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जवाहरलाल नेहरू: वकील के रूप में

javaharlal nehruh vakil ke roop mein

कैलाशनाथ काटजू

कैलाशनाथ काटजू

जवाहरलाल नेहरू: वकील के रूप में

कैलाशनाथ काटजू

और अधिककैलाशनाथ काटजू

    पंडित जवाहरलाल के इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकील के रूप में कार्य करने के बारे में अक्सर लोग मुझसे पूछा करते है। 1912 में इग्लैंड में उन्होंने वकालत पास की थी और उसी साल स्वदेश आकर इलाहाबाद-बार में शामिल हुए। उनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरू उन दिनों चोटी के वकील थे और संयुक्त प्रांत-भर में उनका नाम था।

    कानपुर की अदालतों में छः बरस तक काम करने के बाद मैं इलाहाबाद गया और 1924 में इलाहाबाद हाई कोर्ट-बार का सदस्य बन गया। जवाहरलाल, जैसाकि उन्होनें अपनी आत्म-कथा में लिखा है, 1916 में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा चलाए होम-रूल आंदोलन की ओर आकर्षित हो गए। वह तन-मन से इस आंदोलन में काम करने लगे। यह 1917 की बात है। उसके बाद पंजाब के मार्शल लॉ और उसके बाद की घटनाएँ जवाहरलाल को अदालतों के रंग-मंच से दूर ले गई। इस प्रकार जवाहरलाल के अदालती जीवन की अवधि चंद वर्ष ही रही। वह और मैं एक-दूसरे को भली प्रकार जानते थे, लेकिन बहुत घनिष्ठता नहीं थी। हम हाई कोर्ट में मिला करते थे, परंतु सामाजिक समय बहुत थोड़ा था। उन दिनों मैं ऐसा कर भी नहीं सकता था। 1916 के बाद जब जवाहरलाल गाँधीजी के प्रभाव में आए और उन्होंने तन-मन से अपने-आपको कांग्रेस-आंदोलन में झोंक दिया, तभी से यह जनता में मिलने लगे और तभी से मेरे संबंध भी उनके साथ घनिष्ठ हो गए, अन्यथा वह और मैं ऐसी दुनियाओं में रहते थे, जो एक-दूसरे से बहुत दूर थी।

    लोंगो को इस बात का शक है कि जवाहरलाल अपने पिता के समान ही अदालती काम में सफल होते या नहीं। इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है और इसके विषय में केवल कल्पना ही की जा सकती है। अदालती सफलता का भेद वस्तुतः कई सदियों से एक रहस्य ही है। जवाहरलाल ने वकालत-जीवन को पंडित मोतीलाल नेहरू के पुत्र के तौर पर शुरू किया था, जिससे उनको भारी लाभ था। सामाजिक रूप में सभी जज उन्हें जानते थे और उनका व्यावसायिक रूप में संयुक्त प्रांत के प्रमुख परिवारों, ज़मीदारों और उद्योगपतियों के साथ भी सामाजिक संबंध हुआ होगा, जो क़ानूनी पेशे की ख़ुराक है। मुझे भली प्रकार याद है कि एक वर्ष से भी अधिक काल तक उन्होंने मशहूर लाखना-केस में पंडित मोतीलाल नेहरू के जूनियर वकील के तौर पर बढ़ी कड़ी मेहनत की थी। यह मुक़दमा कई बरसों तक चलता रहा था और आख़िरी दौरान में मैं भी पंडित मोतीलालजी के जूनियर के तौर पर काम करता रहा था। अपनी वकालत के समय में मेरा और उनका बहुत कम ही वास्ता पड़ा, लेकिन दो मुक़दमे मुझे याद है, जिनमें वह और मैं साथ-साथ पेश हुए थे।

