हिंदू तुरक सुनो रे भाई
hindu turak suno re bhai
हिंदू तुरक सुनो रे भाई, काहू से मत होहु दुख दाई।
बीज्या होहि उधारा देणा, किया न कांठे जाई॥टेक॥
मार हिं जीव सोच बिन सौदा, मन सुख माँस गरासै।
लेखा लियूँ लखोगो प्राणी, यहु न टलैगी हाँसै॥
पग की पीड़ अश्म करि उन्हो, दुख ऊपरि सु लगाया।
संग पुकार सुनी साँई ने, हज़रत दाँत तुड़ाया॥
जौ की रोटी भाजी सेती, मुहमद उमर गुज़ारी।
आगे जवाब जबह का माँगै, यूँ कर करद न धारी॥
ऋषि रहते जंगल जाय बैठे, झड़े पड़े फल खाए।
जठर अग्नि जुगति सौं टाली, जीव न जगत सताये॥
हुये हमाय ओलिया साधू, बेअजार सुखदाई।
जन रज्जब उनकी छाया में, महर दया तिन पाई॥
हिंदू और मुसलमान भाइयो! हमारी बात सुनो—तुम किसी के लिए भी दुःखदाई मत बनो। जैसे बोया हुआ उगता है, उधार दिया गया वापस आता है, वैसे ही अपने किए कर्म का फल अपने पास ही आता है, दूर नहीं जाता। लोग अपनी जीभ के लिए जीवों को मार कर माँस खाते हैं, यह व्यापार उनका बिना विचार का है। हे हिंसक प्राणियो! जब तुमसे हिसाब लिया जाएगा, तब तुम देखोगे कि तुम्हारे हिंसा-कर्म का फल तुम्हें कितना दुःख देगा। यह सज़ा हँसी से नहीं टलेगी, रोते हुए तुम्हें भोगनी ही पड़ेगी। हज़रत मुहम्मद ने अपने पैर की पीड़ा पर पत्थर को गर्म करके लगाया था। उस पत्थर की पुकार प्रभु ने सुनी और उसी पत्थर से हज़रत के दाँत तुड़ाए थे। मुहम्मद ने जौ की रोटी शाक से खाकर अपनी आयु व्यतीत की थी। वे जानते थे कि जीव हिंसा का जवाब आगे माँगा जाएगा, इसी कारण जीवों को मार कर खाने के लिए उन्होंने अपने हाथ में तलवार नहीं उठाई। ऋषि जन वन में जा बैठे थे और हिंसा से रहित रहते थे। अपने आप झड़ कर पड़े हुए फल खाते थे। वे अपनी जठराग्नि को युक्ति से शांत करते थे, उन्होंने जगत के जीवों को नहीं सताया था। साधु-संत तो हमा पक्षी के समान परोपकारी, हिंसा-रोग से रहित सबके सुख दाता ही हुए हैं। साधु-संतों की शरण जाकर तो जीवों ने उनकी कृपा ही प्राप्त की है।
- पुस्तक : श्री रज्जब वाणी (पृष्ठ 1051)
- संपादक : रत्न स्वामी नारायणदास
- रचनाकार : रज्जब
- प्रकाशन : संत साहित्य प्रकाशन
- संस्करण : 1980
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