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नगरवधुएँ अख़बार नहीं पढ़तीं

nagarwadhuen akhbar nahin padhtin

अनिल यादव

अनिल यादव

नगरवधुएँ अख़बार नहीं पढ़तीं

अनिल यादव

और अधिकअनिल यादव

    यह एक कहानी है। लंबी कहानी, उपन्यास की हद से ज़रा पहले ख़त्म होती हुई। चार साल पहले लिखी गई इस कहानी ने काफ़ी धक्के खाए। वैसे ही जैसे कुछ ज़रा लंबे या नाटे, ज़ियादा हँसने या चुप रहने वाले, मतिमंद या तेज़ लोग अपने घर में अपैथी और उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं। कारण कुछ और होते हैं नज़र कुछ और आते हैं। किसी ने कहा बेहद लंबी है, किसी ने कहा कि इसका कोई नायक नहीं है, ज़ियादातर ने कुछ नहीं कहा।

    दोस्त अशोक पांडे और मेरे महबूब कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने पढ़ा। कुछ सुझाव दिए। मैंने कुछ हिस्से फिर से लिखे। अब इसे आप सबके सामने धारावाहिक प्रस्तुत किया जा रहा हैं। पढ़िए...। इसे होली का एक रंग माना जाए।

    ***

    छवि जिसे फ़ोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की...।

    प्रकाश जिसे सपना जानता था, एक फ़ोटो थी जो कभी भी नींद की घुमेर में झिलमिला कर लुप्त हो जाती थी—रात की झपकी के बाद जागते, अलसाए घाट, लाल दिखती नदी और सुबह का साफ़ आसमान है। एक बहुत ऊँचे झरोखेदार बुर्ज के नीचे सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतों के ऊपर काठ की एक विशाल चौकी रखी है। उस डोलती, कंपकंपाती चौकी पर पीला उत्तरीय पहने उर्ध्वबाहु एक क़द्दावर आदमी बैठा है जिसके सिर पर एक पुजारी ताँबे के विशाल लोटे से दूध डाल रहा है। चौकी के एक कोने पर मुस्तैद खड़े एक मुच्छड़ सिपाही के हाथों में हैंगर से लटकी एक कलफ़ लगी वर्दी है जो हवा में फड़फड़ा रही है। थोड़ी दूर समूहबद्ध, प्रसन्न बटुक मंत्र बुदबुदाते हुए चौकी की ओर अक्षत फेंक रहे हैं।

    इस फ़ोटो और सपने को एक दिन, पूरी शक्ति के साथ टकराना ही था और शायद सबकुछ नष्ट हो जाना था। मृत्यु हमेशा जीवन के बिल्कुल पास घात लगाए दुबकी रहती है लेकिन जीवन के ताप से सुदूर लगती है। यह दिन भी उन दोनों से बहुत दूर-बहुत पास था।

    फ़ोटोजर्नलिस्ट प्रकाश जानता था कि यह सपनों की फ़ोटो है जो कभी नहीं मिलेगी लेकिन इसी अंतर्वस्तु की हज़ारों तस्वीरें उन दिनों गलियों, घाटों, सड़कों और मंदिरों के आसपास बिखरी हुई थी, जिनमें से एक को भी वह क़ायदे से नहीं खींच पाया। सब कुछ इतनी तेज़ी से बदल रहा था कि कैमरा फोकस करते-करते दृश्य कुछ और हो चुका होता था और अदृश्य सामने जाता था। लगता था पूरा शहर किसी तरल भंवर में डूबता-उतराता चक्कर खा रहा है।

    लवली त्रिपाठी की आत्महत्या

    धर्म, संस्कृति और ठगी के पुरातन शहर बनारस में सहस्त्राब्दि का पहला जाड़ा वाक़ई अजब था। हाड़ कंपाती, शीतलहर में लोग ठिठुर रहे थे लेकिन घुमावदार, संकरी, अँधेरी गलियों में और भीड़ से धँसती सड़कों पर नैतिकता की लू चल रही थी। लू के थपेड़ों से समय का पहिया उल्टी दिशा में दनदना रहा था।

    नैतिकता की इस लू के चलने की शुरुआत यूँ हुई कि सबसे पहले एक कुम्हलाती पत्ती टूट कर चकराती हुई ज़मीन पर गिरी।

    उस दिन के अख़बार के ग्यारहवें पन्ने पर सी. अंतरात्मा के मोहल्ले के एक घर की ब्लैक एंड व्हाइट, डबल कालम फ़ोटो छपी। आधा ईंट-आधा खपरैल वाले घर के दरवाज़े के बग़ल में अलकतरे से एक लंबा तीर खींचा गया था, जिसके नीचे लिखा था, ‘यह कोठा नहीं, शरीफ़ों का घर है।’ तीर की बनावट में कुछ ऐसा था जैसे खुले दरवाज़े की ओर बढ़ने में वह हिचकिचा रहा हो और शरीफ़ों में छोटी की मात्रा लगी थी। घर के आगे एक भैंस बंधी थी जो आतुर भाव से इस लिखावट को ताक रही थी। फ़ोटो के नीचे इटैलिक, बोल्ड अक्षरों में कैप्शन था—‘ताकि इज़्ज़त बची रहेः बदनाम बस्ती में आने वाले मनचले अब पड़ोस के मुहल्लों के घरों में घुसने लगे हैं। लोगों ने अपनी बहू बेटियों के बचाव का यह तरीक़ा निकाला है। महुवाडीह में इन दिनों क़रीब साढ़े तीन सौ नगर-वधुएँ हैं।’

    सी. अंतरात्मा ही प्रकाश को लेकर वहाँ गए थे। दोनों को अफ़सोस था कि अंदर के पेज पर काले-सफ़ेद में छापकर इतने अच्छे फोटों की हत्या कर दी गई है।

    काशी की संस्कृति के गलेबाज़ कहा करते थे कि यहाँ के अख़बार आज भी बहन-बेटी का संबंध बनाए बिना वेश्याओं तक की चर्चा नहीं करते। यह आचार्य चतुरसेन के ज़माने की भाषा की जूठन बची हुई थी। वे अपहरण को बलान्नयन, बलात्कार को शीलभंग, पुलिस की गश्त को चक्रमण और काकटेल पार्टी को पान—गोष्ठी लिखते थे। धोती वाले संपादक ही नहीं प्रूफ़ रीडर, पेस्टर, टाइपराइटर और टेलीप्रिंटर भी विदा हो चुके थे लेकिन सूट के नीचे जनेऊ की तरह अख़बरों के व्यक्तित्व में ये शब्द छिपे हुए थे, और कई लक्षणों के साथ इस भाषा से भी अख़बारों की आत्मा की थाह मिलती थी।

    रोज़ की तरह उस दिन भी बयालीस साल के संवाददाता सी. अंतरात्मा अपनी खटारा स्कूटर से जिसके आगे पीछे की नंबर प्लेटों के अलावा स्टेपनी पर भी लाल रंग से प्रेस लिखा था, शाम को चीरघर गए। लाशों का लेखा-जोखा उनका रूटीन असाइमेंट था। उन्होंने चौकीदार को चाय पिलाई, एक बीड़ा पान खिलाया, ख़ुद भी जमाया और काग़ज़ क़लम निकालकर इमला घसीटने लगे। मर्चुरी में उस दिन आई लाशों के नाम, पते, मृत्यु का कारण और कुछ क़िस्से नोट कर दफ़्तर लौट आए। उन्होंने रिपोर्टिंग-डेस्क से पुलिस के भेजे क्राइम बुलेटिन का पुलिंदा, निंदा, बधाई, चुनाव, मनोनयन, की विज्ञप्तियाँ बटोरीं और अख़बार के सबसे उपेक्षित कोने में जाकर बैठ गए। रात साढ़े दस तक वह मारपीट, चेन छिनैती, स्मैक बरामदगी, आलानक़ब और प्रथम सूचना रपट दर्ज की सिंगल कॉलम ख़बरें बनाते रहे। ग्यारह बजे क्राइम रिपोर्टर को ये ख़बरें सौंपकर वे सीनियरों को पालागन के दैनिक राउंड पर निकलने ही वाले थे कि उसने पूछा, ‘यह लवली त्रिपाठी कौन हैं जानते हैं?’

    ‘सल्फास खाकर आई थी, किसी अफ़सर की बीबी है, पोस्टमार्टम तुरंत हो गया अब तो दाह संस्कार भी हो चुका होगा।’ उन्होंने बताया।

    ‘और यह रमाशंकर त्रिपाठी, आईपीएस कौन है?

    उन्होंने सिर खुजलाया। मतलब था, आप ही बताइए कौन हो सकते हैं।

    क्राइम रिपोर्टर बमक गया, अरे बुढ़ऊ रात ग्यारह के ग्यारह बज रहे हैं। चार घंटे से चूतड़ के नीचे डीआईजी की बीबी की आत्महत्या की ख़बर दबाए बैठे हो और अब सिंगल कालम दे रहे हो। कब सुधरोगे। कब डेवलप होगी, कब जाएगी, यह कब छपेगी। सी. अंतरात्मा की घुन्नी आँखें चमकीं, ज़रा ज़ोर से बोले हम क्या जानें, हम तो समझे थे कि आपको पहले से पता होगा। प्रकाश ने भी जानकारी दी कि अंतिम संस्कार की फ़ोटो भी है, तीन बजे मणिकर्णिका घाट पर हुआ था।

    कोई जवाब देने के बजाय रिपोर्टर ने लपककर ख़ाली पड़े एक टेलीफ़ोन को गोद में उठा लिया। पौन घंटे तक सिपाही, दरोग़ा, ड्राइवर, नर्सिंग होम की रिसेप्शनिस्ट की मनुहार करने के बाद उसने पूरा ब्यौरा जुटा लिया। ख़बर का इंट्रो कम्प्यूटर में फ़ीड करने के बाद उसने सी. अंतरात्मा को बुलवाया जो दफ़्तर के बाहर पान की दुकान पर अपनी मुस्तैदी और क्राइम रिपोर्टर की चूक की शेख़ी बघार रहे थे। उसने उनकी ड्यूटी रात डेढ़ बजे तक के लिए डीआईजी के बंगले के बाहर लगा दी। अंतरात्मा जानते थे कि बंगले बाहर अब कुछ नहीं मिलना है, इसलिए उन्होंने जी भईया जी कहा और अपने घर चले गए।

    डीआईजी की बीबी सुंदर थी, सोशियोलाइट थी, शहर की एक हस्ती थी। उसने भरी जवानी में आत्महत्या क्यों की। इसके बारे में सिर्फ़ क़यास थे। एक क़यास यह था कि डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के अवैध संबंध किसी महिला पुलिस अफ़सर से थे, जिसके कारण उसने जान दे दी। लेकिन इस क़यास को किसी ने गॉसिप के कालम में भी लिखने की हिम्मत नहीं की, डर था कि तूफ़ान से भी तेज़ रफ़्तार उन जीपों की शामत जाएगी जो रात में अख़बार लेकर दूसरे जिलों में जाती थीं। तब पुलिस अवैध ढंग से सवारी लादने के आरोप में उनका चालान करती, थाने में खड़ा कराती। एक घंटे की भी देर होती तो सेंटर तक पहुँचते-पहुँचते अख़बार रद्दी काग़ज़ हो जाता। प्रतिद्वंद्वी अख़बारों की बन आती। ऐसे समय क्राइम रिपोर्टर को ही पुलिस के बड़े अफ़सरों से चिरौरी कर जीपें छुड़ानी पड़ती थीं। मोटी तनख़्वाह पाने वाले किसी कॉरपोरेटिया मैंनेजर के पास इस देसी हथकंडे से निपटने का कोई ऊपाय नहीं था।

    लवली त्रिपाठी, छवि की क्लाइंट थी जिसे वह अपनी दोस्त कहना पसंद करती थी। छवि यूनिवर्सिटी से ब्यूटीशियन का कोर्स करने के बाद अपने बूढ़े, बीमार पिता के असहाय विरोध के बावजूद घर के एक कमरे में व्यूटी पार्लर चलाती थी। डीआईजी की पत्नी से उसकी मुलाक़ात यूनिवर्सिटी की एक मेंहदी एंड फ़ेशियल कंपटीशन में हुई थी जिसकी वह चीफ़ गेस्ट थीं। अक्सर लवली त्रिपाठी के घर जाने के कारण वह जानती थी कि उसका सोशियोलाइट होना पति की उपेक्षा से त्रस्त आकर, दिन काटने की मजबूरी थी क्योंकि डीआईजी ने कह रखा था कि वह जहाँ चाहे मुँह मार सकती है या जब चाहे मर सकती है। लवली की दोस्त बनने की प्रक्रिया में छवि को एक नए तरह के फ़ेशियल का आविष्कार करना पड़ा जिससे घूँसों से बने नील और तमाचों के निशान ख़ूबसूरती से छिपाए जा सकते थे। वह लगातार प्रकाश से कह रही थी कि अपराध की फ़र्ज़ी कहानियाँ रचने के माहिर डीआईजी ने ही लवली की हत्या की है और उसे फाँसी मिलनी चाहिए।

    प्रकाश और छवि के तीन साल पुराने प्यार में लवली त्रिपाठी अक्सर तनाव लेकर आती थी जिसके झटके से वह आगे बढ़ता था। प्रकाश को लगता था कि लवली जैसी संपन्न, निठल्ली औरतों के प्रभाव में आकर ही वह कहा करती है कि वह प्रेस फ़ोटोग्राफ़ी छोड़कर मॉडलों के फ़ोटो खींचे और फ़ैशन-फ़ोटोग्राफ़र बन जाए तभी उसकी कला की क़द्र होगी और पैसे भी कमा पाएगा। छवि जानती थी कि यह सुनकर उसके भीतर के जर्नलिस्ट उर्फ़ वाच डॉग को किलनियाँ लगती हैं, तब यह सलाह आती है कि अगर वह तमाचों के निशान छिपाने की मेकअप कला का पेटेंट करा ले तो करोड़ों महिलाएँ उसकी क्लाइंट हो जाएँगी और टूटते परिवारों को सुंदर और सुखी दिखाने के अपने हुनर के कारण वह इतिहास में अमर हो जाएगी। समझौता यहाँ होता था कि कृपा करके अपनी-अपनी सलाहें उन बच्चों के लिए बचा कर रखीं जाएँ जो भविष्य में पैदा होने हैं और अभी इस तरह से प्यार किया जाए कि वे पैदा होने पाएँ।...क्योंकि शादी होने में अभी देर है।

    प्रकाश के पास एक लवली त्रिपाठी की एक सहेली थी जो डीआईजी और उसके झगड़ों की प्रत्यक्षदर्शी थी और खुलेआम डीआईजी की फाँसी की माँग भी कर सकती थी। लेकिन प्रकाश उसे किसी जोखिम में नहीं डालना चाहता था। उसने भी और पत्रकारों की तरह अपने प्रोफ़ेशन और निजी जीवन को अलग-अलग जीना सीख लिया था क्योंकि दोनों का घालमेल इस नाज़ुक से रिश्ते को तबाह कर सकता था। फिर भी छवि को दुखी, परेशान देखकर उसने वादा किया कि इस मामले में सच सामने लाने के लिए उससे जो बन पड़ेगा ज़रूर करेगा।

    बिना पुख़्ता सबूत के हाथ डालना ख़तरनाक था। लेकिन इस सनसनीख़ेज़ मुद्दे को छोड़ा भी तो नहीं जा सकता था। इसलिए रिपोर्टरों को लवली त्रिपाठी के मायके दौड़ाया गया, उसकी सहेलियों को कुछ याद करने के लिए उकसाया गया, समाजसेवियों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर रौशनी डालने के लिए कहा गया। प्रकाश ने एक स्टूडियो से डीआईजी की फ़ैमिली अलबम की कुछ पुरानी तस्वीरों का जुगाड़ किया। कुछ चर्चित आत्महत्याओं का ब्यौरा जुटाया गया और लच्छेदार शब्दों में ह्यूमन एँगिल समाचार कथाओं का सोता पन्नों से फूट निकला। समाचार चैनलों पर भी यही कुछ, ज़रा ज़ियादा मसालेदार ढंग से रहा था।

    आप कौन सा मसाला खाती थीं मेम साहेब

    एक हफ़्ते बाद सिर मुड़ाए डीआईजी का बयान आया कि यह आत्महत्या नहीं, महज़ एक दुर्घटना थी। उनकी पत्नी पान मसाले की शौक़ीन थीं। बिजली जाने के बाद अँधेरे में उन्होंने पान मसाला के धोखे में, घर में पड़ा सल्फ़ास खा लिया था। साथ ही ख़बर आई कि लवली त्रिपाठी के पिता ने डीआईजी पर अपनी बेटी को प्रताड़ित करने आत्महत्या के लिए उकसाने का मुक़दमा किया है और अदालत जाने वाले हैं।

    क्राइम रिपोर्टर यह ख़बर फ़ीड कर रहा था और सी. अंतरात्मा पान का चौघड़ा थामे पीछे खड़े थे तभी एक चपरासी कंप्यूटर की स्क्रीन देखते हुए ख़ुद से कहने लगा, ‘आप कौन सा मसाला खाती थीं मेम साहेब। सल्फ़ास की गोली उँगली जितनी मोटी होती है और पान मसाला एकदम चूरा। ग़ज़ब हैं आप जो सूई के छेद से ऊँट पार करवा रही हैं।’

    अचानक डीआईजी के ससुर ने सारी परिस्थितियों पर ग़ौर करने और सदमे पर क़ाबू पाने के बाद अपनी एफ़आईआर वापस ले ली। उन्होंने भी अपनी बेटी की मौत को अँधेरे में हुई दुर्घटना मान लिया। पुलिस ने इस मामले की फ़ाइल बंद कर दी और डीआईजी लंबी छुट्टी पर चले गए।

    जानते बूझते मक्खी निगलनी पड़ी थी। रुटीन की संपादकीय बैठकों में कभी नहीं आने वाले प्रधान संपादक आए, उनसे नीचे के स्थानीय, असोसिएट और समाचार संपादकों ने रिपोर्टरों को झाड़ा कि वे एकदम काहिल, कामचोर और धंधेबाज़ हैं। उन्हें अख़बार की कम, अफ़सरों से अपने संबंधों की चिंता ज़ियादा है, इसीलिए वे अपने ढंग से तथ्य और सबूत खोजकर लाने के बजाय पुलिस की कहानी सुनकर संतुष्ट हो गए। रिपोर्टरों में संपादकों की झाड़ सुनने और बहाने गढ़ने की अद्भुत क्षमता होती हैं। ये बहाने अख़बार की गति से उपजते हैं। उन्हें पता होता है कि बहानों समेत यहाँ सब कुछ अगले दिन पुराना, बासी, व्यर्थ हो जाता है। उन्होंने एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया। हर दिन नई घटनाएँ और नई ख़बरें थी, कौन एक लवली त्रिपाठी को याद रखता।

    एक महीने बाद, डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी छुट्टी से लौटे तो बिल्कुल बदल गए थे। वे दफ़्तर में आरती के इलेक्ट्रानिक दीपों से सज्जित मैहर देवी की तस्वीर के आगे माथे पर त्रिपुंड लगाकर बैठने लगे। शहर के कई मठों, मंदिरों में जाना बढ़ गया और साधु-संत रोज़ दफ़्तर और घर में फेरा डालने लगे। उनका एकरस, खाकी कार्यालय अचानक रंगीन और सुगंधित हो गया। उन्होंने अपनी पत्नी की स्मृति में शहर के मुख्य चौक गोदौलिया पर एक प्याऊ लगवाया। शहर में उसकी स्मृति में बेसहारा महिलाओं और बच्चों के लिए दो-तीन संस्थाएँ बन चुकी थीं। जिनके संरक्षक धर्मरक्षक रमाशंकर त्रिपाठी थे। धर्मरक्षक की उपाधि उन्हें इन संस्थाओं के प्रमुखों ने दी थी। छुट्टी के दौरान उन्होंने पुलिस की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए सामान्य ज्ञान की एक किताब लिखी थी। इस किताब में कंप्यूटर का पहला उपयोग यह बताया गया था कि यह उपकरण सफल दांपत्य में सहायक है क्योंकि यह विवाह के पूर्व कुंडली एवं नक्षत्रों के मिलाने और कालगणना के काम आता है। इस किताब को सभी थानेदार अपने-अपने हलक़ों में बुक स्टालों पर कोटा बाँधकर बिकवा रहे थे।

    सारा पसीना नौकरी चलाने वाली रुटीन ख़बरों के लिए बहाया जाता है, बड़ी ख़बरें अपने आप चलकर अख़बारों, चैनलों तक आती हैं। वे परस्पर विरोधी स्वार्थो के टकराहट से चिनगारियों की तरह उड़ती, भटकती रहती है और एक दिन बुझ जाती हैं। एक शाम एक बीमा कंपनी का एक मरियल सा क्लर्क तथ्यों और सबूतों के साथ ख़बर लाया कि पुलिस ने भले ही मामला दाख़िल दफ़्तर कर दिया हो लेकिन बीमा कंपनी इसे दुर्घटना नहीं मानती। लवली त्रिपाठी की मौत के कारणों की जाँच एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी से कराई जा रही है। डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी ने ससुर के हलफ़िया बयान के साथ अपनी पत्नी के बीमे की बीस लाख की रक़म के लिए दावा किया था। जिसके तुरंत बाद यह जाँच शुरू हुई थी।

