वर दंतकी पंगति कुंदकली
war dantki pangati kundakli
वर दंत की पंगति कुंदकली, अधराधर-पल्लव खोलन की।
चपला चमकै घन बीच, जगै छबि मोति माल अमोलन की॥
घुँघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर, कुंडल लोल कपोलन की।
निवछावरि प्रान करै तुलसी, बलि जाउँ लला इन बोलन की॥
कुंदन की कली के समान सुंदर दाँतों की पंक्ति पर (हँसते समय) नवीन लाल पत्तों के समान दोनों ओठों के खोलने की सुंदरता पर, बादलों में बिजली के समान चमकती हुई बहुमूल्य मोतियों की माला के सौंदर्य पर, मुख पर लटकती हुई घुँघराली लटों की शोभा पर, गालों पर हिलते हुए कुंडलों की मनोहरता पर तथा (तोतली) बोली के माधुर्य पर तुलसी बलि जाता है और अपने प्राण को निछावर करता है।
- पुस्तक : कवितावली (पृष्ठ 5)
- संपादक : देवीनारायण द्विवेदी
- रचनाकार : तुलसीदास
- प्रकाशन : एस.बी.सिंह, काशी-पुस्तक-भंंडार, बनारस
- संस्करण : 1999
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