प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था। बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा। कल फिर दिखा। मगर इस बार उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और लंबा कुर्ता पहन रखा था।
मैंने पूछा, कहाँ रहे? और यह दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है?
उसने जवाब दिया, बाहर गया था।
दाढ़ीवाले सवाल का उसने जवाब यह दिया कि दाढ़ी पर हाथ फेरने लगा।
मैंने कहा, आज तुम टार्च नहीं बेच रहे हो?
उसने कहा, वह काम बंद कर दिया। अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है। ये 'सूरजछाप' टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं।
मैंने कहा, तुम शायद संन्यास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामख़ोरी पर उतर आता है। किससे दीक्षा ले आए?
मेरी बात से उसे पीड़ा हुई। उसने कहा, ऐसे कठोर वचन मत बोलिए। आत्मा सबकी एक है। मेरी आत्मा को चोट पहुँचाकर आप अपनी ही आत्मा को घायल कर रहे हैं।
मैंने कहा, यह सब तो ठीक है। मगर यह बताओ कि तुम एकाएक ऐसे कैसे हो गए? क्या बीवी ने तुम्हें त्याग दिया? क्या उधार मिलना बंद हो गया? क्या साहूकारों ने ज़्यादा तंग करना शुरू कर दिया? क्या चोरी के मामले में फँस गए हो? आख़िर बाहर का टार्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया?
उसने कहा, आपके सब अंदाज़ ग़लत हैं। ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक घटना हो गई है, जिसने जीवन बदल दिया। उसे मैं गुप्त रखना चाहता हूँ। पर क्योंकि मैं आज ही यहाँ से दूर जा रहा हूँ, इसलिए आपको सारा क़िस्सा सुना देता हूँ।
उसने बयान शुरू किया—
पाँच साल पहले की बात है। मैं अपने एक दोस्त के साथ हताश एक जगह बैठा था। हमारे सामने आसमान को छूता हुआ एक सवाल खड़ा था। वह सवाल था—'पैसा कैसे पैदा करें?' हम दोनों ने उस सवाल की एक-एक टाँग पकड़ी और उसे हटाने की कोशिश करने लगे। हमें पसीना आ गया, पर सवाल हिला भी नहीं। दोस्त ने कहा—यार, इस सवाल के पाँव ज़मीन में गहरे गड़े है। यह उखड़ेगा नहीं। इसे टाल जाएँ।
हमने दूसरी तरफ़ मुँह कर लिया। पर वह सवाल फिर हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। तब मैंने कहा—यार, यह सवाल टलेगा नहीं। चलो, इसे हल ही कर दें। पैसा पैदा करने के लिए कुछ काम-धंधा करें। हम इसी वक़्त अलग-अलग दिशाओं में अपनी-अपनी क़िस्मत आज़माने निकल पड़े। पाँच साल बाद ठीक इसी तारीख़ को इसी वक़्त हम यहाँ मिलें।
दोस्त ने कहा—यार, साथ ही क्यों न चलें?
मैंने कहा—नहीं। क़िस्मत आज़मानेवालों की जितनी पुरानी कथाएँ मैंने पढ़ी हैं, सबमें वे अलग-अलग दिशा में जाते हैं। साथ जाने में क़िस्मतों के टकराकर टूटने का डर रहता है।
तो साहब, हम अलग-अलग चल पड़े। मैने टार्च बेचने का धंधा शुरू कर दिया। चौराहे पर या मैदान में लोगों को इकठ्ठा कर लेता और बहुत नाटकीय ढंग से कहता—“आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है। रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता। आदमी को रास्ता नहीं दिखता। वह भटक जाता है। उसके पाँव काँटों से बिंध जाते है, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आसपास भयानक अँधेरा है। शेर और चीते चारों तरफ़ घूम रहे हैं, साँप ज़मीन पर रेंग रहे हैं। अँधेरा सबको निगल रहा है। अँधेरा घर में भी है। आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है। साँप उसे डँस लेता है और वह मर जाता है।
आपने तो देखा ही है साहब, कि लोग मेरी बातें सुनकर कैसे डर जाते थे। भर-दुपहर में वे अँधेरे के डर से काँपने लगते थे। आदमी को डराना कितना आसान है!
