat puri ho jati hai mujhe tumhari bhi bahut chinta rahti hai subodh!”
shayad gurudew mere liye soch rahe hain agar koi guru dewi ke samne jakar sachche man se apne shishya ke liye mannat mange to samuche brahmanD mein isse pawitra pararthna aur kya ho sakti hai?—subodh ne socha
andheri raat hai nirjan sthan rickshaw to milega nahin “lekin koi baat nahin gurudew! ganw ka rahne wala hoon bojha Dhone ki aadat hai inkh aur jwar ke baDe baDe bojh khet se lekar aata hoon teen kilomitar koi duri nahin hai!”—subodh ne kaha aur gurudew ka bhari holDal aur attachi sir par ladkar chal paDe apna jhola unhonne gale mein latka liya —“ap bus rasta batate jaiye gurudew!”
ek kilomitar baad shahr khatm ho gaya mukhy saDak se hatkar kheton ke beech ek pagDanDi do kilomitar aur chalna hai—gurudew ne kaha, “pata nahin kyon mujhe aaj bahut Dar lag raha hai
gahri andheri raat thi sir par bhari holDal, attachi aur gale mein jhola latkaye aage aage subodh misir aur pichhe pichhe ab bhutapurw ho chuke banaras wishwawidyalay ke abhutapurw acharya chuDamanai unke pair bar bar dhoti mein phansakar ulajh ja rahe the jaDe ka mausam tha tez barfili hawa chal rahi thi “lag raha hai shimla mein barf giri hai is sal thanD bahut paDegi —kambal ko kaskar sharir par lapette hue acharya ne kaha
“mujhe to pasina ho raha hai gurudew!”—subodh misir ki kanpti awaz holDal ke bhari wazan se dabi ja rahi thi
“ganw ka adami shram karta rahta hai karmawir aur sachcha prakrti putr isiliye nirog rahta hai pata nahin kyon ajkal log shahron ki or bhag rahe hain mujhe to ganw bahut achchhe lagte hain rishton ki aadim gandh mein Dube ganw shahr mein to koi kisi ko pahchanta hi nahin charon or matlab aur swarth!”—gurudew ne kaha
bus, bus yahi samne charon or ikh aur dhan ke kate khet sannate mein Duba chhota sa mandir teliyon ke batakhre ki tarah kali aur beDhab si guptaklin patthar ki murti na koi tarash na bhawyata acharya ne ankhe band ki aur shardha se hath joDa “wideshon mein ye karoDon ki bikegi sarkar ko suraksha ka intizam karna chahiye”—gurudew ne chinta jatai aur bataya, “hal jotte samay khet ke bhitar mili thi ye murti
ganw mein to koi iska panch rupaya bhi na dega—subodh ne ashchary se gurudew ko dekha
“pahle tum apne liye kuch mang lo!” acharya ne kaha—“lekin pure man se tanmay hokar aspasht uchcharan ke satha
subodh hath joDkar khaDe ho gaye, “man, mujhe naukari chahiye! high school, intarmiDiyet se lekar b e, em e kisi bhi kaksha mein paDha sakta hoon mujhe paDhane ki naukari chahiye man! main guru rn se urn hona chahta hoon saraswati ka kalank sir par lade, main apni samuchi astha ke sath tumse papmukti ki pararthna kar raha hoon mujhe ganw ke andhere nark se nikalkar chahe jahan kahin bhej do main wahan nahin rahna chahta sara ganw meri paDhai likhai par hansta hai
kali andheri raat nistabdh sannata subodh pararthna kar rahe the unke ek ek shabd, jaise chita mein atmadah karti kisi widhwa ki cheekh aag ki lapton mein chhatapta rahi ho unki ankhon se ansu chhalachhla aaye the uske baad acharya chuDamanai ji murti ke samne upasthit hue subodh ne socha, jo kuch kasar rah gai hogi mere mangne ke Dhang mein, use gurudew zarur pura kar denge we chuDamanai ji ke theek pichhe nishchal bhaw se khaDe ho gaye bhawmagn
acharya ne pahle hath joDa aur phir ankhen moond leen teen chaar lambi lambi sansen khinchi prnayam ki deergh sadhana mein unhonne shabd ko nabhi tak khinchkar thartharate mandr swar mein pahle oऽmadh ka uchcharan kiya phir hath ko man ke pairon par tek kar zamin par let gaye thoDi der tak ekdam shant achanak unke gale se rone ki awaz phuti subodh ne dekha, duniya ka sabse duःkhi adami man ke pairon par gira paDa hai karun hichkiyon mein gurudew ke shabd Doob utra rahe the, “man, mere bete ko professor bana dena han man professor! samucha hindi jagah mere upkar ke bojh se daba hai lekin mujhe ab kisi par bharosa nahin rah gaya mera durdin jankar mere upar daya karo man!
ye kya kah rahe hain gurudew!—subodh misir tharthar kanp rahe the kritaghnata ka ye charam roop dekhkar we kinkartawyawimuDh ho gaye
“achchha to gurudew, parnam!—main ja raha hoon
acharya ne suna aur lete lete peeth ke bal ulat gaye, “mujhe is tarah yahan akele chhoDkar subodh?” unhonne yachana ke se swar mein puchha
“han! isi tarah isi andhere mein yahin paD paDe rote rahen ”subodh ke hath mein ek halka sa jhola tha we use ungliyon mein nachate, ghubbare ki tarah hawa mein lahrate chale ja rahe the
achanak unhen apne pichhe kisi ki hichkiyan aur rone ki awaz sunai di unhonne muDkar dekha unhonne dekha ki sir par bhari holDal aur attachi lade acharya chuDamanai bhagte bhagte girte paDte chale aa rahe hain
banaras wishwawidyalay ke hindi wibhagadhyaksh acharya chuDamanai prachin paranpra ke sanrachnawadi samikshak the manu maharaj ke warn wibhajan aur istri sambandhi agrah aadi mein unki atut astha thi anek wishwwidyalyon ki, pathyakram samiti ke prabhawi sadasy, thisison ke parikshak, hindi ke prasar aur wikas ke liye sthapit anek sansthaon ke sanrakshak aur khu apne wishwawidyalay mein Dean off stuDents jaise mahatwapurn padon ki zimmewariyan sambhale hue wyast raha karte the ek kaibinet mantari ki thisis unhonne khu likhai thi shahr ke mayor aur sharab ke thekedar manohar jayaswal ki putrawadhu unhin ke nirdeshan mein shodh kar rahi theen unka wyaktitw ek aise watawrksh ki tarah tha jisne apni mool zamin ki sari urwrashakti ko sokhkar use bandhya kar diya tha jiske kotron mein sanp, chamgadaD, newale aur girgit sukh chain se rah rahe the jiski unnat shakhaon par baithe giddh har kshan mirtyu ki toh mein door takatki lagaye rahte wishwawidyalay mein niyam tha ki koi professor do sal se ziyada wibhagadhyaksh ke pad par nahin rahega lekin acharya chuDamanai ke darbar mein sare niyam qanun payadan ki tarah bichhe rahte kichaD aur gandgi ponchhne ke kaam aate the sare niyam aur qanun
subah e banaras! panchgangaghat ki siDhiyon par ho ya thatheri bazar ki sankari galiyon mein chahe jahan ho uske ast ka utsaw acharya chuDamanai ke darbar mein hi dhumdham se sanpann hota aar s s aur widyarthi parishad ke neta jama hote wishwawidyalay ke ek ek wibhag aur ek ek wekti ke bare mein we sari suchnayen saumpkar mantrnadan paya karte the acharya utne baDe sangathan ke gauDfadar the kaha jata hai ki wishwawidyalay ke us sinhpith par rahte hue chuDamanai ji ne kashmir se kanyakumari aur asam se gujrat tak ke hindi wibhagon ko apne prabhamanDal se achchhadit kar rakha tha wibhagadhyakshon aur profesron ke alawa nae lecturer aur chaprasiyon tak ki niyukti unhin ki marzi se hoti thi “teri satta ke bina he prabhu mangal mool, patta tak hilta nahin
we assi ke dashak ke prarambhik warsh the tab ‘glasnost aur perostroika jaisi ghatnayen sowiyat roos mein nahin hui theen party headquarter ko dhwast karne ki sanskritik kranti ki appeal ka utsah tha pad, pratishtha, umr aur anubhaw aadi ki duhai dekar kaun itihas ka rasta rok raha hai? uski khoj karo!
