साधौ भाई माया भरम बढ़ाया।
माया अद्भुत जाणो भाई, अजब गजब की माया।
एक मिलावे राम हरि संग, एक राम बिलमाया॥
माया को परदो नहीं खोल्यो, माया खूब पचाया।
ना तो दीखे ना पतरीखे, ना छाया ना काया॥
हाथ पकड़ मारग लै चाले, माया वाट भुलाया।
तीन देव माया के पंजे, माया खूब नचाया॥
माया विश्वामित ने मोहयो, नारद ने भरमाया।
पांडे कर ली घर की घरनी, हँस-हँस खूब लुभाया॥
भोग भरम में सब धन लुट्यो, तन धन मान गंवाया।
सतगुरू ने जद आँख उघाड़ी, तो पाछे पछताया॥
बिलख-बिलख ने बक्का फाड़े, सद्गुरु धीर बँधाया।
माया की करणी ना जाणी, जिण जाय तिण खाया॥
माया नागण बण घट भीतर, बांबी विवर बणाया।
सद्गुरु अणहद नाद बजायो, झट बाहर ले आया॥
सैन भगत सद्गुरु किरपा ने, माया भरम नसाया।
साधौ भाई माया भरम बढ़ाया॥
साधौ भाई! इस माया ने बहुत भ्रम उत्पन्न किया है। यह अद्भुत है। माया की माया भी अद्भुत है। माया के दो रूप हैं—एक सकारी दूसरा नकारी। एक माया राम-हरि से मेल करवाती है। वही माया हरि से विलग करवाती है। माया का पर्दा कोई नहीं खोल सका। इस माया ने सबको ख़ूब छकाया है। यह न तो नज़र आती है और न विश्वास योग्य है। यह न छाया है न काया है। यही हाथ पकड़कर सुमार्ग पर चलाती है। यह मार्ग से भटकाती है। तीनों देव इसी माया के वश में हैं। माया के बिना उनका प्रभाव समाप्त हो जाता है। उन्हें भी माया ने ख़ूब नाच नचाया है। माया ने ही विश्वामित्र को मोह लिया और उसी माया ने नारद को भटका दिया। दोनों महाऋषि माया के वशीभूत हो गए। पांडे ने उसे अपनी घरवाली बना लिया और हँस-हँसकर ख़ूब लुभाता रहा। भोग-भ्रम में सब धन खुट गया। तन-धन और मान गँवा बैठा। जब सद्गुरु ने आँखें खोलकर भान करवाया, तब फिर पछताने लगा। किंतु सब खोकर पछताने से क्या लाभ? बिलख-बिलखकर ज़ोर-ज़ोर से विलाप करके रोने लगा। सद्गुरू ने धैर्य बँधवाया। माया की करणी अद्भुत है। इसे कोई नहीं जान सकता। यही माया उत्पन्न करती है, यही विनाश भी करती है। सृजन विनाश की लीला इसी की है। यह तो नागिन की तरह घट-घट में बैठ जाती है और वह मुकाम लगा लेती है। सद्गुरु अनहद नाद बजा कर इसे बाहर निकाल सकते हैं। सैन कहते हैं—सद्गुरू की कृपा ने ही माया का भ्रम दूर किया है।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 312)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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