लोग डर जाते, तब मैं कहता—“भाइयों, यह सही है कि अँधेरा है, मगर प्रकाश भी है। वही प्रकाश में आपको देने आया हूँ। हमारी 'सूरज छाप' टार्च में वह प्रकाश है, जो अंधकार को दूर भगा देता है। इसी वक़्त 'सूरज छाप' टार्च ख़रीदो और अँधेरे को दूर करो। जिन भाइयों को चाहिए, हाथ ऊँचा करें।
साहब, मेरे टार्च बिक जाते और मैं मज़े में ज़िंदगी गुज़ारने लगा।
वायदे के मुताबिक़ ठीक पाँच साल बाद में उस जगह पहुँचा, जहाँ मुझे दोस्त से मिलना था। वहाँ दिन-भर मैंने उसकी राह देखी वह नहीं आया। क्या हुआ? क्या वह भूल गया? या अब वह इस असार संसार में ही नहीं है?
मैं उसे ढूँढ़ने निकल पड़ा।
एक शाम जब में एक शहर की सड़क पर चला जा रहा था, मैंने देखा कि पास के मैदान में ख़ूब रोशनी है और एक तरफ़ मंच सजा है। लाउडस्पीकर लगे हैं। मैदान में हज़ारों नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे हैं। मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे हैं। ये ख़ूब पुष्ट है, सँवारी हुई लंबी दाढ़ी है और पीठ पर लहराते लंबे केश है।
मैं भीड़ के एक कोने में जाकर बैठ गया।
भव्य पुरुष फ़िल्मों के संत लग रहे थे। उन्होंने गुरु-गंभीर वाणी में प्रवचन शुरू किया। वे इस तरह बोल रहे थे जैसे आकाश के किसी कोने से कोई रहस्यमय संदेश उनके कान में सुनाई पड़ रहा है जिसे वे भाषण दे रहे हैं।
वे कह रहे थे—मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ। उसके भीतर कुछ बुझ गया है। यह युग ही अंधकारमय है। यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है। आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है। यह पथभ्रष्ट हो गया है। आज आत्मा में भी अंधकार है। अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। वे उसे भेद नहीं पातीं। मानव-आत्मा अंधकार में घुटती है। मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है।
इसी तरह वे बोलते गए और लोग स्तब्ध सुनते गए।
मुझे हँसी छूट रही थी। एक-दो बार दबाते-दबाते भी हँसी फूट गई और पास के श्रोताओं ने मुझे डाँटा।
भव्य पुरुष प्रवचन के अंत पर पहुँचते हुए कहने लगे—“भाइयों और बहनों, डरो मत। जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है। अंधकार में प्रकाश की किरण है, जैसे प्रकाश में अंधकार को किंचित कालिमा है। प्रकाश भी है। प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो। अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ। मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आह्वान करता हूँ। मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ। हमारे 'साधना मंदिर' में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ।
साहब, अब तो मैं खिलखिलाकर हँस पड़ा। पास के लोगों ने मुझे धक्का देकर भगा दिया। मैं मंच के पास जाकर खड़ा हो गया।
भव्य पुरुष मंच से उतरकर कार पर चढ़ रहे थे। मैंने उन्हें ध्यान से पास से देखा। उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, इसलिए में थोड़ा झिझका। पर मेरी तो दाढ़ी नहीं थी। मैं तो उसी मौलिक रूप में था। उन्होंने मुझे पहचान लिया। बोले—“अरे तुम!” मैं पहचानकर बोलने ही वाला था कि उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर कार में बिठा लिया। मैं फिर कुछ बोलने लगा तो उन्होंने कहा—“बँगले तक कोई बातचीत नहीं होगी। वहीं ज्ञान-चर्चा होगी।
मुझे याद आ गया कि वहाँ ड्राइवर है।
बँगले पर पहुँचकर मैंने उसका ठाठ देखा। उस वैभव को देखकर मैं थोड़ा झिझका, पर तुरंत ही मैंने अपने उस दोस्त से खुलकर बातें शुरू कर दीं।
मैंने कहा—“यार, तू तो बिलकुल बदल गया।
उसने गंभीरता से कहा—परिवर्तन जीवन का अनंत क्रम है।”
मैंने कहा—“साले, फ़िलासफ़ी मत बघार यह बता कि तूने इतनी दौलत कैसे कमा ली पाँच सालों में?
