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तुमने मेरा सर ऊँचा कर दिया है

tumne mera sar uncha kar diya hai

अज़ीज़ हसन बक़ाई

अज़ीज़ हसन बक़ाई

तुमने मेरा सर ऊँचा कर दिया है

अज़ीज़ हसन बक़ाई

और अधिकअज़ीज़ हसन बक़ाई

    सितंबर 1947 की भयानक रात थी। कोई 11 बजे होंगे। दिल्ली में 72 घंटे का कर्फ़्यू लगा हुआ था। मैं मुस्लिम रिलीफ़ कमेटी के दफ़्तर में काम करके दिन भर का थका-हारा घर आया ही था कि जामा मस्ज़िद की पुलिस चौकी के सब-इंसपेक्टर ने सड़क पर खड़े होकर आवाज़ दी। मैंने सहन में खड़े होकर देखा, तो सब-इंसपेक्टर ने मेरी सूरत देखते ही कहा—वक़ाई साहब! एक सरदारजी आपको बुलाते है।

    मैने कहा—इतनी रात गए क्या काम है?

    जवाब मिला—काम तो वह आपको ही बताएँगे, लेकिन एक मुसलमान लड़की उनके साथ है!

    मैंने कपड़े बदले, रिवॉल्वर भरा और उसे जेब में डालकर नीचे आया। चौकी पर जाकर देखा, तो एक सूट बूट से सुसज्जित सिक्ख नौजवान ने मेरा नाम लेकर हाथ जोड़कर सलाम किया और कहा—

    आपसे मैं अच्छी तरह से वाक़िफ़ हूँ। आपका अख़बार बरसों से पढ़ता हूँ। आप अमन के लिए जो काम कर रहे है, उसको मैं जानता हूँ, लेकिन आपकी ख़िदमत में पहली मरतबा दाख़िल हुआ हूँ। ये मेरी बहन नसरी है, जिसको मैं आपको सुपुर्द करता हूँ। फिर उस मुसलमान लड़की से मुख़ातिब होकर बोला—वक़ाई साहब तुम्हारे पिता है। तुम इनके पास महफ़ूज़ भी रहोगी और ख़ुश भी।

    सामने कुर्सी पर बैठी हुई एक 16-17 माला नौजवान ख़ातून (महिला) ने कहा—भाई जी। एक हफ़्ते तक जो आराम मुझे आपने पहुँचाया और जिस तरह ख़ुद ख़तरे में रहकर आपने मेरी हिफ़ाज़त की है, मुझे बहन समझा है इसके लिए ज़िंदगी भर में आपकी अहसानमंद रहूँगी।

    मैंने सिख नौजवान से कहा—आपका नाम क्या है? ये साहबज़ादी कौन है? किन हालात में आपको मिली?

    नौजवान सिख ने कहा—मेरा नाम कुलवंत सिंह है, रिफ्यूजी हूँ। इंसानियत के नाते में नसरीन मेरी बहन है। मैं शर्मिंदा हूँ कि मेरे कौमी भाइयों के हाथों इसको तकलीफ़ पहुँची और रज़ीदा हूँ कि इसको आराम पहुँचा सका।

    मैंने कहा—अज़ीज़ कुलवंत सिंह, तुम अपनी कौम और इंसानियत के लिए बाइसे फसू (गौरव योग्य) हो। आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। कभी आपने मुझसे कोई ख़िदमत ली तो मुझे ख़ुशी होगी।

    कुलवंत सिंह ने खड़े होकर मेरे क़दम छुए और मुझसे रुख़सत की इजाज़त लेकर मोटर स्टार्ट की। मेरी बातें उस बहादुर और नेक सिक्ख को देखती रह गई।

    मैंने उस मुसीबत ज़दा बच्ची से पूछा—'बेटी नसरी। ये सामने मेरा ज़नाना मकान है। अगर तकलीफ़ हो, तो पाँच क़दम पैदल चलो। ख़ुदा ने चाहा तो तुमको मेरे घर में कोई तकलीफ़ होगी। जब तक तुम्हारे विरसा (अभिभावकों) का पता चले, तुम इस घर को अपने बाप का घर समझकर रहना।

    मुझे पैदल में कोई दिक़्क़त नही है। कुदरत ने हक़ीक़ी बाप और भाई के बदले कुलवंत सिंह—जैसा बहादुर भाई और आप जैसा शफ़ीक़ (दयालु स्नेही) बाप इनायत किया है। यह उनका करम (कृपा) है, वरना अल्लाह ही जानता है कि मैं इस वक़्त कहाँ और किन हालात में होती।

