नई दिल्ली के कनॉट प्लेस में रीगल सिनेमा और गेलार्ड, खादी ग्रामोद्योग के ठीक दाहिने कोने पर, संसद मार्ग के बाएँ कोने पर और जीवन भारती भवन के सामने बाईं दिशा में कभी यानी आज से साढ़े चार दशक पहले साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धजीवियों, राजनेताओं का एक अड्डा टी हाउस के नाम से हुआ करता था। आज वहाँ खादी ग्रामोद्योग भी है, रीगल है, स्टैंडर्ड रेस्तराँ है, गेलार्ड है, मगर टी हाउस नहीं है। अगर कुछ है तो एक छोटा-सा ज़मींदोज़ रेस्तराँ ‘सैलर’ है, गारमेंट्स का कोई शोरूम है।
फिर भी टी हाउस लोगों के ज़ेहन में यादों की परतों में लिपटा हुआ अभी भी मौजूद है- उसी तरह चहकता हुआ, उसी तरह ठहाके लगाता हुआ, उसी तरह बहसता हुआ। यह टी हाउस एक ज़माने में कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों, पत्रकारों, राजनेताओं का मक्का-मदीना और काबा-काशी रहा है। यह अपनी बैठकबाज़ियों, साहित्य चर्चाओं और मेल-मुलाकातों के साथ हँसी-ठहाकों की एक जीवंत महफिल बना रहा करता था। ज़रूरी नहीं था कि वहाँ कोई जाए और चाय-कॉफी ज़रूर पिए या कुछ खाए। यहाँ ऐसी किसी किस्म की पाबंदी नहीं थी। हाँ, इतना ज़रूर था कि जब मोहन राकेश, रामकिशोर द्विवेदी, रवींद्र कालिया, श्याममोहन श्रीवास्तव के छत-फाड़ ठहाके समूचे टी हाउस को गुंजाएमान कर दिया करते थे और आसपास की मेज़ों पर बैठे हुए लोग चौंक जाया करते थे, तब मैनेजर किसी बैरे के हाथों चिट भिजवाकर थोड़ा शांत रहने का निवेदन अवश्य कर दिया करता था।
टी हाउस को याद करना दिल्ली में अपने शुरुआती जीवन के गाते-गुनगुनाते, हँसते-मचलते, उदास और ख़ुश दिनों को याद करना है। हमारा कोई दिन ऐसा नहीं होता था, जिसकी शाम टी हाउस में न बीतती हो। चाहे दस मिनट को ही जाएँ, टी हाउस जाते ज़रूर थे।
टी हाउस की यादों का यह सिलसिला सन् साठ की गर्मियों से शुरू होता है। उन दिनों मैं अपने परम आत्मीय मित्र, प्रख्यात लेखक एवं छायाकार ब्रह्मदेव की सिफ़ारिश पर दिल्ली प्रेस में नौकरी पा गया था और ‘सरिता’ में काम करने लगा था। दफ़्तर से छूटते ही हमारे क़दम टी हाउस की तरफ़ बढ़ जाते थे। झंडेवालान से बस पकड़ कर सीधे टी हाउस पहुँचना हमारा नित्य कर्म था। उस समय दिल्ली परिवहन की बस लगभग दस पैसे वसूलती थी। बहुत जल्दी होती तो तिपहिया पकड़ लेते थे। उसका किराया होता था मात्र पचास-साठ पैसे।
‘सरिता’ में अरविंद कुमार, राजेंद्र अंजुम, ईश्वर सिंह बैस और मनहर चौहान थे और ये सब प्रायः टी हाउस आया करते थे। हमारे वरिष्ठ साथी स्वदेश कुमार और चंद्रमा प्रसाद खरे टी हाउस में बहुत कम आते थे। वे टी हाउस आने-जाने वालों को विशेष पसंद भी नहीं करते थे। उनका शौक़ तो ‘सरिता’ कार्यालय में व्यवस्था देखना, संपादकीय काम करना और सीधे घर की ओर प्रस्थान कर जाना था। खरे जी डब्ल्यू.ई.ए में रहते थे। शुरू में मैंने भी वहीं एक सरदारनी जी के मकान में किराए का कमरा ले लिया था।
एक दिन खरे जी उस जगह आए तो उन्होंने उस छोटे-से कोठरीनुमा कमरे से मुझे निजात दिलाई और अपने ही मकान में ऊपर का एक छोटा सा-कमरा दिलवा दिया, जो बेहतर था। इस तरह हम दोनों लगभग चौबीस घंटे के साथी बन गए।
