तीर्थ बर्त कर्म रचि राखा
teerth bart karm rachi rakha
तीर्थ बर्त कर्म रचि राखा। करि खटकर्म ग्यान नहिं भाखा॥
जोगी जती भूले सभ आई। खट दर्सन मिलि पंथ चलाई।
काल हिंडोला सभ मिलि झूला। भेख धरी पढ़ि पंडित फूला॥
सतगुर बिना कर्म नहिं छूटे। धरि धरि काल भवन में लूटे॥
बिमल नाम मल कबहिं न लागे। भौ परगट परिमल रंग जागे॥
काल ने जीवों को संसार में उलझाए रखने के लिए तीर्थ, व्रत तथा स्नान, संध्या, पूजा, जप, तप, हवन आदि षट्कर्म बना रखे हैं। इन्हीं सब कर्मों में योगी तथा संन्यासी भी भूले हुए हैं। काल के इस झूले में सब झूल रहे हैं। पंडित ग्रंथों को पढ़कर और तरह-तरह के वेश धारण करके फूले नहीं समाते। सतगुरु के बिना कर्मों से छुटकारा नहीं मिलता; संसार में काल पकड़-पकड़कर लूटता है। परमात्मा के निर्मल नाम से जुड़ जाने पर फिर कभी दुनिया की मैल नहीं लगती और अंतर में नाम की पवित्र सुगंध जाग जाती है।
- पुस्तक : संत दरिया (बिहार वाले) (पृष्ठ 135)
- संपादक : काशीनाथ उपाध्याय
- रचनाकार : संत दरिया (बिहार वाले)
- प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास, पंजाब
- संस्करण : 2016
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