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मिस्टर स्मिथ

mistar smith

विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर

मिस्टर स्मिथ

विष्णु प्रभाकर

और अधिकविष्णु प्रभाकर

    मिस्टर स्मिथ को पहली बार मैंने कब देखा, यह तो ठीक याद नहीं पर जिस पहली मुलाक़ात की धुँधली-सी याद आज शेष रह गई है उसने उसकी शान और शराफ़त दोनों का काफ़ी प्रभाव मुझ पर छोड़ा है। उसका विशाल शरीर, जो शक्ति और सहानुभूति दोनों का आगार था, हर किसी को भय और विश्वास से भरता था। उसका संबंध इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध कुल से था और कुल का यह अभिमान उसकी प्रत्येक गतिविधि से प्रतिक्षण टपकता रहता था। वह सदा शानदार पोशाक पहनता था। उसके मित्रों की संख्या जितनी अधिक थी, उनका पद भी उतना ही ऊँचा था। ब्रिटेन के अनुदारदली मंत्रि मंडल में, भारत के गवर्नरों में, ऊँचे अफ़सरों में—सब कहीं उसके नातेदार और मित्र थे। अनेक भारतीय राजा और दीवान उसकी कृपा के अभिलाषी रहते थे।

    आए दिन उसके घर मेह‌मानों का ताँता लगा रहता था जिनमें नारियों की संख्या अनुपात से कुछ अधिक ही रहती थी; और उनको लेकर उसके नौकर जो चर्चा किया करते थे, उसका वर्णन शिष्टता और शालीनता की सीमा रेखा को पार कर सकता है लेकिन यह अचरज की बात है कि मिस्टर स्मिथ शराब पीता था और सिगरेट, उसको घुड़दौड़ का बहुत शौक़ था, लेकिन दाँव लगाने का नहीं, बत्रिक जज बन कर दूसरों के भाग्य का निर्णय करने का।

    मिस्टर स्मिथ भारत की सबसे बड़ी पशुशाला का आला अफ़सर था—उस पशुशाला का जहाँ की गायों की तो बात ही क्या, गधे भी आठ नौ रुपयों में बिका करते थे। उसका वेतन भी आठ सौ से ही आरंभ हुआ था और शिक्षा के नाम वह बिल्कुल कोरा था। एक दिन पत्र लिखते-लिखते एकाएक उसने गर्दन उठाकर मुझसे कहा, बाबू, मेहरबानी करके मुझे 'बिलीव' के हिज्जे तो बताओ।

    मैं सहसा कुछ समझ नहीं सका। उसने अपना प्रश्न दोहराया। और तब उसका अर्थ समझकर मैं ठगा-सा देखता रह गया। लेकिन वह मुस्कुराकर बोला, जानते हो मैं कितना पढ़ा हूँ?

    मैंने विनम्रता से उत्तर दिया, जी, नहीं।

    उसने कहा, चौथी क्लास तक।

    और मैं कुछ सोच सकूँ वह बोल उठा, मुझे हिज्जे बिल्कुल नहीं आते। इसी कारण मै तीन बार कप्तानी की परीक्षा में फेल हो चुका हूँ।

    यह एक आश्चर्यजनक बात थी। आज के डिग्रियों और विशेषज्ञों के युग में इस बात पर कोई एकाएक विश्वास करना भी नहीं चाहेगा। पर पिछली पीढ़ी के अनेक अनपढ़ों ने हमें पढ़ाया है, इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन इस तथ्य की अद्भुतता यहीं समाप्त नहीं हो जाती।

    बात आगे बढ़ाते हुए उसने अपनी जेब से जैम डिक्शनरी निकाली और बोला, मैं इस कोश को सदा जेब में डाले रहता हूँ। तुम शायद विश्वास नहीं करोगे, मैंने तीन बार इस कोश को ज़बानी याद करने का प्रयत्न किया है और फिर बात समाप्त करने से पूर्व ही वह खुलकर हँस पड़ा।

    वह अफ़सर था और मैं क्लर्क उसी अनुपात से हँसते हुए मैंने कहा, जनाब, सचमुच हिज्जे याद करना एक हुज्जत है।