wishwwidyalyon mein marksawadi wicharadhara aur wamapanthi ashwmedh ka ghoDa kalidas, bhawbhuti, tulsi aur bihari ke baad maithilishran gupt tak ko raundta, kisi kalatit saundaryashastr ke liye bhagta chala ja raha tha assi ke dashak ke un shuruati warshon mein acharya chuDamanai jitna kshaubdh, duःkhi, udas aur aahat raha karte the utna pahle kabhi nahin rukhe chehre, baDhi daDhi, dhansi ankhon par chashma lagaye baDe chhote ka sara lihaz chhoDkar bahs karte, cigarette pite is nai wamapanthi prajati ko dekhkar we waqi bahut khinn raha karte the sam aur dam! ek din jab unhonne jaleshwar se kaha ki tum bahut yogya aur honhar laDke ho to wo besharmon ki tarah hansne laga—“lekin mujhe naukari nahin karni hai aur aap mujhe bewajah dana Dal rahe hain main yahan party ka kaam karne aaya hoon ”
wo maheshwar ki party ka sakriy aur usi ka chhota bhai tha maheshwar ke bare mein kinwdanti thi ki ek bar nepal ke ek pahaDi Dhabe par jaDe ki subah garam garam jalebi aur dahi khate hue wo ek buDhe adami se be tarah ulajh gaya buDha adami bar bar kuch kahna chahta tha, lekin use iska awsar nahin mil raha tha maheshwar ne use bataya ki thoDa ganwon mein logon ke beech jakar aap unke anubhwon se bhi sikhen buDha thak haar kar utha aur chala gaya baad mein Dhabe ke naukar ne bataya ki ye cheen ke cheyarmain mao tse tung the aage maheshwar ne jo kuch kaha aur kiya wo kiwdanti mein nahin hai jaleshwar usi maheshwar ka chhota bhai tha din mein nukkaD natk karta kawitayen rachta aur raat bhar jagkar shahr ki diwaron par nare likha karta tha wishwawidyalay mein uski apni manDli thi, jo hamesha chunauti deti thi sahity, kala, sanskriti aur itihas par bahs karti thi aur ant mein wahi karti aur kahti thi jo maheshwar use chitthi mein likhkar batata tha
acharya chuDamanai ji ke yogya shishya subodh misir yoon to shant swbhaw ke gambhir wekti the lekin apne gurudew ke apman aur kshaobh ko dekhkar unhonne chupchap kamar kasi phir to marksawadi ashwmedh ka jo ghoDa sabko raundta chala ja raha tha, ek din uski lagam pakaD li gai shastrarth ki kai paramprayen shuru huin mashini natije aur jaD asthayen ek dusre se takrane lagin ek taraf kabir, premchand, nirala aur muktibodh the to dusri or tulsidas, acharya shukl aur hazariprsad dwiwedi jahilon aur jatiwadiyon ka sangathan aar s s subodh misir jaise zahin, paDhaku aur sanymit wekti ka sansarg pakar nai jiwani shakti se bhar gaya apni weshbhusha aur rahan sahn mein we shuddh roop se dehati the kurta, pajama aur chappal ke alawa kabhi kabhar unke kandhe par saphed gamchha paDa hota tha aksar samne wala unhen dekhkar dhokha kha jata surti khane ke alawa aur koi wyasan unhen chhu na saka tha istriyon ke bare mein unke wahi wichar the jo kawiyon ke bare mein pleton ke kalpanaon ke phitur aur wahiyat ke sapnon mein unki koi ruchi na thi unka ziyadatar samay pustakalaya mein bitta tha aur sham ko niymit gurudew acharya chuDamanai ke darbar mein jakar charn sparsh karte un dinon gurudew ka iklauta shrawanakumar em e antim warsh hindi se kar raha tha kabhi fursat mein subodh misir use ghanton paDhaya karte unhen is baat ka man hi man afsos tha ki gurudew ka putr honhar nahin hai balki ekdam moorkh aur boda
wo banaras wishwawidyalay ka nawjagarn kal tha nae nae lecturer, wriddh reader aur professor se lekar clerk sharmaji aur chaprasi ramdin tak, sale sali, bete, bahu, damad aur jija jiji tak hindi se em e, pi ech d kar rahe the parikshaon se ek raat pahle pan ki dukanon par parche witrit hone lagte jinhen kramwar swar aur wyanjan ka bodh nahin tha we pichhle sare rikarD toDkar dhaDadhaD pratham shrenai pas hote chale ja rahe the ‘globlaizeshan se bahut pahle hi asia ka ye sabse baDa wishwawidyalay ganw ki shakl le raha tha paDosi deshon se baDa budget lekar manaw sansadhan mantralay, yu ji si aur si s i aar ka sanchit khazana yahan ki gandi naliyon mein aundhe munh gira paDa tha ramnam ki loot hai, loot sake to loot
adhyapak sangh ka chunaw hone wala tha brahman, bhumihar rajput aur kurmi apni apni dukanen saja rahe the uchhal kood, marapit aur hathapai is yuddhabhumi mein sab kuch jayaz tha acharya chuDamanai rajput laॉbi ke mahatwapurn stambh the gunDawahiniyan unka charn raj lekar dhany hua karti theen bharatiy sanskriti aur rashtrawad ki bhawna jagane wali ek sanstha ke brahman warchasw ko khatm karke unhonne use apne matahat kar liya tha
kurta pajama pahanne wale subodh misir ek gharib kisan ke honhar bete the bachpan mein hi unhonne shatatmaon ke nirwanoprant jis swargalok ki kalpana kar rakhi thi, aur jo unhen dhawal rui ke badalon par sunahle dweep ki tarah tairta hua dikhai deta tha, wahan jakar unhonne dekha ki sare dewtagan anawrat atmarti ke shikar apni hi wasnaon mein hastamaithun kiye ja rahe hain chunaw poorw adhyapak sangh ki meeting chal rahi thi jhanw jhanw, kanw kanw log kya bol rahe hain? gobar aur gu mein lithDe paDe shabdon ki shakl kho gai hai achanak kaumars ke ek mote mustanD bhumihar professor ne bhautik wigyan ke dusre karmi professor ko uthakar manch par hi de patka laton aur ghuson ke anawrat prawah mein niche wale ne upar wale ka kan dant se kat liya khoon ki dhara aur cheekh ke beech ek darogha ne DanDa phatkara—“ap log laDkon ko kya paDhaoge?” usne donon ko dhakiyakar ek dusre se alag kiya banaras wishwawidyalay ka ye chalta phirta yatharth pauranaik akhyan aur mithak kathaon se bhi ziyada awishwasniy aur lomaharshak tha
niraksharata aur agyanta ke andhere mein Dube ganwon ke jo log shatabdiyon se ek hi ann khate chale aa rahe hain, aur jo log dharasar barsat ki kali andheri raat mein sanpon, bichchhuon aur gohon se pati paDi meD par bhukabhukati laltenon ke sahare bachte bachate phaoDa lekar nali bandhne chale ja rahe hain jo log kwar ki zehrili dhoop mein bailon ke sath sir jhukaye khet jot rahe hain jaDe ki os aur thanD mein kanpte thithurte jo log siwan ke nirjan sannate mein mahinon se sari raat baithkar sirf bijli ki pratiksha kar rahe hain un sare logon ke jiwan mein jatisuchak shabd satti maiya ke chaure ki tarah nirjiw kone antaDe mein paDa hua hai shadi, samaroh, teej, tyohar par we wahan chaDhawa chaDhate aur phir bhool jate wahi jatisuchak shabd sabhyata aur adhunikta ka samaroh manane wale widwanon ki is basti ka mool mantr bana hua hai charon aur brahman rajputon ko, rajput kayasthon aur bhumiharon ko, bhumihar kurmiyon ko galiyan de rahe hain is bar adhyapak sangh ke chunaw mein kurmi apna paksh tay nahin kar pae idhar mandir ka mahanth, jo wigyan sankay ka Dean bhi hai, usne purwanchal ke sabse baDe mafia don, widhayak, nar hatyaon ke kukhyat apradhi aur brahman sabha ke adhyaksh ki madad se bhumiharon se talamel kar liya adhyaksh, upadhyaksh aur mahamantri tinon siton par brahman pratyashiyon ki jeet se rajput laॉbi ko lakwa mar gaya mandir ke mahanth ke yahan mithaiyon ka daur sham se chal raha tha bhumihar wishesh roop mein amantrit the wijyollas ke qahqahe goonj rahe the
udhar acharya chuDamanai ke darbar mein ek lash rakhi hui thi itihas ki lash sare kshatrap shokmagn sir jhukaye baithe the parajay aur apman se aahat kinkartawyawimuDh sangh ke nagar sanchalak mahatim singh ne aary parabhaw ke mool par tippanai ki aur phusaphusaye—“musalmanon se bhi khatarnak hote hain ye sanpole! kuch na kuch zarur karna paDega is bar ” we lambi sans kheench kar uthe aur sham ke dhundhalke mein kahin kho gaye
theek raat ke barah baje jab log mahanth ji ke yahan se lautkar pan ki dukan par khaDe hue hi the ki rajputon ki gunDawahini ne haॉki aur lohe ki raDon se un par hamla kar diya is baat ka wishesh dhyan rakha gaya ki brahmnon ke sath kahin koi bhumihar na pit jay warna, ye samikarn sthai hokar door tak nuqsan karega
thoDi der baad gunDon ki talash mein police aur pi e si ka bhari jattha hostel mein ghusa us samay sari ghatna se beख़bar laDkon ki samajh mein kuch nahin aaya pi e si jab chhatrwason mein jati hai to uska dhyan ghaDi, purse aur rupye, paison par ziyada hota hai laDkon ne zindabad murdabad karna shuru kiya lathi charge hone laga shahr kotwal brahman tha jile ka si je em bhi brahman tha aur wo bhi, jo hona chahta tha kisi gali ka shohada, kisi nukkaD ka ghunDa ya kisi thane ka darogha, lekin durbhagy se professor bana, chief praktar bhi brahman tha wo ghusse se tharthar kanpte hue pi e si walon ko lalkar raha tha ek jawan ke sir par patthar laga usne dauDakar laDke ko pakDa aur timanzile par le jakar sidhe uthaya aur niche phenk diya