    प्रकाश को यह बूढ़ा कभी-कभार एक सस्ते बार में मिला करता था और दो पैग के बाद पीछे पड़ जाता था कि वह एक पॉलिसी ले ले ताकि उसे बीमा एजेंट बेटे का टॉरगेट पूरा हो सके। प्रकाश उससे हमेशा यही कहता था कि फोकट की दारू पीने वाले उस जैसे पत्रकारों को इतने पैसे नहीं मिलते कि वे बीमा का प्रीमियम भर सकें लेकिन कई साल बाद भी बूढ़े ने अपनी रट नहीं छोड़ी।

    पुष्टि की गई तो ख़बर बिल्कुल सही थी। लेकिन बीमा कंपनी का कोई अधिकारी इस ख़बर के साथ अपना नाम देने को तैयार नहीं था। वह मरियल क्लर्क ऐसी ख़बर लाया था जिसे वाक़ई स्कूप कहते हैं, दो दिन की पड़ताल और स्पेड वर्क के बाद उसे छापना तय किया गया। लेकिन जिस दिन ख़बर कंपोज़ हुई, पता नहीं कैसे लीक होकर डीआईजी तक जा पहुँची फिर मोबाइल फोनों की तरंगें ख़बर की गर्दन पर लिपटने लगी। डीआईजी ने राजधानी में एक मंत्री और फिर पुलिस महानिदेशक को कातर भाव से सैल्यूट बजाया। इन तीनों ने अख़बार के दो डाइरेक्टरों को मुंबई फ़ोन लगाया। डाइटेक्टरों के आपस में बात की फिर प्रधान संपादक को तलब किया। प्रधान ने स्थानीय संपादक को फ़ोन किया। स्थानीय ने अस्सिटेंट को असिस्टेंट ने न्यूज़ एडीटर को, न्यूज़ एडीटर ने ब्यूरो चीफ़ को ब्यूरो चीफ़ ने सिटी चीफ़ को ख़बर रोकने के लिए आदेश दिया। इतनी सीढ़ियों से लुढ़कती यह आशंका आई कि यह ख़बर आपसी स्पर्धा में किसी बीमा कंपनी ने इस बीमा कंपनी को बदनाम करने के लिए प्लांट कराई है। इसलिए इसे कुछ दिन तक रोककर स्वतंत्र ढंग से जाँच-पड़ताल की जाए। प्रकाश के पास मणिकर्णिका घाट की ज़मीन पर बैठकर सिर मुड़ाते डीआईजी की फ़ोटो भी थी, जिसका कैप्शन ‘सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े’ उसने पहले से ही तय कर रखा था लेकिन ओले अब फ़ोटो से बाहर छिटक कर कहीं और पड़ रहे थे।

    उसी शाम बुर्क़े में चेहरा ढके एक अधेड़ औरत लगातार पान चबाते एक किशोर के साथ तीन घंटे से दफ़्तर के बाहर खड़ी थी। वह एक ही रट लगाए थी कि उसे अख़बार की फ़ैक्ट्री के मालिक से मिलना है। दरबान से उसे कई बार समझाया कि यह फ़ैक्ट्री नहीं है और यहाँ मालिक नहीं, संपादक बैठते हैं, वह चाहे तो उनसे जाकर मिल सकती है। औरत जिरह करने लगी कि ऐसा कैसे हो सकता है कि अख़बार का कोई मालिक ही हो और उसे तो उन्हीं से मिलना है। आते-जाते कई रिपोर्टरों ने उससे पूछा कि उसकी समस्या क्या है लेकिन वह कुछ बताने को तैयार नहीं हुई। रट लगाए रही कि उसे मालिक से मिलना है। काम भी कुछ नहीं है, बस सलाम करके लौट जाएगी। सी. अंतरात्मा की की नज़र उस पर पड़ी तो देखते ही भड़क गए, ‘तुम यहाँ कैसे, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई प्रेस में आने की, भागो चलो यहाँ से। हद है अब यहाँ भी...।’ घबराई हुई वह औरत लड़के का हाथ पकड़कर तेज़ी से निकल गई। वह सी. अंतरात्मा के मोहल्ले की औरत थी और वे उसे अच्छी तरह पहचानते थे।

    प्रकाश इस तरह हाथ में आई कामयाबी के हताशा में बदल जाने के खेल का आदी थी। वह उस नज़रबंद को पहचानने लगा था कि जिससे के चलते बीसियों स्कैंडल, घोटाले और रहस्य ऐसे थे जो सबको पता थे लेकिन नज़रअंदाज़ किए जाते थे। उन पर दिमाग़ लगाने को अबोध, लौंडपन समझा जाता था लेकिन आज उसे समझ नहीं रहा था कि छवि को कैसे समझाएगा। सॉरी, मैं तुम्हारी दोस्त के लिए कुछ नहीं कर पाया के जवाब में आँसुओं से रूंधी आवाज़ में छवि ने कहा, ये अख़बार और चैनल मदारी की तरह ख़ुद को सच का ठेकेदार क्यों बताते हैं। साफ़ कह क्यों नहीं देते कि उन्हें डीआईजी जैसे ही लोग चलाते हैं।

    लंबी चुप्पी के बीच 'सत्य का मदारी' को कई बार उसने थूक के साथ गुटका। वह सोच रहा था कि क्या सचमुच उसके फैशन फ़ोटोग्राफ़र बनने का समय गया है कम से कम तब उसे उन भ्रमों से तो छुटकारा मिल जाएगा जो उसे कभी-कभार सच साबित हो कर उसका रास्ता रोक लेते हैं। अचानक छवि ने कहा कि चलो तुमने मरने के बाद ही सही लवली से चिढ़ना तो बंद कर दिया लेकिन फ़ोटोग्राफ़ी के बहाने मॉडलो के बीच रासलीला के मंसूबे मत पालो। प्रकाश चौंक गया कि किस सटीक तरीक़े से वह उसके सोचने के ढंग को ट्रैक करने लगी है।

    मठ, खंजन चिड़िया, मिस लहुराबीर

    डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के भव्य, फ़ोटोजेनिक, रिटायर्ड आईएएस पिता परिवार की प्रतिष्ठा, बेटे के कैरियर की चिंता के आवेग से मठों, अन्नक्षेत्रों और आश्रमों की परिक्रमा करने लगे। बनारस में ब्रिटिश ज़माने के भी पहले से अफ़सरों और मठों का रिश्ता टिकाऊ, उपयोगी और विलक्षण रहा है। कमिश्नर, कलेक्टर, कप्तान आदि पोस्टिंग के पहले दिन काशी के कोतवाल कालभैरव के आगे माथा नवाकर मदिरा से उनका अभिषेक करते हैं। जो दुनियादार, चतुर होते हैं वे तुरंत किसी किसी शक्तिपीठ में अपनी आस्था का लंगर डाल देते हैं, क्योंकि वहाँ अहर्निश परस्पर शक्तिपात होता रहता है।

    इन शक्तिपीठों में देश भर के ‘हू इज़ हू’ नेता, उद्योगपति, व्यापारी, माफ़िया, मंत्री भक्त या शिष्य के रूप में आते हैं और वे अपने गुरुओं के लिए कुछ भी करने को आतुर रहते हैं। अफ़सरों की तरक़्क़ी, तबादला, विरोधियों का सफ़ाया, ख़ुफ़िया जाँच रपटों का निपटारा सारे काम गुरुओं के एक संकेत से हो जाते हैं। इसके बदले वे महंतों, ज्योतिषाचार्यों, तांत्रिकों, वास्तुशास्त्रियों और प्राच्यविद्या के ज्ञाताओं की इच्छाओं को आदेश मानकर पालन करते हैं क्योकि वह प्राणिमात्र के कल्याण के लिए किया गया धार्मिक कार्य होता है। नौकरशाही और धर्म का यह संबंध अरहर और चने के पौधों जैसा अन्योनाश्रित है। दोनों एक दूसरे को पोषण, समृद्धि और जीवन देते हैं। छोटे-मोटे संत की मान्यता पा चुके उस वक़्त के कमिश्नर ने एक मठ को अपना कैंप कार्यालय बना लिया था और सरकारी ओदश के अनुपालन में बनारस को विश्व धरोहर घोषित करने की अर्जी यूनेस्को में डाल रखी थी जिसकी पैरवी के लिए वे हर महीने अमेरिका जाते थे। मठ में आने वाले विदेशियों, प्रवासी भारतीयों, उद्योगपतियों और सेठों को महंत की कृपा से काशी के विकास में धन लगाने के लिए प्रेरित कर एक अरब से अधिक रुपया इकट्ठा कर चुके थे। यह काम आज तक कोई अधिकारी नहीं कर पाया था।

    जिनसे मान्यता, गरिमा और शक्ति मिलती है, शक्तिपीठें उन्हें अपने क़रीब और क़रीब बुलाती हैं। धर्म की छतरी के नीचे यहाँ, आधुनिक और पुरातन, वैराग्य और ऐश्वर्य, धंधे और अध्यात्म, सहजता और तिकड़म ईश्वर की उपस्थिति में इस कौशल से आपस में घुल मिल जाते हैं कि कहीं कोई जोड़ नज़र नहीं आता। जो जितने शक्तिशाली और संपन्न दिखते हैं उनकी आत्मा उतनी ही खोखली और असुरक्षित होती जाती है। ऐसे लोगों को अभय और आश्वस्ति का नैतिक संबल देने वाला यह शहर बनारस चुंबक की तरह खींचता है। भौतिक चीज़ों की कामना करते, दुखी साधारण लोग इन शक्तिपीठों को आस्था देते हैं और बदले में सूखा आशीर्वाद पाते हैं। यह खाँटी आध्यात्मिक लेन-देन होता है। शक्तिशाली लोगों के आस्था निवेदित करते ही यह लेन-देन भौतिक हो जाता है और वे इन शक्तिपीठों के सबसे सुरक्षित गोपन रहस्यों में बराबर के साझीदार हो जाते हैं।

    यूँ ही ईश्वर ने फ़ुर्सत के एक दिन डीआईजी के भव्य फ़ोटोजेनिक, बूढ़े बाप की आर्त पुकार सुन ली। अक्टूबर के महीने में अचानक खंजन चिड़ियाँ छतों पर फुदकने लगीं और अख़बार के चितकबरे पन्नों पर स्टोरी सीरिज़ ‘कहानी बदनाम बस्ती की’ नाचने लगी।

    नैतिकता के सन्निपात में डूबते-उतराते दो रिपोर्टर, गाईड सी. अंतरात्मा के पीछे-पीछे घूमते हुए मंड़ुवाडीह, शिवदासपुर के मोहल्लों और गाँवों को खंगालने लगे। ख़बरें छपने लगीं कि नगर वधुओं के कारण आसपास के मोहल्लों की लड़कियों की शादियाँ नहीं हो या रही हैं, कईयों के तलाक़ हो चुके हैं, कई मायके आने को तरस रही हैं, भाइयों की कलाईयाँ और सावन के झूले सूने पड़े हैं। लोग गाँव, मोहल्ले का नाम छिपाकर रिश्ते जोड़ने की चालाकी करते हैं लेकिन असलियत पता चल ही जाती है। तब मंडप उखड़ते हैं, बारात लौटती है। बत्तीस साल की बीए पास सरला को शादी के नाम से नफ़रत हो गई है और अब उसे द्वाराचार के गीत सुनकर हिस्टीरिया के दौरे पड़ते हैं। शिवदासपुर में पान की दुकान लगाने वाले राजेश भारद्वाज की शादी पाँच बार टूटी, छठी बार जौनपुर के त्रिलोचन महादेव मंदिर में चोरी से विवाह हुआ, पोल खुल गई। लड़की की विदाई रोककर, कहीं और शादी कर दी गई। नाते-रिश्तेदार हालचाल लेने तक गांव में नहीं सकते, उन्हें दलाल जबरन कोठों में खींच ले जाते हैं, वेश्याएँ-भडुए-गुंडे उनका मालमत्ता छीन लेते हैं। जान बचा कर निकले तो पुलिस घड़ी-अंगूठी बटुआ छीन लेती है। शर्म के मारे किसी से कुछ कह भी नहीं सकते। शाम ढलते ही शराबी घरों में घुसकर बहू बेटियों के हाथ पकड़कर खींचने लगते हैं। यह कि जलालत से बचने के लिए लोग अपने मकान औने-पौने बेचकर भाग रहे हैं। कई तो अपने घर वैसे ही ख़ाली छोड़कर शहर के दूसरे इलाक़ों में किराए के मकानों में रहने लगे हैं। अख़बार के पन्नों पर काले अक्षरों में इन लाचार लोगों की पीड़ा और उनके बीच की ख़ाली सफ़ेद जगह में वेश्याओं के प्रति नफ़रत छलछला रही थी। ख़बरों को विश्वसनीय बनाने के लिए प्रकाश को ढेरों ढहती खपरैल वाले, भुतहे मकानों की फ़ोटों खींचनी पड़ी जो वैसे भी रहने के लायक़ नहीं रह गए थे।

    तो बहनों, धंधा बंद

    मंड़ुवाडीह के आसपास के गाँवों—मोहल्लों से लोकल नेताओं के बयान और अफ़सरों के पास ज्ञापन आने लगे कि वेश्याओं को वहाँ से तुरंत हटाया नहीं गया तो वे आंदोलन करेंगे। आंदोलन से प्रशासन नहीं सुनता तो वे ख़ुद खदेड़ देंगे। रातों रात कई नए संगठन बन गए, राजनीति के कीचड़ में कुमुदिनी की तरह अचानक उभरी एक सुंदर और गदबदी महिला नेता स्नेहलता द्विवेदी आस-पास के इलाक़ों का दौरा कर औरतों को गोलबंद करने लगीं। उनका कहना था कि वे जान दे देंगी लेकिन काशी के माथे से वेश्यावृत्ति का कलंक मिटाकर रहेंगी। कई रात बैठकें और सभाएँ करने के बाद वे एक दिन कई गाँवों की महिलाओं को लेकर कचहरी के सामने की सड़क पर धरने पर बैठ गईं। तैयारी लंबी थी, यह धरना पहले क्रमिक फिर महीनों चलने वाले आमरण-अनशन में बदल जाने वाला था।

    डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के खिचड़ी बालों की खूँटियों में कंधी फेरने के दिन आने में अभी देर थी लेकिन वह दुर्लभ क्षण सामने था। अपने धार्मिक पिता की इच्छा पूरी करने और अपनी दाग़दार छवि धुलने का सही समय गया था। अचानक एक दिन वे लाव-लश्कर के साथ दोपहर में मंडुवाडीह बस्ती पहुँचे और सबको बुलाकर ‘आज से धंधा बंद’ का फ़रमान सुना दिया। उन्होंने सरकार की ओर से ऐलान किया, धर्म और संस्कृति की राजधानी काशी के माथे पर वेश्यावृत्ति का कलंक बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वेश्याएँ शहर छोड़ दें। उनके जाते ही मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती से गुज़रने वाली सड़क के दोनों छोरों पर पुलिस पिकेट लगा दी गई। शामों को बस्ती की तरफ़ लपकने वालों की ठुकाई होने लगी। नियमित कस्टमर सड़कों के किनारे मुर्ग़ा बने नज़र आने लगे। जो सिपाही रोज़ कोठों पर मुँह मारते थे, उनके मुँह लटक गए। थाने के बूढ़े दीवान ने ख़िज़ाब लगाना बंद कर दिया। घुँघरूओं की खनक, रूप की अदाएँ, पियक्कड़ों की बकबक, दलालों का कमीशन और पुलिस का हफ़्ता सब हवा हो गए। मंडुवाडीह के कर्फ़्यू जैसे माहौल में अख़बार काजल और लिपिस्टिक से ज़ियादा ज़रूरी चीज़ हो गया।

    अख़बार के सर्कुलेशन में हल्का उछाल आया। उस हफ़्ते अख़बार की स्टियरिंग कमेटी की मीटिंग में यूनिट मैंनेजर ने अपनी रिपोर्ट पेश की कि इस स्टोरी सीरीज का लोगों और प्रशासन पर ज़ोरदार असर हुआ है। धार्मिक संस्थाओं के विज्ञापनों का फ़्लो भी बढ़ा है। इसे जारी रखा जानी चाहिए।

    सी. अंतरात्मा अख़बार के उपेक्षित कोने से उठाकर सबसे चौड़ी डेस्क पर लाए गए और अचानक अपने व्यक्तित्व की दीनता को तिरोहित कर बेधड़क, व्यास की भूमिका में गए। वे अपने पड़ोस के मोहल्ले की दिनचर्या, आयोजनों, झगड़ों, अर्थशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र पर धारा प्रवाह, थोड़ा इतराते हुए बोलते जाते। प्रेस के सबसे बेहतरीन, वरिष्ठ लिक्खाड़ उसे लिपिबद्ध करते जाते। प्रकाश ने उन्हें वेश्या-विशेषज्ञ की उपाधि दी लेकिन उसी क्षण, उसके भीतर विचार आया कि दुर्बल अंतरात्मा भूखे साँड़ों को चारा खिला रहे हैं, जैसे ही उनका पेट भरेगा वे उन्हें हुरपेट कर खदेड़ देंगे। अंतरात्मा की जानकारियों में वह सब भी अनायास शामिल हो गया जो कुछ ये लिक्खाड़ बचपन से वेश्याओं के बारे में सुनते, जानते और अपनी कल्पना से जोड़ते आए थे।

    कोठों का एक रंगारंग धारवाहिक तैयार हुआ, जिसका लुब्ब-ए-लुबाब यह था कि ज़ियादातर वेश्याएँ बहुत अमीर, सनकी और कुलीन हैं। कई शहरों में उनकी कोठियाँ, बग़ीचे, कारें, फ़ार्म हाउस और बैकों में लॉकर हैं। वे चाहें तो यह धंधा छोड़कर कई पीढ़ियों तक बड़े आराम से रह सकती हैं लेकिन हर शाम एक नए इश्क़ की आदत ऐसी लग गई है कि वे यह धंधा नहीं छोड़ सकतीं। एक तरफ़ कार्टूनों, इलेस्ट्रेशनों और सजावटी टाइप फेसेज़ से सजा यह रंगीन धारावाहिक था तो दूसरी तरफ़ रूटीन की तथ्यात्मक रिपोर्टें थीं, जिनकी शुरुआत इस तरह होती थी, ‘डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी की पवित्र काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्त कराने की मुहिम रंग ला रही है, आज चौथे दिन भी धंधा, मुजरा दोनों बंद रहे। अब तक कुल छियालीस लोगों को बदनाम बस्ती में घुसने की कोशिश करते पकड़ा गया। इनमें से ज़ियादातर को जानकारी नहीं थी कि धंधा बंद हो चुका है। आइंदा इधर नहीं आने की चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।

    डीआईजी के इस पुण्य काम की चारों ओर प्रशंसा हो रही थी। अख़बारों के दफ़्तरों में संगीतमय, संस्कृतनिष्ठ नामों वाले अखिल जंबूद्वीप विद्धत परिषद, हितकारिणी परिषद, जीव दया हितकारिणी समिति, मानव कल्याण मंडल, स्त्री प्रबोधिनी पुष्करणी, काशी गौरव रक्षा समिति, पराहित सदाचार न्यास, वेद-ब्रह्मांड अध्ययन केंद्र आदि पचासों संगठनों की ‘साधु-साधु’ का निनाद करती विज्ञप्तियाँ बरसने लगीं। कहीं कहीं हर दिन उनका सम्मान और अभिनंदन को रहा था। सी. अंतरात्मा अब इस धन्यवाद से टपकते पुलिंदे को संक्षिप्त करने दोपहर बाद बैठते और देर रात तक निचुड़ कर घर जाते। उनके लिए अलग से आधा पेज तय करना पड़ा क्योंकि यह संपादकीय नीति थी कि सभी विज्ञप्तियाँ और दो-तीन प्रमुख लोगों के नाम ज़रूर छापे जाएँ। जिसका नाम छपेगा, वह अख़बार ज़रूर ख़रीदेगा।

    तीस साल बाद इतिहास ख़ुद को दुहरा रहा था। तब बदनाम बस्ती शहर के बीच दालमंडी में हुआ करती थी। बस्ती नहीं, तब उन्हें तवायफ़ों के कोठे कहा जाता था। वहाँ तहज़ीब थी, मुजरा था, उनके गाए ग्रामोफ़ोन के रिकार्ड थे, किन्हीं एक बाईजी से एक ही ख़ानदान की कई पीढ़ियों के गुपचुप चलने वाले इश्क़ थे। यहीं से कई मशहूर फ़िल्म अभिनेत्रियाँ और क्लासिकी गाईकाएँ निकलीं जिनके भव्य वर्तमान में हेठा अतीत शालीनता से विलीन हो चुका है। वहाँ ज़मींदार, रईस और हुक्काम आते थे। ज़मींदारी और रियासतें जा चुकी थीं फिर भी कोठे की वह तहज़ीब गिरती, पड़ती विद्रूपों के साथ बहुत दिन घिसटती रही। सत्तर के दशक में भयानक ग़रीबी और लड़कियों की तस्करी के कारण वहाँ भीड़ बहुत बढ़ गई। जिन गलियों में रईसों की बग्घियाँ खड़ी होती थी वहाँ लफ़ंगे हड़हा सराय के मशहूर चाकू लहराने लगे। लोगों के विरोध के कारण तवायफ़ों को शहर की सीमा पर मंड़ुवाडीह में बसा दिया गया।