उसने पूछा—तुम इन सालों में क्या करते रहे?
मैंने कहा—मैं तो घूम-घूमकर टार्च बेचता रहा। सच बता, क्या तू भी टार्च का व्यपारी है?”
उसने कहा—तुझे क्या ऐसा ही लगता है? क्यों लगता है? मैंने उसे बताया कि जो बातें मैं कहता हूँ; वही तू कह रहा था मैं सीधे ढंग से कहता हूँ, तू उन्हीं बातों को रहस्यमय ढंग से कहता है। अँधेरे का डर दिखाकर लोगों को टार्च बेचता हूँ। तू भी अभी लोगों को अँधेरे का डर दिखा रहा था, तू भी ज़रूर टार्च बेचता है।
उसने कहा—तुम मुझे नहीं जानते, मैं टार्च क्यों बेचूँगा। मैं साधु, दार्शनिक और संत कहलाता हूँ।
मैंने कहा—तुम कुछ भी कहलाओं, बेचते तुम टार्च हो। तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं। चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने या साधु बने, अगर वह लोगों को अँधेरे का डर दिखाता है, तो ज़रूर अपनी कंपनी का टार्च बेचना चाहता है। तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अंधकार छाया रहता है। बताओ, तुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हज़ारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला है? कभी नहीं कहा। क्यों? इसलिए कि उन्हें अपनी कंपनी का टार्च बेचना है। मैं ख़ुद भर-दुपहर में लोगों से कहता हूँ कि अंधकार छाया है। बता किस कंपनी का टार्च बेचता है?
मेरी बातों ने उसे ठिकाने पर ला दिया था। उसने सहज ढंग से कहा—तेरी बात ठीक ही है। मेरी कंपनी नई नहीं है, सनातन है।
मैंने पूछा—“कहाँ है तेरी दुकान? नमूने के लिए एकाध टार्च तो दिखा। 'सूरज छाप' टार्च से बहुत ज़्यादा बिक्री है उसकी।
उसने कहा—“उस टार्च की कोई दुकान बाज़ार में नहीं है। वह बहुत सूक्ष्म है। मगर क़ीमत उसकी बहुत मिल जाती है। तू एक-दो दिन रह, तो मैं तुझे सब समझा देता हूँ।
तो साहब मैं दो दिन उसके पास रहा। तीसरे दिन 'सूरज छाप' टोर्च की पेटी को नदी में फेंककर नया काम शुरू कर दिया।
वह अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरने लगा। बोला—बस एक महीने की देर और है।
मैंने पूछा तो अब कौन-सा धंधा करोगे?
उसने कहा—धंधा वही करूँगा, यानी टार्च बेचूँगा। बस कंपनी बदल रहा है।
wo pahle chaurahon par bijli ke taarch becha karta tha. beech mein kuch din wo nahin dikha. kal phir dikha. magar is baar usne daDhi baDha li thi aur lamba kurta pahan rakha tha.
daDhivale saval ka usne javab ye diya ki daDhi par haath pherne laga.
mainne kaha, aaj tum taarch nahin bech rahe ho?
usne kaha, vah kaam band kar diya. ab to aatma ke bhitar taarch jal utha hai. ye surajchhap taarch ab vyarth malum hote hain.
mainne kaha, tum shayad sannyas le rahe ho. jiski aatma mein parkash phail jata hai, wo isi tarah haramkhori par utar aata hai. kisse diksha le aye?
meri baat se use piDa hui. usne kaha, aise kathor vachan mat boliye. aatma sabki ek hai. meri aatma ko chot pahunchakar aap apni hi aatma ko ghayal kar rahe hain.
mainne kaha, yah sab to theek hai. magar ye batao ki tum ekayek aise kaise ho ge? kya bivi ne tumhein tyaag diya? kya udhaar milna band ho gaya? kya sahukaron ne zyada tang karna shuru kar diya? kya chori ke mamle mein phans ge ho? akhir bahar ka taarch bhitar aatma mein kaise ghus gaya?
usne kaha, apke sab andaz ghalat hain. aisa kuch nahin hua. ek ghatna ho gai hai, jisne jivan badal diya. use main gupt rakhna chahta hoon. par kyonki main aaj hi yahan se door ja raha hoon, isliye aapko sara qissa suna deta hoon.
