विष्णु प्रभाकर के संस्मरण
महाप्राण निराला : एक संस्मरण
निरालाजी का स्मरण आते ही अक्टूबर 1936 की संध्या का एक दृश्य सहसा आँखों में उभर आता है। उस वर्ष हिंदी-साहित्य-सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन काशी में हुआ था। सभापति थे संपादकाचार्य पंडित अंबिकाप्रसाद बाजपेयी और स्वागताध्यक्ष महामना पंडित मदनमोहन मालवीय। निरालाजी
सबके दद्दा
उस दिन चिरगाँव से भाई चारुशीला शरण गुप्त ने लिखा था—"प्रथम पूज्य भैया के बिना और अब पूज्य दद्दा के बिना जीवन में वह उल्लास कहाँ रह गया है? इन दोनों अँग्रज़ों का पचास वर्षों से ऊपर का निरंतर का संग-साथ अब स्वप्न की-सी बात रह गई है। रिक्तता-ही-रिक्तता
मिस्टर स्मिथ
मिस्टर स्मिथ को पहली बार मैंने कब देखा, यह तो ठीक याद नहीं पर जिस पहली मुलाक़ात की धुँधली-सी याद आज शेष रह गई है उसने उसकी शान और शराफ़त दोनों का काफ़ी प्रभाव मुझ पर छोड़ा है। उसका विशाल शरीर, जो शक्ति और सहानुभूति दोनों का आगार था, हर किसी को भय और
एक नेत्रहीन की दृष्टि : एक चित्र
खेतिया नेत्रहीन था। वह आज जीवित है या नहीं, यह बात कोई अर्थ नहीं रखती, क्योंकि उसका चित्र मेरे मन पर इस प्रकार अंकित हो गया है कि मिटाए नहीं मिट सकता। मैंने उसे पहली बार सन् 24 में देखा था और अंतिम बार 1963 में। काल की दृष्टि से ही मैं पहली और अंतिम
महात्मा भगवानदीन
6 नवंबर को तार आया कि 4 नवंबर 1962 को दिन के दो बजे महात्मा भगवानदीन चले गए। आयु 80 वर्ष की थी, इसलिए जाने का बहुत अफ़सोस नहीं हो सकता और यूँ भी मृत्यु शोक का कारण नहीं है, मुक्ति ही वह देती है। नाश के बाद ही नया अंकुर फूटता है। फिर उनका जीवन तो एक
जैनेंद्रकुमार
मुझे ठीक याद नहीं, परंतु वह सन् 1930 के आसपास की बात है। मैं पंजाब के एक पूर्वी नगर में रहता था। एक दिन बैठक में बैठा हुआ कोई उपन्यास पढ़ रहा था कि एक प्रौढ़ महिला ने बिना किसी संकोच के वहाँ प्रवेश किया। मुझे उनका रूप आज भी स्मरण है—लंबा क़द, धवल वस्त्र,
जिनके नयनों में स्वर्ग है
1955 की वासंती संध्या, 22 फ़रवरी, मंगलवार, तीन बजे होंगे। सहसा टेलीफ़ोन की घंटी बज उठी, सदा बजती रहती है। पर दो क्षण बाद क्या देखता हूँ कि यशपालभाई प्रसन्न होकर मुझसे कह रहे हैं, "राष्ट्रपति भवन चलना है।" "क्यों? क्या है वहाँ?" "बहुत ही महत्वपूर्ण