खजूर के वृक्षों की छोटी-सी छाया उस कड़ाके की धूप में मानो सिकुड़ कर अपने-आपमें, या पेड़ के पैरों तले, छिपी जा रही है। अपनी उत्तप्त साँस से छटपटाते हुए वातावरण से दो-चार केना के फूलों की आभा एक तरलता, एक चिकनेपन का भ्रम उत्पन्न कर रही है, यद्यपि है सब ओर सूनापन, प्यासापन रुखाई...
उन केना के फूलों के पास ही, एक छींट के टुकड़े से अपने कंधे ढँके हुए, मेरिया बैठी है। उससे कुछ ही दूर भूमि पर एक अख़बार बिछाए उसकी छोटी बहन कार्मेन एक रूमाल काढ़ रही है। वे दोनों अपने-अपने ध्यान में मस्त हैं, किंतु उनके ध्यान एक ही विषय को दो विभिन्न दृष्टियों से देख रहे हैं... यद्यपि वे स्वयं इस बात को नहीं जानतीं कि उनके विचार एक-दूसरे के कितने पास मँडरा रहे हैं—यद्यपि मेरिया उसे कभी स्वीकार नहीं करेगी, क्योंकि वह इसे अपने हृदय का गुप्ततम रहस्य समझती है...
कार्मेन की आँखें उसके हाथ के रूमाल पर लगी हुई हैं। वह उस पर लाल धागे से एक नाम काढ़ रही है, जो मेहँदी के रंग से उस पर लिखा हुआ है—मिगेल! नाम के चारों ओर एक बेल काढ़ी जा चुकी है और बेल के ऊपर एक लाल झंडा।
मेरिया अपने पास की किसी चीज़ को अपने चर्मचक्षुओं से भी नहीं देख रही है। केना के फूलों के आगे जो खजूर के दो-चार झुरमुट-से हैं, उनके आगे जो छोटे-छोटे नए गन्ने के खेत हैं, उनके भी पार कहीं जो स्पष्ट किंतु अदृश्य सत्यताएँ हैं, उन्हीं पर उसकी आँखें गड़ी हैं...
वहाँ है तो बहुत-कुछ। वहाँ मार-काट है, हत्या है, भूख है, प्यास है, विद्रोह है, पर मेरिया उसे देख ही नहीं रही। वह तो वहाँ एक स्वप्न की छाया देख रही है। एक स्वप्न, जो टूट चुका है, किंतु बिखरा नहीं, जो बद्ध हो चुका है, किंतु मरा नहीं है...
वह मिगेल को याद कर रही है; मिगेल, जो जेल में बैठा है; मिगेल, जो...
पर क्या मन को उलझाने के लिए कोई स्पष्ट विचार आवश्यक ही है? क्या कवि कविता लिखने से पहले उसे लिखने के विचार में और उसके अनुकूल झुकाव में ही इतना तल्लीन नहीं हो सकता कि कविता की अभिव्यक्ति एक अकिंचन, आकस्मिक, द्वैतीयिक वस्तु हो जाए? तभी तो मेरिया भी उसकी याद में तल्लीन हो रही है, उसे याद ही नहीं कर रही, उसे याद करने की अवस्था में ही ऐसी खो गई है कि वह याद सामने नहीं आती...
मेरिया और कार्मेन साधारणतया इस समय घर से बाहर नहीं बैठतीं। एक तो धूप-गर्मी, दूसरे विद्रोह के दिन, तीसरे घर का काम; और सबसे बड़ी, सबसे भयंकर बात यह कि उन दिनों में वेश्याएँ ही दिन-दहाड़े बाहर निकलती हैं या वे कुलवधुएँ जो भूख और दारिद्रय से पीड़ित होकर दिन में ही अपने-आपको बेच रही हैं—चोरी से नहीं, धोखे से नहीं, धर्मध्वजियों की कामलिप्सा से नहीं (इन सब सभ्यता के अलंकारों के लिए उन्हें कहाँ अवकाश?) किंतु, केवल छः आने पैसे के लिए, जिसमें वे रोटी-भर खा सकें... मेरिया विधवा है, कार्मेन अविवाहिता, और दोनों ही अनाथिनी और दरिद्र, किंतु वे अभी... वे अभी वहाँ तक नहीं पहुँचीं, वे अभी घर में बैठकर अपने टूटते अभिमान से लिपटककर रो सकती हैं, इसलिए किसी हद तक स्वाधीन हैं... आज वे बाहर बैठी हैं तो इसलिए कि आस-पास आने-जानेवालों को देख सकें, और आवश्यकता पड़ने पर पुकार सकें, क्योंकि आज वे अतिथि की प्रतीक्षा कर रही हैं...
दोनों ही उद्विग्न हैं, क्योंकि प्रतीक्षा का समय हो चुका है। पेड़ों की छाया अपना लघुतम रूप प्राप्त करके अब फिर हाथ-पैर फैलाने लगी है। शायद पेड़ों के चरणों में आसन पाने से निराश होकर उसी प्राची दिशा की ओर बढ़ने लगी है, जिससे सूर्य का उदय हुआ था—शायद इस भावना से कि जो सूर्य को काँख में दाबकर रख सकती है, वह क्या उसे आश्रय नहीं देगा? अतिथि के आने की बेला, बहुत देर हुए, हो चुकी है, पर मेरिया और कार्मेन दोनों अपने कामों, या कामों की निष्क्रियता में, ऐसी तन्मय दीख रही हैं कि दोनों ही एक-दूसरे को धोखा नहीं दे पातीं और व्यक्त हो जाती हैं।
कार्मेन कहती है, “बहन, देखो, यह ठीक बन रहा है? ...तुम सोच क्या रही हो?”
और, मेरिया बिना उसके प्रश्न का उत्तर दिए ही स्वयं पूछती है, “हाँ, कार्मेन, तू तो कम्यूनिस्ट है न पक्की?”
“मैं जो हूँ सो हूँ, तुम यह बताओ कि तुम सोच क्या रही थीं?”
“मैं? मैं क्या सोचूँगी? तू ही तो अपने झंडे में इतनी तल्लीन हो रही है कि कुछ बात नहीं करती।”
“मैं झंडे में, और तुम इस नाम में, क्यों न?”—कहकर कार्मेन शरारत से हँसती है।
“चुप शैतान!’—हँसकर मेरिया एकाएक गंभीर हो जाती है...
और कार्मेन भी चुप रहती है, कभी-कभी बीच-बीच में कनखियों से उसकी ओर देखकर कुछ कहने को होती है, पर कहती नहीं।
गन्ने के खेत के इधर एक व्यक्ति आता दीख रहा है। मेरिया स्थिर उत्कंठा से देखने लगी है। कार्मेन ने उधर नहीं देखा, किंतु किसी अलौकिक बुद्धि से वह भी अनुभव कर रही है कि उसकी बहन व्यग्रता से कुछ देख रही है और वह भी एक तनी हुई प्रतीक्षा-सी में अपना काम कर रही है...
जब वह व्यक्ति पास आ गया, तो मेरिया ने उठकर हाथ से उसे इशारा किया और कार्मेन से बोली, “कार्मेन, तू भीतर जा। मैं बात करके आऊँगी।”
कार्मेन एक बार मानो कहने को हुई, “मैं भी रह जाऊँ?” फिर उस वाक्य को एक चितवन में ही उलझाकर चली गई।
“कहो, सेबेस्टिन, मिलने को क्यों कहला भेजा था?”
“तुम्हारे लिए समाचार लाया हूँ। कोई सुनता तो नहीं?”
“नहीं।”
“फिर भी, धीरे-धीरे कहूँ। मिगेल का समाचार है।”
मेरिया चुप। उसके चेहरे पर उत्कंठा भी नहीं दीखती।
“वह मैटांज़ास की जेल में है।”
“यह तो मैं भी जानती हूँ।”
सेबेस्टिन स्वर और भी धीमा करके बोला, “वह वहाँ से निकलकर अमरीका जाने का प्रबंध कर रहा है।”
मेरिया फिर चुप। पर, अब की उत्कंठा नहीं छिपती।
“उसे धन की ज़रूरत।”
“फिर?”
सेबेस्टिन संदिग्ध स्वर में बोला, “यही मैं सोच रहा हूँ। मेरा जो हाल है, सो देखती हो-अभी तीन दिन से रोटी नहीं खार्इ और तुमसे भी कुछ कह नहीं सकता। और, और यहाँ कौन बच रहा है—सभी भूखे मर रहे हैं। माँगू किससे?”
मेरिया थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली, “कितना धन चाहिए?”
सेबेस्टिन ने एक बार तीव्र दृष्टि से उसकी ओर देखा, फिर कहा, “क्या करोगी पूछकर— बहुत!”
“फिर भी कितना?”
“लाओगी कहाँ से? अगर सौ डालर चाहिए तो?”
“सौ चाहिए?”
तनिक विस्मय से, “अगर दो सौ डालर चाहिए—तीन सौ?”
“तीन सौ डालर चाहिए?”
अब विस्मय को छिपाकर उदासीनता दिखाते हुए, नहीं, चाहिए तो इससे भी अधिक—कम-से-कम पाँच सौ डालर ख़र्च होंगे। बड़ी जोख़िम का काम है... पर इन बातों से क्या लाभ? हो तो कुछ सकता ही नहीं... तुम पूछती क्यों हो?”
मेरिया चुप है। उसके मुख पर अनेक भाव आते हैं और जाते हैं। सेबेस्टिन उन्हें पढ़ नहीं पाता और सोचता है—यह औरत बड़ी गहरी मालूम पड़ती है, मुझसे बहुत-कुछ छिपाए हुए है, जिसका मैं अनुमान भी नहीं कर पाता...
मेरिया एकाएक बोली, “यहाँ कोई बैंकर है? कोई अमरीकन?”
“हाँ, है तो। क्यों?”
“गिरवी रखेंगे?”
“क्या? शायद कोई खरी चीज़ हो तो रख लें—पर आज-कल गिरवी से बेचना अच्छा, क्योंकि मिलेगा बहुत थोड़ा। पर क्या तुम गिरवी रखना चाहती हो? अभी तो तुम्हारा ख़र्च चलता होगा?”
मेरिया ने उत्तर नहीं दिया, कुछ देर सोचने के बाद पूछा, “उसे निकालने में कितने दिन लगेंगे?”
“दिन क्या? प्रबंध तो है, धन भिजवाते ही वह निकल जाएगा।”
“यहाँ से मैटांज़ास भिजवाओगे?”
“प्रबंध करनेवाले यही हैं। उन्हीं को देना होगा। उनके पास धन पहुँचते ही वे कर लेंगे, ऐसा मुझसे कहा है।” सेबेस्टिन ने एक दबी हुई अनिच्छा-सी से कहा, मानो अधिक रहस्य खोलना न चाहता हो।
“हूँ!”
मेरिया फिर किसी सोच में पड़ गई। थोड़ी देर बाद उसने उतरे हुए चेहरे से फीके स्वर में कहा, “शायद मैं पाँच सौ डालर का प्रबंध कर सकूँ। तुम-रात को आना!”
“तुम! पाँच सौ डॉलर!”
“हाँ! मेरा विश्वास है कि कर सकूँगी! पर निश्चय नहीं कह सकती—तुम रात को आना।”
“पर—”
“अभी जाओ, रात को आना। अभी बस, अभी बस! मैं कुछ सोचना चाहती हूँ—मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है।” कहकर मेरिया मुड़कर घर की ओर चली।
अच्छा, “मैं जाता हूँ, विदा!” कहकर सेबेस्टिन चलने लगा, किंतु जब मेरिया अंदर चली गई, तब वह रूककर उसकी ओर देखकर बोला, “मेरिया, तुम्हारे पास इतना धन कैसे? यह तो अँधेरे में तीर लग गया है।”
फिर, धीरे-धीरे उसके मुख पर विस्मय या आग्रह का भाव मिट गया, उसका स्थान लिया एक लज्जा सा विक्षोभ के भाव ने। पर जब सेबेस्टिन फिर गन्ने के खेत की ओर चला, तब वह भाव मिट गया था—तब वह था पहले-सा ही शांति-प्राय, किंचित विस्मित...
खजूरों की लंबी छाया, अब ठीक केना की क्यारी पर छा रही थी; मानो अनंत पथ पर चलते हुए भी, उसके तरल चिकनेपन के भ्रम में पड़कर थोड़ी देर के लिए प्यासी छाया अपनी आँखें ही ठंडी कर रही हो...
(दो)
अब वे दिन नहीं रहे, जब मेरिया की गिनती सैकड़ों से आरंभ होती थी—वे भी नहीं, जब वह अकेली इकाई को इकाई समझने लगी थी... अब तो, यदि डालर इकाई है तो उसकी गिनती सेंट से आरंभ हो जाती है और सेंट ही में संपूर्ण हो जाती है। और, वह देगी पाँच सौ डालर—अपनी गिनती की असंख्य संपत्ति!
मेरिया के माँ-बाप, सेंटियागो के पहाड़ी प्रदेश में बड़े ज़मींदार थे। यद्यपि उनकी समृद्धि को बीते वर्षों हुए जान पड़ते हैं, तथापि मेरिया को कभी-कभी यह विचार आता है, अभी कल ही तो वे दिन थे।
हवाना शहर के आसपास, देहात में, मेरिया के पिता की बहुत-सी ज़मीन थी-जिसमें गन्ने बोये जाते थे; किंतु कुछ वर्षों से, जब से अमरीका के चीनी के व्यापारियों और मज़दूरों तक ने क्यूबा से चीनी के आयात का विरोध किया और देशभक्ति की आड़ लेकर लड़ने को तत्पर हुए, जब से अमरीकन सरकार ने उनका मान रखने के लिए और अपनी छूँछी जातिभक्ति या देशभक्ति की शान रखने के लिए, क्यूबा से आनेवाली चीनी के आयात पर कर बढ़ा दिया, तब से धीरे-धीरे उनकी ज़मीन घटने लगी और उनका साहस भी टूटने लगा-मेरिया को वह दिन याद है (यद्यपि बहुत देर से, ऐसे जैसे पिछले जीवन के सुख-दुख याद आ रहे हों!) जब उसके पिता ने आकर एक दिन थके हुए स्वर में मेरिया की माँ से कहा, “रोजा, हम लुट गए हैं,—दीवालिया हो गए हैं...”
उस बात को दो वर्ष हो गए। उसके बाद ही वह दिन भी आया, जब सेंटियागों में उनका मकान भी बिक गया और वे एक साधारण परिवार बनकर हवाना आए-मज़दूरी करने के लिए...। वह दिन भी, जबकि मेरिया का पिता एक दिन गन्ने के खेत की निराई करते-करते लू लगने से मर गया और उसके कुछ ही दिन बाद मेरिया की माँ भी—जो सब कष्ट और क्लेश सहकर भी अभिमान की चोट को नहीं सहार सकी थी।
तब से मेरिया और कार्मेन उस घर में रहती हैं। वे दोनों मज़दूरी नहीं करतीं-अब मज़दूरी करने से उतना भी नहीं मिलता, जितने के उसमें नित्य कपड़े ही घिस जाते हैं, खाने की कौन कहे... इसलिए, मेरिया अब कभी-कभी किसी अमरीकन यात्री के यहाँ एक-आध दिन सेवा करके कुछ कमा लेती है और उसी पर तोष कर लेती है। इस सेवा में कभी-कभी किसी यात्री को सूझता है कि मेरिया तो सुंदरी है। तब मेरिया डरती नहीं, छिपती नहीं, सह लेती है और अपना वेतन कमा लेती है; क्योंकि नैतिक तंत्र तो काल और परिस्थिति के बनाए होते हैं और प्रत्येक काल में जैसे ऊँचाई की एक सीमा-सी होती है, वैसे ही निचाई की भी। और, मेरिया समझती है कि वर्तमान परिस्थिति में वह कम-से-कम पतित नहीं, जूठी नहीं है...
सीपी जब समुद्र में पड़ी होती है, तब उसकी गति अबाध होती है और वह अस्पृश्य; जब वह तीर पर पड़ी सूखती है, तब लोग उसके बाह्य आकार को छू लेते हैं, सहला लेते हैं पर उससे उसके अंदर छिपा हुआ जीव आहत नहीं हुआ, वैसा ही अस्पृश्य रहता है। फिर एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब सूखे उत्ताप से छटपटा कर, सीपी अपना बाह्य कठोर कवच खोल देती है, तब लोग उसके भीतर से मुक्तामणि लूट ले जाते हैं, तब उसका कवच कहीं पड़ा रहता है और उसके जीव को कौए नोच ले जाते हैं।
मेरिया विधवा थी पवित्र थी—अछूती थी। उसका विवाह उसके पिता ने अपने पड़ोस के एक उच्चकुल के निकम्मे युवक से कर दिया था, जो विवाह के कुछ ही दिन बाद मर गया था। उसके बाद ही मेरिया के माता-पिता सकुटुम्ब हवाना आए और दोनों लड़कियों को छोड़ परलोक सिधारे थे—जहाँ शायद चीनी पर विदेशी कर नहीं लगता था। तब पहले कुछ दिन मेरिया ने मज़दूरी भी की थी, पर फिर यात्रियों की टहल करने लगी थी। यात्री उससे अधिक कुछ नहीं माँगते थे—अधिक-से-अधिक एक मुस्कान, हाथों का स्पर्श, एक कोमल संबोधन... इतने के लिए वह इनकार नहीं करती थी, उपेक्षा से देती थी, और अपनी मज़दूरी ले जाती थी। इससे आगे उसके भी एक कठोर कवच था, तीर-पड़ी सीपी की तरह, और वह सोचती थी कि उसका कौमार्य सदा ऐसा ही अक्षत रहेगा...
एक बार, ऐसा हुआ था कि वह इस गीत को बदलने लगी थी—वह अपने को उत्सर्ग करने लगी थी। अपनी ओर से वह उत्सर्ग हो भी चुकी थी, शायद स्वीकृत भी; पर यदि ऐसा हुआ था, तो न वह उत्सर्ग-चेष्टा ही व्यक्त हुई थी और न उसकी स्वीकृति ही!
वह पिछले साल की बात है। तब मिगेल उसके पड़ोस में रहता था। वह स्वयं ग़रीब था और मज़दूरी करता था, किंतु वह मेरिया के छिपे अभिमान को समझता था। कभी-कभी वह मेरिया की अनुपस्थिति में आता, कार्मेन से बातचीत करता और उसके लिए खाने-पीने का बहुत-सा सामान छोड़ जाता। कार्मेन स्वयं खाती, तो मिगेल कहता, “रख लो, बहन के साथ खाना।” और कार्मेन इस उपदेश का औचित्य देखकर इसे स्वीकार कर लेती। इसी प्रकार, मिगेल हर दूसरे दिन कुछ भेंट छोड़ जाता, जिससे दोनों बहनों का एक दिन का ख़र्च बच जाता... तब एक दिन मेरिया ने उसे मना करने के लिए उसका सामना किया था और तब से फिर सामना कर सकने के अयोग्य हो गई थी—बिक गई थी...
मेरिया मिगेल से बात बहुत कम करती। वह आता और कार्मेन से बातें करता, हँसता-खेलता और मेरिया उनकी तरुण माता की तरह ही उन्हें देखा करती... पर कई बार उसे विचार होता, मिगेल के कार्मेन के साथ खेलने में एक प्रेरणा है, उसकी बातचीत में एक आग्रह, उसकी हँसी में एक सहानुभूति, जो कार्मेन को दी जाकर भी उसकी ओर आती है, उसी के लिए है... तब वह लज्जित भी होती, पुलकित भी; और एक विषण्ण आनंद से और भी चुप हो जाती...और यह सब इसलिए कि उसकी अपनी सब प्रेरणाएँ, अपने सब आग्रह, अपनी सब सहानुभूति एक ही रहस्यपूर्ण अभिव्यक्ति में मिलेग की ओर जा चुकी थी...
मिगेल में प्रतिभा थी, और प्रतिभावान व्यक्ति कभी एक स्थिर, व्यक्तिगत प्रेम नहीं पाता-चाहे अपने व्यक्ति-वैचित्र्य से उसका अनुभव करने के अयोग्य होता है, चाहे भाग्य द्वारा ही उससे वंचित होता है। मिगेल और मेरिया भी ऐसे ही रहे। मिगेल हवाना के एक गुप्त मज़दूर-दल का अगुआ था—इस बात का पता लग जाने पर उसके नाम वारंट निकल गए और वह भाग गया। इस बात को भी छः मास हो गए। और, अब तो मिगेल महीने-भर से मैंटाज़ास के फ़ौजी जेल में पड़ा है। उसे पता नहीं क्या होगा-शायद बिना मुक़दमे के ही वह फाँसी लटका दिया जाएगा। क्योंकि अब है मैकाडो का राष्ट्रपतित्व, जो कि अमरीकन छत्रछाया से भी बुरा है, क्योंकि मैकाडो दास ही नहीं, वह अधिकार-प्राप्त दास है। इसलिए अधिकारी से अधिक क्रूर और हृदयहीन है...आज, अगस्त 1933 में, जब प्रजा पहले ही भूखी मर रही है, तब उसके बचे-खुचे जीविका के साधन भी छीने जा रहे हैं; और इतना ही नहीं जो इस भूखी मृत्यु का विरोध करते हैं, उन्हें सबसे पहले चुन-चुनकर मारा जा रहा है। हाँ, सभ्यता और प्रगति!
मेरिया ने मिगेल को अपनाया नहीं था, शायद इसलिए मिगेल का एक चिह्न मेरिया के पास सदा रहता है—उसकी द्वादशवर्षीया बहन। मेरिया का प्रेम मौन था, कार्मेन का स्नेह अत्यंत मुखर क्योंकि वह प्रेम नहीं था, वह था एक पूजा-मिश्रित अधिकार-वैसा ही, जैसा किसी बच्चे के मन में अपने देवता के प्रति होता है। कार्मेन न हर समय मिगेल का नाम जपती थी; हरेक परिस्थिति में उसके मुख पर एक ही प्रश्न आता था कि “इसमें मिगेल को कैसा लगता?” यहाँ तक कि जब वह रूखा-सूखा खाना खाने बैठती, तब सर्वोत्तम खाद्य वस्तु (बहुधा तो एक ही वस्तु होती!) पर अंश निकालकर उसे एक अलग पात्र में रखकर पूर्वस्थ मैटांज़ास की ओर उन्मुख होकर कहती, “यह मिगेल के लिए है”...मेरिया हँसती, ‘पगली!” पर कार्मेन के कर्म से, उसे ऐसा जान पड़ता है कि मिगेल की एक सकरुण साँस उसके पास से, उसकी किसी लट को किंचित्मात्र कम्पित करती हुई, शायद उसके श्रुतिमूल को छूती हुई चली गई... वह ज़रा पीछे झुक जाती है—विश्रान्ति की मुद्रा में क्षणभर पलकें मींचकर एक छोटी-सी साँस लेती, और फिर प्रकृतिस्थ हो जाती; भोजन का अधिक मधुर जान पड़ने लगता और मेरिया को एकाएक ध्यान आता कि कार्मेन उसकी कितनी, कितनी अत्यंत प्रिय...पता नहीं, वह कार्मेन का अधिकृत प्रेम है, या मेरिया के हृदय में मिगेल की अनुपस्थिति के रिक्त को पूरा करने वाला और अंततः मिगेल पर आश्रित भाव-पर मेरिया उसे कार्मेन पर बिखेरती है और बड़ी आत्मविस्मृति से (या शायद आत्म-विस्मृति के लिए ही?) बिखेरती है...
कार्मेन इसे जानती है। वह छोटी है, अबोध है, अपने इष्टदेव की पूजा में, अपनी वीर-पूजा में खोई हुई है, पर मेरिया को जानती है। वह जानती है कि उसका देवता का कुछ है और मेरिया सर्वथा उसकी ओर, उसे इससे ईर्ष्या नहीं होती। प्रेम किसी-न-किसी प्रकार के प्रतिदान का इच्छुक होता है—चाहे वह प्रतिदान कितना ही वंचक और मारक क्यों न हो—इसीलिए प्रेम में ईर्ष्या होती है। पर पूजाभाव, विशेषतः वीर-पूजा में प्रतिदान की इच्छा नहीं होती, इसीलिए उसमें विरोध की भावना नहीं होती। एक पुजारी अपने देवता के अन्य उपासकों से एक समीपत्व ही अनुभव करता है। और, फिर कार्मेन यह भी तो समझती है कि स्वयं मेरिया की कितनी अपनी है क्योंकि वह देखती है, मेरिया के जीवन का कोई भी रिक्त अगर भरा है तो कार्मेन से ही, मेरिया ने मानो अपने प्राणसूत्र के सब तन्तु सब ओर से समेट कर उसी में लपेट दिए हैं और उसी की आश्रित हो रही है...कार्मेन यह तो समझ सकती नहीं कि मेरिया की जीवन-लता कितनी अधिक उसके सहारे की आकांक्षी है, वह इसीलिए कि उसके भीतर कहीं घुन लग रहा है, जो उसकी शक्ति को चूस जाता है और उसे बाह्य आश्रय के लिए बाध्य कर रहा है। कार्मेन समझती है कि मेरिया का उसके प्रति सच्चा स्नेह है, और वह वास्तव माँ है भी सच्चा और विशुद्ध-किंतु वह स्वयंभू नहीं है, वह एक रिक्त की प्रतिक्रिया है...जैसे, जब पैर में कहीं जूता चुभता है, तब उस चुभन से उस स्थान की रक्षा के लिए एक फफोला उठता है, और स्नेह से भरता है। वह फफोला भी सच्चा होता है और स्नेह भी, पर वह स्वाभाविक होकर भी स्वयंभूत नहीं होता, वह एक बाह्य कारण से, एक रिक्ति की या पीड़ा की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होता है...
इसे कार्मेन भी नहीं जानती, मेरिया भी नहीं जानती। क्योंकि जो स्वयं जीने की क्रिया में व्यस्त होते हैं, उन्हें जीवन के स्रोतों का अन्वेषण करने का समय नहीं होता, शायद प्रवृत्ति भी नहीं...
मेरिया और कार्मेन के इस पाँच डालर मासिक के—साढ़े सात आने रोज़ के—जीवन में एक व्यक्ति और भी उलझा हुआ है। वास्तव में उलझा ही हुआ है, क्योंकि मिगेल तो उसका एक स्वाभाविक अंग है और यह व्यक्ति है एक पहेली, एक उलझन भी, जो विभिन्न अवस्था में शायद सुलझाई भी जा सकती, और जो किसी भी अवस्था में उनके जीवन का आवश्यक अंग नहीं हुई न होगी...यह व्यक्ति है सेबेस्टिन।
वर्तमान युग की गिनती में सेबेस्टिन से दोनों बहनों का परिचय बहुत दिन से है। वह भी किसी समय समृद्ध था, उसकी पत्नी मोटर में बैठती थी, उसके बेटे अभिजनों के स्कूल में पढ़ते थे...पर अब वह भी मज़दूरी करता है और दिन-भर ख़ून-पसीना एक करके भी अपना ख़र्च नहीं चला सकता—विशेषतः इसलिए कि अपनी स्त्री का तुषारमय, उलाहने-भरा मौन उससे नहीं सहा जाता, उसे देखकर वह कई बार किसी भयंकर आग से भर जाता है और बिलकुल हृदयहीन एक मारक शस्त्र की तरह हो जाता है—अनुभूति, दया, आचार-ज्ञान तक से परे, उठे हुए खांडे की तरह, जो गिर ही सकता है, और जिसके गिरने की नीति-शास्त्र नहीं नियंत्रित कर सकता।
वह मिगेल का सखा था, सहयोगी था, विश्वासपत्र था। मिगेल के साथ सामान्य दारिद्रय में बँधा था। और मिगेल, इस बंधन को ही सबसे बड़ा बंधन समझता था और इसी के कारण सेबेस्टिन का विश्वास करता था। पर मिगेल अकेला था और स्वच्छंद, सेबेस्टिन अपनी गृहस्थी के बंधनों में बँधा हुआ और सुरक्षित था। इसलिए मिगेल मित्रता में पूर्णतया बँध जाता था, और सेबेस्टिन उससे घिर कर भी उसके भीतर एक आत्मनिर्णयाधिकार बनाए रखता था...