usne byaan shuru kiya—
paanch saal pahle ki baat hai. main apne ek dost ke saath hatash ek jagah baitha tha. hamare samne asman ko chhuta hua ek saval khaDa tha. wo saval tha—paisa kaise paida karen? hum donon ne us saval ki ek ek taang pakDi aur use hatane ki koshish karne lage. hamein pasina aa gaya, par saval hila bhi nahin. dost ne kaha—yar, is saval ke paanv zamin mein gahre gaDe hai. ye ukhDega nahin. ise taal jayen.
hamne dusri taraf munh kar liya. par wo saval phir hamare samne aakar khaDa ho gaya. tab mainne kaha—yar, ye saval talega nahin. chalo, ise hal hi kar den. paisa paida karne ke liye kuch kaam dhandha karen. hum isi vaqt alag alag dishaon mein apni apni qismat azmane nikal paDe. paanch saal baad theek isi tarikh ko isi vaqt hum yahan milen.
dost ne kaha—yar, saath hi kyon na chalen?
mainne kaha—nahin. qismat azmanevalon ki jitni purani kathayen mainne paDhi hain, sabmen ve alag alag disha mein jate hain. saath jane mein qismton ke takrakar tutne ka Dar rahta hai.
to sahab, hum alag alag chal paDe. maine taarch bechne ka dhandha shuru kar diya. chaurahe par ya maidan mein logon ko ikaththa kar leta aur bahut natkiy Dhang se kahta—“ajkal sab jagah andhera chhaya rahta hai. raten behad kali hoti hain. apna hi haath nahin sujhta. adami ko rasta nahin dikhta. wo bhatak jata hai. uske paanv kanton se bindh jate hai, wo girta hai aur uske ghutne lahuluhan ho jate hain. uske asapas bhayanak andhera hai. sher aur chite charon taraf ghoom rahe hain, saanp zamin par reng rahe hain. andhera sabko nigal raha hai. andhera ghar mein bhi hai. adami raat ko peshab karne uthta hai aur saanp par uska paanv paD jata hai. saanp use Dans leta hai aur wo mar jata hai.
aapne to dekha hi hai sahab, ki log meri baten sunkar kaise Dar jate the. bhar duphar mein ve andhere ke Dar se kanpne lagte the. adami ko Darana kitna asan hai!
log Dar jate, tab main kahta—“bhaiyon, ye sahi hai ki andhera hai, magar parkash bhi hai. vahi parkash mein aapko dene aaya hoon. hamari suraj chhaap taarch mein wo parkash hai, jo andhkar ko door bhaga deta hai. isi vaqt suraj chhaap taarch kharido aur andhere ko door karo. jin bhaiyon ko chahiye, haath uncha karen.
sahab, mere taarch bik jate aur main maze mein zindagi guzarne laga.
vayde ke mutabiq theek paanch saal baad mein us jagah pahuncha, jahan mujhe dost se milna tha. vahan din bhar mainne uski raah dekhi wo nahin aaya. kya hua? kya wo bhool gaya? ya ab wo is asar sansar mein hi nahin hai?
main use DhunDhane nikal paDa.
ek shaam jab mein ek shahr ki saDak par chala ja raha tha, mainne dekha ki paas ke maidan mein khoob roshni hai aur ek taraf manch saja hai. lauDaspikar lage hain. maidan mein hazaron nar nari shraddha se jhuke baithe hain. manch par sundar reshmi vastron se saje ek bhavya purush baithe hain. ye khoob pusht hai, sanvari hui lambi daDhi hai aur peeth par lahrate lambe kesh hai.
main bheeD ke ek kone mein jakar baith gaya.
bhavya purush filmon ke sant lag rahe the. unhonne guru gambhir vani mein pravchan shuru kiya. ve is tarah bol rahe the jaise akash ke kisi kone se koi rahasyamay sandesh unke kaan mein sunai paD raha hai jise ve bhashan de rahe hain.
ve kah rahe the—main aaj manushya ko ek ghane andhkar mein dekh raha hoon. uske bhitar kuch bujh gaya hai. ye yug hi andhkarmay hai. ye sarvagrahi andhkar sampurn vishv ko apne udar mein chhipaye hai. aaj manushya is andhkar se ghabra utha hai. ye pathabhrasht ho gaya hai. aaj aatma mein bhi andhkar hai. antar ki ankhen jyotihin ho gai hain. ve use bhed nahin patin. manav aatma andhkar mein ghutti hai. main dekh raha hoon, manushya ki aatma bhay aur piDa se trast hai.