    तवायफ़ों के जाने के बाद वहाँ चीन और बांग्लादेश से आने वाले तस्करी के सामानों का चोर बाज़ार बस गया। अब वहाँ नक़ली सीडी का सबसे बड़ा बाज़ार है। इलेक्ट्रानिक्स के विलक्षण देशी इंजीनियर इन दिनों वहाँ मिलते हैं, जिनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है लेकिन कबाड़ से किसी भी देश की किसी भी मल्टीनेशनल कंपनी के मोबाइल, सीडी प्लेयर, कैमरे और म्युजिक सिस्टम तैयार करके बेचते हैं। अब तक वेश्यावृत्ति एक सुसंगठित, विशाल व्यापार बन चुकी थी। मंड़ुवाडीह में ग़ज़लें, दादरा और टप्पे सुनना तो दूर गेंदे के फूल की एक पत्ती तक नहीं बिकती थी। वहाँ सिर्फ़ निर्मम धंधा होता था जहाँ कारख़ानों के मज़दूरों से लेकर रिक्शेवाले तक ग्राहक थे। ग्लोबल दौर के प्लास्टिक मनी वाले रईसों को अब हाथ में गजरा लपेट कर धूल, सीलन और कूड़े से बजबजाती बदनाम बस्ती में जाने की क़तई ज़रूरत नहीं थी। उन्हें अपनी पसंद के रंग, साइज़ और भाषा की कालगर्लें होटलों, फ़ार्महाउसों और ड्राइंगरूमों में ही मिल जाती थीं। इनमें से कई अपने क़स्बों, शहरों या प्रदेश की सुंदरी प्रतियोगिताओं की विजेता थीं। मिस लहुराबीर से लेकर मिस नार्थ इंडिया तक बस एक फ़ोनकॉल की दूरी पर सजी-धजी इंतिज़ार करती रहती थीं।

    घुँघरू और बुलडोज़र

    धंधा बंद होने के एक हफ़्ते बाद, डीआईजी रामशंकर त्रिपाठी का क़ाफ़िला फिर मंड़ुवाडीह पहुँचा। आगे उनकी बिल्कुल नई हरे रंग की जिप्सी थी। पीछे खड़खड़ाती जीपों में कई थानों के प्रभारी और लाठियों, राइफ़लों से लैस सिपाही थे। सबसे पीछे एक रिक्शे पर माइक और दो भोंपू बंधे हुए थे। शाम को जब यह लाव-लश्कर वहाँ पहुँचा तो मकानों की बत्तियाँ जल चुकी थी। आसमान पर छाते कुहरे के धुँधलके में बदनाम बस्ती के दोनों तरफ़ भरे पानी के गड्ढों के पार एक-एक बुलडोज़र रेंग रहे थे। कोई कंस्ट्रक्शन कंपनी इस खलार ज़मीन को पटवा रही थी। कुहरे में हिचकोले खाते बुलडोज़र बस्ती की तरफ़ बढ़ते मतवाले हाथियों की तरह लग रहे थे।

    एक जीप के बोनट पर मुश्किल से चढ़ पाए एक तुंदियल सिपाही ने माइक से ऐलान किया, ‘मानव-मंडी के सभी बाशिंदे फ़ौरन यहाँ जाएँ, डीआईजी साहब उनसे बात करेंगे, उनकी समस्याएँ सुनेंगे और उनका निदान करेंगे।’ मंड़ुवाडीह थाने में मानव-मंडी बाक़ायदा एक बीट थी और एक रजिस्टर में वहाँ रहने वाले सभी लोगों के नाम पते और अतीत दर्ज था। नए आने और जाने वालों का रिकार्ड भी उसमें रखा जाता था। रेड लाइट एरिया के देसी विकल्प के रूप में सब्ज़ी मंडी, गल्ला मंडी, बकरा मंडी के तर्ज़ पर रखा गया यह नाम कितना सटीक था। मानव देह ही तो बिकती थी, वहाँ। चेतावनी की लालबत्ती जलती तो कभी देखी नहीं गई। नगर वधुओं को बुलाने के लिए सिपाहियों का एक जत्था बस्ती में घुस गया। थाने के ये वे सिपाही थे जो इन मकानों की एक-एक ईंट को जानते थे। वेश्याओं ने सोचा था कि धंधा बंद कराना, पुलिस की हफ़्ता बढ़वाने की जानी पहचानी क़वायद है। आमतौर पर थानेदार एक आध कोठे पर छापा डालता, दो चार दलालों से लप्पड़-झप्पड़ करता। कोई लड़की पकड़ कर थाने पर बिठा ली जाती और तय-तोड़ हो जाता था। लेकिन डीआईजी ख़ुद दूसरी बार आए थे। उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि इस बार मामला गंभीर है।

    सबसे पहले बच्चे आए। उनके साथ एक युवक आया, जिसने दो साल पहले उन्हें पढ़ाने के लिए बस्ती में स्कूल खोला था। बच्चे उसे मास्टर साहब कहते थे। पीछे बस्ती के दुकानदार, साज़िंदे, भड़ुए, सबसे बाद में वेश्याएँ आईं। इतनी भीड़ हो गई कि उसमें अचानक गुम हो गए डीआईजी की फ़ोटो खींचने के लिए प्रकाश को एक मकान की छत पर चढ़ना पड़ा। भीड़ के बीच छोटे से घेरे में, चार पाँच बूढ़ी औरतें और उनकी नक़ल करते बच्चे, बलैया लेते हुए, गिड़गिड़ाते हुए, नाटकीय ढंग से डीआईजी के पैरों की तरफ़ लपक रहे थे। सिपाही उन्हें डाँटते हुए आगे बढ़ते, वे उनसे पहले ही तपाक से वापस अपनी जगह चले जाते थे। एक चाय की दुकान से लाए गए बेंच पर, हाथों में माइक थामकर डीआईजी खड़े हुए तो सन्नाटा खिंच गया। बस्ती के किनारों पर रेंगते बुलडोज़रों की गड़गड़ाहट फिर सुनाई पड़ने लगी। उन्होंने कहा ‘भाईयों और बहनों।’ बहनों के ‘ओं’ में जैसे कोई चुटकुला छिपा था, भीड़ हँसने लगी, वेश्याएँ हँसते-हँसते एक दूसरे पर गिरने लगीं।

    उन्होंने गला साफ़ करके कहीं दूर देखते हुए कहना शुरू किया, प्रशासन को मानव मंडी के बाशिंदों की समस्याओं का पूरा ध्यान है, वेश्यावृत्ति ग़ैर-क़ानूनी है इसलिए उस पर सख़्ती से रोक लगा दी गई है। मंड़ुवाडीह थाने में अलग से एक सेल खोला गया है। आप लोग वहाँ जाकर सरकारी लोन के लिए आवेदन करें। आप लोगों को छूट के साथ, कम ब्याज़ पर भैंस, सिलाई-मशीन, अचार-पापड़ का सामान दिलाया जाएगा। अपना रोज़गार शुरू करें, जो काम करने के लायक़ नहीं हैं, उन्हें नारी संरक्षण गृह भेज दिया जाएगा ताकि आप लोग यह बेइज़्ज़ती का पेशा छोड़कर सम्मान के साथ...। सरकार के नारी संरक्षण गृह का नाम सुनकर वेश्याएँ फिर आपस में ठिठोली करने लगी। डीआईजी ने अपने फालोअर को डपटा, जाओ पता करो, वे क्या कह रही हैं। फालोअर थोड़ी देर वेश्याओं के बीच जाकर हँसता रहा लेकिन पलटते ही उसका चेहरा पहले की तरह सख़्त हो गया। लौटकर अटेंशन की मुद्रा में खड़ा होकर बोला, ‘सर, कहती हैं फ़्री में समाज सेवा नहीं करेंगे।’

    डीआईजी समझ नहीं पाए, वेश्याओं ने सिपाही से कहा था कि संरक्षण गृह जाने से बेहतर तो जेल है क्योंकि वहाँ फ़्री में समाज सेवा करनी पड़ती है। कुछ दिन पहले संरक्षण गृह में संवासिनी कांड हुआ था। वहाँ की सुपरिटेडेंट नेताओं, अफ़सरों और अख़बारी भाषा में सफ़ेदपोश कहे जाने वाले लोगों को लड़कियाँ सप्लाई करती थीं। जब यह मामला खुला तो एक के बाद एक मारकर पाँच लड़कियाँ ग़ायब कर दी गईं। ये वे लड़कियाँ थी जिन्होंने मुँह खोला था। इन दिनों सीबीआई इस मामले की जाँचकर रही थी।

    भीड़ के पीछे एक बुढ़िया ग़श खाकर गिर पड़ी थी। झुर्रियों से ढके उसके चेहरे पर सिर्फ़ बेबस खुला मुँह दिखाई दे रहा था। एक मरियल औरत बैठकर आँचल से उसे हवा करते हुए गालियाँ दे रही थी, करमजले, मिरासिन की औलाद...मार डाला बेचारी को... जब जवानी थी तब यही पुलिस वाले रोज़ नोंचने जाते थे। कसबिन की ज़ात अब चौथेपन भैंस चराएगी... पेड़ा बनाएगी। कोई जाकर पूछे मरकीलौना से रंडी के हाथ का कौन पापड़ खाएगा, कौन दूध पिएगा, कौन कपड़ा पहिनेगा...यह सब, हम लोगों से घर-बार छीनकर भीख मँगवाने का इंतिज़ाम है और कुछ नहीं... शहर छोड़कर चले जाओ, जैसे हम हाथ पकड़ कर लोगों को घर से बुलाने जाते हैं। लोगों को ही क्यों नहीं मना कर देते कि यहाँ आया करें। जो हमें भगाने के लिए धरना देकर बैठे हैं, वही कहीं और जाकर क्यों नहीं बस जाते। हमें कौन अपने पड़ोस में बसने देगा। यहाँ की तरह वहाँ भी छूत नहीं लगेगी क्या?

    यह बुढ़िया अकेली रहती थी। उसने सबेरे से कुछ खाया पिया नहीं था। सुबह से ही वह दोनों छोरों तक घूम-घूम कर आंदोलन करने वालों को गालियाँ बक रही थी। उसके दो बेटे थे जो कहीं नौकरी करते थे। चोरी छिपे साल-दो साल में मिलने जाते थे। सबके सामने उसे वे अपनी माँ भी नहीं कह सकते थे।

    लड़की लाना बंद करो दाज्यू

    पीछे हंगामा देखकर सिपाही उधर लपके तभी जाने कहाँ से एक अधेड़ नेपाली औरत झूमते हुए आकर डीआईजी के पीछे खड़ी हो गई। उसके बाल खुले थे, साड़ी धूल में लिथड़ रही थी, वह पीकर धुत्त थी। अगल-बग़ल की औरतें उसे खींच रही थी। अचानक वह चिल्लाने लगी और उसके गालों पर गंदले आँसू बहने लगे, ‘आस्तो गर बड़ा साहब... आस्तो गर दाज्यू.. अपाना हुकुम माथे पर लिया।’

    डीआईजी चौंक कर पीछे घुमें तो उसने हाथ जोड़ लिए, ‘साहेब, मेरा साहेब। पहले यहाँ नई लड़की लोग का लाना तो बंद करो साहेब! हम लोग ख़ुद तो नहीं आया साहेब... बहुत बड़ा-बड़ा लोग लेकर आता है। नेपाल से, बंगाल से, ओड़िसा से... हर नई लड़की पीछे थाना को पैंतीस हज़ार पूजा दिया जाता है। पुराना का तो घर है, बाल-बच्चा है, बूढ़ा होके नहीं तो बीमारी से मर जाएगी। लेकिन नया लड़की आता रहेगा तो यहाँ का आबादी बढ़ता जाएगा। जहाँ से लड़की आता है, रास्ते भर सरकार को बहुत रुपया मिलता है।’

    सिपाही उसे चुप कराने लपके तो उचक कर उसने एक की टोपी झटक ली और उसी से ख़ुद को पीटने लगी। मानो जिस सबसे बुरी होनी की आशंका हो, उसे ख़ुद अपने हाथों घटित कर देना चाहती हो, वह उन्माद में बड़बड़ाए जा रही थी, ‘मारेगा हमको, मारेगा... काट डालेगा... और जास्ती क्या कर लेगा। यहाँ से कोई नहीं जाएगा... जहाँ जाओ, वहीं से भगाता है। कितना भागेगा... यहीं मर जाएगा। लेकिन अब कहीं नहीं जाएगा। डीआईजी हाथ में माइक लिए भौंचक ताकते रह गए। उन्होंने कई बार नाराज़ होकर सुनिए, सुनिए की अपील की लेकिन हुल्लड़ में उधर किसी का ध्यान ही नहीं गया। सिपाही ने उससे टोपी वापस लेनी चाही तो वह भागने लगी। सिपाही पीछे लपका तो उसने टोपी पहन ली और ठुमकते हुए भीड़ में घुस गई। वह नाचते हुए आगे-आगे, बौखलाया सिपाही पीछे-पीछे। लोग सब कुछ भूलकर हँसने लगे। जो पुलिस वाले वहाँ अक्सर आते थे। वेश्याएँ उनके साथ इसी तरह हँसी ठट्ठा करती थीं। लेकिन आज यह सिपाही नथुने फुलाए, दाँत पीसते हुए, उसके पीछे लड़खड़ाता भाग रहा था। बच्चे तालियाँ बजाने और चीख़ने लगे।

    डीआईजी ने घूरकर पुलिस वालों की तरफ़ देखा जो हँस रहे थे। पहले वे सकपकाए फिर तुरंत उन्होंने क़तार बनाकर डंडों से भीड़ को बस्ती के भीतर ठेलना शुरू कर दिया। जो बस्ती के नहीं थे, सिपाहियों को धकेलकर सड़क की ओर भागने लगे। इन भागते लोगों पर पीछे खड़े सिपाहियों ने डंडे जमाने शुरू कर दिए। इसी बीच ग़ुस्से से तमतमाए डीआईजी अपने फालोअर और ड्राइवर को लेकर निकल गए। बस्ती में स्कूल चलाने वाला लड़का डंडों के ऊपर इस तरह झुका हुआ था जैसे लाठियाँ उसके पंख हों और वह उड़ रहा हो। वह वहीं से चिल्लाया, ‘आप उनसे ख़ुद ही बात कर लीजिए, मैडम! पता चल जाएगा... शरीफ़ औरतें वेश्याओं के बारे में बात नहीं करतीं। वे गुड़िया पीटने और विश्वसुंदरी प्रतियोगिता के विरोध में बयान दे सकती हैं बस। यहाँ आएँगी तो उनके पति घर से भगा देंगे, सारा नारीवाद फुस्स हो जाएगा।’

    एक महिला रिपोर्टर उससे पूछ रही थी कि आप लोग महिला संगठनों से बात क्यों नहीं करते, तभी लाठियाँ चलनी शुरू हो गई थीं। अब वह पुलिस वालों के पीछे घबराई खड़ी हुई उसे लाठियों, शोर और बस्ती के अँधेरे में ग़ायब होता देख रही थीं।

    बिना एफ़आईआर बलात्कार नहीं होता

    थोड़ी ही देर में वह जगह ख़ाली हो गई जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था। अगले दिन अख़बार में हेडलाइन थी, ‘वेश्याओं ने पुलिस की टोपी उछाली, लाठी चार्ज, बाइस घायल।’ अख़बारों और चैनलों की भाषा में यह मामला अब ‘हॉटकेक’ बन चुका था जिसे वे अपने ही ढंग से परोस और बेच रहे थे। चैनलों ने इसे कुछ इस तरह पेश किया जैसे देश में यह अपने ढंग की अकेली घटना हुई हो जिसमें वेश्याओं ने एक डीआईजी के साथ ग्राहक से भी बुरा सलूक करने के बाद उन्हें खदेड़ दिया हो। अख़बार के दफ़्तर में जो संगठन बधाईयाँ दे रहे थे, अब उनकी तरफ़ से वेश्याओं के इस कृत्य के निन्दा की विज्ञप्तियाँ बरसने लगीं। कई और संस्थाएँ कचहरी पर चल रहे धरने में शामिल हो गईं और स्नेहलता द्विवेदी आमरण अनशन पर बैठ गईं। मंड़ुवाडीह के दोनों छोरों पर अब एक-एक प्लाटून पीएसी भी लगा दी गई। बदला चुकाने और वेश्याओं का मनोबल तोड़ने के लिए पुलिस वालों ने एक लड़की के साथ बलात्कार कर डाला।

    चौदह साल की यह लड़की डीआईजी की मीटिंग के बाद से खाने का सामान लाने के लिए सड़क के उस पार जाने देने के लिए पहरा दे रहे सिपाहियों की विनती कर रही थी। दो-तीन बार आई तो डपटकर भगा दिया। अगले दिन फिर आई तो सिपाही उससे बतियाने और चुहल करने लगे, उसे लगा कि शायद अब जाने देंगे इसलिए वह भी दिन भर इतराती और हँसती रही।

    अँधेरा होने के बाद सिपाहियों ने उसे एक छोटे लड़के के साथ सड़क पार करने दी। वे सामानों की गठरियाँ लेकर जैसे ही लौटे सिपाहियों ने डंडे पटकते हुए दोनों को दूर तक खदेड़ दिया। वे डर गए, क्योंकि बस्ती से कभी बाहर निकले ही नहीं थे। दोनों वहीं सड़क के किनारे बैठकर रोने लगे, कई घंटे बाद जब दुकानें बंद हो गईं। तब एक सिपाही लड़की को बुलाकर एक लारी के भीतर ले गया। वहाँ एक सिपाही ने उसका मुँह बंद कर दिया और दो ने टाँगे पकड़ लीं। बारी-बारी से चार सिपाहियों ने उसके साथ बलात्कार किया फिर उसे बच्चे और पोटलियों के साथ बस्ती में धकेल दिया गया। वेश्याएँ रात भर सड़क के मुहाने पर जमा होकर गालियाँ देती रहीं और पुलिस वाले यह कहकर हँसते रहे कि उन्होंने लड़की को बढ़िया ट्रेनिंग दे दी है, अब आगे कभी कोई दिक़्क़त नहीं होगी।

    स्कूल चलाने वाले युवक ने अख़बार के दफ़्तर में आकर सारा वाक़िआ सुनाया। यह लड़की उसके स्कूल में पढ़ती थी। रिपोर्टरों ने कहा कि वह एफ़आईआर की कॉपी लाएँ तब ख़बर छप सकती है, कोई तो सबूत होना चाहिए। उसने बहुत समझाया कि जब पुलिस ने ही रेप किया है तो वे कैसे सोचते हैं कि अपने ही ख़िलाफ़ एफ़आईआर भी दर्ज कर लेगी। वे चाहें तो लड़की को अस्पताल ले जाकर या किसी डाक्टर को बस्ती में ले जाकर मेडिकल जाँच करा सकते हैं। उसकी हालत अब भी बहुत ख़राब है। ख़बरों के बोझ के मारे रिपोर्टर इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे और वे जानते थे कि कोई डाक्टर बस्ती में जाने को तैयार नहीं होगा। एक रिपोर्टर ने शरारत से कहा, ‘और मान लो मेडिकल जाँच हो भी तो क्या निकलेगा क्या?’

    ‘मतलब हाइमन ब्रोकेन, ख़रोंच, ख़ून ये सब तो रिपोर्ट में आएगा नहीं।’

    दूसरे रिपोर्टर ने हँसी दबाते हुए घुटी चीख के स्वर में कहा, ‘रिपोर्ट में आएगा एवरीथिंग ओवर साइज़, ट्यूबवेल डीप, अनेबल टू फाइंड एनीथिंग!’

