जब मैंने इस दुनिया में आँखें खोली अर्थात गाँव चिताणी, ज़िला नागौर, राजस्थान तब वहाँ सब मेरी जाति के ही लोग थे। उन्हीं से लड़ते-भिड़ते प्रेम-प्यार करते हुए बड़ा हुआ। उस समय लगता था कि इस पवित्र भारतभूमि में सिर्फ़ जाट ही जाट रहते हैं। शेष जातिवाले तो थोड़े बहुत है। जो हैं वे भी चाचा, ताऊ, बुआ, मौसी वगैरह हैं। इसलिए मुझे मेरी जाति का कभी एहसास ही नहीं हुआ।
1969 में मैं पहली बार जोधपुर गया। वहाँ मुझे पता चला कि मेरी एक जाति है और मुझे उनके साथ रहना चाहिए। 1971 में में जोधपुर विश्वविद्यालय में पढ़ने गया, तब पता चला कि कुछ लोग राजपूत हैं और हमारा काम है कि सब जाट मिलकर राजपूतों की पिटाई करें और राजपूतों से बचकर रहें। बाक़ायदा लाठी-भाला-चाकू- छुरी चलती थी। क्यों? यह नहीं पता था। उसी समय प्रो. नामवर सिंह जोधपुर आए। पता चला कि वे राजपूत हैं। लेकिन वे तो बहुत अच्छे हैं। बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। फिर वे तो मुझे प्यार भी करते हैं। यहाँ मुझे निर्णय करना था। मुझे दिए गए विचार और मेरे अपने अनुभव में से किसी एक के अनुसार बदलना था।
मैंने अपने अनुभव को वरीयता दी और राजपूत हमारे शत्रु है, यह मानना बंद कर दिया। मैं उनसे भी प्रेम प्यार से ही मिलता। धीरे-धीरे राजपूत समाज के लोगों ने भी मुझे कड़वी नज़र से देखना बंद कर दिया। फिर मेरी कक्षा में दोस्त मिले, वे भी सभी जातियों के मिले और प्रेमपूर्वक मिले। जाट भी मिले अच्छे दोस्त की तरह मिले। उन सबसे आज भी मित्रता का रिश्ता है। फिर विश्वविद्यालय के अध्यापकों में उस समय स्थानीय बनाम यूपी वालों का झगड़ा चला। बड़ा तीव्र था। छात्रों तक में था। डॉ. मैनेजर पांडेय हमारी कक्षा के अत्यंत प्रिय शिक्षक रहे। अब यूपी-बिहार वालों से चिढ़ने का मतलब हुआ नामवरजी और पाण्डेय जी से चिढ़ना। यह मुझे मंज़ूर नहीं था। इस कारण ठीक-सा प्रांतवाद भी मन में पनप नहीं पाया।
गाँव में जातिवाद बहुत कम होता है, दूसरी चीज़ें ज़्यादा होती हैं। आमतौर से उनके मन में 30 प्रतिशत स्वार्थ, 30 प्रतिशत नाते-रिश्तेदारी, 30 प्रतिशत न्याय व धार्मिक भावना और 10 प्रतिशत दया-मानवता होती है। आधुनिक शिक्षित बुद्धिजीवी में 30 प्रतिशत जातिवाद, 30 प्रतिशत प्रान्तवाद, 30 प्रतिशत अध्ययन, विचारधारा, प्रगतिशीलता और 10 प्रतिशत वैयक्तिक स्वार्थ। इसमें कभी कुछ कम, कभी कुछ ज़्यादा मात्रा हो जाती है। कई बार प्रांतवाद और जातिवाद स्वार्थ के साधन हो जाते हैं। कभी अध्ययन, विचारधारा भी छवि चमकाने के काम आ जाती है जो अंततः स्वार्थ सिद्धि में सहायक हो जाती है। गाँव में नाते-रिश्तेदारी भी स्वार्थ सिद्धि में सहायक हो जाती है। अतः बंटवारा करना हो 60 प्रतिशत स्वार्थ और 40 प्रतिशत न्याय भावना, यह गाँव जीवन का औसत हो सकता है। बुद्धिजीवियों में किसी विशेष क्षण में 100 प्रतिशत स्वार्थ हो सकता है। ख़तरा है। इसलिए मैं कहता हूँ कि गाँव में जातिवाद नहीं होता। स्वार्थवाद हो सकता है। है भी।
गाँव में आपसी रिश्तों में व्यक्ति महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वह यदि धूर्त, चालाक है तो उसे पसन्द नहीं किया जाता। उसकी न्याय बुद्धि से समीक्षा होती है या फिर गुटबाजी। गुट में किसी भी जाति का शामिल हो सकता है। चिताणी में पिछले कुछ वर्षों से दो गुट बन गए। ग्राम पंचायत के लिए एक बार वार्ड पंच का चुनाव होना था। दोनों गुटों में से किसी एक का वार्ड पंच बनना था। दोनों परस्पर विरोधी गुट। दोनों जाटों के। यदि जातिवाद प्रमुख होता तो किसी जाट को ही वार्ड पंच होना था। परंतु दूसरे गुट ने चाल चली। उन्होंने एक नायक (जनजाति) व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बना दिया। जाटों के वोट तो तय थे। पक्ष हो या विपक्ष मामला बराबर का था। नायकों के तीन-चार परिवार थे। उन्होंने एकमुश्त वोट दिया और चिताणी का वार्ड पंच बना जनजाति का व्यक्ति नायक। अब हमारी राष्ट्रीय पत्रकारिता सपने में भी नहीं सोच सकती कि नागौर के जाट बहुल गाँव का वार्ड पंच नायक बनेगा। चुनाव जाट और नायक में से किसी एक का होना था। यदि सभी जाट जातिवाद करते तो नायक नहीं जीत सकता था। परंतु चिताणी ने कहा जातिवाद मुर्दाबाद। जातिवाद शहरी मध्यवर्ग का मानस पुत्र है।
कई बार लगता है कि अच्छा हुआ जो मेरा जन्म जाट जाति में हुआ। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि मेरे अनुभव ने मुझे जातिवादी नहीं बनाया। जाट होने का कोई फ़ायदा तो मिलता नहीं। तब क्यों जातिवादी बनें? तब जाति निरपेक्ष ही बनें। जिन लोगों को अपनी जाति के कारण फ़ायदा मिलता हैं वे जातिवादी बनें। वे यदि जाति निरपेक्ष बनने की कोशिश करते हैं तो वह कोशिश किसी नाज़ुक मौक़े पर उखड़ जाती है और पता चल जाता है कि ज्ञानरंजन तो कायस्थ हैं। अत्यंत कोमल, सुकुमार कवि केदारनाथ सिंह राजपूत हैं। अब क्या करें? हमें तो अच्छे ही लगते हैं। यह अमूल्य जानकारी मुझे फणीश्वरनाथ रेणु, निर्मल वर्मा, प्रसाद के बारे में नहीं मिली। यहाँ तक कि अज्ञेय के बारे में भी नहीं मिली। हजारीप्रसाद द्विवेदी तो प्रकट ही करते रहते हैं कि वे सनातनी हिंदू ब्राह्मण हैं। उन पर क्या आरोप लगाना?