    पंडित मोतीलालजी ने कानपुर मे 1880 के आस-पास वकालत शुरू की थी और कानपुरवासी आजीवन उनका मान करते रहे। वे उन्हें प्रेम करते थे और उन्हें अपना आत्मीय समझते थे। उनके युवाकाल के वहाँ कई मित्र थे, जिनके साथ श्री मोतीलालजी का घनिष्ठ संबंध था। उनमें एक बाबू वंशीधर थे, जो कानपुर मे स्नेहवश बसीबाबू के नाम से मशहूर थे। इलाहाबाद के नेहरू-परिवार और कानपुर ज़िला अदालत के प्रमुख नेता पंडित पृथ्वीनाथ के साथ उनको गहरी घनिष्ठता थी। मैं समझता हूँ कि बसीबाबू ने जवाहरलाल को बचपन में ज़रूर खिलाया होगा और 1908 में जब मैंने कानपुर में अपना जीवन आरंभ किया था और बसीबाबू को मालूम हुआ कि मैं पंडित पृथ्वीनाथ का जूनियर हूँ, तो तत्काल उन्होंने मुझे अपने आश्रय में ले लिया। बसीबाबू के जीवन को अनेक दिशाएँ थी। वह ज़मीदार थे, एक तरह से साहूकार थे और सबके मित्र थे। उनकी बिरादरी का एक नौजवान था, जिसने बैंक में नौकरी करनी चाही थी। उससे अच्छे आचरण के प्रमाण के लिए कहा गया। वह बसीबाबू के पास गया और उन्होंने फ़ौरन दो हज़ार रुपए की ज़मानत दे दी। इस आदमी को नौकरी तो मिल गई, लेकिन कुछ बरसों बाद बैंक से कुछ रुपया ग़ायब हो गया। आदमी देनदार ठहराया गया और ज़मानती होने के कारण बसीबाबू को वह हानि पूरी करने के लिए कहा गया। स्वभावतः ही वह इस ज़िम्मेदारी से छूटना चाहते थे। प्रश्न यह था कि ज़मानत की शर्तें इस मुक़दमे के अनुकूल है। बैंक ने अदालत में मुक़दमा किया और कानपुर की अदालत ने फ़ैसला दिया कि बसीबाबू देनदार हैं और उन्हें यह बदायगी करनी होगी। वह इलाहाबाद आए और इस मामले को अपने घनिष्ठ मित्र पंडित मोतीलाल और डॉक्टर तेज़बहादुर सप्र के पास ले गए। बसीबाबू जब कभी इलाहाबाद आया करते थे, तो मेरा ख़याल है कि वह हमेशा आनंद भवन में ठहरा करते थे। दोनों ने ही इस मामले को निराशापूर्ण बताया। उसके बाद वह मेरे पास आए। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, लेकिन वह बिल्कुल स्पष्टवादी थे। उन्होंने कहा कि पंडित मोतीलाल में मैंने सलाह ली थी। मोतीलाल ने काग़ज़ात भी पढ़े, परंतु मामले को निराशापूर्ण बताया। पर साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यह मामला बहुत ही मामूली-सा है। मुझे यह निराशापूर्ण जान पड़ता है, लेकिन मेरा सुझाव है कि इन छोटे मुक़दमो के लिए तुम्हें जवाहरलाल और कैलासनाथ-जैसे नए खिलाड़ियों के पास जाना चाहिए। उन्हें अपने काग़ज़ात दिखाओ। उनके पास काफ़ी समय है और बहुत मुमकिन है कि वे कोई नुक्ता खोज निकालें। तो मेरे पास और तेजबहादुर के पास समय है और हमारी इसमें कोई दिलचस्पी है। इस तरह बसीबाबू मेरे पास आए थे। ये बातें दोहराने के बाद वह मुझसे बोले—मैं जवाहरलाल से तो मिल चुका हूँ और अब मैं आपके पास आया हूँ। चाहे कुछ भी हो, इसकी मुझे परवाह नहीं, लेकिन मैंने इस मामले पर अदालत में लड़ने का फ़ैसला किया है। मैं अभी तक किसी मुक़दमे में कभी नही हारा हूँ और मुझे विश्वास है कि आप दोनों मेरे इस मुक़दमे को जीतेंगे। मैं हँसा और बोला—यह तो सलाह माँगना नहीं, बल्कि आदेश देना है। तदानुसार जवाहरलाल और मैंने इस मामले का अध्ययन किया और हमें उसमें कुछ तत्व नज़र आया। हमने अपील के मुद्दे लिखे और मैने जवाहरलाल से कहा—अपील की स्वीकृति की प्रारंभिक बातों को अब तुम पूरा कर जाओ। जवाहरलाल ने बड़ी कामयाबी के साथ वह काम किया। यह मामला तो मंज़ूर हो गया, लेकिन तभी बेचारे बसीबाबू स्वयं ही चल बसे और अपील की आख़िरी पेशी से पहले ही जवाहरलाल भी राजनीति में चले गए।