    कानफाड़ू ठहाकों के बीच वह युवक हक्का-बक्का रह गया। थोड़ी देर बाद उसे सांत्वना देने के लिए एक रिपोर्टर ने पुलिस सुपरिटेंडेंट को फ़ोन मिलाया तो वे हँसे, वेश्या के साथ बलात्कार! विचित्र लीला है। अरे भाई साहब, वे आजकल ग्राहकों के लिए पगलाई घूम रही हैं, सामने मत पड़ जाइएगा। नहीं तो आप ही का बलात्कार कर डालेंगी। यह पुलिस को बदनाम करने का रंडियों का ख़ास पैंतरा हैं। यह ख़बर नहीं छपी ही किसी चैनल में दिखी, क्योंकि किसी के पास कोई सबूत नहीं था कि बलात्कार हुआ है। दरअसल सुपरिटेंडेंट की तरह पत्रकारों को भी यह समझ में नहीं रहा था कि आख़िर, किसी वेश्या के साथ बलात्कार कैसे संभव हैं।

    प्रकाश ने अचानक ख़ुद को उस युवक जैसी हालत में पाया जिसका हुचुर-हुचुर हँसते अपने साथियों के सामने यह भी कहना व्यर्थ था कि वह ख़बर दे पाने में लाचार है लेकिन उसे यक़ीन है कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ है। तब शायद अगला निर्मम जुमला यह भी सकता था कि वह भविष्य की एक अनुभवी पोर्न मॉडल तक पहुँचने का सूत्र बना रहा है।

    तभी फ़ोन की घंटी बजी, यह छवि थी जो कह रही थी कि उसे अब फ़ोटो खींचने की तमीज़ सीख ही लेनी चाहिए। शायद आवाज़ के कंपन से उसे तीव्र पूर्वाभास हुआ कि उसे लड़की के साथ बलात्कार की घटना का पता है। उसने जब यूनिवर्सिटी में ब्यूटीशियन का कोर्स कर रही छवि की पहली बार फ़ोटो खींचने की कोशिश की थी तो उसके भरे-भरे होंठों पर नाचती रहस्यमय हँसी, आँखों की शरारत और बाँह पर खरोंच के दो निशानों से अकबका गया था। कैमरे का शटर खोलना ही नहीं, उस पर लगा ढक्कन भी हटाना भूल गया था और लगातार फ़ोटो खींचते, लगभग हकलाते हुए उसे तरह-तरह के पोज़ देने के लिए कह रहा था। छवि ने जब कहा कि कई दिन से उसका टेली लेंस उसके पार्लर में ही पड़ा हुआ है तो लगा शायद उसे नहीं पता है। उससे फ़ोन पर बात करते हुए उसे लगातार लग रहा था कि दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो अपने साथ घट चुके को कभी साबित नहीं कर पाएँगे और वह भी उन्हीं में से एक है। वह उनकी आवाज़ कभी नहीं बन सकता जो कमज़ोरी के कारण बोल नहीं पाते, वह सिर्फ़ उनकी आवाज़ को दुहरा सकता या चेहरे दिखा सकता है, जिनके पास ताक़त है। उसकी क़लम में किसी और की स्याही है, कैमरे के पीछे किसी और की आँख है। फ़ोन रखने के काफ़ी देर बाद तक वह कैमरे का शटर खोलता, बंद करता यूँ ही बैठा रहा।

    खटाक...पता है। खटाक...नहीं पता है। खटाक...पता है। उसका दिमाग़ झूला हो चुका था।

    कंडोम बाबा की करूणा

    बनारस में धंधा बंद होने की ख़बर पाकर दिल्ली से कंडोम बाबा आए। साठ-बासठ साल के बुज़ुर्ग बाबा वेश्याओं को सेक्सवर्कर कहते थे और उन्हें एड्स आदि यौन बीमारियों से बचाने के लिए देशभर के वेश्यालयों में घूमकर कंडोम बाँटते थे। ये कंडोम उन्हें सरकार के समाज कल्याण विभाग और कई विदेशी संगठनों से मिलते थे। वे लड़कियों की तस्करी और वेश्याओं के पुनर्वास की समस्याओं को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाते थे। वे समर्पित, फक्कड़ सोशल एक्टिविस्ट लिखे जाते थे। उन्हें फ़िलीपींस का प्रतिष्ठित मैगसायसाय पुरस्कार मिल चुका था।

    वे सर्किट हाउस में ठहरे। तड़के उठकर उन्होंने गंगा-स्नान और विश्वनाथ मंदिर में दर्शन किया। फिर फूलमंडी गए। वहाँ एक ट्रक से ताज़ा कटे लाल गुलाबों के बंडल उतर रहे थे। उन्होंने गिनकर एक सौ छिहत्तर फूलों का बंडल बंधवाया और सर्किट हाउस लौटे। प्रेस और टीवी वालों के साथ दनदनाता हुआ उनका क़ाफ़िला मंड़ुवाडीह से थोड़ा पहले सड़क किनारे रुक गया जहाँ उन्होंने अपना श्रृंगार किया। कार में बैठे-बैठे उन्होंने सबसे पहले कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय ठप्पों वाली टी-शर्ट पहनी, दो कंडोम खोलकर दोनों कानों में लटका लिए, जो हवा चलने पर सीगों की तरह तनने लगते थे वरना बकरी के कानों की तरह लटके रहते थे। कई कंडोमों को थोड़ा सा फुलाकर एक धागे में बाँधकर उनकी माला गले में डाल ली। वे ऐसे अंगुलिमाल लगने लगे, जिसने किसी पारदर्शी दानव की उंगलियाँ काटकर गले में पहन ली हों। ड्राइवर से उन्होंने कई गुब्बारे कार के आगे पीछे बँधवा दिए। उन्होंने पहले ही जिलाधिकारी से अनुमति ले ली थी और उनके साथ समाज कल्याण विभाग का एक अफ़सर भी था, जिस कारण बदनाम बस्ती में घुसने में उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं हुई।

    बस्ती में सन्नाटा था, यहाँ-वहाँ कुछ बच्चे ख़ाली सड़क पर खेल रहे थे। बच्चों ने उनकी गाड़ी को घेर लिया और गुब्बारे माँगने लगे। उन्होंने उन्हें खदेड़ते हुए कहा कि बच्चों को कंडोम देना संसाधनों की बर्बादी है। जब तक उनकी कंडोम से संबंधित जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले कार्यकर्ता हर घर तक नहीं पहुँचेंगे, बच्चे उन्हें ग़ुब्बारा ही समझते रहेंगे। इसके बाद वे हर दरवाज़े पर जाकर वेश्याओं को ताजे लाल-लाल गुलाब के फूल भेंट करने लगे। यह कंडोम बाबा का अपना ख़ास तरीक़ा था जिस रेड लाइट एरिया में वे जितने दिनों बाद जाते थे, उतने गुलाब के फूल बाँटते थे। यहाँ वे कोई छह महीने बाद आए थे। उन्होंने कंडोम देने चाहे तो वेश्याओं ने मना कर दिया। एक बुढ़िया ने उन्हें डाँटा, जब धंधा ही बंद है तो गुब्बारा लेकर क्या करेंगे, उबालकर खाएँगे कि तुम्हारी तरह झुमका बनाकर पहनेंगे। ज़ियादातर कंडोम दलालों और भडुंओं ने झपट लिए, वे इन्हें ग्राहकों को बेचते थे।

    फूल बाँटने के बाद उन्होंने एक तेरह साल की लड़की को कंडोम देना चाहा तो वह शरमा गई। उसके कंधे पर हाथ रखकर वे उसे कैमरों के सामने लाते हुए उन्होंने पूछा, ‘बेटी कंडोम का इस्तेमाल करती हो?’

    वह चुप ख़ाली आँखों से उन्हें देखती रही। उन्होंने फिर उससे पूछा, ‘लकड़ी खाती हो या नहीं?’

    लकड़ी घबराकर भाग गई।

    कान में लटके कंडोम की चिकनाई को अँगूठे और तर्जनी के बीच मलते हुए वे अब प्रेस की तरफ़ मुख़ातिब हुए, ‘लकड़ी खिलाना एक तकनीक है जो कम उमर की लड़कियों को धंधे में लाने के लिए अपनाई जाती है। इसमें सोला लकड़ी का इस्तेमाल होता है जो पानी में बहुत जल्दी फूल जाती है। लड़की के भीतर इस लकड़ी को डालकर उसे रोज़ पानी के टब में या पोखर में नहलाया जाता है। जल्दी ही लड़की धंधे के लायक़ हो जाती है... जब धंधे से बचा नहीं जा सकता तो इसे करने में हर्ज ही क्या है, इससे लड़कियों को तकलीफ़ नहीं होती।’ प्रेस वाले वेश्याओं के जीवन के बारे में उनकी जानकारी से चकित थे।

    देर तक बुलाने के बाद कुछ वेश्याएँ इकट्ठा हुईं। उन्होंने एक छोटा सा भाषण दिया, कुछ दिन पहले धार्मिक नगरी उज्जैन की नगर पालिका ने वेश्याओं को लइसेंस दिए थे, हमने माँग की है कि काशी में भी ऐसा किया जाए। इसके लिए मेयर और जिलाधिकारी से बात हुई है... जब से दुनिया है तब से सेक्स वर्कर हैं। डंडे के ज़ोर पर वेश्यावृत्ति कोई नहीं रोक पाया है। एक सौ छिहत्तर देशों में सेक्स वर्करों को धंधे के लाइसेंस दिए गए हैं। यूरोप में तो लाइसेंस है, बीमा होता है, मेडिकल जाँच कराई जाती है, ऐसी सुविधाएँ दी जाती हैं जो हमारे यहाँ के सरकारी कर्मचारियों को भी नहीं मिलती हैं। अगर वेश्यावृत्ति बंद करनी हैं तो पुनर्वास के अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन किया जाना चाहिए। पहले ऐसी परिस्थितियाँ बनाई जाएँ कि समाज, सेक्स वर्करों को सामान्य नागरिक की तरह स्वीकार कर सके, फिर उन्हें धंधा छोड़ने को कहा जाए वरना कोई नतीजा नहीं निकलेगा।’ उन्होंने नारा दिया, ‘काशी को उज्जैन बनाओ’ और जाने लगे। बच्चों से घिरी एक औरत ने रास्ते में रोककर उनसे कहा कि क्या वे कंडोम बाँटने के बजाय यहाँ खाने का कुछ सामान नहीं भिजवा सकते। यहाँ से कोई जा सकता है, अंदर सकता है। हम लोगों के पास जो कमाई थी, ख़त्म हो चली है। यही हाल रहा तो हम लोग बीमारी से पहले भूख से मरेंगे। उन्होंने उसे गुलाब का फूल देते हुए कहा कि वे जिलाधिकारी के पास जा रहे हैं, उनसे इस बारे में बात करेंगे। बस्ती से वे जिलाधिकारी के पास चले गए। अगले दिन उन्हें किसी सम्मेलन में थाइलैंड जाना था।

    कंडोम बाबा जिस समय ग़ुब्बारे माँगने वाले वेश्याओं के बच्चों को लंगड़ाते हुए खदेड़ रहे थे छवि ने ठीक उसी समय फ़ोन पर बताया, उसे आशंका है कि वह प्रेगनेन्ट हो गई है। प्रकाश ने उसे बधाई देते हुए बताया कि कल अख़बार के मेन पेज पर उसकी ऐसे आदमी से मुलाक़ात होने वाली है, जो अगर इस दुनिया में होता तो वह अब तक एक दर्जन बच्चों की माँ बन चुकी होती।

    अगले ही क्षण उसे लगा कि उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक रही है और वह अँधेरे में धंसता जा रहा है। छवि ने शाँत ढंग से कहा कि उसने कई महिलाओं से बात की है जिनका कहना है कि बारह हफ़्ते से ज़ियादा हो चुके हैं। कंधे पर लटका उसका बैग धप्प से गिर पड़ा। वह लड़खड़ाता हुआ एक मकान के आगे निकले चबूतरे पर बैठकर आँखें फाड़े कंडोम बाबा को देखने लगा। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, आँखों के ठीक आगे मटमैले धुंधले चकत्ते उड़ रहे थे। उसकी तरफ़ किसी का ध्यान जाए इससे पहले उसने ख़ुद को ज़बर्दस्ती खींच कर खड़ा करने की कोशिश की तो चक्कर गया, माथे पर हाथ फिराते हुए उसने महसूस किया कि वह जाड़े में भी पसीने से भीगा हुआ है। थोड़ी देर बाद अकस्मात पहली चीज़ उसके दिमाग़ में यही आई कि छवि उस लड़की के साथ बलात्कार की घटना के बारे जानती है। वह फिर घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलने लगा, जानती है...नहीं जानती...जानती है। उसकी पूरी ज़िंदगी इस एक सवाल पर जैसे आकर टिक गई थी और उसे बहुत जल्दी फ़ैसला करना था। अक्सर सिर उठाने वाले शर्मिंदगी से भरे संदेहों और उनके शाँत होने पर उससे भी भीषण आत्मघाती पश्चाताप में सुलगने का समय जा चुका था क्योंकि छवि के भीतर एक बच्चा लगातार बड़ा हो रहा था और वह किसी भी चीज़ का इंतिज़ार नहीं करने वाला था।

    सी. अंतरात्मा का कौतुक

    सी. अंतरात्मा को कंडोम बाबा बहुत दिलचस्प आदमी लगे, उस शाम अनायास उनका स्कूटर सर्किट हाउस की तरफ़ मुड़ गया और वह इंटरव्यू करने के बहाने उनसे मिलने चले गए। वे इस विचित्र आदमी को एक बार फिर देखना और उसकी छवि अपने मन में ठीक से बिठा लेना चाहते थे। उन्होंने सोचा था, लगे हाथ कंडोम के आठ-दस पैकेट भी माँग लेंगे। घर में पड़े रहेंगे, कभी-कभी काम आएँगे।

    सी. अंतरात्मा हमेशा इतने चौकन्ने रहते थे कि उन्हें अचूक ढंग से पता रहता था कि काम की कोई भी चीज़ मुफ़्त में या कम से कम दाम में कहाँ मिल सकती है। उनमें अगर यह क़ाबिलियत नहीं होती तो प्रेस की तनख़्वाह से उनकी गृहस्थी का चल पाना असंभव था। दवाओं के मुफ़्त सैंपल वे फ़ार्मासिस्टों, डाक्टरों के यहाँ से लेते थे, बच्चों की किताबें सीधे प्रकाशकों से माँग लाते थे, कपड़े कटपीस के रियायती दाम पर लेते थे, प्रेस कांफ्रेंसों में मिलने वाले पैड और कलमें साग्रह बटोरते थे जो बच्चों के काम आते थे। वहाँ गिफ़्त में मिलने वाले सजावटी सामानों को वे दुकानदारों को बेचकर नक़द या अपने काम की चीज़ें लेते थे। खटारा स्कूटर उन्हें एक सजातीय थानेदार ने सुपुर्दगी में दिया था जो एक कुर्की के बाद थाने के अहाते में पड़ा सड़ रहा था। उन्हें अख़बार की जो कांप्लीमेंट्री कॉपी मिलती थी, वे उसे पढ़ने के बाद आधे दाम में घर के सामने चाय वाले को बेच देते थे और इस पैसे से बच्चों को यदा-कदा बिस्कुट, नमकीन वग़ैरह दिला दिया करते थे।

    सर्किट हाउस में घंटी बजाने के बाद कंडोम बाबा ने जैसे ही कमरे का दरवाज़ा खोला अंतरात्मा ने आदतन और थोड़ा उनके व्यक्तित्व के प्रभाव में झुककर, आत्मीय मुस्कान के साथ पूछा, यहाँ पर आपको कोई दिक़्क़त तो नहीं है, बेहिचक बताइएगा आप हमारे मेहमान हैं। कंडोम बाबा बिदक गए, यह सर्किट हाउस है या डकैतों का अड्डा, एक साफ़ तौलिया तो दे नहीं सकते दिक़्क़तें पूछने चले आते हैं। अंतरात्मा अकबका गए, कुछ बोल ही नहीं पाए और भड़ाक से दरवाज़ा बंद हो गया। पूरे सर्किट हाउस में एक ही चीकट तौलिया था जो वेटर ने कंडोम बाबा को दे दिया था। उन्होंने साफ़ तौलिया माँगा तो उसने उन्हें बताया कि आप ही जैसे गेस्ट लोग उठा ले जाते हैं इसलिए कोई और बचा ही नहीं है। कंडोम बाबा ने मैंनेजर से शिकायत की तो उसने बताया कि इस साल अभी तक सामानों की ख़रीद नहीं हुई है। सी. अंतरात्मा जब इंटरव्यू मुलाक़ात के लिए पहुँचे, उस वक़्त भन्नाए हुए कंडोम बाबा जिलाधिकारी को शिकायती पत्र लिख रहे थे और उन्होंने उन्हें सर्किट हाउस का वेटर समझ लिया था।

    अंतरात्मा दफ़्तर लौटकर यह क़िस्सा सुना रहे थे कि सिटी चीफ़ ने उन्हें डाँटा कि 'इतनी बड़ी ख़बर' उनके पास है और वह बैठे चकल्लस कर रहे हैं। अगले दिन यह तौलिए वाली ख़बर कंडोम बाबा के बदनाम बस्ती दौरे के बीच में डबल कॉलम बॉक्स में छपी। कंडोम बाबा का उस दिन दिल्ली लौटना स्थगित हो गया, शाम को वह अँग्रेज़ी में लिखा साढ़े तीन पेज का खंडन लेकर अख़बार के दफ़्तर पहुँचे और वहाँ सी. अंतरात्मा को बैठे देखकर उनकी चीख़ निकल गई। वह संपादक से झगड़ने लगे कि उनका अख़बार पीत-पत्रकारिता कर रहा है। खंडन में लिखा था कि आदर, आतिथ्य और सत्कार के लिए वे ज़िला प्रशासन सर्किट हाउस के कर्मचारियों के आभारी हैं। तौलिए का क़िस्सा पूरी तरह मनगढ़त है। किसी रिपोर्टर ने इस बारे में उनसे बात तक नहीं की है। अख़बार यह सब ज़िला प्रशासन की छवि बिगाड़ने के लिए कर रहा है। दरअसल ज़िलाधिकारी ने कंडोम बाबा को बुलाकर कह दिया था कि वे या तो तुरंत इस ख़बर का खंडन छपवाएँ या फिर अगली बार से अपने ठहरने का कोई और ठिकाना ढूँढ़ लें। कंडोम बाबा का खंडन रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। क्योंकि पता था कि उन्हें रात में दिल्ली जाना ही जाना है और उनके दर्शन फिर कब होंगे कोई नहीं जानता।

    असाइनमेंट के बीच में ही प्रकाश पार्लर पहुँचा और छवि को लगभग घसीटते हुए बाथरूम में ले जाकर उसे प्रेगनेंसी के होम टेस्ट की किट थमा कर दरवाज़ा धड़ाक से बंद कर दिया। थोड़ी देर बाद छवि ने उसे दिखाया कि इंडीकेटर साफ़ बता रहा था कि वह सच बोल रही थी। वह पूछना चाहता था कि तुम्हें उस लड़की के बलात्कार की बात कैसे पता चली लेकिन मुँह से निकला, कब पता चला। छवि ने उसे छुआ तो वह काँप रहा था उसने कहा, तुम्हारा तो वह हाल हो रहा है जो, मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ, का भयानक डॉयलाग सुनते ही पुरानी फ़िल्मों के हीरो का हुआ करता था।

    अब शादी के बारे सोचना होगा जल्दी कुछ करना पड़ेगा, उसका मुँह सूख रहा था। क्योंकि भीतर लू चल रही थी।

    जलसमाधि वाया चिन्मय चिलग़ोज़ा

    मंड़ुवाडीह में नहीं गंगा की मंझधार में एक नया संकट उठ खड़ा हुआ। एक बलिदानी हिंदू युवक ने संकल्प कर लिया कि अगर मकर संक्रांति तक काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्त नहीं किया जाता, तो वह सूर्य के उत्तरायण होते ही जलसमाधि ले लेगा। मुंडित सिर, जनेऊधारी यह युवक गले में पत्थर की एक भारी पटिया बाँधकर गंगा में ही एक नाव पर रहने लगा। पहले भी एक बार वह ऐसा प्रयास कर चुका था। इसलिए प्रशासन विशेष सतर्क था। उसकी नाव के आगे और पीछे प्रशिक्षित गोताख़ोरों से लैस जल पुलिस की दो नावें लगा दी गईं।

    जल पुलिस के पीछे महाबीरी झंडों से सजी नाव पर शंख, घंटा, घड़ियाल बजाते और बीच-बीच में हर-हर महादेव का उद्घोष करते गर्व से तने समर्थक चलते थे। पीछे नावों में इलेक्ट्रानिक चैनलों के क्रू रहते थे। हर क्रू को अपने इंटरव्यू की बारी के लिए समर्थकों की अगली नाव से टोकन लेना पड़ता था। जल्दबाज़ मीडिया की अराजकता को रोकने और युवक को पर्याप्त विश्राम देने के लिए यह व्यवस्था की गई थी। क्योंकि बोलते-बोलते उसका गला बैठ चुका था। दिल्ली और मुंबई के बड़े चैनलों ने बजरे किराए पर लेकर उन्हें ओबी वैन में बदल दिया था। वे निरंतर ‘सदाचार की गंगा से गणिका विरोध,’ ‘जल में आंदोलन,’ ‘जल समाधि’ का सजीव प्रसारण कर रहे थे।

    दाएँ, बाएँ और बीच में कैमरे लिए विदेशी पर्यटकों की कश्तियाँ घुसी रहती थीं, वे उस युवक की नैतिकता, संकल्प और अभियान के विलक्षण तरीक़े से चमत्कृत थे। स्वीडन की ओरिएँटल फ़िलासफ़ी की छात्रा माग्दालीना इन्केन इतनी प्रभावित थी कि उसने युवक से प्रेम की सार्वजनिक घोषणा कर दी थी। प्रकट तौर पर वे यही कहते थे कि उन्हें इस युवक में ईसा मसीह की छवि दिख रही है लेकिन आपसी बातचीत में गोद में रखी बिसलेरी की बोतलों को दुलराते हुए वे पुलक उठते थे कि किताबों में पढ़े मदारियों, संपेरों, साधुओं और जादूगरों के जिन करतबों को देखने के लिए वे यहाँ आए थे, अनायास दिख रहे हैं। इस दुर्लभ क्षण की झाँकियों अपने देश ले जाकर बेचने का अवसर वे चूकना नहीं चाहते थे।