isi tarah ve bolte ge aur log stabdh sunte ge.
mujhe hansi chhoot rahi thi. ek do baar dabate dabate bhi hansi phoot gai aur paas ke shrotaon ne mujhe Danta.
bhavya purush pravchan ke ant par pahunchte hue kahne lage—“bhaiyon aur bahnon, Daro mat. jahan andhkar hai, vahin parkash hai. andhkar mein parkash ki kiran hai, jaise parkash mein andhkar ko kinchit kalima hai. parkash bhi hai. parkash bahar nahin hai, use antar mein khojo. antar mein bujhi us jyoti ko jagao. main tum sabka us jyoti ko jagane ke liye ahvan karta hoon. main tumhare bhitar vahi shashvat jyoti ko jagana chahta hoon. hamare sadhana mandir mein aakar us jyoti ko apne bhitar jagao.
sahab, ab to main khilakhilakar hans paDa. paas ke logon ne mujhe dhakka dekar bhaga diya. main manch ke paas jakar khaDa ho gaya.
bhavya purush manch se utarkar kaar par chaDh rahe the. mainne unhen dhyaan se paas se dekha. unki daDhi baDhi hui thi, isliye mein thoDa jhijhka. par meri to daDhi nahin thi. main to usi maulik roop mein tha. unhonne mujhe pahchan liya. bole—“are tum!” main pahchankar bolne hi vala tha ki unhonne mujhe haath pakaDkar kaar mein bitha liya. main phir kuch bolne laga to unhonne kaha—“bangale tak koi batachit nahin hogi. vahin gyaan charcha hogi.
mujhe yaad aa gaya ki vahan Draivar hai.
bangale par pahunchakar mainne uska thaath dekha. us vaibhav ko dekhkar main thoDa jhijhka, par turant hi mainne apne us dost se khulkar baten shuru kar deen.
mainne kaha—“yar, tu to bilkul badal gaya.
usne gambhirta se kaha—parivartan jivan ka anant kram hai. ”
mainne kaha—“sale, filasfi mat baghar ye bata ki tune itni daulat kaise kama li paanch salon men?
usne puchha—tum in salon mein kya karte rahe?
mainne kaha—main to ghoom ghumkar taarch bechta raha. sach bata, kya tu bhi taarch ka vypari hai?”
usne kaha—tujhe kya aisa hi lagta hai? kyon lagta hai? mainne use bataya ki jo baten main kahta hoon; vahi tu kah raha tha main sidhe Dhang se kahta hoon, tu unhin baton ko rahasyamay Dhang se kahta hai. andhere ka Dar dikhakar logon ko taarch bechta hoon. tu bhi abhi logon ko andhere ka Dar dikha raha tha, tu bhi zarur taarch bechta hai.
usne kaha—tum mujhe nahin jante, main taarch kyon bechunga. main sadhu, darshanik aur sant kahlata hoon.
mainne kaha—tum kuch bhi kahlaon, bechte tum taarch ho. tumhare aur mere pravchan ek jaise hain. chahe koi darshanik bane, sant bane ya sadhu bane, agar wo logon ko andhere ka Dar dikhata hai, to zarur apni kampni ka taarch bechna chahta hai. tum jaise logon ke liye hamesha hi andhkar chhaya rahta hai. batao, tumhare jaise kisi adami ne hazaron mein kabhi bhi ye kaha hai ki aaj duniya mein parkash phaila hai? kabhi nahin kaha. kyon? isliye ki unhen apni kampni ka taarch bechna hai. main khud bhar duphar mein logon se kahta hoon ki andhkar chhaya hai. bata kis kampni ka taarch bechta hai?
meri baton ne use thikane par la diya tha. usne sahj Dhang se kaha—teri baat theek hi hai. meri kampni nai nahin hai, sanatan hai.
mainne puchha—“kahan hai teri dukan? namune ke liye ekaadh taarch to dikha. suraj chhaap taarch se bahut zyada bikri hai uski.
