सबहिन के हम सबै हमारे
sabhin ke hum sabai hamare
सबहिन के हम सबै हमारे। जीव जंतु मोहि लगै पियारे।
तीनों लोक हमारी माया। अंत कतहुँ से कोइ नहि लाया।
छत्तिस पवन हमारी जात। हमहीं दिन और हमही रात।
हमहीं तरवर कीट पतंगा। हमहीं दुर्गा हमहीं गंगा।
हमहीं मुल्ला हमहीं क़ाज़ी। तीरथ वरत हमारो बाज़ी।
हमहीं पंडित हमीं बैरागी। हमहीं सूम हमीं हैं त्यागी।
हमहीं देव औ हमही दानौ। भावै जा को जैसा मानों।
हमहीं चोर हमहीं, बटमार। हम ऊँचे चढ़ि करै पुकार।
हमहीं महावत हमहीं हाथी। हमहीं पाप पुन्न के साथी।
हमहीं अस्व हमहीं असवार। हमही दास हमहीं सरदार।
हमहीं सूरज हमहीं चंदा। हमहीं भये नंद के नंदा।
हमहीं दसरथ हमहीं राम। हमरे क्रोध हमारे काम।
हमह रावन हमहीं कंस। हमहीं मारा अपना बंस।
हमही जियावैं हमहीं मारैं। हमहीं बोरैं हमहीं तारैं।
जहाँ तहाँ सब जोति हमारी। हमहीं पुरुष हम्ही है नारी।
ऐसी बिधि कोई लव लावै। सो अविगत से टहल करावै।
सहै कुसब्द और सुमिरै नांव। सब जग देखै एकै भाव।
या पद का कोई करै निबेरा। कह मलूक मैं ता का चेरा।
- पुस्तक : संत कवि मलूकदास (पृष्ठ 77)
- संपादक : त्रिलोकी नारायण दीक्षित
- रचनाकार : मलुकदास
- प्रकाशन : अखिल भारतीय संत मलूकदास स्मारक समिति, प्रयाग
- संस्करण : 1965
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