    यह अंतर्राष्ट्रीय धज का अजीब-ओ-ग़रीब बेड़ा भोर से लेकर रात के ग्यारह बजे तक राजघाट के पुल से रामनगर के क़िले के बीच गंगा में तैरता था। घाटों पर तमाशबीनों की भीड़ लगी रहती थी। जब बेड़ा उनकी नज़रों से ओझल होने लगता था तो वे खीझकर हर-हर महादेव का नारा लगाते हुए गालियाँ बकने लगते थे और पास आने पर फिर वे प्रसन्नता से अभिवादन करते हुए हर-हर महादेव का नारा लगाते थे। यह उदघोष ऐसा संपुट था जिसका इस्तेमाल वे प्रसन्नता, क्रोध, गौरव, हताशा, उन्माद सभी भावों को व्यक्त करने के लिए सैकड़ों सालों से करते आए थे।

    वेश्याओं को धंधे के लाइसेंस दिए जाएँ दिए जाएँ इस पर टीवी चैनलों पर टॉक शो हो रहे थे जिनमें वेश्यावृत्ति के विशेषज्ञ, ट्रैफ़िकिंग के जानकार, नैतिक प्रश्नों के शोधकर्ता, इतिहासकार, कालगर्लों के रैकेट पकड़ने वाले पुलिस अधिकारी, समाज कल्याण से जुड़े अफ़सर, महिला संगठनों की नेता और आम लोग धारावाहिक बोल रहे थे। गंगा में नावों पर सवार रिपोर्टर असहाय मंदबुद्धि बच्चों की तरह चीख़ रहे थे, ‘समूची काशी नगरी नदी और घाटों पर निकल आई है। वेश्यावृत्ति से नाराज़ लोग हर-हर महादेव के नारे लगा रहे हैं। पानी और पत्थर के बीच एक युवक की जान ख़तरे में है, उधर वेश्याओं ने अब तक रोज़गार के उपायों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है और वे मड़ुवाडीह में ही बनी हुई हैं। अब देखना है प्रशासन इस चुनौती से कैसे निपटता है... मैं चिन्मय चिलग़ोज़ा... वाराणसी से हवा-हवाई टीवी के लिए।’

    उधर घाट किनारे, अस्सी मोहल्ले में बुद्धिजीवियों का अड्डा कही जाने वाली एक चाय की दुकान में विश्वविद्यालयों के निठल्ले प्रोफ़ेसर, विफल वकील, राजनीतिक दलों के हताश कार्यकर्ता, बेरोज़गार, ठलुए, अधपगले भंगेड़ी, कवि, पत्रकार, लेखक और बतरसी आपस में इस मुद्दे पर जूझ रहे थे। मठों में कोठारिनों, मंदिरों में देवदासियों और सेविकाओं को लेकर औझैती के कर्मकांड में पिछड़ी, दलित औरतों के साथ व्यभिचार के उद्धरण दिए जा रहे थे तो जवाब में हर घर में चलते व्याभिचार और छिनालपन के सच्चे क़िस्से सुनाए जा रहे थे। कोई विवाह को खाना, कपड़ा, छत और सुरक्षा के एवज़ में होने वाली सामाजिक मान्यता प्राप्त वेश्यावृत्ति का सबसे बड़ा कर्मकांड बता रहा था तो जवाब में ऐसे विचार का उत्स उसके रखैल की औलाद होने में तलाशा जा रहा था। इन सबके ऊपर एक आयुर्वेदिक नुस्ख़ा था, जिसे सभी अपनी स्मृति में सहेज लेना चाहते थे इसे एक भंगेड़ी ने वेश्यावृत्ति उन्मूलन के उपाय के रूप में सुझाया था-

    सोंठ, सतावर, गोरख गुंडी

    कामराज, विजया, नरमुंडी॥

    गिरै बीज, झड़े डंडी

    पलंग छोड़ के भागै रंडी॥

    उसका कहना था कि अगर कस्टमर इस नुस्ख़े का इस्तेमाल शुरू कर दें तो नगर वधुएँ भाग जाएँगी और मड़ुवाडीह देखते ही देखते ख़ाली हो जाएगा। पतली गर्दन, झुकी पीठ और सूख चली जाँघों वाले बुद्धिजीवी इसे याद कर लेना चाहते थे। शायद उनके अवचेतन में था कि वेश्याओं पर सही अपनी पत्नियों, प्रेमिकाओं पर तो वे इसका इस्तेमाल कर ही सकते हैं।

    महावर, आशिक़ का बैनर और पुतलियाँ

    पुलिस वाले मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती से फिर किसी लड़की को घसीट ले जाएँ, इसकी चौकसी के लिए टोलियाँ बनाकर रात में गश्त की जा रही थी। डर कर भागने वालियों को मनाने के लिए पंचायत हो रही थी। अदालत जाने के लिए चंदा जुटाया जा रहा था। पुराने ग्राहकों और हमदर्दों से संपर्क साधा जा रहा था। शहर में फैली इस कचरघाँव के बीच मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती में चुपचाप अख़बारों पर रौशनाई और महावर से अनगढ़ लिखावट में ‘हमको वेश्या किसने बनाया, ‘काशी में किसने बसाया, जो क़िस्मत से लाचार-उन पर भी बलात्कार, पहले पुनर्वास करो-फिर धंधे की बात करो जैसे नारे लिखे जा रहे थे। पुआल, पॉलीथीन और काग़ज़ के अलावों पर एल्यूमिनियम की पतीलियों में पतली लेई पक रही थी। एक पुराना कस्टमर जो पेंटर था, बैनर लिखकर दे गया जिस इतनी फूल-पत्तियाँ बना दी थीं कि जो लिखा था, छिप गया था। स्कूल चलाने वाले लड़के अभिजीत ने राष्ट्रपति से लेकर कलेक्टर तक के नाम ज्ञापन लिखे।

    एक दिन सुबह वे अचानक, चुपचाप अपने बच्चों, भूखे खौरहे कुत्तों, सुग्गों के पिंजरों, पानदानों, खाने की पोटलियों, पानी की बोतलों के साथ हाथ से सिली जरी के किनारी वाले, फूलपत्तियों से ढके बैनर के पीछे मुख्य सड़क पर खड़ी हुईं। आगे वही लड़का अभिजीत था और सबके हाथों में नारे लिखी तख़्तियाँ थीं। यह अब तक के ज्ञात इतिहास में वेश्याओं का पहला जुलूस था जो आठ किलोमीटर दूर कचहरी पर प्रदर्शन करने और कलेक्टर को माँग-पत्र देने जा रहा था। तीन सौ औरतों की लंबी क़तार। इनमें से ज़ियादातर बस्ती में लाए जाने के बाद पहली बार बाहर शहर में निकलीं थीं। उन्हें देखने के लिए ट्रैफ़िक थम गया, सड़कों के किनारे और मकानों के छज्जों पर लोगों की क़तारें लग गईं।

    रंडियाँ... रंडियाँ... देखो, रंडियाँ

    लेकिन वे किसी को नहीं देख रही थीं, उनकी आँखों में भीड़ से घिरे जानवर के भय की परछाई थी और रह-रहकर ग़ुस्सा भभक जाता था। लड़ेंगे... जीतेंगे, लड़ेंगे.. जीतेंगे वे किसी का सिखाया हुआ, अजीब सा नारा लगा रही थीं जिसका उनकी ज़िंदगी और हुलिए से कोई मेल नहीं था। ज़ियादातर औरतें बीमार, उदास और थकी हुई लग रही थीं। मामूली साड़ियों से निकले प्लास्टिक की चप्पलों वाले पैर संकोच के साथ इधर-उधर पड़ रहे थे मानो सड़क में अदृश्य गड्ढे हों, जिनमें गिरकर समा जाने का ख़तरा था। बच्चे और कुत्ते भी सहमे हुए थे। नारे लगाते वक़्त उठने वाले हाथों में भी लय नहीं झिझक और बेतरतीबी थी। लेकिन उनकी चिंचियाती, भर्राई आवाज़ों में कुछ ऐसा मार्मिक ज़रूर था जो रह-रहकर कचोट जाता था। उनके साथ-साथ सड़कों के किनारे-किनारे लोग भी गरदनें मोड़े चलने लगे। लोगों के घूरने से घबराकर गले में हारमोनियम और ढोलक लटकाए साज़िंदों ने तान छेड़ी और वे चौराहों पर रुक-रुक कर नाचने लगीं।

    झिझकते, नाचते-गाते यह विशाल जुलूस जब कचहरी में दाख़िल हुआ तो वहाँ भी सनसनी फैल गई।

    वे नारे लगाती कलेक्टर के दफ़्तर के सामने के बरामदे और सड़क पर धरने पर बैठीं और चारों ओर तमाशबीनों का घेरा बन गया। जल्दी ही वकील, मुवक्किल, पुलिसवाले और कर्मचारी काग़ज़ की पर्चियों पर गानों की फ़रमाइशें लिखकर उन पर फेंकने और नोट दिखाने लगे। कुछ ढीठ क़िस्म के वकील हाथों से मोर और नागिन बनाकर भीड़ में बैठी कम उमर की लड़कियों को नाचने के लिए इशारे करने लगे। वेश्याओं ने उनकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, वे अपने बच्चों को संभालती नारे लगाती बैठी रहीं। दो-ढाई घंटे बाद ज़िलाधिकारी के भेजे प्रोबेशन अधिकारी ने आकर कहा कि विभाग के पास वेश्याओं के पुनर्वास के लिए कोई फंड और योजना नहीं है। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकार को लिखा गया है। उनकी माँगे सभी संबंधित पक्षों तक पहुँचा दी जाएँगी। नारी संरक्षण गृह में इतनी जगह नहीं है कि सभी को रखा जा सके। ज़िलाधिकारी ने आश्वासन दिया है कि अगर वे धंधा नहीं करें तो अपने घरों में रह सकती हैं, उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं की जाएगी। ज़िलाधिकारी ने राहत फंड की उपलब्धता जानने के लिए समाज कल्याण अधिकारी को बुलवाया लेकिन पता चला कि वे इन दिनों जेल में हैं। उनके विभाग के क्लर्कों और स्कूलों के प्रधानाचार्यों ने मिलकर हज़ारों दलित छात्रों के नाम से फ़र्ज़ी खाते खोलकर उनके वज़ीफ़े हड़प लिए थे। इस मामले का भंडा फूटने के बाद कल्याण विभाग पर इन दिनों ताला लटक रहा था।

    भीड़ में से एक बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी के आगे अपनी मैली धोती का आँचल फैलाकर खड़ी हो गई और भर्राई आवाज़ में कहने लगी,... जब तक जवानी रही सरकार आप सब लोगन की सेवा किया। ऊपर वाले ने जैसा रखा, रह लिए अब बुढ़ापा है। सरकार उजाड़िए मत कहाँ जाएँगे, कहीं ठौर नहीं है। वेश्याएँ हँसने लगी, बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी को ही कलक्टर समझकर फ़रियाद कर रही थी। बुढ़िया बोले जा रही थी, ‘जब तक जवानी रही आपकी सेवा किया सरकार।’ तमाशबीन भी हँसने लगे। प्रोबेशन अधिकारी के चेहरे का रंग उतर गया। वह जल्दी से कुछ बोलकर मुड़ा और अंग्रेज़ों के ज़माने की कचहरी के बरामदे के विशाल खंभों के पीछे अदृश्य हो गया।

    यज्ञ, जला हुआ स्कूल और संपादकों से निवेदन

    वेश्याओं के जुलूस के अगले दिन दशश्वमेध के बग़ल में मान मंदिर घाट पर ब्रह्मचारी साधुओं और बटुकों ने सामाजिक पर्यावरण की शुद्धि के लिए गणिका उच्छेद यज्ञ शुरू कर दिया। आटे के स्त्रियों के सैकड़ों पुतले बनाए गए। उन्हें नहलाने के बाद चंदन, सिंदूर, गुग्गुल आदि का लेप करने के बाद कच्चे सूत से लपेट कर सीढ़ियों पर सजा दिया गया। हर दिन हज़ारों की तमाशाई भीड़ के आगे टीवी चैनलों के कैमरो की उपस्थिति में गुरू गंभीर मंत्रोच्चार के बीच इन्हें हवन कुंड में फेंका जाता था। साधु और मांत्रिक गर्व से बताते थे कि इससे वेश्याएँ समूल नष्ट हो जाएँगी और काशी पुन: पवित्र हो जाएगी।

    इन साधुओं और बटुकों की अधिक विश्वसनीयता नहीं थी, इसलिए उन्हें बहुत समर्थन नहीं मिल पाया। इनमें से ज़ियादातर साधु, पंडे थे जो ख़ासतौर पर विदेशियों को फाँसने के लिए टूटी-फूटी अँग्रेज़ी, फ्रेंच या स्पेनिश बोलते हुए घाटों पर अलबम लिए बैठे रहते थे। बटुक भी ऐसे थे जिन्हें पितृपक्ष के महीने में यजमानों की भारी भीड़ जुट जाने पर पुरोहित दिहाड़ी पर लगा लेते थे। उन्हें घाटों पर मुंडित सिरों के बीच थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पोथी थमाकर बिठा गया जाता था। पुरोहित माइक्रोफ़ोन पर मंत्र बोलते थे, वे उसे दुहराते थे। वे पुरोहित के निर्देशों की नक़ल कर यजमानों को उपनिर्देश देते थे। एक तरह से वे पिंडदान और तर्पण के दिहाड़ी मज़दूरों की तरह थे।

    हवन कुंड में पककर फट गई इन पुतलियों को विधि विधान पूर्वक गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता था। रात में इन हवन कुंडों को घाटों पर सोने वाले भिखारी टटोलते थे और आग पर पकी इन पुतलियों का गूदा निकालकर खा जाते थे। वे अपनी भूख मिटाने के लिए वेश्याओं को वैसे ही खा रहे थे जैसे थोड़े पैसे वाले लोग अपनी भूख मिटाने के लिए वेश्याओं से संभोग करते हैं। जब मालाओं और धागों में लिपटी प्रवाहित पुतलियाँ नदी के किनारों पर तिर रही थीं और उनके नितंबो, स्तनों, पेट, जाँघों, चेहरों का गूदा फूलकर पानी में छितर रहा था तब वेश्याएँ राजनीतिक पार्टियों के दफ़्तरों के फेरे लगाकर मदद की गुहार कर रही थीं।

    डेढ़ महीने के बाद बदनाम बस्ती के बच्चों का स्कूल एक रात जला दिया गया। यह स्कूल बस्ती के बाहर एक खंडहर पर टीन शेड डालकर चलता था। स्कूल चलाने वाले युवक अभिजीत ने बहुत कोशिश की लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई। सभी जानते थे कि किसने जलाया है लेकिन पुलिस ने अपनी तरफ़ से जाँच कर निष्कर्ष निकाला कि वहाँ रात में जुआ खेला जाता था। रात में आग तापने के लिए जुआरियों ने जो अलाव जलाया था, उसी से आग लगी थी। अख़बारों में भी यही छपा क्योंकि कोई सबूत नहीं था। जिसके आधार पर आग लगाने वालों को इस घटना का ज़िम्मेदार ठहराया जा सके।

    यह लड़का अभिजीत दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल. करने के बाद कुछ दिन मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले में बेड़िनियों के एक गाँव में एक साल रहा था। यहाँ आकर उसने वेश्याओं के कुछ बच्चों को गोद लेकर पढ़ाना शुरू किया। अब उसके स्कूल में सौ से अधिक बच्चे पढ़ते थे और उसे विश्वास था कि ये बच्चे, उस नर्क में जाने से बच जाएँगे। वेश्याएँ पहले अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजती थीं क्योंकि उन्हें यक़ीन ही नहीं था कि उन्हें कोई सचमुच पढ़ाना चाहता है। वह लगातार वेश्याओं से कहता रहता था कि वे अपनी आमदनी अपने पास रखें, उसे अपने पतियों यानि दलालों और भड़ुओं को दें। उस पैसे को अपने और बच्चों पर ख़र्च करें।

    वह बदनाम बस्ती के पुरुषों की आँख की किरकिरी था। वे स्कूल जलने से ख़ुश थे। यहाँ भी ज़ियादातर औरतें बिना पति के अकेले नहीं रह पाती थीं। उन्हें किसी किसी से सुरक्षा की ओट चाहिए थी। ये पति यानि दलाल, भड़ुए और साज़िंदे ही उनके लिए ग्राहक पटाकर लाते थे और ज़ियादातर पैसे हड़प लेते थे। वे आम पत्नियों की ही तरह उनके नाम पर व्रत और उपवास करती थीं और वे उन्हें आम पतियों की ही तरह पीटते थे। यह लड़का अभिजीत अब सब तरफ़ से मायूस होकर सारे दिन अख़बारों के दफ़्तरों में चपरासी से लेकर संपादक तक सबसे निवेदन करता रहता था कि वे बस एक बार चलकर अपनी आँखों से बदनाम बस्ती की हालत देख लें। वहाँ भुखमरी की हालत है, छह औरतें कोठे छोड़कर जा चुकी हैं और दूसरे जगहों पर धंधा ही कर रही हैं। यहाँ अगर पुलिस पिकेट नहीं उठती और उनका धंधा नहीं शुरू होता तो वे भूखों मरेंगी, या फिर चारों ओर फैल जाएँगी। इससे वेश्यावृत्ति कम नहीं होगी, बल्कि और बढ़ेगी। सी. अंतरात्मा की तरह, आम पत्रकारों की भी उसके बारे में राय यही थी कि बच्चों को पढ़ाने की आड़ में वह लड़कियों की तस्करी का रैकेट चलाता है और वेश्याओं की आमदनी से हिस्सा लेता है। वेश्याओं की भलाई का स्वांग करते हुए वह करोड़पति हो चुका है।

    डेढ़ महीना बीतने के बाद भी किसी वेश्या ने थाने में जाकर सरकारी लोन की अर्ज़ी नहीं दी थी और कोई भी नारी संरक्षण गृह जाने को तैयार नहीं हुई। ज़ियादातर साज़िंदों, दलालों के जाने के बाद यह मान लिया गया था कि जल्दी ही वे सभी कहीं और चली जाएँगी, सिर्फ़ बूढ़ी, बीमार औरते रह जाएँगी। जिनमें से कुछ को पुलिस उठाकर संरक्षण गृह में डाल देगी। बाक़ियों को खदेड़ दिया जाएगा जो घूमकर भीख माँगेगी। वैसे भी जनगणना विभाग वेश्याओं की गिनती भिखारियों के रूप में ही करता आया है।

    साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे

    एक दिन चुपचाप प्रकाश ने अभिजीत के सामने प्रस्ताव रखा, मैं तुम्हारे साथ वहाँ चल सकता हूँ लेकिन मुजरा कराना पड़ेगा, फ़ोटो खींचना चाहता हूँ। उसके मन में मुजरा देखने-सुनने की भी बहुत पुरानी दबी इच्छा थी जो इस समय आसानी से पूरी हो सकती थी। इस इच्छा से भी बड़ी वह गुत्थी थी जिसे खोलने के लिए मंड़ुवाडीह जाना शायद ज़रूरी था।

    एक शाम रुटीन के फ़ोटो प्रेस में डाउनलोड करने के बाद वह जल्दी निकल गया और मंड़ुवाडीह की उस बस्ती में पहुँचकर उसने पाया कि वहाँ की बिजली काटी जा चुकी है। बस्ती के दोनों तरफ़ भरे पानी के उस पार बुलडोज़रों की गड़गड़ाहट और छपाक-छपाक मिट्टी फेंकने की आवाज़ें रही थीं। पहली बार ध्यान से उसने कोठों को देखा, जिन्हें एक ख़ास तरह के भ्रम के कारण कोठे कहा जाता था। एक टूटी फूटी सड़क के किनारे ईंटों के एक मंज़िला, कहीं दुमंज़िला मकान थे। ज़ियादातर के पिछले हिस्से में पलस्तर नहीं था। पतली-पतली गलियों में खिड़कियों से लालटेनों और मोमबत्तियों की रौशनी रही थीं। बस्ती के दोनों तरफ़ बरसात का सड़ता पानी भरा था और चारों ओर हवा में बदबू थी, मच्छर भिनभिना रहे थे। सड़क किनारे की ख़ाली पड़ी दुकानों की चाय की भट्ठियों में और छज्जों की छाँव में अलाव जल रहे थे, जिनके गिर्द औरतें और रुखे बालों वाले कुम्हलाए बच्चे बैठे हुए थे। यह दलितों का कोई गाँव लग रहा था। जहाँ उदास रात उतर रही थी।

    मुजरे के तुरंत इंतिज़ाम के तहत किसी घर से हारमोनियम, कहीं से ढोलक मंगाई गई। एक झबरे बालों वाला नशेड़ी लगता लड़का एक बैजों ले आया। एक घर के दालान में कई लालटेनें रखी गईं जिसकी छत के कोनों में मकड़ी के जाले थे जिनके आसपास सुस्त छिपकलियाँ रेंग रही थीं। दीवारों पर मामूली कैलेंडर और फ्रेमों में परिवारों के मेले, ठेले या चलताऊ स्टूडियोज़ में खिंचवाए फ़ोटो लटक रहे थे। अंदर के दरवाज़े पर नॉयलान की साड़ी को फाड़कर बनाया गया, चीकट हो चुका परदा लटक रहा था। थोड़ी देर में कमरा औरतों, बच्चों और दलालों से ठसाठस भर गया, उसे किसी तरह अपना कैमरा गोद में रखकर ऊकड़ू बैठना पड़ा। परदे की ओट से एक काले रंग की मोटी सी औरत आई जिसके चेहरे पर पुते पाउडर के बावजूद चेचक के दाग़ झिलमिला रहे थे, बैठकर घुँघरू बाँधने लगी। प्रकाश को लगा कि वह घुँघरू नहीं बाँध रहीं, कहीं जाने से पहले जूते पहन रही है। उसके पीछे घुँघरू बाँधे एक ख़ूबसूरत सी लड़की आई जिसकी आँखे बिल्कुल भावहीन थीं। वह होंठ आगे की तरफ़ निकालकर बीच में खड़ी हो गई। उसे देख कर प्रकाश को लगा कि उसे कहीं पहले देखा है। वह इतनी दुबली थी कि एनीमिया की मरीज़ लगती थी।

    अचानक सुर मिलाने के लिए टूटी भाथी वाले हारमोनियम ने हाँफना शुरू किया और दोनों औरतें नाचने लगीं। वे हाथ-पैर ऐसे झटक रही थी जैसे उन पर जमी धूल झाड़ रही हों। दोनों ने भावहीन तरीक़े से एक चालू फ़िल्मी गाना गाया। एक ऊँघती बुढ़िया ने जैसे नींद में फ़रमाइश की, ‘बाबू को पंजाबी सुनाओ, पंजाबी।’

    एक क्षण के लिए मोटी औरत ने होंठ फैलाकर प्रकाश की तरफ़ देखा फिर अपने आँचल को कमर से निकालकर सिर पर पटका बाँध लिया। ढोलक की गमक के साथ उचकते हुए उन्होंने गाना शुरू किया, ‘बोले तारा रा रा, बोले तारा रा रा!

    साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे, दुनिया के सारे मज़े कैश करोगे...’

    कई बच्चे भी कूदकर नाचने लगे और धक्का-मुक्की होने लगी। कमरे में धूल उड़ने लगी, लालटेनों के आगे कुहासा सा गया। अब चीख़ पुकार के बीच सिर्फ़ उछलती हुई आकृतियों का आभास भर हो रहा था मानो रात के धुँधलके में प्रेत नाच रहे हों। वाक़ई यह भूखे और क्रुद्ध प्रेतों का ही नाच था जिन्हें घेरकर सड़ते हुए पानी और पुलिस के पहरे में बंद कर दिया गया। धूल के ग़ुबार के कारण अब फ़ोटो खींच पाना संभव नहीं रह गया था। वह उठकर बाहर निकल आया। चेहरे के सामने की धूल उड़ाने की बेकार कोशिश करते हुए अभिजीत ने कहा, ‘यही इनकी ज़िदंगी है सर।’

    अभिजीत को साथ लेकर प्रकाश चला तो सड़क आते ही पुलिस वाले चिल्लाते हुए लपके। इससे पहले कि वह कुछ बोल पाता एक लाठी से मोटर साइकिल की हेडलाइट फूट कर छितरा चुकी थी। अभिजीत ने तेज़ी से कहा, मुड़ लीजिए, दूसरी तरफ़ से निकलिए जानबूझकर मार रहे हैं, ये प्रेस बताने पर भी सुनेंगे नहीं।

    मुड़ते-मुड़ते एक लाठी अभिजीत की पीठ पर पड़ी वह बिलबिला गया। बस्ती के दूसरे छोर पर मुस्तैद पर पुलिस वाले दूर से ही लाठियाँ लहराते, गालियाँ देते हुए बुला रहे थे, वह समझ गया ये निकलने नहीं देंगे। आज की रात यहीं काटनी पड़ेगी। बहुत दिनों के बाद उसे उस रात सचमुच का डर लगा। लग रहा था जैसे पेट में पानी भर गया है और मुँह से बाहर जाना चाहता है। थोड़ी देर तक बस्ती के दोनों छोरों से गालियाँ लहरातीं आती रही, ‘साले, मादरचोद प्रेस के नाम पर रंडीबाज़ी करने आते हैं।’

    मोटरसाइकिल खड़ी कर संयत होने के बाद दुखते हाथ को सेंकने के लिए वह एक अलाव के आगे बैठ गया। अभिजीत वहाँ पहले ही जैकेट उतारकर अपनी पीठ सेंक रहा था और दो बच्चे, सिपाहियों को गालियाँ देते हुए, मास्टर साहब की पीठ की मालिश कर रहे थे। दोनों नाचने वालियाँ यास्मीन और विमला उसे छेड़ रही थी, और कराओ, खुलेआम मुजरा, समुझावन-बुझावन का प्रसाद मिल गया न।

    वे दोनों अब प्रकाश को देखकर मुस्कुरा रही थी। कुछ इस भाव से जैसे अब आटे-दाल का भाव कुछ समझ में आने लगा होगा पत्रकार जी को। दोनों के चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने से पाउडर जगह-जगह बह गया था। उसने यास्मीन से कहा, तुम दोनों नाचती अच्छा हो, ख़ूब नाचती हो। वह जैसे बुरा मान गई, ख़ाली पेट ख़ाक नाचेंगे दीवाली अँधेरे में गई, शादी ब्याह में सट्टा होता था, वह भी बंद हुआ देखिए कितने दिन नुमाइश के लिए नाचते हैं। अलाव से फूस का एक तिनका खींचते हुए यास्मीन ने उलाहना दिया, जिनको खिलाया, पिलाया, बाप-भाई माना जब वही दुश्मन हो जाएँ तो कोई क्या गाएगा और क्या नाचेगा।

    प्रकाश ने अभिजीत से पूछा इनके कौन बाप-भाई है जो दुश्मन हो गए हैं। वह हँसा, ‘ख़ुद ही देख लीजिए, अब रुक ही गए हैं तो सब समझ में जाएगा। उसके कहने पर विमला एक घर से एक छोटा सा फ़ोटो अलबम ले आई। वापसी में उसके पीछे छोटी सी भीड़ चली रही थी। उसने फ़ोटो दिखाने शुरू किए, ‘यह देखिए सावित्री की बिटिया का कन्यादान हो रहा है।’ अगल बग़ल बैठी कई औरतों, बच्चों के चेहरे उस फोटों में थे वे। सभी एक सरपत के मंडप के नीचे खड़े थे। एक आदमी झुका हुआ वर के पैर धो रहा था।

    ‘ये मायाराम पटेल हैं, जो इस लड़की के बाप हैं। यहीं से डेढ़ साल पहले शादी हुई थी आज यह हम लोगों को भगाने के लिए कचहरी पर धरना देकर बैठा हुआ है।

    यह देखिए, असगरी बेगम के लड़के के ख़तने में सभासद तीरथराज दुबे मुर्ग़ा तोड़ रहे हैं।

    बोतलों, गिलासों, जूठी प्लेटों के पीछे दो औरतों को अगल-बग़ल दबाए तीरथराज दुबे फ़ोटो से बाहर भहराने वाला था।

    ‘यह देखिए, हम लोगों के छोटे भइया सलमा से राखी बंधवा रहे हैं।’

    पान की दुकान चलाने वाले राजेश भारद्वाज के हाथों में इतनी राखियाँ बंधी थी कि उसकी कलाइयाँ फूलदान लग रही थीं।

    ‘यह देखिए प्रधान जी सुहानी के साथ चाँद पर जा रहे हैं।’

    शिवदासपुर के उपप्रधान राम विलास यादव किसी मेले के स्टूडियो में चमकीली पन्नियों से सजे लकड़ी के चाँद तारे पर एक लड़की से गाल सटाए बेवजह मुस्कुरा रहे थे।

    ‘यह देखिए... यह देखिए...वे एक के बाद एक मामूली कैमरों से खींचे हुए ग़ैरमामूली फ़ोटो दिखाए जा रही थीं।’

    हमारी दारू, मुर्ग़ा हमारा, आंदोलन उनका

    जैसे फ़ोटो अलबम में कोई पंप लगा था। हर फ्लैप पलटने के साथ प्रकाश की छाती में हवा भरती जा रही थी। ये सभी तो बदनाम बस्ती को हटाने के लिए आंदोलन चला रहे, कचहरी पर आमरण अनशन पर बैठे नेता थे। बस इनके छपने की देर थी कि उनके पाखंड को बारुद लग जाता और सारा आंदोलन कुछ घंटे में चिथड़े-चिथड़े हो जाता। अपनी उत्तेजना पर क़ाबू पाने के बाद उसने अलबम हाथ में लेते हुए कहा, लेकिन ये लोग तो कह रहे हैं कि उनके बच्चों की शादियाँ नहीं हो पा रही हैं, बहू-बेटियों का जीना मुश्किल हो गया है।

    लगा मधुमक्खियों की छत्ते पर ढेला पड़ गया। अलाव की आग से भी तेज़ जीभें लपलपाने लगीं, ये असली दल्ले हैं, अपनी बहू बेटियों का जीना ख़ुद इन्होंने मुश्किल कर रखा है। इनके घर में कौन सी ऐसी शादी हुई है, जिसमें हम लोगों ने पचास हज़ार-लाख रूपया जमा करके दिया हो और मुफ़्त में गाना बजाना किया हो। हमारे सामने तो आएँ, ज़बान ही नहीं खुलेगी। हम लोग तो राजेश भारद्वाज की बारात में भी गई थीं, उसकी शादी यहीं की महामाया ने कराई है। जिस मकान में वह रहता है वह भी महामाया का ही है। उसके पास रजिस्ट्री के काग़ज़ हैं, चाहिए तो अभी ले जाइए। प्रपंची हैं, कुकर्मी हैं सामने पैसा देखकर बदल गए हैं कोढ़ फूटेगा सालों को।

    इस कुहराम से अभिजीत हकबका गया। थोड़ी देर तक लाचार भाव से देखने के बाद उसने खड़े होकर पूरी ताक़त से चिल्लाकर कहा, हल्ला करने से कोई फ़ायदा नहीं महामाया को बोलने दिया जाए। वह सबको जानती हैं। ज़ियादा अच्छी तरह बताएगी। भुनभुनाहट के बाद फिर थोड़ी के लिए खामोशी छा गई।

    नेपालिन महामाया के बस्ती में तीन मकान थ। शायद सबसे मालदार और मानिंद वही थी। वह आग को खोदते हुए एक चमकीले शाल में लिपटी चुपचाप बैठी हुई थी। सबके चुप होने के बाद उसने झुर्रियों में धंसी, काजल पुती, चमकीलीं आखें उठाईं, नशे से लरज़ती आवाज़ में वह ठहर-ठहर कर बोलनें लगी, देखिए कोई छठ आठ महीने पहले की बात है ये नेताजी लोग और भी कई शरीफ़ लोग बस्ती में रोज़ आते थे। हमारी दारू पीते थे हमारा मुर्ग़ा तोड़ते थे और हमारे ही साथ सोते थे। हम लोग भी इनसे हर तरह का रिश्ता रखते थे। यह बात उनके बाल-बच्चों को भी पता है। लेकिन उनका लालच बढ़ता ही जा रहा था। ये लोग पुलिस के भी बाप निकले, आए दिन इतना पैसा माँगते थे कि देना हमारे बस में नहीं रहा। मास्टर साहब के कहने पर सब औरतों ने पंचायत करके तय किया कि बहुत हो गया। अब पैसा, दारू, मुर्ग़ा बंद। हाँ, बोल-बात रहेगी, उनके प्रयोजन में पहले की तरह नाच-गाना भी रहेगा लेकिन पैसे की मदद किसी को नहीं की जाएगी। यही नाराज़गी की वजह है। वरना, हम लोगों को तो इन्हीं लोगों ने और उनके बाप-दादों ने ही यहाँ बसाया था। बसाया भी अपने फ़ायदे के लिए। बाज़ार से तीन गुने रेट पर भाड़ा लिया और पाँच गुने रेट पर ज़मीन और मकान बेचे। अपनी सारी पूंजी लगाकर हम लोगों ने अपने ठीहे खड़े किए, अब रंडिया आँख दिखाएँ, उन लोगों से यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है। प्रकाश को बस्ती के भीतर एक नई बस्ती नज़र रही थी।

    महामाया ने ऊपर ताक कर कहा, ‘काग़ज़ लाओ... मकान ही नहीं बस्ती के भीतर जितनी दुकानें हैं, वे भी उन्हीं लोगों की हैं। घर-घर में झगड़ा हो रहा है कि उनकी ज़िद की वजह से पचासों परिवारों की रोज़ी-रोटी मारी जा रही है। उसने एक-एक दुकानदारों के नाम गिनाने शुरू किए तो उन्हीं के साझीदार, भाई, रिश्तेदार या नौकर-चाकर थे। कोई दुकान छूट जाए तो बच्चे बीच में उचककर याद दिला देते थे। आधे घंटे के भीतर प्रकाश के पास इक्कीस मकानों की रजिस्ट्री के स्टैंप लगे असली काग़ज़ जमा हो चुके थे। बीस-बाइस साल पहले वाक़ई शहर से बाहर की जलभराव वाली ज़मीन के मनमाने दाम लिए गए थे।

    अब अभिजीत ने बोलना शुरू किया ‘असलियत वैसी इकहरी नहीं है, जैसा कि आप लोग सोचते हैं। दरअसल यह आंदोलन ये बुलडोज़र वाले चलवा रहे हैं। जलभराव के अगल-बगल के खेत और परती दिल्ली की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने ख़रीद लिए हैं। यहाँ के कई बड़े नेता, बिल्डर और माफ़िया कंपनी के फ्रेंचाइज़ी हैं। उन सबकी नज़र इस बस्ती पर हैं, गाँव और पड़ोस के मुहल्लों के चालाक लोग डीआईजी की शह पाकर आंदोलन इसलिए चला रहे हैं कि वेश्याएँ अपने मकान औने-पौने में इन्हें बेचकर भाग जाएँ फिर ये उनकी प्लाटिंग करके बिल्डरों की मदद से यहाँ अपार्टमेंट और मार्केटिंग काम्प्लेक्स बनवाएँगे और रातों-रात मालामाल हो जाएँगे। यक़ीन हो तो इनमें से जिनके घर हैं, किसी से पूछ लीजिए दलाल और बिचौलिए मकानों की क़ीमत लगाने लगे हैं। उन्हें लगता है कि धंधा बंद होने के बाद वेश्याएँ यहाँ ज़ियादा दिन नहीं टिक पाएँगी। आप ग़ौर से देखिए जो संस्थाएँ आजकल डीआईजी का अभिनंदन करने में लगी हैं, उनका कोई कोई पदाधिकारी कंस्ट्रक्शन कंपनी या फिर बिल्डरों से जुड़ा हुआ है।

    प्रकाश के सीने में फिर से हवा भरने लगी। वह तुरंत उड़ जाना चाहता था। उसे तीस साल पहले इस इलाक़े की ज़मीनों के असल रेट और वेश्याओं को की गई रजिस्ट्री के रेट का तुलनात्मक व्यौरा, कंस्ट्रक्शन कंपनी के भू-उपयोग और ले-आउट प्लान का ख़ाका, आंदोलन कर रहे नेताओं और डीआईजी की बिल्डरों से सौदेबाज़ी के सबूत और कुछ पुराने प्रापर्टी डीलरों और रीयल इस्टेट के धंधेबाज़ों के बयानों का इंतिज़ाम करना था बस! यह कोई बड़ी बात नहीं थी। रजिस्ट्री दफ़्तर, विकास प्राधिकरण और कंस्ट्रक्शन कंपनी के मार्केटिंग डिवीज़न और पीआरओ से मिलकर ये सारे काम चुटकी बजाते हो सकते थे। एक सनसनीख़ेज़ स्टोरी सीरिज़ उसकी मुट्ठी में थी। उसने अभिजीत से कहा, ‘हमें एक बार फिर निकलने की कोशिश करनी चाहिए।’

    ‘अब ज़ियादा ख़तरा है, सुबह से पहले निकलने की सोचिए भी मत, इस समय पुलिस वाले ट्रकों को रोककर वसूली कर रहे होंगे, बौखला जाएँगे।, अभिजीत ने कहा।

    एक लड़की ने आकर बताया कि आज रात खाने का इंतिज़ाम रोटी गली में है। ज़ियादातर लोग खाकर जा चुके हैं, वे लोग भी पहुँचें, नहीं तो खाना ख़त्म हो जाएगा। प्रकाश हिचकिचाया तो एक अधेड़ औरत ने हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, ‘हम लोगों का कोठी, बंगला और गाड़ियाँ सब तो आपने देख ही लिया, अब चलकर खाना भी देख लीजिए। बड़े-बड़े लागों का खाना तो रोज़ ही खाते होंगे, एक दिन हमारा भी खाइए।

    एक गली में पेट्रोमेक्स की रौशनी में वेश्याओं की पंगत बैठ रही थी। बच्चों को पहले ही खिला दिया गया था। यह शायद आख़िरी पंगत थी। पत्तल पर जब खिचड़ी और अचार आया तो यास्मीन हँसी, पत्रकार जी आजकल हम लोग यही खा रहे हैं। जो कमाया था डेढ़ महीने में उड़ गया। अगर पैसा हो भी तो सामान लाने निकल नहीं सकते। चोरी-छिपे चावल लाकर यही इंतिज़ाम किया गया है।

    प्रकाश अचरज को दबाना चाहता था लेकिन मुँह से निकल गया, ‘तवायफ़ें साधुओं की तरह खिचड़ी खा रही हैं और जहाँ यह बंट रही है, उस जगह का नाम रोटी ही गली है।’

    अभिजीत ने सामने की पंगत में खा रही पत्थर जैसे भावहीन चेहरे वाली एक औरत से कहा, ‘ये पत्रकार हैं, इनको बताओ रोटी वाली गली को किसने बसाया।’

    जल्दी-जल्दी चार-पाँच कौर खाने के बाद वह बोलने लगी, असली रोटी गली यहाँ नहीं कानपुर में है। वहाँ भी एक पागल पुलिस अफ़सर आई थीं, नाम था उसका ममता विद्यार्थी, उसने धंधा बंद करा दिया और पीटकर सब आदमियों को भगा दिया। आसपास के लोग भी हमें हटाने के लिए धरना प्रदर्शन करने लगे। डेढ़ साल तक हम लोग बैठकर खाते रहे, सोचते थे कि धंधा फिर शुरू होगा लेकिन नहीं हुआ। सबकी हालत बहुत ख़राब हो गई तो भागना पड़ा। मेरा बच्चा डेढ़ साल का था और बूढ़ी माँ थी। सावित्री, जानकी और रेशमा के भी बच्चे छोटे-छोटे थे। हम लोग किसी परिचित के साथ यहाँ गए। बाक़ी औरतें कहाँ-कहाँ गई पता नहीं। हम लोगों का नाम ही रोटी गली वाली पड़ गया है। प्रकाश जान गया, अगर ये यहाँ से गईं तो पता नहीं कितने गए मंड़ुवाडीह और आबाद होंगे।

    खाना खाने के बाद दोनों बाक़ी रोटी-गली वालियों के घर गए जहाँ मोमबत्ती की मद्धिम रौशनी में लटकते चीथड़ों के बीच उने बच्चे बेसुध सो रहे थे। प्रकाश ने ऐसे सैकड़ों घर देखे थे जहाँ ग़रीबी, भूख और दीनता बच्चों की आँखों में आँसुओं की पतली परत की तरह जम जाती है और वे दुनिया को हमेशा भय के परदे से देखने के आदी हो जाते हैं। यहाँ उनकी आँखें बंद थीं। सोते बच्चों की तस्वीरें खींचने के बाद वे फिर अलाव के पास वापस गए। वहाँ एक लूली बुढ़िया, वही रोज़ वाला क़िस्सा सुना रही थी कि कैसे एक बारात में नाचते हुए उसने बंदूक़ की नाल पर रखे सौ रुपए के नोट को छुआ तभी बंदूक़ वाले ने घोड़ा दबा दिया। उसकी जो हथेली अब नहीं है, उसमें दर्द महसूस होता है। बच्चे उसे चुप कराने के लिए शोर मचा रहे थे।

    निहलानी की आँखों में नैतिकता का पुल

    प्रकाश की हालत उस साँप जैसी हो गई जिसने अपनी औक़ात से काफ़ी बड़ा मेढक अनजाने में निगल लिया हो, जिसे वह उगल पा रहा है पचा पा रहा है। वह दिन में ज़िला कचहरी के सामने धरने पर बैठे नेताओं के पास बैठकर लनतरानियाँ सुनता, घर आकर रात में तस्वीरों में उनके चेहरों का मिलान करता। हर दिन उनके बयान पढ़ता और रात में रजिस्ट्री के काग़ज़ों पर उनके हलफ़नामे देखता। स्नेहलता द्विवेदी, डीआईजी के पिता के साथ इस बीच लखनऊ जाकर दो बार मुख्यमंत्री और कई विधायकों से मिल आई थीं। दिन में कई बार गाड़ियों से उतरने वाले सोने की चेनों, पान मसाले के डिब्बों, मोबाइल फ़ोनों से लदे-फंदे लोग उनका हाल पूछ जाया करते थे। प्रशासन की सारी अपीलें ठुकराकर उन्होंने ऐलान कर रखा था कि यह धरना तभी उठेगा जब मंड़ुवाडीह की सारी वेश्याएँ शहर छोड़कर चली जाएँगी।

