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ये चरित्रहीन

ye charitrahin

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

और अधिककन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

    रम्मो थी अपने नगर की रूपरमणी वारांगना और कुँवर बलदेवसिंह उसी नगर के रईस। दोनों में गहरे संबंध थे। यों रम्मो का घर सबका घर था, पर काली आँखों कोई उसके कोठे क़दम रखे, तो झाड़ू ही वहाँ मोरछल थी।

    कुँवर साहब महीने की पहली तारीख़ को कुछ हरे पत्ते उसके हाथों रख देते और बीच में कभी साड़ियाँ, तो कभी अँगूठी का दौर चलता ही रहता। सच यह कि उसे लेना आता था, इन्हें देना। वह मुस्कुरा कर लेती, ये हँसकर देते—उसे रूठना आता, तो इन्हें मनुहारें। रम्मो उनके लिए मेनका थी, तो वे उसके लिए कल्पतरु। एक में एक दोनों जिए जा रहे थे।

    रात में आठ-नौ बजे कुँवर साहब की चमचमाती मोटर रम्मो के द्वार लगती, द्वार खुलता, रम्मो महकती सामने मिलती और दोनों चहकते भीतर चले जाते। द्वार बंद हो जाता और कभी एक बजे तो कभी दो बजे वह खुलता। राजू भड़भड़ाकर उठता, मोटर की खिड़की खोल खड़ा होता, रम्मो कुँवर साहब को सीट पर बैठाती, लाड़ देती, लाड़ लेती, कुँवर साहब घर आ-सोते।

    चुटकी मारते बरसों निकल गए। एक दिन हस्बमामूल कुँवर साहब पहुँचे, तो रम्मो ने उन्हें पलंग पर नहीं कुर्सी पर बैठाया और सकुचाई-सी बोली—माफ़ कीजिएगा, मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें कहनी हैं।

    हाँ, हाँ, ज़रूर।

    कुँवर साहब के कान प्रतीक्षा करते रहे और रम्मो धरती पर आँखें गड़ाए ख़ामोश रही। कुँवर साहब ने देखा और बढ़ावा-सा देते हुए बोले—तुम्हारे-मेरे बीच तो झिझकका खटोला कभी नहीं बिछा; कहो क्या बात है?

    अगर आप इजाज़त दें और दुखी होने का वादा करें, तो मैं शादी करके इज़्ज़त आबरू की ज़िंदगी गुज़ारना चाहती हूँ!

    कुँवर साहब कुछ देर अपने में खोए रहे और तब बोले—किसी से तुम्हारी बातचीत हो गई है और तुम्हें उसका भरोसा है?

    जी हाँ, पूरा-पूरा!

    तो हमारी तुम्हारी दोस्ती ख़त्म रम्मो? कुँवर साहब ने बहुत गहरे दर्द को दबाकर कहा!

    जी, वे तो कहते हैं यह जारी रहनी चाहिए।”

    वे क्या कहते हैं कि यह जारी रहनी चाहिए?

    जी हाँ, वे कहते ही नहीं, बज़िद है कि यह घर आपके लिए हमेशा ज्यों का त्यों खुला रहे, क्योंकि उन्होंने तुम्हें बनाया-बचाया है और तुम पर उनका हक नंबर एक है। मैं नहीं चाहता कि उनकी ज़रा भी दिल शिकनी हो।

    कुँवर साहब गुम पर उनकी एक शर्त है! धीमे से रम्मो ने कहा, तो बहुत ही धीमे से बोले—क्या?

    यही कि अब कुँवर साहब को एक भी पैसे की तकलीफ़ देना हराम समझा जाए, यह ज़िम्मेदारी मेरी रहे।

    कुँवर साहब और भी गुम—

    पर मुझे यह मंज़ूर नहीं है। रम्मो का कंठ फूटा।

    तुम्हें क्या मंज़ूर नहीं है? चौंककर कुँवर साहब ने पूछा।

    यही उनकी पहली बात। रम्मो ने ज़रा कड़े होकर कहा और तब वह पिंघली—कुँवर साहब, आपने ही तो सिखाया है कि दो नावों की सवारी जहालत है!