    एक और मामले में हम एक-दूसरे के विरोधी थे। गर्मियों के दिनों में एक रोज़ नारायणदास नामक (बसीबाबू की बिरादरी का) एक व्यक्ति एक मुक़दमे के फ़ैसले के साथ आया। कानपुर में वह यह मुक़दमा हार चुका था और उसने मुझे अपील दाख़िल करने को कहा। उसने मुझे बताया कि मुक़दमा तो बिल्कुल निराशापूर्ण है, लेकिन अपील दाख़िल करनी ही होगी, क्योंकि यदि फ़ैसला बहाल रहा तो वह उन एक मकान मे बे-दख़्ल हो जाएगा, जिसमें उसका परिवार लगभग पचास बरसों से रह रहा था। इसके अलावा इस समय कानपुर में कोई मुनासिब मकान भी नहीं है और बरसात के दिन नज़दीक है। इसलिए वह बे-दख़्ली को कुछ दिन टालना चाहता है और वह केवल अपील दाख़िल करने में ही हो सकता है। मैंने काग़ज़ों को पढ़ा और सचमुच यह मुक़दमा बिल्कुल निकम्मा था। इसकी शुरूआत औरतों के बीच झगड़े से हुई थी। पता लगा कि एक संपन्न व्यक्ति (नारायणदास के नाना) के तीन बेटे और एक बेटी थी। उसके पास बहुत-सी जायदाद और कई रिहायशी मकान थे। बेटी एक मध्यम वर्ग के परिवार में ब्याही गई थी और पिता ने अपनी बेटी को इन मकानों में से एक में रिहायश की मंज़ूरी दे दी थी। वह केवल अपने पिता के जीवन-काल में ही वहाँ रही, बल्कि उसकी मृत्यु के बाद भी अपने भाइयों की रज़ामंदी से रहती रही। ये लोग असंदिग्ध रूप में उन संपत्ति के मालिक थे। कमेटी के रजिस्टरों में मालिकों के तौर पर उनके नाम दर्ज थे, वे सब तरह के टैक्स अदा करते थे और अगर मैं ग़लती नहीं करता तो वे मकान के एक हिस्से में अपनी गायों को भी रखा करते थे। आख़िरकार तीनों भाइयों ने अपना बँटवारा कर लिया। यह मकान उनमें से उस एक के हिस्से आया, जो स्वतः निस्संतान था और उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नी उत्तराधिकारिणी होने के नाते इस मकान की मालकिन बन गई। यह 1914 की बात है। इन मकान में इस औरत की ननद अपने बच्चों और पोतों के साथ रहती थी। मुझे बताया गया कि दोनों औरतों मे मेल-जोल था, लेकिन कुछ दिन हुए, उनमें आपस में कुछ झगड़ा-सा हो गया। इस पर इस मकान मालकिन ने ननद से कह दिया—मेरे मकान से निकल जाओ। वह नहीं निकली और इसलिए यह मुक़दमा हुआ। इस मामले का कोई जवाब नहीं था और कोई वसीयत थी। इतने पर भी प्रतिवादी के वकीलों ने समय लेने के लिए विपरीत स्वत्वाधिकार का समर्थन किया और एक छोटे जज ने उनके पक्ष में फ़ैसला भी दे दिया। ज़िला जज की अदालत में अपील करने पर यह मामला ख़त्म हो गया, क्योंकि विपरीत स्वत्वाधिकार का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता था। ज़िला जज ने मकान मालकिन के हक में फ़ैसला किया। जैसाकि मैं पहले भी कह चुका हूँ, नारायणदास ख़ुद भी जानता था कि इस मामले में जान नहीं है, और वह चार मास तक इस मकान में और रहना चाहता था। मैंने उससे साफ़-साफ़ कह दिया कि यह मामला मेरी ताक़त से बाहर है। अगर मेरे जैसे जूनियर वकील ने इसकी अपील की प्रारंभिक पेशी में बहस की, तो मुमकिन है कि यह मंज़ूर ही हो। इसलिए किसी बड़े वकील को ही करना चाहिए। नारायणदास फ़ौरन मान गया और मैंने डॉक्टर तेजबहादुर को प्रेरणा की कि वह मुक़दमे में मेरे बड़े वकील बन जाए। अपील एक जज के सामने पेश हुई, जो मंज़ूरी देने में तनिक उदार थे। डॉक्टर सप्रू उठे और उन्होंने कहा—क़ानूनी प्रश्न अवधि-सवधी है। और विद्वान जज ने कहा—नोटिस जारी कर दिया जाए। इस तरह एक बाधा तो पार की गई और उसके बाद मैंने बे-दख़्ली की आज्ञा को रोकने की दरख़्वास्त दी, जो यथाक्रम मंज़ूर कर ली गई। कुछ सप्ताहों के बाद वकीलों की लाइब्रेरी में पंडित मोतीलाल ने विनोद में कहा—कैलासनाथ, क्या तुमने यह नियम ही बना लिया है कि कानपुर के हरएक मुक़दमे की अपील की जाए? पहले तो मैं समझा नहीं और बोला भाईजी, क्या बात है? इसपर वह बोले—वह बुढ़िया औरत आनंद भवन में आई थी और जवाहरलाल की माँ के पास गई थी। उसने अपना सारा मामला उनसे कहा था। इसके बाद उन्होंने इस विषय में मुझसे चर्चा की और मुझे उसे मंज़ूर करना पडा। यह बिल्कुल ही निकम्मा मुक़दमा है। तुमने इसकी अपील कैसे की? इसपर मैंने उन्हें सारी कहानी सुनाई और उन्होंने वादी का मामला लेना स्वीकार किया।