इसी मकान के एक हिस्से में शायर मनमोहन तल्ख़ भी रहा करते थे। उनकी नई-नई शादी हुई थी और तल्ख़ साहब गाहे-बगाहे हम दोनों कुआँरों को भोजन के लिए आमंत्रित कर दिया करते थे। तल्ख़ साहब ‘उर्दू सरिता’ के संपादकीय विभाग में थे और वह भी अपने अदीब दोस्तों से मिलने टी हाउस आ जाया करते थे।
टी हाउस बहुतों के लिए सायंकालीन बैठकों का अड्डा था, तो कुछ के लिए बाकायदा संपर्क स्थल। कविवर देवराज दिनेश अपने समस्त अतिथियों को टी हाउस बुला लिया करते थे। कवि सम्मेलनों के अधिकांश संयोजक दिनेश जी से टी हाउस आकर ही संपर्क कर लिया करते थे। दिनेश जी का पक्का अड्डा था टी हाउस। कभी-कभी उनकी डाक भी इसी पते पर आ जाती थी। कवि सम्मेलन से लौटते तो टी हाउस में हाज़िरी अवश्य लगा जाया करते। कवि सम्मेलन में जाते तो रात की गाड़ी होने पर वह भी अपनी अटैची दिन में ही लाकर टी हाउस में रख देते और गाड़ी का समय होने पर स्टेशन के लिए निकल पड़ते।
दिनेश जी के अनेक कमउम्र मित्र उन्हें दद्दा कहकर पुकारते थे, जिनमें रामानंद दोषी, रामावतार त्यागी, रमानाथ अवस्थी, रामकिशोर द्विवेदी, श्याम मोहन श्रीवास्तव, हरीश्वर प्रसाद सिन्हा, सुरेंद्र मल्होत्रा, सुदर्शन चोपड़ा, भीमसेन त्यागी और दर्जनों लोग शामिल थे। सभी मित्र दद्दा को घेरकर बैठ जाया करते और भाँति-भाँति के कवि सम्मेलनों और आकाशवाणी के आयोजनों के संस्मरण मुग्ध भाव से सुनते-सुनाते थे और बीच-बीच में दिनेश जी अपने लिए ‘देवताओं का राजा’ का स्व-संबोधन उच्चार लिया करते थे।
‘देवताओं का राजा’ की मेज़ पर जमा लोग आमतौर पर दिनेश जी को ही सुनते थे। वाक्यांश समाप्त होने पर दिनेश जी अपना दाहिना हाथ कभी इस श्रोता और कभी उस श्रोता की ओर बढ़ा दिया करते थे। श्रोताओं से दाद पाने का यह उनका अंदाज था। उनकी अनेकानेक टिप्पणियों पर ठहाके लगाते हुए कॉफ़ी या चाय की चुस्कियाँ लेते हुए साहित्यिक हंगामों पर चर्चाएँ चलती रहतीं। कभी-कभी किसी दूरस्थ कस्बे या छोटे शहर से आए युवा साहित्यकार के लिए काम-धंधे की तलाश भी इन उपस्थितों के क्रियाकलापों में शामिल हुआ करता था।
‘सारिका’ से चंद्रगुप्त विद्यालंकार के सेवानिवृत्त होने के उपरांत मोहन राकेश को संपादक बनाया गया था। राकेश ने ‘सारिका’ के लिए एक कहानी प्रतियोगिता का आयोजन किया। देश भर के सैकड़ों कथाकारों ने इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था। परिणाम की प्रतीक्षा हो रही थी। फिर प्रतीक्षा की घड़ियाँ भी समाप्त हुई और परिणाम आ गया।
टी हाउस के माहौल में आनंद, विस्मय और अठखेलियों की गरमी आ गई। उस समय के युवा कथाकार मनहर चौहान की कहानी ‘घर घुसरा’ को प्रथम पुरस्कार घोषित हुआ था। दूसरे नंबर पर आई थी दूधनाथ सिंह की कहानी ‘बिस्तर’। लेकिन तीसरे स्थान पर जो कहानी आई थी उसका नाम था ‘घो घो घोड़ा’। इसके रचनाकार थे कवि, साहित्यकार और ‘तार सप्तक’ के कवियों में एक भारत भूषण अग्रवाल। मस्तमौला, हँसमुख, चुटीले भारत जी से होड़हाड़ करने का मानो सभी को मौका मिल गया। भारत जी अपनी अनूठी काव्य शैली के लिए तो प्रसिद्ध थे ही, उन्होंने तुक्तक भी ख़ूब लिखे थे। ‘काग़ज़ के फूल’ पुस्तक में सिर्फ़ उनके तुक्तक ही संकलित किए गए हैं।