    कुँवर साहब बहुत देर तक सोचते रहे, तब बोले—तुमने उस आदमी को खूब तोल लिया है?

    जी हाँ, वह भौंरा नहीं, छत का खंभा है।

    कुँवर साहब ने बहुत ग़ौर से रम्मो की तरफ़ देखा, देखते रहे, देखते ही रहे, तब पूछा—तुमने यह सब कैसे जाँचा भला?

    मैं क्या आँचती कुँवर साहब, वे ख़ुद जँच गए। पिछले दस महीनों में हम घंटों-घंटों साथ रहे। मैं बहुत बार फिसली, मुलायम पड़ी, पर वे कभी पल भर को भी अपनी जगह से हिले और अभी 3-4 दिन पहले उन्होंने कहा—रम्मो! मैं एक बार भी तुम्हें बिजली के बाज़ारू खंभे की तरह छू लूँ, तो फिर घर का दिया कैसे बनाऊँगा?

    बस ठीक है, मेरी दुआ है, रम्मो, तुम सुखी रहो। कुँवर साहब ने रम्मो का सिर थपथपाया और खड़े हो गए।

    क्यों, कहाँ चले, अभी तो 9 ही बजे हैं? रम्मो ने चौंककर पूछा, तो चोले—साढ़े नौ? नहीं रम्मो, आज तो सब बज गए! और उन्होंने अपनी घड़ी की चाबी इतने ज़ोर से ऐंठी कि उसका फनर टूट गया।

    वे चल पड़े। रम्मो उनके साथ चली, पर द्वार पर वे रुके और बोले—बस, अब इसके बाहर नहीं। और स्वयं बाहर निकलते-निकलते बोले—कल उसे मेरे पास भेजना, बिना तकल्लुफ कोठी पर चला आए!

    दूसरे दिन एक युवक उनके पास आया। नाम शमशाद, देखने में सुंदर, व्यवहार में नम्र। देखते ही बोले जोड़ी तो ठीक है।

    तब पूछा—तुमने कैसे बाना शमशाद कि रम्मो के साथ तुम सुखी रह सकोगे? रुकते-रुकते बोले—उसकी आज की ज़िंदगी तो तुम्हारे सामने ही थी!

    बहुत नर्मी से शमशाद ने कहा—पिछले दस महीनों में जब-जब रम्मो से मैंने अपनी बात कही, उसने एक ही जबाव दिया—मेरा दिल चाहता है कि मैं तुम्हारे साथ घर की ज़िंदगी गुज़ारूँ, पर कुँवर साहब से मेरे वादे हैं। मैं उनकी इजाज़त मिले बिना कुछ नहीं कर सकती! बस कुँवर साहब मैंने मान लिया कि जिसके लिए अपनी इस जिदगी के वादों की वफा इतनी वजनदार है, वह उस जिदगी में कभी बेवफा नहीं हो सकती।

    उसी दिन रात में 8 बजे कुँवर साहब की मोटर फिर रम्मो के द्वार लगी। रम्मो रपटी-झपटी आई, पर गाड़ी में कुँवर साहब थे, सिर्फ़ उनका ड्राईवर था। कपड़े में लिपटा हुआ एक डब्बा रम्मो को देकर उसने कहा—यह भेजा है आपके लिए!

    रोशनी में ले जाकर रम्मो ने देखा एक बहुत ही ख़ूबसूरत डब्बे में सोने के ज़ेवर सजे थे—एक से एक सुंदर और एक से एक क़ीमती!

    रम्मो रो पड़ी और जाने कब तक रोती रही। धर्म की साक्षी है, अब यह दूधधोई कुमारि का थी!