    वह वास्तव में एक सैनिक था, विशाल शरीर, आजानुबाहु, विशाल वक्षःस्थल, प्रशस्त ललाट, शानदार लंबा चेहरा, जिसकी खाल यद्यपि ढीली पड़ गई थी पर उसके रोब में कोई अंतर नहीं पड़ा था; कुछ नीली कुछ भूरी आँखें, जिनमें से शान और शालीनता एक साथ झाँकती थी, मोटी और लंबी उँगलियाँ, जिनकी पकड़ में अ‌द्भुत दृढ़ता थी; बह चलता था तो मानो धरती काँपती थी। ये सब उसे एक अच्छा सैनिक बनाने को काफ़ी थे।

    लेकिन हिज्जों के कारण सेना उसे स्वीकार नहीं कर सकी और उसे पशुशाला का अध्यक्ष बनना पड़ा। वह जब तक यहाँ रहा उसने अपने काम को समझने का पूरा प्रयत्न किया और मैं जानता हूँ कि अपने किसी काम के लिए लजित होने का अवसर उसे शायद ही कभी मिला हो।

    उसे सैनिक का शरीर ही नहीं मिला था, उसका मन भी एक सैनिक-का मन था—एक साथ उद्धत और मानवी करुणा से ओतप्रोत। उसकी गति में आवेश था, पर उसके होंठों पर मुस्कान थी। कोई नहीं जानता था बह कब किसको पीट देगा। लेकिन यह सब जानते थे कि पीटने के कुछ क्षण बाद ही यह उसके घर जाएगा या उसे अपने पास बुलाकर उसमे माफ़ी माँग लेगा। वैसे मैं जानता हूँ कि सात साल के मेरे उसके संपर्क में शायद सात बार भी ऐसा हुआ हो। माफ़ी तो यों बह साधारण-सी बात पर माँग लेता था। वह बहुत जल्दी आवेश में जाता था। फिर उसके लिए उसे दुःख होता था। तब आंतरिक पश्चाताप दग्ध उसकी मुस्कान बड़ी करुण हो जाती थी।

    वह छोटे-बड़े में भेद करना नहीं चाहता था, पर साधारणतया एटी-केट का वह प्रबल पोषक था। योग्य क्लर्क मे क्रुद्ध हो उठा। एक दिन वह इसी बात पर एक बहुत ही वह क्लर्क बेतकल्लुफ़ी से पतलून में हाथ डाले उसे कुछ समझा रहा था कि सहसा मिस्टर स्मिथ ने तीव्रता ने कहा, पतलून में से हाथ निकालो!

    क्लर्क सहसा कुछ नहीं समझा। मिस्टर स्मिथ तब क्रोध के भूचाल से जैसे हिल उठा। चिल्लाकर बोला, मैं कहता हूँ, जेब से हाथ निकाले। अफ़सर के सामने जाने की तमीज़ सीखो।

    इसके विपरीत उसी क्लर्क को उसने उस घटना ने पहले और बाद में अनेक बार स्वयं अपने सामने कुर्सी पर बैठा कर उससे बातें की।

    यह सैनिक को सनक थी। उस सनक की अनेक कहानियाँ मुझे याद हैं। पंजाब की एक रियासत के शासक को, वहाँ के मंत्री के बर-बार कहने पर भी उसने महाराजा लिखकर हमेशा राजा ही लिखा।

    वह प्रतिक्षण काम करने मे विश्वास करता था। काम के लिए उसे किसी भी क्षण दफ़्तर में बुलाया जा सकता था। जब कभी हमें पूरी-पूरी रात दफ़्तर में बितानी पड़ती, तो जान-बूझकर वह भी देर तक दफ़्तर में बैठा रहता। वह सदा इसको बताने के प्रयत्न में रहता कि यह हमारे साथ है।

    मिस्टर स्मिथ को चिट्टी लिखने का भी रोग था। यह अपने नातेदारों-को, अपनी पत्नी को, अपने मित्रों को नियमित रुप से पत्र लिखता था। पत्नी को वह रोज़ पत्र लिखता था। और सप्ताह के अंतिम दिन सबको एक साथ डाक में छोड़ देता था। जिस किसी को अपना तबादला कर जाना होता या रुकवाना होता, उन्नति का प्रश्न होता, नए स्थान की खोज होती, तो फिर पुलिस, नहर, न्याय, व्यवस्था, शिक्षा—किसी भी विभाग-के अध्यक्ष से लेकर छोटे बाबू तक उसके पास दौड़े आते और वह उनको चिट्टी लिखकर देता। लोग अपने ही नहीं, अपने नातेदारों के लिए भी चिट्ठियाँ लेने आया करते थे। अपने वंश की उच्च स्थिति और अपने मित्रों-की प्रचुरता का लाभ दूसरों को बाँटने में उसने कभी कंजूसी नहीं की।