अब क्या था, टी हाउस में सबसे ज़्यादा चर्चा भारत जी को तृतीय पुरस्कार मिलने की ही थी। शायद इसलिए और भी कि इतना बड़ा लेखक युवा पीढ़ी के सामने फिसड्डी साबित हो गया। टी हाउस के बाहर की रेलिंग के सामने मित्रों का जमावड़ा था। राजीव सक्सेना, श्याम परमार, श्याम मोहन श्रीवास्तव, हरीश्वर प्रसाद सिन्हा ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि भाई, इस सुअवसर को यों ही न निकल जाने दीजिए। कुछ हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है, वे मुझसे कुछ व्यंग्य-विनोद कर डालने की फ़रमाइश कर रहे थे। मैंने वायदा किया कि कल मिलते हैं और कुछ कर डालने की कोशिश करते हैं।
अगले दिन शाम को निश्चित समय पर मित्र-मंडली जुटी तो एक तुक्तक मैंने इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया :
घटना है बड़ी एब्सर्ड एक
हैं हमारे मित्र लेखक फ़ारवर्ड
बरसों से लिखते हैं
सभी जगह दिखते हैं
गल्प प्रतियोगिता में प्राइज मिला थर्ड !
राजीव भाई तुक्तक सुनकर उछल पड़े, श्याम मोहन ने दाद दी, हरीश्वर सिन्हा मुँह में पान दबाए मुस्कुराए और हम सब लोग इस तुक्तक को भारत जी तक पहुँचाने के लिए मचलने लगे।
संयोग से यह अवसर भी आ गया। उन्हीं दिनों चिरंजीत जी ने सरोजनी नगर में एक कवि सम्मेलन कराया, जिसकी अध्यक्षता बच्चन जी ने की। भारत जी, भवानी भाई, रामावतार त्यागी, बालस्वरूप राही सहित अनेक कवि मंच पर मौजूद थे। अनेक मित्रों तक तुक्तक की ख़बर पहुँच चुकी थी, मगर भारत जी इससे पूरी तरह बे-ख़बर थे।
मेरी बारी आई तो रामावतार त्यागी ने तुक्तक सुनाने की फ़रमाइश कर दी। भारत जी अपनी विधा की रचना सुनने को बेताब हो गए तो मैंने भी सहज भाव से उक्त तुक्तक सुना दिया। सभी लोग मुदित-प्रफुल्लित हुए, मगर सर्वाधिक आनंदित होने वालों में भारत जी ही थे। उन्होंने गद्गद भाव से मुझे गले लगा लिया। इतना ही नहीं, ‘काग़ज़ के फूल’ की प्रति भेंट करते हुए लिखा- ‘मेरी तुरुप मुझी पर मारने वाले शेरगंज को।’
यह किस्सा यहीं ख़त्म नहीं हो गया। भारत जी के व्यक्तित्व में सहज उल्लास और माधुर्य था। मैंने उन्हें जब भी पाया, हँसते-खिलखिलाते हुए पाया। मिलते थे तो घर पर भी ज़रूर बुलाते थे। मगर लापरवाही के कारण मैं कभी उनके घर पर नहीं जा पाया। जब भी मिला, साहित्य अकादमी के दफ़्तर में अथवा किसी आयोजन में ही उनसे मिला।
एक दिन की बात है। किसी कारणवश मंडी हाउस की तरफ़ जाना हुआ। कनॉट प्लेस जाने के लिए बस स्टॉप पर खड़ा था। देखा, रवींद्र भवन की ओर से अज्ञेय जी, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र और भारत जी आ रहे हैं। ये चारों भी वहीं बस स्टॉप पर खड़े हो गए। बस आई और हम पाँचों एक ही बस में सवार हो कर कनॉट प्लेस की ओर चल पड़े। हमें रीगल पर उतरना था। हम लोग जीवन भारती भवन के ठीक सामने उतर गए। तब यह भवन बना नहीं था और सपाट मैदान था। यहाँ प्राय: राजनीतिक मीटिंगें हुआ करती थीं। उस समय के अनेक नेताओं के व्याख्यान मैंने वहाँ सुने थे। राममनोहर लोहिया, पृथ्वीराज कपूर के व्याख्यानों की धुँधली-सी याद अभी भी है।