mahine bhar baad hone wale chhatr sangh ke chunaw mein sara samikarn badalne laga wamapanthi pratyashi wijyanand shahi marksawadi leninwadi wicharadhara ka sashakt dawedar bankar ubhar raha tha pita bhrashtachar ke mamle mein saspenD, sinchai wibhag mein juniyar engineer the shahr mein makan tha paise ki chinta nahin thi acharya chuDamanai ne socha ki wichardharayen to pariwartanshil hoti hain umr aur paristhiti se nirdharit mool saty to jati hai aar s s ki rajput aur bhumihar laॉbi ne widyarthi parishad ke shiwanand ojha ke khilaf adhyaksh pad par shahi ka samarthan kar diya wamapanth ki shanadar wijay darj hui usi painal ka dusra harijan pratyashi matr pachasi wote pakar wiran aur bejan pasri saDak par akele krantiwad zindabad chillata chala ja raha tha jab thak gaya aur munh se jhag aane laga to jagjiwanram chhatrawas ke apne kamre mein jakar bhukhe pet so gaya
us samay acharya chuDamanai ke retire hone mae do warsh aur baqi the isliye jab unko ‘mailD heart ataik hua to logon ne uski tarah tarah ki wyakhya ki kisi ne bataya ki darasal, ye heart ataik mahaj ek natk hai adhyapak sangh ke chunaw ke baad jin brahman profesron ko mara gaya hai uske liye kulapti ne haikort ke ek retire jaj se jaanch shuru kara di hai wo usi jaanch samiti se bachne ka bahana hai
ye baat sach hai ya nahin lekin ye zarur hai ki hafte bhar pahle jab is jaanch samiti ki ghoshana ki gai thi to acharya chuDamanai ki pratikriya yahi thi ki—kulapti brahman haikort ka retire jaj brahman! ismen jaanch karane se kya? ek taraf phaisla hoga
“ismen hoga kya gurudew ? —pas baithe ek laDke ne, jo wishwawidyalay mein theke leta hai, puchha
acharya chuDamanai muskuraye—“ek register ganda hoga jaj sahab retire ho chuke hain das bees bar e si ka kiraya aur bhojan pani ka kuch paisa mil jayega masnad par thoDa uthagkar unhonne diwan ke niche se pikdan khincha aur kanth tak bhar aayi ghrina ko pichch se thook diya
kuch log is heart ataik ki wyakhya bilkul dusre Dhang se kar rahe the un logon ka kahna tha ki hridayhin logon ko heart ataik kaise ho sakta hai? ho na ho, ye bhadaini ki us haweli ko harne ka duःkh hai jismen pachchis rupaya kiraya dekar acharya pichhle paintis salon se rah rahe hain unka apna makan, pi Dablu d wibhag ke bataur auphis, atharah hajar rupye kiraya par utha hai ab agar unhen apne makan mein jana paDa to har mahine atharah hajar rupye ka ghata
halanki is baat mein bhi kuch dam nahin hai kyonki acharya ke khilaph phaisla sirph nichli adalat se hua hai upar ki adalat ne ste de diya hain iske baad to haikort hai phir supreme court tab tak acharya teen piDhiyan ismen gujar jayengi
in sab baton ke alawa, kuch log jo jyada hi kritaghn buddhi ke hote hain aur bewajah har samay har kisi ki diwal mein chhed karke wahin chaubis ghante ankh gaDaye rahte hain, har chhoti baDi ghatna mein jo log putron, bahuon aur betiyon ko kheench late hain, un sabka kahna tha ki ritayarment najdik hai beta em e mein hai kulapti pichhle das salon se wishwawidyalay ke ruke interwiew ko raat din karane ke liye amada hai agar is samay interwiew ho gaya to mere shrawanakumar ka kya hoga? phir to agle das sal tak interwiew nahin hoga darasal, ye hartataik shrawanakumar ki chinta se hai
le dekar yahi baat saty ke ziyada qarib ho sakti thi kyonki aspatal ke praiwet warD mein bharti acharya ko jaise hi ye baat pata lagi ki wibhag mein interwiew ki tarikh tay ho gai hai, unhonne doctor ke mana karne ke bawjud apne ko purnataya swasth ghoshait kiya aur rickshaw pakaDkar sidhe wibhag ke liye chal paDe
us din wibhag mein afra tafri machi thi log anuman laga rahe the ki abhi to acharya chuDamanai heart ataik ke mariz hokar aspatal mein bharti hain, isliye number do ke reader acharya bhawesh panDe ji adhyaksh ki haisiyat se interwiew board mein baithenge —“lekin we kaise baith sakte hain”—kisi ne shanka zahir ki—“we to khu hi professor pad ke pratyashi hain, aur dusre unki putrawdhu lekchararship ke liye aplikaint hai ” dusre ne pratiwad kiya—“ho sakta hai we reader wale interwiew board mein baithen
wibhag mein ziyadatar nae lecturer jo din mein do baje aate aur wibhag se dusre ki Dak uthakar chupchap chale jate, we sare log aaj subah das baje se hi aane shuru ho gaye the bhawesh panDey ke asapas jama ye log unke muflar aur topi aur sundar swasthy ke bare mein baten kar rahe the bhawesh panDe us samay acharya chuDamanai ke heart ataik, interwiew ka ghoshait hona aadi kai ishwariy chamatkaron par abhibhut gurugambhir mudra bana kar khaDe the reader ke pratyashi ek lecturer ne kaha—“gurudew! aapne em e mein jo kamayani ki wyakhya paDhai thi wo to aaj tak nahin bhulti
panDey ji muskuraye—“are bhai! main to bees salon se uddhaw shatak hi paDha raha hoon ”
log hans paDe
“pandrah din se suraj nahin nikla”—panDey ji ne mausam par tippanai ki “Dean sinha ji ke ghar jana hai”—apne bhawishya se ashankit wo saDak ki or dekh rahe the “ajkal thanD ke mare rikshe bhi nahin nikalte
commerce wibhag ke samne do laDkiyan rikshe se utar rahi thin—“ham abhi rickshaw la rahe hain sar! chaprasi ramdin hath bandhe dekh raha hai, teen lecturer rikshe wale ko bulane ke liye dauD paDe
theek usi samay clerk sharma ji ne chahakkar ishara kiya—“udhar samne rickshaw aa raha hai
sab logon ne dekha, dhoti aur kurta kurte par band gale ki coat sir par far ki topi aur kandhe par kashmiri shaal acharya chuDamanai rikshe par chale aa rahe the ab tak jo log panDey ji ko gherkar khaDe the unki sitti pitti gum ho gai kisi ko bahut zor ki peshab lagi to kisi ko upar wibhag mein kaam paD gaya jo teen lecturer commerce wibhag ki or gaye the, we rikshe wale ko wahin chhoDkar kaifeteriya mein ghus gaye maidan mein akele khaDe rah gaye bhawesh panDe bagh ke samne sahmi nilgay wo rikshe par baithe acharya ko dekh rahe the jaise koi kalapurush chala aa raha ho
—kya baat hai panDe jee!” chuDamanai ne rikshe se utarte hue puchha, ”ap log class chhoDkar yahan khaDe hain?
“apka swasthy kaisa hai sar?” panDe ji ne puchha aur safai di, “Dean sinha ji ne sare wibhagadhyakshon ki meeting bula rakhi hai wahin ja raha tha aap nahin the sar, mujhe bahut chinta thi
sinha ko aur koi kaam nahin rah gaya hai baithe baithe rajaniti chhantata hai aapko wahan jana hai jaiye, apna class lijiye!” chuDamanai ji ne hikarat se kaha—kya maweshikhana bana rakha hai wibhag ko unhonne sharma ji ko bulakar kaha, “wahan se laDkon ko hataiye aur kahiye, apne apne class mein jayen ”
“aur suniye, aap Dean auphis chale jaiye meeting ka agneda le aiye aur bata dijiyega ki yahan sabki wyasttayen hain samay puchhkar meeting rakha karen
“sar, suna hai ki interwiew hone wala hai”—sharma ne bataya jaise suswadu bhojan ke beech danton mein kai kankaD phans jaye sara zayqa kharab bura sa munh banakar chuDamanai ji ne sharma ko dekha—“kaisa intrawyu!”
“sar! yahan sare adhyapak subah se hi panDe ji ko gher rakhe hain hafte bhar se koi class nahin suna hai Dean ne panDe ji ko professor aur wibhagadhyaksh banane ka ashwasan de rakha hai sharma wibhag mein acharya chuDamani ji ka khas adami hai
tab tak ek laDka aaya uske sath wishwawidyalay chhatr sangh ke bhutapurw adhyaksh aur ab aar s s ke prantiy sanyojak samar singh bhi the donon ne acharya ka charn sparsh kiya “kahiye, sangathan ka kaam kaisa chal raha hai? acharya ne puchha
wahan to theek hai sar! lekin aap logon ne communist, wo bhi nakslait pratyashi ko jeet jane diya?” samar singh ne chinta zahir ki
to kya karte! yahan babhan jita dete? hum bache rahenge tabhi wichardharayen rahengi ”—chuDamanai ji ne unki baat ko koi tawajjo na dete hue puchha—“kahiye, koi kaam hai?
“sar! inka pi ech d mein registration karana hai ” samar singh ne sath wale laDke ki or ishara kiya
apne aur kisi se baat nahin kee? acharya registration farm ko paDh rahe the—wishay, “hindi kawiyon ka aushadhi gyan
“is wishay ka kya matlab?—unhonne laDke se puchha
“sar, ayurwed wibhag mein shodh ke liye ‘skalarship hai aap chahenge to mil jayegi ” laDka muskura raha tha
hoshiyar lag rahe ho, kya nam hai
“pratap singh sar!
“sinh!” acharya ne dekha—chhah phut ka sharir swasthy achchha hai muskuraye—“kurmi to nahin ho?
nahin sar! khanti baliya ka hoon
acharya ne farm par hastakshar kar diye
upar wibhagadhyaksh ka kamra jhaD ponchhkar saf kar diya gaya acharya chuDamanai ne un logon ko wida kiya aur upar jakar kursi par baithe “sinhpith par singh hi shobha deta hai clerk sharma ji Dak lekar aa gaye the aur bata rahe the—“panDe to is par baithkar charon or nachta aur libir libir karta hai
“sharma ji, aapko kuch pata hai interwiew ki tarikh kya hai? aur suniye, pahle darwaza band kijiye —acharya ne aagya di
bhitar hi bhitar mantrana hui unhonne kisi ko phone kiya interwiew se do din pahle ‘ste arDar ke liye ashwast ho gaye sharma ji unhen mugdh nayika ki tarah dekhkar muskuraye acharya ka thahaka goonj utha bahar kuch adhyapak kan rope reng rahe the kamre se nikal rahe sharma ji ko unhonne danDwat kiya
“acharya ki tabiat kaisi hai sharma jee?