    सब-इंसपेक्टर की आँखो से आँसू निकलने लगे। मैं इन दिनों की विषता से काफ़ी सख़्त दिल हो गया था, लेकिन आबदीदा था। सब-इंसपेक्टर ने कहा—'क्या रिपोर्ट लिखी जाएगी?' मैंने कहा—'किसी रिपोर्ट की ज़रूरत नहीं। मैं ग़ौर करके सुबह बताऊँगा।'

    घर पहुँचने पर मेरे कहने से नसीरन ने रोकर कहा—'अगर आप सुनने की ताक़त रखते हैं तो सुनिए। मैं पहाड़गंज में रहती थी। मेरे वालिद सेक्ट्रियेट में मुलाज़िम थे। घर में माँ-बाप और हम दो भाई बहन थे। मैं नवी क्लास में पढ़ती थी। भाई ने बी० एस० सी० में इम्तहान दिया था। वालिद उन्हें अमरीका भेजने के इंतज़ामात में मसरूफ़ थे। उन्होंने तकसी में मुल्क्की सूरत में हिंद में ही रहने का फ़ैसला किया था। 7 सितंबर 1947 को जब मेरे वालिद ऑफ़िस गए हुए थे, और हमीद भाई नई देहली, तो पहाड़गंज में फिसाद शुरू हो गया।

    जिन पड़ोसी हिंदुओं ने इंसानियत का सबूत देते हुए अपने मुसलमान पड़ोसियों की जानें बचाने में मदद दी, उनमें हमारे मुहल्ले का बनिया रामसहाय क़ाबिल-ए-ज़िक्र है। इसने मेरी वालिदा को ख़तरे से आगाह किया और कहा कि—पड़ोस के मुसलमान की दीवार में शिगाफ़ (छेद) करके आप सब मेरे मकान में जाएँ, शायद इज़्ज़त और जान बच जाए। बड़े पसोपेश के बाद अम्मा और पड़ोसी राज़ी हुए। वालिदा साहिबा, मुझे और ज़ेवर, नक़द रुपया, एक हैंडबैग लेकर बनिए के घर पहुँची। यहाँ एक रात बड़ी हिफ़ाजत से हम रहे। मगर अम्मा और मुझे ग़श के दौरे रहे थे। खील का दाना उड़कर दो दिन से मुँह में गया था कि अचानक बलवाइयों ने उस मकान को घेर लिया जिसमें हम और दूसरे मुसलमान पनाहगजीं (शरणागत) थे। अचानक मकान का दरवाज़ा तोड़ा गया। बलवाई तलवारें और लाठियाँ लिए हुए अंदर दाख़िल हुए और उन्होंने बुलंद आवाज़ में कहा—हिंदू औरतें-बच्चे अलग हो जाएँ और मुसलमान अलग। राम सहाय ने बहुत ख़ुशामद की, उसे ठोक दिया गया। मुसलमान मर्द और बच्चे मेरी आँखों के सामने क़त्ल कर दिए गए, मालो-असवाव लूट लिया गया और औरतें आपस में तक़सीम कर ली गई। मेरी वालदा को जब ले जाया जा रहा था, तो वे बेहोश थी। बड़ी मिन्नत और ख़ुशामद से मैं और वालदा एक ही सिख के हिस्से में आई। पहाड़गंज में हम दोनों एक मकान में क़ैद की गई। अम्मा सदमे को बरदाश्त कर सकी और दूसरे दिन मर गई, तो उनकी लाश सड़क पर फेंक दी गई।

    एक हफ़्ते के बाद मुझे सरदार कुलवंत सिंह के भाई दर्शन सिंह के हाथ एक हज़ार रुपए में फ़रोख्त कर दिया गया। हर रोज़ मुझे शादी पर आमादा किया जाता था और धमकियाँ भी दी जाती थी, लेकिन मैं मरने के लिए तैयार थी और मैंने फ़ैसला कर लिया था कि अस्मत (शील) बचाने के लिए काँच की चूड़ियाँ चबाकर ज़िंदगी का खात्मा कर दूँगी। मुझे इस घर में तबदील हुए एक हफ़्ते से ज़्यादा हो चुका था और अब मुझपर सख़्ती ज़्यादा होने लगी थी कि आज उस घर के सब औरत-मर्द एक शादी में सब्ज़ी मंडी गए। मुझे एक कोठरी में अकेला बंद करके ताला लगा दिया गया। कई घंटे के बाद सरदार कुलवंत सिंह जी आए। उन्होंने मेरे रोने की आवाज़ सुनी, तो ताला तोड़कर मुझसे हक़ीक़त मालूम की। मैंने सारी आप-बीती सुनाकर उनके पाँव पकड़कर अपनी रिहाई की माँग की। सरदार कुलवंत सिंह महात्मा गांधी की प्रार्थना में बड़ी पाबंदी से शरीक होते थे। अगरचे वह भी अपने बाप-भाई की तरह लाहौर से लुटकर और इंतहाई मज़ालिम बरदाश्त करके दिल्ली पहुँचे थे, लेकिन बड़े नेक-दिल और शरीफ़ इंसान हैं।