ज्यों ही हम पाँचों बस से उतरे, भारत जी ने मुझे भी रोक लिया, बाक़ी लोग तो उनके साथ थे ही। भारत जी ने मेरा परिचय कराया, तो सभी ने पूर्व परिचित होने का भाव दर्शाया। फिर भारत जी ने विशेषतः अज्ञेय जी को संबोधित करते हुए कहा, “इन्होंने मुझ पर एक मजेदार तुक्तक लिखा है! सुनाने का अनुरोध करने लगे।”
देखते ही देखते हम पाँचों बस स्टॉप से थोड़ा खिसककर खड़े हो गए। जब मैंने वह तुक्तक अपने वरिष्ठ जनों के सामने दोहरा दिया तो चारों एक साथ हँस-मुस्करा दिए और मैं टी हाउस की ओर प्रसन्न मुद्रा में बढ़ गया। टी हाउस जाकर जब यह ताज़ा प्रसंग रवींद्र कालिया को सुनाया तो उसने यह ऐलान तत्काल कर दिया, आज अज्ञेय जी भी मुस्कराए थे। अज्ञेय जी के गंभीर स्वभाव से सब परिचित थे और उन्हें हँसने, मुस्कराने और ठहाके लगाने वालों की श्रेणी में नहीं रखा जाता था।
विष्णु प्रभाकर, देवराज दिनेश, रमेश बक्षी, मुद्राराक्षस, रमेश रंजक, सुदर्शन चोपड़ा, जगदीश चतुर्वेदी और रवींद्र कालिया आदि के समान रमेश गौड़ भी टी हाउस के स्थायी स्तंभ थे। वह प्रायः हर शाम अपनी छरहरी देह, व्यवस्थित दाढ़ी और एक हाथ में कोई पुस्तक, सिगरेट का पैकिट थामे टी हाउस में प्रवेश करते और अधिकांश बैरों को हलो करते, आस-पास की मेज़ों पर बैठे हुए लोगों से हाथ मिलाते हुए किसी भी मेज़ पर बैठ जाया करते थे। उनके बैठने की कोई निश्चित मेज़ नहीं थी। कभी कुछ देर के लिए कहीं जम जाते तो कुछ देर के लिए कहीं ओर। हर जगह अपनी चुहलबाज़ी से सबको बाँधे रखते।
एक बार तो उन्होंने वहाँ पधारे नामवर जी को कुछ इस अंदाज़ में न्योता दे दिया था, “आइए, आचार्य प्रवर! इस वक़्त हमारे पास आपके लिए केवल चाय ही है।” मानो इसके अलावा वह नामवर जी को कुछ और भी पेश करते रहे हों। नामवर जी प्रत्युत्तर में मात्र मुस्कराए थे और किसी अन्य मित्र के साथ बातचीत में व्यस्त हो गए थे।
रमेश गौड़ छोटी-छोटी साहित्यिक गोष्ठियों के माध्यम से साहित्य की दुनिया में प्रविष्ट हुए थे। यहाँ तक कि बड़े-बड़े साहित्यिक आयोजनों, आंदोलनों से किसी-न-किसी रूप में जुड़ते रहे थे। लाल क़िले के कवि सम्मेलन, दूरदर्शन के आयोजनों में अपनी पैठ बनाकर ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादकीय विभाग से जुड़ गए थे। संपर्क बनाने में माहिर थे और ज़ाहिर तौर पर बड़ी विशाल मित्र-मंडली के सदस्य थे। दूर की हाँकने में उनका सानी नहीं था। दूसरे की प्रशंसा करने पर आमादा हो जाते तो उसे चने के झाड़ पर चढ़ा देते और अपने बारे में कुछ ऐसे क़िस्से गढ़ लिया करते थे जिनका अस्तित्व इस धरा-धाम पर कभी रहा ही नहीं। मेरे उनके साथ प्रायः बहुत आत्मीय संबंध रहे, जिनमें विनोद, चुहल सदैव मौजूद रहे।