koDh mein khaja jaDe mein barish mahaul garam hai kan aur munh muflar se bandhe pret apni apni kabron se bahar nikal aaye hain subodh misir ne mahsus kiya ki jin wampanthiyon se unka hukka pani band tha, unse bhi namaskar bandagi hone lagi hain fizayen rang badal rahi hain hawaon mein hindi wibhag ka interwiew goonj raha hain sahastitw aur samagam ke is daur mein we acharya tak pahunchne ki mazbut siDhi ban sakte hain wamapanthi wicharon wale rayasahab ke saDhu ki mausi ke baDe wale damad ki chhoti wali bitiya usi ganw mein byahi gai hai jahan Dean sinha ji ki nanihal hai we udhar se ashwast hain lekin is chuDamanai ka koi bharosa nahin jati pahli shart hai lekin subodh misir ko to dattak putr ki tarah manata hai ab apna kaam to prayas karna hai we subodh misir ko bata rahe the—“ap dhyan den to payenge ki hamari bharatiy sanskriti mein wad wiwad ki lambi paranpra rahi hai, acharyon ka apne shishyon tak se wad wiwad hota raha hai gargi aur yaj~nawalky ki paranpra wale is desh ne wirodhi wicharon ko wyaktigat hit ahit, labh hani, jiwan marn se upar uthkar samman diya hai ab dekhiye to ek tarah se ye pura wibhag acharya ji ka hi pala posa hua hai unke sochne ka apna Dhang hai aur main to kahta hoon ki uski ek bahut lambi aur samrddh paranpra rahi hai jahan tak unke niji wyaktitw ka parashn hai to main to hamesha se kahta raha hoon —is interwiew mein ray sahab ka bhatija lecturer aur we khu reader pad ke pratyashi hain —“achchha to main chal raha hoon” unhonne subodh misir se kaha—“ap unke khas aur yogya widyarthi hain are bhai, ab tak aapko apni thisis puri kar leni chahiye thi khair, abhi to jo log reader ho jayenge, unki aur kai jaghen khali hongi aap gurudew ko mera parnam kah dijiyega
nichibagh ke chaudhari prakashan se chale aa rahe upadhyay ji ne apni khatara saykil par painDil marte hue socha ki ye to rikshe se bhi bhari chal rahi hai wibhag tak pahunchne mein pasine pasine ho rahe the sans dama ke mariz ki tarah chal rahi hai jate hue ray sahab ko dekhkar unhonne bhaddi si gali di aur subodh misir ke pas rukkar bole—“ek to bhuinhar, dusre janwadi ka kah raha tha ho subodh? abhi kal tak to chuDamanai ji ko gali deta tha class mein laDkon se kahta tha ki upanyas ke wikas mein premchand aur yashpal ke sath gulshan nanda aur ranu ka nam likh rakha hai bhuinhari chhantata hai sasur kuch tum bhi to likho! ki bus muktibodh ka gu chatte rahoge ” unhonne ghuna se thuka aur matlab ki baat karne lage—sant sahity ka samajik yogadan meri pustak parson tak chhapkar aa jayegi aur katar hansi hanste hue batane lage—“sara paisa makan banwane mein lag gaya tha bahu ka mangalsutr panch hazar mein bechkar ye kitab chhapwa raha hoon chinta ke mare neend nahin aati teen raat jagkar sochta raha aaj jakar final kiya mainne ye pustak acharya ji ki patni ko samarpit kar diya hai aage bhagwan ki marzi prakashak sale to loot rahe hain kaghaz aur chhapai ka sara paisa dena paDa hai
shantikal ke bees warshon mein is wibhag se sirf teen pustakon ka prakashan hua tha interwiew ghoshait hone ke baad se ye paintaliswin pustak ki suchana thi janardan parsad ne apne kai sheyar jaldi jaldi beche en s si ki raqam bhunai we professor pad ke pratyashi hain aisa suna jata hai ki unke makan ke bhitar ek bahut baDa haal hai jahan aksar unke stuDents dusre wishwwidyalyon se i copiyan janchate rahte hain, wahin baithkar ajkal panch widyarthi raat din pustken taiyar kar rahe hain pustakalaya ki kitabon ke panne noch noch kar bharatiy kawyashastr, samkalin sahity ki bhumika, ritikal ka kalatmak yogadan, aadi aadi granth taiyar kiye ja rahe hain
kabirapanthi guhysadhna aur ulatbansi ke marmaj~n reader acharya mahadew muni ne dekha ki pashuchikitsalay ke garbhadhan kendr par bheeD lagi hai baniyan aur tahmat lapete ek hatta katta adami gay ke nawjat bachhDe ka kan pakDe, puchkarta chala ja raha hai unhonne ankhon par zor lagakar dekha—lag raha hai ramakarna hai donon mein nanad aur bhaujai ka rishta unhonne pukar lagayi—“paDwe ke sath kahan ja rahe ho?
subah subah bahir baklol ne toka kaise bitega pura din? unhonne jawab diya—“kan to pahle hi ghayab tha andhe bhi ho gaye kya? sasur bachhDe ko paDwa bol rahe ho?
main tumse nahin, bachhDe se poochh raha hun”—kabirpanthi acharya ne ramakran se kaha
donon ek dusre ke qarib aaye awishwas aur ghrina ek dusre ke kan mein munh satakar phusaphusati rahi, “are bhai, Dean tumhari biradri ka hai kahna, eksapart ko sadhe rahe warna ye chuDamanai tikne na dega
donon ne ek dusre ko bharpur tola andaza, suna aur sungha phir alag alag dishaon mein thoDi door aage jakar gum ho gaye charon or prem aur ghrina, sanshay aur awishwas ki manoram chhata phail rahi thi
lecturer jain sahab! retire hone mein sirf chhah mahine baqi hain is bar bhi koi ummid dikhai nahin de rahi hai chehre par manchhi bhinak rahi hai nirih ankhon se hindi wibhag ko dekhte hue unhonne aah bhari—“kaisa zamana aa gaya wishwawidyalay mein professor rah hi nahin gaye sab jagah sirf thakur, bhumihar, brahman aur lala hain
“kaisa thakur, brahman, gurudew!—subodh misir ne kaha—“main to panch sal se yahan logon ko dekh raha hoon aur main jab bhi dekhta hoon, har bar mujhe apne ganw ka desraj nai yaad aane lagta hai
subodh misir pan ki dukan par khaDe hokar khaini mal rahe the tabhi unhen kuch shor aur pakDo pakDo ki awaz sunai paDi hindi wibhag ke samne pradhyapkon aur chhatron ki bheeD thi lag raha hai koi cycle chor pakDa gaya hai, aur theek usi samay unhonne dekha ki bheeD ke beech se gurudew shiwpal mishr bhage ja rahe hain pichhe ek hatta katta darogha unhen dauDa raha hai—“pakDo! pakDo!!” gurudew ke pair mein juta bhi nahin hai coat ke sare button nuch gaye hain banh phatkar jhool rahi hai we sarpat bhage ja rahe hain wishwawidyalay ka wishal phatak unhonne ek lambi chhalang se par kiya aur shahr ki bheeD mein, jahan cinema ke ticket black ho rahe the, aur jahan payel aur ghunghru ke udas afsane latri ke ticket bech rahe the, jakar kho gaye
“bhag gaya harami ka pilla”—darogha hath mein DanDa liye pan ki dukan ki or aa raha tha
“kya inhonne kisi laDki ke sath kuch kiya hai?” ek jij~nasu bheeD darogha ke asapas ghirne lagi thi
pradhyapak log to ye sab karte hi rahte hain mujhe in sab baton ke liye fursat nahin ” darogha hanph raha tha
“phir kya hua?” kisi ne puchha
“kanpur station par girahakti karta tha kisi ki marksiten aur degreeyan hath lag gain satrah sal se unhin ke bharose yahan naukari kar raha hai had hai bhai! wishwawidyalay hai ki chanDukhana! ranDiyan bhi gerahak ka munh sunghakar sauda karti hai ”—darogha chhatron aur pradhyapkon ko hikarat se dekh raha tha, “kaise yahan paDhne wale hain aur kuligs log kya bhusa khate hain?
“uske anDar mein shodh kar chuke pachason chhatron ka kya hoga? we to dusre wishwwidyalyon mein naukari kar rahe hain”—kisi ne utsukta prakat ki
“ab is baat mein koi maza nahin ” bheeD darogha ke asapas se chhantne lagi
“lijiye, ab isi baat par pan khaiye!” dukandar ne pan ka gol biDa thamate hue sharma ji ko badhai di “mishra maidan se bahar ho gaya ab aapka reader banna koi nahin rok sakta
sharma ka saDhu wijilens mein naukari karta hai lag raha hai mamle ko ubharne mein isi ka hath hai logon ne kanaphusi shuru ki—“apne swarth ke liye log kis had tak ja sakte hain! yahan kisi par bharosa nahin ” tripathi ji ne tippanai ki, “abhi kal tak ye donon galabhiyan Dale pure wibhag ko gali dete the
terah din ho gaye suraj nahin nikla sham hote hi sara shahr ghane kohre ki safed chadar oDhkar ukhun paDa so jata lambi aur sunsan raat kaun ro raha hai? shayad koi kishor widhwa hai! lekin itni marmantak wedna! zarur koi wriddh widhur hoga street laiton ke maddhim parkash mein kanbal oDhe koi chhayakriti chali ja rahi hai kisi skutar ki sarasrah pas aati aur phir dusre chhor ke andhere mein jakar wilin ho jati apne retirement se ube wriddh aur jarjar profesron ki bhi poochh baDh gai hai raat do do baje tak sandhiyon, samjhauton aur shaDyantron ka daur jari hai mithaiyon ka bhaw baDh gaya hain aise prchanD sannate mein bhi dukanen khuli hain jinhonne apne bachchon ko tauphi ki jagah bheli aur guD khilakar pala posa tha, we bhi ikatthe teen teen, chaar chaar kilo ke alag alag packet bandhawa rahe hain “jaldi karna bhai, saDak par skutar start khaDa hai —munindar ray ne dukandar se kaha
unke chale jane ke baad ek adami ne dukandar se puchha, “bahut baDe adami hain kya?
dukandar muskuraya, “ajkal wishwawidyalay mein interwiew chal raha hai bikri baDh gai hai
sirishti mein saty itna manohari, rang biranga aur mauzun kabhi nahin raha hoga subodh misir ajkal pustakalaya nahin jate subah se uthkar din bhar saty ki talash mein ghuma karte hain wo unhen chaurahon, nukkDon, chay aur pan ki dukanon par, hindi wibhag mein jagah jagah dikhai deta rahta
ye professor log khate kya hain? aaj yahi janne ke liye we machal paDe wo janna chahte the ki akhir kaun sa ann hai jisne inki wasnaon ko prchanD aur jannendriyon ko nishkriy kar diya hai? wo pure din bhukhe pyase tahalte rahe shayad is rahasy ko par pana mere liye durlabh hai ye sochte hue thakkar wo nukkaD wali dukan par chay pine chale gaye tabhi achanak unhonne dekha ki mukhy saDak ki nazar se door jo choragaliyan hain unmen kuch log sir par bojha lade dabe pichke qatarbaddh chupchap chale ja rahe hain we chaunk paDe bahut pahle ‘tam kaka ki kutiya mein inki shaklen dikhai di thi lekin inke chehre to parichit hain ye apne hi wishwawidyalay ke shodhchhatr hain wigyan aur manawiki ki wibhinn shakhaon prshakhaon ke shodhka haustlon mein rahte hain apne ganw jawar ke honhar ghar ke dularuwa jab ye yahan paDhne aate hain to inke bap attachi aur achar sir par ladkar inhen station tak chhoDne aate hain khet girwi rakhkar inke sukh suwidhaon ko pala posa jata hai akhir is tarah ye log kahan ja rahe hain?—subodh misir ne socha laDakhDakar gir paDe ek laDke ko unhonne dauDkar pakDa sahara dekar uthaya aur puchha, “is bore mein kya hai bhai? kahin tum taskari to nahin karne lage?
