हूजे कनावड़ी बार हजार-लौं, जौ हितू दीनदयाल-सों पाइए।
तीनहुँ लोक के ठाकुर है, तिनके दरबार न जात लजाइए॥
मेरी कही जिय में धरिके पिय, भूलि न और प्रसंग चलाइए।
और के द्वार सा द्वार कहा पिय! द्वारिकानाथ के द्वार सिधाइए॥
सुदामा की पत्नी ने सुदामा से कहा- यदि दीनों पर दया करने वाले कृष्ण के समान मित्र मिल जाएँ तो उनका हज़ार बार अहसान मानने में कोई बुराई नहीं है। श्रीकृष्ण तीनों लोकों के स्वामी हैं। उनके दरबार में जाने में किसी तरह की लज्जा नहीं होनी चाहिए। हे नाथ! आप इधर-उधर की सब बातें छोड़कर मेरी बात मानें। साधारण मनुष्यों के द्वार पर जाने से क्या लाभ है? आप द्वारिकापति श्रीकृष्ण के यहाँ जाने के लिए प्रस्थान कीजिए।
- पुस्तक : सुदामा-चरित (पृष्ठ 43)
- संपादक : मोहनलाल 'रत्नाकार'
- रचनाकार : नरोत्तमदास
- प्रकाशन : ऋषभरचण जैन एवं सन्तति, नई दिल्ली-2
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