मेरिया से मिगेल ने सेबेस्टिन का भी परिचय कराया था। मेरिया उन दोनों व्यक्तियों का अंतर देखती थी, किंतु सेबेस्टिन के प्रति मिगेल का आदर-भाव देख कर अपने विचारों को दबा लेती थी। मिगेल उसका कुछ नहीं था, किंतु उसके बिना जाने ही उसका मन इस निश्चय पर पहुँच चुका था कि जो कुछ मिगेल का निजी है, वही उसका भी है।
मिगेल चला गया, बंदी भी हो गया। मेरिया के जीवन में इससे कोई विशेष परिवर्तन प्रकट नहीं हुआ-सिवा इसके कि अब बहनों को जो कुछ खाने-पीने को प्राप्त होता है, वह मेरिया की अपनी कमाई का फल होता है, क्योंकि सेबेस्टिन उनकी कुछ सहायता नहीं कर सकता—वह स्वयं इसका आकांक्षी है! सेबेस्टिन और मेरिया अब कभी-कभी मिलते हैं, बस! कभी मेरिया सेबेस्टिन के घर का स्मरण करके, उसे अपने यहाँ रोटी खिला देती है। तब सेबेस्टिन कृतज्ञ तो होता है पर उसके हृदय में स्वभावतः ही यह भाव उदय होता है कि इन बहनों के पास आवश्यकता से अधिक धन है, नहीं तो ये क्यों मुझे खिलातीं—कैसे खिला सकतीं? बेचारे सेबेस्टिन के अब वे दिन नहीं थे, जब वह सोचे, मैं किसी को खिला सकता हूँ। और उसका यह भाव, उसकी कृतज्ञता के पीछे छिपा होने पर भी, मेरिया को दीख जाता था। तब वह विषण्ण-सी होकर, सेबेस्टिन के चरित्र को समझने की चेष्टा करती थी, वह उसके बहुत पास पहुँच जाती थी, किंतु पूर्णतया हल नहीं कर पाती थी; सेबेस्टिन उसके लिए एक उलझन रह जाता था, जो सुलझ सकती है, यद्यपि अभी सुलझी नहीं; जो एक पहेली है। जिसका हल है तो, पर अभी प्राप्त नहीं हुआ...
तब वह सांत्वना के लिए जाती थी—अपने चिर अभ्यस्त कवियों के पास नहीं-उस चिर अभ्यस्त कविता के जीवन-राहु, आँधी-पानी-धुएँ के पैगंबर कार्ल मार्क्स की शरण में! क्योंकि, उस समय उसकी मनःस्थित कोमल कविता के अनुकूल नहीं होती थी, वह चाहती थी एक भैरव कविता, उच्छल लहरी की तरह एक ही भव्य गर्जन में सब कुछ डुबोनेवाली, घोर विनाशिनी।
वह कार्मेन को बुलाकर पास बिठा लेती और उसके साथ पढ़ने लगती। कार्मेन के उत्साहशील तरुण हृदय को मिगेल ने पूरा कम्युनिस्ट बना दिया था। वह कार्ल मार्क्स के नाम पर किसी समय कुछ भी पढ़ने को प्रस्तुत थी। उसकी इस तत्परता में वही व्यग्र भावुकता थी, मार्क्स उसकी बुद्धि पुष्ट कर सकता था, पर उसकी स्वाभाविक चंचलता को नहीं।
मेरिया भी मार्क्स को अपने मस्तिष्क से नहीं, अपने हृदय से पढ़ती थी। कार्मेन जब देखती कि मेरिया किस प्रकार उसके उच्चारण में ही लीन हुई जा रही है, उसके तर्क की ओर नहीं जाती केवल उसकी विराट् विध्वंसिनी प्रेरणा में बही जा रही है, तब मेरिया के भाव को प्रतिबिंबित करता हुआ एक रोमांच-सा उसे भी हो जाता था, एक कँपकँपी-सी उसके शरीर में दौड़ जाती थी—वैसी ही, जैसी किसी अनीश्वरवादी मूर्तिपूजक हृदय में, किसी भव्य मंदिर में आरती को देख-सुन कर हो उठती है।...जब मेरिया पढ़ चुकती थी, तब कार्मेन अकस्मात् कह उठती, “मिगेल के पढ़ाने में तो यह ऐसा नहीं होता था—”
मेरिया पूछती, “क्या?” तो कार्मेन से उत्तर देते न बनता! वह मन-ही-मन कल्पना करती, कहीं विजय समुद्र-तट पर बने गिरजाघर में समवेत गान हो रहा हो और लहरों के नाद से मिल रहा हो... और इस भाव को कह नहीं पाती थी, एक खोर्इ-सी मुस्कान मुस्कुरा देती थी!
आज, सेबेस्टिन के जाने के बाद भी यही हुआ। मेरिया पढ़ने लगी और कार्मेन चुपचाप सुनने। किंतु मेरिया से बहुत देर तक नहीं पढ़ा गया। उसने उकता कर पुस्तक रख दी और बोली, “फिर सही।”
कार्मेन ने धीरे से पूछा, ‘मेरिया, आज तुम्हें कुछ हो गया है? बताओ, सेबेस्टिन क्या कहता था?”
मेरिया जैसे चौंकी। बोली, “कुछ तो नहीं?”
उस स्वर में कुछ था। जिसने कार्मेन को झकझोर कर कहा, “पास आ!”
कार्मेन आर्इ और मेरिया की गोद में सिर रखकर बैठ गई। मेरिया ने उसे पास खींच लिया और उसे गले से लिपटाए बैठी रही... कभी-कभी कार्मेन को मालूम होता, मेरिया वहाँ नहीं है तब वह सिर उठाकर मेरिया का मुँह देखना चाहती, पर मेरिया उसे और भी ज़ोर से चिपटा लेती, सिर उठाने न देती थी...
ऐसे ही धीरे-धीरे संध्या हो गई। खजूर के पेड़ों के पीछे सारा वायुमंडल स्वर्णधूलि से भर-सा गया, जिसमें गन्ने के खेत अदृश्य हो गए। जो क्षितिज दोपहर में बहुत दूर जान पड़ रहा था, अब मानो बहुत पास आ गया, मानो खजूर के वृक्षों के नीचे ही घोंसला बनाने को आ छिपा। दूर कहीं, अमरीकन राजदूत भवन से घंटे का स्वर सुन पड़ने लगा और नगर से शोर भी एकाएक बहुत पास जान पड़ने लगा...
कार्मेन, मेरिया की गोद में बहुत चुप पड़ी थी, मेरिया ने पूछा, “कार्मेन, सो गई क्या?” तब कार्मेन ने गोद में रखा हुआ सिर, मेरिया के शरीर से रगड़कर हिला दिया और झूठमूठ के रूठे स्वर में बोली, “तुम बताती तो हो नहीं।”
“ओ, वह?” कहकर मेरिया फिर चुप हो गई। थोड़ी देर बाद बोली, “कार्मेन, तुझसे एक बात पूछनी है; न, उठ मत, ऐसी ही पड़ी रह!”
कार्मेन ने विस्मय से कहा, “क्या आज रोटी नहीं खानी है?”
“खा लेंगे। तू सुन तो!”
“हाँ, कहो।”
“कार्मेन, जानती है, जब माँ मरी, तब हमें बिलकुल अनाथ नहीं छोड़ गई?” मेरिया ने गंभीर स्वर में ऐसी मुद्रा में यह प्रश्न किया, जैसे उत्तर की भी अपेक्षा नहीं और ऐसे ही कहती चली। कार्मेन चुपचाप सुनने लगी।
“वह मुझे थोड़े-से गहने सौंप गई थी। बहुत तो नहीं थे, पर आजकल के ज़माने में उतने ही बहुत होते हैं। कुछ तो हमारे वंश की परंपरा में ही चले जा रहे थे, कुछ माँ ने तेरे विवाह के लिए बनवाए थे।”
“मेरे? और तुम्हारे लिए नहीं?”
“हाँ, मेरे भी थे, सुन तो। यह सब वह सौंप गई थी, और सँभालकर रखने को भी कह गई थी। इसके अलावा एक मोती भी है, जो मिगेल ने दिया था।”
“मिगेल ने? उसके पास था?”
“हाँ। उसे उसकी बुआ दे गई थी। पर, तू ऐसे प्रश्न पूछेगी, तो मैं बात नहीं कहूँगी!”
मेरिया फिर कहने लगी, “यह सब मैंने एक बर्तन में रखकर दाब दिए थे कि कहीं गुम हो न हो जाएँ। आज उन्हें निकालने की सोच रही हूँ। मिगेल ने मँगवाए हैं।”
“पर वह तो क़ैद है न?”
“हाँ, वह वहाँ से निकलकर अमरीका जाएगा। इसलिए ज़रूरत है।”
“अच्छा, अभी मुझे भगाकर बातें कर रही थीं। हाँ, तो निकाल लाओ, रखे कहाँ है?”
मेरिया ने इस प्रश्न की उपेक्षा करके, “जो वंश के हैं, और जो तेरे विवाह के लिए बने थे, उन पर मेरा अधिकार नहीं है।”
कार्मेन सिर को झटककर उठ बैठी, कुछ बोली नहीं, मेरिया के मुख की ओर देखने लगी।
मेरिया ने देखा कि कार्मेन को यह बात चुभ गई है, पर वह कहती गई, ‘वे तेरे हैं, इसीलिए तुझसे पूछना था कि उन्हें बिकवा दूँ?”
कार्मेन ने आहत स्वर में कहा, “मुझसे पूछती हो?”
मेरिया ने जान-बूझकर उस स्वर को न समझते हुए, फिर पूछा, “हाँ बता तो!”
“मैं नहीं बताती—” कार्मेन की आँखों में आँसू भर आए। उसने मुँह फेर लिया, मेरिया उसकी मनुहार करने लगी। एक दृश्य हुआ, जिसे न देखना देखकर न कहना ही उचित है।
तब कार्मेन ने रोकर कहा, “मैं कभी मना करती?”
मेरिया एकाएक शिथिल हो गई।
(तीन)
संध्या घनी हो गई।
कार्मेन अपनी बहन की प्रतिक्षा में बैठी थी। अंधकार हो रहा है, इसलिए उसने पढ़ना छोड़ दिया है, पर अभी बत्ती नहीं जलार्इं आवश्यकता भी क्या है? तेल बचेगा! और, इस कोमल अंधकार में बैठकर सूर्यास्त के पट पर अपने स्वप्नों का नृत्य देखना अच्छा लगता है।
कार्मेन ने बहुत दिनों से इस प्रकार अपने-आपको प्रकृति की प्रकृतता में नहीं भुलाया-उसका जीवन ऐसा हो गया है कि इसके लिए अवसर नहीं मिलता; इसलिए जब अवसर मिल भी जाता, तब उस स्वप्न-संसार से लौटकर आने की चोट के भय से वह उधर जाती ही नहीं, पर आज, इतने दिनों बाद न जाने क्यों, उसे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। शायद एकाएक मिगेल के निकलने की संभावना के कारण, शायद इस अनुभूति से कि आज उसकी बहन के प्यार में सदा से अधिक कुछ था—कोई वस्तु नहीं, किंतु एक प्रकार की विशिष्टता का कोई सूक्ष्म भेद... कार्मेन एक विचित्र, अदम्य त्याग-भावना से भरी सांध्य नभ को देख रही है। देख नहीं रही, प्रतिबिंबित कर रही है। नभ के प्रत्येक छाया-परिवर्तन के साथ-ही-साथ उसके प्राणों में भी मानो एक पर्दा बदलता है।
सूर्यास्त के बाद का रंग जाने कैसा कलुष लिए लाल-लाल, मैला-सा हो रहा है... उसे देखकर कार्मेन के मनःक्षेत्र में किसी अँधेरे विस्मृत कोने में एक विचार, या छाया, या कल्पना आ रही है... वह आकाश उसे ऐसा लग रहा है, जैसे वन में किसी रहस्यपूर्ण नैश-उत्सव की अपनी आग से दीप्त, उसे प्रतिबिंबित करती हुई, किसी भैरव देवता की विराट्, चमकती हुई काली प्रस्तर-मूर्ति की खुली-खुली, चपटी-चपटी, फैली हुई छाती...
कार्मेन सोचती है कि वे दोनों बहनें उस देवता की रक्षित हैं, यद्यपि वह देवता बड़ा विकराल है... पर, मेरिया अभी तक आर्इ क्यों नहीं?
हम सांध्य आकाश की छटा को एक स्वतंत्र विभूति मानते हैं, पर वह है क्या? वह है किसी अन्य के, किसी अस्त हुए आलोक की प्रतिच्छाया-मात्र...
और, हम समझते हैं, संध्या में एक आत्मभूत, आत्यंतिक सौंदर्य है, पर वहाँ वैसा कुछ नहीं है... हम संध्या में देखते हैं—केवल अपने अंतर का प्रतिबिम्ब, अपनी बुझी हुई, आशाओं-आकांक्षाओं का स्फूर्तिमान कंकाल...
नहीं तो, यह कैसा होता कि जिस सांध्य आकाश में कार्मेन को ऐसा भव्य चित्र दीखता है, उसी में चालीस मील दूर मेटांज़ास के फ़ौजी जेल में बैठे मिगेल को इतना वीभत्स चित्र दिखता है...
चार-पाँच खेमे गड़े हैं, जिनके आस-पास कँटीले तार का जँगला लगा हुआ है। उसके भीतर-बाहर दोनों और सशस्त्र सिपाहियों का पहरा है और उससे कुछ दूर एक और खेमा लगा है, जिसके बाहर बैठे सिपाही गाली-गलौज कर रहे हैं। उसके सामने ही तीन-तीन बंदक़ों को मिलाकर बनाए हुए चार-पाँच कुंदले हैं। और उनसे आगे प्रशाँत खेत और पश्चिमीय क्षितिज...
एक ख़ेमे के बाहर मिगेल खड़ा है। उसे बाहर निकलने की अनुमति नहीं है, किंतु पहरे वाले सिपाही की दया से वह कुछ देर के लिए बाहर का दृश्य देखने निकला है। वह उन बंदूक़ों के कुंदले की अग्रभूति से, और खेतों के मौन से पार के सांध्य आकाश को देख रहा है और सोच रहा है...
इसी दिशा में चालीस मील दूर हवाना है, वहाँ उसका सब कुछ है। कुल चालीस मील; पर चालीस मील! वह सोचता है, यदि मैं आज छूटकर हवाना पहुँच सकूँ तो क्या कुछ कर सकूँगा...न जाने वहाँ क्या परिस्थिति है—बहुत दिनों से समाचार नहीं आया है, विद्रोह को जगाने में उसने इतना यत्न किया, जिस के लिए वह यहाँ भी आया, उसी में वह भागी नहीं हो सकेगा—हाय वंचना!
वह चाहता है, तीव्र गति से इधर-उधर चलकर अपने अंदर भरते हुए इस अवसाद को कुछ कम कर लें; पर उसे तो वहाँ निश्चल खड़ा रहना है। उसे तो हिलना भी नहीं, वह तो वहाँ खड़ा भी है तो एक सिपाही की अनुकंपा से, मैकाडो के सिपाही की अनुकम्पा से...हाय परवशता!
उसके मन में विचार उठता है, आज रात ही इसका अंत करना है। वह अकेला ही है, अकेला ही यत्न करेगा। वह इस बंधन का अंत आज ही रात में करेगा—मुक्ति के लिए प्राणों पर खेल जाएगा। प्राण तो जाते ही हैं—शायद पहले मुक्ति मिल जाए। एक सिपाही ने उसे सहायता का वचन दिया है, वह उसे कँटीले तार के पार तक जाने देगा। उसके आगे मिगेल का अधिकार है। उसके पास एक पिस्तौल है। वह यदि निकाल कर भाग न सकेगा, तो अपना अंत तो कर सकेगा। यदि शत्रु की गोली से भी मरेगा, तो उस कँटीले तार के उस पार तो मरेगा! उस कँटीले तार की रेखा ही उसके लिए जीवन और मरण की विभाजक रेखा हो रही है, मुक्ति का संकेत—हाय दासता!
बुद्धि उसे कहती है, ये विचार तुझे विचलित कर देंगे। युद्ध में निश्चय हो जाने के बाद विकल्प नहीं करना चाहिए-वह तो उससे पूर्व की बातें हैं...तब वह कहीं पढ़ी हुई कविता की दो-चार पंक्तियाँ दुहराता है और सूर्यास्त को देख कर वही वीभत्स कल्पनाएँ करने लगता है...
यह वही आकाश है, वही आलोक का छायानर्तन...वही कलुषमई, लाली, वह फीका-फीका मैलापन...पर मिगेल क्या देखता है! जैसे रोगिणी क्षितिज का रक्तमिश्रित रजस्राव...या, जैसे कालगति से किसी विकराल जंतु के प्रसव के बाद गिरे हुए फूल...अपनी कल्पना की वीभत्सता से वही मचमचा जाता है, पर वह आती है और आती है...और इतना ही नहीं, वह यह भी सोचने लगता है कि वह विकराल जंतु क्या होगा, जिसके प्रसव के ये फूल हैं—वह क्रूर, भयंकर, नामहीन, आंतक...
वह तो बहुत दूर है। यहीं हवाना के अंतिक में उसी सूर्यास्त को एक और व्यक्ति देख रहा है—सेबेस्टिन।
वह अपने घर में अकेला है, यद्यपि उसके पास ही उसकी स्त्री और बच्चे हैं, और उसकी स्त्री उसे कुछ कह रही है। वह कुछ सुन नहीं रहा, उसे आज अपनी स्त्री के चुभ जाने वाले शब्दों का भी ध्यान नहीं, वह उससे भी अधिक चुभनेवाली बातों पर विचार कर रहा है...वह विश्वासघात की तैयारी कर रहा है; वह जानता है कि यह विश्वासघात होगा; यह भी अनुभव कर रहा है कि यह भयंकर पाप, अत्यंत नीचता होगी, वह इस पर लज्जित भी है; किंतु किसी अमर शक्ति से बँधा हुआ-सा वह यह अनुभव कर रहा है कि यह होगा अवश्य, उससे होगा, और वह सब-कुछ देखते हुए भी अंधा होकर इसे करेगा...
क्या करेगा? कुछ भी तो नहीं। किसी के पास आवश्यकता से अधिक धन है, उसे ले लेगा, उनके लिए जिन्हें उसकी आवश्कता है—अपनी बीवी और बच्चों के लिए... यह कोई पाप है? और फिर, उसने इसके लिए योजना तो बनार्इ नहीं, उसे कब आशा थी कि मेरिया धनी है—उसने तो पता लगाने के लिए प्रश्न पूछा था... मेरिया स्वयं ही कहती है... भाग्य उसे कुछ देता है, तो वह न लेनेवाला कौन? वह झूठा, दगाबाज़ आत्मवंचक। अब उसे दीखता है, वह कुछ हो, वह एक अप्रतिरोध से बँधा हुआ है...। और उसके लिए, यदि कहीं क्षमा नहीं तो उसे प्रेरणा से अवश्य मिलेगी...
सारा आकाश, सारी सृष्टि, आग के लाल प्रतिबिम्ब, और काले-काले धुएँ से भरी हुई है! तब वही कहाँ से एक शीतल आत्मा ले आवे, वही कहाँ से आदर्श पुरुष हो जाए, वही कहाँ उस लाल प्रतिज्योति और उस काले धुएँ से बचकर जा पहुँचे।
और वह अकेला ही उसे नहीं देख रहा, यहीं हवाना शहर में, उसी सूर्यास्त में, अनेक व्यक्तियों को क्या कुछ दीख रहा है...
यहाँ हवाना का वह अंश रहता है, जिसे कभी उसका अंश गिना नहीं जाता, किंतु जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है... जो हवाना की ग़रीबी का निकेत है, किंतु जो हवाना की संपत्ति को बनाता है... यहाँ वे पुरुष हैं जो दिन-भर मज़दूरी करके एक मास में उतना कमा पाते हैं, जितना अमरीकन मज़दूर एक घंटे में, जिसके भले के नाम पर इन लोगों को पीसा जा रहा है और जो स्वयं किसी और के लिए पिसेंगे? यहाँ वे औरतें भी हैं, जो दिन-भर और आधी रात भर सिलाई का काम करती हैं और एक दर्जन क़मीज़ें सीकर पाँच आने वेतन पाती हैं, या जो अपने शरीर को बेच कर उसके मूल्य में कुछ आने पैसे और कोई मारक रोग पाकर, कृतज्ञ भी हो सकती हैं... यहाँ वे लड़के भी हैं, जो अपने माता-पिता का पेट भरने-माता-पिता के पेट का ख़ालीपन कम करने के लिए वह भी करने को तैयार रहते हैं, जिसके विरुद्ध समस्त मानवता चिल्लाती है-
वे सब, सूर्यास्त को देख नहीं रहे है, पर सूर्यास्त उनकी आँखों के आगे है। उन्हें कुछ-न-कुछ दीखता भी है, उनके पास इतना समय नहीं कि रुककर उसे देखें, उस पर विचार करें, पर उनकी अशांति में सूर्यास्त के प्रति एक भाव जाग रहा है...
वही कलुषपूर्ण लाल-लाल, मैला-सा आकाश... उनके मन में ऐसा है, जैसे क्रोध की पिघली हुई आग उबल-उबल कर बैठ गई हो; ऊपर सतह पर छोड़ गई हो एक धूसार-सी, जली-बुझी-सुलगती-सी एक कुढ़न की आग...
उनके हृदय में भी कुढ़न की आग-सी उठ रही है... वे समझते हैं, उनमें क्रोध की ज्वाला है, पर क्रोध करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है, और वे हैं निर्बल और अपनी निर्बलता के परिचित। वे कुढ़ ही सकते हैं, जैसे कि वे अब तक करते रहे हैं...
आज वे जो तैयारी कर रहे हैं, वह क्रोध नहीं, वह भी कुढ़न की आग ही है। तभी तो वे ऐसे चुप-चुप से हैं, यद्यपि वे विद्रोह की तैयारी में हैं; उसी के लिए निकल भी पड़े हैं... उनके प्रतिनिधियों का एक दल जा रहा है महल और फ़ौजी बारकों की ओर, और दूसरा दल चला है विद्रोह के द्रोहियों की तलाश में, पर उनकी प्रेरणा क्रोध नहीं, उनकी प्रेरणा है केवल भूख... उन्हें फ़ौज से सहायता की आशा है, पर वे पुलिस से डर भी रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि पुलिस के जत्थे भी विद्रोहियों की खोज में हैं। और क्योंकि उनके हृदय में डर है, इसीलिए वे सोच भी सकते हैं, तैयारी भी कर सकते हैं, भविष्य की ओर उन्मुख भी हो सकते हैं...
संध्या बहुत घनी हो गई...
(चार)
कार्मेन मेरिया से पूछ रही थी, “बड़ी देर कर दी?” कि सेबेस्टिन ने पुकार कर पूछा, “आ जाऊँ?”
मेरिया ने कंधे पर से चादर उतार कर रखी और कार्मेन से बोली, “ले, देख!”
कार्मेन व्यग्रता से हँड़िया को खोल कर, उसके भीतर मोमजामे में लिपटे हुए आभूषणों को निकाल कर देखने लगी। सेबेस्टिन ने दबे विस्मय से पूछा, “इन्हें कहाँ से लार्इ है?”
मेरिया एक छोटी-सी संतुष्ट हँसी हँसी। फिर कार्मेन से बोली, “कार्मेन, तू इन्हें ले जाकर सो, हम ज़रा बातें कर लें।”
कार्मेन चली गई तो मेरिया ने धीमे स्वर में सेबेस्टिन से पूछा, “पर्याप्त होंगे?”
“होने तो चाहिए। तुम्हें मूल्य का कुछ अनुमान है?”
“पाँच सौ से तो कहीं ज़ियादा के हैं।”
“हाँ, पर आजकल तो बहुत घाटे पर देने पड़ेंगे। और, आज तो बहुत ही कम।”
“आज कोई ख़ास बात है?”
“हाँ, पर वह ठहर कर बताऊँगा। तो, ये मैं ले जाऊँ?”
मेरिया ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, “हाँ।” सेबेस्टिन ने समझा, शायद संदेह के कारण हिचकिचा रही है। ऐसी अवस्था में उसने चुप रहना ही उचित समझा। मेरिया बोली, “मैं ले आऊँ?” और भीतर चली गई।
वहाँ से लौट कर आते, उसे केवल आभूषण लाने में जितनी देर लगनी चाहिए थी, उससे अधिक लगी। क्योंकि उसे एक बार फिर कार्मेन से पूछना था कि आभूषण देखकर उसकी राय बदल तो नहीं गई, उसे बताना था कि कौन किसका था, उसे और कुछ नहीं तो मिगेलवाला मोती उसके हाथों गले में पहनकर दिखाना भी था, उसके मोती रखने का आग्रह सुनकर उसे टालना भी था और फिर सब आभूषण दे डालने के लिए प्रसन्न स्वीकृति पर, उसे चूमना भी था और उसके शरारत-भरे इस कथन पर कि ‘तुम्हारे मिगेल के लिए तो है।’ एक हल्का-सा मीठा चपत लगाकर तब कहीं बाहर आना था।
सेबेस्टिन ने चुपचाप गहने लेकर वस्त्रों में कहीं रख लिए। तब बोला, “कोशिश करूँगा, आज ही धन का प्रबंध हो जाए, एक-दो अमरीकन बैंकर हैं, जो रात में भी काम करते हैं—बल्कि रात में ही काम करते हैं।”
“हाँ।”
थोड़ी देर चुप्पी रही। फिर मेरिया एकाएक बोली, “हाँ, यह तो बताओ, वह ख़ास बात क्या थी?”
“अरे, मैं तो भूल ही चला था इतनी ज़रूरी बात! यहाँ फ़ौजवालों और विद्यार्थियों के साथ मिलकर लोगों ने कल बड़े सवेरे विद्रोह कर देने का निश्चय किया है।”
“हैं!” कल? अब पिछले निश्चय को दस ही दिन तो हुए हैं!”
“हाँ, अब भी आशा बहुत है। फ़ौज सारी विद्रोही है, मैकाडो के पक्ष में पुलिस ही होगी। अगर कहीं मार-काट हुई भी तो थोड़ी ही। अकस्मात् ही कहीं हो जाए, नहीं तो जितनी होगी, हवाना शहर के बाहर ही होगी।”
“पर घुड़सवार पुलिस भी तो सशस्त्र है, और खुफ़िया?”
“हाँ, उनसे आशंका है। पर वे हैं कितने?”