usne kaha—“us taarch ki koi dukan bazar mein nahin hai. wo bahut sookshm hai. magar qimat uski bahut mil jati hai. tu ek do din rah, to main tujhe sab samjha deta hoon.
to sahab main do din uske paas raha. tisre din suraj chhaap torch ki peti ko nadi mein phenkkar naya kaam shuru kar diya.
wo apni daDhi par haath pherne laga. bola—bas ek mahine ki der aur hai.
mainne puchha to ab kaun sa dhandha karoge?
usne kaha—dhandha vahi karunga, yani taarch bechunga. bas kampni badal raha hai.
wo pahle chaurahon par bijli ke taarch becha karta tha. beech mein kuch din wo nahin dikha. kal phir dikha. magar is baar usne daDhi baDha li thi aur lamba kurta pahan rakha tha.
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bhavya purush manch se utarkar kaar par chaDh rahe the. mainne unhen dhyaan se paas se dekha. unki daDhi baDhi hui thi, isliye mein thoDa jhijhka. par meri to daDhi nahin thi. main to usi maulik roop mein tha. unhonne mujhe pahchan liya. bole—“are tum!” main pahchankar bolne hi vala tha ki unhonne mujhe haath pakaDkar kaar mein bitha liya. main phir kuch bolne laga to unhonne kaha—“bangale tak koi batachit nahin hogi. vahin gyaan charcha hogi.
mujhe yaad aa gaya ki vahan Draivar hai.
bangale par pahunchakar mainne uska thaath dekha. us vaibhav ko dekhkar main thoDa jhijhka, par turant hi mainne apne us dost se khulkar baten shuru kar deen.
mainne kaha—“yar, tu to bilkul badal gaya.
usne gambhirta se kaha—parivartan jivan ka anant kram hai. ”
mainne kaha—“sale, filasfi mat baghar ye bata ki tune itni daulat kaise kama li paanch salon men?
usne puchha—tum in salon mein kya karte rahe?
mainne kaha—main to ghoom ghumkar taarch bechta raha. sach bata, kya tu bhi taarch ka vypari hai?”
usne kaha—tujhe kya aisa hi lagta hai? kyon lagta hai? mainne use bataya ki jo baten main kahta hoon; vahi tu kah raha tha main sidhe Dhang se kahta hoon, tu unhin baton ko rahasyamay Dhang se kahta hai. andhere ka Dar dikhakar logon ko taarch bechta hoon. tu bhi abhi logon ko andhere ka Dar dikha raha tha, tu bhi zarur taarch bechta hai.
usne kaha—tum mujhe nahin jante, main taarch kyon bechunga. main sadhu, darshanik aur sant kahlata hoon.
mainne kaha—tum kuch bhi kahlaon, bechte tum taarch ho. tumhare aur mere pravchan ek jaise hain. chahe koi darshanik bane, sant bane ya sadhu bane, agar wo logon ko andhere ka Dar dikhata hai, to zarur apni kampni ka taarch bechna chahta hai. tum jaise logon ke liye hamesha hi andhkar chhaya rahta hai. batao, tumhare jaise kisi adami ne hazaron mein kabhi bhi ye kaha hai ki aaj duniya mein parkash phaila hai? kabhi nahin kaha. kyon? isliye ki unhen apni kampni ka taarch bechna hai. main khud bhar duphar mein logon se kahta hoon ki andhkar chhaya hai. bata kis kampni ka taarch bechta hai?
meri baton ne use thikane par la diya tha. usne sahj Dhang se kaha—teri baat theek hi hai. meri kampni nai nahin hai, sanatan hai.
mainne puchha—“kahan hai teri dukan? namune ke liye ekaadh taarch to dikha. suraj chhaap taarch se bahut zyada bikri hai uski.
usne kaha—“us taarch ki koi dukan bazar mein nahin hai. wo bahut sookshm hai. magar qimat uski bahut mil jati hai. tu ek do din rah, to main tujhe sab samjha deta hoon.
to sahab main do din uske paas raha. tisre din suraj chhaap torch ki peti ko nadi mein phenkkar naya kaam shuru kar diya.
wo apni daDhi par haath pherne laga. bola—bas ek mahine ki der aur hai.
mainne puchha to ab kaun sa dhandha karoge?
usne kaha—dhandha vahi karunga, yani taarch bechunga. bas kampni badal raha hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।