सद्गुरु ने साहिब दरसायो।
दक्खन ती उत्तर तई भरम्यो, पूरब ती पच्छिम में आयो।
चौपाला अर चौक चौकड़े, ऊँचा सुर में हरिगुण गायो॥
वेद पुराण सुण्या अर गुण्या, मन मूरखड़ो हमज नी पायो।
दरसन परसन करतो फरयो, डेहरी द्वारे सीस नमायो॥
साहिब का दरसन नी होया, पंडे मौलवी नहीं बतायो।
भटक-भटक गुरु सरणा आयो, सेना सद्गुरु दरस करायो॥
मुझे सद्गुरू की कृपा से प्रभु के दर्शन हुए। मैं दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम तक भ्रमपूर्वक जाता-आता रहा। चौपालों और चौक चौराहों पर ऊँचे स्वर में ख़ूब हरिगुण गाए। वेद-पुराण सुने, उन्हें समझा-जाना; फिर भी यह मूर्ख मन कुछ भी नहीं समझ पाया। ख़ूब दर्शन, चरण स्पर्श किए। ख़ूब मत्था टेका। देहरी-देहरी, द्वार-द्वार जाकर शीश नवाया। साहिब के दर्शन नहीं हुए। न स्वरूप साकार पूजने वाले पंडे दर्शन करा सके और न निराकार को मानने वाले मौलवी दीदार करवा सके। भटक-भटककर अन्तत: निराश होकर सद्गुरू की शरण गया। सद्गुरू ने साहिब के दर्शन करवा दिए।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 294)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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