“जितने भी हों।”
“देखा जाएगा!” कहकर सेबेस्टिन ने विदा माँगी और चला। चलते-चलते न जाने क्या सोचकर एकाएक रुक गया और बोला,”मेरिया, इन आभूषणों में से कोई एक-आध रखना हो तो रख लो।”
“नहीं, जब पाँच सौ डालर पूरे होने की आशा नहीं तो क्यों? यदि अधिक मिल सके, तब चाहे कोई रख लेना—।”
“कौन-सा ?”
मेरिया ने इन प्रश्न का उत्तर विधि पर डालते हुए कहा, “जो भी हो! पर, कोई भी क्यों रखना, जितना धन मिले, सब भेज देना। क्या पता, उसे अधिक की ज़रूरत पड़ जाए—ऐसे समय लोभ नहीं करना चाहिए!”
“हाँ, यह बात तो है।” कहकर सेबेस्टिन जल्दी से चला गया। मेरिया वहीं खड़ी-खड़ी बाहर अंधकार की ओर देखकर कुछ सोचने लगी, कुछ देखने लगी, तभी कार्मेन की आवाज़ आर्इ, “सोने नहीं आओगी?”
उसके ऊपर एक कोमल उदासी छा गई।
मेरिया कोहनी टेके एक करवट लेटी हुई थी, किंतु सिर उठाए, उसे हथेली पर टेककर। और कार्मेन उससे चिपट कर उसकी छाती में मुँह छिपाए पड़ी थी!
समाचार मेरिया सुन चुकी थी। दोनों ने यह निश्चय कर लिया था कि कल उन्हें क्रांति-विद्रोह में मिल जाना होगा; यद्यपि कैसे, क्या करना होगा, यह वे नहीं सोच सकी थीं।
और, इस निश्चय पर पहुँच जाने के बाद, जो विचार-रहस्य-गर्भित मौन छा गया था, उसी में दोनों पर वह उदासी छा गई थी, न जाने क्यों...
कार्मेन देख रही थी क्रांति की विजय का स्वप्न, और उस स्वप्न की भव्यता में उसे एक कँपीकँपी-सी आती थी, एक रोमांच-सा होता था, किंतु मेरिया और मिगेल की उस विजय पर छाई हुई छाया और मेरिया का इस समय का घनिष्ठ समीपत्व उसे उदासी के उस नशे में से बाहर नहीं निकलने देता था...
मानो मेरिया के शरीर में से, किसी अज्ञात मार्ग से, उसका प्रगाढ़ नैराश्य कार्मेन में प्रविष्ट हो रहा था। क्योंकि मेरिया के हृदय पर नैराश्य की छाया थी; ऐसा नैराश्य, जो अपनी सीमा पर पहुँचकर नष्ट हो गया है, भाव नहीं रहा, एक आदत-सी हो गई है और इसलिए स्वयं मेरिया को भी दृश्य नहीं होता।
कार्मेन ने किसी गहरी छाया के दबाव का अनुभव करके धीरे से कहा, “कुछ गाओ!”
मेरिया ने दूरस्थ भाव से कहा, “आज तो मन नहीं करता कार्मेन! कल सुन लेना।”
“कल तो...” कहकर कार्मेन एकाएक चुप हो गई। जिस छाया से वह बच रही थी, वह तनिक और भी गहरी हो गई...
बहुत देर बाद, कार्मेन एकाएक चौंकी। मेरिया की आँखों से एक आँसू उसके गाल पर गिरा था-एक अकेला, बड़ा-सा, गर्म...
उसके चौंकते ही मेरिया ने ज़ोर से उसे अपने से चिपटा लिया और बार-बार घूँटने लगी...
मेरिया का भाव कार्मेन समझ नहीं सकी, किंतु फिर भी, यह अतिरेक अच्छा-सा लगा... वह मेरिया के मानसिक संसार में प्रविष्ट नहीं हो सकी, किंतु मेरिया के शरीर के इस दबाव का प्रतिदान देने लगी... उस श्रोता की तरह, जो किसी कलाकार गायक का गान सुनते हुए, स्वयं गाने की क्षमता न रखकर भी अपने को भूलकर गुनगुनाने और ताल देने लगता है...
तब न जाने कितनी और देर बाद, मेरिया भी बहुत धीमे स्वर में गाने लगी—एक अँग्रेज़ी कविता का टुकड़ा, जो उसने अपने समृद्ध जीवन में कभी सीखा था...
‘मस्ट ऐ लिटल वीप, लव,
फूलिश मी!
एंड सो फ़ाल एस्लीप लव,
लव्ड बाई दी...’
(थोड़ा-सा रोऊँगी-
भोली मैं!
और तब सोऊँगी,
तेरे प्यार में...)
और उन्हें इस व्यवहार में लीन देखकर रात चुपके-चुपके तीव्र गति से भागने लगी, मानो उन्हें धोखा देने के लिए मानो, ईर्ष्या से...
और मेरिया और कार्मेन बार-बार चौंक-सी जातीं और थोड़ी देर बातें कर लेतीं और फिर चुप हो जातीं, और कार्मेन दो-चार झपकियाँ सो भी लेती...कभी-कभी एकाध आँसू गिर जाता तो दोनों ही अपने आँसू-भरे हृदयों में सोचती, किसका था? और, फिर अपने को छिपाने के लिए बातें करतीं, या आलिंगन करतीं और इसी चेष्टा में वही प्रकट हो जाता जो वे छिपा रही थीं...तब वे इसी अतिशय समीपत्व की वेदना से घबरा कर आगे देखने लगतीं—भविष्य की ओर। मेरिया किधर और कार्मेन किधर...उनके पथ विभिन्न थे और प्रतिकूल, किंतु न जाने जैसे अपने अंत में वे मिल जाते थे—एक खारी बूँद में, एक दबाव में, एक साँस में, एक तपे हुए मौन में, या इन सभी की अनुपस्थिति की शून्यता में!
प्रतीक्षा की रातों को प्रतीक्षक का भाव ही लंबी बनाता है, किंतु यदि उनसे वह भी न हो, तो वे रातें कैसे कटें—अंतहीन ही न हो जाएँ!
(पाँच)
रात में आग फट पड़ी है।
जलती हुई पृथ्वी को रौंदते हुए, काल के घोड़े दौड़े जा रहे हैं... और उनके मुँह से पिघली हुई आग का फेन गिर रहा है, उनके फटे-फटे नथुनों में से ज्वाला की लपटें निकल रही हैं... और काल-पुरुष मृत्यु के धुएँ में घिरा बैठा है, घोड़ो को ढील देता जा रहा है, और शब्दहीन किंतु सदर्प आज्ञापना से कह रहा है, “बढ़ो रौंदते चले जाओ!” और पृथ्वी की लाली और काल-पुरुष के प्रयाण की लाली के साथ ऊषा के जलते हुए आकाश की लाली मिल रही है—
हवाना में विद्रोह हो गया है।
उसमें बुद्धि नहीं है—अशांति को कहाँ बुद्धि? उसमें संगठन नहीं है—रिक्तता का कैसा संगठन? उसमें नियन्त्रण नहीं है—भूख का क्या नियन्त्रण? उसकी कोई प्रगति भी नहीं—विस्फोट की किधर प्रगति?
विद्रोह इन सबसे परे है... वह मानवता के स्वाभाविक विकास का पथ नहीं, वह उसके अस्वाभाविक संचय के बचाव का साधन है, उसकी बाढ़ का रेचन... वह ज्वार की तरह बढ़ रहा है।
उसका घात है—
इधर जहाँ मैकाडो के महल के आगे इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो रही है, जहाँ महल लूट लिया गया है, जहाँ महल का सब सामान यथावत् पड़ा है, केवल खाद्य पदार्थ लूटे जा रहे हैं, और बिखर रहे हैं;
इधर जहाँ बहुत-से निहत्थे लोगों ने किसी समृद्ध राज-कर्मचारी के एक घर से एक मोटा-सा सुअर निकला और उसे कच्चा ही काट-काट कर, नोच-नोच कर खा रहे हैं; भूनने के लिए भी नहीं रुक सकते, तथापि आग पास ही जल रही है;
इधर जहाँ कई एक कर्मचारी अपने अच्छे-अच्छे वस्त्र फेंककर अपने नौकरों के फटे मैले-कुचले कपड़े पहन रहे हैं कि वे भी इस गंदी शून्यता में छिप सकें।
इधर जहाँ बीसियों नंगे लड़के, महलों के पीछे जमे हुए कूड़े-कर्कट के ढेर में से टुक्कड़ बीन-बीन कर खा रहे हैं—वही टुक्कड़, जिन्हें वहाँ के कौए भी न खाते थे;
इधर जहाँ पुरुषों की भीड़ में अनेक अच्छी-बुरी स्त्रियाँ और वेश्याएँ तक उलझ रही हैं, पर किसी को ध्यान नहीं कि वे स्त्रियाँ भी हैं;
इधर जहाँ पाँच-चार विद्रोही सैनिकों के साथ जुटी हुई विद्यार्थियों और नव-युवकों की भीड़ केना के फूल और खजूर की डालियाँ तोड़-तोड़कर, उछाल-उछाल कर चिल्ला रही है, और मैकाडो के पलायन की ख़ुशी में अपना ध्येय, कर्त्तव्य और योजनाएँ भूल गई है; पागल हो गई है...
इधर जहाँ शोर हो रहा है, पर शोर की भावना से नहीं; नाच हो रहा है, पर नाच की भावना से नहीं; झगड़ा हो रहा है, पर झगड़े की भावना से नहीं; हत्या हो रही है, पर हत्या की भावना से नहीं; बदले लिए जा रहे हैं, पर बदले की भावना से नहीं...
इधर जहाँ क्रांति हो रही है, पर बिना उसे क्रांति समझे हुए, बिना उसे किए हुए ही...
उधर जहाँ मैकाडो के कर्मचारियों की स्त्रियाँ व्यस्त-वस्त्रों में किंतु मुँह को चित्र-विचित्र पंखों की आड़ में छिपाए, मोटरों या गाड़ियों में बैठ-बैठकर भाग रही है; उधर जहाँ खुफ़िया पुलिस के सिपाही एक छोटे-से लड़के से उसके विद्रोही पिता का पता पूछ रहे हैं और उसकी प्रत्येक इनकारी पर कैंची से उसकी एक-एक उँगली काटते जाते हैं;
उधर जहाँ उन्हीं का एक समूह लोगों को पकड़-पकड़कर समुद्र में डाल रहा है, जहाँ शार्क मछलियाँ उन्हें चबाती है;
उधर जहाँ विद्रोहियों के नाख़ूनों के नीचे तप्त सूए चुभाए जा रहे हैं; और तपी हुई सलाखों से उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ जलार्इ जा रही हैं;
उधर जहाँ सेबेस्टिन मेरिया के गहनों को बेच आया है, अपनी स्त्री को संतुष्ट कर आया है और स्वयं अपने हृदय से आत्मग्लानि मिटा कर अपने को निर्दोष मानकर, धीरे-धीरे एक गली में टहलता हुआ सोच रहा है यदि उसकी स्त्री न होती तो वह मेरिया को ठगने की बजाए उससे विवाह ही कर लेता, क्योंकि उसकी ठगी निर्दोष होकर भी ठगी ही है...
और उधर जहाँ मिगेल, जो रात-भर एक चुराए हुए घोड़े को दौड़ाता हुआ सैंटियागो से हवाना आया है, जिसका घोड़ा गोली से मर चुका है और जिसकी टाँग भी गोली लगने से लंगड़ी हो गई है और ख़ून से भरी पट्टी में लिपटी हुई है। मिगेल मेरिया और कार्मेन को घर में न पाकर हवाना की सूनी-सूनी गलियाँ पार करता हुआ जा रहा है, देखने कि कहाँ क्या हो रहा है, यह सोचता हुआ कि कोई परिचित या विश्वासी मिल जाए तो पता ले कि मेरिया और कार्मेन कहाँ हैं, कि बंधुओं के और विद्रोह के समाचार क्या हैं, और नगर को एकाएक यह क्या हो गया है। मिगेल, जिसका चेहरा पीड़ा से नहीं, पीड़ाओं से विकृत है; जिसका अधनंगा बदन भूख का नहीं, अनेक बुभुक्षाओं का साकार पुंज है... जो थकान से नहीं, अनेक थकानों में चूर है और गिरता-पड़ता भी नहीं, गिरता ही चला जाता है...
और मेरिया और कार्मेन, जो इस भयंकर ज्वार के घात में भी नहीं, प्रतिघात में भी नहीं, वे कहाँ, किस अपूर्व और स्वच्छंद समापन की ओर जा रही हैं? इस रौद्ररस-प्रधान नाटक की मुख्य कथा से अलग होकर, किस अन्तःकथा की नायिका बनने, किस विचित्र प्रहसन की नटी बनने, विधि की वाम रुचि की कौन-सी पुकार का उत्तर देने, कौन-सी कमी पूरी करने?
‘इस व्यापक तूफान के बाहर भी कहीं कुछ है?’
कहाँ?
क्या?
(छः)
मेरिया और कार्मेन स्त्रियाँ हैं, जाति-दोष से ही वे प्रतिघात पक्ष की हैं, पर अपनी शिक्षा और अपनी रिक्तओं के कारण उनमें विद्रोह जागा हुआ है, इसलिए वे उधर नहीं जा सकती... तभी तो वे कहीं दीख नहीं पड़तीं, न उस लुटी हुई भीड़ में, न उस लूटनेवाली भीड़ में; न उस भूखी भीड़ में, न उस भूखा रखनेवाली भीड़ में... वे उस क्रांति में नहीं मिलतीं, क्योंकि वे उसकी संचालिका नहीं हैं, वे केवल संदेश-वाहिका हैं...
मानव बनाता है, विधि तोड़ती है। मानव अपने सारे मनसूबे बाँधता है रात में अँधेरे में छिपकर; विधि उन्हें छिन्न-भिन्न करती है दिन में, प्रकाश में, खुले, परिहास-भरे दर्प से। मेरिया और कार्मेन ने, बहुत रो-धोकर रात में निश्चय किया था दिन में वे भी क्रांति में खो जाएँगी, कार्मेन ने छिपे उत्साह से मेरिया ने छिपी निराशा से किंतु दोनों ने ही दृढ़ होकर... पर, दिन में उन्हें कुछ भी नहीं दीखा, वे नहीं सोच पार्इं कि क्या करें... उन्होंने क्रांति की गति के बारे में जो कुछ सीखा था, वह मिगेल से सीखा था, पर मिगेल वहाँ था नहीं। उसके साथी उनके अपरिचित थे, और जो परिचित थे भी, वे मिल नहीं सकते थे। तब, वे क्या करतीं—कैसे उसके संगठन में हाथ बटातीं? उनके पास कोई साधन नहीं था—यदि था, तो उन्हें ज्ञात नहीं था। वे अपनी एक ही प्रेरणा पहचानती थीं-अपना निश्चय, और उसी को लेकर वे क्रांति करने निकल पड़ी थीं...
यह कोई नर्इ बात नहीं है। सागर में नित्य ही हज़ारों और लाखों व्यक्ति कुछ करने निकलते हैं, बिना जाने कि क्या; और कुछ कर जाते हैं, बिना जाने के क्या या कैसे या क्यों! यह तो सामान्य जीवन में ही होता है, जहाँ आदमी की सामान्य बुद्धि काम कर सकती है, तब क्रांति में क्यों नहीं सौ-गुना और सहस्र-गुना अधिक होगा... जो क्रांति करते हैं, उनमें कोई इना-गिना होता है जो जानता है कि वह क्या कर रहा है; यदि कोई कुछ जानते हैं तो इतना ही कि वे कुछ कर रहे हैं, कुछ करना चाहते हैं, कुछ करेंगे... और इतना भी बहुत है; क्योंकि अधिकांश तो इतना भी नहीं जानते कि वे कुछ कर भी रहे हैं, इतना भी नहीं कि कुछ हो रहा है! ये तो एक भीड़ के भीड़पन के नशे में खोकर, नींद में चलने वालो रोगी की तरह, एकाएक चौंककर जागते हैं और तब वे जानते हैं कि कुछ हो गया है; अब जो है, वह पहले नहीं था, और पहले नहीं था, और पहले जो था, वह अब नहीं है... जो कुछ हो चुका होता है, वह एक प्रगूढ़ आवश्यकता के कारण होता है। प्रायः परिस्थितियों की अनियन्त्रणीय प्रतिच्छति होती है, जो सर्वसाधारण के लिए भले ही क्रियाशील होती है; पर यह सब दूसरी बात है, बल्कि यह तो सही सिद्ध करती है कि सर्वसाधारण का उसके करने में कोई हाथ नहीं होता...
हाँ, तो मेरिया और कार्मेन एक ऐसी आंतरिक माँग को लेकर, अपने जीवन की किसी छिपी हुई न्यूनता को, किसी और भी छिपी हुई प्रेरणा को आज्ञापना से पूरी करने के लिए निकल पड़ी थीं। वह था उषा के तत्काल बाद ही, और अब तो दिन काफ़ी प्रकाशमान हो चुका था, धूप में काफ़ी गर्मी आ गई थी...
उन्होंने हवाना की गलियों में आकर देखा-कहीं कोई नहीं था। वे इधर-उधर ढूँढ़ती फिरी, पर सभी लोग किसी अज्ञात अफ़वाह के उत्तर में इतने सवेरे ही कहीं गुम हो गए थे...
केवल कहीं गली में दो-चार लड़कियाँ और बूढ़ी औरतें उन्हें मिलीं, और वे उनके साथ हो लीं। और वे धीरे-धीरे हवाना के बंदरगाह की ओर उन्मुख होकर चलीं कि और कहीं नहीं तो वहाँ पर लोग अवश्य मिलेंगे, क्योंकि उसके सब ओर हवाना का अभिजात वर्ग और उनके सहायक-राजकर्मचारी, अफ़सर, सिपाही, पुलिसवाले, व्यापारी-इस विराट प्रपंच के स्तम्भ-बसते हैं।...
वे क्रांतिकारिणी नहीं थीं—उनमें क्या था, जो क्रांतिकारी कहा जा सकता है? वे एक निश्चय, और जीवन के प्रति एक भव्य विस्मय का भाव लेकर चल पड़ी थीं! उनमें वह क्रूर प्रचार-भाव नहीं था, जिससे क्रूसेडर लड़ा करते थे, या इस्लाम के मुजाहिद। यदि प्रचार की कोई भावना उनमें थी तो वैसी ही, जैसी तिब्बत में होकर चीन जाते हुए बौद्ध प्रचारक कुमारगुप्त के हृदय में...
जिधर वे जा रही थीं, उधर बहुत शोर हो रहा था और उसको सुन-सुनकर वे और भी तीव्र गति से चलती जाती थीं, उन दो-एक बूढ़ी स्त्रियों में भी किसी प्रकार का जोश जाग रहा था...
आगे-आगे कार्मेन उछलती जा रही थी-जैसे सूर्य के सात घोड़ों के आगे उषा बीच-बीच में, कभी वह किलकारी भरकर कहती थी, “क्रांति चिरंजीवी हो!” और मानो क्रांति की सत्यता के आगे इस नारी के क्षुद्रता की ज्ञान से, एकाएक-चुप हो जाती थी—तब तक, जब तक कि आत्मविस्मृति उसे फिर नारा लगाने की ओर प्रेरित नहीं कर देती थीं। बुड्ढियाँ चुप थीं—शायद इसलिए कि उन्हें क्या, उनके सात पुरखाओं को भी क्रांति का पता नहीं रहा था...
और मेरिया? वह इस परिवर्तन की ओर अशांति में भी अपना वैधव्य नहीं भूली थी। वह कार्मेन के साथ-साथ चलने का प्रयत्न कर रही थी, किंतु फिर भी बिना जल्दी के, एक भव्य मन्थरता लिए हुए। उसमें कार्मेन का उत्साह, सुख, यौवन की प्रतीक्षामान चुनौती नहीं थी! न उन बुड्ढियों का उदासीन, विवश स्वीकृतिभाव, उसमें था एक संतुष्ट अलगाव, मानो वह कहीं और हो, कुछ और सोच रही हो, कोई और जीवन जी रही हो, उसने मानो इस जीवन की संपूर्णता पा ली थी...
क्यों?
उसके जीवन में आरंभ से ही वंचना रही थी, लगातार आज तक; तब फिर संतोष कहाँ था?
यह जीवन का अन्याय (या एक क्रूर न्याय!) है कि उन्हीं की वंचना सबसे अधिक होती है, जो जीवन से सबसे अल्प माँगते हैं। मेरिया ने कभी जीवन से कुछ नहीं माँगा, इसीलिए वह इतनी वंचिता रही है कि उसे कुछ भी नहीं मिला...
किंतु शायद इसीलिए वह आज वंचना में इतनी संतुष्ट है कि सोचती है वह सफल हो चुकी है, जीवन पा चुकी है और जी चुकी है।
उसने अपना कुछ—अपना सब-कुछ!—मिगेल को नहीं तो मिगेल के नाम पर दे दिया है...
वह विधवा है। मिगेल उसका कोई नहीं है। पर... उसका जीवन संपूर्ण हो गया है। उसके जाने, मिगेल उसकी सहायता से छूट गया है, अमरीका चला गया है, आकर क्यूबा को स्वीधान और सुशासित कर गया है। इसके अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता—क्या उसने अपना सब-कुछ इसी उद्देश्य से नहीं दे दिया?
विधवा मेरिया! तेरी फूटी आँखें, फूटी बुद्धि, फूटे भाग्य! चलो दोनों देखो, संपूर्णता से भी आगे कुछ है...
गली से सड़क, सड़क से चौराहे पर आकर वे एकाएक रुक गई हैं।
चौराहे के आगे ही हवाना महल के सामने का खुला मैदान है। वहाँ बहुत-सी भीड़ इकट्ठी हो रही है, इकट्ठी हो चुकी है, और फिर भी लोग सब ओर से धँसे चले आ रहे हैं। कोई कुछ कर नहीं रहा—क्रांति में कौन क्या करता है?—पर सब धँसे आ रहे हैं, मानो स्वाधीनता यहीं बिखरी पड़ी है और वे उसे बटोरकर ले जाएँगे। और कोई जानता नहीं कि वे किसलिए वहाँ आ रहे हैं, केवल और लोगों के उपस्थित होने के कारण वे भी यहाँ आ जुटते हैं...
यहाँ क्या होगा? कुछ नहीं होगा, मानवता अपनी मूर्खता का प्रदर्शन अपने ही को करेगी, और फिर झेंप कर स्वयं लौट जाएगी। या अपने ही से पिटी हुई-सब लोग कहेंगे कि क्रांति सफल हो गई या दूसरों से तब लोग जानेंगे कि प्रति क्रांति की जीत रही। और दोनों अवस्थाओं में वे उस ध्येय को नहीं पाएँगे, जिसके लिए उनमें अशांति उठ रही थी—क्योंकि अभी उनमें से उसे प्राप्त करने की शक्ति नहीं है। वे स्वाधीनता के किसी एक नाम से दासता का कोई एक नया रूप ले जाएँगे!
मेरिया स्तिमित-सी होकर खड़ी देख रही है। ये सब भाव उसके हृदय में से होकर दौड़े जा रहे हैं। उसका व्यथा से निर्मल हुआ अंतर बहुत दूर भविष्य को भेद कर देख रहा है, यद्यपि वह वर्तमान नहीं देख पाता। उसके मन में एक निराश प्रश्न उठ रहा है, जिसे वह कह नहीं सकती; एक प्रकांड संशय जिसका वह कारण नहीं समझती। उसका हृदय एकाएक रोने लगा है, यद्यपि वह यही जानती है कि उसके इस समय आह्लाद से भर जाना चाहिए, इस नवल प्रभात में, जब उसका देश जागकर स्वतंत्र हो रहा है।
एक थी कैसांड्रा, जिसकी दिव्य-दृष्टि अभिशप्त थी, जिसके फलस्वरूप उसकी भविष्यवाणी का कोई विश्वास नहीं करता था... एक है मेरिया, जो इतनी अभिशप्त है कि स्वयं ही अपनी दृष्टि पर विश्वास नहीं कर पाती... उसे कुछ समझ ही नहीं आता, वह पागल की तरह देख रही है...
नहीं तो, वह तो सफल हो चुकी है, संपूर्ण हो चुकी है, उसे अब क्या? वह तो संतुष्ट है, प्रसन्न है।
वह मुड़कर, कार्मेन की आँखों से खोजती है। कार्मेन उससे कुछ ही दूर खड़ी किसी से बात कर रही है।
क्या कह रही है? उस व्यक्ति को सुनाकर कार्ल मार्क्स के कुछ वाक्य दुहरा रही है, जिसे उन दोनों ने इकट्ठे पढ़ा था। और मेरिया को अनुभव होता है, कार्मेन प्रयत्न कर रही है कि उन वाक्यों को मेरिया की तरह बोले... वह व्यक्ति उपेक्षा से, तिरस्कार से, शायद क्रोध से या भय से या किसी मिश्रित भाव से, सुन रहा है, क्योंकि वह मैकाडो की पुलिस का आदमी है, (होने दो!) कार्मेन की ध्वनि सुनकर मेरिया आनंद से और आह्लाद से भर जाती है, उसका सारा निराशावाद और असंतोष निकल जाता है... क्या हुआ यदि वह कुछ नहीं है, वह कुछ नहीं पा सकी, वह रोती रही, अनाथिनी, अभागी, वंचिता रही है? उसके दो हैं, जो ऐसे नहीं, और उसी के कारण ऐसे नहीं-कार्मेन और मिगेल... कार्मेन, जिसे उसने सुखी रखा और जो उसके पास खड़ी है, मिगेल, जिसे उसने छुड़ाया है और जो इस समय अमरीका के पथ पर होगा... ओ स्वतंत्र, स्वाधीन क्यूबा, तुझे मेरे ये दो उपहार हैं; और मेरा जीवन अब सफल और संपूर्ण हो चुका है-
मेरिया का गला घुटता है, वह चीख़ भी नहीं सकती, झपटती है—
उस व्यक्ति ने जेब से रिवाल्वर निकालकर कार्मेन पर गोली चला दी है, कार्मेन बिना खींची हुई साँस को छोड़े भी, ढेर हो गई है...
(सात)
वहाँ उसके आस-पास, एक छोटा-सा घेरा खाली हो गया है।
वह उसके मध्य में खड़ी है। वह एक स्वप्न में आर्इ थी, एक स्वप्न में झुकी थी, अब एक स्वप्न में खड़ी है। एक मरा हुआ स्वप्न उसकी बाँह में लटक रहा है; मरा हुआ, किंतु रक्त-रंजित, अभी गर्म... और उसकी दूसरी बाँह उसके सिर पर धरी हुई है, मानो सिर पर कह रही हो, “ठहर, अभी यहीं रह..”
कहीं से उसी व्यक्ति की कर्कश हँसी सुन पड़ती है, पर सहमी हुई भीड़ में कोई नहीं है, जो इस समय भी उसे चुप करा दे! और मेरिया के सिर पर से तूफ़ान बहा जा रहा है, निःशब्द भैरव, निरीह तूफ़ान... पर उसका सिर झुका नहीं, नींद में भीड़ के मुखों में कुछ पढ़ रही है, उन मुखों में लगी हुई आँखों में, जो उसकी बाँह से लटकते हुए अभी तक गर्म रक्त-रंजित स्वप्न को देख रही है, किंतु जो मेरिया की फटी आँखों से मिलती नहीं...
मेरिया टूट गई है, पर अभी जाती है, और सामने देख रही है... सामने जहाँ भीड़ स्तब्ध हो रही है...