फिर जब दिल्ली आया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बन गया, तब इस जातिवाद के फिर दर्शन हुए। यहाँ तक अनुभव हुआ कि कुछ दलित विद्वानों में भी जातिवाद है। उनमें भी, जिनको एक लेखक के रूप में मैं पसंद करता रहा हूँ। सवर्णों में तो है ही। यह वाला बहुत बारीक वाला है। सवर्णों के बारीक जातिवाद को तो दलित लेखकों ने ही दिखाया। अन्यथा मुझे कभी दीखता ही नहीं। मैं मज़े से उनकी प्रगतिशीलता की तारीफ़ करता रहता।
(दो)
मैं तो कथा कहना चाहता हूँ परंतु मित्रों की रुचि अन्तर्कथा में ज़्यादा लग रही है। इसलिए वही सही। वैसे अंतर्कथा का निवास कथा में ही होता है। अब आपने देख लिया है और समझ लिया है कि मैं क्यों जातिवाद और प्रांतवाद में विश्वास नहीं करता? मेरे जीवन में सभी जातियों और प्रान्तों के शुभचिंतकों का योगदान रहा है। इसलिए मैं कभी बामणों, राजपूतों या बनियों की निंदा नहीं कर पाता। पिछड़े वर्ग का होते हुए भी इतनी उग्रता से बहुजनवाद नहीं कर पाता। भाई लोग थोड़ा नाराज़ रहते हैं। परंतु मेरे जीवन का अनुभव मुझे बताता है कि सभी जातियों के व्यक्ति भी मनुष्य ही होते हैं। जो सभी कुल मिलाकर बड़े बदतमीज़, अहंकारी तो क्या कहें चापलूसी पसंद होते हैं। फिर मेरे लिए सभी अपने हैं। अब आप ही बताओ कृतज्ञता के रास्ते पर चलूँ या कृतघ्नता के? यह अवश्य है कि मेरी जाति के लोग जब अच्छा काम करते हैं तो ख़ुशी होती है। वे जब बुरा काम करते हैं तो दुःख होता है। इतना जातिवाद शायद बचा रह गया है।
बात यह है कि अभिधा को झूठ बोलने की कला नहीं आती। यह कला तो जादूगरनी व्यंजना को ख़ूब आती है। पलटी मारने की तो वह विशेषज्ञ है। और लक्षणा? वह तो जन्म की चुगलखोर है। उसकी क्या बात करें? इसलिए हम भी मानते हैं कि अभिधा उत्तम काव्य है। रामचंद्र शुक्ल के दबाव में नहीं। तो आज फिर गाँव चलते हैं। अब आपको गाँव का परिचय दे ही देते हैं। जिन दिनों की बात है। हमारे गाँव चिताणी में 25 परिवार रहते थे। कुल मत सिर्फ़ सौ। इसलिए चिताणी को धवा के कुछ मतों को जोड़कर वार्ड बना दिया गया था। इस कारण चिताणी में स्वाभाविक राजनीतिक हीनता ग्रंथि पनप गई थी। इस कारण गाँव में राजनीतिक एकता थी जो कई बरसों तक चली। हमारे गाँव में न स्कूल था। न पटवारी था। न गाँव में कभी बस आती थी। न कुम्हार था। न नाई था। न कोई दूकान थी। न अस्पताल था। यहाँ कोई मनीऑर्डर भी नहीं आता था। गाँव में गाँव ही था। नई सदी में यहाँ वार्ड बन गया है। आजकल तो बूथ भी बन गया है।
मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है। ई ससुर फणीश्वरनाथ रेणु हमारे गाँव में पैदा क्यों न हुए? बिहार में क्यों हो गए? होते तो वे प्रेम-प्यार में सब कहानी कह देते। मुझे इन बातों का तथ्यात्मक वर्णन नहीं करना पड़ता।
आज़ादी से पहले हमारा गाँव जागीरदारों के अधीन था। जागीरदार भी हमारे गाँव में नहीं रहते थे। नोखा चांदावतां में रहते थे। हमारे गाँव में उनका एक नौकर रहता था। जिसे सब कणवारिया कहते थे। (अब इस पद की महिमा का गान न तो प्रेमचंद ने किया और न रेणु ने।) हमारे जागीरदार भले और समझदार आदमी थे शायद। उन्होंने इस पद के लिए किसी बुज़ुर्ग को नियुक्त किया था। और मेरी माँ ने इशारे से भी कभी उसे अवहेलना से याद नहीं किया। बाक़ी शोषण तो नियमानुसार था। उनके छोटे भाई पन्नेसिंह राजस्थान पुलिस में डी. आई. जी. थे। गाँव में जब एक बार डाका पड़ा, तो उन्होंने गाँव वालों की बड़ी मदद की। डाकू पकड़े गए। सुना है कि डाकू जान पहचान वाले थे। अजी असावरी के थे। उन दिनों गाँव के लोग बैलगाड़ी में अपनी उपज लादकर नोखा पहुँचाते थे। जागीरदार उन सबको भोजन करवा कर भेजते थे। इस भोजन की एक कहावत भी चलती है।
जागीरदार का घर रावला कहलाता है। किसी किसी किसान के मन में आता है कि खाना दो बार खा लें। इतनी भीड़ में किसको पता चलेगा। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता। तब कहावत बनी कि इतनी पोल नहीं है कि कोई रावला में दो बार जीम ले। इसका एक निहितार्थ यह भी है कि एक बार जीम लो वही बहुत है। यह सब मैंने सुन रखा था। जब देश आज़ाद हुआ, तो भी हमारे गाँव से उनका अपनत्व बना रहा। उन्होंने सीर की ज़मीन के रूप में हमारे गाँव में अपने नाम की जमीन नहीं रखी। किसानों को सौंप दी। उस समय एक ऐसा वर्ष था, जब आप चाहो तो जागीरदार को लाटा दो, चाहो तो सरकार को बीघोड़ी दो। वही लगान। इतना भी नहीं जानते! गाँव में किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? लाटा दें या बीघोड़ी दें? तब मेरे पिताजी और मंगाराम जी जोधपुर गए। किसान केसरी बलदेवराम मिर्धा से मिले। और एक आदेश निकलवाया कि वे बीघोड़ी देंगे। वही लगान देंगे। बलदेवराम जी ने हिदायत दी कि यह आदेश तुम दोनों पर बाध्यकारी है। यदि तुम लोगों ने जागीरदार को लाटा पहुँचा दिया, तब भी बिघोड़ी तो देनी ही पड़ेगी। कितना डर लगा होगा उन्हें। गाँव में एकदम अकेले हो गए थे। तब भी उन्होंने हिम्मत की और अपना अनाज अपने घर ले आये। उस समय भी हमारे जागीरदार ने धैर्य रखा। हालात को स्वीकार कर लिया। अन्यथा जागीरदारों के अत्याचारों की कोई अपील नहीं होती थी। अब रेणु होते तो यह बीच की अंतर्कथा लिखते।
इस प्रकरण का एक क्षेपक भी है। जब ज़मीन का पट्टा होने वाला था, तब पिताजी ने अपनी बहुत सारी ज़मीन से इस्तीफ़ा दे दिया। यदि इस्तीफ़ा नहीं दिया होता और सारी ज़मीन अपने पास ही रखते तो हमारा परिवार तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद से भी अधिक ज़मीन वाला होता। असल में हमारे परिवार की पिछली चार पीढ़ियों के उत्तराधिकारी मेरे पिताजी ही थे। हमारे परिवार का एक भाई इंदौर के पास काटकूट चला गया था। गाँव से झगड़े के दिनों में वे उसको बहुत याद करते थे। पिताजी ने देखा था कि अँग्रेज़ी राज में लगान के भय से किसान कैसे डरते और दुबकते रहते थे। जब लगान वसूल करने वाला आता तो किसान फूस के ढेर में छिप जाते थे। हमारी गाँव में नहीं, यह दृश्य सेनणी में दिखाई-सुनाई देता था। इसलिए इतनी ज़मीन और उसकी नामालूम कितनी बीघोड़ी? और यह बीघोड़ी नक़द देनी होती। और नक़द कितना मुश्किल होता, यह उन्होंने देख रखा था। तो फिर गाँव धनवान कैसे था?