    टेंट के आगे लगा 'वेश्या हटाओ-काशी बचाओ' का बैनर अब ओस और धूल में लिथड़ कर मटमैला पड़ चुका था। पुआल पर बिछे सफ़ेद रज़ाई, गद्दों, मसनदों पर मैल जमने लगी थी। रोज़ पहनाई जाने वाली सूख कर काली पड़ चुकी गेंदे की लटकती मालाओं की झालर बन चुकी थी। गद्दे पर बिखरे लाई चने, पान के पत्तों और मुचड़े हुए अख़बारों के बीच, धरना देने वाले अब भी वेश्याओं, ग्राहकों और दलालों के उत्पात के क़िस्से धारावाहिक सुनाए जा रहे थे। समर्थन देने वाली संस्थाओं के लिए दोपहर बाद का समय तय था। उनके नेताओं के आने के साथ माइक ऑन होता और सभा शुरू हो जाती जो कचहरी बंद होने तक चलती थी। शाम और रात का समय भजन गाने वाले कीर्तनियों के लिए था। वे सभी पूरी तन्यमता से एक पुण्य काम में सहयोग कर रहे थे।

    सी. अंतरात्मा ही छवि को ख़ुश कर सकने वाले, प्रकाश के खोजी-पत्रकारिता अभियान में मदद कर सकते थे। उसने चंट फ़ोटोग्राफ़र की तरह उनकी बरसों पुरानी एक इच्छा पूरी कर दी। वे जाने कब से कह रहे थे कि प्रकाश उनके माँ-बाप की अच्छी सी तस्वीर खींच दे। उसने अंतरात्मा के घर जाकर चुपचाप तस्वीर ही नहीं खींची, एक पेंटर से उसका पोट्रेट बनवाया, अभी पेंट सूखा भी नहीं था कि अख़बार में लपेटकर उन्हें भेंट कर दिया। वह ख़ुशी और अचरज से हक्के-बक्के रह गए। उन्हें अंदाज़ा ही नहीं था कि उनकी छिपी हुई साध इस तरह पूरी हो जाएगी।

    अंतरात्मा, प्रकाश को लेकर शहर के सबसे बड़े बिल्डर और राज्यसभा के सदस्य हरीराम अग्रवाल के पास लेकर गए, जिसको वह अपना दोस्त कहते थे। प्रकाश को यक़ीन नहीं था कि अंतरात्मा जैसा फ़टीचर पत्रकार अग्रवाल का इतना क़रीबी हो सकता है। वह बड़े तपाक से मिला जैसे घिसी पैंट-क़मीज़ वाले अंतरात्मा सिद्धांतों, मूल्यों वाले कोई असफल नेता हों जिनके लिए उसके मन में अपार सहानुभूति है। उसे बताया गया कि अख़बार के लिए एक फ़ोटोफीचर करना है जिसकी थीम यह है कि प्रस्तावित निर्माण परियोजना पूरी होने के बाद मंड़ुवाडीह का पिछड़ा, बदहाल इलाक़ा कैसा दिखेगा और शहर में क्या-क्या बदलाव आएँगे। अग्रवाल, फ़ौरन दोनों को लेकर निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी के एमडी श्रीविलास निहलानी के पास गए जो शहर के एक पाँच सितारा होटल में ठहरे हुए थे। कंपनी के चीफ़ आर्किटेक्ट और जनसंपर्क अधिकारी को भी वहीं बुलवा लिया गया।

    उस शाम वह होटल के सबसे शानदार सूट में एक बेड पर लैपटाप, फोनों ब्रीफ़केसों और काग़ज़ों के ढेर से घिरा शराब पी रहा था। उसके सामने प्लास्टिक की कुर्सियों पर विभिन्न आकार-प्रकार के कारोबारी, बिल्डर, छुटभैये नेता, गुंडे, दलाल विनम्र भाव से बैठे हुए थे। उसका पेट इतना बड़ा था कि लग रहा था, उसके साँवले, विशाल शरीर के बग़ल में अलग से रखा हुआ है। उस पूरे परिदृश्य में उसकी आँखें विलक्षण थीं। उसकी असाधारण बड़ी आँखों का उजला परदा अति आत्मविश्वास से बुना हुआ था जिस पर आश्वस्ति से निर्मित, भूरी पुतलियाँ डोल रही थीं। दुनिया के सारे रहस्यों को वह जान चुका था, शायद इसीलिए किसी भी बात पर उसकी आँखें झपकती नहीं थी और ही उनमें विस्मय का हल्का सा भी भाव आने पाता था।

    अग्रवाल के आते ही उसने आर्किटेक्ट और पीआरओ को इशारा किया और मीटिंग चुटकी बजाते निपटा दी। सामने बैठे लोगों से उसने कहा, उस गाँव में जिन लोगों के बड़े प्लाट हैं, उनका रेट थोड़ा बढ़ा दो। उन्हें लगाओ कि बाक़ी लोगों को समझाएँ। फिर भी नहीं समझते तो छोड़ दो, उस गाँव को भूल जाओ। हमारे पास अभी छह महीने का टाइम है। दो महीने बाद उस ज़मीन के सरकारी अधिग्रहण का काग़ज़ निकलवा देंगे। सरकारी रेट और सर्किल रेट दोनों हमारे रेट से कम है। थोड़ा जिंदाबाद-मुर्दाबाद होगा और पुलिस डंडा चलाएगी तो अपने आप अक़ल ठिकाने जाएगी। वे अपने खेत अपने हाथ में उठाकर ले आएँगे और हमें दे देंगे।

    जनसंपर्क अधिकारी उन्हें दूसरे कमरे में ले गया, जहाँ मेज़ पर बेयरे खाने-पीने का सामान लगा रहे थे। सांसद अग्रवाल ने कहा, कुछ लेते रहिए, बातचीत भी चलती रहेगी, निहलानी जी व्यस्त आदमी है।

    सी. अंतरात्मा लपककर उठे और प्रकाश के कान में कहा, ‘वही वाली पिया जाएगा। जो यह पी रहा था। व्हिस्की से सबेरे पेट भी बढ़िया साफ़ होगा।’

    निहलानी कुर्सी में नहीं अट पाता था। अपना गिलास लिए बिस्तर में धँसते हुए बोला, इस शहर में सिटी प्लानिंग का हम नया युग शुरू करने जा रहे हैं, पुराने के ठीक बग़ल में नया शहर होगा जहाँ दुनिया के किसी भी अच्छे मेट्रो जैसी सुविधाएँ होंगी। दुनिया पुराना बनारस देखने आती है लेकिन यहाँ के लोग इंच और सेंटीमीटर में नापी जाने वाली पतली गलियों में, टेंट में रुपया दबाए घुट रहे हैं। हम उन्हें नए खुले और मार्डन शहर में ले आएँगे। वह हँसा...कहिए अग्रवाल जी यह कबीर दास की उल्टी बानी कैसी रहेगी।

    बहुत सुंदर, बहुत सुंदर! अग्रवाल ने गिलास रखते हुए भावभीने ढंग से कहा जैसे उनका गला रुंध गया हो। खंखार कर बोले, अब देखिए भगवान की कृपा रही, डीआईजी साहब और अंतरात्मा जी ने चाहा तो दो महीने में आख़िरी समस्या भी ख़त्म हो जाएगी। उसके बाद रोड क्लीयर है।

    निहलानी हँसा, डीआईजी तो धर्मात्मा आदमी है साईं, तपस्या कर रहा है। बस अंतरात्मा जी के भाई बंदों की कृपा बनी रहे तो गाड़ी निकल जाएगी। मैंने तो इनके लिए एक पर एक फ्री का ऑफऱ सोच रखा है। एक मकान के बदले एक दुकान और एक फ़्लैट ले जाओ। ऐश करो। वैसे भी हमारी स्कीम है कि जब बुकिंग होगी तो हम पुलिस, प्रेस और वकीलों का ख़ास ख़याल रखेंगे। पत्रकार संघ से बात हुई है। अगर उन्होंने पैसा इकट्ठा कर लिया तो हम पत्रकारों के लिए अलग एक ब्लाक दे देंगे, उसमें कोई समस्या नहीं है।

    अग्रवाल जी ने अंतरात्मा का कंधा थपथपाया, हमारे तो डीआईजी यही हैं, इन्होंने भी कम प्रयास नहीं किया है। अंतरात्मा की पकी दाढ़ी में मेधावी स्कूली छात्र जैसी मुस्कान फैल गई।

    निहलानी के संकेत पर आर्किटेक्ट ने मेज़ पर नक़्शा फैला दिया। अर्धचंद्राकार घेरे में ग्यारह-ग्यारह मंज़िल के तीन आवासीय काम्प्लेक्स बनने थे। जिनके बीच फैले सड़कों के जाल के धागों के इधर-उधर मार्केटिंग कांपलेक्स, पार्किंग ज़ोन, स्टेडियम, सिनेमाहाल, पेट्रोल पंप, स्विमिंग पूल, पार्क, कम्युनिटी सेंटर, सिक्योरिटी आफ़िस छितरे हुए थे। लाल नीले रंग निशानों से भरे स्केच में प्रकाश अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहा था कि इसमें बदनाम बस्ती वाली जगह कहाँ है।

    आर्किटेक्ट, अचानक नक़्शा समेटने लगा तो प्रकाश ने हड़बड़ाकर पूछा, अगर वेश्याएँ मंड़ुवाडीह से नहीं हटती हैं, तब आपके प्रोजेक्ट का क्या होगा? निहलानी ने आश्वस्त भाव से कहा, नहीं हटेंगी तो प्रोजेक्ट रुक थोड़े जाएगा बल्कि और शानदार हो जाएगा। उसने आर्किटेक्ट को इशारा किया, इन्हें मॉरेलिटी ब्रिज दिखाओ।

    आर्किटेक्ट ने अब दूसरा स्केच खोलकर मेज़ पर फैला दिया। अर्धचंद्र के दोनों छोरों पर बनी बहुमंज़िली इमारतों को एक ओवर ब्रिज से जोड़ दिया गया था। जिसके नीचे, ठीक बीच में बदनाम बस्ती थी।

    आर्किटेक्ट समाचार वाचक की तरह बोलने लगा, यह नैतिकता सेतु पाँच सौ मीटर चौड़ा होगा। जिसके बीच फाइबर ग्लास के ट्रांसपैरेंट स्लैब होंगे। यहाँ कारें आसानी से पहुँच सकेंगी। नीचे हैलोजन लाइटस होंगी, जिससे नीचे, ज़मींन की सारी चीज़ें रात में भी साफ़ नज़र आएँगी। एक बंगीजंपिंग का प्लेटफ़ार्म होगा और भी बहुत कुछ होगा। इस ब्रिज का इस्तेमाल मनोरंजन, सैर सपाटे लेकर निगरानी तक के लिए किया जाएगा और वहाँ पर...

    उसे रोककर निहलानी ने बताना शुरू किया। एक एजेंसी से बात हो गई है जो लोगों को किराए पर हर दिन दूरबीनें देगी और सुरक्षा का इंतिज़ाम देखेगी। आइडिया यह है कि वहाँ घूमने आने वाले लोग टिकट लेकर नीचे वेश्याओं को घूमते, ग्राहकों को पटाते और वहाँ चलता सारा कारोबार देख सकेंगे। इससे बड़ा मनोरंजन और क्या हो सकता है। पुलिस पेट्रोल और निगरानी के लिए ख़ास इंतिज़ाम होगा। पुलिस वहाँ से अवैध कारोबार पर नज़र रखेगी, अपराधियों को पहचानेगी। इससे क्राइम कंट्रोल करने में भी काफ़ी मदद मिलेगी। यह भी हो सकता है कि इससे बनने वाले मनोवैज्ञानिक दबाव, पहचाने और पकड़े जाने के डर के कारण वहाँ कस्टमर आना बंद कर दें। जब कारोबार ही ठप हो जाएगा तो वेश्याएँ कितने दिन रहेंगी।

    प्रकाश को लगा यह मज़ाक़ है। अंतरात्मा जो भौंचक, साँस रोके सुन रहे थे, ठठाकर हँस पड़े, ‘जुलुम बात है... यह तो वैसे ही है जैसे बचपन में हम लोग सरपत में छिपकर कुएँ पर नहाती औरतों को देखा करते थे।’

    प्रकाश ने हैरत से कहा, अगर यह मज़ाक़ नहीं है तो यह बताइए कि अगर वेश्याओं ने धंधे का ऐसा कोई नया तरीक़ा अपना लिया, जिसमें सड़क पर कोई दिखे ही नहीं तो क्या होगा? जहाँ तक मनोविज्ञान की बात है तो बहुत पहले मकानों की दीवारों पर पेशाब करने वालों के बारे में भी लोग यही सोचते थे लेकिन क्या नतीजा निकला।

    निहलानी ने तीसरा पेग ख़त्म कर लंबी हुंकार भरी, साईं तभी तो असली होना शुरू होगा। दस साल में हमारा दूरबीन कल्चर चुका होगा तब इंटरटेनमेंट कंपनियाँ अपनी लड़कियों को लाकर तुम्हारे मंड़ुवाडीह में बसा देंगी। उनकी छतों पर ओपेन एयर बार, कैबरे, स्विंमिंग पूल, सन बाथ स्टैंड, जाकुजी, साउना और तरह-तरह के खेल होंगे। लोग उन्हें देखने के लिए आएँगे। वेश्याएँ इन स्मार्ट और मालदार लड़कियों वाली कंपनियों के आगे पिट जाएँगी। ये कंपनियाँ उनसे पूरा इलाक़ा ही ख़रीदकर उसे एशिया क्या, दुनिया के सबसे बड़े ओपन एयर पीप-शो वाले इंटरटेनमेंट ज़ोन में बदल देंगी। बनारस में विदेशियों की भारी आमद को ध्यान में रखते हुए यह योजना तैयार की जा रही है लेकिन अभी पाइपलाइन में ही है। प्रकाश हैरत से नशे से रतनार, आत्मविश्वास से दमकती आँखों वाली मैहर की देवी जैसी उस मूर्ति को देखता ही रह गया।

    निहलानी के सोने का समय हो चुका था। ले-आउट प्लान की फ़ोटो कापी, योजना का ब्रोशर और कुछ तस्वीरें प्रकाश चला तो अंतरात्मा ने प्लेट से एक मुट्ठी काजू उठाकर पैंट की जेब में डाल लिया। जनसंपर्क अधिकारी ने बाहर छोड़ते समय सभी को निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी का एक मोमेंटो, कंपनी के होलोग्राम वाली एक घड़ी, दो हज़ार के गिफ़्ट बाउचर उपहार में दिए। अंतरात्मा को यह कहते हुए, काजू का दो किलो एक पैकेट दिया कि अपने दोस्तों की पसंद का हम ख़ास ख़याल रखते हैं। अंतरात्मा ने बच्चे की तरह उसे गोद में उठा लिया। रास्ते में हवा लगी तो वह हिचकी लेते हुए बुदबुदाने लगे, बहुत दुर्दिन देखा दादा, बहुत दुर्दिन देखा।

    वह बड़बड़ा रहे थे, सब कोई भगवान से मनाओ कि ये साला मुरल्टी का पुल बने, नहीं तो हमारा परिवार बर्बाद हो जाएगा। बस्ती वाला मकान तो वैसे ही हाथ से निकल गया है। आशा बंधी थी कि कंपनी ख़रीद लेती तो कुछ रोटी-पानी का डौल बैठ जाएगा। हमारी तो बारह सौ की रिपोर्टरी करते किसी तरह कट गई पाँच-पाँच बच्चे हैं, पुल बन गया तो साले कहाँ जाएँगे। प्रकाश ने उन्हें घर छोड़ा तब सिसक रहे थे, विश्वनाथ बाबा से मनाओ कि मुरल्टी का पुल बने दादा।

    तितलियों के पंखों की धार

    बदनाम बस्ती में पहले भूखे भँवरे आते थे। तीन महीने तक खिचड़ी खाने के बाद अब भूखी तितलियाँ दम साधकर फूलों की तरफ़ उड़ने लगीं, उनके रहस्यमय पंखों के रास्ते में जो भी आया, कट गया।

    शाम के धुँधलके में जब गाड़ियों का धुँआ मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती के ऊपर जमने लगता, सजी-धजी तितलियाँ एक-एक कर बेहिचक बाहर निकलतीं। सिपाहियों के तानों का मुस्कानों से जवाब देते हुए वे सड़क पार कर जातीं। वहाँ पहले से खड़े उनके मौसा, चाचा, दुल्हाभाई या भाईजान यानि दलाल उन्हें इशारा करते और वे चुपचाप एक-एक के पीछे हो लेतीं। वे उन्हें पहले से तय ग्राहकों के पास पहुँचा कर लौट आते थे। जिनके कस्टमर पहले से तय नहीं होते थे, वे अतृप्त, कामातुर प्रेतों की तलाश में सड़कों और घाटों पर चलने लगतीं। औरतों को मुड़-मुड़ कर देखने और उनका पीछा करते हुए भटकने वालों को वे ठंडे, सधे ढंग से इतना उकसाती कि वे घबराकर भाग जाते या उन्हें रोककर तय तोड़ करने लगते। जो थोड़ा तेज़ तर्रार और आत्मविश्वासी थीं वे होटलों और सिनेमाहालों के बाहर कोनों में घात लगातीं।

    दोयम दर्जे की समझी जाने वाली अधेड़ औरतें रात गए बस्ती के दूसरे छोर से झुंड में निकलतीं और गाँव के पिछवाड़े खेतों से होते हुए हाई-वे पर निकल जातीं। वहाँ ओस से भीगे, पाले से ऐंठते पैरों को काग़ज़, प्लास्टिक और टायर जलाकर सेंकने के बाद वे एक-एक कर ढाबों पर खड़ी ट्रकों की क़तार में समा जातीं। भोर में जब वे लौटतीं लारियों में, चाय की दुकानों की बेंचों और मकानों के चबूतरों पर ओवरकोट में लिपटे, पुलिस वाले आराम से सो रहे होते। पहरा देने वालों का हफ़्त तय कर दिया गया था जिसे दलाल और भड़ुए एक मुश्त पहुँचा आते थे।

    एक दोपहर प्रकाश घाट पर सलमा को देखकर चक्कर खाकर गिरते-गिरते बचा। वह नीले रंग का स्कर्ट और सफ़ेद क़मीज़ पहने, छाती पर एक मोटी किताब दबाए, एक पंडे की ख़ाली छतरी के नीचे बैठी छवि के पेट पर लेटी, नदी को देख रही थी। छवि का पेट थोड़ा और उभर आया था और चेहरे पर लुनाई गई थी। सलमा की बाँह पर हाथ रखे वह जितनी शाँत और सुंदर लग रही थी, उतना ही वीभत्स, हाहाकार प्रकाश के भीतर मचा हुआ था।...तो मेरा पूर्वाभास सही था। उसे मंड़ुवाडीह में उस लड़की के बलात्कार का पता था। शायद वह वहाँ के बारे में मुझसे कहीं ज़ियादा जानती है, उसने सोचा। उसका हाथ कैमरे पर गया कि वह दोनों की एक फ़ोटो उतार ले लेकिन फिर वह विक्षिप्त जैसी हालत में लड़खड़ाता, भरसक तेज़ क़दमों से दूसरे घाट की ओर चल पड़ा।

    सामने जलसमाधि लेने वाले युवक के आगे पीछे, अजीब-ओ-ग़रीब अंतर्राष्ट्रीय बेड़ा गुज़र रहा था। और लोगों की तरह सलमा भी नाव पर घंटे घड़ियाल बजाते, नारे लगाते लोगों को देखकर हाथ हिला रही थी।

    कोई दो घंटे बाद सलमा उसे फिर दिखी। इस बार वह अकेली, छाती पर किताब दबाए भटक रही थी। वह उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था, लपक कर पास भी गया। लेकिन उसने किताब की ओर इशारा किया, आज कल तुम्हारे स्कूल में क़ुरान पढ़ाई जा रही है क्या?

    उसने क़ुरान को पलट दिया और अपनी चुटिया को ऐंठते हुए हँसी। तुनक कर धीमे से कहा, जो मुझे ले जाएगा, वह किताब को नहीं पढ़ेगा... अच्छा अब आप जाइए। यहाँ मत खड़े होइए, बात करनी हो तो वहीं दिन में आइएगा। वहाँ अब रात में कोई नहीं मिलता। अब प्रकाश को दिखा कि नीचे घाट की सीढ़ियों पर, नदी किनारे उसी जैसी पाँच-सात और लड़कियाँ स्कर्ट, सलवार सूट, सस्ती जींस पहने घूम रही थीं। उनकी बुलाती आँखे, रूखे बाल, ज़ियादा ही इठलाती चाल और किताबें पकड़ने का ढंग, कोई भी ग़ौर करता तो जान जाता कि वे स्कूल-कालेज की लड़कियाँ नहीं हैं। जो लोग उनके ख़िलाफ़ इतने ताम-झाम से समारोहपूर्वक अपना ग़ुस्सा उगल रहे थे, उन्हीं के बीच भटकती हुई वे कस्टमर पटा रही थीं। प्रकाश उनके दुस्साहस पर दंग था। शायद उन्हें सचमुच की हालत का पता नहीं था इसीलिए वे सड़क पर हुँकारते ट्रकों के बीच मेढ़कों की तरह फुदक रही थीं। अगर लोगों को पता चल जाता कि वे वेश्याएँ है तो भीड़ उनकी टाँगे चीर देती और झुलाकर नदी में फेंक देती। सलमा ने पलटकर देखा प्रकाश वहीं खड़ा, कैमरा फोकस कर रहा था। उसने पूछा ‘आप अख़बार में हम लोगों को नगर-वधू क्यों लिखते हैं?’