यह सब क्षण-भर में-क्षण-भर तक! तब भीड़ में कुछ फैलता है जो भय से हज़ार गुना त्वरगामी जान पड़ता है, और भीड़ भागती है—इधर-उधर, जिधर हो...कहाँ को न जाने; किससे न जाने; पर यहाँ से कहीं, अन्यत्र, इस स्वप्निल स्त्री-रूप की छाया से बाहर कहीं भी, जहाँ संसार का अस्तित्व हो...
स्वप्न टूटता है। मेरिया उस भगदड़ में देखती है—एक भूखा, लंगड़ा, अधनंगा शरीर, एक प्यासा, थका हुआ, व्यथित मुख जो उसके देखते-देखते क्षण-भर में ही अत्यंत आह्लाद और अत्यंत पीड़ा में चमक उठता है—और खो जाता है।
मेरिया एक हाथ से कार्मेन को उठाए है—उसका दूसरा हाथ आगे बढ़ता है, मानो सहारे के लिए! ओंठ कुछ उठकर खुलते हैं, मानो पुकार के लिए—और मिगेल के लड़खड़ाकर गिरे हुए शरीर को रौंदती हुई भीड़ चली जाती है, चली जाती है, चली जाती है...
इसका भी अंत होगा। सभी कुछ का अंत होगा। और नई चीज़ें होंगी, जो इससे विभिन्न होंगी। अच्छी हों, बुरी हों, ऐसी तो नहीं होगी। वह देश के अमर शहीदों में से होगी या अपमानित परित्यक्त वेश्या, सब एक ही बात है—ऐसे तो नहीं होगी, ऐसे खड़ी तो नहीं रहेगी... जैसे अब खड़ी है। एक हाथ से कार्मेन का शव लटक रहा है, और दूसरा मानो सहारे के लिए आगे बढ़ा है; शरीर और मुँह एक दर्प से उठा है, जो टूटता भी नहीं; आँखें एक भावातिरेक को लेकर भरी हुई हैं; और यह चित्र मानो शब्दहीन, जीवहीन, अत्यंत श्वेत पत्थर का खिंचा हुआ उस जनहीन मैदान में खड़ा है...
यह क्या किसी कुछ का संकेत नहीं है—कुछ नश्वर, कुछ अमर; कुछ अच्छा, कुछ बुरा; कुछ सच्चा, कुछ मूक, कुछ व्यंजक; कुछ अतिशय विकराल...”
एक हाथ पर मरे हुए प्रेम का बोझ लिए, दूसरे हाथ से किसी चिर-विस्मृति मृत प्रेम को भीड़ में से बुलाती हुई, आँखों से भव को फाड़ती हुई, एक संदेशवाहिनी पीड़ा...
घोड़े गुज़र जाते हैं। मनुष्य गुज़र जाते हैं। भीड़ गुज़र जाती हैं। प्रमाद गुज़र जाता है। पर आशा-विभ्राट; भूख-भूख-रिक्तता; वेदना-वेदना-पराजय; बिखरी हुई प्रतिज्ञाएँ, यह है क्रांति की गति। प्रलय-लहरी क्यूबा में-जैसे वह अन्यत्र गुज़री है; वैसे वह सर्वत्र गुज़रेगी—विद्रोह...
किंतु कोई जानता नहीं। कोई देखता नहीं। कोई सुनता नहीं। कोई समझता नहीं। मेरिया की अनझिप आँखें—कैसांड्रा का अभिशाप...
(कैसांड्रा=एपोलो के वरदान से कैसांड्रा को भवितव्यदर्शिता प्राप्त हुई थी, किंतु उसकी प्रणय-भिक्षा को ठुकराने पर एपोलो ने उसे शाप दिया कि उसकी भविष्यवाणी पर कोई विश्वास नहीं करेगा। ट्रॉय के युद्ध के समय, और उसके बाद एगामेम्नन की स्त्री बनकर, भावी घोर दुर्घटनाओं को देखकर वह चेतावनी देती रही, किंतु ट्रॉयवालों ने उसे पागल समझकर बंद कर रखा और एगामेम्नन ने भी उसकी उपेक्षा की। कैसांड्रा का अभिशाप यही है कि वह भविष्य देखेगी और कहेगी, किंतु कोई उसका विश्वास नहीं करेगा।-लेखक)
(मुल्तान जेल, दिसंबर 1933)
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wahan hai to bahut kuch wahan mar kat hai, hattya hai, bhookh hai, pyas hai, widroh hai, par meriya use dekh hi nahin rahi wo to wahan ek swapn ki chhaya dekh rahi hai ek swapn, jo toot chuka hai, kintu bikhra nahin, jo baddh ho chuka hai, kintu mara nahin hai
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par kya man ko uljhane ke liye koi aspasht wichar awashyak hi hai? kya kawi kawita likhne se pahle use likhne ke wichar mein aur uske anukul jhukaw mein hi itna tallin nahin ho sakta ki kawita ki abhiwyakti ek akinchan, akasmik, dwaitiyik wastu ho jaye? tabhi to meriya bhi uski yaad mein tallin ho rahi hai, use yaad hi nahin kar rahi, use yaad karne ki awastha mein hi aisi kho gai hai ki wo yaad samne nahin aati
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karmen kahti hai, “bahan, dekho, ye theek ban raha hai? tum soch kya rahi ho?”
aur, meriya bina uske parashn ka uttar diye hi swayan puchhti hai, “han, karmen, tu to kamyunist hai na pakki?”
“main jo hoon so hoon, tum ye batao ki tum soch kya rahi theen?”
“main? main kya sochunngi? tu hi to apne jhanDe mein itni tallin ho rahi hai ki kuch baat nahin karti ”
“main jhanDe mein, aur tum is nam mein, kyon n?”—kahkar karmen shararat se hansti hai
“chup shaitan!’—hansakar meriya ekayek gambhir ho jati hai
aur karmen bhi chup rahti hai, kabhi kabhi beech beech mein kanakhiyon se uski or dekhkar kuch kahne ko hoti hai, par kahti nahin
ganne ke khet ke idhar ek wekti aata deekh raha hai meriya sthir utkantha se dekhne lagi hai karmen ne udhar nahin dekha, kintu kisi alaukik buddhi se wo bhi anubhaw kar rahi hai ki uski bahan wyagrata se kuch dekh rahi hai aur wo bhi ek tani hui pratiksha si mein apna kaam kar rahi hai
jab wo wekti pas aa gaya, to meriya ne uthkar hath se use ishara kiya aur karmen se boli, “karmen, tu bhitar ja main baat karke aungi ”
karmen ek bar mano kahne ko hui, “main bhi rah jaun?” phir us waky ko ek chitwan mein hi uljhakar chali gai
“kaho, sebestin, milne ko kyon kahla bheja tha?”
“tumhare liye samachar laya hoon koi sunta to nahin?”
“nahin ”
“phir bhi, dhire dhire kahun migel ka samachar hai ”
meriya chup uske chehre par utkantha bhi nahin dikhti
“wah maitanzas ki jel mein hai ”
“yah to main bhi janti hoon ”
sebestin swar aur bhi dhima karke bola, “wah wahan se nikalkar america jane ka parbandh kar raha hai ”
meriya phir chup par, ab ki utkantha nahin chhipti
“use dhan ki zarurat ”
“phir?”
sebestin sandigdh swar mein bola, “yahi main soch raha hoon mera jo haal hai, so dekhti ho abhi teen din se roti nahin khari aur tumse bhi kuch kah nahin sakta aur, aur yahan kaun bach raha hai—sabhi bhukhe mar rahe hain mangu kisse?”
meriya thoDi der chup rahi phir boli, “kitna dhan chahiye?”
sebestin ne ek bar teewr drishti se uski or dekha, phir kaha, “kya karogi puchhkar— bahut!”
“phir bhi kitna?”
“laogi kahan se? agar sau Dalar chahiye to?”
“sau chahiye?”
tanik wismay se, “agar do sau Dalar chahiye—tin sau?”
“teen sau Dalar chahiye?”
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meriya chup hai uske mukh par anek bhaw aate hain aur jate hain sebestin unhen paDh nahin pata aur sochta hai—yah aurat baDi gahri malum paDti hai, mujhse bahut kuch chhipaye hue hai, jiska main anuman bhi nahin kar pata
“kya? shayad koi khari cheez ho to rakh len—par aaj kal girwi se bechna achchha, kyonki milega bahut thoDa par kya tum girwi rakhna chahti ho? abhi to tumhara kharch chalta hoga?”
meriya ne uttar nahin diya, kuch der sochne ke baad puchha, “use nikalne mein kitne din lagenge?”
“din kya? parbandh to hai, dhan bhijwate hi wo nikal jayega ”
“yahan se maitanzas bhijwaoge?”
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“hoon!”
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“tum! panch sau dollar!”
“han! mera wishwas hai ki kar sakungi! par nishchay nahin kah sakti—tum raat ko aana ”
“par—”
“abhi jao, raat ko aana abhi bus, abhi bus! main kuch sochna chahti hun—mera swasthy theek nahin hai ” kahkar meriya muDkar ghar ki or chali
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hawana shahr ke asapas, dehat mein, meriya ke pita ki bahut si zamin thi jismen ganne boye jate the; kintu kuch warshon se, jab se america ke chini ke wyapariyon aur mazduron tak ne kyuba se chini ke ayat ka wirodh kiya aur deshabhakti ki aaD lekar laDne ko tatpar hue, jab se american sarkar ne unka man rakhne ke liye aur apni chhunchhi jatibhakti ya deshabhakti ki shan rakhne ke liye, kyuba se anewali chini ke ayat par kar baDha diya, tab se dhire dhire unki zamin ghatne lagi aur unka sahas bhi tutne laga meriya ko wo din yaad hai (yadyapi bahut der se, aise jaise pichhle jiwan ke sukh dukh yaad aa rahe hon!) jab uske pita ne aakar ek din thake hue swar mein meriya ki man se kaha, “roja, hum lut gaye hain,—diwaliya ho gaye hain ”
us baat ko do warsh ho gaye uske baad hi wo din bhi aaya, jab sentiyagon mein unka makan bhi bik gaya aur we ek sadharan pariwar bankar hawana aaye mazduri karne ke liye wo din bhi, jabki meriya ka pita ek din ganne ke khet ki nirai karte karte lu lagne se mar gaya aur uske kuch hi din baad meriya ki man bhi—jo sab kasht aur klesh sahkar bhi abhiman ki chot ko nahin sahar saki thi
tab se meriya aur karmen us ghar mein rahti hain we donon mazduri nahin kartin ab mazduri karne se utna bhi nahin milta, jitne ke usmen nity kapDe hi ghis jate hain, khane ki kaun kahe isliye, meriya ab kabhi kabhi kisi american yatri ke yahan ek aadh din sewa karke kuch kama leti hai aur usi par tosh kar leti hai is sewa mein kabhi kabhi kisi yatri ko sujhta hai ki meriya to sundari hai tab meriya Darti nahin, chhipti nahin, sah leti hai aur apna wetan kama leti hai; kyonki naitik tantr to kal aur paristhiti ke banaye hote hain aur pratyek kal mein jaise unchai ki ek sima si hoti hai, waise hi nichai ki bhi aur, meriya samajhti hai ki wartaman paristhiti mein wo kam se kam patit nahin, juthi nahin hai
sipi jab samudr mein paDi hoti hai, tab uski gati abadh hoti hai aur wo asprishy; jab wo teer par paDi sukhti hai, tab log uske bahy akar ko chhu lete hain, sahla lete hain par usse uske andar chhipa hua jeew aahat nahin hua, waisa hi asprishy rahta hai phir ek din aisa bhi aa sakta hai, jab sukhe uttap se chhatapta kar, sipi apna bahy kathor kawach khol deti hai, tab log uske bhitar se muktamani loot le jate hain, tab uska kawach kahin paDa rahta hai aur uske jeew ko kaue noch le jate hain
meriya widhwa thi pawitra thi—achhuti thi uska wiwah uske pita ne apne paDos ke ek uchchkul ke nikamme yuwak se kar diya tha, jo wiwah ke kuch hi din baad mar gaya tha uske baad hi meriya ke mata pita sakutumb hawana aaye aur donon laDkiyon ko chhoD parlok sidhare the—jahan shayad chini par wideshi kar nahin lagta tha tab pahle kuch din meriya ne mazduri bhi ki thi, par phir yatriyon ki tahal karne lagi thi yatri usse adhik kuch nahin mangte the—adhik se adhik ek muskan, hathon ka sparsh, ek komal sambodhan itne ke liye wo inkar nahin karti thi, upeksha se deti thi, aur apni mazduri le jati thi isse aage uske bhi ek kathor kawach tha, teer paDi sipi ki tarah, aur wo sochti thi ki uska kaumary sada aisa hi akshat rahega
ek bar, aisa hua tha ki wo is geet ko badalne lagi thi—wah apne ko utsarg karne lagi thi apni or se wo utsarg ho bhi chuki thi, shayad swikrit bhee; par yadi aisa hua tha, to na wo utsarg cheshta hi wyakt hui thi aur na uski swikriti hee!
wo pichhle sal ki baat hai tab migel uske paDos mein rahta tha wo swayan gharib tha aur mazduri karta tha, kintu wo meriya ke chhipe abhiman ko samajhta tha kabhi kabhi wo meriya ki anupasthiti mein aata, karmen se batachit karta aur uske liye khane pine ka bahut sa saman chhoD jata karmen swayan khati, to migel kahta, “rakh lo, bahan ke sath khana ” aur karmen is updesh ka auchity dekhkar ise swikar kar leti isi prakar, migel har dusre din kuch bhent chhoD jata, jisse donon bahnon ka ek din ka kharch bach jata tab ek din meriya ne use mana karne ke liye uska samna kiya tha aur tab se phir samna kar sakne ke ayogya ho gai thi—bik gai thi
meriya migel se baat bahut kam karti wo aata aur karmen se baten karta, hansta khelta aur meriya unki tarun mata ki tarah hi unhen dekha karti par kai bar use wichar hota, migel ke karmen ke sath khelne mein ek prerna hai, uski batachit mein ek agrah, uski hansi mein ek sahanubhuti, jo karmen ko di jakar bhi uski or aati hai, usike liye hai tab wo lajjit bhi hoti, pulkit bhee; aur ek wishann anand se aur bhi chup ho jati aur ye sab isliye ki uski apni sab prernayen, apne sab agrah, apni sab sahanubhuti ek hi rahasyapurn abhiwyakti mein mileg ki or ja chuki thi
migel mein pratibha thi, aur pratibhawan wekti kabhi ek sthir, wyaktigat prem nahin pata chahe apne wekti waichitry se uska anubhaw karne ke ayogya hota hai, chahe bhagya dwara hi usse wanchit hota hai migel aur meriya bhi aise hi rahe migel hawana ke ek gupt mazdur dal ka agua tha—is baat ka pata lag jane par uske nam warant nikal gaye aur wo bhag gaya is baat ko bhi chhः mas ho gaye aur, ab to migel mahine bhar se maintazas ke fauji jel mein paDa hai use pata nahin kya hoga shayad bina muqadme ke hi wo phansi latka diya jayega kyonki ab hai maikaDo ka rashtraptitw, jo ki american chhatrachchhaya se bhi bura hai, kyonki maikaDo das hi nahin, wo adhikar prapt das hai isliye adhikari se adhik kroor aur hridayhin hai aaj, august 1933 mein, jab praja pahle hi bhukhi mar rahi hai, tab uske bache khuche jiwika ke sadhan bhi chhine ja rahe hain; aur itna hi nahin jo is bhukhi mirtyu ka wirodh karte hain, unhen sabse pahle chun chunkar mara ja raha hai han, sabhyata aur pragti!
meriya ne migel ko apnaya nahin tha, shayad isliye migel ka ek chihn meriya ke pas sada rahta hai—uski dwadashwarshiya bahan meriya ka prem maun tha, karmen ka sneh atyant mukhar kyonki wo prem nahin tha, wo tha ek puja mishrit adhikar waisa hi, jaisa kisi bachche ke man mein apne dewta ke prati hota hai karmen na har samay migel ka nam japti thee; harek paristhiti mein uske mukh par ek hi parashn aata tha ki “ismen migel ko kaisa lagta?” yahan tak ki jab wo rukha sukha khana khane baithti, tab sarwottam khady wastu (bahudha to ek hi wastu hoti!) par ansh nikalkar use ek alag patr mein rakhkar purwasth maitanzas ki or unmukh hokar kahti, “yah migel ke liye hai” meriya hansti, ‘pagli!” par karmen ke karm se, use aisa jaan paDta hai ki migel ki ek sakrun sans uske pas se, uski kisi lat ko kinchitmatr kampit karti hui, shayad uske shrutimul ko chhuti hui chali gai wo zara pichhe jhuk jati hai—wishranti ki mudra mein kshanbhar palken minchkar ek chhoti si sans leti, aur phir prakrtisth ho jati; bhojan ka adhik madhur jaan paDne lagta aur meriya ko ekayek dhyan aata ki karmen uski kitni, kitni atyant priy pata nahin, wo karmen ka adhikrt prem hai, ya meriya ke hirdai mein migel ki anupasthiti ke rikt ko pura karnewala aur antat migel par ashrit bhaw par meriya use karmen par bikherti hai aur baDi atmawismriti se (ya shayad aatm wismriti ke liye hee?) bikherti hai
karmen ise janti hai wo chhoti hai, abodh hai, apne ishtdew ki puja mein, apni weer puja mein khori hui hai, par meriya ko janti hai wo janti hai ki uska dewta ka kuch hai aur mariya sarwatha uski or, use isse irshya nahin hoti prem kisi na kisi prakar ke pratidan ka ichchhuk hota hai—chahe wo pratidan kitna hi wanchak aur marak kyon na ho—isiliye prem mein irshya hoti hai par pujabhaw, wisheshatः weer puja mein pratidan ki ichha nahin hoti, isiliye usmen wirodh ki bhawna nahin hoti ek pujari apne dewta ke any upaskon se ek samipatw hi anubhaw karta hai aur, phir karmen ye bhi to samajhti hai ki swayan meriya ki kitni apni hai kyonki wo dekhti hai, meriya ke jiwan ka koi bhi rikt agar bhara hai to karmen se hi, meriya ne mano apne pransutr ke sab tantu sab or se samet kar usi mein lapet diye hain aur usi ki ashrit ho rahi hai karmen ye to samajh sakti nahin ki meriya ki jiwan lata kitni adhik uske sahare ki akankshai hai, wo isiliye ki uske bhitar kahin ghun lag raha hai, jo uski shakti ko choos jata hai aur use bahy ashray ke liye baadhy kar raha hai karmen samajhti hai ki meriya ka uske prati sachcha sneh hai, aur wo wastaw man hai bhi sachcha aur wishuddh kintu wo swayambhu nahin hai, wo ek rikt ki pratikriya hai jaise, jab pair mein kahin juta chubhta hai, tab us chubhan se us sthan ki rakhsha ke liye ek phaphola uthta hai, aur sneh se bharta hai wo phaphola bhi sachcha hota hai aur sneh bhi, par wo swabhawik hokar bhi swayambhut nahin hota, wo ek bahy karan se, ek rikti ki ya piDa ki pratikriya se utpann hota hai
ise karmen bhi nahin janti, meriya bhi nahin janti kyonki jo swayan jine ki kriya mein wyast hote hain, unhen jiwan ke sroton ka anweshan karne ka samay nahin hota, shayad prawrtti bhi nahin
meriya aur karmen ke is panch Dalar masik ke—saDhe sat aane roz ke—jiwan mein ek wekti aur bhi uljha hua hai wastaw mein uljha hi hua hai, kyonki migel to uska ek swabhawik ang hai aur ye wekti hai ek paheli, ek uljhan bhi, jo wibhinn awastha mein shayad suljhari bhi ja sakti, aur jo kisi bhi awastha mein unke jiwan ka awashyak ang nahin hui na hogi ye wekti hai sebestin
wartaman yug ki ginti mein sebestin se donon bahnon ka parichai bahut din se hai wo bhi kisi samay samrddh tha, uski patni motor mein baithti thi, uske bete abhijnon ke school mein paDhte the par ab wo bhi mazduri karta hai aur din bhar khoon pasina ek karke bhi apna kharch nahin chala sakta—wisheshatः isliye ki apni istri ka tusharmay, ulahane bhara maun usse nahin saha jata, use dekhkar wo kai bar kisi bhayankar aag se bhar jata hai aur bilkul hridayhin ek marak shastr ki tarah ho jata hai—anubhuti, daya, achar gyan tak se pare, uthe hue khanDe ki tarah, jo gir hi sakta hai, aur jiske girne ki niti shastr nahin niyantrit kar sakta
wo migel ka sakha tha, sahyogi tha, wishwaspatr tha migel ke sath samany daridray mein bandha tha aur migel, is bandhan ko hi sabse baDa bandhan samajhta tha aur isi ke karan sebestin ka wishwas karta tha par migel akela tha aur swachchhand, sebestin apni grihasthi ke bandhanon mein bandha hua aur surakshait tha isliye migel mitrata mein purnataya bandh jata tha, aur sebestin usse ghir kar bhi uske bhitar ek atmnirnyadhikar banaye rakhta tha
meriya se migel ne sebestin ka bhi parichai karaya tha meriya un donon wyaktiyon ka antar dekhti thi, kintu sebestin ke prati migel ka aadar bhaw dekh kar apne wicharon ko daba leti thi migel uska kuch nahin tha, kintu uske bina jane hi uska man is nishchay par pahunch chuka tha ki jo kuch migel ka niji hai, wahi uska bhi hai
migel chala gaya, bandi bhi ho gaya meriya ke jiwan mein isse koi wishesh pariwartan prakat nahin hua siwa iske ki ab bahnon ko jo kuch khane pine ko prapt hota hai, wo meriya ki apni kamai ka phal hota hai, kyonki sebestin unki kuch sahayata nahin kar sakta—wah swayan iska akankshai hai! sebestin aur meriya ab kabhi kabhi milte hain, bus! kabhi meriya sebestin ke ghar ka smarn karke, use apne yahan roti khila deti hai tab sebestin kritaj~n to hota hai par uske hirdai mein swabhawat hi ye bhaw uday hota hai ki in bahnon ke pas awashyakta se adhik dhan hai, nahin to ye kyon mujhe khilatin—kaise khila saktin? bechare sebestin ke ab we din nahin the, jab wo soche, main kisi ko khila sakta hoon aur uska ye bhaw, uski kritaj~nata ke pichhe chhipa hone par bhi, meriya ko deekh jata tha tab wo wishann si hokar, sebestin ke charitr ko samajhne ki cheshta karti thi, wo uske bahut pas pahunch jati thi, kintu purnataya hal nahin kar pati thee; sebestin uske liye ek uljhan rah jata tha, jo sulajh sakti hai, yadyapi abhi suljhi nahin; jo ek paheli hai jiska hal hai to, par abhi prapt nahin hua
tab wo santwana ke liye jati thi—apne chir abhyast kawiyon ke pas nahin us chir abhyast kawita ke jiwan rahu, andhi pani dhuen ke paigambar karl marx ki sharan mein! kyonki, us samay uski manःsthit komal kawita ke anukul nahin hoti thi, wo chahti thi ek bhairaw kawita, uchchhal lahri ki tarah ek hi bhawy garjan mein sab kuch Dubonewali, ghor winashini
wo karmen ko bulakar pas bitha leti aur uske sath paDhne lagti karmen ke utsahshil tarun hirdai ko migel ne pura communist bana diya tha wo karl marx ke nam par kisi samay kuch bhi paDhne ko prastut thi uski is tatparta mein wahi wyagr bhawukta thi, marx uski buddhi pusht kar sakta tha, par uski swabhawik chanchalta ko nahin
meriya bhi marx ko apne mastishk se nahin, apne hirdai se paDhti thi karmen jab dekhti ki meriya kis prakar uske uchcharan mein hi leen hui ja rahi hai, uske tark ki or nahin jati kewal uski wirat widhwansini prerna mein bahi ja rahi hai, tab meriya ke bhaw ko pratibimbit karta hua ek romanch sa use bhi ho jata tha, ek kanpkanpi si uske sharir mein dauD jati thi—waisi hi, jaisi kisi anishwarwadi murtipujak hirdai mein, kisi bhawy mandir mein aarti ko dekh sun kar ho uthti hai jab meriya paDh chukti thi, tab karmen akasmat kah uthti, “migel ke paDhane mein to ye aisa nahin hota tha—”
meriya puchhti, “kya?” to karmen se uttar dete na banta! wo man hi man kalpana karti, kahin wijay samudr tat par bane girjaghar mein samwet gan ho raha ho aur lahron ke nad se mil raha ho aur is bhaw ko kah nahin pati thi, ek khori si muskan muskura deti thee!
aj, sebestin ke jane ke baad bhi yahi hua meriya paDhne lagi aur karmen chupchap sunne kintu meriya se bahut der tak nahin paDha gaya usne ukta kar pustak rakh di aur boli, “phir sahi ”
karmen ne dhire se puchha, ‘meriya, aaj tumhein kuch ho gaya hai? batao, sebestin kya kahta tha?”
meriya jaise chaunki boli, “kuchh to nahin?”
us swar mein kuch tha jisne karmen ko jhakjhor kar kaha, “pas aa!”
karmen aari aur meriya ki god mein sir rakhkar baith gai meriya ne use pas kheench liya aur use gale se liptaye baithi rahi kabhi kabhi karmen ko malum hota, meriya wahan nahin hai tab wo sir uthakar meriya ka munh dekhana chahti, par meriya use aur bhi zor se chipta leti, sir uthane na deti thi
aise hi dhire dhire sandhya ho gai khajur ke peDon ke pichhe sara wayumanDal swarndhuli se bhar sa gaya, jismen ganne ke khet adrshy ho gaye jo kshaitij dopahar mein bahut door jaan paD raha tha, ab mano bahut pas aa gaya, mano khajur ke wrikshon ke niche hi ghonsla banane ko aa chhipa door kahin, american rajadut bhawan se ghante ka swar sun paDne laga aur nagar se shor bhi ekayek bahut pas jaan paDne laga
karmen, meriya ki god mein bahut chup paDi thi, meriya ne puchha, “karmen, so gai kya?” tab karmen ne god mein rakha hua sir, meriya ke sharir se ragaDkar hila diya aur jhuthmuth ke ruthe swar mein boli, “tum batati to ho nahin ”
“o, wah?” kahkar meriya phir chup ho gai thoDi der baad boli, “karmen, tujhse ek baat puchhni hai; na, uth mat, aisi hi paDi rah!”
karmen ne wismay se kaha, “kya aaj roti nahin khani hai?”
“kha lenge tu sun to!”
“han, kaho ”
“karmen, janti hai, jab man mari, tab hamein bilkul anath nahin chhoD gai?” meriya ne gambhir swar mein aisi mudra mein ye parashn kiya, jaise uttar ki bhi apeksha nahin aur aise hi kahti chali karmen chupchap sunne lagi
“wah mujhe thoDe se gahne saunp gai thi bahut to nahin the, par ajkal ke zamane mein utne hi bahut hote hain kuch to hamare wansh ki paranpra mein hi chale ja rahe the, kuch man ne tere wiwah ke liye banwaye the ”
“mere? aur tumhare liye nahin?”
“han, mere bhi the, sun to ye sab wo saunp gai thi, aur sanbhalakar rakhne ko bhi kah gai thi iske alawa ek moti bhi hai, jo migel ne diya tha ”
“migel ne? uske pas tha?”