हमारे गाँव के कुछ लोग ब्याज पर रुपए उधार देते थे। यह अतिरिक्त आय उन्हें पैसेवाला बना देती थी। कुछ लोगों ने भेड़ें पाल ली थीं। अब आप भेड़ वालों को कमज़ोर मत समझना। इनकी लाठी में बहुत ताक़त होती थी। ये लोग 6 महीने अपनी भेड़ों को चराने डांग में चले जाते थे। समूह बनाकर जाते थे। उनके पास तेल से चमकाई हुई मज़बूत लाठी होती थी और शेरों से टकराने वाले कुत्ते होते थे। ये जब गाँव में आते थे, तो पूरा गाँव इनसे और इनके कुत्तों से मन ही मन डरता रहता था। एक बार मेरी बड़ी बहन पद्मा को इनके एक कुत्ते ने काट लिया था। नहीं, इन्होंने गाँव में किसी के साथ कभी मारपीट नहीं की। हाँ, गाँव इनसे दूर-दूर रहता और इनके प्रवास की कहानियाँ भी हाँ-हाँ कर सुनता। सहमत न होते हुए भी सुनते रहते। ऐसे समय में हमारे परिवार से इनमें से एक रायचंद जी से झगड़ा हो गया।
मैं गाँव का इकलौता विद्यार्थी था। पहला दसवीं पास। फिर आगे जोधपुर विश्वविद्यालय में। यह शायद 1971 या 72 की बात होगी। इस बीच भेड़ों का आकर्षण हमारे घर में भी घुस गया। पिताजी ने 15 या 20 भेड़ें ख़रीदी और मेरे एक भाई को रायचंद जी की साथ भेज दिया। वहाँ कुछ झगड़ा हुआ और उन्होंने भाई के अनुसार 1500 रुपए के आसपास दबा लिए। नहीं, मारपीट नहीं की, की भी होगी तो भाई ने बताया नहीं। ख़ैर, सब लोग गाँव आ गए और वह हिसाब और झगड़ा भी गाँव आ गया।
अब क्या करें? रुपयों की तो कोई बात नहीं। परंतु गाँव में परिवार की छवि महत्त्वपूर्ण होती है। छवि सिर्फ़ शहर में ही कमाने-जीने-मरने में सहायक नहीं होती। गाँव में भी होती है। पिताजी ने जवानी के दिनों में निडरता की छवि बना रखी थी। यह अगर चली गई, तो कोई भी भेड़ वाला हमारे खेत में घुस कर फसल बर्बाद कर सकता था। हम उसको रोक भी नहीं सकते। पारिवारिक चिंता खाए जा रही थी। पिताजी ने मुझे इस चिंता से अवगत कराया। मुझे भी अपने पिता की तरह एक सीमा के बाद डर नहीं लगता। उसी समय जोधपुर में रेडियो और टेप रिकॉर्डर आ गया था और दोनों एक ही सेट में मिलने लग गए थे। मैंने अपने एक परिचित से एक दिन के लिए वह सेट माँगा। एक कैसेट ख़रीदी और चाचा रायचंद जी के पास रेडियो बजाते-बजाते गया। फिर रेडियो बंद किया और टेप चालू कर दी। हमारे पास अब सबूत हो गया। शाम को औपचारिक रूप से गाँव की बैठक बुलाई और मैंने वह टेप सुना दी। गाँव मुझ से डर गया। और मन ही मन मुझे एक ख़तरनाक व्यक्ति मानने लगा। अब क्या बेवक़ूफ़ी की थी। सोचो। आज के दबंग होते तो मुझसे रेडियो छीनकर तोड़ देते और मेरे दो थप्पड़ मारकर भगा देते, तो मैं क्या करता? ऐसे पवित्र विचार उस समय मेरे मन में भी नहीं आए, तो रायचंद चाचा के कैसे आते। परंतु कोई भी यह नहीं चाहता था कि यह झगड़ा यहीं सुलट जाए। लोग रायचंद को भी सीधा होते हुए देखना चाहते थे। रायचंद चाचा दबंगई के मूड में थे। जो भी हो। मैं नागौर कचहरी पहुँचा, मैंने पूछा कि यहाँ का पालकीवाला वकील कौन है? हालाँकि वहाँ मेरे थोड़ी दूर के फूफा हेमसिंह चौधरी भी थे। मैंने उनसे बात नहीं की। गाँव के लोग उन्हें तटस्थ कर सकते थे। शिवराम जोशी को वकील किया। उन्होंने सिर्फ़ पूछा कि फ़ौजदारी या दीवानी? दीवानी मुकदमा हुआ। फ़ीस नहीं पूछोगे? 50 रुपए। फारबिसगंज की तरह अदालत में धूम मची। कई दिनों तक इस मुक़दमें ने गाँव की बोरियत दूर की। कई दिनों-महीनों बाद नागौर पशु मेले में दोनों के सारे रिश्तेदार जुटे और 150 रुपए ले देकर मामला ख़त्म हुआ। पिताजी ने बड़े संकोच और गर्व से मुझे अवगत कराया। बाद में मैंने अपने भाइयों को समझाया कि कभी मेरे भरोसे किसी से झगड़ा मत करना। किया भी नहीं। फिर धीरे-धीरे चाचा से मेरी वापिस दोस्ती हुई और गाँव ने भी मान लिया कि मैं ख़तरनाक आदमी नहीं हूँ। बस लड़ना मत। इसमें भी एक क्षेपक है। बस अंतिम। गाँव में इस लड़ाई के दौरान मैंने सबसे सहायता माँगी। मूलाराम चाचा को जब कहा तो उन्होंने साफ़ इंकार किया और बोले। वे भकलबोले माने जाते थे। अर्थात् बिना सोचे-समझे खटाक बोल देने वाले। बोले, तुमने यह झगड़ा शुरू किया, तब मुझसे पूछा? मैंने कहा, नहीं। तब अपने बूते से लड़ो। जो जीतेगा, हम उसकी चापलूसी करेंगे। हमारे लिए तो यह मनोरंजन है। हम तो चाहते हैं कि तुम जीतो। तुम जीतो चाहे न जीतो, रायचंद बहुत अकड़ में रहता है। उसका हारना अच्छा लगेगा। अब देखो, कभी-कभी 'ठीकरी भी घड़ो फोड़ देवे' अर्थात् घड़े का टूटा हुआ छोटा सा हिस्सा 'ठीकरी' (वह मैं) साबुत घड़े (रायचंद चाचा) को फोड़ दे अर्थात् हरा सकती है। बहरहाल हम दोनों के अलावा कोई भी इस खेल में शामिल नहीं हुआ। हमारे लिए यह भले ही जान जोखिम हो, गाँव के लिए यह मनोरंजन की बात थी। बहरहाल गाँव में ट्रैक्टर आया। ट्यूबवेल बना और तब इस भेड़ युग का अंत हुआ। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि गाँव में सबसे पहला ट्रैक्टर इन भेड़ वालों ने ही ख़रीदा। इस परिवर्तन से गाँव में बहुत बदलाव हुए। सबसे बड़ी बात कि गाँव से कऊँ ख़त्म हो गई।
अब थोड़ी-सी चर्चा कऊँ की कर लेते हैं। इस कऊँ को आप अलाव समझो। यह कऊँ मेरे घर के बाहर के चबूतरे पर बाबा घासीराम जी लगाते थे। जब तक वे जीवित रहे तब तक सर्दियों में शाम छह बजे ये प्रज्वलित हो जाती थी। चबूतरी तो हमारे मकान से जुड़ी हुई थी, परंतु इस कऊँ के कारण यह बाबा की हो गई। पिताजी ने कभी एतराज नहीं किया। इसके साथ हुक्का और चिलम चलती थी। चाय और बीड़ी का तब तक आविष्कार नहीं हुआ था। हुक्का थोड़ा रईस था। उसके नखरे बहुत थे, इसलिए आरामदायक चिलम चलती थी। बीड़ी संस्कारी नहीं थी। बीड़ी में व्यक्तिवाद था। चिलम अपनी प्रकृति में सामाजिक थी। अकेला आदमी कम पीता था। बीड़ी पी सकता था। इसलिए भी यहाँ पर चिलम चलती थी।
यह वह ज़माना था, जब सर्दियों में सब बेरोजगार रहते थे। शाम को सब घर से खा-पीकर आ जाते और अपनी कहते और दूसरों की सुनते। कोई सामूहिक समस्या होती, उसका भी निपटारा हो जाता। यहाँ की चर्चा पूरे गाँव में फैल जाती और मान्य हो जाती। युवा यहाँ आते, तो चुप रहते और तमीज़ सीखते। यह सब संस्कृति हल-बैल की खेती का अंग थी। जब हल-बैल पराजित हो गए और ट्रैक्टर और ट्यूबवेल पूरी तरह छा गए, तब इस कऊँ संस्कृति का लोप हो गया। तब गाँव में शराब का आगमन हो पाया। शराब के आगमन के पूर्व चाय और बीड़ी का आगमन हुआ। अब चिलम पुरानेपन का प्रतिनिधित्व करने लगी, उसी तरह जैसे नई-नई कारों के पदार्पण के बाद अम्बेसडर कार लगने लगी थी। वैसे आजकल शाम आठ बजे के बाद गाँव में किसी को फोन नहीं करना चाहिए। गाँव बहुत विकसित हो गए हैं। मुझे इस नए गाँव के बारे में कुछ नहीं कहना। और इस शराब के सौंदर्य के बारे में बिलकुल नहीं कहना।
jab mainne is duniya mein ankhen kholi arthat gaanv chitani, jila nagaur, rajasthan tab vahan sab meri jati ke hi log the. unhin se laDte bhiDte prem pyaar karte hue baDa hua. us samay lagta tha ki is pavitra bharatbhumi mein sirf jaat hi jaat rahte hain. shesh jativale to thoDe bahut hai. jo hain ve bhi chacha, tau, bua, mausi vagairah hain. isliye mujhe meri jati ka kabhi ehsaas hi nahin hua.
