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राष्ट्रवादी कवि सोहनलाल द्विवेदी

rashtravadi kavi sohanlal dvivedi

अमृतलाल नागर

अन्य

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अमृतलाल नागर

राष्ट्रवादी कवि सोहनलाल द्विवेदी

अमृतलाल नागर

और अधिकअमृतलाल नागर

    जिस तरह छायावादी काव्यधारा की चतुष्टयी बखानते हुए पंत, निराला, प्रसाद और महादेवी वे नाम लिए जाते है, उसी तरह यदि राष्ट्रवादी कवि चतुष्टयी का चुनाव किया जाए तो गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' (त्रिशूल), माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त और मोहनलाल द्विवेदी के नाम ही हमारे सामने आएँगे। यो तो प्रायः हर कवि ने कमोवेश राष्ट्रवादी कविताएँ भी उस काल मे रची थी, पर जिन कवियों ने विशेष रूप से अपने-आपको राष्ट्रवादी काव्या-आंदोलन के प्रति ही उत्सर्ग किया था उनका एक इतिहास यदि अलग से लिखा जाए तो ऐसे बहुत-से प्रभावशाली, किंतु अब भूले बिसरे कवियो के नाम हमारे सामने आएँगे, जिन्होंने उस काल की जन-चेतना का निर्माण किया था। ऐसे कवियों में माधवशुक्ल का सुनाम भी मेरी स्मृति मे इस समय सादर उभर रहा है। उस समय इन स्वनामधय राष्ट्रवादी कविया में सोहनलाल जी हर तरह से नए थे। उनका काव्य-व्यक्तित्व दरअसल राष्ट्रवादी और छायावादी गंगा यमुना का संगम तीर्थ है। इसीलिए स्वाधीनता-संग्राम-काल में आयोजित होने वाले कवि-सम्मेलनों के मंच पर अवतरण होने पर सोहनलाल द्विवेदी का स्वागत ऋतु-नायक के समान हुआ था। मेरा ख़याल है, बहुत से लोग मेरे साथ-साथ इस बात की गवाही देंगे कि उस ज़माने में पंडित सोहनलाल जी द्विवेदी के बिना एक तो कोई बड़ा कवि सम्मेलन हो ही नहीं सकता था, और यदि होना भी तो ऐसे ही लगता जैसे बिना नमक की दाल।

    या तो आज भी जिस कवि सम्मेलन में सोहनलाल जी पहुँच जाते है उसकी शोभा ही न्यारी हो जाती है, पर उस ज़माने की बात कुछ और भी न्यारी थी। उन दिनों वह कवि-सम्मेलन के 'राइज़िग स्टार' (उगन सितार) थे—जैसी ओजस्वी उनकी कविताएँ वैसी ही वाणी और वैसा ही आकर्षक उनका व्यक्तित्व।

    हाथ एक शस्त्र हो।

    साथ एक अस्त्र हो।

    अन्न, नीर, वस्त्र हो।

    हटो नहीं, डटो वहीं,

    बढ़े चलो बढ़े चलो।

    कवि के साथ पंडाल में उपस्थित हज़ारों श्रोताओं के सम्मिलित स्वर मिलकर सारे आलम को गुंजा देते थे, 'बढ़े चलो बढ़े चलो'। गाँधी के प्रति यों तो उन्होंने इतना लिखा है कि वे गाँधी के चारण कहे जाने लगे परंतु शायद उनकी दाड़ी-यात्रा के अवसर पर लिखी गई मोहनलाल भाई की कविता—'चल पड़े जिधर दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर'—उस काल में गली-गली में गूँजा करती थी। 'किसान' कविता ने भी ख़ूब समा वाधा था। आंदोलन-काल में राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा देने में कविवर मोहनलाल द्विवेदी का महत्त्व किसी भी राष्ट्रनायक से कम नहीं है।

    व्यक्तिात रूप में कविवर से परिचय होने का सौभाग्य मुझे सन् '37 या '38 से पहले मिल सका था। उन दिनों लखनऊ में एक राष्ट्रवादी विचारधारा के दैनिक पत्र 'अधिकार' के प्रकाशन की योजना कार्यांवित हो चुकी थी। आर्यनगर में डी०ए०वी० कॉलेज के पास एक विशाल भवन में प्रेम और कार्यालय स्थापित हो चुका था। और संपादक के पद पर श्री मोहनलान द्विवेदी के प्रतिष्ठित होने की बात सुनी जा चुकी थी। उन दिनों मैं भी 'चकल्लस' साप्ताहिक प्रकाशित कर रहा था। स्व० नरोत्तम नागर मेरे साथ उसके संपादक थे। एक दिन सवेरे आकर उन्होंने कहा, 'सोहनलाल द्विवेदी वे संपादक होने की बात सच थी, वे गए। मैं उनसे मिलने जा रहा हूँ, चलोगे? राज़ी होने में मुझे देर लगी। 'अधिकार' कार्यालय में पहुँचने पर पता चला कि अभी-अभी तो यहीं थे। आते होंगे। हम लोग बैठकर उनकी प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर बाद ऊबकर फिर पूछताछ प्रारंभ की। व्यावहारिक में लगने वाले मैनेजरनुमा व्यस्त सज्जन ने मुस्कुराकर कहा, उनके बारे में भला क्या कहा जा सकता है। कविराज ठहरे। आप लोग बैठना चाहे तो बैठें, वरना नाम-पता लिखकर दे जाएँ, मैं उन्हें दे दूँगा। नरोत्तम उनके नाम एक पत्र लिखकर रख आए।