“han use uski bua de gai thi par, tu aise parashn puchhegi, to main baat nahin kahungi!”
meriya phir kahne lagi, “yah sab mainne ek bartan mein rakhkar dab diye the ki kahin gum ho na ho jayen aaj unhen nikalne ki soch rahi hoon migel ne mangwaye hain ”
“par wo to qaid hai n?”
“han, wo wahan se nikalkar america jayega isliye zarurat hai ”
“achchha, abhi mujhe bhagakar baten kar rahi theen han, to nikal lao, rakhe kahan hai?”
meriya ne is parashn ki upeksha karke, “jo wansh ke hain, aur jo tere wiwah ke liye bane the, un par mera adhikar nahin hai ”
karmen sir ko jhatakkar uth baithi, kuch boli nahin, meriya ke mukh ki or dekhne lagi
meriya ne dekha ki karmen ko ye baat chubh gai hai, par wo kahti gai, ‘we tere hain, isiliye tujhse puchhna tha ki unhen bikwa doon?”
karmen ne aahat swar mein kaha, “mujhse puchhti ho?”
meriya ne jaan bujhkar us swar ko na samajhte hue, phir puchha, “han bata to!”
“main nahin batati—” karmen ki ankhon mein ansu bhar aaye usne munh pher liya, meriya uski manuhar karne lagi ek drishya hua, jise na dekhana dekhkar na kahna hi uchit hai
tab karmen ne rokar kaha, “main kabhi mana karti?”
meriya ekayek shithil ho gai
3
sandhya ghani ho gai
karmen apni bahan ki prtiksha mein baithi thi andhkar ho raha hai, isliye usne paDhna chhoD diya hai, par abhi batti nahin jalarin awashyakta bhi kya hai? tel bachega! aur, is komal andhkar mein baithkar suryast ke pat par apne swapnon ka nrity dekhana achchha lagta hai
karmen ne bahut dinon se is prakar apne aapko prakrti ki prakrtata mein nahin bhulaya uska jiwan aisa ho gaya hai ki iske liye awsar nahin milta; isliye jab awsar mil bhi jata, tab us swapn sansar se lautkar aane ki chot ke bhay se wo udhar jati hi nahin, par aaj, itne dinon baad na jane kyon, use baDi prasannata ho rahi hai shayad ekayek migel ke nikalne ki sambhawana ke karan, shayad is anubhuti se ki aaj uski bahan ke pyar mein sada se adhik kuch tha—koi wastu nahin, kintu ek prakar ki wishishtata ka koi sookshm bhed karmen ek wichitr, adamy tyag bhawna se bhari sandhy nabh ko dekh rahi hai dekh nahin rahi, pratibimbit kar rahi hai nabh ke pratyek chhaya pariwartan ke sath hi sath uske pranon mein bhi mano ek parda badalta hai
suryast ke baad ka rang jane kaisa kalush liye lal lal, maila sa ho raha hai use dekhkar karmen ke manःkshaetr mein kisi andhere wismrit kone mein ek wichar, ya chhaya, ya kalpana aa rahi hai wo akash use aisa lag raha hai, jaise wan mein kisi rahasyapurn naish utsaw ki apni aag se deept, use pratibimbit karti hui, kisi bhairaw dewta ki wirat, chamakti hui kali prastar murti ki khuli khuli, chapti chapti, phaili hui chhati
karmen sochti hai ki we donon bahnen us dewta ki rakshait hain, yadyapi wo dewta baDa wikral hai par, meriya abhi tak aari kyon nahin?
hum sandhy akash ki chhata ko ek swatantr wibhuti mante hain, par wo hai kya? wo hai kisi any ke, kisi ast hue aalok ki pratichchhaya matr
aur, hum samajhte hain, sandhya mein ek atmbhut, atyantik saundarya hai, par wahan waisa kuch nahin hai hum sandhya mein dekhte hain—kewal apne antar ka pratibimb, apni bujhi hui, ashaon akankshaon ka sphurtiman kankal
nahin to, ye kaisa hota ki jis sandhy akash mein karmen ko aisa bhawy chitr dikhta hai, usi mein chalis meel door metanzas ke fauji jel mein baithe migel ko itna wibhats chitr dikhta hai
chaar panch kheme gaDe hain, jinke aas pas kantile tar ka jangala laga hua hai uske bhitar bahar donon aur sashastr sipahiyon ka pahra hai aur usse kuch door ek aur khema laga hai, jiske bahar baithe sipahi gali galauj kar rahe hain uske samne hi teen teen bandqon ko milakar banaye hue chaar panch kundle hain aur unse aage prshant khet aur pashchimiy kshaitij
ek kheme ke bahar migel khaDa hai use bahar nikalne ki anumti nahin hai, kintu pahrewale sipahi ki daya se wo kuch der ke liye bahar ka drishya dekhne nikla hai wo un banduqon ke kundle ki agrbhuti se, aur kheton ke maun se par ke sandhy akash ko dekh raha hai aur soch raha hai
isi disha mein chalis meel door hawana hai, wahan uska sab kuch hai kul chalis meel; par chalis meel! wo sochta hai, yadi main aaj chhutkar hawana pahunch sakun to kya kuch kar sakunga na jane wahan kya paristhiti hai—bahut dinon se samachar nahin aaya hai, widroh ko jagane mein usne itna yatn kiya, jis ke liye wo yahan bhi aaya, usi mein wo bhagi nahin ho sakega—hay wanchna!
wo chahta hai, teewr gati se idhar udhar chalkar apne andar bharte hue is awsad ko kuch kam kar len; par use to wahan nishchal khaDa rahna hai use to hilna bhi nahin, wo to wahan khaDa bhi hai to ek sipahi ki anukampa se, maikaDo ke sipahi ki anukampa se hay parwashta!
uske man mein wichar uthta hai, aaj raat hi iska ant karna hai wo akela hi hai, akela hi yatn karega wo is bandhan ka ant aaj hi raat mein karega—mukti ke liye pranon par khel jayega paran to jate hi hain—shayad pahle mukti mil jaye ek sipahi ne use sahayata ka wachan diya hai, wo use kantile tar ke par tak jane dega uske aage migel ka adhikar hai uske pas ek pistol hai wo yadi nikal kar bhag na sakega, to apna ant to kar sakega yadi shatru ki goli se bhi marega, to us kantile tar ke us par to marega! us kantile tar ki rekha hi uske liye jiwan aur marn ki wibhajak rekha ho rahi hai, mukti ka sanket—hay dasta!
buddhi use kahti hai, ye wichar tujhe wichlit kar denge yudh mein nishchay ho jane ke baad wikalp nahin karna chahiye wo to usse poorw ki baten hain tab wo kahin paDhi hui kawita ki do chaar panktiyan duhrata hai aur suryast ko dekh kar wahi wibhats kalpnayen karne lagta hai
ye wahi akash hai, wahi aalok ka chhayanartan wahi kalushmari, lali, wo phika phika mailapan par migel kya dekhta hai! jaise roginai kshaitij ka raktmishrit rajasraw ya, jaise kalagti se kisi wikral jantu ke prasaw ke baad gire hue phool apni kalpana ki wibhatsta se wahi machamcha jata hai, par wo aati hai aur aati hai aur itna hi nahin, wo ye bhi sochne lagta hai ki wo wikral jantu kya hoga, jiske prasaw ke ye phool hain—wah kroor, bhayankar, namahin, antak
wo to bahut door hai yahin hawana ke antik mein usi suryast ko ek aur wekti dekh raha hai—sebestin
wo apne ghar mein akela hai, yadyapi uske pas hi uski istri aur bachche hain, aur uski istri use kuch kah rahi hai wo kuch sun nahin raha, use aaj apni istri ke chubh jane wale shabdon ka bhi dhyan nahin, wo usse bhi adhik chubhnewali baton par wichar kar raha hai wo wishwasghat ki taiyari kar raha hai; wo janta hai ki ye wishwasghat hoga; ye bhi anubhaw kar raha hai ki ye bhayankar pap, atyant nichata hogi, wo is par lajjit bhi hai; kintu kisi amar shakti se bandha hua sa wo ye anubhaw kar raha hai ki ye hoga awashy, usse hoga, aur wo sab kuch dekhte hue bhi andha hokar ise karega
kya karega? kuch bhi to nahin kisi ke pas awashyakta se adhik dhan hai, use le lega, unke liye jinhen uski awashkta hai—apni biwi aur bachchon ke liye ye koi pap hai? aur phir, usne iske liye yojna to banari nahin, use kab aasha thi ki meriya dhani hai—usne to pata lagane ke liye parashn puchha tha meriya swayan hi kahti hai bhagya use kuch deta hai, to wo na lenewala kaun? wo jhutha, dagabaz atmwanchak ab use dikhta hai, wo kuch ho, wo ek apratirodh se bandha hua hai aur uske liye, yadi kahin kshama nahin to use prerna se awashy milegi
sara akash, sari sirishti, aag ke lal pratibimb, aur kale kale dhuen se bhari hui hai! tab wahi kahan se ek shital aatma le aawe, wahi kahan se adarsh purush ho jaye, wahi kahan us lal prtijyoti aur us kale dhuen se bachkar ja pahunche
aur wo akela hi use nahin dekh raha, yahin hawana shahr mein, usi suryast mein, anek wyaktiyon ko kya kuch deekh raha hai
yahan hawana ka wo ansh rahta hai, jise kabhi uska ansh gina nahin jata, kintu jis par uska astitw nirbhar karta hai jo hawana ki gharib ka niket hai, kintu jo hawana ki sampatti ko banata hai yahan we purush hain jo din bhar mazduri karke ek mas mein utna kama pate hain, jitna american mazdur ek ghante mein, jiske bhale ke nam par in logon ko pisa ja raha hai aur jo swayan kisi aur ke liye pisenge? yahan we aurten bhi hain, jo din bhar aur aadhi raat bhar silai ka kaam karti hain aur ek darjan qamizen sikar panch aane wetan pati hain, ya jo apne sharir ko bech kar uske mooly mein kuch aane paise aur koi marak rog pakar, kritaj~n bhi ho sakti hain yahan we laDke bhi hain, jo apne mata pita ka pet bharne mata pita ke pet ka khalipan kam karne ke liye wo bhi karne ko taiyar rahte hain, jiske wiruddh samast manawta chillati hai
we sab, suryast ko dekh nahin rahe hai, par suryast unki ankhon ke aage hai unhen kuch na kuch dikhta bhi hai, unke pas itna samay nahin ki rukkar use dekhen, us par wichar karen, par unki ashanti mein suryast ke prati ek bhaw jag raha hai
wahi kalushpurn lal lal, maila sa akash unke man mein aisa hai, jaise krodh ki pighli hui aag ubal ubal kar baith gai ho; upar satah par chhoD gai ho ek dhusar si, jali bujhi sulagti si ek kuDhan ki aag
unke hirdai mein bhi kuDhan ki aag si uth rahi hai we samajhte hain, unmen krodh ki jwala hai, par krodh karne ke liye shakti ki awashyakta hoti hai, aur we hain nirbal aur apni nirbalta ke parichit we kuDh hi sakte hain, jaise ki we ab tak karte rahe hain
aj we jo taiyari kar rahe hain, wo krodh nahin, wo bhi kuDhan ki aag hi hai tabhi to we aise chup chup se hain, yadyapi we widroh ki taiyari mein hain; usi ke liye nikal bhi paDe hain unke pratinidhiyon ka ek dal ja raha hai mahl aur fauji barkon ki or, aur dusra dal chala hai widroh ke drohiyon ki talash mein, par unki prerna krodh nahin, unki prerna hai kewal bhookh unhen fauj se sahayata ki aasha hai, par we police se Dar bhi rahe hain, kyonki we jante hain ki police ke jatthe bhi widrohiyon ki khoj mein hain aur kyonki unke hirdai mein Dar hai, isiliye we soch bhi sakte hain, taiyari bhi kar sakte hain, bhawishya ki or unmukh bhi ho sakte hain
sandhya bahut ghani ho gai
4
karmen meriya se poochh rahi thi, “baDi der kar dee?” ki sebestin ne pukar kar puchha, “a jaun?”
meriya ne kandhe par se chadar utar kar rakhi aur karmen se boli, “le, dekh!”
karmen wyagrata se hanDiya ko khol kar, uske bhitar momjame mein lipte hue abhushnon ko nikal kar dekhne lagi sebestin ne dabe wismay se puchha, “inhen kahan se lari hai?”
meriya ek chhoti si santusht hansi hansi phir karmen se boli, “karmen, tu inhen le jakar so, hum zara baten kar len ”
karmen chali gai to meriya ne dhime swar mein sebestin se puchha, “paryapt honge?”
“hone to chahiye tumhein mooly ka kuch anuman hai?”
“panch sau se to kahin ziyada ke hain ”
“han, par ajkal to bahut ghate par dene paDenge aur, aaj to bahut hi kam ”
“aj koi khas baat hai?”
“han, par wo thahar kar bataunga to, ye main le jaun?”
meriya ne kuch hichkichate hue kaha, “han ” sebestin ne samjha, shayad sandeh ke karan hichkicha rahi hai aisi awastha mein usne chup rahna hi uchit samjha meriya boli, “main le aun?” aur bhitar chali gai
wahan se laut kar aate, use kewal abhushan lane mein jitni der lagni chahiye thi, usse adhik lagi kyonki use ek bar phir karmen se puchhna tha ki abhushan dekhkar uski ray badal to nahin gai, use batana tha ki kaun kiska tha, use aur kuch nahin to migelwala moti uske hathon gale mein pahankar dikhana bhi tha, uske moti rakhne ka agrah sunkar use talna bhi tha aur phir sab abhushan de Dalne ke liye prasann swikriti par, use chumna bhi tha aur uske shararat bhare is kathan par ki ‘tumhare migel ke liye to hai ’ ek halka sa mitha chapat lagakar tab kahin bahar aana tha
sebestin ne chupchap gahne lekar wastron mein kahin rakh liye tab bola, “koshish karunga, aaj hi dhan ka parbandh ho jaye, ek do american bankar hain, jo raat mein bhi kaam karte hain—balki raat mein hi kaam karte hain ”
“han ”
thoDi der chuppi rahi phir meriya ekayek boli, “han, ye to batao, wo khas baat kya thee?”
“are, main to bhool hi chala tha itni zaruri baat! yahan faujwalon aur widyarthiyon ke sath milkar logon ne kal baDe sawere widroh kar dene ka nishchay kiya hai ”
“hain!” kal? ab pichhle nishchay ko das hi din to hue hain!”
“han, ab bhi aasha bahut hai fauj sari widrohi hai, maikaDo ke paksh mein police hi hogi agar kahin mar kat hui bhi to thoDi hi akasmat hi kahin ho jaye, nahin to jitni hogi, hawana shahr ke bahar hi hogi ”
“par ghuDaswar police bhi to sashastr hai, aur khufiya?”
“han, unse ashanka hai par we hain kitne?”
“jitne bhi hon ”
“dekha jayega!” kahkar sebestin ne wida mangi aur chala chalte chalte na jane kya sochkar ekayek ruk gaya aur bola,”meriya, in abhushnon mein se koi ek aadh rakhna ho to rakh lo ”
“nahin, jab panch sau Dalar pure hone ki aasha nahin to kyon? yadi adhik mil sake, tab chahe koi rakh lena— ”
“kaun sa ?”
meriya ne in parashn ka uttar widhi par Dalte hue kaha, “jo bhi ho! par, koi bhi kyon rakhna, jitna dhan mile, sab bhej dena kya pata, use adhik ki zarurat paD jaye—aise samay lobh nahin karna chahiye!”
“han, ye baat to hai ” kahkar sebestin jaldi se chala gaya meriya wahin khaDi khaDi bahar andhkar ki or dekhkar kuch sochne lagi, kuch dekhne lagi, tabhi karmen ki awaz aari, “sone nahin aogi?”
uske upar ek komal udasi chha gai
meriya kohni teke ek karwat leti hui thi, kintu sir uthaye, use hatheli par tekkar aur karmen usse chipat kar uski chhati mein munh chhipaye paDi thee!
samachar meriya sun chuki thi donon ne ye nishchay kar liya tha ki kal unhen kranti widroh mein mil jana hoga; yadyapi kaise, kya karna hoga, ye we nahin soch saki theen
aur, is nishchay par pahunch jane ke baad, jo wichar rahasy garbhit maun chha gaya tha, usi mein donon par wo udasi chha gai thi, na jane kyon
karmen dekh rahi thi kranti ki wijay ka swapn, aur us swapn ki bhawyata mein use ek kanpikanpi si aati thi, ek romanch sa hota tha, kintu meriya aur migel ki us wijay par chhai hui chhaya aur meriya ka is samay ka ghanishth samipatw use udasi ke us nashe mein se bahar nahin nikalne deta tha
mano meriya ke sharir mein se, kisi agyat marg se, uska pragaDh nairashy karmen mein prawisht ho raha tha kyonki meriya ke hirdai par nairashy ki chhaya thee; aisa nairashy, jo apni sima par pahunchakar nasht ho gaya hai, bhaw nahin raha, ek aadat si ho gai hai aur isliye swayan meriya ko bhi drishya nahin hota
karmen ne kisi gahri chhaya ke dabaw ka anubhaw karke dhire se kaha, “kuchh gao!”
meriya ne durasth bhaw se kaha, “aj to man nahin karta karmen! kal sun lena ”
“kal to ” kahkar karmen ekayek chup ho gai jis chhaya se wo bach rahi thi, wo tanik aur bhi gahri ho gai
bahut der baad, karmen ekayek chaunki meriya ki ankhon se ek ansu uske gal par gira tha ek akela, baDa sa, garm
uske chaunkte hi meriya ne zor se use apne se chipta liya aur bar bar ghuntane lagi
meriya ka bhaw karmen samajh nahin saki, kintu phir bhi, ye atirek achchha sa laga wo meriya ke manasik sansar mein prawisht nahin ho saki, kintu meriya ke sharir ke is dabaw ka pratidan dene lagi us shrota ki tarah, jo kisi kalakar gayak ka gan sunte hue, swayan gane ki kshamata na rakhkar bhi apne ko bhulkar gungunane aur tal dene lagta hai
tab na jane kitni aur der baad, meriya bhi bahut dhime swar mein gane lagi—ek angrezi kawita ka tukDa, jo usne apne samrddh jiwan mein kabhi sikha tha
‘mast ai lital weep, lawa,
phulish mee!
enD so fal eslip lawa,
lawD bai di ’
(thoDa sa roungi
bholi main!
aur tab soungi,
tere pyar mein )
aur unhen is wywahar mein leen dekhkar raat chupke chupke teewr gati se bhagne lagi, mano unhen dhokha dene ke liye mano, irshya se
aur meriya aur karmen bar bar chaunk si jatin aur thoDi der baten kar letin aur phir chup ho jatin, aur karmen do chaar jhapkiyan so bhi leti kabhi kabhi ekadh ansu gir jata to donon hi apne ansu bhare hridyon mein sochti, kiska tha? aur, phir apne ko chhipane ke liye baten kartin, ya alingan kartin aur isi cheshta mein wahi prakat ho jata jo we chhipa rahi theen tab we isi atishay samipatw ki wedna se ghabra kar aage dekhne lagtin—bhawishya ki or meriya kidhar aur karmen kidhar unke path wibhinn the aur pratikul, kintu na jane jaise apne ant mein we mil jate the—ek khari boond mein, ek dabaw mein, ek sans mein, ek tape hue maun mein, ya in sabhi ki anupasthiti ki shunyata mein!
pratiksha ki raton ko pratikshak ka bhaw hi lambi banata hai, kintu yadi unse wo bhi na ho, to we raten kaise katen—anthin hi na ho jayen!
5
raat mein aag phat paDi hai
jalti hui prithwi ko raundte hue, kal ke ghoDe dauDe ja rahe hain aur unke munh se pighli hui aag ka phen gir raha hai, unke phate phate nathunon mein se jwala ki lapten nikal rahi hain aur kal purush mirtyu ke dhuen mein ghira baitha hai, ghoDo ko Dheel deta ja raha hai, aur shabdhin kintu sadarp agyapna se kah raha hai, “baDho raundte chale jao!” aur prithwi ki lali aur kal purush ke prayan ki lali ke sath usha ke jalte hue akash ki lali mil rahi hai—
hawana mein widroh ho gaya hai
usmen buddhi nahin hai—ashanti ko kahan buddhi? usmen sangathan nahin hai—riktata ka kaisa sangthan? usmen niyantran nahin hai—bhukh ka kya niyantran? uski koi pragti bhi nahin—wisphot ki kidhar pragti?
widroh in sabse pare hai wo manawta ke swabhawik wikas ka path nahin, wo uske aswabhawik sanchay ke bachaw ka sadhan hai, uski baDh ka rechan wo jwar ki tarah baDh raha hai
uska ghat hai—
idhar jahan maikaDo ke mahl ke aage itni baDi bheeD ikatthi ho rahi hai, jahan mahl loot liya gaya hai, jahan mahl ka sab saman yathawat paDa hai, kewal khady padarth lute ja rahe hain, aur bikhar rahe hain;
idhar jahan bahut se nihatthe logon ne kisi samrddh raj karmachari ke ek ghar se ek mota sa suar nikla aur use kachcha hi kat kat kar, noch noch kar kha rahe hain; bhunne ke liye bhi nahin ruk sakte, tathapi aag pas hi jal rahi hai;
idhar jahan kai ek karmachari apne achchhe achchhe wastra phenkkar apne naukaron ke phate maile kuchle kapDe pahan rahe hain ki we bhi is gandi shunyata mein chhip saken
idhar jahan bisiyon nange laDke, mahlon ke pichhe jame hue kuDe karkat ke Dher mein se tukkaD been been kar kha rahe hain—wahi tukkaD, jinhen wahan ke kaue bhi na khate the;
idhar jahan purushon ki bheeD mein anek achchhi buri striyan aur weshyayen tak ulajh rahi hain, par kisi ko dhyan nahin ki we striyan bhi hain;
idhar jahan panch chaar widrohi sainikon ke sath juti hui widyarthiyon aur naw yuwkon ki bheeD kena ke phool aur khajur ki Daliyan toD toDkar, uchhaal uchhaal kar chilla rahi hai, aur maikaDo ke palayan ki khushi mein apna dhyey, karttawya aur yojnayen bhool gai hai; pagal ho gai hai
idhar jahan shor ho raha hai, par shor ki bhawna se nahin; nach ho raha hai, par nach ki bhawna se nahin; jhagDa ho raha hai, par jhagDe ki bhawna se nahin; hattya ho rahi hai, par hattya ki bhawna se nahin; badle liye ja rahe hain, par badle ki bhawna se nahin
idhar jahan kranti ho rahi hai, par bina use kranti samjhe hue, bina use kiye hue hi
udhar jahan maikaDo ke karmchariyon ki striyan wyast wastron mein kintu munh ko chitr wichitr pankhon ki aaD mein chhipaye, motoron ya gaDiyon mein baith baithkar bhag rahi hai; udhar jahan khufiya police ke sipahi ek chhote se laDke se uske widrohi pita ka pata poochh rahe hain aur uski pratyek inkari par kainchi se uski ek ek ungli katte jate hain;
udhar jahan unhin ka ek samuh logon ko pakaD pakaDkar samudr mein Dal raha hai, jahan shark machhliyan unhen chabati hai;
udhar jahan widrohiyon ke nakhunon ke niche tapt sue chubhaye ja rahe hain; aur tapi hui salakhon se unki gyanendriyan jalari ja rahi hain;
udhar jahan sebestin meriya ke gahnon ko bech aaya hai, apni istri ko santusht kar aaya hai aur swayan apne hirdai se atmaglani mita kar apne ko nirdosh mankar, dhire dhire ek gali mein tahalta hua soch raha hai yadi uski istri na hoti to wo meriya ko thagne ki bajaye usse wiwah hi kar leta, kyonki uski thagi nirdosh hokar bhi thagi hi hai
aur udhar jahan migel, jo raat bhar ek churaye hue ghoDe ko dauData hua saintiyago se hawana aaya hai, jiska ghoDa goli se mar chuka hai aur jiski tang bhi goli lagne se langDi ho gai hai aur khoon se bhari patti mein lipti hui hai migel meriya aur karmen ko ghar mein na pakar hawana ki suni suni galiyan par karta hua ja raha hai, dekhne ki kahan kya ho raha hai, ye sochta hua ki koi parichit ya wishwasi mil jaye to pata le ki meriya aur karmen kahan hain, ki bandhuon ke aur widroh ke samachar kya hain, aur nagar ko ekayek ye kya ho gaya hai migel, jiska chehra piDa se nahin, piDaon se wikrt hai; jiska adhnanga badan bhookh ka nahin, anek bubhukshaon ka sakar punj hai jo thakan se nahin, anek thakanon mein choor hai aur girta paDta bhi nahin, girta hi chala jata hai
aur meriya aur karmen, jo is bhayankar jwar ke ghat mein bhi nahin, pratighat mein bhi nahin, we kahan, kis apurw aur swachchhand samapan ki or ja rahi hain? is raudrras pardhan natk ki mukhy katha se alag hokar, kis antःkatha ki nayika banne, kis wichitr prahsan ki nati banne, widhi ki wam ruchi ki kaun si pukar ka uttar dene, kaun si kami puri karne?
‘is wyapak tuphan ke bahar bhi kahin kuch hai?’
kahan?
kya?