    मेरी यह हालत देखकर सरदार कुलवंत सिंह ने कहा—मैं जानता हूँ तुम बेगुनाह हो। मैं। यह भी जानता हूँ कि यह सब इंसानियत के ख़िलाफ़ है और में यह भी जानता हूँ कि तुम्हारी रिहाई के बाद मेरे साथ इस घर में क्या सलूक होगा। मैं तुमको आसानी से निकाल भी सकता हूँ, लेकिन चंद क़दम चलने के बाद तुम फ़ौरन पकड़ ली जाओगी। इसलिए मैं तुमको यहाँ किसी हिफ़ाज़त की जगह पहुँचाऊँगा, तो उसका भी वही हश्र होगा, जो रामसहाय का हुआ। फिर थोड़ी देर सोचकर कहा—बहन नसरी, एक मिनट का तकल्लुफ़ (विलंब) किए बग़ैर मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो जाओ।

    मेरे लिए तैयारी का सवाल ही था। मैं फ़ौरन साथ हो गई और वह मोटर में बिठाकर इस चौकीपर ले आए। रास्ते में उन्होने बताया कि मैं तुमको आपके हवाले कर दूँगा। आगे जो मुकद्दर में लिखा होगा, भुगतना।

    नसीरन की रोते-रोते हिचकी वैध गई। मैं और मेरे घर की औरतें भी बराबर रो रहे थे, यहाँ तक कि हमें यह भी ख़याल रहा कि वह कई वक़्त के फाके से है।

    मैने कहा—'बेटी, तुम अब घबराओ मत। तुम्हारी मुसीबत के दिन ख़त्म हो चुके। वालिदा साहिबा तो ज़िंदा नहीं हो सकती। अलबत्ता तुम्हारे बाप और भाई की तलाश करने में कोई दकीका (कोर-कसर) उठा रखूँगा। यह घर अब तुम्हारा घर है। बिला तकल्लुफ़ अपनी ज़रूरत का इज़हार करो। मेरी बहू और लड़की तुम्हारी बहन है। अब मेरी लाश पर से ही होकर तुम तक कोई गुज़र सकता है।

    कई रोज़ की तलाश के बाद नसीरन के बाप और भाई मिले। मैंने इस वाक़ए का तज़करा महात्मा गांधी से किया, तो उन्होंने बड़ी मसर्रत का इज़हार किया और उस नौजवान से मिलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। मैं एक रोज़ शाम को उनकी इबादत में शरीक था कि कुलवंत सिंह पर नज़र पड़ी। मैंने उससे बापू की ख़्वाहिश ज़ाहिर की, तो उसने पहले नसीरन का हाल पूछा और मेरे यह बताने पर कि वह अपने बाप-भाई से मिल चुकी है, उसका चेहरा ख़ुशी से चमक उठा। तब उसने कहा—बापू मुझे क्या जानें, आपने ज़िक्र किया होगा।

    मैंने कहा—कुलवंत सिंह। तुम्हारी नेकी और बहादुरी बापू से कैसे छिप सकती है?

    बापू ने उसको अपनी छाती से लगा लिया और बोले—'मैंने तुम्हारी बहादुरी का हाल सुन लिया है। तुमने मेरा सर ऊँचा कर दिया है। तुम्हारे जैसे नौजवान ही मेरे मिशन को कामयाब कर सकते हैं। मैं तुमको आशीर्वाद देता हूँ और आशा करता हूँ कि जब भी संभव होगा और तुम्हें ख़बर होगी तुम हर अत्याचार-पीड़ित महिला की अपने प्राण संकट में डालकर भी रक्षा करोगे।

    जंगलीपन के उस तूफ़ान में कुलवंत सिंह ने यह साबित कर दिया कि बहादुर और नेक लोग अभी बाक़ी हैं और इंसानियत ज़िंदा है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ज्ञानोदय वर्ष 3 (पृष्ठ 511)
    • रचनाकार : अज़ीज़ हसन ‘बाक़ई’
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1952
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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