    दूसरे दिन सवेरे साढ़े आठ-नौ बजे के लगभग एक नेताछाप सज्जन हमारे घर पधारे। पहचानते देर लगी, एक कवि सम्मेलन में और कई बार प्रकाशित चित्रों में देखा हुआ चेहरा था। नेताई पोशाक में भी कवि की अलमस्ती छिपाए छिपती थी। उनसे मिलकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ। नरोत्तम जी पास ही में रहते थे, उन्हे भी बुलवा लिया गया। घंटे-डेढ़ घंटे के साथ मे हम विराने से अपने बन गए।

    कुछ समय के बाद साहित्य-वाचस्पति रायबहादुर (तत्कालीन रायसाहब) पंडित श्रीनारायण जी चतुर्वेदी के घर पर द्विवेदी जी से फिर मिलने का अवसर मिला। उन दिनों भैया साहब (चतुर्वेदी जी) शिक्षा प्रसार अधिकारी थे और आर्यनगर में रहते थे। उनका दरबार साहित्यिकों का ज़िंदा अजायबघर था। कभी-कभी मैं भी वहाँ चला जाता था। डॉ० रामविलास शर्मा भी जाया करते थे। सच पूछा जाए तो भैया साहब के यहाँ ही मुझे सोहनलाल जी से मिलने के अवसर अधिक मिले। वैसे हम दोनो की दुनिया काफ़ी अलग-अलग थी। सोहनलान जी उन दिनों हीरो थे। अपने भक्तों ही से उन्हे अवकाश नहीं मिलता था। बड़े-बड़े भक्तगण उन्हें बड़े-बड़े प्रेमोपहार दिया करते थे। भैया साहब ने उन पर एक तुकबंदी भी रची थी, जो शायद इस प्रकार थी : पंडित सोहनलाल द्विवेदी, किसने तुमको टोपी दे दी, किसने तुमको धोती दे दी? ऐसे में हमारा उनका अधिक साथ भला क्योंकर होता, फिर भी काव्य-प्रेमी होने के नाते उनकी प्रकाशित रचनाएँ मुझे सदा उनके निकट ही लाती रही। उनकी 'वासवदत्ता' का मैं बड़ा आशिक हूँ। उनकी 'विमान' कविता भी मुझे आज तक प्रिय लगती है। जिन दिनों कविवर की यह कविता धूम मचा रही थी, मैंने उसकी एक पैरोडी भी लिखी थी। उसकी कुछ प्रारंभिक पंक्तियाँ अब तक याद हैं।

    यह सजे सजाए रूप हाट,

    जिसमें आते सय, बने, लाट।,

    कुछ कोट और पतलून डाट,

    कुछ अचकन से निज बना ठाठ।

    कोठे, जिन पर टिकती निगाह,

    कोठे, जिन पर बैठती आह।

    चंचल नैयनों में भर अथाह

    मद, देख जिन्हें उठते कराह।

    ये पलंग और ये पानदान,

    ये पीकदान, ये पंचवान,

    ये तस्वीरें, सिंगारदान,

    तबला सारणी, अम्माजान।

    यह तेरी हड्डी पर जवान।

    यह तेरी पसली पर जवान।

    एक बार भैया साहब के घर पर जब कविवर ने बड़ी मनुहार के बाद भी अपनी कविताएँ सुनाई तो हमने अपनी पैरोडी सुनाना आरंभ कर दिया था। ख़ूब हँसी हुई, वहाँ आनंद आया। पैरोडी सुनने के बाद कविवर ने हँसकर कहा, 'ऐ बच्चू, अगर तुमने किसी कवि सम्मेनन में यह पैरोडी सुनाई तो याद रखना, मैं तुम्हारी ही छड़ी से तुमको वही ठोकना शुरू कर दूँगा। मैंने कहा, यदि कभी ऐसा अवसर मिला तो सुनाने से हरगिज़ चूकूँगा। आपके इस नाटक से जनता का डबल मनोरंजन होगा और मेरी पैरोडी अमर हो जाएगी। दुर्भाग्यवश तब में अब तक मेरी उम्र पैरोडी को अमर होने का अवसर ही नहीं मिल सका। उसे कहीं छपने का अवसर भी नहीं मिला। क्योंकि 'चकल्लस' के अतिरिक्त मैंने अपनी पैरोडिया अन्यत्र कही प्रकाशित नहीं कराई और 'चल्लस' का प्रकाशन तब तक बंद हो चुका था। उसकी पांडुलिपि भी अब शायद खो चुकी है। ख़ैर, मुझे ग़म नहीं क्योंकि मेरी वह तुकबंदी तो मौक़े का एक मनोरंजन मात्र ही थी। मूल कविता 'किसान' अमर है। आज भी कविवर सोहनलाल जी द्विवेदी की यह कविता मुझे पुराने दिनों के समान ही प्रभावित करती है। वैसी ही नई लगती है :

    ये बड़े-बड़े साम्राज्य, राज युग-युग से आते चले आज।

    ये सिंहासन, ये तख़्तताज, ये क़िले दुर्ग गढ़, शस्त्र साज।

    इन राज्यों की इंटें महान् इन राज्यों को नींवें महान्।

    इनकी दीवारों की उठान, इनकी प्राचीरों को उड़ान।

    वह तेरी हड्‌डी पर किसान, वह तेरी पसली पर किसान।

    वह तेरी आतों पर किसान, नस को तातों पर रे किसान।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जिनके साथ जिया (पृष्ठ 123)
    • रचनाकार : अमृतलाल नागर

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