    वह अँग्रेज़ था और मैंने देखा है हिंदुस्तानी अफ़सर उसके जूतों के फीते बाँधने की होड़ किया करते थे। एक बार बहुत-से लोगों के सामने ही तीन अफ़सर एक साथ ऐसा करने के प्रयत्न में आपस में टकरा गए थे, तब वह चिनचिना पड़ा था और उसने किसी को भी अपने पास नहीं आने दिया था। वह इस सामूहिक धाबे से घबरा गया था।

    उसे पता लगता कि उसके फ़ार्म का कोई व्यक्ति बीमार है तो वह उसके लिए व्यग्र हो उठता। एक बार में उसके साथ स्टेशन से लौट रहा था, सहसा उसे याद आया कि बड़ा बाबू बीमार है और पास ही रहता है. तभी उसके घर पहुँचकर उसने सबको अचरज में डाल दिया। मुझे बाद है कि जब कुछ ही घंटों में मेरे देखते-देखते मेरा भानजा चल बसा, नो ऊपर से शांत रहने पर भी में कई दिन तक सो नहीं सका था। उसने मेरी छुट्टी का प्रार्थना पत्र पाते ही बड़े बाबू से सब बातें पूछो, दूसरे दिन भी पूछा, तीसरे दिन वह स्वयं दवा लेकर आया, इस पर भी मुझे नींद नहीं आई, तो चौथे दिन उसने एक गोली भेजी और कहलाया कि यदि आज नींद नहीं आती है तो कल मेरे पास आकर सोना। मैं देखूँगा कि नीद कैसे नहीं आती!

    शायद दवा के प्रभाव से या उसके डर से मुझे उस रात नींद गई, लेकिन मेरा वह एक दिन की छुट्टी का प्रार्थना पत्र जिस पर उसने लिखा हुआ है 'बाबू, उसे रात को नींद आई या नहीं?' मेरे लिए एक बहुमूल्य संपत्ति बन गया है।

    सांप्रदायिक उत्पात के दिनों में उसने मुझे ढूँढ़ निकाला और कमिश्नर के सामने ही मुझमे पूछा कि मुझे कोई डर तो नहीं है? उन भयंकर दिनों में मैंने सदा उसे ख़तरे की चिंता किए बिना हर कहीं घूमते देखा था। उसके एक हिंदुस्तानी मित्र, जो नगर के रईस थे, उस उत्पात में मारे गए थे। वह उनके घर गया और चुपचाप मक्खियों और शोरगुल के बीच घंटों वहाँ बेटा रहा।

    एक बार जब हमारे दफ़्तर में डकैती का मामला हुआ तो यह मिस्टर स्मिथ ही था जिसने लोलुप और खूँख़ार पंजाब पुलिस से हमारी रक्षा की थी। आज भी उन दिनों की याद कर के सहम उठता हूँ। फ़ार्म पर अक्सर साँप काटने की घटनाएँ हो जाया करती थी। तब दवा लेकर वक़्त-बेवक़्त लोगों की तलाश में भटकने मैंने उसे देखा है। मैं उसके निजी नौकरों की बात यहाँ छोड़ रहा हूँ जिनको वह पीट देता था, पर जिनकी आँखों में आँसू देखकर वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता था।

    एक मज़ेदार घटना मुझे याद हो आई है। उमने मुझसे कई बार कहा था, देखो बाबू, हमारी मेम साहब ख़ुश तो हम ख़ुश। वह नाराज़ तो हम नाराज़। उसकी मेम साहब भी ऊँचे कुल की संभ्रांत महिला थी। वह सुंदर और मिष्टभाषी थी। एक बार वह अपने एक कारीग़र ने नाराज़ हो गई और मुझे आज्ञा दी कि मैं उसके बिल का पूरा भुगतान करूँ। वह कोई ग़रीब आदमी था। रोता हुआ मेरे पास आया। मैंने सब कुछ सोचकर उससे कहा, जाकर साहब के पैर पकड़ लो।

    उसने ऐसा ही किया और उसे पूरे पैसे मिल गए। लेकिन जब मेम साहब को पता लगा तो वह क्रुद्ध हो उठी। मुझे बुलाकर उसने कैफ़ियत माँगी।