    [दो]

    राय बहादुर लाला नारायणप्रसाद सामंती युग में ज़िले की एक शक्ति थे; और तो और अँग्रेज़ कलेक्टर के सामने भी वे दबते थे—खरी कह देते थे।

    उन दिनों के ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट आम तौर पर पुलिस के एजेंट होते थे। पुलिस का चालान और आनरेरी मजिस्ट्रेट की अदालत; बस वकील लाख सिर पटके और नज़ीरो के नब्बे बस्ते खोल फेंके, जो आया जेल गया। छूटना जम की जाड़ से निकल भागना था।

    लाला नारायणप्रसाद भी ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट थे, पर उनकी मैजिस्ट्रेटी नाम में ही नहीं, सचमुच स्पेशल थी। जिसे छोड़ना चाहते, छोड़ देते और तोड़ना चाहते, तोड़ देते। वे हमेशा अपनी क़लम से अपने फ़ैसले लिखते और उनकी क़लम का रुख सदा उनके ही इशारों पर चलता-बदलता।

    उनकी अदालत में पुलिस का एक चालान आया। पुलिस एक ख़तरनाक आदमी को जेल भेजना चाहती थी, पर उसके ख़िलाफ़ शक तो थे, सबूत नहीं। पुलिस ने एक चोरी के मामले में उसे भी लपेट दिया। क़िस्मत का करिश्मा कि मुक़दमा पड़ा लाला नारायण प्रसाद की अदालत में। पुलिस ने लाख हाथ मारे और पैर पीटे, पर अदालत उससे टस से मस हुई और मुलज़िम छूट गया।

    इस घटना के कोई चार साल बाद लाला नारायण प्रसाद‌ की ज़मींदारी के एक खेत पर रात में कोई 9 बजे यही आदमी बैठा था और गाँव के आद‌मी इससे कुछ काम लेने और बदले में इसे एक हज़ार रुपए देने की बात कर रहे थे। काम था लाला नारायण प्रसाद के मुंशी को आज ही रात कत्ल कर देना।

    बात पक्की हो गई, तो यों ही उसने पूछा—कौन-से जमींदार का मुंशी है यह?

    शहर का बनिया है ज़मींदार! उत्तर मिला, तो फिर यह प्रश्न—क्या नाम? और ज्योंही उसने सुना लाला नारायण प्रसाद कि वह कूदकर खड़ा हो गया।

    चमचमाता छुरा अब उसके हाथ में और यह उसका ऐलान—बनिये के मुंशी को नहीं, अब तुम्हारे चार आद‌मियों को कत्ल करूँगा। ज़ालिम वह नहीं, तुम हो।

    बुलाने वाले परेशान कि किस मुसीबत में फँस गए और यह हुआ क्या? उन्होंने कुछ और रुपयों का लोभ दिया, तो वह गरजा हज़ारों नहीं, लाखों भी दोगे, तो उसे नहीं मारूँगा और तुम्हें नहीं छोड़ूँगा।

    माँगी थी नीचे को, मिल गई ऊपर को चले थे सुलटने और गए उलट। जवानों ने हाथ जोड़े, बूढ़ों ने पगड़ियों पैरों धरी, ख़ुशामदों के अंबार लगाए, तब कहीं मामला इस पर आया लाला नारायण प्रसाद इंसाफ़ का पुतला है। उसने एक डाकू के साथ भी इंसाफ़ किया, तो वह तुम्हारे; यानी अपने पड़ोसियों के साथ कैसे बेइंसाफ़ी कर सकता है? आज से क़सम खानो कंबख्तो कि उसे अपना बुजुर्ग मानोगे।

    सबने तोबा की, क़समें खाई और तब ये सब लाला के डेरे पर पहुँचे। मुंशी को जगाया, क़िस्सा सुनाया, सबने क़समें दोहराई और अपनी-अपनी राह लगे।

    [तीन]