6
meriya aur karmen striyan hain, jati dosh se hi we pratighat paksh ki hain, par apni shiksha aur apni riktaon ke karan unmen widroh jaga hua hai, isliye we udhar nahin ja sakti tabhi to we kahin deekh nahin paDtin, na us luti hui bheeD mein, na us lutnewali bheeD mein; na us bhukhi bheeD mein, na us bhukha rakhnewali bheeD mein we us kranti mein nahin miltin, kyonki we uski sanchalika nahin hain, we kewal sandesh wahika hain
manaw banata hai, widhi toDti hai manaw apne sare mansube bandhta hai raat mein andhere mein chhipkar; widhi unhen chhinn bhinn karti hai din mein, parkash mein, khule, parihas bhare darp se meriya aur karmen ne, bahut ro dhokar raat mein nishchay kiya tha din mein we bhi kranti mein kho jayengi, karmen ne chhipe utsah se meriya ne chhipi nirasha se kintu donon ne hi driDh hokar par, din mein unhen kuch bhi nahin dikha, we nahin soch parin ki kya karen unhonne kranti ki gati ke bare mein jo kuch sikha tha, wo migel se sikha tha, par migel wahan tha nahin uske sathi unke aprichit the, aur jo parichit the bhi, we mil nahin sakte the tab, we kya kartin—kaise uske sangathan mein hath batatin? unke pas koi sadhan nahin tha—yadi tha, to unhen j~nat nahin tha we apni ek hi prerna pahchanti theen apna nishchay, aur usi ko lekar we kranti karne nikal paDi theen
ye koi nari baat nahin hai sagar mein nity hi hazaron aur lakhon wekti kuch karne nikalte hain, bina jane ki kya; aur kuch kar jate hain, bina jane ke kya ya kaise ya kyon! ye to samany jiwan mein hi hota hai, jahan adami ki samany buddhi kaam kar sakti hai, tab kranti mein kyon nahin sau guna aur sahasr guna adhik hoga jo kranti karte hain, unmen koi ina gina hota hai jo janta hai ki wo kya kar raha hai; yadi koi kuch jante hain to itna hi ki we kuch kar rahe hain, kuch karna chahte hain, kuch karenge aur itna bhi bahut hai; kyonki adhikansh to itna bhi nahin jante ki we kuch kar bhi rahe hain, itna bhi nahin ki kuch ho raha hai! ye to ek bheeD ke bhiDpan ke nashe mein khokar, neend mein chalne walo rogi ki tarah, ekayek chaunkkar jagte hain aur tab we jante hain ki kuch ho gaya hai; ab jo hai, wo pahle nahin tha, aur pahle nahin tha, aur pahle jo tha, wo ab nahin hai jo kuch ho chuka hota hai, wo ek prgooDh awashyakta ke karan hota hai praya paristhitiyon ki aniyantrniy pratichchhati hoti hai, jo sarwasadharan ke liye bhale hi kriyashil hoti hai; par ye sab dusri baat hai, balki ye to sahi siddh karti hai ki sarwasadharan ka uske karne mein koi hath nahin hota
han, to meriya aur karmen ek aisi antrik mang ko lekar, apne jiwan ki kisi chhipi hui nyunata ko, kisi aur bhi chhipi hui prerna ko agyapna se puri karne ke liye nikal paDi theen wo tha usha ke tatkal baad hi, aur ab to din kafi prakashaman ho chuka tha, dhoop mein kafi garmi aa gai thi
unhonne hawana ki galiyon mein aakar dekha kahin koi nahin tha we idhar udhar DhunDhati phiri, par sabhi log kisi agyat afwah ke uttar mein itne sawere hi kahin gum ho gaye the
kewal kahin gali mein do chaar laDkiyan aur buDhi aurten unhen milin, aur we unke sath ho leen aur we dhire dhire hawana ke bandargah ki or unmukh hokar chalin ki aur kahin nahin to wahan par log awashy milenge, kyonki uske sab or hawana ka abhijat warg aur unke sahayak rajakarmachari, afsar, sipahi, puliswale, wyapari is wirat prapanch ke stambh baste hain
we krantikarini nahin thin—unmen kya tha, jo krantikari kaha ja sakta hai? we ek nishchay, aur jiwan ke prati ek bhawy wismay ka bhaw lekar chal paDi theen! unmen wo kroor parchar bhaw nahin tha, jisse kruseDar laDa karte the, ya islam ke mujahid yadi parchar ki koi bhawna unmen thi to waisi hi, jaisi tibbat mein hokar cheen jate hue bauddh parcharak kumargupt ke hirdai mein
jidhar we ja rahi theen, udhar bahut shor ho raha tha aur usko sun sunkar we aur bhi teewr gati se chalti jati theen, un do ek buDhi istriyon mein bhi kisi prakar ka josh jag raha tha
age aage karmen uchhalti ja rahi thi jaise surya ke sat ghoDon ke aage usha beech beech mein, kabhi wo kilkari bharkar kahti thi, “kranti chiranjiwi ho!” aur mano kranti ki satyata ke aage is nari ke kshaudrata ki gyan se, ekayek chup ho jati thi—tab tak, jab tak ki atmawismriti use phir nara lagane ki or prerit nahin kar deti theen buDDhiyan chup thin—shayad isliye ki unhen kya, unke sat purkhaon ko bhi kranti ka pata nahin raha tha
aur meriya? wo is pariwartan ki or ashanti mein bhi apna waidhawy nahin bhuli thi wo karmen ke sath sath chalne ka prayatn kar rahi thi, kintu phir bhi bina jaldi ke, ek bhawy mantharta liye hue usmen karmen ka utsah, sukh, yauwan ki prtikshaman chunauti nahin thee! na un buDDhiyon ka udasin, wiwash swikritibhaw, usmen tha ek santusht algaw, mano wo kahin aur ho, kuch aur soch rahi ho, koi aur jiwan ji rahi ho, usne mano is jiwan ki sanpurnata pa li thi
kyon?
uske jiwan mein arambh se hi wanchna rahi thi, lagatar aaj tak; tab phir santosh kahan tha?
ye jiwan ka annyaye (ya ek kroor nyay!) hai ki unhin ki wanchna sabse adhik hoti hai, jo jiwan se sabse alp mangte hain meriya ne kabhi jiwan se kuch nahin manga, isiliye wo itni wanchita rahi hai ki use kuch bhi nahin mila
kintu shayad isiliye wo aaj wanchna mein itni santusht hai ki sochti hai wo saphal ho chuki hai, jiwan pa chuki hai aur ji chuki hai
usne apna kuchh—apna sab kuchh!—migel ko nahin to migel ke nam par de diya hai
wo widhwa hai migel uska koi nahin hai par uska jiwan sampurn ho gaya hai uske jane, migel uski sahayata se chhoot gaya hai, america chala gaya hai, aakar kyuba ko swidhan aur sushasit kar gaya hai iske alawa aur kuch ho hi nahin sakta—kya usne apna sab kuch isi uddeshy se nahin de diya?
widhwa meriya! teri phuti ankhen, phuti buddhi, phute bhagya! chalo donon dekho, sanpurnata se bhi aage kuch hai
gali se saDak, saDak se chaurahe par aakar we ekayek ruk gai hain
chaurahe ke aage hi hawana mahl ke samne ka khula maidan hai wahan bahut si bheeD ikatthi ho rahi hai, ikatthi ho chuki hai, aur phir bhi log sab or se dhanse chale aa rahe hain koi kuch kar nahin raha—kranti mein kaun kya karta hai?—par sab dhanse aa rahe hain, mano swadhinata yahin bikhri paDi hai aur we use batorkar le jayenge aur koi janta nahin ki we kisaliye wahan aa rahe hain, kewal aur logon ke upasthit hone ke karan we bhi yahan aa jutte hain
yahan kya hoga? kuch nahin hoga, manawta apni murkhata ka pradarshan apne hi ko karegi, aur phir jhenp kar swayan laut jayegi ya apne hi se piti hui sab log kahenge ki kranti saphal ho gai ya dusron se tab log janenge ki prati kranti ki jeet rahi aur donon awasthaon mein we us dhyey ko nahin payenge, jiske liye unmen ashanti uth rahi thi—kyonki abhi unmen se use prapt karne ki shakti nahin hai we swadhinata ke kisi ek nam se dasta ka koi ek naya roop le jayenge!
meriya stimit si hokar khaDi dekh rahi hai ye sab bhaw uske hirdai mein se hokar dauDe ja rahe hain uska wyatha se nirmal hua antar bahut door bhawishya ko bhed kar dekh raha hai, yadyapi wo wartaman nahin dekh pata uske man mein ek nirash parashn uth raha hai, jise wo kah nahin sakti; ek prakanD sanshay jiska wo karan nahin samajhti uska hirdai ekayek rone laga hai, yadyapi wo yahi janti hai ki uske is samay ahlad se bhar jana chahiye, is nawal parbhat mein, jab uska desh jagkar swatantr ho raha hai
ek thi kaisanDra, jiski diwy drishti abhishapt thi, jiske phalaswarup uski bhawishyawanai ka koi wishwas nahin karta tha ek hai meriya, jo itni abhishapt hai ki swayan hi apni drishti par wishwas nahin kar pati use kuch samajh hi nahin aata, wo pagal ki tarah dekh rahi hai
nahin to, wo to saphal ho chuki hai, sampurn ho chuki hai, use ab kya? wo to santusht hai, prasann hai
wo muDkar, karmen ki ankhon se khojti hai karmen usse kuch hi door khaDi kisi se baat kar rahi hai
kya kah rahi hai? us wekti ko sunakar karl marx ke kuch waky duhra rahi hai, jise un donon ne ikatthe paDha tha aur meriya ko anubhaw hota hai, karmen prayatn kar rahi hai ki un wakyon ko meriya ki tarah bole wo wekti upeksha se, tiraskar se, shayad krodh se ya bhay se ya kisi mishrit bhaw se, sun raha hai, kyonki wo maikaDo ki police ka adami hai, (hone do!) karmen ki dhwani sunkar meriya anand se aur ahlad se bhar jati hai, uska sara nirashawad aur asantosh nikal jata hai kya hua yadi wo kuch nahin hai, wo kuch nahin pa saki, wo roti rahi, anathini, abhagi, wanchita rahi hai? uske do hain, jo aise nahin, aur usi ke karan aise nahin karmen aur migel karmen, jise usne sukhi rakha aur jo uske pas khaDi hai, migel, jise usne chhuDaya hai aur jo is samay america ke path par hoga o swatantr, swadhin kyuba, tujhe mere ye do uphaar hain; aur mera jiwan ab saphal aur sampurn ho chuka hai
meriya ka gala ghutta hai, wo cheekh bhi nahin sakti, jhapatti hai—
us wekti ne jeb se rewolwer nikalkar karmen par goli chala di hai, karmen bina khinchi hui sans ko chhoDe bhi, Dher ho gai hai
7
wahan uske aas pas, ek chhota sa ghera khali ho gaya hai
wo uske madhya mein khaDi hai wo ek swapn mein aari thi, ek swapn mein jhuki thi, ab ek swapn mein khaDi hai ek mara hua swapn uski banh mein latak raha hai; mara hua, kintu rakt ranjit, abhi garm aur uski dusri banh uske sir par dhari hui hai, mano sir par kah rahi ho, “thahr, abhi yahin rah ”
kahin se usi wekti ki karkash hansi sun paDti hai, par sahmi hui bheeD mein koi nahin hai, jo is samay bhi use chup kara de! aur meriya ke sir par se tufan baha ja raha hai, niashabd bhairaw, nirih tufan par uska sir jhuka nahin, neend mein bheeD ke mukhon mein kuch paDh rahi hai, un mukhon mein lagi hui ankhon mein, jo uski banh se latakte hue abhi tak garm rakt ranjit swapn ko dekh rahi hai, kintu jo meriya ki phati ankhon se milti nahin
meriya toot gai hai, par abhi jati hai, aur samne dekh rahi hai samne jahan bheeD stabdh ho rahi hai
ye sab kshan bhar mein kshan bhar tak! tab bheeD mein kuch phailta hai jo bhay se hazar guna twargami jaan paDta hai, aur bheeD bhagti hai—idhar udhar, jidhar ho kahan ko na jane; kisse na jane; par yahan se kahin, anyatr, is swapnil istri roop ki chhaya se bahar kahin bhi, jahan sansar ka astitw ho
swapn tutta hai meriya us bhagdaD mein dekhti hai—ek bhukha, langDa, adhnanga sharir, ek pyasa, thaka hua, wyathit mukh jo uske dekhte dekhte kshan bhar mein hi atyant ahlad aur atyant piDa mein chamak uthta hai—aur kho jata hai
meriya ek hath se karmen ko uthaye hai—uska dusra hath aage baDhta hai, mano sahare ke liye! awnth kuch uthkar khulte hain, mano pukar ke liye—aur migel ke laDakhDakar gire hue sharir ko raundti hui bheeD chali jati hai, chali jati hai, chali jati hai
iska bhi ant hoga sabhi kuch ka ant hoga aur nari chizen hongi, jo isse wibhinn hongi achchhi hon, buri hon, aisi to nahin hogi wo desh ke amar shahidon mein se hogi ya apmanit parityakt weshya, sab ek hi baat hai—aise to nahin hogi, aise khaDi to nahin rahegi jaise ab khaDi hai ek hath se karmen ka shau latak raha hai, aur dusra mano sahare ke liye aage baDha hai; sharir aur munh ek darp se utha hai, jo tutta bhi nahin; ankhen ek bhawatirek ko lekar bhari hui hain; aur ye chitr mano shabdhin, jiwhin, atyant shwet patthar ka khincha hua us janhin maidan mein khaDa hai
ye kya kisi kuch ka sanket nahin hai—kuchh nashwar, kuch amar; kuch achchha, kuch bura; kuch sachcha, kuch mook, kuch wyanjak; kuch atishay wikral ”
ek hath par mare hue prem ka bojh liye, dusre hath se kisi chir wismriti mrit prem ko bheeD mein se bulati hui, ankhon se bhaw ko phaDti hui, ek sandeshwahini piDa
ghoDe guzar jate hain manushya guzar jate hain bheeD guzar jati hain pramad guzar jata hai par aasha wibhrat; bhookh bhookh riktata; wedna wedna parajay; bikhri hui prtigyayen, ye hai kranti ki gati prlay lahri kyuba mein jaise wo anyatr guzri hai; waise wo sarwatr guzregi—widroh
kintu koi janta nahin koi dekhta nahin koi sunta nahin koi samajhta nahin meriya ki anjhip ankhen—kaisanDra ka abhishap
(kaisanDra=epolo ke wardan se kaisanDra ko bhawitawydarshita prapt hui thi, kintu uski pranay bhiksha ko thukrane par epolo ne use shap diya ki uski bhawishyawanai par koi wishwas nahin karega trauy ke yudh ke samay, aur uske baad egamemnan ki istri bankar, bhawi ghor durghatnaon ko dekhkar wo chetawni deti rahi, kintu trauywalon ne use pagal samajhkar band kar rakha aur egamemnan ne bhi uski upeksha ki kaisanDra ka abhishap yahi hai ki wo bhawishya dekhegi aur kahegi, kintu koi uska wishwas nahin karega lekhak)
(multan jel, disambar 1933)
khajur ke wrikshon ki chhoti si chhaya us kaDake ki dhoop mein mano sikuD kar apne apmen, ya peD ke pairon tale, chhipi ja rahi hai apni uttapt sans se chhataptate hue watawarn se do chaar kena ke phulon ki aabha ek taralta, ek chiknepan ka bhram utpann kar rahi hai, yadyapi hai sab or sunapan, pyasapan rukhai
un kena ke phulon ke pas hi, ek chheent ke tukDe se apne kandhe Dhanke hue, meriya baithi hai usse kuch hi door bhumi par ek akhbar bichhaye uski chhoti bahan karmen ek rumal kaDh rahi hai we donon apne apne dhyan mein mast hain, kintu unke dhyan ek hi wishay ko do wibhinn drishtiyon se dekh rahe hain yadyapi we swayan is baat ko nahin jantin ki unke wichar ek dusre ke kitne pas manDara rahe hain—yadyapi meriya use kabhi swikar nahin karegi, kyonki wo ise apne hirdai ka gupttam rahasy samajhti hai
karmen ki ankhen uske hath ke rumal par lagi hui hain wo us par lal dhage se ek nam kaDh rahi hai, jo mehandi ke rang se us par likha hua hai—migel! nam ke charon or ek bel kaDhi ja chuki hai aur bel ke upar ek lal jhanDa
meriya apne pas ki kisi cheez ko apne charmchakshuon se bhi nahin dekh rahi hai kena ke phulon ke aage jo khajur ke do chaar jhurmut se hain, unke aage jo chhote chhote nae ganne ke khet hain, unke bhi par kahin jo aspasht kintu adrshy satytayen hain, unhin par uski ankhen gaDi hain
wahan hai to bahut kuch wahan mar kat hai, hattya hai, bhookh hai, pyas hai, widroh hai, par meriya use dekh hi nahin rahi wo to wahan ek swapn ki chhaya dekh rahi hai ek swapn, jo toot chuka hai, kintu bikhra nahin, jo baddh ho chuka hai, kintu mara nahin hai
wo migel ko yaad kar rahi hai; migel, jo jel mein baitha hai; migel, jo
par kya man ko uljhane ke liye koi aspasht wichar awashyak hi hai? kya kawi kawita likhne se pahle use likhne ke wichar mein aur uske anukul jhukaw mein hi itna tallin nahin ho sakta ki kawita ki abhiwyakti ek akinchan, akasmik, dwaitiyik wastu ho jaye? tabhi to meriya bhi uski yaad mein tallin ho rahi hai, use yaad hi nahin kar rahi, use yaad karne ki awastha mein hi aisi kho gai hai ki wo yaad samne nahin aati
meriya aur karmen sadharanataya is samay ghar se bahar nahin baithtin ek to dhoop garmi, dusre widroh ke din, tisre ghar ka kaam; aur sabse baDi, sabse bhayankar baat ye ki un dinon mein weshyayen hi din dahaDe bahar nikalti hain ya we kulawadhuen jo bhookh aur daridray se piDit hokar din mein hi apne aapko bech rahi hain—chori se nahin, dhokhe se nahin, dharmadhwajiyon ki kamalipsa se nahin (in sab sabhyata ke alankaron ke liye unhen kahan awkash?) kintu, kewal chhः aane paise ke liye, jismen we roti bhar kha saken meriya widhwa hai, karmen awiwahita, aur donon hi anathini aur daridr, kintu we abhi we abhi wahan tak nahin pahunchin, we abhi ghar mein baithkar apne tutte abhiman se lipatakkar ro sakti hain, isliye kisi had tak swadhin hain aaj we bahar baithi hain to isliye ki aas pas aane janewalon ko dekh saken, aur awashyakta paDne par pukar saken, kyonki aaj we atithi ki pratiksha kar rahi hain
donon hi udwign hain, kyonki pratiksha ka samay ho chuka hai peDon ki chhaya apna laghutam roop prapt karke ab phir hath pair phailane lagi hai shayad peDon ke charnon mein aasan pane se nirash hokar usi prachi disha ki or baDhne lagi hai, jisse surya ka uday hua tha—shayad is bhawna se ki jo surya ko kankh mein dabkar rakh sakti hai, wo kya use ashray nahin dega? atithi ke aane ki bela, bahut der hue, ho chuki hai, par meriya aur karmen donon apne kamon, ya kamon ki nishkriyta mein, aisi tanmay deekh rahi hain ki donon hi ek dusre ko dhokha nahin de patin aur wyakt ho jati hain
karmen kahti hai, “bahan, dekho, ye theek ban raha hai? tum soch kya rahi ho?”
aur, meriya bina uske parashn ka uttar diye hi swayan puchhti hai, “han, karmen, tu to kamyunist hai na pakki?”
“main jo hoon so hoon, tum ye batao ki tum soch kya rahi theen?”
“main? main kya sochunngi? tu hi to apne jhanDe mein itni tallin ho rahi hai ki kuch baat nahin karti ”
“main jhanDe mein, aur tum is nam mein, kyon n?”—kahkar karmen shararat se hansti hai
“chup shaitan!’—hansakar meriya ekayek gambhir ho jati hai
aur karmen bhi chup rahti hai, kabhi kabhi beech beech mein kanakhiyon se uski or dekhkar kuch kahne ko hoti hai, par kahti nahin
ganne ke khet ke idhar ek wekti aata deekh raha hai meriya sthir utkantha se dekhne lagi hai karmen ne udhar nahin dekha, kintu kisi alaukik buddhi se wo bhi anubhaw kar rahi hai ki uski bahan wyagrata se kuch dekh rahi hai aur wo bhi ek tani hui pratiksha si mein apna kaam kar rahi hai
jab wo wekti pas aa gaya, to meriya ne uthkar hath se use ishara kiya aur karmen se boli, “karmen, tu bhitar ja main baat karke aungi ”
karmen ek bar mano kahne ko hui, “main bhi rah jaun?” phir us waky ko ek chitwan mein hi uljhakar chali gai
“kaho, sebestin, milne ko kyon kahla bheja tha?”
“tumhare liye samachar laya hoon koi sunta to nahin?”
“nahin ”
“phir bhi, dhire dhire kahun migel ka samachar hai ”
meriya chup uske chehre par utkantha bhi nahin dikhti
“wah maitanzas ki jel mein hai ”
“yah to main bhi janti hoon ”
sebestin swar aur bhi dhima karke bola, “wah wahan se nikalkar america jane ka parbandh kar raha hai ”
meriya phir chup par, ab ki utkantha nahin chhipti
“use dhan ki zarurat ”
“phir?”
sebestin sandigdh swar mein bola, “yahi main soch raha hoon mera jo haal hai, so dekhti ho abhi teen din se roti nahin khari aur tumse bhi kuch kah nahin sakta aur, aur yahan kaun bach raha hai—sabhi bhukhe mar rahe hain mangu kisse?”
meriya thoDi der chup rahi phir boli, “kitna dhan chahiye?”
sebestin ne ek bar teewr drishti se uski or dekha, phir kaha, “kya karogi puchhkar— bahut!”
“phir bhi kitna?”
“laogi kahan se? agar sau Dalar chahiye to?”
“sau chahiye?”
tanik wismay se, “agar do sau Dalar chahiye—tin sau?”
“teen sau Dalar chahiye?”
ab wismay ko chhipakar udasinata dikhate hue, nahin, chahiye to isse bhi adhik—kam se kam panch sau Dalar kharch honge baDi jokhim ka kaam hai par in baton se kya labh? ho to kuch sakta hi nahin tum puchhti kyon ho?”
meriya chup hai uske mukh par anek bhaw aate hain aur jate hain sebestin unhen paDh nahin pata aur sochta hai—yah aurat baDi gahri malum paDti hai, mujhse bahut kuch chhipaye hue hai, jiska main anuman bhi nahin kar pata
“kya? shayad koi khari cheez ho to rakh len—par aaj kal girwi se bechna achchha, kyonki milega bahut thoDa par kya tum girwi rakhna chahti ho? abhi to tumhara kharch chalta hoga?”
meriya ne uttar nahin diya, kuch der sochne ke baad puchha, “use nikalne mein kitne din lagenge?”
“din kya? parbandh to hai, dhan bhijwate hi wo nikal jayega ”
“yahan se maitanzas bhijwaoge?”
“prbandh karnewale yahi hain unhin ko dena hoga unke pas dhan pahunchte hi we kar lenge, aisa mujhse kaha hai ” sebestin ne ek dabi hui anichchha si se kaha, mano adhik rahasy kholana na chahta ho
“hoon!”
meriya phir kisi soch mein paD gai thoDi der baad usne utre hue chehre se phike swar mein kaha, “shayad main panch sau Dalar ka parbandh kar sakun tum raat ko ana!”
“tum! panch sau dollar!”
“han! mera wishwas hai ki kar sakungi! par nishchay nahin kah sakti—tum raat ko aana ”
“par—”
“abhi jao, raat ko aana abhi bus, abhi bus! main kuch sochna chahti hun—mera swasthy theek nahin hai ” kahkar meriya muDkar ghar ki or chali
achchha, “main jata hoon, wida!” kahkar sebestin chalne laga, kintu jab meriya andar chali gai, tab wo rukkar uski or dekhkar bola, “meriya, tumhare pas itna dhan kaise? ye to andhere mein teer lag gaya hai ”
phir, dhire dhire uske mukh par wismay ya agrah ka bhaw mit gaya, uska sthan liya ek lajja sa wikshaobh ke bhaw ne par jab sebestin phir ganne ke khet ki or chala, tab wo bhaw mit gaya tha—tab wo tha pahle sa hi shanti pray, kinchit wismit
khajuron ki lambi chhaya, ab theek kena ki kyari par chha rahi thee; mano anant path par chalte hue bhi, uske taral chiknepan ke bhram mein paDkar thoDi der ke liye pyasi chhaya apni ankhen hi thanDi kar rahi ho
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ab we din nahin rahe, jab meriya ki ginti saikDon se arambh hoti thi—we bhi nahin, jab wo akeli ikai ko ikai samajhne lagi thi ab to, yadi Dalar ikai hai to uski ginti sent se arambh ho jati hai aur sent hi mein sampurn ho jati hai aur, wo degi panch sau Dalar—apni ginti ki asankhy sampatti!
meriya ke man bap, sentiyago ke pahaDi pardesh mein baDe zamindar the yadyapi unki samrddhi ko bite warshon hue jaan paDte hain, tathapi meriya ko kabhi kabhi ye wichar aata hai, abhi kal hi to we din the
hawana shahr ke asapas, dehat mein, meriya ke pita ki bahut si zamin thi jismen ganne boye jate the; kintu kuch warshon se, jab se america ke chini ke wyapariyon aur mazduron tak ne kyuba se chini ke ayat ka wirodh kiya aur deshabhakti ki aaD lekar laDne ko tatpar hue, jab se american sarkar ne unka man rakhne ke liye aur apni chhunchhi jatibhakti ya deshabhakti ki shan rakhne ke liye, kyuba se anewali chini ke ayat par kar baDha diya, tab se dhire dhire unki zamin ghatne lagi aur unka sahas bhi tutne laga meriya ko wo din yaad hai (yadyapi bahut der se, aise jaise pichhle jiwan ke sukh dukh yaad aa rahe hon!) jab uske pita ne aakar ek din thake hue swar mein meriya ki man se kaha, “roja, hum lut gaye hain,—diwaliya ho gaye hain ”
us baat ko do warsh ho gaye uske baad hi wo din bhi aaya, jab sentiyagon mein unka makan bhi bik gaya aur we ek sadharan pariwar bankar hawana aaye mazduri karne ke liye wo din bhi, jabki meriya ka pita ek din ganne ke khet ki nirai karte karte lu lagne se mar gaya aur uske kuch hi din baad meriya ki man bhi—jo sab kasht aur klesh sahkar bhi abhiman ki chot ko nahin sahar saki thi
tab se meriya aur karmen us ghar mein rahti hain we donon mazduri nahin kartin ab mazduri karne se utna bhi nahin milta, jitne ke usmen nity kapDe hi ghis jate hain, khane ki kaun kahe isliye, meriya ab kabhi kabhi kisi american yatri ke yahan ek aadh din sewa karke kuch kama leti hai aur usi par tosh kar leti hai is sewa mein kabhi kabhi kisi yatri ko sujhta hai ki meriya to sundari hai tab meriya Darti nahin, chhipti nahin, sah leti hai aur apna wetan kama leti hai; kyonki naitik tantr to kal aur paristhiti ke banaye hote hain aur pratyek kal mein jaise unchai ki ek sima si hoti hai, waise hi nichai ki bhi aur, meriya samajhti hai ki wartaman paristhiti mein wo kam se kam patit nahin, juthi nahin hai
sipi jab samudr mein paDi hoti hai, tab uski gati abadh hoti hai aur wo asprishy; jab wo teer par paDi sukhti hai, tab log uske bahy akar ko chhu lete hain, sahla lete hain par usse uske andar chhipa hua jeew aahat nahin hua, waisa hi asprishy rahta hai phir ek din aisa bhi aa sakta hai, jab sukhe uttap se chhatapta kar, sipi apna bahy kathor kawach khol deti hai, tab log uske bhitar se muktamani loot le jate hain, tab uska kawach kahin paDa rahta hai aur uske jeew ko kaue noch le jate hain
meriya widhwa thi pawitra thi—achhuti thi uska wiwah uske pita ne apne paDos ke ek uchchkul ke nikamme yuwak se kar diya tha, jo wiwah ke kuch hi din baad mar gaya tha uske baad hi meriya ke mata pita sakutumb hawana aaye aur donon laDkiyon ko chhoD parlok sidhare the—jahan shayad chini par wideshi kar nahin lagta tha tab pahle kuch din meriya ne mazduri bhi ki thi, par phir yatriyon ki tahal karne lagi thi yatri usse adhik kuch nahin mangte the—adhik se adhik ek muskan, hathon ka sparsh, ek komal sambodhan itne ke liye wo inkar nahin karti thi, upeksha se deti thi, aur apni mazduri le jati thi isse aage uske bhi ek kathor kawach tha, teer paDi sipi ki tarah, aur wo sochti thi ki uska kaumary sada aisa hi akshat rahega
ek bar, aisa hua tha ki wo is geet ko badalne lagi thi—wah apne ko utsarg karne lagi thi apni or se wo utsarg ho bhi chuki thi, shayad swikrit bhee; par yadi aisa hua tha, to na wo utsarg cheshta hi wyakt hui thi aur na uski swikriti hee!