    मैं इसके लिए तैयार था।

    मैंने कह दिया, मिस्टर स्मिथ ने मुझसे पूरा भुगतान करने के लिए कहा था।

    किसने कहा था? वह एकाएक चिनचिना उठी।

    मिस्टर स्मिथ ने, मैंने और भी दृढ़ता से कहा।

    अपनी उस दिन की दृढ़ता पर मुझे स्वयं अचरज हुआ और मेम साहब को भी। लेकिन उसके बाद फिर किसी ने मुझसे उस घटना की चर्चा नहीं की। सोचता हूँ शायद पति-पत्नी के बीच इस घटना की चर्चा हुई हो, शायद भी हुई हो—पर समझ वे दोनों गए थे।

    सामाजिक वह इतना था कि लोगों से मिलने का कोई अवसर वह नहीं चूकता था। फ़ुटबॉल के मैचों का वह स्थाई रैफ़री था और शरारत करने वाले को गेंद की तरह उठाकर फेंक देना उसके लिए बड़ी साधारण बात थी। फ़ार्म पर भी उसने क्लब खुलवाई थी और उसमें वह एकदम घुलमिल जाता था। यह जानता था कि मैं लेखक हूँ, इसीलिए वह सदा इस बात पर ज़ोर देता था कि मैं क्लब में जाऊँ। उसकी दृष्टि बड़ी तेज़ थी और व्यापक भी। इसी कारण उसके सब दोष उसके मानवी हृदय की छाया में छिप जाते थे।

    मिस्टर स्मिथ मज़ाक और व्यंग्य भी ख़ूब करता था। फिर ख़ूब ज़ोर से हँसना या मौन रह जाना उसे आता था। शुरू-शुरू में आर्यसमाज से प्रभावित रहने के कारण कपड़े पहनने और हज़ामत बनाने के मेरे, अपने नियम थे। मोटा खद्दर पहनना था, उसपर भी अक्सर धोती पहनकर दफ़्तर चला जाता। हज़ामत तो सात दिन में एक बार बनाता था।

    एक दिन वह मुझमे कहने लगा, मैं तुमको कुछ भेंट देना चाहता है—क्या लोगे?

    मैं मुस्कुरा कर रह गया। लेकिन वह मेरी तरफ़ देखता हुआ बड़ी गंभीरता में बोला, अच्छा, मैं बताऊँ—बाज़ार जाकर एक सेफ़्टी रेज़र ख़रीद लाओ। कहकर वह चुपचाप काग़ज़ों पर दस्तख़त करने लगा। उसके बाद हुआ यह कि मैं चौथे दिन शेव करने लगा।

    मिस्टर स्मिथ विश्वास करना भी जानता था और जब वह विश्वास करता था तो सोलहों आने विश्वास करता था। उसकी आमदनी और ख़र्च का हिसाब दफ़्तर का एक क्लर्क रखता था। लगभग तीन वर्ष तक उसने हिसाब नहीं दिया; और जब तीन वर्ष बाद हिसाब बना तो उसमें मिस्टर स्मिथ के नाम ढाई हज़ार रुपए निकलते थे। मिस्टर स्मिथ को उसे अस्वीकार करने का पूरा अधिकार था, फिर वह हिसाब भी साफ़ नहीं था। लेकिन उसने केवल एक वाक्य कहा, मुझे पहले बता देते, बाबू। और उसने पूरी रक़म का चेक काट दिया।

    फिर सात वर्ष तक में उसका हिसाब रखता रहा। उसके यहाँ से जाने के क्षण तक कोई ऐसा अवसर मुझे स्मरण नहीं है जब उसने कभी शंका का आभास तक होने दिया हो। उसकी पत्नी उसके विपरीत हिसाब समझने में विश्वास करती थी। उसके आने पर मिस्टर स्मिथ ने हँसकर मुझसे कहा था, अब तुम जानो और मेम साहब जानें। लेकिन मुझे याद है जब कोई बात उसतक पहुँची उसने सदा मेरा पक्ष दिया। जब तक वह मेम साहब से यही कहा करता था, नहीं, नहीं, हमें उनकी बात मान लेनी चाहिए।

    शायद पीठ पीछे मेम साहब उन पर नाराज़ होती हो, पर मुझ पर वह कभी नाराज़ नहीं हुई।

    मिस्टर-स्मिथ नाराज़ होना नहीं जानता था सो बात नहीं। वह मेरी बेवक़ूफ़ियों पर भी चीख़ा है, पर अक्सर वह उन्हें सड़ जाता था। एक दिन उसने मुझसे कुछ कहा। मैं समझ सका। कई बार कहने पर भी नहीं समझा। तब वह चिनचिनाया नहीं बल्कि शांत भाव से प्राइमरी के शिक्षक की तरह बोला।

    टैल—समझे?