1969 mein main pahli baar jodhpur gaya. vahan mujhe pata chala ki meri ek jati hai aur mujhe unke saath rahna chahiye. 1971 mein mein jodhpur vishvavidyalay mein paDhne gaya, tab pata chala ki kuch log rajput hain aur hamara kaam hai ki sab jaat milkar rajputon ki pitai karen aur rajputon se bachkar rahen. bakayada lathi bhala chaku chhuri chalti thi. kyon? ye nahin pata tha. usi samay pro. namvar sinh jodhpur aaye. pata chala ki ve rajput hain. lekin ve to bahut achchhe hain. bahut achchha paDhate hain. phir ve to mujhe pyaar bhi karte hain. yahan mujhe nirnay karna tha. mujhe diye ge vichar aur mere apne anubhav mein se kisi ek ke anusar badalna tha.
mainne apne anubhav ko variyata di aur rajput hamare shatru hai, ye manna band kar diya. main unse bhi prem pyaar se hi milta. dhire dhire rajput samaj ke logon ne bhi mujhe kaDvi nazar se dekhana band kar diya. phir meri kaksha mein dost mile, ve bhi sabhi jatiyon ke mile aur prempurvak mile. jaat bhi mile achchhe dost ki tarah mile. un sabse aaj bhi mitrata ka rishta hai. phir vishvavidyalay ke adhyapkon mein us samay sthaniy banam yupi valon ka jhagDa chala. baDa teevr tha. chhatron tak mein tha. Dau. mainejar panDey hamari kaksha ke atyant priy shikshak rahe. ab yupi bihar valon se chiDhne ka matlab hua namavarji aur panDey ji se chiDhna. ye mujhe manjur nahin tha. is karan theek sa prantvad bhi man mein panap nahin paya.
gaanv mein jativad bahut kam hota hai, dusri chijen jyada hoti hain. amtaur se unke man mein 30 pratishat svaarth, 30 pratishat nate rishtedari, 30 pratishat nyaay va dharmik bhavna aur 10 pratishat daya manavta hoti hai. adhunik shikshit buddhijivi mein 30 pratishat jativad, 30 pratishat prantvad, 30 pratishat adhyayan, vicharadhara, pragatishilta aur 10 pratishat vaiyaktik svaarth. ismen kabhi kuch kam, kabhi kuch zyada matra ho jati hai. kai baar prantvad aur jativad svaarth ke sadhan ho jate hain. kabhi adhyayan, vicharadhara bhi chhavi chamkane ke kaam aa jati hai jo antatः svaarth siddhi mein sahayak ho jati hai. gaanv mein nate rishtedari bhi svaarth siddhi mein sahayak ho jati hai. atः bantvara karna ho 60 pratishat svaarth aur 40 pratishat nyaay bhavna, ye gaanv jivan ka ausat ho sakta hai. buddhijiviyon mein kisi vishesh kshan mein 100 pratishat svaarth ho sakta hai. khatra hai. isliye main kahta hoon ki gaanv mein jativad nahin hota. svarthvad ho sakta hai. hai bhi.
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kai baar lagta hai ki achchha hua jo mera janm jaat jati mein hua. iska sabse baDa phayda ye hua ki mere anubhav ne mujhe jativadi nahin banaya. jaat hone ka koi phayda to milta nahin. tab kyon jativadi banen? tab jati nirpeksh hi banen. jin logon ko apni jati ke karan fayda milta hain ve jativadi banen. ve yadi jati nirpeksh banne ki koshish karte hain to wo koshish kisi nazuk mauqe par ukhaD jati hai aur pata chal jata hai ki gyanranjan to kayasth hain. atyant komal, sukumar kavi kedaranath sinh rajput hain. ab kya karen? hamein to achchhe hi lagte hain. ye amulya jankari mujhe phanishvarnath renu, nirmal varma, parsad ke bare mein nahin mili. yahan tak ki agyey ke bare mein bhi nahin mili. hajariprsad dvivedi to prakat hi karte rahte hain ki ve sanatani hindu brahman hain. un par kya aarop lagana?
phir jab dilli aaya. javaharlal nehru vishvavidyalay mein profesar ban gaya, tab is jativad ke phir darshan hue. yahan tak anubhav hua ki kuch dalit vidvanon mein bhi jativad hai. unmen bhi, jinko ek lekhak ke roop mein main pasand karta raha hoon. savarnon mein to hai hi. ye vala bahut barik vala hai. savarnon ke barik jativad ko to dalit lekhkon ne hi dikhaya. anyatha mujhe kabhi dikhta hi nahin. main maze se unki pragatishilta ki tarif karta rahta.
(2)
main to katha kahna chahta hoon parantu mitron ki ruchi antarktha mein zyada lag rahi hai. isliye vahi sahi. vaise antarktha ka nivas katha mein hi hota hai. ab aapne dekh liya hai aur samajh liya hai ki main kyon jativad aur prantvad mein vishvas nahin karta? mere jivan mein sabhi jatiyon aur pranton ke shubhchintkon ka yogadan raha hai. isliye main kabhi bamnon, rajputon ya baniyon ki ninda nahin kar pata. pichhDe varg ka hote hue bhi itni ugrata se bahujanvad nahin kar pata. bhai log thoDa naraj rahte hain. parantu mere jivan ka anubhav mujhe batata hai ki sabhi jatiyon ke vyakti bhi manushya hi hote hain. jo sabhi kul milakar baDe badtamiz, ahankari to kya kahen chaplusi pasand hote hain. phir mere liye sabhi apne hain. ab aap hi batao kritagyta ke raste par chalun ya kritaghnata ke? ye avashya hai ki meri jati ke log jab achchha kaam karte hain to khushi hoti hai. ve jab bura kaam karte hain to duःkha hota hai. itna jativad shayad bacha rah gaya hai.
baat ye hai ki abhidha ko jhooth bolne ki kala nahin aati. ye kala to jadugarni vyanjna ko khoob aati hai. palti marne ki to wo visheshagya hai. aur lakshna? wo to janm ki chugalkhor hai. uski kya baat karen? isliye hum bhi mante hain ki abhidha uttam kavya hai. ramchandr shukl ke dabav mein nahin. to aaj phir gaanv chalte hain. ab aapko gaanv ka parichay de hi dete hain. jin dinon ki baat hai. hamare gaanv chitani mein 25 parivar rahte the. kul mat sirf sau. isliye chitani ko dhava ke kuch maton ko joDkar vaarD bana diya gaya tha. is karan chitani mein svabhavik rajnitik hinta granthi panap gai thi. is karan gaanv mein rajnitik ekta thi jo kai barson tak chali. hamare gaanv mein na skool tha. na patvari tha. na gaanv mein kabhi bas aati thi. na kumhar tha. na nai tha. na koi dukan thi. na aspatal tha. yahan koi maniaurDar bhi nahin aata tha. gaanv mein gaanv hi tha. nai sadi mein yahan vaarD ban gaya hai. ajkal to booth bhi ban gaya hai.
mujhe bahut ghussa aata hai. ii sasur phanishvarnath renu hamare gaanv mein paida kyon na hue? bihar mein kyon ho ge? hote to ve prem pyaar mein sab kahani kah dete. mujhe in baton ka tathyatmak varnan nahin karna paDta.
