पंडित भल चारों वेद पढ़े।
गीता ज्ञान भागवत बाँची, जहाँ मछली तहाँ लेत खड़े।
कर अस्नान अचार रसोई, हाँड़ी भीतर हाड़ सड़े॥
भोजन कर जजमान जिमाये, दछिना कारन जाय अड़े।
बकरा मार भवानी पूजें, मूँड़ टका बिन गाज पड़े॥
यह अनीत आसा तन खोया, पंडित नर्क से नाहिं कढ़े।
चार बरन में ऊँचे ठिकाना, जग में मोटे कहत बड़े॥
ब्रह्म चीन्ह सोइ ब्राह्मण कहिये, गज़ब जहन्नुम जाय गड़े।
तुलसी पाप पुन्य के मैले, दान धरम मद मोह मढ़े॥
पंडित भले ही चारों वेदों को पढ़ लें, किंतु उससे क्या होता है? वे गीता, ज्ञान की पुस्तकें और भागवत भी पढ़ते हैं, किंतु मछली ख़रीदने के लिए इधर-उधर या ऐसी वैसी जगह खड़े हो जाते हैं। वे स्नान करके यानी बाहरी सफ़ाई करके और लोक धर्म के अनुसार यानी पूरी छुआछूत के साथ भोजन बनाते हैं और अपनी हाँडी में माँस पकाते हैं। वे स्वयं मांसाहार करके फिर यज्ञ करने वालों को भोजन कराते हैं, किंतु उन्हें दक्षिणा देने में आनाकानी करते हैं। वे बकरे की बलि देकर भवानी की पूजा करते हैं, किंतु एक टका दक्षिणा देने में मानो उनके मुँडाऐ सिर पर बिजली गिरती हो, यह अन्याय है। उनके तन में अनेक चाहें भरी हुई हैं, ऐसे व्यक्ति पंडित होते हुए भी नर्क में जा गिरते हैं। चार वर्ण यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में वे अपने को सबसे उत्तम मानते हैं और संसार में महान कहलाते हैं। तुलसी साहब कहते हैं कि ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को पहचानता है, किंतु ये पंडित तो पाप पुण्य कर्मों में पड़े हुए और दान व धर्म करके उसके अभिमान व मोह में ओत-पोत हैं और भयानक नर्क में जाकर ऐसे गड़ जाते हैं कि वहाँ से निकलना मुश्किल है।
- पुस्तक : तुलसी साहब (हाथरस वाले) की बानी (पृष्ठ 62)
- संपादक : ज्ञान दास माहेश्वरी
- रचनाकार : तुलसी साहब
- प्रकाशन : स्वामी बाग, आगरा
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