wo pichhle sal ki baat hai tab migel uske paDos mein rahta tha wo swayan gharib tha aur mazduri karta tha, kintu wo meriya ke chhipe abhiman ko samajhta tha kabhi kabhi wo meriya ki anupasthiti mein aata, karmen se batachit karta aur uske liye khane pine ka bahut sa saman chhoD jata karmen swayan khati, to migel kahta, “rakh lo, bahan ke sath khana ” aur karmen is updesh ka auchity dekhkar ise swikar kar leti isi prakar, migel har dusre din kuch bhent chhoD jata, jisse donon bahnon ka ek din ka kharch bach jata tab ek din meriya ne use mana karne ke liye uska samna kiya tha aur tab se phir samna kar sakne ke ayogya ho gai thi—bik gai thi
meriya migel se baat bahut kam karti wo aata aur karmen se baten karta, hansta khelta aur meriya unki tarun mata ki tarah hi unhen dekha karti par kai bar use wichar hota, migel ke karmen ke sath khelne mein ek prerna hai, uski batachit mein ek agrah, uski hansi mein ek sahanubhuti, jo karmen ko di jakar bhi uski or aati hai, usike liye hai tab wo lajjit bhi hoti, pulkit bhee; aur ek wishann anand se aur bhi chup ho jati aur ye sab isliye ki uski apni sab prernayen, apne sab agrah, apni sab sahanubhuti ek hi rahasyapurn abhiwyakti mein mileg ki or ja chuki thi
migel mein pratibha thi, aur pratibhawan wekti kabhi ek sthir, wyaktigat prem nahin pata chahe apne wekti waichitry se uska anubhaw karne ke ayogya hota hai, chahe bhagya dwara hi usse wanchit hota hai migel aur meriya bhi aise hi rahe migel hawana ke ek gupt mazdur dal ka agua tha—is baat ka pata lag jane par uske nam warant nikal gaye aur wo bhag gaya is baat ko bhi chhः mas ho gaye aur, ab to migel mahine bhar se maintazas ke fauji jel mein paDa hai use pata nahin kya hoga shayad bina muqadme ke hi wo phansi latka diya jayega kyonki ab hai maikaDo ka rashtraptitw, jo ki american chhatrachchhaya se bhi bura hai, kyonki maikaDo das hi nahin, wo adhikar prapt das hai isliye adhikari se adhik kroor aur hridayhin hai aaj, august 1933 mein, jab praja pahle hi bhukhi mar rahi hai, tab uske bache khuche jiwika ke sadhan bhi chhine ja rahe hain; aur itna hi nahin jo is bhukhi mirtyu ka wirodh karte hain, unhen sabse pahle chun chunkar mara ja raha hai han, sabhyata aur pragti!
meriya ne migel ko apnaya nahin tha, shayad isliye migel ka ek chihn meriya ke pas sada rahta hai—uski dwadashwarshiya bahan meriya ka prem maun tha, karmen ka sneh atyant mukhar kyonki wo prem nahin tha, wo tha ek puja mishrit adhikar waisa hi, jaisa kisi bachche ke man mein apne dewta ke prati hota hai karmen na har samay migel ka nam japti thee; harek paristhiti mein uske mukh par ek hi parashn aata tha ki “ismen migel ko kaisa lagta?” yahan tak ki jab wo rukha sukha khana khane baithti, tab sarwottam khady wastu (bahudha to ek hi wastu hoti!) par ansh nikalkar use ek alag patr mein rakhkar purwasth maitanzas ki or unmukh hokar kahti, “yah migel ke liye hai” meriya hansti, ‘pagli!” par karmen ke karm se, use aisa jaan paDta hai ki migel ki ek sakrun sans uske pas se, uski kisi lat ko kinchitmatr kampit karti hui, shayad uske shrutimul ko chhuti hui chali gai wo zara pichhe jhuk jati hai—wishranti ki mudra mein kshanbhar palken minchkar ek chhoti si sans leti, aur phir prakrtisth ho jati; bhojan ka adhik madhur jaan paDne lagta aur meriya ko ekayek dhyan aata ki karmen uski kitni, kitni atyant priy pata nahin, wo karmen ka adhikrt prem hai, ya meriya ke hirdai mein migel ki anupasthiti ke rikt ko pura karnewala aur antat migel par ashrit bhaw par meriya use karmen par bikherti hai aur baDi atmawismriti se (ya shayad aatm wismriti ke liye hee?) bikherti hai
karmen ise janti hai wo chhoti hai, abodh hai, apne ishtdew ki puja mein, apni weer puja mein khori hui hai, par meriya ko janti hai wo janti hai ki uska dewta ka kuch hai aur mariya sarwatha uski or, use isse irshya nahin hoti prem kisi na kisi prakar ke pratidan ka ichchhuk hota hai—chahe wo pratidan kitna hi wanchak aur marak kyon na ho—isiliye prem mein irshya hoti hai par pujabhaw, wisheshatः weer puja mein pratidan ki ichha nahin hoti, isiliye usmen wirodh ki bhawna nahin hoti ek pujari apne dewta ke any upaskon se ek samipatw hi anubhaw karta hai aur, phir karmen ye bhi to samajhti hai ki swayan meriya ki kitni apni hai kyonki wo dekhti hai, meriya ke jiwan ka koi bhi rikt agar bhara hai to karmen se hi, meriya ne mano apne pransutr ke sab tantu sab or se samet kar usi mein lapet diye hain aur usi ki ashrit ho rahi hai karmen ye to samajh sakti nahin ki meriya ki jiwan lata kitni adhik uske sahare ki akankshai hai, wo isiliye ki uske bhitar kahin ghun lag raha hai, jo uski shakti ko choos jata hai aur use bahy ashray ke liye baadhy kar raha hai karmen samajhti hai ki meriya ka uske prati sachcha sneh hai, aur wo wastaw man hai bhi sachcha aur wishuddh kintu wo swayambhu nahin hai, wo ek rikt ki pratikriya hai jaise, jab pair mein kahin juta chubhta hai, tab us chubhan se us sthan ki rakhsha ke liye ek phaphola uthta hai, aur sneh se bharta hai wo phaphola bhi sachcha hota hai aur sneh bhi, par wo swabhawik hokar bhi swayambhut nahin hota, wo ek bahy karan se, ek rikti ki ya piDa ki pratikriya se utpann hota hai
ise karmen bhi nahin janti, meriya bhi nahin janti kyonki jo swayan jine ki kriya mein wyast hote hain, unhen jiwan ke sroton ka anweshan karne ka samay nahin hota, shayad prawrtti bhi nahin
meriya aur karmen ke is panch Dalar masik ke—saDhe sat aane roz ke—jiwan mein ek wekti aur bhi uljha hua hai wastaw mein uljha hi hua hai, kyonki migel to uska ek swabhawik ang hai aur ye wekti hai ek paheli, ek uljhan bhi, jo wibhinn awastha mein shayad suljhari bhi ja sakti, aur jo kisi bhi awastha mein unke jiwan ka awashyak ang nahin hui na hogi ye wekti hai sebestin
wartaman yug ki ginti mein sebestin se donon bahnon ka parichai bahut din se hai wo bhi kisi samay samrddh tha, uski patni motor mein baithti thi, uske bete abhijnon ke school mein paDhte the par ab wo bhi mazduri karta hai aur din bhar khoon pasina ek karke bhi apna kharch nahin chala sakta—wisheshatः isliye ki apni istri ka tusharmay, ulahane bhara maun usse nahin saha jata, use dekhkar wo kai bar kisi bhayankar aag se bhar jata hai aur bilkul hridayhin ek marak shastr ki tarah ho jata hai—anubhuti, daya, achar gyan tak se pare, uthe hue khanDe ki tarah, jo gir hi sakta hai, aur jiske girne ki niti shastr nahin niyantrit kar sakta
wo migel ka sakha tha, sahyogi tha, wishwaspatr tha migel ke sath samany daridray mein bandha tha aur migel, is bandhan ko hi sabse baDa bandhan samajhta tha aur isi ke karan sebestin ka wishwas karta tha par migel akela tha aur swachchhand, sebestin apni grihasthi ke bandhanon mein bandha hua aur surakshait tha isliye migel mitrata mein purnataya bandh jata tha, aur sebestin usse ghir kar bhi uske bhitar ek atmnirnyadhikar banaye rakhta tha
meriya se migel ne sebestin ka bhi parichai karaya tha meriya un donon wyaktiyon ka antar dekhti thi, kintu sebestin ke prati migel ka aadar bhaw dekh kar apne wicharon ko daba leti thi migel uska kuch nahin tha, kintu uske bina jane hi uska man is nishchay par pahunch chuka tha ki jo kuch migel ka niji hai, wahi uska bhi hai
migel chala gaya, bandi bhi ho gaya meriya ke jiwan mein isse koi wishesh pariwartan prakat nahin hua siwa iske ki ab bahnon ko jo kuch khane pine ko prapt hota hai, wo meriya ki apni kamai ka phal hota hai, kyonki sebestin unki kuch sahayata nahin kar sakta—wah swayan iska akankshai hai! sebestin aur meriya ab kabhi kabhi milte hain, bus! kabhi meriya sebestin ke ghar ka smarn karke, use apne yahan roti khila deti hai tab sebestin kritaj~n to hota hai par uske hirdai mein swabhawat hi ye bhaw uday hota hai ki in bahnon ke pas awashyakta se adhik dhan hai, nahin to ye kyon mujhe khilatin—kaise khila saktin? bechare sebestin ke ab we din nahin the, jab wo soche, main kisi ko khila sakta hoon aur uska ye bhaw, uski kritaj~nata ke pichhe chhipa hone par bhi, meriya ko deekh jata tha tab wo wishann si hokar, sebestin ke charitr ko samajhne ki cheshta karti thi, wo uske bahut pas pahunch jati thi, kintu purnataya hal nahin kar pati thee; sebestin uske liye ek uljhan rah jata tha, jo sulajh sakti hai, yadyapi abhi suljhi nahin; jo ek paheli hai jiska hal hai to, par abhi prapt nahin hua
tab wo santwana ke liye jati thi—apne chir abhyast kawiyon ke pas nahin us chir abhyast kawita ke jiwan rahu, andhi pani dhuen ke paigambar karl marx ki sharan mein! kyonki, us samay uski manःsthit komal kawita ke anukul nahin hoti thi, wo chahti thi ek bhairaw kawita, uchchhal lahri ki tarah ek hi bhawy garjan mein sab kuch Dubonewali, ghor winashini
wo karmen ko bulakar pas bitha leti aur uske sath paDhne lagti karmen ke utsahshil tarun hirdai ko migel ne pura communist bana diya tha wo karl marx ke nam par kisi samay kuch bhi paDhne ko prastut thi uski is tatparta mein wahi wyagr bhawukta thi, marx uski buddhi pusht kar sakta tha, par uski swabhawik chanchalta ko nahin
meriya bhi marx ko apne mastishk se nahin, apne hirdai se paDhti thi karmen jab dekhti ki meriya kis prakar uske uchcharan mein hi leen hui ja rahi hai, uske tark ki or nahin jati kewal uski wirat widhwansini prerna mein bahi ja rahi hai, tab meriya ke bhaw ko pratibimbit karta hua ek romanch sa use bhi ho jata tha, ek kanpkanpi si uske sharir mein dauD jati thi—waisi hi, jaisi kisi anishwarwadi murtipujak hirdai mein, kisi bhawy mandir mein aarti ko dekh sun kar ho uthti hai jab meriya paDh chukti thi, tab karmen akasmat kah uthti, “migel ke paDhane mein to ye aisa nahin hota tha—”
meriya puchhti, “kya?” to karmen se uttar dete na banta! wo man hi man kalpana karti, kahin wijay samudr tat par bane girjaghar mein samwet gan ho raha ho aur lahron ke nad se mil raha ho aur is bhaw ko kah nahin pati thi, ek khori si muskan muskura deti thee!
aj, sebestin ke jane ke baad bhi yahi hua meriya paDhne lagi aur karmen chupchap sunne kintu meriya se bahut der tak nahin paDha gaya usne ukta kar pustak rakh di aur boli, “phir sahi ”
karmen ne dhire se puchha, ‘meriya, aaj tumhein kuch ho gaya hai? batao, sebestin kya kahta tha?”
meriya jaise chaunki boli, “kuchh to nahin?”
us swar mein kuch tha jisne karmen ko jhakjhor kar kaha, “pas aa!”
karmen aari aur meriya ki god mein sir rakhkar baith gai meriya ne use pas kheench liya aur use gale se liptaye baithi rahi kabhi kabhi karmen ko malum hota, meriya wahan nahin hai tab wo sir uthakar meriya ka munh dekhana chahti, par meriya use aur bhi zor se chipta leti, sir uthane na deti thi
aise hi dhire dhire sandhya ho gai khajur ke peDon ke pichhe sara wayumanDal swarndhuli se bhar sa gaya, jismen ganne ke khet adrshy ho gaye jo kshaitij dopahar mein bahut door jaan paD raha tha, ab mano bahut pas aa gaya, mano khajur ke wrikshon ke niche hi ghonsla banane ko aa chhipa door kahin, american rajadut bhawan se ghante ka swar sun paDne laga aur nagar se shor bhi ekayek bahut pas jaan paDne laga
karmen, meriya ki god mein bahut chup paDi thi, meriya ne puchha, “karmen, so gai kya?” tab karmen ne god mein rakha hua sir, meriya ke sharir se ragaDkar hila diya aur jhuthmuth ke ruthe swar mein boli, “tum batati to ho nahin ”
“o, wah?” kahkar meriya phir chup ho gai thoDi der baad boli, “karmen, tujhse ek baat puchhni hai; na, uth mat, aisi hi paDi rah!”
karmen ne wismay se kaha, “kya aaj roti nahin khani hai?”
“kha lenge tu sun to!”
“han, kaho ”
“karmen, janti hai, jab man mari, tab hamein bilkul anath nahin chhoD gai?” meriya ne gambhir swar mein aisi mudra mein ye parashn kiya, jaise uttar ki bhi apeksha nahin aur aise hi kahti chali karmen chupchap sunne lagi
“wah mujhe thoDe se gahne saunp gai thi bahut to nahin the, par ajkal ke zamane mein utne hi bahut hote hain kuch to hamare wansh ki paranpra mein hi chale ja rahe the, kuch man ne tere wiwah ke liye banwaye the ”
“mere? aur tumhare liye nahin?”
“han, mere bhi the, sun to ye sab wo saunp gai thi, aur sanbhalakar rakhne ko bhi kah gai thi iske alawa ek moti bhi hai, jo migel ne diya tha ”
“migel ne? uske pas tha?”
“han use uski bua de gai thi par, tu aise parashn puchhegi, to main baat nahin kahungi!”
meriya phir kahne lagi, “yah sab mainne ek bartan mein rakhkar dab diye the ki kahin gum ho na ho jayen aaj unhen nikalne ki soch rahi hoon migel ne mangwaye hain ”
“par wo to qaid hai n?”
“han, wo wahan se nikalkar america jayega isliye zarurat hai ”
“achchha, abhi mujhe bhagakar baten kar rahi theen han, to nikal lao, rakhe kahan hai?”
meriya ne is parashn ki upeksha karke, “jo wansh ke hain, aur jo tere wiwah ke liye bane the, un par mera adhikar nahin hai ”
karmen sir ko jhatakkar uth baithi, kuch boli nahin, meriya ke mukh ki or dekhne lagi
meriya ne dekha ki karmen ko ye baat chubh gai hai, par wo kahti gai, ‘we tere hain, isiliye tujhse puchhna tha ki unhen bikwa doon?”
karmen ne aahat swar mein kaha, “mujhse puchhti ho?”
meriya ne jaan bujhkar us swar ko na samajhte hue, phir puchha, “han bata to!”
“main nahin batati—” karmen ki ankhon mein ansu bhar aaye usne munh pher liya, meriya uski manuhar karne lagi ek drishya hua, jise na dekhana dekhkar na kahna hi uchit hai
tab karmen ne rokar kaha, “main kabhi mana karti?”
meriya ekayek shithil ho gai
3
sandhya ghani ho gai
karmen apni bahan ki prtiksha mein baithi thi andhkar ho raha hai, isliye usne paDhna chhoD diya hai, par abhi batti nahin jalarin awashyakta bhi kya hai? tel bachega! aur, is komal andhkar mein baithkar suryast ke pat par apne swapnon ka nrity dekhana achchha lagta hai
karmen ne bahut dinon se is prakar apne aapko prakrti ki prakrtata mein nahin bhulaya uska jiwan aisa ho gaya hai ki iske liye awsar nahin milta; isliye jab awsar mil bhi jata, tab us swapn sansar se lautkar aane ki chot ke bhay se wo udhar jati hi nahin, par aaj, itne dinon baad na jane kyon, use baDi prasannata ho rahi hai shayad ekayek migel ke nikalne ki sambhawana ke karan, shayad is anubhuti se ki aaj uski bahan ke pyar mein sada se adhik kuch tha—koi wastu nahin, kintu ek prakar ki wishishtata ka koi sookshm bhed karmen ek wichitr, adamy tyag bhawna se bhari sandhy nabh ko dekh rahi hai dekh nahin rahi, pratibimbit kar rahi hai nabh ke pratyek chhaya pariwartan ke sath hi sath uske pranon mein bhi mano ek parda badalta hai
suryast ke baad ka rang jane kaisa kalush liye lal lal, maila sa ho raha hai use dekhkar karmen ke manःkshaetr mein kisi andhere wismrit kone mein ek wichar, ya chhaya, ya kalpana aa rahi hai wo akash use aisa lag raha hai, jaise wan mein kisi rahasyapurn naish utsaw ki apni aag se deept, use pratibimbit karti hui, kisi bhairaw dewta ki wirat, chamakti hui kali prastar murti ki khuli khuli, chapti chapti, phaili hui chhati
karmen sochti hai ki we donon bahnen us dewta ki rakshait hain, yadyapi wo dewta baDa wikral hai par, meriya abhi tak aari kyon nahin?
hum sandhy akash ki chhata ko ek swatantr wibhuti mante hain, par wo hai kya? wo hai kisi any ke, kisi ast hue aalok ki pratichchhaya matr
aur, hum samajhte hain, sandhya mein ek atmbhut, atyantik saundarya hai, par wahan waisa kuch nahin hai hum sandhya mein dekhte hain—kewal apne antar ka pratibimb, apni bujhi hui, ashaon akankshaon ka sphurtiman kankal
nahin to, ye kaisa hota ki jis sandhy akash mein karmen ko aisa bhawy chitr dikhta hai, usi mein chalis meel door metanzas ke fauji jel mein baithe migel ko itna wibhats chitr dikhta hai
chaar panch kheme gaDe hain, jinke aas pas kantile tar ka jangala laga hua hai uske bhitar bahar donon aur sashastr sipahiyon ka pahra hai aur usse kuch door ek aur khema laga hai, jiske bahar baithe sipahi gali galauj kar rahe hain uske samne hi teen teen bandqon ko milakar banaye hue chaar panch kundle hain aur unse aage prshant khet aur pashchimiy kshaitij
ek kheme ke bahar migel khaDa hai use bahar nikalne ki anumti nahin hai, kintu pahrewale sipahi ki daya se wo kuch der ke liye bahar ka drishya dekhne nikla hai wo un banduqon ke kundle ki agrbhuti se, aur kheton ke maun se par ke sandhy akash ko dekh raha hai aur soch raha hai
isi disha mein chalis meel door hawana hai, wahan uska sab kuch hai kul chalis meel; par chalis meel! wo sochta hai, yadi main aaj chhutkar hawana pahunch sakun to kya kuch kar sakunga na jane wahan kya paristhiti hai—bahut dinon se samachar nahin aaya hai, widroh ko jagane mein usne itna yatn kiya, jis ke liye wo yahan bhi aaya, usi mein wo bhagi nahin ho sakega—hay wanchna!
wo chahta hai, teewr gati se idhar udhar chalkar apne andar bharte hue is awsad ko kuch kam kar len; par use to wahan nishchal khaDa rahna hai use to hilna bhi nahin, wo to wahan khaDa bhi hai to ek sipahi ki anukampa se, maikaDo ke sipahi ki anukampa se hay parwashta!
uske man mein wichar uthta hai, aaj raat hi iska ant karna hai wo akela hi hai, akela hi yatn karega wo is bandhan ka ant aaj hi raat mein karega—mukti ke liye pranon par khel jayega paran to jate hi hain—shayad pahle mukti mil jaye ek sipahi ne use sahayata ka wachan diya hai, wo use kantile tar ke par tak jane dega uske aage migel ka adhikar hai uske pas ek pistol hai wo yadi nikal kar bhag na sakega, to apna ant to kar sakega yadi shatru ki goli se bhi marega, to us kantile tar ke us par to marega! us kantile tar ki rekha hi uske liye jiwan aur marn ki wibhajak rekha ho rahi hai, mukti ka sanket—hay dasta!
buddhi use kahti hai, ye wichar tujhe wichlit kar denge yudh mein nishchay ho jane ke baad wikalp nahin karna chahiye wo to usse poorw ki baten hain tab wo kahin paDhi hui kawita ki do chaar panktiyan duhrata hai aur suryast ko dekh kar wahi wibhats kalpnayen karne lagta hai
ye wahi akash hai, wahi aalok ka chhayanartan wahi kalushmari, lali, wo phika phika mailapan par migel kya dekhta hai! jaise roginai kshaitij ka raktmishrit rajasraw ya, jaise kalagti se kisi wikral jantu ke prasaw ke baad gire hue phool apni kalpana ki wibhatsta se wahi machamcha jata hai, par wo aati hai aur aati hai aur itna hi nahin, wo ye bhi sochne lagta hai ki wo wikral jantu kya hoga, jiske prasaw ke ye phool hain—wah kroor, bhayankar, namahin, antak
wo to bahut door hai yahin hawana ke antik mein usi suryast ko ek aur wekti dekh raha hai—sebestin
wo apne ghar mein akela hai, yadyapi uske pas hi uski istri aur bachche hain, aur uski istri use kuch kah rahi hai wo kuch sun nahin raha, use aaj apni istri ke chubh jane wale shabdon ka bhi dhyan nahin, wo usse bhi adhik chubhnewali baton par wichar kar raha hai wo wishwasghat ki taiyari kar raha hai; wo janta hai ki ye wishwasghat hoga; ye bhi anubhaw kar raha hai ki ye bhayankar pap, atyant nichata hogi, wo is par lajjit bhi hai; kintu kisi amar shakti se bandha hua sa wo ye anubhaw kar raha hai ki ye hoga awashy, usse hoga, aur wo sab kuch dekhte hue bhi andha hokar ise karega
kya karega? kuch bhi to nahin kisi ke pas awashyakta se adhik dhan hai, use le lega, unke liye jinhen uski awashkta hai—apni biwi aur bachchon ke liye ye koi pap hai? aur phir, usne iske liye yojna to banari nahin, use kab aasha thi ki meriya dhani hai—usne to pata lagane ke liye parashn puchha tha meriya swayan hi kahti hai bhagya use kuch deta hai, to wo na lenewala kaun? wo jhutha, dagabaz atmwanchak ab use dikhta hai, wo kuch ho, wo ek apratirodh se bandha hua hai aur uske liye, yadi kahin kshama nahin to use prerna se awashy milegi
sara akash, sari sirishti, aag ke lal pratibimb, aur kale kale dhuen se bhari hui hai! tab wahi kahan se ek shital aatma le aawe, wahi kahan se adarsh purush ho jaye, wahi kahan us lal prtijyoti aur us kale dhuen se bachkar ja pahunche
aur wo akela hi use nahin dekh raha, yahin hawana shahr mein, usi suryast mein, anek wyaktiyon ko kya kuch deekh raha hai
yahan hawana ka wo ansh rahta hai, jise kabhi uska ansh gina nahin jata, kintu jis par uska astitw nirbhar karta hai jo hawana ki gharib ka niket hai, kintu jo hawana ki sampatti ko banata hai yahan we purush hain jo din bhar mazduri karke ek mas mein utna kama pate hain, jitna american mazdur ek ghante mein, jiske bhale ke nam par in logon ko pisa ja raha hai aur jo swayan kisi aur ke liye pisenge? yahan we aurten bhi hain, jo din bhar aur aadhi raat bhar silai ka kaam karti hain aur ek darjan qamizen sikar panch aane wetan pati hain, ya jo apne sharir ko bech kar uske mooly mein kuch aane paise aur koi marak rog pakar, kritaj~n bhi ho sakti hain yahan we laDke bhi hain, jo apne mata pita ka pet bharne mata pita ke pet ka khalipan kam karne ke liye wo bhi karne ko taiyar rahte hain, jiske wiruddh samast manawta chillati hai
we sab, suryast ko dekh nahin rahe hai, par suryast unki ankhon ke aage hai unhen kuch na kuch dikhta bhi hai, unke pas itna samay nahin ki rukkar use dekhen, us par wichar karen, par unki ashanti mein suryast ke prati ek bhaw jag raha hai
wahi kalushpurn lal lal, maila sa akash unke man mein aisa hai, jaise krodh ki pighli hui aag ubal ubal kar baith gai ho; upar satah par chhoD gai ho ek dhusar si, jali bujhi sulagti si ek kuDhan ki aag
unke hirdai mein bhi kuDhan ki aag si uth rahi hai we samajhte hain, unmen krodh ki jwala hai, par krodh karne ke liye shakti ki awashyakta hoti hai, aur we hain nirbal aur apni nirbalta ke parichit we kuDh hi sakte hain, jaise ki we ab tak karte rahe hain
aj we jo taiyari kar rahe hain, wo krodh nahin, wo bhi kuDhan ki aag hi hai tabhi to we aise chup chup se hain, yadyapi we widroh ki taiyari mein hain; usi ke liye nikal bhi paDe hain unke pratinidhiyon ka ek dal ja raha hai mahl aur fauji barkon ki or, aur dusra dal chala hai widroh ke drohiyon ki talash mein, par unki prerna krodh nahin, unki prerna hai kewal bhookh unhen fauj se sahayata ki aasha hai, par we police se Dar bhi rahe hain, kyonki we jante hain ki police ke jatthe bhi widrohiyon ki khoj mein hain aur kyonki unke hirdai mein Dar hai, isiliye we soch bhi sakte hain, taiyari bhi kar sakte hain, bhawishya ki or unmukh bhi ho sakte hain
sandhya bahut ghani ho gai
4
karmen meriya se poochh rahi thi, “baDi der kar dee?” ki sebestin ne pukar kar puchha, “a jaun?”
meriya ne kandhe par se chadar utar kar rakhi aur karmen se boli, “le, dekh!”
karmen wyagrata se hanDiya ko khol kar, uske bhitar momjame mein lipte hue abhushnon ko nikal kar dekhne lagi sebestin ne dabe wismay se puchha, “inhen kahan se lari hai?”
meriya ek chhoti si santusht hansi hansi phir karmen se boli, “karmen, tu inhen le jakar so, hum zara baten kar len ”
karmen chali gai to meriya ne dhime swar mein sebestin se puchha, “paryapt honge?”
“hone to chahiye tumhein mooly ka kuch anuman hai?”
“panch sau se to kahin ziyada ke hain ”
“han, par ajkal to bahut ghate par dene paDenge aur, aaj to bahut hi kam ”
“aj koi khas baat hai?”