laDke ne kaha, “gurudew ki bhains byai hai usi ke liye purana, guD aur chokar le ja raha hoon ”
“aur tum?”—unhonne dusre se puchha
“pahaDiya satti se kumhDa aur lauki kharidkar le ja raha hoon guruji ne kaha hai ki wahan sasti aur tazi sabziyan milti hain
tisre ne bina ruke bataya ki, “guruji ka makan ban raha hai usi ke liye cement hai ” bojh se pichke sir ka sara rakt chehre par utar aaya tha ankhe bahar latak i theen we usi tarah sir jhukaye chupchap aage baDh gaye subodh misir ki ankhen DabDaba gain wo khoob zor se hans paDe
interwiew mein do din rah gaya hai, jab sans roke pratiksha kar rahe hain udhar kone mein jhaDi ki aaD lekar gesthaus ka chaprasi wamapanthi rayasahab se phusaphsa raha hai, “teen kamre buk hain koi gujrat ke misir ji hain aur rajasthan ke upadhyay ji ek punjab ke, pata nahin kaisi ‘title’ hai jati pata nahin chal rahi hai
ray sahab ne anuman lagaya aur sir hilate hue ekalap ki mudra mein budbudane lage—“wam, wam, wam disha, samay samyawadi
“tab to aapke liye shubh hai”—chaprasi ne dilasa diya
“khak shubh hai! mool saty to dusra hai”—we chinta mein arpar ho rahe the—wah ek aur man raha ram ka jo na thaka kuch budbudahat ubhri—“kahti thi mata mujhe sada rajiw nayan ” chahe jo bhi ho, yu pi college wale master sahab mujhe wamapanthi mante hain jati bhed se pare aaj ke yug mein aisa adami milna mushkil hai bahut dinon se ekantwas kar rahe hain halachal lena chahiye—“achchha to bhai, bahut bahut dhanyawad”—unhonne chaprasi se kaha aur skutar ki cick mari—phurrऽऽ
idhar acharya chuDamanai dhoti, kurta aur band gale ki coat par shaal Dale chale aa rahe hain pan ki dukan, saDak par yahan wahan dhoop ke chhote chhote tukDon mein bante samast pradhyapakgan hindi wibhag ke samne aakar danDwat mudra mein winat bhaw se jhuk gaye bhay aur ashanka se bhare swayamwar ke samast rajgan acharya chuDamanai ke kripakankshi kaun kaha hai ki church aur pop ka yug khatm ho gaya hai
sab wampanthiyon ka fitur hai kamyuniston ke desh mein to wyaktigat swatantrata hoti hi nahin akhir mein daswritti ka palan bhi to hamari wyaktigat swatantrata hai
acharya ne dekha, bhawishya ki paudh lahlaha rahi hai shri wikas panDe, upadhyay, Dau tripathi, janardan parsad, reader mahadewamuni aur ramakran ray sabke sab upasthit hain kuch parabhrita sunayna sukumariyan bhi shardha aur samarpan ka mahotsaw unke honthon par rahasyami muskan tair rahi thi, “kitne paise hua jee?” utarte hue unhonne rikshe wale se puchha
“sahab, jo marzi ho de dijiye”—thanD se kanp rahe us buDhe ne chithDe kanbal ko lapette hue kaha
“sar, mere pas change hai”—warshon se laiya aur bhune chane ka swalpahar karne wale munindar ray rikshe ki or baDhe
nahin, nahin! ye ghalat baat hai”—acharya ne unhen sakhti se roka aur pachas paise ka ek sikka rikshe wale ko de diya
ashchary mein Duba samwet swar, “panch rupaya!! lutte hain sale! bhag bhosDi ke, dikhai na dena!!” bhonऽऽ bhonऽ huwanऽ huwanऽऽ
rickshaw wala girte paDte bhaga
acharya samne patthar ke bench par khaDe ho gaye “main aap logon se kuch kahna chahta hun”—unhonne samne jhuke siron ko sambodhit kiya, “lekin, agar aap logon ko mujh par bharosa ho to ”
do din baad interwiew hai kismen itni jurrat phir wahi samwet swar, ”hamen aapke nyaybodh par pura bharosa hai acharya ”
do minat tak sannata raha wibhag ke head clerk sharma ji ne bag se kaghaz ka ek tukDa nikalkar unhen thamaya chaprasi ramdin adhyapkon ke pichhe khaDa ho gaya
wahan ‘jangan man ho raha hai kya bhai! saDak par ghoom rahe laDke bhi aakar khaDe ho gaye
“ap to sakshat nyayamurti hain sar!” phir wahi samwet swar gunja
to aap log sunen! mujhe is baat ki bahut shikayat hai ki yahan koi class nahin leta dusri baat ye ki aap log petrol aur mithaiyon par bahut ziyada paisa phunkte hain thoDa mitawyayita se kaam len lekin, sath hi mujhe is baat ki bahut khushi hai ki idhar mere wibhag ne samuche hindi jagat se ziyada pustken likhi hain logon mein paDhne likhne ki ruchi baDh rahi hai ye achchhi baat hai bus yahi kamna hai ki aap log banaras aur allahabad ke prkashkon se thoDa upar uthe star baDhayen aur han! allahabad ke hi sandarbh mein ek zaruri baat yaad aa gai ye dekhiye ” unke hath mein kaghaz ka ek tukDa lahra raha tha, “yah allahabad haikort ka ‘ste arDar hai interwiew sthagit kiya ja raha hai ”—aur we jaldi se siDhiyan chaDhte hue upar apne kamre mein chale gaye
“are ye kya ho raha hai! upadhyay ji ke munh se jhag kyon nikal raha hai? ankhen ulat gain mirgi ka daura hai! juta sunghawo!!” charon or khalbali mach gai janardan parsad ne mandi ke dinon mein sheyar bechkar kitaben chhapai theen satyanash! guD gobar!! “pakDo sale ko! bhagne na pae!”—lalkarte hue ramakran ray acharya chuDamanai ke pichhe pichhe lapke
jammu, chanDigaDh, dilli aur lucknow chaar chaar wishwwidyalyon se i thisison ka maukhiki lena hai hawai yatra ka ticket pahle se buk hai chuDamanai ji ne pandrah din ki duty leew li taxi pakaDkar sidhe babatpur pahunch gaye
isi beech acharya ke iklaute shrawanakumar ke em em antim warsh ka result aaya pichhle sare acharya putron ka rikarD dhwast karta hua wo assi pratishat ank paya adhyapak sangh ki apat baithak mein janardan parsad ranD aurton ki tarah wilap kar rahe the—“yah adami shuru se hi adhyapak wirodhi raha hai ab uske laDke ka assi pratishat ank!” adhyapak sangh ke tinon pratyashi brahman hain—“agar phir bhi aap log kuch nahin karenge to main amarn anshan par baithunga ”
“ham karna to bahut kuch chahte hain adhyaksh mahoday chintit aur asmanjas mein hain—“lekin ismen kya kiya ja sakta hai? mamla court ka hai
kyon nahin kar sakte! hindi mein kahin assi pratishat” ank aate hain? ramakran ray cheekh rahe the—“isi apne putr ke liye is adami ne barah sal se ye jaghen rok rakhi hai laDka teen sal inter mein phel hua
adhyapak sangh ke adhyaksh mishra ji ki bahu isi sal itihas mein pachasi pratishat ank pa chuki hain unhonne sabha ke samne hath joDkar anurodh kiya—“ham logon ko shobha nahin deta ki aapas ke jhagDe mein bahu—betiyon ya putron ko ghasiten
kulapti ne Dean sinha ji ko bulakar puchha ki achanak ye sab kaise ho gaya?
main kuch nahin kar sakta sar!” Dean ne asmarthata prakat ki, “yah adami bahut jaliya hai
achchha aap aisa karen ki unke aate hi mere sath meeting rakhen main notis type kara de raha hoon laDkon ka pratinidhimanDal roz roz j~napan de raha hai zindabad, murdabad ho raha hain court ke mamle mein to kuch nahin ho sakta, lekin ye assi pratishat wali baat puchhkar aap karrwai karen ”—wi si nyayapriy chhawi wale sakht wekti hain
hawai yatra ki thakan thi phir bhi kulapti ka patr pate hi acharya unse milne gaye Dean sinha ji wahan pahle se maujud the thoDi der tak filon ko palatte rahne ke baad wi si ne aupacharik shuruat ki, “apaki yatra kaisi rahi acharya jee?
“theek thi sar!”—acharya chuDamanai dant khod rahe the—“dilli gaya tha socha yu ji si bhi ho loon, aapke ‘ekstenshan ki baat chal rahi thi sar!
“han bhai, dilli ke mare to main bhi bahut pareshan hoon yahan ke em pi tripathi ji ne sansad mein kya to parashn puchha hai ki aapke laDke ko hindi mein assi pratishat ank mile hain sab log jaanch karane ki baat kar rahe hain yahan laDke bhi roz julus lekar aate rahte hain wais chancellor ne sidhe sidhe baat shuru ki
chuDamanai ji muskuraye, “dharna pradarshan hi to hamara jantantr hai sar!
assi pratishat ank hindi mein!”—Dean sinha ji ne sakht etiraz jataya—“suna hai, wo priwiyas mein second diwision pas tha ” unhonne wi si se mukhatab hokar kaha—“sar! em pi tripathi ji ne lokasbha mein kaha hai ki ramachandr shukl ko bhi itne number nahin mile the pure desh mein wishwawidyalay ki chhichhaledar ho rahi hai sar!
wi si tak to sahi hai! ye Dean bahut gutter patar bol raha hai—acharya ne socha aur muskuraye, “dekhiye sinha ji, aap bhumihar hain
unka waky pura hone se pahle hi Dean uchhal paDa, “ap yahan jati biradri ki baat kyon utha rahe hain
“ap pahle shant hokar meri puri baat sunen! aur chikhna chillana mujhe bhi aata hai”—ghusse mein chuDamanai ji ke donon nathne marakhe bail ki tarah phaDakne lagte huःhuः—“kyonki ye mool saty hai ki aap bhumihar hain is dharne pradarshan mein aadhe laDke bhumihar, aadhe brahman aur do chaar communist hain mujhe achchhi tarah malum hai ki ye laDke dharne se pahle aur uske baad aapke ghar kya karne jate hain! rahi baat tripathi em pi ki, to wo nira bewaquf hai hindi ki itni pawitra sanstha ka nash unhin donon bhaiyon ne kiya hai us gadhe ko ye bhi nahin malum ki acharya shukl inter phel the unka em e mein assi pratishat ank kaise ayega?