azadi se pahle hamara gaanv jagirdaron ke adhin tha. jagiradar bhi hamare gaanv mein nahin rahte the. nokha chandavtan mein rahte the. hamare gaanv mein unka ek naukar rahta tha. jise sab kanvariya kahte the. (ab is pad ki mahima ka gaan na to premchand ne kiya aur na renu ne. ) hamare jagiradar bhale aur samajhdar adami the shayad. unhonne is pad ke liye kisi buzurg ko niyukt kiya tha. aur meri maan ne ishare se bhi kabhi use avhelana se yaad nahin kiya. baqi shoshan to niymanusar tha. unke chhote bhai pannesinh rajasthan pulis mein Di. aai. ji. the. gaanv mein jab ek baar Daka paDa, to unhonne gaanv valon ki baDi madad ki. Daku pakDe ge. suna hai ki Daku jaan pahchan vale the. aji asavari ke the. un dinon gaanv ke log bailgaDi mein apni upaj ladkar nokha pahunchate the. jagiradar un sabko bhojan karva kar bhejte the. is bhojan ki ek kahavat bhi chalti hai.
jagiradar ka ghar ravla kahlata hai. kisi kisi kisan ke man mein aata hai ki khana do baar kha len. itni bheeD mein kisko pata chalega. lekin aisa sambhav nahin ho pata. tab kahavat bani ki itni pol nahin hai ki koi ravla mein do baar jeem le. iska ek nihitarth ye bhi hai ki ek baar jeem lo vahi bahut hai. ye sab mainne sun rakha tha. jab desh azad hua, to bhi hamare gaanv se unka apnatv bana raha. unhonne seer ki zamin ke roop mein hamare gaanv mein apne naam ki jamin nahin rakhi. kisanon ko saump di. us samay ek aisa varsh tha, jab aap chaho to jagiradar ko lata do, chaho to sarkar ko bighoDi do. vahi lagan. itna bhi nahin jante! gaanv mein kisi ko samajh mein nahin aa raha tha ki kya karen? lata den ya bighoDi den? tab mere pitaji aur mangaram ji jodhpur ge. kisan kesari baldevram mirdha se mile. aur ek adesh nikalvaya ki ve bighoDi denge. vahi lagan denge. baldevram ji ne hidayat di ki ye adesh tum donon par badhykari hai. yadi tum logon ne jagiradar ko lata pahuncha diya, tab bhi bighoDi to deni hi paDegi. kitna Dar laga hoga unhen. gaanv mein ekdam akele ho ge the. tab bhi unhonne himmat ki aur apna anaj apne ghar le aaye. us samay bhi hamare jagiradar ne dhairya rakha. halat ko svikar kar liya. anyatha jagirdaron ke atyacharon ki koi apil nahin hoti thi. ab renu hote to ye beech ki antarktha likhte.
is prakran ka ek kshepak bhi hai. jab zamin ka patta hone vala tha, tab pitaji ne apni bahut sari zamin se istifa de diya. yadi istifa nahin diya hota aur sari zamin apne paas hi rakhte to hamara parivar tahsildar vishvanath parsad se bhi adhik zamin vala hota. asal mein hamare parivar ki pichhli chaar piDhiyon ke uttaradhikari mere pitaji hi the. hamare parivar ka ek bhai indaur ke paas katakut chala gaya tha. gaanv se jhagDe ke dinon mein ve usko bahut yaad karte the. pitaji ne dekha tha ki angreji raaj mein lagan ke bhay se kisan kaise Darte aur dubakte rahte the. jab lagan vasul karne vala aata to kisan phoos ke Dher mein chhip jate the. hamari gaanv mein nahin, ye drishya senni mein dikhai sunai deta tha. isliye itni zamin aur uski namalum kitni bighoDi? aur ye bighoDi naqad deni hoti. aur naqad kitna mushkil hota, ye unhonne dekh rakha tha. to phir gaanv dhanvan kaise tha?
hamare gaanv ke kuch log byaaj par rupe udhaar dete the. ye atirikt aay unhen paisevala bana deti thi. kuch logon ne bheDen paal li theen. ab aap bheD valon ko kamzor mat samajhna. inki lathi mein bahut taqat hoti thi. ye log 6 mahine apni bheDon ko charane Daang mein chale jate the. samuh banakar jate the. unke paas tel se chamkai hui mazbut lathi hoti thi aur sheron se takrane vale kutte hote the. ye jab gaanv mein aate the, to pura gaanv inse aur inke kutton se man hi man Darta rahta tha. ek baar meri baDi bahan padma ko inke ek kutte ne kaat liya tha. nahin, inhonne gaanv mein kisi ke saath kabhi marapit nahin ki. haan, gaanv inse door door rahta aur inke pravas ki kahaniyan bhi haan haan kar sunta. sahmat na hote hue bhi sunte rahte. aise samay mein hamare parivar se inmen se ek raychand ji se jhagDa ho gaya.
main gaanv ka iklauta vidyarthi tha. pahla dasvin paas. phir aage jodhpur vishvavidyalay mein. ye shayad 1971 ya 72 ki baat hogi. is beech bheDon ka akarshan hamare ghar mein bhi ghus gaya. pitaji ne 15 ya 20 bheDen kharidi aur mere ek bhai ko raychand ji ki saath bhej diya. vahan kuch jhagDa hua aur unhonne bhai ke anusar 1500 rupe ke asapas daba liye. nahin, marapit nahin ki, ki bhi hogi to bhai ne bataya nahin. khair, sab log gaanv aa ge aur wo hisab aur jhagDa bhi gaanv aa gaya.
ab kya karen? rupyon ki to koi baat nahin. parantu gaanv mein parivar ki chhavi mahatvpurn hoti hai. chhavi sirf shahr mein hi kamane jine marne mein sahayak nahin hoti. gaanv mein bhi hoti hai. pitaji ne javani ke dinon mein niDarta ki chhavi bana rakhi thi. ye agar chali gai, to koi bhi bheD vala hamare khet mein ghus kar phasal barbad kar sakta tha. hum usko rok bhi nahin sakte. parivarik chinta khaye ja rahi thi. pitaji ne mujhe is chinta se avgat karaya. mujhe bhi apne pita ki tarah ek sima ke baad Dar nahin lagta. usi samay jodhpur mein reDiyo aur tep rikaurDar aa gaya tha aur donon ek hi set mein milne lag ge the. mainne apne ek parichit se ek din ke liye wo set manga. ek kaiset kharidi aur chacha raychand ji ke paas reDiyo bajate bajate gaya. phir reDiyo band kiya aur tep chalu kar di. hamare paas ab sabut ho gaya. shaam ko aupacharik roop se gaanv ki baithak bulai aur mainne wo tep suna di. gaanv mujh se Dar gaya. aur man hi man mujhe ek khatarnak vyakti manne laga. ab kya bevaqufi ki thi. socho. aaj ke dabang hote to mujhse reDiyo chhinkar toD dete aur mere do thappaD markar bhaga dete, to main kya karta? aise pavitra vichar us samay mere man mein bhi nahin aaye, to raychand chacha ke kaise aate. parantu koi bhi ye nahin chahta tha ki ye jhagDa yahin sulat jaay. log raychand ko bhi sidha hote hue dekhana chahte the. raychand chacha dabangii ke mooD mein the. jo bhi ho. main nagaur kachahri pahuncha, mainne puchha ki yahan ka palkivala vakil kaun hai? halanki vahan mere thoDi door ke phupha hemsinh chaudhari bhi the. mainne unse baat nahin ki. gaanv ke log unhen tatasth kar sakte the. shivram joshi ko vakil kiya. unhonne sirf puchha ki phaujdari ya divani? divani mukadma hua. phees nahin puchhoge? 50 rupe. pharabisganj ki tarah adalat mein dhoom machi. kai dinon tak is muqadmen ne gaanv ki boriyat door ki. kai dinon mahinon baad nagaur pashu mele mein donon ke sare rishtedar jute aur 150 rupe le dekar mamla khatm hua. pitaji ne baDe sankoch aur garv se mujhe avgat karaya. baad mein mainne apne bhaiyon ko samjhaya ki kabhi mere bharose kisi se jhagDa mat karna. kiya bhi nahin. phir dhire dhire chacha se meri vapis dosti hui aur gaanv ne bhi maan liya ki main khatarnak adami nahin hoon. bas laDna mat. ismen bhi ek kshepak hai. bas antim. gaanv mein is laDai ke dauran mainne sabse sahayata mangi. mularam chacha ko jab kaha to unhonne saaf inkaar kiya aur bole. ve bhakalbole mane jate the. arthat bina soche samjhe khatak bol dene vale. bole, tumne ye jhagDa shuru kiya, tab mujhse puchha? mainne kaha, nahin. tab apne bute se laDo. jo jitega, hum uski chaplusi karenge. hamare liye to ye manoranjan hai. hum to chahte hain ki tum jito. tum jito chahe na jito, raychand bahut akaD mein rahta hai. uska harna achchha lagega. ab dekho, kabhi kabhi thikari bhi ghaDo phoD deve arthat ghaDe ka tuta hua chhota sa hissa thikari (vah main) sabut ghaDe (raychand chacha) ko phoD de arthat hara sakti hai. baharhal hum donon ke alava koi bhi is khel mein shamil nahin hua. hamare liye ye bhale hi jaan jokhim ho, gaanv ke liye ye manoranjan ki baat thi. baharhal gaanv mein traiktar aaya. tyubvel bana aur tab is bheD yug ka ant hua. yahan ye batana bhi zaruri hai ki gaanv mein sabse pahla traiktar in bheD valon ne hi kharida. is parivartan se gaanv mein bahut badlav hue. sabse baDi baat ki gaanv se kaun khatm ho gai.
