उस दिन बड़े सवेरे जब श्यामू की नींद खुली तब उसने देखा—घर भर में कुहराम मचा हुआ है। उसकी काकी उमा एक कंबल पर नीचे से ऊपर तक एक कपड़ा ओढ़े हुए भूमि-शयन कर रही हैं, और घर के सब लोग उसे घेरकर बड़े करुण स्वर में विलाप कर रहे हैं।
लोग जब उमा को श्मशान ले जाने के लिए उठाने लगे तब श्यामू ने बड़ा उपद्रव मचाया। लोगों के हाथों से छूटकर वह उमा के ऊपर जा गिरा। बोला—“काकी सो रही हैं, उन्हें इस तरह उठाकर कहाँ लिए जा रहे हो? मैं न जाने दूँगा।”
लोग बड़ी कठिनता से उसे हटा पाए। काकी के अग्नि-संस्कार में भी वह न जा सका। एक दासी राम-राम करके उसे घर पर ही सँभाले रही।
यद्यपि बुद्धिमान गुरुजनों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि उसकी काकी उसके मामा के यहाँ गई है, परंतु असत्य के आवरण में सत्य बहुत समय तक छिपा न रह सका। आस-पास के अन्य अबोध बालकों के मुँह से ही वह प्रकट हो गया। यह बात उससे छिपी न रह सकी कि काकी और कहीं नहीं, ऊपर राम के यहाँ गई है। काकी के लिए कई दिन तक लगातार रोते-रोते उसका रुदन तो क्रमश: शांत हो गया, परंतु शोक शांत न हो सका। वर्षा के अनंतर एक ही दो दिन में पृथ्वी के ऊपर का पानी अगोचर हो जाता है, परंतु भीतर ही भीतर उसकी आर्द्रता जैसे बहुत दिन तक बनी रहती है, वैसे ही उसके अंतस्तल में वह शोक जाकर बस गया था। वह प्राय: अकेला बैठा-बैठा, शून्य मन से आकाश की ओर ताका करता।
एक दिन उसने ऊपर एक पतंग उड़ती देखी। न जाने क्या सोचकर उसका हृदय एकदम खिल उठा। विश्वेश्वर के पास जाकर बोला—“काका मुझे पतंग मँगा दो।”
पत्नी की मृत्यु के बाद से विश्वेश्वर अन्यमनस्क रहा करते थे। “अच्छा, मँगा दूँगा।” कहकर वे उदास भाव से और कहीं चले गए।
श्यामू पतंग के लिए बहुत उत्कंठित था। वह अपनी इच्छा किसी तरह रोक न सका। एक जगह खूँटी पर विश्वेश्वर का कोट टँगा हुआ था। इधर-उधर देखकर उसने उसके पास स्टूल सरकाकर रखा और ऊपर चढ़कर कोट की जेबें टटोलीं। उनमें से एक चवन्नी का आविष्कार करके तुरंत वहाँ से भाग गया।
सुखिया दासी का लड़का भोला, श्यामू का समवयस्क साथी था। श्यामू ने उसे चवन्नी देकर कहा—“अपनी जीजी से कहकर गुपचुप एक पतंग और डोर मँगा दो। देखो, ख़ूब अकेले में लाना, कोई जान न पावे।”
पतंग आई। एक अँधेरे घर में उसमें डोर बाँधी जाने लगी। श्यामू ने धीरे से कहा, “भोला, किसी से न कहो तो एक बात कहूँ।”
भोला ने सिर हिलाकर कहा—“नहीं, किसी से नहीं कहूँगा।”
श्यामू ने रहस्य खोला। कहा—“मैं यह पतंग ऊपर राम के यहाँ भेजूँगा। इसे पकड़कर काकी नीचे उतरेंगी। मैं लिखना नहीं जानता, नहीं तो इस पर उनका नाम लिख देता।”
भोला श्यामू से अधिक समझदार था। उसने कहा—“बात तो बड़ी अच्छी सोची, परंतु एक कठिनता है। यह डोर पतली है। इसे पकड़कर काकी उतर नहीं सकतीं। इसके टूट जाने का डर है। पतंग में मोटी रस्सी हो, तो सब ठीक हो जाए।”
श्यामू गंभीर हो गया! मतलब यह, बात लाख रुपए की सुझाई गई है। परंतु कठिनता यह थी कि मोटी रस्सी कैसे मँगाई जाए। पास में दाम है नहीं और घर के जो आदमी उसकी काकी को बिना दया-माया के जला आए हैं, वे उसे इस काम के लिए कुछ नहीं देंगे। उस दिन श्यामू को चिंता के मारे बड़ी रात तक नींद नहीं आई।
पहले दिन की तरकीब से दूसरे दिन उसने विश्वेश्वर के कोट से एक रुपया निकाला। ले जाकर भोला को दिया और बोला—“देख भोला, किसी को मालूम न होने पाए। अच्छी-अच्छी दो रस्सियाँ मँगा दे। एक रस्सी ओछी पड़ेगी। जवाहिर भैया से मैं एक काग़ज़ पर ‘काकी’ लिखवा रखूँगा। नाम की चिट रहेगी, तो पतंग ठीक उन्हीं के पास पहुँच जाएगी।”
दो घंटे बाद प्रफुल्ल मन से श्यामू और भोला अँधेरी कोठरी में बैठे-बैठे पतंग में रस्सी बाँध रहे थे। अकस्मात् शुभ कार्य में विघ्न की तरह उग्ररूप धारण किए विश्वेश्वर वहाँ आ घुसे। भोला और श्यामू को धमकाकर बोले—“तुमने हमारे कोट से रुपया निकाला है?”
भोला सकपकाकर एक ही डाँट में मुख़बिर हो गया। बोला—“श्यामू भैया ने रस्सी और पतंग मँगाने के लिए निकाला था।” विश्वेश्वर ने श्यामू को दो तमाचे जड़कर कहा—“चोरी सीखकर जेल जाएगा? अच्छा, तुझे आज अच्छी तरह समझाता हूँ।” कहकर फिर तमाचे जड़े और कान मलने के बाद पतंग फाड़ डाला। अब रस्सियों की ओर देखकर पूछा—“ये किसने मँगाई?”
भोला ने कहा—“इन्होंने मँगार्इ थी। कहते थे, इससे पतंग तानकर काकी को राम के यहाँ से नीचे उतारेंगे।”
विश्वेश्वर हतबुद्धि होकर वहीं खड़े रह गए। उन्होंने फटी हुई पतंग उठाकर देखी। उस पर चिपके हुए काग़ज़ पर लिखा हुआ था—“काकी।”
- पुस्तक : हिन्दी कहानियाँ (पृष्ठ 96)
- संपादक : जैनेंद्र कुमार
- रचनाकार : सियारामशरण गुप्त
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 1977
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