ye adami to ekdam belagam hai, wi si ne socha—is par karrwai karni zaruri hai—aur bola—“ap wishwawidyalay mein jatiwad ki rajaniti karte hain suna hai, adhyapkon par hue hamle mein bhi aapka hath hai”—wi si ka lahja behad talkh aur sakht tha
acharya ke samne aaj tak kisi ne is andaz mein baat karne ki jurrat nahin ki thi wo kuch kshan tak shant hokar kulapti ke chehre ki aur dekhte rahe aur phir muskurate hue thanDe swar mein bole, “apne aur kya kya suna hai mere bare mein? log to bahut kuch kahte hain aapke pahle bhi ek kulapti the jute ki mala pahankar gaye the yahan se log chughalkhor hain kahte hain, ki wo sab mainne hi kiya kiraya tha jabki baat bus itni thi ki prachin wanmay, waidik sahity aur bharatiy sanskriti ke bare mein meri asthayen unse mel nahin khati theen
kulapti ne dekha, anek kinwdantiyon aur kshaepak kathaon se mithak ban chuke mahanayak acharya chuDamanai muskura rahe the, bhay se uska chehra pila paD gaya acharya ko daya aa gai, bole, “wi si sahab, main aapka bahut aadar karta hoon bawjud iske ki main hindi wibhag ka adhyaksh hoon ‘Dean off stuDents bhi hoon aur aapne bina mujhe wishwas mein liye hindi wibhag ka interwiew ‘phiks kar diya tha main janta hoon ki aap atyant shalin, mitbhashai aur nyayapriy wekti hain aur ye bhi janta hoon ki manaw sansadhan mantralay ka mukhy sachiw aapka saDhu hai lekin kya baat hai ki yahan is banaras wishwawidyalay mein aaj tak koi rajput wi si nahin ho saka hai main jatiwad ko desh ke liye cancer se kam ghatak nahin manata aap chahen to jaanch aayog baitha den lekin kisi parikshak ki janchi kapi ko koi nyayadhish kaise jaanch sakta hai? jantantr mein alag alag sansthaon ki apni swayattata, haisiyat aur garima hoti hai aapko koi aisa kaam nahin karna chahiye ki ye pawitarta nasht ho kisi ko ye kahne ka awsar mile ki aap bahman aur bhumihar laॉbi ke dabaw mein hain aage apaki jaisi marzi ”—kahkar acharya chuDamanai achanak uthe aur wi si lauj se bahar nikal gaye
bahar charon or relampel tha dharna, pradarshan aur anshan karne ki dhamki us din dopahar ko jab subodh misir kaifeteriya se chawal aur kumhDe ki tarkari khakar chale ja rahe the, unhonne dekha ki krishai wigyan sankay wale chaurahe par ek laDka phata kurta, pajama aur hawai chappal pahne ujbak ki tarah charon taraf dekh raha hai wishalakay imaraton aur ek dusre ko katti aage chali ja rahi chikni, chauDi saDken saDkon ke upar jhuk aaye aam, amaltash, shisham aur sagaun ke peDon ki ghani chhanw mein shayad wo rasta bhool gaya hai samne se adhyapak sangh ka wishal julus chala aa raha tha we log pata nahin kis baat par behad ugr aur uttejit the laDka donon hath uthakar unhen rokna chahta hai jab we log nahin rukte to wo donon hath joDkar giDgiDane lagta hai, “gurujnon, bus itna hi yaad hai ki main barah sal pahle yahan aaya tha main kahan ka rahne wala hoon? mujhe apne ganw ka nam aur bap ki shakl bhool chuki hai main bhukha hoon kai dinon se mujhe ann ka ek dana bhi nahin mila hai ye dekhiye usne kurta uthaya aur apna pet dikhane laga wahan kaghaz ke kuch maile kuchaile tukDe bandhe the—ye meri marksiten hain charitr praman patr hai main bhukha hoon aur apne ganw jana chahta hoon gurujnon, mujhe mere ganw ka rasta bata dijiye, wahan meri man khana banakar khoj rahi hai ” wo cheekh raha tha bheeD use kuchalte hue aage baDh gai kisi ne uska kurta noch liya ye ghar mein ponchha lagane ke kaam ayega
chaurahe ke dusri aur se chhatr sangh ka julus chala aa raha tha wo laDka saDak ke baghal ki nali mein gir paDa tha achanak use phir kuch awaz sunai paDi to dauDkar aaya aur saDak par dubara khaDa ho gaya kurta ghayab tha chappal ka phita tutkar door kahin chhitak gaya tha lekin wo donon hathon se apne pet par bandhe kaghazon ko kaskar pakDe tha “bhaiyon rukiye —wah phir chikhne laga—“mujhe mere ghar ka pata bata dijiye wahan jaDe ki gunguni dhoop mein diwar ke sahare baithi meri patni nae dhan ka chawal pachhorti thi mere bap ne bachpan mein hi meri shadi kar di ab mera beta baDa ho gaya hai aur mujhe bula raha hai main use dekhana chahta hoon ” julus mein laDke apni hi dhun mein nare lagate, bahut ghusse mein na jane kise, shayad khu ko hi galiyan dete use langDi markar aage baDh gaye
subodh misir ne laDke ko dekha unhen laga ki ye koi swapn hai jaise swapn mein koi apne ko apne se thoDa door khaDa hokar dekhta hai theek usi tarah unhen daya i we use pakaDkar kuch puchhna aur baten karna chahte the unhen apni or aata dekhkar wo laDka bahut tez bhaga aur jakar wishwawidyalay ke sabse unche gumbad par chaDh gaya
subodh misir ne dekha, gumbad ke upar jo tirshul chamak raha hai usi par maze se baitha wo laDka banar ki tarah uchhal kood kar raha hai suraj tap raha tha subodh misir ne zor se puchha, “tum kya chahte ho bhai? main tumhein tumhare ganw pahuncha dunga mujhe tumhare ghar ka pata malum hai
laDke ne kaha, “lekin ab wahan mujhe koi nahin pahchanta kyonki main bhi kisi ko nahin pahchan pata wahan jakar main kya karunga?
to phir tum kya chahte ho?” subodh ne puchha
“bataun?” laDka bahut zor se hansa “main tajamhal mein apni premika ke sath ek puri raat honeymoon manana chahta hoon pata nahin kahan chali gai meri premika? kya tum mujhe meri premika se mila doge? kya tumne abhi tak tajamhal bhi nahin dekha hai? achchha to suno! main apne bete ke sath nadirshah ke samne khoob zor se hansna chahta hoon mere bete ka kairamborD nadirshah chura le gaya achchha tum gandhi ji ko bula do we use apne khaDaun se marenge
subodh misir kinkartawyawimuDh use dekh rahe the
“khair tum jao!” usne wahin se chillakar kaha, “main ab yahin rahunga isi tirshul par mujhe ye unchai achchhi lag rahi hai
ek din logon ne dekha ki ek bahut baDe desh ke raja ne usi adamakhor misail ke gale mein wijayhar pahna diya, jise wahan ke bashindon ne barfili hawaon mein bhukhe pyase sari sari raat jagkar aadhi shatabdi se rok rakha tha puri duniya tamashabin ki tarah ye drishya dekhkar bhaunchak rah gai ek Darawni aur kafi gufi ki tarah munh baye wo adamakhor misail ek nagar se dusre nagar, ek desh se dusre desh tak ghumne lagi usne logon ke sapne, jine ka andaz aur zaruraton ki pheharist badal di din, mahine aur warsh bitte rahe samay guzarta raha yug badla is tarah badla ki jo log nirantar raat din use badalne ke liye bechain rahte the we bhi duःkh aur shok se bhar gaye isi beech subodh misir ki thisis puri hui we doctor subodh misir ho gaye
ek din subah subah we canteen ke samne chay pi rahe the unhonne dekha ki asapas baithe laDke raat t wi par romanchak match ke bare mein uttejak bahsen kar rahe hain samne saDak par ek jawan aur sundar laDki nashe ki si haalat mein langDati aur sahmi hui si bhagi chali ja rahi thi pata laga ki wo gujrat se apne premi ke sath banaras ghumne i thi teen din se bhukhe pyase chhatrawas ke ek kamre mein band karke panch laDkon ne uske sath nirantar rape kiya tha nishpran ghatnaon aur sanasnikhej suchnaon ka ye ritikal tha thoDi door aage matr das qadam ki duri par ek chhota ka kampyutar rakha hua tha kisi door upgrah se sanchalit kampyutar ka shesh pichhla hissa andhere mein Duba hua tha tez lait mein chamakte screen par us samay ek laDki muskura rahi thi—kisi sudur atit ya pauranaik akhyanon mein chamakti laDki ki hansi—ek tilasmi karamat ki tarah uske charon aur lahra rahi theen chamkili paikinge unmen bhara tha miss yuniwars ka gopan rahasy, madak pey, kreem aur bachchon ki chakleten, aurton ke sindur, mitron ki shubhkamnayen, nae sal ka sandesh aur bhusa aur gobar apni zaruraton se ube logon ki bheeD ek jadui kutuhal se beqabu us laDki ke unnat urojon aur chikni janghon mein dhansi chali ja rahi thi us samay nashe ki si haalat mein langDati bhagti laDki ke honth bhay se kale paD gaye the wo kampyutar ke pichhle hisse mein, jahan gaDha andhera phaila hua tha, jakar wilin ho gai uski akhiri cheekh ek surili aur layatmak peeऽऽ peeऽऽ ke sath screen par do second tak ubharkar band ho gai wahan raat ke match ka shesh bhag phir shuru ho gaya
acharya chuDamanai ji wibhag se retire hone ke do mahine baad dusre wishwawidyalay mein kulapti bana diye gaye unka iklauta shrawanakumar, baqaul sare shahr jise ek waky shuddh hindi likhni nahin aati thi wo, marudhar wishwawidyalay ke phatak se hota hua panch sal baad usi hindi wibhag mein reader bana diya gaya uttaradhikar ke is mahotsaw mein wishwawidyalay ki rajput laॉbi ne uska abhinandan kiya is niyukti ke samay bhi sinha ji Dean the bhumihar laॉbi ne bahut koshish ki lekin unhonne acharya chuDamanai se apne sambandhon ko jatigat ragadwesh se upar uthkar dekha unhonne gambhiratapurwak is baat par wichar kiya ki iklaute putr ka wriddh pita ke pas rahna hi zaruri hai is niyukti ke theek ek mahine baad acharya chuDamanai ne ye sochkar ki kisi ka qarz lekar marna rajaputi anban ke khilaf hai, unhonne apne wishwawidyalay mein Dean sinha ji ki putrawdhu ko angrezi mein lecturer bana diya