टी हाउस में एक शाम की बात है। बिल्कुल अलग मेज़ पर रमेश गौड़ कुछ-कुछ गर्वित और कुछ-कुछ हताश-उदास मुद्रा में बैठे थे। उनके सामने की मेज़ पर चमकते पैक में एक मँझले आकार की डिबिया-सी रखी थी। डिबिया इस अंदाज़ में रखी थी कि आने वाला उसे एकदम देख ले और फिर पूछ भी ले तो क्या कहना। मैं भी पूछ बैठा, “रमेश भाई, इस डिबिया में क्या लाए हैं?” बोले, “अरे भाई शेरजंग! क्या बताऊँ! एक विदेशी प्रशंसिका ने मेरे लिए इलेक्ट्रिक शेवर भिजवाया है। चलो, यह तो ख़ुशी की बात हुई। मगर इसकी ड्यूटी भरने में मेरे बहुत रुपए ख़र्च हो गए।” शायद प्रशंसिका ने इशारतन दाढ़ी बनाने के लिए सुझावस्वरूप यह शेवर भेजा था। मैंने सहानुभूति जताते हुए कहा, “यह तो लेने के देने पड़ जाने जैसा मामला हुआ। मगर एक आइडिया है। “वह क्या?” रमेश ने प्रफुल्लित भाव से पूछा। मैंने सुझाया, “एक काम करो। जब तक चुकाई गई ड्यूटी की राशि वसूल न हो जाए, तुम इस शेवर से दूसरों की दाढ़ी बनाओ और पैसे वसूल करो।” सुनते ही रमेश पहले तो चौंका, फिर खिलखिलाते हुए हँस पड़े और गले लग गए।
हम लोगों की मित्र-मंडली में कथाकार सुरेंद्र कुमार मल्होत्रा (जो बाद में सफल प्रकाशक बन गए) का जलवा कुछ अलग किस्म का था। अतिरिक्त रूप से स्वस्थ थे सुरेंद्र, इसलिए किंचित स्थूलता की ओर अग्रसर थे। खाने-पीने के शौक़ीन थे और एक स्थापित कहानीकार के रूप में उनकी छवि बननी शुरू हो गई थी। पैतृक व्यवसाय प्रकाशन का था, मगर विश्वविद्यालीय जीवन में कहानी लिखने का चस्का लग गया था। बताते थे कि उनकी कहानियों की प्रशंसा डॉ. नगेंद्र ने भी की है।
उनकी महत्त्वाकांक्षा का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन दिनों मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर को अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वियों के रूप में देखते थे और व्यक्तिगत मुलाकातों में इस त्रयी की कथा राजनीति की आलोचना किया करते थे। उन्हें इस बात का मलाल भी था कि उनके घनिष्ठ मित्रों में रामावतार त्यागी, बालस्वरूप राही और शेरजंग गर्ग केवल कवि थे, अन्यथा वह भी अपनी चौकड़ी बना सकते थे। ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में अक्सर छपते थे। कभी मुंबई जाना होता तो एकाध कहानी ‘धर्मयुग’ के लिए धर्मवीर भारती को भी दे आते थे। बताते थे कि भारती जी अपने मित्र हैं और उनके लेखन से बहुत प्रभावित हैं।
इसी बीच धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ में ‘कुछ तीर कुछ तुक्का’ शीर्षक से एक हास्य-विनोद की घटनाओं का स्तंभ प्रारंभ कर दिया, जिसमें सुरेंद्र कुमार मल्होत्रा ‘सुकुम’ के संक्षिप्त नाम से लतीफे भिजवाने लगे। इस कारण सुरेंद्र का टी हाउस में नियमित रूप से आना और ज़रूरी हो गया। उन्हें ‘धर्मयुग’ में भेजने के लिए लतीफ़े चाहिए थे और टी हाउस में रोज़ाना दो-चार ऐसी घटनाएँ घट ही जाया करती थीं, जिन्हें ‘धर्मयुग’ में प्रकाशनार्थ भिजवाया जा सके। सुरेंद्र के अलावा ‘निशिकांत’ के नाम से राजेंद्र श्रीवास्तव ‘प्रदीप’ ने भी अच्छा नाम कमाया। बाद में ब्रजराज तिवारी ‘अधीर’ और प्रदीप पंत के साथ प्रायः टी हाउस आते थे। ‘प्रदीप’ निहायत संकोची थे, मगर बड़ी चतुराई से लतीफ़ों की सामग्री निकाल लिया करते थे।