    एक लेखक बंधु का अपना संस्मरण इस प्रकार है—

    कई दिन भोजन के स्थान में जलपान करने के बाद 20 जेब में आए और मैं घर से निकला। रुपए बस ये ही 20 थे, पर माँगें थीं शायद बीस हज़ार। मुझे इन रुपयों को इस तरह ख़र्च करना था कि दूसरे रुपए आने तक परिवार की भूख हड़ताल फिर से आरंभ हो।

    मैं तो बाज़ार में सामान की सर्वे करने लगा—कहाँ क्या सस्ता है और जब यह सर्वे समाप्त कर मैं सामान ख़रीदने को तैयार हुआ, तो देखा सर्वे ही सर्वे में जेब कट गई है—20 रुपए तो गए ही नया क़मीज़ भी ख़राब हो गया।

    यह धक्का साधारण था, पर कटी जेब सिल सकती थी, गए दाम तो लौट सकते थे—मैं कब तक लौटता, घर को लौटा, पर सब लोग मेरी नहीं, भोजन-सामग्री की प्रतीक्षा कर रहे थे और यह तो निश्चित ही है कि माँ या पत्नी के लिए उस सामग्री के स्थान में मेरा कुछ भी उपयोग था। यही नहीं, उनकी दृष्टि यह थी कि उनके आगे कई दिन बाद परसी गई भोजन सामग्री का अपहरणकर्ता मैं ही था। साफ़-साफ़ यों कि अपनी जेब कटाने का श्रेय, उनके बाटों मुझे ही था। आँसू और बकवाद असहायता के अस्त्र हैं—मुझे दोनों का भरपूर शिकार होना पड़ा, पर दुःख है कि इनसे मेरी कटी जेब सिल पाई।

    मैं बिना पानी पिए ही पड़ रहा और पड़ा रहा। शाम को डाकिये ने आवाज़ दी। डाक मेरी ज़िंदगी है, पर उठने को मन हुआ, तो पत्नी से कहा—लेना जी, ज़रा चिट्ठियाँ!

    वे लौटकर आईं—तुम्हें ही बुलाता है!

    उठा, यह सोचते कि कोई लेख किसी पत्र से वापस आया होगा, पर देखा कि डाकिया जो मनीआर्डर फ़ार्म लिए खड़े हैं। एक-एक साँस में लाख-लाख स्मृतियाँ, पर सब सूचना हीन मनीआर्डर तो कहीं से आने वाला है नहीं!

    आने वाला हो, पर तो गया है। ये निकले दस-दस के दो नोट, तो मनिआर्डर 20 रुपयों का है। भेजा है इसी नगर के किसी श्यामसिंह ने, पर किसी श्यामसिंह को मैं जानता हूँ, यह नहीं जानता। जानूँ, पर मनिआर्डर मेरा है और किसी ने बड़े समय पर भेजा है। 20 रुपए क्या आए, रिज़र्व बैंक ही मेरे घर गया!

    यह लीजिए कूपन! डाकिये ने कहा। ले लिया, तो बाँचा भी। लिखा था—मेरे दोस्त, आज सुबह ही ज़ोरू ने कहा—घर में कुछ नहीं है, तो घर से निकला और निकलते ही मिल गए तुम। नई क़मीज़ में बटुवा देखा, तो सोचा चलो सुगन तो अच्छा है। ब्लेड ऐसा बैठा कि क्या कहूँ। किसी ने अपनी छिनाल जोरू की नाक भी इस सफ़ाई से साफ़ की होगी, पर उस बटवे में मिले कूपन पर संपादक ने लिखा था—कई दिन से आपके भूखे रहने की बात पढ़ कर, नियम के विरुद्ध पेशगी रुपए भेज रहा हूँ। सोचा—यह लेखक भी मेरे ही जैसा है और तभी मिल गया एक और बटुवा—पूरे सप्ताह का ख़र्च है। लो, तुम भी ख़ुश रहो मेरे दोस्त!

    स्रोत :
    • पुस्तक : दीप जले, शंख बजे (पृष्ठ 213)
    • रचनाकार : कन्हैलाल मिश्र 'प्रभाकर'
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1951

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