ab thoDi si charcha kaun ki kar lete hain. is kaun ko aap alav samjho. ye kaun mere ghar ke bahar ke chabutre par baba ghasiram ji lagate the. jab tak ve jivit rahe tab tak sardiyon mein shaam chhah baje ye prajvalit ho jati thi. chabutri to hamare makan se juDi hui thi, parantu is kaun ke karan ye baba ki ho gai. pitaji ne kabhi etraaj nahin kiya. iske saath hukka aur chilam chalti thi. chaay aur biDi ka tab tak avishkar nahin hua tha. hukka thoDa rais tha. uske nakhre bahut the, isliye aramadayak chilam chalti thi. biDi sanskari nahin thi. biDi mein vyaktivad tha. chilam apni prkriti mein samajik thi. akela adami kam pita tha. biDi pi sakta tha. isliye bhi yahan par chilam chalti thi.
ye wo zamana tha, jab sardiyon mein sab berojgar rahte the. shaam ko sab ghar se kha pikar aa jate aur apni kahte aur dusron ki sunte. koi samuhik samasya hoti, uska bhi niptara ho jata. yahan ki charcha pure gaanv mein phail jati aur manya ho jati. yuva yahan aate, to chup rahte aur tamiz sikhte. ye sab sanskriti hal bail ki kheti ka ang thi. jab hal bail parajit ho ge aur traiktar aur tyubvel puri tarah chha ge, tab is kaun sanskriti ka lop ho gaya. tab gaanv mein sharab ka agaman ho paya. sharab ke agaman ke poorv chaay aur biDi ka agaman hua. ab chilam puranepan ka pratinidhitv karne lagi, usi tarah jaise nai nai karon ke padarpan ke baad ambesDar kaar lagne lagi thi. vaise ajkal shaam aath baje ke baad gaanv mein kisi ko phon nahin karna chahiye. gaanv bahut viksit ho ge hain. mujhe is ne gaanv ke bare mein kuch nahin kahna. aur is sharab ke saundarya ke bare mein bilkul nahin kahna.
jab mainne is duniya mein ankhen kholi arthat gaanv chitani, jila nagaur, rajasthan tab vahan sab meri jati ke hi log the. unhin se laDte bhiDte prem pyaar karte hue baDa hua. us samay lagta tha ki is pavitra bharatbhumi mein sirf jaat hi jaat rahte hain. shesh jativale to thoDe bahut hai. jo hain ve bhi chacha, tau, bua, mausi vagairah hain. isliye mujhe meri jati ka kabhi ehsaas hi nahin hua.
1969 mein main pahli baar jodhpur gaya. vahan mujhe pata chala ki meri ek jati hai aur mujhe unke saath rahna chahiye. 1971 mein mein jodhpur vishvavidyalay mein paDhne gaya, tab pata chala ki kuch log rajput hain aur hamara kaam hai ki sab jaat milkar rajputon ki pitai karen aur rajputon se bachkar rahen. bakayada lathi bhala chaku chhuri chalti thi. kyon? ye nahin pata tha. usi samay pro. namvar sinh jodhpur aaye. pata chala ki ve rajput hain. lekin ve to bahut achchhe hain. bahut achchha paDhate hain. phir ve to mujhe pyaar bhi karte hain. yahan mujhe nirnay karna tha. mujhe diye ge vichar aur mere apne anubhav mein se kisi ek ke anusar badalna tha.
mainne apne anubhav ko variyata di aur rajput hamare shatru hai, ye manna band kar diya. main unse bhi prem pyaar se hi milta. dhire dhire rajput samaj ke logon ne bhi mujhe kaDvi nazar se dekhana band kar diya. phir meri kaksha mein dost mile, ve bhi sabhi jatiyon ke mile aur prempurvak mile. jaat bhi mile achchhe dost ki tarah mile. un sabse aaj bhi mitrata ka rishta hai. phir vishvavidyalay ke adhyapkon mein us samay sthaniy banam yupi valon ka jhagDa chala. baDa teevr tha. chhatron tak mein tha. Dau. mainejar panDey hamari kaksha ke atyant priy shikshak rahe. ab yupi bihar valon se chiDhne ka matlab hua namavarji aur panDey ji se chiDhna. ye mujhe manjur nahin tha. is karan theek sa prantvad bhi man mein panap nahin paya.
gaanv mein jativad bahut kam hota hai, dusri chijen jyada hoti hain. amtaur se unke man mein 30 pratishat svaarth, 30 pratishat nate rishtedari, 30 pratishat nyaay va dharmik bhavna aur 10 pratishat daya manavta hoti hai. adhunik shikshit buddhijivi mein 30 pratishat jativad, 30 pratishat prantvad, 30 pratishat adhyayan, vicharadhara, pragatishilta aur 10 pratishat vaiyaktik svaarth. ismen kabhi kuch kam, kabhi kuch zyada matra ho jati hai. kai baar prantvad aur jativad svaarth ke sadhan ho jate hain. kabhi adhyayan, vicharadhara bhi chhavi chamkane ke kaam aa jati hai jo antatः svaarth siddhi mein sahayak ho jati hai. gaanv mein nate rishtedari bhi svaarth siddhi mein sahayak ho jati hai. atः bantvara karna ho 60 pratishat svaarth aur 40 pratishat nyaay bhavna, ye gaanv jivan ka ausat ho sakta hai. buddhijiviyon mein kisi vishesh kshan mein 100 pratishat svaarth ho sakta hai. khatra hai. isliye main kahta hoon ki gaanv mein jativad nahin hota. svarthvad ho sakta hai. hai bhi.
gaanv mein aapsi rishton mein vyakti mahattvpurn ho jata hai. wo yadi dhoort, chalak hai to use pasand nahin kiya jata. uski nyaay buddhi se samiksha hoti hai ya phir gutbaji. gut mein kisi bhi jati ka shamil ho sakta hai. chitani mein pichhle kuch varshon se do gut ban ge. gram panchayat ke liye ek baar vaarD panch ka chunav hona tha. donon guton mein se kisi ek ka vaarD panch banna tha. donon paraspar virodhi gut. donon jaton ke. yadi jativad pramukh hota to kisi jaat ko hi vaarD panch hona tha. parantu dusre gut ne chaal chali. unhonne ek nayak (janjati) vyakti ko apna ummidvar bana diya. jaton ke vot to tay the. paksh ho ya vipaksh mamla barabar ka tha. naykon ke teen chaar parivar the. unhonne ekmusht vot diya aur chitani ka vaarD panch bana janjati ka vyakti nayak. ab hamari rashtriy patrakarita sapne mein bhi nahin soch sakti ki nagaur ke jaat bahul gaanv ka vaarD panch nayak banega. chunav jaat aur nayak mein se kisi ek ka hona tha. yadi sabhi jaat jativad karte to nayak nahin jeet sakta tha. parantu chitani ne kaha jativad murdabad. jativad shahri madhyavarg ka manas putr hai.