निशिकांत अपने द्वारा प्रेषित एक कमलेश्वरी लतीफ़े के कारण रातों-रात ख्याति पा गए थे। ‘धर्मयुग’ में जब यह प्रेषित किया गया तो छपने से पहले ही टाइम्स ऑफ़ इंडिया, बंबई में धूम मच गई। भारती जी सीधे ‘सारिका’ में कमलेश्वर केबिन में पहुँचे और दोनों मित्र हँसी से लोटपोट हो गए। बात यह थी कि कमलेश्वर ‘नई कहानियाँ’ का संपादकीय भार भीष्म जी को सौंपकर ‘सारिका’ में संपादक बनकर जा रहे थे। दिसंबर का महीना था, कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। स्टेशन पर कमलेश्वर को विदाई देने के लिए तब के अनेक युवा कथाकारों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। कमलेश्वर ओवरकोट पहनते थे। युवा कथाकार उनसे गले मिलते और धीरे से अपनी एक कहानी ओवरकोट की जेब में डाल देते। जेब भारी और मोटी होती जा रही थी और कमलेश्वर की हालत पतली। वह कहानियों के बोझ से दबे जा रहे थे। ठीक उसी समय भीष्म साहनी स्टेशन पर दिखाई दिए। कमलेश्वर ने पहले तो भीष्म जी से हाथ मिलाया, फिर बंबई के मौसम का मिज़ाज पूछने लगे। भीष्म जी ने बताया, वहाँ इतनी सर्दी नहीं पड़ती, मौसम सुहावना रहता है। कमलेश्वर ने मौक़े का फ़ायदा उठाया और वह ओवरकोट उतारकर भीष्म जी के कंधों पर डाल दिया। और इस तरह कमलेश्वर ओवरकोट के बोझ के साथ-साथ कहानियों का बोझ भी भीष्म जी के कंधों पर डालकर गाड़ी में जा बैठे। गाड़ी चल पड़ी और युवा कथाकार ‘कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे’ के अंदाज़ में खिसकती हुई गाड़ी को देखते रहे। यह मनगढ़ंत लतीफ़ा जब ‘धर्मयुग’ में छपा तो इसकी बुनावट, निरंतरता और तार्किकता ने सभी का मन मोह लिया। जिन युवा कथाकारों के नाम इसमें छपे थे, वे ‘झूठ है, झूठ है’ कहते हुए सफ़ाई देते पाए गए। देश भर में किसी को भी यकीन नहीं हुआ कि यह तो कुछ शरारती तत्वों की कपोल कल्पना थी। विश्वास का एक कारण यह भी था कि कमलेश्वर अपनी हाज़िर-जवाबी के कारण अभूतपूर्व ख्याति अर्जित कर चुके थे।
‘धर्मयुग’ में ‘कुछ तीर कुछ तुक्का’ स्तंभ के प्रकाशन ने समूचे साहित्य जगत में हलचल मचा दी थी। टी हाउस में रोजाना लतीफ़ों की रचना होने लगी थी और इन लतीफ़ों के प्रेषण के लिए ‘सुकुम’ और ‘निशिकांत’ प्रमुख नाम बन गए थे। सुकुम क्योंकि कहानियाँ भी लिखते थे और उनकी कहानियाँ ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपती थीं, इसलिए ‘साप्ताहिक’ के तत्कालीन संपादक बाँके बिहारी भटनागर की मंडली के प्रमुख सदस्यों में थे सुरेंद्र मल्होत्रा। इसके इतर भी कुछ छोटी पत्रिकाओं के संपादक उनसे प्रकाशनार्थ कहानियाँ माँगने लगे थे। अपने भारी-भरकम शरीर के साथ सुरेंद्र कुछ गर्वित, कुछ इठलाते टी हाउस में प्रवेश करते थे तो इधर-उधर कनखियों से देखकर अपनी सीट का चुनाव करते थे। संयोग से उस दिन वह कोई कहानी लिखकर लाए थे और आसपास बैठे अनेक लेखकों में एक लघु पत्रिका के संपादक को देखकर वह बिदककर बाहर निकलने के लिए प्रयत्नशील हो गए। मैंने इतनी जल्दी भाग खड़े होने का कारण पूछा तो सुरेंद्र बोले, “यह संपादक मुझसे बहुत दिनों से कहानी माँग रहा है। मेरे पास आज एक कहानी है। यदि इसे यह बात मालूम होगी तो मुझे कहानी देनी ही पड़ेगी।” मैंने सुरेंद्र को आश्वस्त किया- “चिंता मत करो, सुरेंद्र। उसे भी कुछ ऐसा ही आभास हो गया है। वह तो खुद यहाँ से खिसकने का बहाना तलाश रहा है। शायद उसने तुम्हारी जेब में झाँकते कागजों को देख लिया है।” सुरेंद्र इस विनोद को समझ गया और खिलखिलाकर हँसता रहा।
