जब सू मन चंचल घर आया
jab suu man cha.nchal ghar aaya
जब सू मन चंचल घर आया।
निर्मल भया मैल गये सगरे तीरथ ध्यान जो न्हाया॥
निर्बासा ह्वै आनंद पाये या जग सूँ मुख मोड़ा।
पांचौ भई सहज बस मेरे जब इनका रस छोड़ा॥
भय सब छूटै अब को लूटै दूजी आस न कोई।
सिमिटि-सिमिटि रहा अपने माहिं सकल विकल नहिं होई।
निज मन हुआ मिटि गम दूआ को बैरी को मीता।
बंधु मुक्ति का संसय नाहीं जन्म मरन की चीता॥
गरू सुकदेव मेव मोहि दोनों जब सूँ यह गति साधी।
चरनदास सूं ठाकुर हुए बुटि गये बाद बिबादी॥
- पुस्तक : हिंदी के जनपद संत (पृष्ठ 182)
- रचनाकार : चरनदास
- प्रकाशन : मोेतीलाल बनारसी, दिल्ली
- संस्करण : 1963
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