    जी।

    गुप्ता—समझे?

    जी।

    आई-समझे?

    जी।

    एम—समझे?

    जी।.

    गोइंग—समझे?

    जी।

    टैल गुप्ता आई एम गोइंग (गुप्ता से कहो में जा रहा हूँ)। कहकर वह गहरी आत्मीयता से मुस्कुरा उठा।

    वह मुस्कुराहट आज भी मेरे दिल में तड़प उठती है। यह सचमुच इंसान था उस प्रकार का इंसान जिनके मस्तिष्क की अधिकतर मिट्टी विधाता हृदय में रख देते हैं।

    अफ़सर की सलाम की भूख प्रसिद्ध है, पर उसने कभी ही किसी को पहले नमस्कार करने का अवसर दिया होगा। हर किसी को दूर से देखते हो वह मुस्कुरा कर पुकार उठता, गुड मार्निंग!

    वह अपने अफ़सरों से भी लड़ पड़ता था। वह अपने विरोधियों को पहचानता था। वह किसी के आगे झुकता नहीं था। वैसे वह अभिमानी भी कम था। लेकिन उसकी यह भावना स्वाभिमान कही जा सकती है, घमंड नहीं। इसी स्वाभिमान के कारण एक दिन उसने इस्तीफ़ा दे दिया और इंग्लैंड चला गया।

    वह 1938 की बात है। तब 1935 के क़ानून के अधीन भारत में नए चुनाव हुए थे और प्रांतों में प्रजातंत्री सरकारें बनी थीं। वह हिंदुस्तानी वज़ीरों से डरता था या नफ़रत करता था, यह बात नहीं। उसने साफ़-साफ़ कहा था कि वह हिंदुस्तानियों के शासन में काम कर सकता है। वह गाँधीजी का बड़ा प्रशंसक था। लेकिन नेहरू उसे पसंद नहीं थे।

    हिंदू धर्म के बारे में भी उसने माँगकर पुस्तकें पढ़ी थीं। वह परिग्रह और त्याग में अधिक विश्वास नहीं करता था, तो भी वह भारतीय संस्कृति का प्रशंसक था और भारतीयों का भी। नगर में अनेक हिंदू-मुसलमान उसके मित्र थे।

    कई कारणों से नए कॉन्ट्रैक्ट के बारे में सर छोटूराम से उसका समझौता हो सका। वह लंबी कहानी है। शब्दों की बात उतनी नहीं थी जितनी भावनाओं की। फिर कहते है कि उसकी पत्नी अधिक दृढ़ थी। उसने मिस्टर स्मिथ को इस्तीफ़ा देने की राय दी। इस्तीफ़ा पेश हुआ और स्वीकृत भी। उन दिनों की उसकी मानसिक स्थिति का मैं साक्षी रहा हूँ। जाने से लगभग साल भर पूर्व वसंतोत्सव के अवसर पर भाषण देते हुए वह रो पड़ा था—अगले साल मैं तुम लोगों के बीच नहीं रहूँगा।

    शायद वह भावुक था क्योंकि जब उसका इस्तीफ़ा स्वीकृत होने की चिठ्ठी मैंने उसके सामने रखी तो वह जैसे खो गया हो। वह तब एक डाक बँगले में मेज़ के पास बैठा था। उसने कई क्षण उस पत्र को देखा, देखता रहा, फिर धीरे-धीरे अस्फुट स्वर में बोला, अच्छा हुआ, मैं यही चाहता था शायद मैं यही चाहता था।

    फिर दृष्टि उठाकर उसने मुझे देखा जैसे मेरी स्वीकृति चाहता हो। पर मैं कुछ भी कह सका। मैं एक साधारण क्लर्क था और वह आला अफ़सर। उसे मैं कैसे और क्या कहकर सांत्वना देता। और शायद वह भी सोच रहा था कि आख़िर सांत्वना क्यों दूँ—अँग्रेज़ है इसे जाना ही चाहिए।