kai baar lagta hai ki achchha hua jo mera janm jaat jati mein hua. iska sabse baDa phayda ye hua ki mere anubhav ne mujhe jativadi nahin banaya. jaat hone ka koi phayda to milta nahin. tab kyon jativadi banen? tab jati nirpeksh hi banen. jin logon ko apni jati ke karan fayda milta hain ve jativadi banen. ve yadi jati nirpeksh banne ki koshish karte hain to wo koshish kisi nazuk mauqe par ukhaD jati hai aur pata chal jata hai ki gyanranjan to kayasth hain. atyant komal, sukumar kavi kedaranath sinh rajput hain. ab kya karen? hamein to achchhe hi lagte hain. ye amulya jankari mujhe phanishvarnath renu, nirmal varma, parsad ke bare mein nahin mili. yahan tak ki agyey ke bare mein bhi nahin mili. hajariprsad dvivedi to prakat hi karte rahte hain ki ve sanatani hindu brahman hain. un par kya aarop lagana?
phir jab dilli aaya. javaharlal nehru vishvavidyalay mein profesar ban gaya, tab is jativad ke phir darshan hue. yahan tak anubhav hua ki kuch dalit vidvanon mein bhi jativad hai. unmen bhi, jinko ek lekhak ke roop mein main pasand karta raha hoon. savarnon mein to hai hi. ye vala bahut barik vala hai. savarnon ke barik jativad ko to dalit lekhkon ne hi dikhaya. anyatha mujhe kabhi dikhta hi nahin. main maze se unki pragatishilta ki tarif karta rahta.
(2)
main to katha kahna chahta hoon parantu mitron ki ruchi antarktha mein zyada lag rahi hai. isliye vahi sahi. vaise antarktha ka nivas katha mein hi hota hai. ab aapne dekh liya hai aur samajh liya hai ki main kyon jativad aur prantvad mein vishvas nahin karta? mere jivan mein sabhi jatiyon aur pranton ke shubhchintkon ka yogadan raha hai. isliye main kabhi bamnon, rajputon ya baniyon ki ninda nahin kar pata. pichhDe varg ka hote hue bhi itni ugrata se bahujanvad nahin kar pata. bhai log thoDa naraj rahte hain. parantu mere jivan ka anubhav mujhe batata hai ki sabhi jatiyon ke vyakti bhi manushya hi hote hain. jo sabhi kul milakar baDe badtamiz, ahankari to kya kahen chaplusi pasand hote hain. phir mere liye sabhi apne hain. ab aap hi batao kritagyta ke raste par chalun ya kritaghnata ke? ye avashya hai ki meri jati ke log jab achchha kaam karte hain to khushi hoti hai. ve jab bura kaam karte hain to duःkha hota hai. itna jativad shayad bacha rah gaya hai.
baat ye hai ki abhidha ko jhooth bolne ki kala nahin aati. ye kala to jadugarni vyanjna ko khoob aati hai. palti marne ki to wo visheshagya hai. aur lakshna? wo to janm ki chugalkhor hai. uski kya baat karen? isliye hum bhi mante hain ki abhidha uttam kavya hai. ramchandr shukl ke dabav mein nahin. to aaj phir gaanv chalte hain. ab aapko gaanv ka parichay de hi dete hain. jin dinon ki baat hai. hamare gaanv chitani mein 25 parivar rahte the. kul mat sirf sau. isliye chitani ko dhava ke kuch maton ko joDkar vaarD bana diya gaya tha. is karan chitani mein svabhavik rajnitik hinta granthi panap gai thi. is karan gaanv mein rajnitik ekta thi jo kai barson tak chali. hamare gaanv mein na skool tha. na patvari tha. na gaanv mein kabhi bas aati thi. na kumhar tha. na nai tha. na koi dukan thi. na aspatal tha. yahan koi maniaurDar bhi nahin aata tha. gaanv mein gaanv hi tha. nai sadi mein yahan vaarD ban gaya hai. ajkal to booth bhi ban gaya hai.
mujhe bahut ghussa aata hai. ii sasur phanishvarnath renu hamare gaanv mein paida kyon na hue? bihar mein kyon ho ge? hote to ve prem pyaar mein sab kahani kah dete. mujhe in baton ka tathyatmak varnan nahin karna paDta.
azadi se pahle hamara gaanv jagirdaron ke adhin tha. jagiradar bhi hamare gaanv mein nahin rahte the. nokha chandavtan mein rahte the. hamare gaanv mein unka ek naukar rahta tha. jise sab kanvariya kahte the. (ab is pad ki mahima ka gaan na to premchand ne kiya aur na renu ne. ) hamare jagiradar bhale aur samajhdar adami the shayad. unhonne is pad ke liye kisi buzurg ko niyukt kiya tha. aur meri maan ne ishare se bhi kabhi use avhelana se yaad nahin kiya. baqi shoshan to niymanusar tha. unke chhote bhai pannesinh rajasthan pulis mein Di. aai. ji. the. gaanv mein jab ek baar Daka paDa, to unhonne gaanv valon ki baDi madad ki. Daku pakDe ge. suna hai ki Daku jaan pahchan vale the. aji asavari ke the. un dinon gaanv ke log bailgaDi mein apni upaj ladkar nokha pahunchate the. jagiradar un sabko bhojan karva kar bhejte the. is bhojan ki ek kahavat bhi chalti hai.
jagiradar ka ghar ravla kahlata hai. kisi kisi kisan ke man mein aata hai ki khana do baar kha len. itni bheeD mein kisko pata chalega. lekin aisa sambhav nahin ho pata. tab kahavat bani ki itni pol nahin hai ki koi ravla mein do baar jeem le. iska ek nihitarth ye bhi hai ki ek baar jeem lo vahi bahut hai. ye sab mainne sun rakha tha. jab desh azad hua, to bhi hamare gaanv se unka apnatv bana raha. unhonne seer ki zamin ke roop mein hamare gaanv mein apne naam ki jamin nahin rakhi. kisanon ko saump di. us samay ek aisa varsh tha, jab aap chaho to jagiradar ko lata do, chaho to sarkar ko bighoDi do. vahi lagan. itna bhi nahin jante! gaanv mein kisi ko samajh mein nahin aa raha tha ki kya karen? lata den ya bighoDi den? tab mere pitaji aur mangaram ji jodhpur ge. kisan kesari baldevram mirdha se mile. aur ek adesh nikalvaya ki ve bighoDi denge. vahi lagan denge. baldevram ji ne hidayat di ki ye adesh tum donon par badhykari hai. yadi tum logon ne jagiradar ko lata pahuncha diya, tab bhi bighoDi to deni hi paDegi. kitna Dar laga hoga unhen. gaanv mein ekdam akele ho ge the. tab bhi unhonne himmat ki aur apna anaj apne ghar le aaye. us samay bhi hamare jagiradar ne dhairya rakha. halat ko svikar kar liya. anyatha jagirdaron ke atyacharon ki koi apil nahin hoti thi. ab renu hote to ye beech ki antarktha likhte.
is prakran ka ek kshepak bhi hai. jab zamin ka patta hone vala tha, tab pitaji ne apni bahut sari zamin se istifa de diya. yadi istifa nahin diya hota aur sari zamin apne paas hi rakhte to hamara parivar tahsildar vishvanath parsad se bhi adhik zamin vala hota. asal mein hamare parivar ki pichhli chaar piDhiyon ke uttaradhikari mere pitaji hi the. hamare parivar ka ek bhai indaur ke paas katakut chala gaya tha. gaanv se jhagDe ke dinon mein ve usko bahut yaad karte the. pitaji ne dekha tha ki angreji raaj mein lagan ke bhay se kisan kaise Darte aur dubakte rahte the. jab lagan vasul karne vala aata to kisan phoos ke Dher mein chhip jate the. hamari gaanv mein nahin, ye drishya senni mein dikhai sunai deta tha. isliye itni zamin aur uski namalum kitni bighoDi? aur ye bighoDi naqad deni hoti. aur naqad kitna mushkil hota, ye unhonne dekh rakha tha. to phir gaanv dhanvan kaise tha?