    मैं समझता हूँ कि लगभग दो बरस के बाद वह अपील चीफ़ जज हेनरी रिचर्डस और श्री जस्टिस रफीक के सामने पेश हुई मोतीलाल उस दिन थे तो इलाहाबाद में ही, लेकिन संभवतः उन्हे घर पर ही कोई अधिक आवश्यक काम था, इसलिए उन्होंने इस मुक़दमे की अपील जवाहरलाल को सौंप दी। इस तरह जवाहरलाल अपने पिता की ओर से इस मुक़दमे में पेश हुए।

    अदालत के कमरे में बड़ी भीड़ थी। मेरे बड़े वकील डॉक्टर तेजबहादुर मेरे पास बैठे थे। डॉक्टर सप्रू और मैं दोनो ही जानते थे कि यह मुक़दमा निस्सार है। जब मुक़दमा पेश हुआ, तो स्वभावतः मैं आशा करता था कि डॉक्टर सप्रू खड़े होगे। लेकिन उन्होने मुझसे कहा—कैलासनाथ, इसमें है तो कुछ नही। तुम्हीं जवाब दो और इसे ख़त्म करो। मैं उठा और मैंने अभिनय शुरू किया। मैंने केवल तथ्य ही पेश किए और कई बार दोहराया कि बेटी और उनका परिवार चालीस साल से भी ज़्यादा समय से मकान में रह रहा है और अधिक ज़ोर देने के लिए मैंने कहा—श्रीमान, नारायणदास तो वस्तुतः इस मकान में ही पैदा हुआ था। जब मैंने यह कहा तो मैंने देखा कि सर हेनरी रिचर्डस ने अपना मुँह एक कॉपी से ढक लिया और उन्हें झपकी गई। साथी जज ने भी इस बात को भाप लिया और उन्होंने बड़े टेढ़े-टेढ़े सवाल मुझसे किए। जब यह प्रश्नोत्तर जारी था, तो मैंने देखा कि सर हेनरी के मुँह पर पड़ी कॉपी हिलने-डुलने लगी है। स्पष्टतया वह जाग गए थे और हर किसी को यह ज़ाहिर करने की कोशिश कर रहे थे कि वह वास्तव में सोए नहीं थे, लेकिन बड़ी गहराई के साथ मुक़दमे का अध्ययन कर रहे थे। मैंने उन्हे देखा कि वह मुक़दमे को उस जगह पर पढ़ रहे थे जहाँ नारायणदास को पैंतीस वर्ष की आयु का बताया गया था। उनके सोने से पहले मैंने यह आख़िरी शब्द कहे थे—श्रीमान, नारायणदास इस घर में ही पैदा हुआ था। मैंने देखा कि उन्होंने फिर पन्ना पलटा और एकाएक मुझसे पूछा—क्या आपने यह कहा था कि नारायणदास इस घर में पैदा हुआ था? मैंने कहा—हाँ जनाब, यही।

    चीफ़ जज बोले—लेकिन नारायणदास की उम्र तो पैंतीस वर्ष की है।

    मैंने जवाब दिया—जनाब, यही तो मेरा तर्क है। यह परिवार इस मकान में पिछले पचास वर्ष से है और बच्चे और पोते इसमें पैदा हुए है।

    चीफ़ जज बोले—बड़ी फ़िज़ूल बात है। दूसरी ओर से कौन है?