सरिता की नौकरी छूटी तो मैंने कुछ दिन आत्माराम एंड संस और राजकमल प्रकाशन में ओमप्रकाश जी के लिए काम किया। पंडित क्षेमचंद्र सुमन ने बेकारी के दिनों में मेरी सिफ़ारिश ओमप्रकाश जी से कर दी थी। उन दिनों भी दफ़्तर से छूटते ही सीधे टी हाउस पहुँचने का क्रम बना रहा। तब ब्रजराज तिवारी ‘अधीर’ और प्रदीप पंत नए-नए दिल्ली आए थे। ‘सरिता’ कार्यालय नए-नए पत्रकारों का प्रशिक्षण कैंप था और यदि चंद्रमा प्रसाद खरे उसके आचार्य थे तो विश्वनाथ जी प्रधानाचार्य। विश्वनाथ जी घनघोर परिश्रमी थे और अपने बूते और सूझ-बूझ से पत्रिकाओं का साम्राज्य बढ़ा रहे थे।
वह जमाना था कि आस-पास, दूर-दराज़ के कस्बे-शहरों के युवा लेखक और कविता प्रेमी कवियों-साहित्यकारों से मिलने सीधे टी हाउस पहुँच जाया करते थे। देवराज दिनेश तो नियमित रूप से आते ही थे, वीरेंद्र मिश्र, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, बालस्वरूप राही के अलावा रमेश गौड़, मधुर शास्त्री, रमेश रंजक भी आते थे। कॉलेज, विश्वविद्यालय का कोई कविता प्रेमी छात्र आता तो अपनी आटोग्राफ़ बुक लेकर ही आता था। ऐसी ही एक शाम प्रदीप पंत भी कवियों के बीच बैठे थे और नवागंतुक युवक ने कवियों के आटोग्राफ़ लेने प्रारंभ कर दिए। प्रायः सभी कवि सम्मेलनी कवियों को वह युवक पहचानता था, मगर प्रदीप पंत से वाकिफ़ नहीं था। वह कवि सम्मेलनों में जाते भी नहीं थे। ज्यों-ज्यों गीतकार-कवि आटोग्राफ़ दे रहे थे, प्रदीप की आतुरता बढ़ती जा रही थी। अंतिम तक आते-आते प्रदीप पंत ने भी गुनगुनाना शुरू कर दिया। मैंने प्रदीप के मन का अंदाज़ा लगाया और उस युवक से कहा, “अरे, तुम प्रदीप पंत को नहीं जानते। बहुत अच्छे कवि और कथाकार हैं। पहले इनसे आटोग्राफ़ लो, बाद में मैं दूँगा।” युवक ने आटोग्राफ़ पुस्तिका प्रदीप की ओर बढ़ा दी।
टी हाउस से जुड़ा एक यादगार किस्सा बहुत दिनों तक यार लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा रहा। नाट्य समीक्षक सुरेश अवस्थी उन दिनों केंद्रीय हिंदी निदेशालय में उपनिदेशक थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तत्कालीन शिक्षा मंत्री कालू लाल श्रीमाली को और श्रीमाली जी ने तत्कालीन शिक्षा संयुक्त सचिव रमाप्रसन्न नायक की मार्फत सुरेश अवस्थी को बोलचाल के शब्दों का एक हिंदी-अंग्रेज़ी का जेबी कोश तैयार कराने का आदेश दिया था। मैं और रवींद्र कालिया अवस्थी जी के अधीनस्थ थे और कोश निर्माण में अपना योगदान करते थे। अवस्थी जी निदेशालय से मंत्रालय और मंत्रालय से निदेशालय भाग-दौड़ में लगे रहते थे और शाम को दफ़्तर बंद होने के समय निदेशालय