“han, par wo thahar kar bataunga to, ye main le jaun?”
meriya ne kuch hichkichate hue kaha, “han ” sebestin ne samjha, shayad sandeh ke karan hichkicha rahi hai aisi awastha mein usne chup rahna hi uchit samjha meriya boli, “main le aun?” aur bhitar chali gai
wahan se laut kar aate, use kewal abhushan lane mein jitni der lagni chahiye thi, usse adhik lagi kyonki use ek bar phir karmen se puchhna tha ki abhushan dekhkar uski ray badal to nahin gai, use batana tha ki kaun kiska tha, use aur kuch nahin to migelwala moti uske hathon gale mein pahankar dikhana bhi tha, uske moti rakhne ka agrah sunkar use talna bhi tha aur phir sab abhushan de Dalne ke liye prasann swikriti par, use chumna bhi tha aur uske shararat bhare is kathan par ki ‘tumhare migel ke liye to hai ’ ek halka sa mitha chapat lagakar tab kahin bahar aana tha
sebestin ne chupchap gahne lekar wastron mein kahin rakh liye tab bola, “koshish karunga, aaj hi dhan ka parbandh ho jaye, ek do american bankar hain, jo raat mein bhi kaam karte hain—balki raat mein hi kaam karte hain ”
“han ”
thoDi der chuppi rahi phir meriya ekayek boli, “han, ye to batao, wo khas baat kya thee?”
“are, main to bhool hi chala tha itni zaruri baat! yahan faujwalon aur widyarthiyon ke sath milkar logon ne kal baDe sawere widroh kar dene ka nishchay kiya hai ”
“hain!” kal? ab pichhle nishchay ko das hi din to hue hain!”
“han, ab bhi aasha bahut hai fauj sari widrohi hai, maikaDo ke paksh mein police hi hogi agar kahin mar kat hui bhi to thoDi hi akasmat hi kahin ho jaye, nahin to jitni hogi, hawana shahr ke bahar hi hogi ”
“par ghuDaswar police bhi to sashastr hai, aur khufiya?”
“han, unse ashanka hai par we hain kitne?”
“jitne bhi hon ”
“dekha jayega!” kahkar sebestin ne wida mangi aur chala chalte chalte na jane kya sochkar ekayek ruk gaya aur bola,”meriya, in abhushnon mein se koi ek aadh rakhna ho to rakh lo ”
“nahin, jab panch sau Dalar pure hone ki aasha nahin to kyon? yadi adhik mil sake, tab chahe koi rakh lena— ”
“kaun sa ?”
meriya ne in parashn ka uttar widhi par Dalte hue kaha, “jo bhi ho! par, koi bhi kyon rakhna, jitna dhan mile, sab bhej dena kya pata, use adhik ki zarurat paD jaye—aise samay lobh nahin karna chahiye!”
“han, ye baat to hai ” kahkar sebestin jaldi se chala gaya meriya wahin khaDi khaDi bahar andhkar ki or dekhkar kuch sochne lagi, kuch dekhne lagi, tabhi karmen ki awaz aari, “sone nahin aogi?”
uske upar ek komal udasi chha gai
meriya kohni teke ek karwat leti hui thi, kintu sir uthaye, use hatheli par tekkar aur karmen usse chipat kar uski chhati mein munh chhipaye paDi thee!
samachar meriya sun chuki thi donon ne ye nishchay kar liya tha ki kal unhen kranti widroh mein mil jana hoga; yadyapi kaise, kya karna hoga, ye we nahin soch saki theen
aur, is nishchay par pahunch jane ke baad, jo wichar rahasy garbhit maun chha gaya tha, usi mein donon par wo udasi chha gai thi, na jane kyon
karmen dekh rahi thi kranti ki wijay ka swapn, aur us swapn ki bhawyata mein use ek kanpikanpi si aati thi, ek romanch sa hota tha, kintu meriya aur migel ki us wijay par chhai hui chhaya aur meriya ka is samay ka ghanishth samipatw use udasi ke us nashe mein se bahar nahin nikalne deta tha
mano meriya ke sharir mein se, kisi agyat marg se, uska pragaDh nairashy karmen mein prawisht ho raha tha kyonki meriya ke hirdai par nairashy ki chhaya thee; aisa nairashy, jo apni sima par pahunchakar nasht ho gaya hai, bhaw nahin raha, ek aadat si ho gai hai aur isliye swayan meriya ko bhi drishya nahin hota
karmen ne kisi gahri chhaya ke dabaw ka anubhaw karke dhire se kaha, “kuchh gao!”
meriya ne durasth bhaw se kaha, “aj to man nahin karta karmen! kal sun lena ”
“kal to ” kahkar karmen ekayek chup ho gai jis chhaya se wo bach rahi thi, wo tanik aur bhi gahri ho gai
bahut der baad, karmen ekayek chaunki meriya ki ankhon se ek ansu uske gal par gira tha ek akela, baDa sa, garm
uske chaunkte hi meriya ne zor se use apne se chipta liya aur bar bar ghuntane lagi
meriya ka bhaw karmen samajh nahin saki, kintu phir bhi, ye atirek achchha sa laga wo meriya ke manasik sansar mein prawisht nahin ho saki, kintu meriya ke sharir ke is dabaw ka pratidan dene lagi us shrota ki tarah, jo kisi kalakar gayak ka gan sunte hue, swayan gane ki kshamata na rakhkar bhi apne ko bhulkar gungunane aur tal dene lagta hai
tab na jane kitni aur der baad, meriya bhi bahut dhime swar mein gane lagi—ek angrezi kawita ka tukDa, jo usne apne samrddh jiwan mein kabhi sikha tha
‘mast ai lital weep, lawa,
phulish mee!
enD so fal eslip lawa,
lawD bai di ’
(thoDa sa roungi
bholi main!
aur tab soungi,
tere pyar mein )
aur unhen is wywahar mein leen dekhkar raat chupke chupke teewr gati se bhagne lagi, mano unhen dhokha dene ke liye mano, irshya se
aur meriya aur karmen bar bar chaunk si jatin aur thoDi der baten kar letin aur phir chup ho jatin, aur karmen do chaar jhapkiyan so bhi leti kabhi kabhi ekadh ansu gir jata to donon hi apne ansu bhare hridyon mein sochti, kiska tha? aur, phir apne ko chhipane ke liye baten kartin, ya alingan kartin aur isi cheshta mein wahi prakat ho jata jo we chhipa rahi theen tab we isi atishay samipatw ki wedna se ghabra kar aage dekhne lagtin—bhawishya ki or meriya kidhar aur karmen kidhar unke path wibhinn the aur pratikul, kintu na jane jaise apne ant mein we mil jate the—ek khari boond mein, ek dabaw mein, ek sans mein, ek tape hue maun mein, ya in sabhi ki anupasthiti ki shunyata mein!
pratiksha ki raton ko pratikshak ka bhaw hi lambi banata hai, kintu yadi unse wo bhi na ho, to we raten kaise katen—anthin hi na ho jayen!
5
raat mein aag phat paDi hai
jalti hui prithwi ko raundte hue, kal ke ghoDe dauDe ja rahe hain aur unke munh se pighli hui aag ka phen gir raha hai, unke phate phate nathunon mein se jwala ki lapten nikal rahi hain aur kal purush mirtyu ke dhuen mein ghira baitha hai, ghoDo ko Dheel deta ja raha hai, aur shabdhin kintu sadarp agyapna se kah raha hai, “baDho raundte chale jao!” aur prithwi ki lali aur kal purush ke prayan ki lali ke sath usha ke jalte hue akash ki lali mil rahi hai—
hawana mein widroh ho gaya hai
usmen buddhi nahin hai—ashanti ko kahan buddhi? usmen sangathan nahin hai—riktata ka kaisa sangthan? usmen niyantran nahin hai—bhukh ka kya niyantran? uski koi pragti bhi nahin—wisphot ki kidhar pragti?
widroh in sabse pare hai wo manawta ke swabhawik wikas ka path nahin, wo uske aswabhawik sanchay ke bachaw ka sadhan hai, uski baDh ka rechan wo jwar ki tarah baDh raha hai
uska ghat hai—
idhar jahan maikaDo ke mahl ke aage itni baDi bheeD ikatthi ho rahi hai, jahan mahl loot liya gaya hai, jahan mahl ka sab saman yathawat paDa hai, kewal khady padarth lute ja rahe hain, aur bikhar rahe hain;
idhar jahan bahut se nihatthe logon ne kisi samrddh raj karmachari ke ek ghar se ek mota sa suar nikla aur use kachcha hi kat kat kar, noch noch kar kha rahe hain; bhunne ke liye bhi nahin ruk sakte, tathapi aag pas hi jal rahi hai;
idhar jahan kai ek karmachari apne achchhe achchhe wastra phenkkar apne naukaron ke phate maile kuchle kapDe pahan rahe hain ki we bhi is gandi shunyata mein chhip saken
idhar jahan bisiyon nange laDke, mahlon ke pichhe jame hue kuDe karkat ke Dher mein se tukkaD been been kar kha rahe hain—wahi tukkaD, jinhen wahan ke kaue bhi na khate the;
idhar jahan purushon ki bheeD mein anek achchhi buri striyan aur weshyayen tak ulajh rahi hain, par kisi ko dhyan nahin ki we striyan bhi hain;
idhar jahan panch chaar widrohi sainikon ke sath juti hui widyarthiyon aur naw yuwkon ki bheeD kena ke phool aur khajur ki Daliyan toD toDkar, uchhaal uchhaal kar chilla rahi hai, aur maikaDo ke palayan ki khushi mein apna dhyey, karttawya aur yojnayen bhool gai hai; pagal ho gai hai
idhar jahan shor ho raha hai, par shor ki bhawna se nahin; nach ho raha hai, par nach ki bhawna se nahin; jhagDa ho raha hai, par jhagDe ki bhawna se nahin; hattya ho rahi hai, par hattya ki bhawna se nahin; badle liye ja rahe hain, par badle ki bhawna se nahin
idhar jahan kranti ho rahi hai, par bina use kranti samjhe hue, bina use kiye hue hi
udhar jahan maikaDo ke karmchariyon ki striyan wyast wastron mein kintu munh ko chitr wichitr pankhon ki aaD mein chhipaye, motoron ya gaDiyon mein baith baithkar bhag rahi hai; udhar jahan khufiya police ke sipahi ek chhote se laDke se uske widrohi pita ka pata poochh rahe hain aur uski pratyek inkari par kainchi se uski ek ek ungli katte jate hain;
udhar jahan unhin ka ek samuh logon ko pakaD pakaDkar samudr mein Dal raha hai, jahan shark machhliyan unhen chabati hai;
udhar jahan widrohiyon ke nakhunon ke niche tapt sue chubhaye ja rahe hain; aur tapi hui salakhon se unki gyanendriyan jalari ja rahi hain;
udhar jahan sebestin meriya ke gahnon ko bech aaya hai, apni istri ko santusht kar aaya hai aur swayan apne hirdai se atmaglani mita kar apne ko nirdosh mankar, dhire dhire ek gali mein tahalta hua soch raha hai yadi uski istri na hoti to wo meriya ko thagne ki bajaye usse wiwah hi kar leta, kyonki uski thagi nirdosh hokar bhi thagi hi hai
aur udhar jahan migel, jo raat bhar ek churaye hue ghoDe ko dauData hua saintiyago se hawana aaya hai, jiska ghoDa goli se mar chuka hai aur jiski tang bhi goli lagne se langDi ho gai hai aur khoon se bhari patti mein lipti hui hai migel meriya aur karmen ko ghar mein na pakar hawana ki suni suni galiyan par karta hua ja raha hai, dekhne ki kahan kya ho raha hai, ye sochta hua ki koi parichit ya wishwasi mil jaye to pata le ki meriya aur karmen kahan hain, ki bandhuon ke aur widroh ke samachar kya hain, aur nagar ko ekayek ye kya ho gaya hai migel, jiska chehra piDa se nahin, piDaon se wikrt hai; jiska adhnanga badan bhookh ka nahin, anek bubhukshaon ka sakar punj hai jo thakan se nahin, anek thakanon mein choor hai aur girta paDta bhi nahin, girta hi chala jata hai
aur meriya aur karmen, jo is bhayankar jwar ke ghat mein bhi nahin, pratighat mein bhi nahin, we kahan, kis apurw aur swachchhand samapan ki or ja rahi hain? is raudrras pardhan natk ki mukhy katha se alag hokar, kis antःkatha ki nayika banne, kis wichitr prahsan ki nati banne, widhi ki wam ruchi ki kaun si pukar ka uttar dene, kaun si kami puri karne?
‘is wyapak tuphan ke bahar bhi kahin kuch hai?’
kahan?
kya?
6
meriya aur karmen striyan hain, jati dosh se hi we pratighat paksh ki hain, par apni shiksha aur apni riktaon ke karan unmen widroh jaga hua hai, isliye we udhar nahin ja sakti tabhi to we kahin deekh nahin paDtin, na us luti hui bheeD mein, na us lutnewali bheeD mein; na us bhukhi bheeD mein, na us bhukha rakhnewali bheeD mein we us kranti mein nahin miltin, kyonki we uski sanchalika nahin hain, we kewal sandesh wahika hain
manaw banata hai, widhi toDti hai manaw apne sare mansube bandhta hai raat mein andhere mein chhipkar; widhi unhen chhinn bhinn karti hai din mein, parkash mein, khule, parihas bhare darp se meriya aur karmen ne, bahut ro dhokar raat mein nishchay kiya tha din mein we bhi kranti mein kho jayengi, karmen ne chhipe utsah se meriya ne chhipi nirasha se kintu donon ne hi driDh hokar par, din mein unhen kuch bhi nahin dikha, we nahin soch parin ki kya karen unhonne kranti ki gati ke bare mein jo kuch sikha tha, wo migel se sikha tha, par migel wahan tha nahin uske sathi unke aprichit the, aur jo parichit the bhi, we mil nahin sakte the tab, we kya kartin—kaise uske sangathan mein hath batatin? unke pas koi sadhan nahin tha—yadi tha, to unhen j~nat nahin tha we apni ek hi prerna pahchanti theen apna nishchay, aur usi ko lekar we kranti karne nikal paDi theen
ye koi nari baat nahin hai sagar mein nity hi hazaron aur lakhon wekti kuch karne nikalte hain, bina jane ki kya; aur kuch kar jate hain, bina jane ke kya ya kaise ya kyon! ye to samany jiwan mein hi hota hai, jahan adami ki samany buddhi kaam kar sakti hai, tab kranti mein kyon nahin sau guna aur sahasr guna adhik hoga jo kranti karte hain, unmen koi ina gina hota hai jo janta hai ki wo kya kar raha hai; yadi koi kuch jante hain to itna hi ki we kuch kar rahe hain, kuch karna chahte hain, kuch karenge aur itna bhi bahut hai; kyonki adhikansh to itna bhi nahin jante ki we kuch kar bhi rahe hain, itna bhi nahin ki kuch ho raha hai! ye to ek bheeD ke bhiDpan ke nashe mein khokar, neend mein chalne walo rogi ki tarah, ekayek chaunkkar jagte hain aur tab we jante hain ki kuch ho gaya hai; ab jo hai, wo pahle nahin tha, aur pahle nahin tha, aur pahle jo tha, wo ab nahin hai jo kuch ho chuka hota hai, wo ek prgooDh awashyakta ke karan hota hai praya paristhitiyon ki aniyantrniy pratichchhati hoti hai, jo sarwasadharan ke liye bhale hi kriyashil hoti hai; par ye sab dusri baat hai, balki ye to sahi siddh karti hai ki sarwasadharan ka uske karne mein koi hath nahin hota
han, to meriya aur karmen ek aisi antrik mang ko lekar, apne jiwan ki kisi chhipi hui nyunata ko, kisi aur bhi chhipi hui prerna ko agyapna se puri karne ke liye nikal paDi theen wo tha usha ke tatkal baad hi, aur ab to din kafi prakashaman ho chuka tha, dhoop mein kafi garmi aa gai thi
unhonne hawana ki galiyon mein aakar dekha kahin koi nahin tha we idhar udhar DhunDhati phiri, par sabhi log kisi agyat afwah ke uttar mein itne sawere hi kahin gum ho gaye the
kewal kahin gali mein do chaar laDkiyan aur buDhi aurten unhen milin, aur we unke sath ho leen aur we dhire dhire hawana ke bandargah ki or unmukh hokar chalin ki aur kahin nahin to wahan par log awashy milenge, kyonki uske sab or hawana ka abhijat warg aur unke sahayak rajakarmachari, afsar, sipahi, puliswale, wyapari is wirat prapanch ke stambh baste hain
we krantikarini nahin thin—unmen kya tha, jo krantikari kaha ja sakta hai? we ek nishchay, aur jiwan ke prati ek bhawy wismay ka bhaw lekar chal paDi theen! unmen wo kroor parchar bhaw nahin tha, jisse kruseDar laDa karte the, ya islam ke mujahid yadi parchar ki koi bhawna unmen thi to waisi hi, jaisi tibbat mein hokar cheen jate hue bauddh parcharak kumargupt ke hirdai mein
jidhar we ja rahi theen, udhar bahut shor ho raha tha aur usko sun sunkar we aur bhi teewr gati se chalti jati theen, un do ek buDhi istriyon mein bhi kisi prakar ka josh jag raha tha
age aage karmen uchhalti ja rahi thi jaise surya ke sat ghoDon ke aage usha beech beech mein, kabhi wo kilkari bharkar kahti thi, “kranti chiranjiwi ho!” aur mano kranti ki satyata ke aage is nari ke kshaudrata ki gyan se, ekayek chup ho jati thi—tab tak, jab tak ki atmawismriti use phir nara lagane ki or prerit nahin kar deti theen buDDhiyan chup thin—shayad isliye ki unhen kya, unke sat purkhaon ko bhi kranti ka pata nahin raha tha
aur meriya? wo is pariwartan ki or ashanti mein bhi apna waidhawy nahin bhuli thi wo karmen ke sath sath chalne ka prayatn kar rahi thi, kintu phir bhi bina jaldi ke, ek bhawy mantharta liye hue usmen karmen ka utsah, sukh, yauwan ki prtikshaman chunauti nahin thee! na un buDDhiyon ka udasin, wiwash swikritibhaw, usmen tha ek santusht algaw, mano wo kahin aur ho, kuch aur soch rahi ho, koi aur jiwan ji rahi ho, usne mano is jiwan ki sanpurnata pa li thi
kyon?
uske jiwan mein arambh se hi wanchna rahi thi, lagatar aaj tak; tab phir santosh kahan tha?
ye jiwan ka annyaye (ya ek kroor nyay!) hai ki unhin ki wanchna sabse adhik hoti hai, jo jiwan se sabse alp mangte hain meriya ne kabhi jiwan se kuch nahin manga, isiliye wo itni wanchita rahi hai ki use kuch bhi nahin mila
kintu shayad isiliye wo aaj wanchna mein itni santusht hai ki sochti hai wo saphal ho chuki hai, jiwan pa chuki hai aur ji chuki hai
usne apna kuchh—apna sab kuchh!—migel ko nahin to migel ke nam par de diya hai
wo widhwa hai migel uska koi nahin hai par uska jiwan sampurn ho gaya hai uske jane, migel uski sahayata se chhoot gaya hai, america chala gaya hai, aakar kyuba ko swidhan aur sushasit kar gaya hai iske alawa aur kuch ho hi nahin sakta—kya usne apna sab kuch isi uddeshy se nahin de diya?
widhwa meriya! teri phuti ankhen, phuti buddhi, phute bhagya! chalo donon dekho, sanpurnata se bhi aage kuch hai
gali se saDak, saDak se chaurahe par aakar we ekayek ruk gai hain
chaurahe ke aage hi hawana mahl ke samne ka khula maidan hai wahan bahut si bheeD ikatthi ho rahi hai, ikatthi ho chuki hai, aur phir bhi log sab or se dhanse chale aa rahe hain koi kuch kar nahin raha—kranti mein kaun kya karta hai?—par sab dhanse aa rahe hain, mano swadhinata yahin bikhri paDi hai aur we use batorkar le jayenge aur koi janta nahin ki we kisaliye wahan aa rahe hain, kewal aur logon ke upasthit hone ke karan we bhi yahan aa jutte hain
yahan kya hoga? kuch nahin hoga, manawta apni murkhata ka pradarshan apne hi ko karegi, aur phir jhenp kar swayan laut jayegi ya apne hi se piti hui sab log kahenge ki kranti saphal ho gai ya dusron se tab log janenge ki prati kranti ki jeet rahi aur donon awasthaon mein we us dhyey ko nahin payenge, jiske liye unmen ashanti uth rahi thi—kyonki abhi unmen se use prapt karne ki shakti nahin hai we swadhinata ke kisi ek nam se dasta ka koi ek naya roop le jayenge!
meriya stimit si hokar khaDi dekh rahi hai ye sab bhaw uske hirdai mein se hokar dauDe ja rahe hain uska wyatha se nirmal hua antar bahut door bhawishya ko bhed kar dekh raha hai, yadyapi wo wartaman nahin dekh pata uske man mein ek nirash parashn uth raha hai, jise wo kah nahin sakti; ek prakanD sanshay jiska wo karan nahin samajhti uska hirdai ekayek rone laga hai, yadyapi wo yahi janti hai ki uske is samay ahlad se bhar jana chahiye, is nawal parbhat mein, jab uska desh jagkar swatantr ho raha hai
ek thi kaisanDra, jiski diwy drishti abhishapt thi, jiske phalaswarup uski bhawishyawanai ka koi wishwas nahin karta tha ek hai meriya, jo itni abhishapt hai ki swayan hi apni drishti par wishwas nahin kar pati use kuch samajh hi nahin aata, wo pagal ki tarah dekh rahi hai
nahin to, wo to saphal ho chuki hai, sampurn ho chuki hai, use ab kya? wo to santusht hai, prasann hai
wo muDkar, karmen ki ankhon se khojti hai karmen usse kuch hi door khaDi kisi se baat kar rahi hai
kya kah rahi hai? us wekti ko sunakar karl marx ke kuch waky duhra rahi hai, jise un donon ne ikatthe paDha tha aur meriya ko anubhaw hota hai, karmen prayatn kar rahi hai ki un wakyon ko meriya ki tarah bole wo wekti upeksha se, tiraskar se, shayad krodh se ya bhay se ya kisi mishrit bhaw se, sun raha hai, kyonki wo maikaDo ki police ka adami hai, (hone do!) karmen ki dhwani sunkar meriya anand se aur ahlad se bhar jati hai, uska sara nirashawad aur asantosh nikal jata hai kya hua yadi wo kuch nahin hai, wo kuch nahin pa saki, wo roti rahi, anathini, abhagi, wanchita rahi hai? uske do hain, jo aise nahin, aur usi ke karan aise nahin karmen aur migel karmen, jise usne sukhi rakha aur jo uske pas khaDi hai, migel, jise usne chhuDaya hai aur jo is samay america ke path par hoga o swatantr, swadhin kyuba, tujhe mere ye do uphaar hain; aur mera jiwan ab saphal aur sampurn ho chuka hai
meriya ka gala ghutta hai, wo cheekh bhi nahin sakti, jhapatti hai—
us wekti ne jeb se rewolwer nikalkar karmen par goli chala di hai, karmen bina khinchi hui sans ko chhoDe bhi, Dher ho gai hai
7
wahan uske aas pas, ek chhota sa ghera khali ho gaya hai
wo uske madhya mein khaDi hai wo ek swapn mein aari thi, ek swapn mein jhuki thi, ab ek swapn mein khaDi hai ek mara hua swapn uski banh mein latak raha hai; mara hua, kintu rakt ranjit, abhi garm aur uski dusri banh uske sir par dhari hui hai, mano sir par kah rahi ho, “thahr, abhi yahin rah ”
kahin se usi wekti ki karkash hansi sun paDti hai, par sahmi hui bheeD mein koi nahin hai, jo is samay bhi use chup kara de! aur meriya ke sir par se tufan baha ja raha hai, niashabd bhairaw, nirih tufan par uska sir jhuka nahin, neend mein bheeD ke mukhon mein kuch paDh rahi hai, un mukhon mein lagi hui ankhon mein, jo uski banh se latakte hue abhi tak garm rakt ranjit swapn ko dekh rahi hai, kintu jo meriya ki phati ankhon se milti nahin
meriya toot gai hai, par abhi jati hai, aur samne dekh rahi hai samne jahan bheeD stabdh ho rahi hai
ye sab kshan bhar mein kshan bhar tak! tab bheeD mein kuch phailta hai jo bhay se hazar guna twargami jaan paDta hai, aur bheeD bhagti hai—idhar udhar, jidhar ho kahan ko na jane; kisse na jane; par yahan se kahin, anyatr, is swapnil istri roop ki chhaya se bahar kahin bhi, jahan sansar ka astitw ho
swapn tutta hai meriya us bhagdaD mein dekhti hai—ek bhukha, langDa, adhnanga sharir, ek pyasa, thaka hua, wyathit mukh jo uske dekhte dekhte kshan bhar mein hi atyant ahlad aur atyant piDa mein chamak uthta hai—aur kho jata hai
meriya ek hath se karmen ko uthaye hai—uska dusra hath aage baDhta hai, mano sahare ke liye! awnth kuch uthkar khulte hain, mano pukar ke liye—aur migel ke laDakhDakar gire hue sharir ko raundti hui bheeD chali jati hai, chali jati hai, chali jati hai
iska bhi ant hoga sabhi kuch ka ant hoga aur nari chizen hongi, jo isse wibhinn hongi achchhi hon, buri hon, aisi to nahin hogi wo desh ke amar shahidon mein se hogi ya apmanit parityakt weshya, sab ek hi baat hai—aise to nahin hogi, aise khaDi to nahin rahegi jaise ab khaDi hai ek hath se karmen ka shau latak raha hai, aur dusra mano sahare ke liye aage baDha hai; sharir aur munh ek darp se utha hai, jo tutta bhi nahin; ankhen ek bhawatirek ko lekar bhari hui hain; aur ye chitr mano shabdhin, jiwhin, atyant shwet patthar ka khincha hua us janhin maidan mein khaDa hai
ye kya kisi kuch ka sanket nahin hai—kuchh nashwar, kuch amar; kuch achchha, kuch bura; kuch sachcha, kuch mook, kuch wyanjak; kuch atishay wikral ”
ek hath par mare hue prem ka bojh liye, dusre hath se kisi chir wismriti mrit prem ko bheeD mein se bulati hui, ankhon se bhaw ko phaDti hui, ek sandeshwahini piDa
ghoDe guzar jate hain manushya guzar jate hain bheeD guzar jati hain pramad guzar jata hai par aasha wibhrat; bhookh bhookh riktata; wedna wedna parajay; bikhri hui prtigyayen, ye hai kranti ki gati prlay lahri kyuba mein jaise wo anyatr guzri hai; waise wo sarwatr guzregi—widroh
kintu koi janta nahin koi dekhta nahin koi sunta nahin koi samajhta nahin meriya ki anjhip ankhen—kaisanDra ka abhishap
(kaisanDra=epolo ke wardan se kaisanDra ko bhawitawydarshita prapt hui thi, kintu uski pranay bhiksha ko thukrane par epolo ne use shap diya ki uski bhawishyawanai par koi wishwas nahin karega trauy ke yudh ke samay, aur uske baad egamemnan ki istri bankar, bhawi ghor durghatnaon ko dekhkar wo chetawni deti rahi, kintu trauywalon ne use pagal samajhkar band kar rakha aur egamemnan ne bhi uski upeksha ki kaisanDra ka abhishap yahi hai ki wo bhawishya dekhegi aur kahegi, kintu koi uska wishwas nahin karega lekhak)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।