apne guru ke yogya shishya subodh misir nagar mein dar dar bhatakte rahe we raat ke andhere mein baithkar nitiwakya likha karte unke sath ke sare chhatr, jinse unki nok jhonk chala karti thi, jo unhen yathasthitiwadi kahkar kranti aur pariwartan ki baat kiya karte the, we sabke sab ek ek kar wishwwidyalyon, degre kaulejon aur akhbar ke daftaron mein jakar chuDamanai ji ka juthan bator rahe the idhar subodh misir wishwawidyalay ke nae laDkon ke beech ajube bante ja rahe the wo sabse kaha karte ki wirodh mein utha ek hath, paksh mein uthe karoDon hath se mahatwapurn hota hain we is wirodh ki wyakhya nahin karte the aur aksar chup laga jate acharya ji har pandrahwen din baad kisi na kisi niyukti mein eksapart hote har bar we driDh pratij~n hokar jate ki is bar apne priy shishya subodh misir ki niyukti zarur kar denge lekin unke manawiy dayitw bodh aur nyayochit chetna ko kisi mantari, widhayak, kisi bhutapurw wibhagadhyaksh ya samkalin professor ka sifarishi patr har bar path bhrasht kar deta we roz roz path bhrasht hote rahe ek din apni putrawdhu ki niyukti ke liye dilli ki ek mahila professor ke pairon par gir paDe niyukti nahin hui logon ko unke is apman ki ummid nahin thi sabko laga ki kahin abki bar gambhir heart ataik na ho jaye lekin aisa kuch bhi nahin hua unke darbar mein logon ki aamad khatm ho gai we bina bulaye shahr aur wishwawidyalay ki har sabhaon, samarohon mein pahunchakar apne ko manch par bulaye jane ki pratiksha kiya karte aur unghne lagte goshthi, samaroh khatm ho jate we chupchap akele tahalte hue apne ghar chale aate
idhar ganw mein subodh misir ki betiyan baDi ho rahi theen patni ke dant hilne lage the har fasal katne ke baad kheti par pani, bijli aur lagan ke kuch karze baDh jate unhonne ek par ek teen acre khet bech Dale ant mein ganw ke ek buzurg ne samjhaya ki “bhai subodh, kab tak naukari khojte rahoge? ye khet tumhari kamai nahin hain jo beche ja rahe ho kal laDkiyon ki shadi karni paDegi
teen din se bhukhe pyase subodh misir ne ek din antim roop se gurudew ke chaukhat par mattha teka “bete subodh, mujhse tumhari dasha dekhi nahin jati”—gurudew ne kaha aur rone lage
“koi baat nahin gurudew! main kuch mangne nahin, aagya lene aaya tha ghar ja raha hun”—unhonne shahr ke bichombich thuka aur ganw chale gaye
panch sal se ganw mein rahte hue subodh misir ko sirf yuriya ka dam, bijli ke bil, gehun, dhan aur ikh ka bhaw yaad rah gaya tha alankar, chhandshastr, ras yahan tak ki tuk aur wichar aadi ki maryada toDta hindi kawita ka prawah adhunikta, marksawad aur astitwawad aadi ko aprasangik qarar deta hua in dinon uttar adhunikta aur wikhanDanwad ke samiksha siddhanton se apni sangti bithane ka joDtoD kar raha tha subodh misir ne suna ki aaj pura wishw ek ganw bankar rah gaya hain sanchar madhymon ki achuk pakaD se koi wekti bahar nahin hai we ye sab suna karte aur dekhte ki saikDon suraksha garDon ke beech pradhanamantri mans ke nirjiw lothDon mein bikhar jata hai hazaron jasusi kutte panch sal se hatyare ki chhaya sunghte ghoom rahe hain ajib o gharib wirodhabhason aur wiDambna ka daur jari hai puratatw wibhag ke sangrahalay aur ajayabghar ki diwaron par kalidas, bhawbhuti, soor, tulsi aur kabir ki panDulipiyan mare sheron ki khaal ki tarah tangi hain shabd aprasangik ho gaye hain kawita aur itihas ka ant ho gaya hain ye sab subodh misir akhbaron mein paDh rahe the aur dekh rahe the ki yahan ganw mein ab bhi aurten shadi, samaroh mein, chhath aur munDan ke awsar par usi tarah phati saDiyan aur lugdi petikot lapete geet gaye ja rahe hain thanD mein kanpte thithurte dharne aur pradarshan par jate hue log kabir ke nirgun aur tulsi ki chaupaiyan sun suna rahe hain nare laga rahe hain wo aksar socha karte ki sanchar madhymon ne jis duniya ko ek ganw mein badal diya hai us ganw ke nakshe mein yahan ki aurten aur logon ki koi surat aur zarurat kyon nahin dikhai deti? kuen mein gire bail ko nikalne we log kyon nahin aate jo munh mein bhopa bandhakar hamein apne ganw ka bashinda batate hue roz roz cheekh rahe hain ek din unhonne dekha ki ek mazdur neta ki, jo lokakthaon ki tarah pyara aur khubsurat tha, ek udyogapti aur sharab ke thekedar ne milkar hattya kar di aaj usi udyogapti ne hindi ka sabse baDa puraskar sabse baDe janwadi aur manawtawadi sahityakar ko diya hai flaish chamak rahe hain photo khinche ja rahe hain wichar, adarsh aur naitikta bemani yahin hai uttar adhunikta ka khubsurat model ek yuwa mazdur ki widhwa ne jis sahayata rashi par thook diya usi ke sood se hindi ka sabse baDa puraskar sabse baDa janwadi sahityakar le raha hai besharmi ki had hai
theek inhin dinon unhen punjab ke ek wishwawidyalay se lekchararship ka interwiew dene ke liye ek registry patr aaya tha teen din pahle aaj jab we khet se aakar bailon ko bhusa dana kar rahe the tabhi unki baDi wali beti ne unhen ek dusra postakarD diya
ye acharya chuDamanai ka postakarD tha gurudew mujhe ab bhi bhule nahin hain—yah sochkar hi subodh misir ki ankhe chhalachhla gain kushalta ki kamna ke sath gurudew ne likha hai ki “agar tumhein fursat ho to yahan chale aao punjab ki yatra karni hai buDha ho gaya hoon akele yatra sambhaw nahin hai aur ab yahan koi itna wishwasniy nahin jiske bharose itni door jaya ja sake
wahi tarikh! wahi jagah! lag raha hai is interwiew mein gurudew hi eksapart hain—subodh misir khushi se qarib qarib kanpne lage—shayad ab mere duःkhon ka ant hone wala hai theek pandrah din baad unhonne ramdhari sahu se hazar rupye udhaar liye aur gurudew ke chaukhat par hazir ho gaye
subodh ne dekha, apne ghar ke bahari hisse mein, jahan kabhi gaDi khaDi rahti thi wahin ek tuti aur dhansi charpai par gurudew maili kuchaili si chikat razai oDhkar baithe hain jagah jagah se phati beDshit niche tak jhool rahi hai sardi ka mausam tha gurumata charpai par patane sikuDkar baithi theen ek gathri ho chuki gurumata jab subodh wahan pahunche to gurudew ke chehre par halki aur thaki muskurahat phail gai unhonne kone mein rakhe purane stool ki or ishara karke baithne ke liye kaha “gurudew aap yahan?”—subodh ne jagah jagah se phati diwaron wale gairje mein lawaris ki tarah paDe gurudew ko dekhkar ashchary aur karuna se bharkar puchha diwaron aur chhat par warshon purane makDi ke jale latak rahe the charon aur gandgi thi
“han, ab mere liye yahi jagah upyukt hai uttaradhikar saunp dene ke baad raja ke liye jangalwas hi uchit raha hai ”—bolte hue chuDamanai ji ke shabd, jo kabhi nabhi ki onऽmadh dhwani ki tarah thartharate hue nikalte the, aaj jaise ankhon se bhigkar reng rahe the pankh phaDphaDane ki koshish mein gaurayya ke bachchon ki tarah munh ke bal gir gir ja rahe gurudew ke shabd—“idhar ab thoDa ekant rahta hai”—unhonne kaha
ghutnon mein munh Dhanpe guruain achanak phaphak paDi, “bahu udhar jane nahin deti beta mauga hai baat bebat jhiDakta rahta hai ab tumhare babuji gathiya ke mare chal nahin pate do meel paidal jakar homiyopaith ki dawa lati hoon din bhar ke liye aadha kilo doodh! beta, tumne to dekha hi hai! panch panch kilo doodh ka chay banati rahi hoon aaj buDhape mein apni thali apne hath dhoo! gini hui rotiyan aur mutthi bhar chawal!
“chup raho bhagman ”—acharya ne patni ko santosh dilaya aur puchha, “bete subodh! tum kaise ho? ghar mein baal bachche? aur bahu kaisi hai?
“sab theek hai gurudew lekin aap yahan! aur is tarah?
“nahin, mujhe koi taklif nahin hai patni apni aadat se lachar hai bahu se nahin patti khair chhoDo! mujhe yahan bahut sukh hai
subodh ne dekha tha wo din kalin ke charon taraf bichhi kursiyan swayan takht ke mote gadde par masnad ke sahare adhlete acharya chuDamanai ka wyaktitw hindi jagat ka ye prchanD surma shatru shiwir mein airawat ki tarah, apne samne Dean, wais chancellor ya antri mantari kisi ko kuch nahin samajhta tha soor panchashti samaroh ka wirat samagam! desh ke kone kone se aaye marksawadi saundaryashastr se lekar sanrachnawadi samiksha siddhanton ke pachason widwan, sabke beech dip dip karta acharya ka apna prbhamanDal! sabhi unke samne danDwat the kisi ko thisiyon ka parikshak banna tha to kisi ko apni kitab pathyakram samiti se pas karani thi kisi ko bahu ki niyukti chahiye, to kisi ko yu ji si ki grant aaj wahi gurudew lawaris ki tarah apne hi ghar ke ek kone mein kho gaye—subodh misir bhaunchak the
“achchha tum aisa karo ki mumuksh bhawan mein jakar thahar jao”—acharya ne kaha—“kal subah punjab mel se ambala tak ka reserwation hai wahan se bus ki yatra karni paDegi
“gurudew! mainne bhi us jagah ke liye awedan kiya tha ” subodh ne bataya, “mera bhi interwiew letter aaya hai kya aapko malum hai ki dusre kaun kaun eksapart hain?