आकर सहयोगियों को इकट्ठा कर लेते थे। कथाकार ख़्वाजा बदीउज्जमाँ, नूर नबी अब्बासी और हरिबाबू वशिष्ठ सहित कालिया और मैं भी मज़बूरन रुक जाया करते थे। हमारा वह समय टी हाउस जाने का होता था। एक दिन हम दोनों ने चलने का संकेत किया तो डॉ. सुरेश अवस्थी ने कह दिया, “इस काम को आप लोग जल्दी-जल्दी निपटा दीजिए। यह मेरे कैरियर का सवाल है।” फिर क्या था! बात चल निकली। हम लोग किंचित विलंब से टी हाउस पहुँचे तो मित्रों ने कारण पूछा। बे-साख्ता दोनों के मुँह से निकल पड़ा, “सुरेश अवस्थी का कैरियर बना रहे थे।”
यह ख़बर जंगल की आग की तरह चारों ओर फैल गई। इसके बाद कोश छपकर तैयार हो गया। अवस्थी जी का कैरियर भी बन गया। वह संगीत नाटक अकादमी के सचिव नियुक्त हो गए। रवींद्र कालिया मौका पाकर धर्मयुग के संपादकीय विभाग में चले गए और इस प्रकरण को याद करके लोग टी हाउस में लंबे अरसे तक ठहाके लगाते रहे।
वास्तव में टी हाउस की यादों की परतें इतनी सघन हैं कि एक याद समेटते हैं तो दूसरी उभर आती है। यादों का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। वास्तविकता तो यह है कि टी हाउस हम लोगों के लिए लगभग दूसरा घर था, दफ़्तर से छूटकर जाने पर बैठकें ज़माने का अड्डा था, दोस्त-मुलाकातियों से भेंट करने की जगह थी, गपशप करने, दुख-दर्द बाँटने, दिल बहलाने की स्थली थी। टी हाउस हमारा ड्राइंग रूम भी था और डाइनिंग हाल भी। देहरादून से ब्रह्मदेव जी आते तो मुझे टी हाउस में खोज लिया करते थे। रवींद्र कालिया, राम किशोर द्विवेदी, प्रताप पंत, ब्रजराज तिवारी, अरविंद कुमार, ईश्वर सिंह बैस आदि-आदि अनेक मित्रों के साथ दोस्ती परवान चढ़ी तो केवल टी हाउस में। नागार्जुन दिल्ली आते तो टी हाउस के सामने की रेलिंग पर खड़े ज़रूर नज़र आते। देवीशंकर अवस्थी, अजित कुमार, विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानंद तिवारी कनॉट प्लेस आते तो टी हाउस में ज़रूर कुछ क्षण बिताते। विष्णुचंद्र शर्मा के साथ त्रिलोचन जी से पहली भेंट यहीं हुई थी। कथाकार हमदम, गुलज़ार, रामनारायण शुक्ल, रमाकांत, भूषण वनमाली, बलराम मेनरा, सुरेंद्र प्रकाश, कुलभूषण, मनोहर लाल ओबरॉय, योगेश गुप्त, रमेश उपाध्याय अनेक साहित्यकार टी हाउस में आया करते थे। कभी-कभी श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रयाग शुक्ल भी टी हाउस में ताक-झाँक कर ज़ाया करते थे। धर्मेंद्र गुप्त और देवेन गुप्त- दोनों भाई वहाँ अक्सर आया करते थे। असलियत यह है कि उस समय जितने भी महत्त्वाकांक्षी कुँआरे साहित्यकार थे, अपनी शामें टी हाउस में व्यतीत करते। हॉट डॉग, बर्गर, डोसा, पराँठे, चाय-कॉफ़ी पीते, चोंचें लड़ाते, धमाचौकड़ी मचाते और आख़िरी बस जाने के कुछ समय पहले तक वहीं अड्डा जमाए रखते। इसके बाद भी भोजन करना होता तो रीगल बिल्डिंग के पिछवाड़े बने रौनक के ढाबे में तंदूरी रोटी-दाल खाने पहुँच जाते। हर शाम यह टी हाउस के दिलदारों का आख़िरी पड़ाव होता था।
- पुस्तक : हिंदी समय
- रचनाकार : शेरजंग गर्ग
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