    प्रकाश ने कैमरे में देखते हुए ही कहा, ‘क्योंकि तुम किसी एक की नहीं, सारे नगर की बहू हो, तुम यहाँ किसी ख़ास आदमी को तो खोज नहीं रही हो, जो मिल जाए उसी के साथ चली जाओगी।’

    ‘अच्छा तब मेयर साहब को नगर प्रमुख क्यों, नगर पिता क्यों नहीं लिखते और उनसे कह दो कि आकर हम लोगों के साथ बाप की तरह रहें।’

    प्रकाश ने खिलखिलाती हुई उस वेश्या छात्रा को देखा। उसे अचानक लालबत्ती और रेडलाइट एरिया का फ़र्क़ नए ढंग से समझ में गया। मेयर पुरुष है, संपन्न है इसलिए लालबत्ती में घूम रहे हैं। तुम ग़रीब लड़की हो इसलिए अपना पेट भरने के लिए मौत के मुँह में घुसकर ग्राहक खोज रही हो।

    उसकी हँसी से चिढ़कर पूछा, ‘तुम्हें यहाँ डर नहीं लगता। इन लोगों को पता चल गया तो?’

    वह हँसती ही जा रही थी, उसने नदी के उस पार क्षितिज तक फैले बालू का सूना विस्तार दिखाते हुए कहा, ‘जिन्हें पता चल गया है, वे लड़कियों के साथ उस पार रेती में कहीं पड़े हुए हैं और वे किसी से नहीं कहने जाएँगे... अलबत्ता हल्के होकर हम लोगों को हटाने के लिए और ज़ोर से हर हर महादेव चिल्लाएँगे।...अच्छा अब आप चलिए, नहीं तो लड़कियाँ आपको ही कस्टमर समझ कर पीछे लग लेंगी।’

    बेईमानी का संतोष

    धंधा, शहर में फैल रहा है। यह ख़बर डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी को लग चुकी थी। उन्होंने अफ़सरों की मीटिंगें कीं। सिपाहियों की माँ-बहन की। दारोग़ाओं को झाड़ा, एलआईयू को मुस्तैद किया, तबादले किए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। जो भी मंड़ुवाडीह के दोनों छोरों पर पहरा देने जाता, भड़ुओं का ग़ुस्सैल बड़ा भाई हो जाता। जिसकी हर सुख-सुविधा का वे ढीठ विनम्रता के साथ ख़याल रखते। कप्तान वग़ैरह रस्मी तौर पर मुआयना करने आते तो सिपाही उन्हें वेश्याओं के ख़ाली पड़े दो-चार घर दिखा देते। वे लौटकर रिपोर्ट देते कि धंधा बंद होने के कारण, उन घरों को छोड़कर वे कहीं और चली गईं हैं। डीआईजी ने शहर के लॉजों, होटलों में छापे डलवाने शुरू करा दिए, जिनमें बाहर से आकर धंधा कर रही कालगर्लें पकड़ी गईं लेकिन मंड़ुवाडीह की कोई वेश्या नहीं मिली। हमेशा की तरह ख़बरे छपी कि रैकेट चलाने वालों की डायरियों और कालगर्लों के बयानों से कई सफ़ेदपोश लोगों के नाम, पते और नंबर मिले हैं जल्दी ही पुलिस उनसे पूछताछ करेगी और उनकी क़लई खुलेगी। हमेशा की तरह पूछताछ हुई, क़लई खुली और ही फालोअप हुआ। कालगर्लें ज़मानत पर छूटकर किसी और शहर चली गईं और रैकेट चलाने वालों ने भी नाम और ठिकाने बदल लिए।

    प्रकाश की ड्यूटी लगाई गई कि वह शाम को पहरा देते पुलिसवालों के बीच से होकर बदनाम बस्ती से धंधे के लिए निकलने वाली लड़कियों की फ़ोटो ले आए। उसने पहली बार बेईमानी की, जब वे निकल रहीं थी, तब वह अंतरात्मा के घर में बैठकर उनके साथ चाय पी रहा था। उनके निकल जाने के बाद वहाँ पहुँचकर उसने एक पूरा रोल खींच डाला, जिसमें कुहरे बीच झिलमिलाते सिपाहियों और गुज़रते इक्का-दुक्का राहगीरों के सिवा और कुछ नहीं था। उसे फ़्लैश चमकाते देख, दो सिपाहियों ने खदेड़ने की कोशिश की तो उसने कहा कि वे निश्चिंत रहें आज वह एक भी फ़ोटो ऐसा नहीं खींचेगा जिससे उनको कोई परेशानी हो। एक सिपाही ने पूछा, बहुत साधु की तरह बोल रहे हो, बाई जी लोगों ने कुछ सुंघा दिया है क्या?’

    सिपाही जब आश्वस्त हो गए तो उन्होंने बताया कि कम उम्र की लड़कियों का धंधा बढ़िया चलने से अब नई लड़कियाँ भी रही थीं। उन्हें मंड़ुवाडीह में नहीं, शहर में किराए पर लिए मकानों में रखा जा रहा था। थाने का रेट बढ़कर अब पैंतीस से पचास हज़ार हो गया था। प्रकाश ने अंतरात्मा से कहा कि लगता है निहलानी का मॉरेलिटी ब्रिज ही बनेगा और बड़े लोगों की चाँदी रहेगी। तुम तो बाई जी लोगों से ही बात कर लो, शायद उनमें से कोई तुम्हारा मकान ख़रीद ले। अंतरात्मा को अफ़सोस था कि पुलिस भी दो टुकड़ा हो चुकी है।

    प्रेस लौटकर उसने फ़ोटो एडीटर को समझाया कि कुहरा इतना है कि वहाँ कुछ भी देख पाना संभव नहीं है। जो बन सकती थीं, वे यही तस्वीरे हैं। वह बेईमानी करके बहुत ख़ुश था। उसने ख़ुद को हताशा से बचा लिया था। उसके फ़ोटो खींचने से अख़बार की थोड़ी विश्वसनीयता बढ़ती, सर्कुलेशन बढ़ता लेकिन धंधे पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पुलिस वाले ही बंद नहीं होने देते। वह चाहता भी नहीं था कि धंधा बंद हो। वह अब चाहता था कि चले और ख़ूब चले।

    मरियल क्लर्क, थ्रिल और गलता पत्थर

    (अमर होने की चाह के बजाय ज़िंदगी की गति के साथ चलने के थ्रिल को बार-बार महसूस करने की ग़रज़ से लिखी इस लंबी कहानी उर्फ़ लघु उपन्यास की यह समापन क़िस्त है। इसे हज़ार-पाँच सौ प्रतियों वाली किसी पत्रिका में प्रकाशित कराने के बजाय नेट पर ख़ास मक़सद से जारी किया गया है। इरादा है कि हिंदी के प्री-पेड आलोचकों, समीक्षकों और साहित्यबाज़ों के बजाय इसे सीधे पाठकों के पास ले जाया जाए और उनकी राय जानी जाए। आप सबसे आग्रह है कि इस कहानी पर अपनी राय बेधक ढंग से लिखें बिना इस बात की परवाह किए कि वह पहले कहीं देखी किसी स्वनामधन्य की लिखावट के आसपास है या नहीं। क्या पता बिना साहित्यिक विवादों की झालर, आलोचना शास्त्र के सलमे सितारों से रहित, इन या उन जी के दयनीय दबावों से मुक्त सहज प्रतिक्रियाएँ हिंदी के नए लेखकों की रचनाओं के मूल्यांकन का कोई नया दरवाज़ा खोल दें। आपके नज़रिए को अलग से प्रकाशित किया जाएगा।)अनिल

    भेजने का पता हैः oopsanil@gmail.com

    कोई तीन महीने बाद, फिर बीमा कंपनी का वही मरियल क्लर्क, काला चश्मा लगाए अख़बार के दफ़्तर की सीढ़ियों पर नज़र आया। इस बार फिर पक्की ख़बर लाया था कि प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी की जाँच रिपोर्ट गई है कि पान मसाला नहीं, डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी ही अपनी पत्नी की आत्महत्या के ज़िम्मेदार हैं। लगातार मारपीट, प्रताड़ना के तारीख़वार ब्यौरे वह लवली त्रिपाठी की डायरियों की फ़ोटो प्रतियों में समेट लाया था। इसके अलावा वह यह ख़बर भी लाया था कि डीआईजी त्रिपाठी डेढ़ महीने बाद, अपने से काफ़ी जूनियर एक महिला आईपीएस अफ़सर से शादी करने जा रहे हैं। इन ख़बरों की स्वतंत्र पड़ताल कराई जाने लगीं।

    उन दिनों अख़बार प्रकाश को बेहद उबाऊ लगने लगा। हर सुबह खोलते ही काले अक्षर एक दूसरे में गड्डमड्ड अपनी जगहों से डोलते हुए नज़र आते थे, जिसकी वजह से सिरदर्द करने लगता था और वह अख़बार फेंक देता था। इसकी एक वजह तो यही थी कि जिन घटनाओं को ख़ुद उसने देखा और भोगा होता था, वे छपने के बाद बेरंग और प्राणहीन हो जाती थी। किसी जादू से उनके भीतर की असल बात ही भाप की तरह उड़ जाती थी। पहली लाइन पढ़ते ही वह जान जाता था कि असलियत कैसे शब्दों की लनतरानियों में लापता होने वाली है। रूटीन की बैठकों में उसे रोज़ झाड़ पड़ती थी कि वह अख़बार तक नहीं पढ़ता इसीलिए उसे नहीं पता रहता कि शहर में क्या होने वाला है और प्रतिद्वंदी अख़बार किन मामलों में स्कोर कर रहे हैं। दरअसल वह इन दिनों अपनी एक बहुत पुरानी गुप्त लालसा के साकार होने की कल्पना से थरथरा रहा था। यह लालसा थी नकचढ़ा, अहंकार से गंधाता पत्रकार नहीं सचमुच का एक रिपोर्टर होने की। ऐसा रिपोर्टर जिसकी क़लम सत्य के साथ एकमेक होकर धरती में कंपन पैदा कर सके।

    उसके पास इतने अधिक काग़ज़ी सबूत, अनुभव, फ़ोटोग्राफ़ और बयान हो गए थे कि अब और चुपचाप सब कुछ देखते रह पाना मुश्किल हो गया था। अब वह जब चाहे जब वेश्याओं को हटाने वालों के पाखंड का भाँडा फोड़ सकता था। यही सनसनी उसके भीतर लहरों की तरह चल रही थी। सीधे सपाट शब्दों में, उसने रातों को जागकर कंपोज़ कर डाला कि कैसे पैसा, दारू, देह नहीं मिलने पर वेश्याओं को बसाने वाले लोकल नेता उनके ख़िलाफ़ हुए। कैसे निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी ने उनके ग़ुस्से को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया। कैसे डीआईजी ने अपनी छवि बनाने के लिए धंधा बंद कराया और बाद में वे कमिश्नर के साथ कंस्ट्रक्शन कंपनी के एजेंट हो गए। कंस्ट्रक्शन कंपनी कैसे इससे बड़ा और आधुनिक वेश्यालय खोलने जा रही है। वेश्याओं को हटाने से कैसे यह धंधा और जगहों पर फैलेगा। कैसे डीआईजी के पिता और कमिश्नर ने धार्मिक भावनाओं को भड़काया और कैसे हर-हर महादेव के उद्घघोष के साथ विरोध और वेश्यावृत्ति दोनों एक साथ घाटों पर चल रहे हैं। उसका अनुमान था कि यह सीरीज़ छपते-छपते बीमा कंपनी के जासूसों की जाँच रपट का भी सत्यापन हो जाएगा और उसके छपने के बाद सारे पाखंड के चिथड़े उड़ जाएँगे। इसके बाद शायद सचमुच वेश्याओं के पुनर्वास पर बात शुरू हो।

    प्रकाश ने दो दिनों तक अपने ढंग से सभी छोटे-बड़े संपादकों को टटोला और आश्वस्त हो गया कि, उसकी रिपोर्टिंग का वक़्त गया है। तीसरे दिन उसने रिपोर्ट, तस्वीरें, रजिस्ट्री के काग़ज़, ले-आउट प्लान और तमाम सबूत ले जाकर स्थानीय संपादक की मेज़ पर रख दिए। पूरे दिन वे उन्हें पढ़ते, जाँचते और पूछताछ करते रहे। शाम को आकर उन्होंने उसकी पीठ थपथपाई, ‘तुम तो यार, पुराने रंडीबाज़ निकाले! बढ़िया रिपोर्ट हैं, हम छापेंगे।’

    यह सचमुच दिल से निकली तारीफ़ थी।

    अगले दिन अख़बार की स्टियरिंग कमेटी की बैठक हुई क्योंकि इस मसले पर पुराना स्टैंड बदलने वाला था। संपादक का फ़ैसला हो चुका था, बाक़ी विभागों से अब औपचारिक सहमति ली जाने की देर थी। डेढ़ घंटे की बहस के बाद अख़बार के मैंनेजर ने संपादक से पूछा, ‘मंड़ुवाडीह में कुल कितनी वेश्याएँ हैं?

    ‘क़रीब साढ़े तीन सौ’।

    ‘इनमें से कितनी अख़बार पढ़ती हैं?’

    इसका आँकड़ा किसी के पास नहीं था। उसने फ़ैसला सुनाने के अंदाज़ में कहा, आज की तारीख़ में सारा शहर हमारे अख़बार के साथ है। कुल साढ़े तीन सौ रंडियाँ जिनमें से कुल मिलाकर शायद साढ़े तीन होंगी जो अख़बार पढ़ती हों, ऐसे में यह सब छापने का क्या तुक है। अगर कोई बहुत बड़ा और नया रीडर ग्रुप जुड़ रहा होता, तो यह जोखिम लिया भी जा सकता था।

    संपादक जो ध्यान से उसका गणित सुन रहे थे, हँसे। उन्होंने कहा, सवाल वेश्याओं की संख्या का नहीं है मैंनेजर साहब! वे अगर तीन भी होती तो काफ़ी थी। उनके बारे में जो भी अच्छा-बुरा छपता है। उसे उनका विरोध करने वाले भी पढ़ते हैं। बल्कि उनकी ज़ियादा दिलचस्पी रहती है।

    मैंनेजर ने पैंतरा बदला, अब आप ही बताइए कि अपने स्टैंड से इतनी जल्दी कैसे पलट जाया जाए। कल तक आप ही छाप रहे थे कि वेश्याओं की वजह से लोगों की बहू-बेटियों का घर में रहना तक मुश्किल हो गया है और डीआईजी धंधा बंद कराकर बहुत धर्म का काम कर रहा है। अब जब मुद्दा आग पकड़ चुका है तो उस पर पानी डाल रहे हैं। आप बताइए अख़बार की क्रेडिबिलिटी का क्या होगा। संपादक ने समझाने की कोशिश की कि क्रेडिबिलिटी एक दिन में बनने-बिगड़ने वाली चीज़ नहीं है। लोग थोड़ी देर के लिए भावना के उबाल में भले जाएँ लेकिन अंतत: भरोसा उसी का करते हैं जो उनके भोगे सच को छापता है। पहले ही दिन कोई कैसे जान सकता था कि मंड़ुवाडीह की असली अंदरूनी हालत क्या है। अब हमें जितना पता है, उतना छापेंगे। हो सकता है कल कुछ और नया पता चले उसे भी छापेंगे। अगर हमने नहीं छापा तो हमारी क्रेडिबिलिटी का कबाड़ा तो तब होगा जब लोग देखेंगे कि कंस्ट्रक्शन कंपनी मंडुवाडीह में इमारतें बना रही है।

    गुणाभाग और अंततः ज़िंदगी

    मामला उलझ गया कुछ तय नहीं हो पाया। मैंनेजर ने डाइरेक्टरों से बात की। डाइरेक्टरों ने प्रधान संपादक को तलब किया। प्रधान संपादक ने फिर बैठक बुलाई। प्रधान ने स्थानीय संपादक को वह समझाया जो वे जानते-बूझते हुए नहीं समझना चाहते थे। उन्होंने उन्हें बताया कि इस इलाक़े के जितने बिल्डर, नेता, व्यापारी अफ़सर हैं निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी के साथ हैं और चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी वह बस्ती वहाँ से हटे ताकि काम शुरू हो। उन्होंने जनता को भी अपने पक्ष में सड़क पर उतार दिया है। अख़बार एक साथ इतने लोगों का विरोध नहीं झेल सकता। ख़ुद हमारे अख़बार के इस इलाक़े के फ्रेंचाइजी यानि जिनकी बिल्डिंग में हम किरायेदार हैं, जिनकी मशीन पर हमारा अख़बार छपता है, इस कंस्ट्रक्शन कंपनी के पार्टनर हैं। अख़बार के कई शेयर होल्डरों ने भी इस कंपनी में पैसा लगा रखा है। वे सभी अपनी मंज़िल के एकदम क़रीब हैं, और कहाँ हैं आप! ख़ुद डाइरेक्टर नहीं चाहते कि उनकी राह में कोई अड़ंगा डाला जाए। नौकरी प्यारी है तो हमें, आपको दोनों को चुप रहना चाहिए, फिर कभी देखा जाएगा।

    स्थानीय संपादक को निकालने की पूरी तैयारी हो चुकी थी, इसलिए उन्हें सबकुछ बहुत जल्दी समझ में गया। स्टियरिंग कमेटी की बैठक में प्रधान संपादक ने भाषण दिया, सभी जानते हैं कि सरसों के पत्तों पर और बैंगन में अल्लाह अपना हस्ताक्षर नहीं करते, दो सिर वाले विकृत बच्चे देवता नहीं होते, खीरे में से भगवान नहीं निकलते, गणेश जी दूध नहीं पीते। यह सब सफ़ेद झूठ है लेकिन हम छापते हैं क्योंकि जनता ऐसा मानती है और उन्हें पूजती है। हम साढ़े तीन सौ वेश्याओं के लिए बीस लाख जनता से बैर नहीं मोल ले सकते। बाज़ार में हम धंधा करने बैठे हैं। हम वेश्याओं का पुनर्वास कराने वाली एजेंसी नहीं है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है इसलिए उसकी भावनाओं का आदर करना ही होगा।

    मैंनेजर मुस्कराया।

    प्रधान संपादक ने स्थानीय संपादक को मुस्करा कर देखा, ‘हम अख़बार किसके लिए निकालते हैं?

    ‘जनता के लिए’ बेजान हँसी हँसते हुए उन्होंने कहा।

    स्थानीय संपादक ने प्रकाश से कहा, इस समय ऊपर के लोगों में नाराज़गी बहुत है इसलिए थोड़ा माहौल ठंडा होने दो तब देखा जाएगा। वह जानता था कि धरती हिलाने का उसका अरमान सदा के लिए धरती में ही दफ़न किया जा चुका है।

    उसी समय एक विचित्र बात हुई। जलसमाधि का इरादा लिए गंगा में फिरने वाला युवक एक दिन गाँजे के नशे में नाव से लड़खड़ाकर नदी में गिर गया। गले में बंधी पत्थर की पटिया के पीछे वह कटी पतंग की तरह लहराता हुआ नदी की पेंदी में बैठा जा रहा था। बड़ी कोशिश करके जल पुलिस के गोताख़ोरों ने उसे निकाला। पुराना पत्थर काटकर उसकी जगह छोटा पत्थर बाँधा गया। उसी दिन से अपने आप उसके गले में बंधे पत्थर का आकार घटने लगा। जैसे चंद्रमा घटता है उसी तरह पहले सिल, फिर चौकी, फिर माचिस की डिबिया के आकार का होता गया। धीरे-धीरे घटते हुए वह एक दिन तावीज़ में बदलकर थम गया।

    उस क्रमश: घटते हुए रहस्यमय पत्थर की तस्वीरें, प्रकाश के पास मौजूद हैं।

    अभी वेश्याएँ मंड़ुवाडीह से हटी नहीं है। अब वह युवक नाव में नहीं रहता। वह गाहे बेगाहे अपने गले का तावीज़ दिखाकर अपना संकल्प दोहराता रहता है कि वह एक दिन काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्ति दिलाकर मानेगा। लोग उसे प्रचार का भूखा, नौटंकीबाज़ कहते हैं और उस पर हँसते हैं। प्रकाश को लगता है कि वैसा ही एक तावीज़ उसके गले में भी है, जो हमेशा दिखाई देता है। उसे वह तावीज़ अक्सर अपनी क़मीज़ के बटन में उलझा हुआ दिख जाता है। उसे भी लोग धंधेबाज, दलाल और एक पौवा दारू पर बिकने वाला पत्रकार कहते हैं। उस पर और उसके अख़बार पर हँसते हैं।

    प्रकाश सोचता है कि अब छवि से जल्दी से शादी कर ले। माना कि सच लिख नहीं सकता लेकिन उसे अपनी ज़िंदगी में स्वीकार तो कर सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं
    • रचनाकार : अनिल यादव
    • प्रकाशन : अंतिका प्रकाशन
    • संस्करण : 2011

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