    इससे पहले कि मैं अपनी बात की पुष्टि में कुछ और निरर्थक बातें कहने की कोशिश करूँ, डॉक्टर सप्रू ने मेरे चोगे के छोर को खींचा और फुसफुसाए कि बस करो, और मैंने वैसा ही किया। अब जवाहरलाल की बारी थी। जवाहरलाल ने बड़ी शांति के साथ कहा कि यह मामला स्वत्वाधिकार के प्रश्न का है और ज़िला जज ने इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है। सर हेनरी रिचर्डस ने निर्णयात्मक ढंग से कहा—हाँ, मुझे मालूम है। यह तथ्य मालूम करने का मामला है और इसमें हम दख़्ल नहीं दे सकते, लेकिन मैं आपको यह बता दूँ कि तथ्य-ज्ञान का यह सर्वथा विपरीत रूप है। बादी के पक्ष में कोई न्याय की बात नहीं है। सर हेनरी कुछ समय तक ऐसा ही कुछ कहते रहे और तब एकाएक बोले—लेकिन आपका पक्ष तो औरत का है। इस मामले में औरत का अस्तित्व कहाँ से गया?

    जवाहरलाल ने तीन भाइयों के बँटवारे का उल्लेख किया और कहा कि उनके मुवक्किल को यह मकान उसके पति के उत्तराधिकार से प्राप्त हुआ है। लेकिन चीफ़ जज ने कुछ नहीं सुना। वह बोले—यह संयुक्त परिवार की संपत्ति है। एक हिंदू स्त्री उस संयुक्त परिवार में उत्तराधिकार नही पा सकती। आपको तीन भाइयों में बँटवारे का सबूत देना होगा।

    इस पर जवाहरलाल ने ज़िला जज के फ़ैसले में से एक-दो वाक्यों का उल्लेख किया, लेकिन सर हेनरी पर कोई असर हुआ।

    चीफ़ जज ने कहा—यह तो एक सरसरी बात है, यह तथ्य-ज्ञान नहीं है। दिखाइए, आपने कहाँ इस बात का उल्लेख किया है कि आपको यह मकान इस ढंग से हासिल हुआ? बँटवारे का क्या प्रमाण है?

    इसके बाद जवाहरलाल ने कहा कि प्रतिवादियों ने इस तर्क से कहीं इंकार नहीं किया और अगर जनाब का यह ख़याल है कि उसे उचित रूप में पेश नहीं किया गया, तो यह मामला उचित निर्णय के लिए निचली अदालत के पास भेज देना चाहिए।

    सर हेनरी ने कुछ नही सुना और तनिक कठोरता मे बोले—यह ऐसा मुक़दमा नहीं है, जिसमें अदालत आपकी किसी भी रूप में रत्ती भर भी सहायता कर सके। यह आपका काम था कि आप इन आपत्ति को अपने बयान में ठीक ढंग से पेश करते, जिसमें निणयात्मक प्रश्न प्रमाण के लिए उपस्थित हो जाता। इस स्तर पर हम इसे निचली अदालत में नहीं भेजेंगे।

    जवाहरलाल ने एक घंटे में भी अधिक समय तक सघव किया, लेकिन सब बेकार रहा। तत्काल फ़ैसला कर दिया गया और अपील मंज़ूर हो गई। मुक़दमा मय ख़र्चे के ख़ारिज हो गया।

    इस फ़ैसले से मकान-मालकिन को बड़ा आघात पहुँचा और वह रोती-चिल्लाती फ़िर मोतीलालजी के पास आनंद भवन में आई। मोतीलालजी ने फ़ैसले की नज़रसानी के लिए दरख़्वास्त दी और कई महीनों के बाद इसकी सुनाई हुई। मोतीलालजी जैसे ही उठे और उन्होंने संक्षेप में तथ्यों का वर्णन करने के बाद बहस शुरू करनी चाही तो सर हेनरी बोले—पंडितजी, मुझे यह मुक़दमा अच्छी तरह से याद है और जवाहरलाल ने बहुत अच्छी तरह इसपर बहस की थी। ग़लत या सही हम इस अदालत में मुक़दमो पर दुबारा बहस नहीं होने देंगे। दरख़्वास्त नामंज़ूर। अगला मुक़दमा बुलाओ।

    सर हेनरी ने ये शब्द इतने विनोदपूर्ण ढंग से कहे थे कि मोतीलालजी भी हँसे बिना रह सके।

    1919 के बाद मैं समझता हूँ कि जवाहरलाल कई बार अदालतों में पेश हुए हैं, लेकिन वकील के तौर पर नहीं, बल्कि एक क़ैदी के रूप में। अंतिम बार वह 1945 में आज़ाद हिंद फ़ौज के मुक़दमे में दिल्ली के लाल क़िले में उपस्थित हुए थे। निश्चय ही इस ऐतिहासिक अवसर पर वह एक वकील के रूप में पेश हुए थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैं भूल नहीं सकता (पृष्ठ 176)
    • रचनाकार : कैलाशनाथ काटजू
    • प्रकाशन : सस्ता साहित्य मंडल
    • संस्करण : 1958
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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