hamare gaanv ke kuch log byaaj par rupe udhaar dete the. ye atirikt aay unhen paisevala bana deti thi. kuch logon ne bheDen paal li theen. ab aap bheD valon ko kamzor mat samajhna. inki lathi mein bahut taqat hoti thi. ye log 6 mahine apni bheDon ko charane Daang mein chale jate the. samuh banakar jate the. unke paas tel se chamkai hui mazbut lathi hoti thi aur sheron se takrane vale kutte hote the. ye jab gaanv mein aate the, to pura gaanv inse aur inke kutton se man hi man Darta rahta tha. ek baar meri baDi bahan padma ko inke ek kutte ne kaat liya tha. nahin, inhonne gaanv mein kisi ke saath kabhi marapit nahin ki. haan, gaanv inse door door rahta aur inke pravas ki kahaniyan bhi haan haan kar sunta. sahmat na hote hue bhi sunte rahte. aise samay mein hamare parivar se inmen se ek raychand ji se jhagDa ho gaya.
main gaanv ka iklauta vidyarthi tha. pahla dasvin paas. phir aage jodhpur vishvavidyalay mein. ye shayad 1971 ya 72 ki baat hogi. is beech bheDon ka akarshan hamare ghar mein bhi ghus gaya. pitaji ne 15 ya 20 bheDen kharidi aur mere ek bhai ko raychand ji ki saath bhej diya. vahan kuch jhagDa hua aur unhonne bhai ke anusar 1500 rupe ke asapas daba liye. nahin, marapit nahin ki, ki bhi hogi to bhai ne bataya nahin. khair, sab log gaanv aa ge aur wo hisab aur jhagDa bhi gaanv aa gaya.
ab kya karen? rupyon ki to koi baat nahin. parantu gaanv mein parivar ki chhavi mahatvpurn hoti hai. chhavi sirf shahr mein hi kamane jine marne mein sahayak nahin hoti. gaanv mein bhi hoti hai. pitaji ne javani ke dinon mein niDarta ki chhavi bana rakhi thi. ye agar chali gai, to koi bhi bheD vala hamare khet mein ghus kar phasal barbad kar sakta tha. hum usko rok bhi nahin sakte. parivarik chinta khaye ja rahi thi. pitaji ne mujhe is chinta se avgat karaya. mujhe bhi apne pita ki tarah ek sima ke baad Dar nahin lagta. usi samay jodhpur mein reDiyo aur tep rikaurDar aa gaya tha aur donon ek hi set mein milne lag ge the. mainne apne ek parichit se ek din ke liye wo set manga. ek kaiset kharidi aur chacha raychand ji ke paas reDiyo bajate bajate gaya. phir reDiyo band kiya aur tep chalu kar di. hamare paas ab sabut ho gaya. shaam ko aupacharik roop se gaanv ki baithak bulai aur mainne wo tep suna di. gaanv mujh se Dar gaya. aur man hi man mujhe ek khatarnak vyakti manne laga. ab kya bevaqufi ki thi. socho. aaj ke dabang hote to mujhse reDiyo chhinkar toD dete aur mere do thappaD markar bhaga dete, to main kya karta? aise pavitra vichar us samay mere man mein bhi nahin aaye, to raychand chacha ke kaise aate. parantu koi bhi ye nahin chahta tha ki ye jhagDa yahin sulat jaay. log raychand ko bhi sidha hote hue dekhana chahte the. raychand chacha dabangii ke mooD mein the. jo bhi ho. main nagaur kachahri pahuncha, mainne puchha ki yahan ka palkivala vakil kaun hai? halanki vahan mere thoDi door ke phupha hemsinh chaudhari bhi the. mainne unse baat nahin ki. gaanv ke log unhen tatasth kar sakte the. shivram joshi ko vakil kiya. unhonne sirf puchha ki phaujdari ya divani? divani mukadma hua. phees nahin puchhoge? 50 rupe. pharabisganj ki tarah adalat mein dhoom machi. kai dinon tak is muqadmen ne gaanv ki boriyat door ki. kai dinon mahinon baad nagaur pashu mele mein donon ke sare rishtedar jute aur 150 rupe le dekar mamla khatm hua. pitaji ne baDe sankoch aur garv se mujhe avgat karaya. baad mein mainne apne bhaiyon ko samjhaya ki kabhi mere bharose kisi se jhagDa mat karna. kiya bhi nahin. phir dhire dhire chacha se meri vapis dosti hui aur gaanv ne bhi maan liya ki main khatarnak adami nahin hoon. bas laDna mat. ismen bhi ek kshepak hai. bas antim. gaanv mein is laDai ke dauran mainne sabse sahayata mangi. mularam chacha ko jab kaha to unhonne saaf inkaar kiya aur bole. ve bhakalbole mane jate the. arthat bina soche samjhe khatak bol dene vale. bole, tumne ye jhagDa shuru kiya, tab mujhse puchha? mainne kaha, nahin. tab apne bute se laDo. jo jitega, hum uski chaplusi karenge. hamare liye to ye manoranjan hai. hum to chahte hain ki tum jito. tum jito chahe na jito, raychand bahut akaD mein rahta hai. uska harna achchha lagega. ab dekho, kabhi kabhi thikari bhi ghaDo phoD deve arthat ghaDe ka tuta hua chhota sa hissa thikari (vah main) sabut ghaDe (raychand chacha) ko phoD de arthat hara sakti hai. baharhal hum donon ke alava koi bhi is khel mein shamil nahin hua. hamare liye ye bhale hi jaan jokhim ho, gaanv ke liye ye manoranjan ki baat thi. baharhal gaanv mein traiktar aaya. tyubvel bana aur tab is bheD yug ka ant hua. yahan ye batana bhi zaruri hai ki gaanv mein sabse pahla traiktar in bheD valon ne hi kharida. is parivartan se gaanv mein bahut badlav hue. sabse baDi baat ki gaanv se kaun khatm ho gai.
ab thoDi si charcha kaun ki kar lete hain. is kaun ko aap alav samjho. ye kaun mere ghar ke bahar ke chabutre par baba ghasiram ji lagate the. jab tak ve jivit rahe tab tak sardiyon mein shaam chhah baje ye prajvalit ho jati thi. chabutri to hamare makan se juDi hui thi, parantu is kaun ke karan ye baba ki ho gai. pitaji ne kabhi etraaj nahin kiya. iske saath hukka aur chilam chalti thi. chaay aur biDi ka tab tak avishkar nahin hua tha. hukka thoDa rais tha. uske nakhre bahut the, isliye aramadayak chilam chalti thi. biDi sanskari nahin thi. biDi mein vyaktivad tha. chilam apni prkriti mein samajik thi. akela adami kam pita tha. biDi pi sakta tha. isliye bhi yahan par chilam chalti thi.
ye wo zamana tha, jab sardiyon mein sab berojgar rahte the. shaam ko sab ghar se kha pikar aa jate aur apni kahte aur dusron ki sunte. koi samuhik samasya hoti, uska bhi niptara ho jata. yahan ki charcha pure gaanv mein phail jati aur manya ho jati. yuva yahan aate, to chup rahte aur tamiz sikhte. ye sab sanskriti hal bail ki kheti ka ang thi. jab hal bail parajit ho ge aur traiktar aur tyubvel puri tarah chha ge, tab is kaun sanskriti ka lop ho gaya. tab gaanv mein sharab ka agaman ho paya. sharab ke agaman ke poorv chaay aur biDi ka agaman hua. ab chilam puranepan ka pratinidhitv karne lagi, usi tarah jaise nai nai karon ke padarpan ke baad ambesDar kaar lagne lagi thi. vaise ajkal shaam aath baje ke baad gaanv mein kisi ko phon nahin karna chahiye. gaanv bahut viksit ho ge hain. mujhe is ne gaanv ke bare mein kuch nahin kahna. aur is sharab ke saundarya ke bare mein bilkul nahin kahna.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।