ab tak acharya ji ke mukhmanDal par shishyatw ki jo mamta jhalak rahi thi achanak ye sunte hi kartawyapranta ke bojh se dabkar kathor rukh badalne lagi swar maddhim ho gaya bole, “chalo, ye to bahut hi achchha hai lekin tum ye baat yahan kisi se batana mat mujhe tumhari bahut chinta hai
guruain ne kaha, “ab inhen kaun puchhta hai beta! pahle sab log yahin matha ragaDte the ab isi shahr mein aakar chup chup chale jate hain agar gohatya ka bhay na ho to log buDhe bail ko goli mar den
lucknow se ambala tak ki yatra acharya ne sokar puri ki dusre sare musafi unki nak ki ghar ghar aur khansi ke mare ub ub kar karwat badalte rahe ankhon ke alawa gurudew ke sare angchhidr minat minat par wisfot kar rahe the shardha atindriy nahin hoti khu subodh ko bhi diqqat ho rahi thi
ambala se bus ka safar karte hue gurudew subodh se hisab kitab lete rahe kheti mein kitna fayda ho jata hai ham log bachpan mein chane ka hola khakar ikh choos lete the pet bhar jata tha shahron mein to bahut pradushan aur milawat baDh gai hai ek to bijli nahin aati dusre bil bahut dena paDta hai ‘mahishanch sharad chandr chandrika dhawalan dadhiः kalidas ne likha hai—sharad kalin chandrma ki chandni ki tarah bhains ki sundar sajaw dahi! paDhkar lar tapakne lagti ye sab ganw mein hi sambhaw hai shuddh hawa aur be milawat bhojan ”
“lekin gurudew, ganw to narak ho chuke hain kheti ki har fasal kisanon ko qarz mein Dubokar chali jati hai do june ke bhojan ke alawa ab wahan kuch bhi nahin hai
“yah tumhara bhram hai subodh! shahron ke liye tumhara akarshan theek hai, lekin ganwon ke prati tumhare wichar achchhe nahin hai
subodh ne socha—kyon nahin aap ganwon mein chale jate kaun aapko roke hai lekin gurudew ki baat we chup lagaye rahe
utarne wale station ke thoDa pahle hi chuDamanai ji ne subodh ko hidayat di, “tum pichhe se utarkar dusri or chale jana warna, koi tumhein mere sath dekh lega to pakshapat ka aarop lagega loge kahenge ki kainDiDet lekar aaye hain
subodh ne kaha, “jaisi ichha gurudew!”
interwiew board mein dilli ke ek prchanD wamapanthi the aur dusre rajasthan ke wamamargi tisre swayan acharya chuDamanai, jinke putr ko abhi banaras wishwawidyalay mein professor banna tha subodh misir ne interwiew board mein baithe acharya ko dekha nirwiy paurush ki samast wasana nirih ankhen mein deen yachana bankar chupchap baithi thi wamapanthi acharya ne unse alankar aur riti ki samajik aur sahityik mahatw puchha rajasthan ke wamamargi nath samprdai acharya ne bhasha wigyan ka grim niyam
subodh misir sawalon ka jawab theek se nahin de pae interwiew kharab ho gaya isliye nahin ki pichhle kai salon se unki paDhai likhai nahin ho saki thi, balki isliye ki interwiew ka achchha ya bura hona antat aur ekmatr eksapart par hi nirbhar karta hai ab unhen apne gurudew acharya chuDamanai se hi antim ummid thi
tumne to meri sari ummid par hi pani pher diya ”—bahar nikalkar acharya chuDamanai ne bataya
“niyukti kiski hui gurudew?” bus aDDe ki or lautte hue subodh misir ne bahut dhime aur ruanse swar mein puchha
raat ho rahi hai chauDi aur chikni saDkon ke donon or niyan laiton aur hailojan ke pile parkash mein jalapri ki tarah tairti bhagti caren khilkhilati laDkiyan samucha shahr ek nashile sangit ki lai par thirak raha tha unka parashn Doob gaya tha kisi adrshy lok ki swapn sundari ne apne waibhaw ka paradarshi nila anchal bazaron ke upar phaila diya tha paidal chalte hue aage aage gurudew aur pichhe subodh misir wo apne ganw ke ramdhari sahu se udhaar liye ek hazar rupae, apni patni aur jawan hoti betiyon ke bare mein soch rahe the kahan se chukayenge ye ek hazar rupaya unka dil Doob raha tha gurudew ne bataya, “registrar ki putrawdhu ki niyukti hui hai sab kuch pahle se tay tha kahne ko log wamapanthi bante hai, lekin profesron ki ek hi jati hoti hai aur ek hi wicharadhara kaun unhen parikshak banakar hawai jahaz ka kiraya de sakta hai! bus mainne bahut duniya dekhi hai banaras wishwawidyalay mein professor ki niyukti hone wali hai shayad yahi eksapart hokar ayen isliye main chup laga gaya kisi tarah shrawn kumar professor ho jata
ambala cantt tak pahunchne mein raat ke nau baj gaye the gaDi abhi chaar ghante let thi “e si aur pharst class mein mainne bahut yatrayen ki hain ub aur ekant ab saha nahin jata dekhon, second class mein reserwation mil pata hai ya nahin? acharya ne subodh se kaha, “tum t t ko bata dena ki banaras wishwawidyalay mein professor hain
kurte ke niche marakin ki baniyan baniyan ke bhitar chorathaili ramdhari sahu ki baniyan ki tarah acharya ki baniyan mein bhi chorathaili e si ka kiraya mila hai lekin gurudew ne chorathaili se nikalkar sau sau ke do not subodh ko thamaye, “sekenD class ka ticket le lena
“abhi gaDi aane mein bahut der hai chuDamanai ji ne subodh se “yahan se teen kilomitar door tak dewi ka mandir hai, ekdam nirjan sthan mein kaha jata hai ki sachche man se wahan mangi gai har mannat puri ho jati hai mujhe tumhari bhi bahut chinta rahti hai subodh!”
shayad gurudew mere liye soch rahe hain agar koi guru dewi ke samne jakar sachche man se apne shishya ke liye mannat mange to samuche brahmanD mein isse pawitra pararthna aur kya ho sakti hai?—subodh ne socha
andheri raat hai nirjan sthan rickshaw to milega nahin “lekin koi baat nahin gurudew! ganw ka rahne wala hoon bojha Dhone ki aadat hai inkh aur jwar ke baDe baDe bojh khet se lekar aata hoon teen kilomitar koi duri nahin hai!”—subodh ne kaha aur gurudew ka bhari holDal aur attachi sir par ladkar chal paDe apna jhola unhonne gale mein latka liya —“ap bus rasta batate jaiye gurudew!”
ek kilomitar baad shahr khatm ho gaya mukhy saDak se hatkar kheton ke beech ek pagDanDi do kilomitar aur chalna hai—gurudew ne kaha, “pata nahin kyon mujhe aaj bahut Dar lag raha hai
gahri andheri raat thi sir par bhari holDal, attachi aur gale mein jhola latkaye aage aage subodh misir aur pichhe pichhe ab bhutapurw ho chuke banaras wishwawidyalay ke abhutapurw acharya chuDamanai unke pair bar bar dhoti mein phansakar ulajh ja rahe the jaDe ka mausam tha tez barfili hawa chal rahi thi “lag raha hai shimla mein barf giri hai is sal thanD bahut paDegi —kambal ko kaskar sharir par lapette hue acharya ne kaha
“mujhe to pasina ho raha hai gurudew!”—subodh misir ki kanpti awaz holDal ke bhari wazan se dabi ja rahi thi
“ganw ka adami shram karta rahta hai karmawir aur sachcha prakrti putr isiliye nirog rahta hai pata nahin kyon ajkal log shahron ki or bhag rahe hain mujhe to ganw bahut achchhe lagte hain rishton ki aadim gandh mein Dube ganw shahr mein to koi kisi ko pahchanta hi nahin charon or matlab aur swarth!”—gurudew ne kaha
bus, bus yahi samne charon or ikh aur dhan ke kate khet sannate mein Duba chhota sa mandir teliyon ke batakhre ki tarah kali aur beDhab si guptaklin patthar ki murti na koi tarash na bhawyata acharya ne ankhe band ki aur shardha se hath joDa “wideshon mein ye karoDon ki bikegi sarkar ko suraksha ka intizam karna chahiye”—gurudew ne chinta jatai aur bataya, “hal jotte samay khet ke bhitar mili thi ye murti
ganw mein to koi iska panch rupaya bhi na dega—subodh ne ashchary se gurudew ko dekha
“pahle tum apne liye kuch mang lo!” acharya ne kaha—“lekin pure man se tanmay hokar aspasht uchcharan ke satha
subodh hath joDkar khaDe ho gaye, “man, mujhe naukari chahiye! high school, intarmiDiyet se lekar b e, em e kisi bhi kaksha mein paDha sakta hoon mujhe paDhane ki naukari chahiye man! main guru rn se urn hona chahta hoon saraswati ka kalank sir par lade, main apni samuchi astha ke sath tumse papmukti ki pararthna kar raha hoon mujhe ganw ke andhere nark se nikalkar chahe jahan kahin bhej do main wahan nahin rahna chahta sara ganw meri paDhai likhai par hansta hai
kali andheri raat nistabdh sannata subodh pararthna kar rahe the unke ek ek shabd, jaise chita mein atmadah karti kisi widhwa ki cheekh aag ki lapton mein chhatapta rahi ho unki ankhon se ansu chhalachhla aaye the uske baad acharya chuDamanai ji murti ke samne upasthit hue subodh ne socha, jo kuch kasar rah gai hogi mere mangne ke Dhang mein, use gurudew zarur pura kar denge we chuDamanai ji ke theek pichhe nishchal bhaw se khaDe ho gaye bhawmagn
acharya ne pahle hath joDa aur phir ankhen moond leen teen chaar lambi lambi sansen khinchi prnayam ki deergh sadhana mein unhonne shabd ko nabhi tak khinchkar thartharate mandr swar mein pahle oऽmadh ka uchcharan kiya phir hath ko man ke pairon par tek kar zamin par let gaye thoDi der tak ekdam shant achanak unke gale se rone ki awaz phuti subodh ne dekha, duniya ka sabse duःkhi adami man ke pairon par gira paDa hai karun hichkiyon mein gurudew ke shabd Doob utra rahe the, “man, mere bete ko professor bana dena han man professor! samucha hindi jagah mere upkar ke bojh se daba hai lekin mujhe ab kisi par bharosa nahin rah gaya mera durdin jankar mere upar daya karo man!
ye kya kah rahe hain gurudew!—subodh misir tharthar kanp rahe the kritaghnata ka ye charam roop dekhkar we kinkartawyawimuDh ho gaye
“achchha to gurudew, parnam!—main ja raha hoon
acharya ne suna aur lete lete peeth ke bal ulat gaye, “mujhe is tarah yahan akele chhoDkar subodh?” unhonne yachana ke se swar mein puchha
“han! isi tarah isi andhere mein yahin paD paDe rote rahen ”subodh ke hath mein ek halka sa jhola tha we use ungliyon mein nachate, ghubbare ki tarah hawa mein lahrate chale ja rahe the
achanak unhen apne pichhe kisi ki hichkiyan aur rone ki awaz sunai di unhonne muDkar dekha unhonne dekha ki sir par bhari holDal aur attachi lade acharya chuDamanai bhagte bhagte girte paDte chale aa rahe hain
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 38)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।