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सब जाति फटी दु:ख की दुपटी

sab jati phati duhakh ki dupti

केशवदास

केशवदास

सब जाति फटी दु:ख की दुपटी

केशवदास

और अधिककेशवदास

    सब जाति फटी दु:ख की दुपटी कपटी रहै जहँ एक घटी।

    निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन को छूटी तटी।

    अघ ओघ की बेरी कटी विकटी निकटी प्रकटी गुरु ज्ञान गटी।

    चहुँ ओरन नाचति मुक्ति नटी गुन धूरजटी वन पंचवटी॥

    यह पंचवटी नामक वन शिव समान है, जैसे शिव के दर्शनों से दुःख नहीं रहता वैसे ही यहाँ दु:ख की चादर फट जाती है, और कपटी पुरुष यहाँ एक घड़ी भी नहीं रह सकता। यहाँ एक घड़ी मात्र रहने से कपटी पापी मनुष्य का भाव बदलकर धर्म की ओर झुकेगा। यहाँ के निवासी जीवों की तो प्रति घड़ी मुत्यु की इच्छा घटती है (यहाँ का शांतिमय सुख भोगने की इच्छा से, यहाँ के निवासी मरकर मुक्ति भी नहीं लेना चाहते, अर्थात् मुक्ति के आनंद से यहाँ का आनंद बढ़कर है)। यहाँ के तपस्वीगण की समाधि-अवस्था छूट जाती है (समाधि-अवस्था में जो ब्रह्मानंद प्राप्त होता है, उससे भी बढ़कर यहाँ का आनंद है) पाप की विकट बेड़ी यहाँ कट जाती है और तुरंत ही भारी ज्ञान की गठरी प्रकट हो जाती है (इसके निकट पाते ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है) और यहाँ तो मुक्ति चारों ओर नटी के समान नाच रही है, अतः यह पंचवटी वन शिव के गुणों से युक्त है (शिव के दर्शन समागम से जैसी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, वैसे ही इसके समागम से भी होती प्राप्त होती है)।

    स्रोत :
    • पुस्तक : केशव कौमुदी (पृष्ठ 167)
    • संपादक : लाला भगवानदीन
    • रचनाकार : केशवदास
    • प्रकाशन : राम नारायण लाल, इलाहाबाद
    • संस्करण : 1947

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