    लेकिन कुछ भी हो, उसके जाने का दिन पास आने लगा। वह ऊपर से बड़ा शांत रहता था, लेकिन जब तब उसके आँसू उसे धोखा दे ही जाते थे और तब लंबी बाँहों की कोहनियों से उन्हें पोछता हुआ वह मुस्कुराने की चेष्टा किया करता था। उस क्षण उसका वह लंबा और लाल मुख, हास्य और रुदन के उस अप्रत्याशित सम्मिलन से, नव वधू के मुख की तरह दीप्त हो उठता था और फिर दाँतों में होंठ काटता हुआ तेज़ी से वह वहाँ से चला जाता था।

    लेकिन जब मेम साहब चली गई तब वह अपने को रोक सका। बस कुछ दिन ही तो शेष थे और इन दिनों वह ख़ूब फूट-फूट कर रो लेना चाहता था। जब कोई उससे मिलने आता तो वह हाथ मिलाता-मिलाता काँपने लगता और यदि वह आगंतुक उसका काफ़ी परिचित होता तो वह उसकी छाती से चिपट कर फफक उठता था।

    जाने से पहले वह अपना सामान बेच रहा था। हिसाब सबका उसके पास था। वैसे भी उसने सबसे लिए पर जैसे यह सब यंत्रवत् होता था। उसका बस होता तो वह सब कुछ लुटा देता। वैसे लुटाने का अवसर वह चूका भी नहीं। नौकरों को बख़्शिश जाने कितनी बार मिली। बहुतों को वह भेंट दे गया। मेरे पास भी उसकी स्मृति है। कई बार उसने मुझे कई चीज़ें—दो घड़ी इत्यादि। पर आज मेरे पास उसकी दी हुई सुंदर मेज़ और खुली हुई अलमारी मुझे उन दिनों की याद दिलाती रहती है जब वह बस आँसूओं का समूह मात्र रह गया था।

    जाने से दो दिन पूर्व तो वह पागल-सा लगता था। उसकी आँखे सूज गई थी। वह हर किसी से, यहाँ तक कि दीवारों से भी चिपट-चिपट-कर रोता था। वह आगंतुकों से एक पूरा वाक्य नहीं बोल पाता था। वे सब में संत्वना देते। ख़ुशामदियों की तरह प्रशस्ति करने पर वह रोता रहता। आख़िरी दिन सारा फ़ार्म और नगर वहाँ उमड़ आया था। वह एक लोकप्रिय अफ़सर था। वह अंतिम क्षण तक काम करता रहा। जब मैंने आख़िरी बार उसका हिसाब उसे समझाया, आख़िरी बार रुपए उसे दिए, तो उसने ज़ोर से अपना सिर मेज़ पर दे मारा और बार-बार मारता रहा ज़ोर-ज़ोर से रोता रहा, चीख़ता रहा, मैं तब स्वयं अपने बस में नहीं था। सब बुत बने खड़े थे।

    और फिर वह क्षण आया जब उसे मोटर में बैठना था। बाहर सैकड़ों लोग जमा थे। वह नीचे उतरा। उसने अपने बँगले को देखा अंतिम बार देखा। उस दृष्टि में शायद हमरत थी, शायद करुणा भी थी, पर ऊपर से वह शांत था उसने एक-एक से हाथ मिलाना शुरू किया, लेकिन दो मिनिट बाद ही क्या देखता हूँ कि वह रोता हुआ तेज़ी से मोटर की ओर भाग रहा है। वह मोटर में बैठा और उसके साथी ने तेज़ी से मोटर को दिल्ली की सड़क की ओर घुमा दिया।

    यह सब क्षण के बहुत छोटे भाग में हो गया। जब सब लोग जागे तो वहीं बस धूल और गंध फैली हुई थी। लोग तरह-तरह की बातें करते चले गए। कोई विशेष बात नहीं थी एक अफ़सर गया था और वह भी अँग्रेज़। थोड़ी देर चर्चा हुई और फिर सब कुछ समाप्त हो गया। लेकिन आज सोलह वर्ष बाद में जब उस दृश्य की याद करता हूँ तो अपने आपसे पूछ उठता हूँ: क्या वह केवल एक अँग्रेज़ अफ़सर ही था? क्या वह केवल एक साम्राज्यवादी ही था? क्या वह इंसान नहीं था?

    मुझे लगता है वह सब कुछ था, लेकिन इस सब कुछ के साथ वह इंसान भी था ऐसा इंसान जिसकी इंसानियत रूपांतरित होकर प्रगति की राह की नींव बनती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जाने-अनजाने (पृष्ठ 28)
    • रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
    • प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन
    • संस्करण : 1961

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